7.
पद्मिनी प्रकरण का छिताई वार्ता में उल्लेख भी यह भी प्रमाणित करता है कि जायसी के पद्मावत से पूर्व यह कथा बीजक लोक में प्रचलन में था. आरंभ में इस रचना के समय को लेकर अनिश्चय रहा. बीकानेर के खरतरगच्छीय ज्ञान भंडार और प्रयाग म्यूनिसिपल म्यूजियम की कुल दो प्रतियों को आधार बनाकर माताप्रसाद गुप्त के संपादन में छिताई वार्ता के नाम से इसका प्रकाशन 1958 ई. हुआ.40
एक तो ये दोनों प्रतियाँ अधूरी थीं और दूसरे, इनका पाठ भी भ्रष्ट था. विद्वानों ने इस आधार पर इस रचना के कुछ अंशों को प्रक्षिप्त मानकर इसको पद्मावत के बाद की रचना मान लिया. इसका परिचय देते हुए रुद्र काशिकेय ने ही इसको पद्मावत परवर्ती रचना सिद्ध करते हुए लिखा कि
“चूँकि फ़रिश्ता ने अपना इतिहास जायसी के सत्तर बरस बाद लिखा, इसलिए बहुत संभव है नारायणदास ने जिस समय छिताई वार्ता की रचना की उस समय पद्मावत ही उनके सामने मौजूद हो और तब निश्चय ही पद्मिनी की कहानी उन्हें पद्मावत से ही ज्ञात हुई होगी.”41
रुद्र काशिकेय ने इस रचना के प्रतिलिपिकाल 1590 ई. (वि.सं.1647) के आधार इसकी रचना इसके बीस वर्ष पहले 1570 ई. (वि.सं.1627) में मानी है.42 छिताई वार्ता को पद्मावत के बाद की रचना मानने का रूद्र काशिकेय का आग्रह सही नहीं है. मुश्किल यह है कि वे छिताई वार्ता के अंतःसाक्ष्य के बजाय उसमें उल्लिखित पद्मिनी विषयक कथा बीजक के आधार पर इसको पद्मावत परवर्ती रचना सिद्ध करते हैं, जो युक्तिसंगत नहीं लगता. माताप्रसाद गुप्त ने नारायणदास की छिताई वार्ता का समय सारंगपुर के शासक सलाहुद्दीन (सलहदी तँवर) संबंधी बाबर की आत्मकथा के उल्लेख के आधार पर 1526 ई. (वि.सं. 1583) माना है.43
छिताई वार्ता में इसकी रचना के समय का उल्लेख इस प्रकार है- पंद्रह सइ रु तिरासी माता. कछूक सुनी पछली बाता॥ सुदि आषाढ़ सातइं तिथि गई. कथा छिताई जंपन लई॥44
इतिहासकार दशरथ शर्मा ने भी इसके आधार पर लिखा है कि
“सलहदी (सलाउद्दीन) की मृत्यु 6 मई, 1532 ई. को हुई. इससे स्पष्ट है कि छिताई चरित की रचना इससे पूर्व हुई होगी.”45
माताप्रसाद गुप्त की संपादित छिताई वार्ता के प्रकाशन और इसके रचना समय को लेकर हुए विवाद के बाद संयोग से अगरचंद नाहटा को होशियारपुर के साधु आश्रम स्थित विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान से इसकी पूर्ण प्रति मिल गई. उपलब्ध तीन प्रतियों के आधार पर हरिहरनिवास द्विवेदी और अगरचंद नाहटा के संपादन में 1960 ई. में छिताईचरित नाम से इसका ग्वालियर से प्रकाशन हुआ. प्रस्तावना में इसके रचनाकाल को लेकर सभी संदेहों को दूर करते हुए हरिहरनिवास द्विवेदी ने इसके अंतःसाक्ष्यों के आधार पर इसको लगभग 1475-1480 ई. के बीच की रचना सिद्ध किया.46 छिताई कथा को आधार बनाकर काव्य रचना करने वाले चार कवि- नारायणदास, रतनरंग, देवचंद्र और जान कवि हैं. रतनरंग और देवचंद्र ने नारायणदास की रचना में अपनी तरफ़ से कुछ जोड़कर इसको केवल नया रूप दिया है, जबकि जान कवि की रचना तीनों से सर्वथा स्वतंत्र और अलग है. छिताई वार्ता या चरित दरअसल नारायणदास, रतनरंग और देवचंद्र की संयुक्त रचना है. रतनरंग नारायणदास का शिष्य था, जबकि देवचंद्र उसका समकालीन था. अंतःसाक्ष्यों से लगता है कि नारायणदास ने 1480 ई. आसपास इसको ग्वालियर में लिखा और 1526 ई. सारंगपुर में उसने इसको खेमचंद को सुनाया (कथा छिताई जंपन लई). यहाँ इसी समय देवचंद्र ने इसको सुना और उसने बाद में अपनी तरह से इसका पुनर्लेखन किया. देवचंद्र ने छिताई वार्ता की अपनी प्रस्तावना में लिखा है कि- जइसी सिनी खेमचंद पासा. तैसी कवियन कही प्रगासा. अर्थात् इस कथा को जिस रूप में मैंने खेमचंद्र के पास सुनी थी उसे उस रूप में कविजन को लिखकर सुनाई थी.47
आगे उसने और लिखा कि- आधी कथा नराइन कही. संपूरन दिउचंद उचरी. अर्थात् आधी कथा नारायणदास ने कही थी. अब मैं देवचंद उसे पूरी कर रहा हूँ.48
हरिहरनिवास द्विवेदी के अनुसार खेमचंद्र ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर का सभासद था और आख्यानों का प्रेमी था. उसके आग्रह पर ही मानिक ने 1489 ई. बैताल पच्चीसी लिखी. मानसिंह का राज्यकाल 1480 से 1516 ई. तक है. इस तरह यह तय है कि
“किसी भी दशा में नारायणदास और देवचंद की रचनाएँ खेमचंद्र (1490 ई.) परवर्ती नहीं है.”49
नारायणदास के अपने रचित अंश में जिस तरह से मानसिंह निर्मित मान मंदिर के निर्माण का सजीव वर्णन (पंक्ति सं. 238 से 292) किया है, उससे यह लगता है कि नारायणदास ने स्वयं इसको बनते हुए देखा होगा. हरिनिवास द्विवेदी का अनुमान है कि मानसिंह ने मानमंदिर का निर्माण राज्यारोहण (1480 ई.) के बाद कम समय में ही पूरा कर लिया था.50
स्पष्ट है कि छिताई वार्ता या चरित्र की रचना जायसी के पद्मावत से पहले हुई और उसमें पद्मिनी विषयक कथा बीजक था. विजयदेवनारायण साही ने जायसी को इस प्रकरण का पहला और असाधारण कोटि का कवि सिद्ध करने के लिए ‘ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा’ की तर्ज़ पर छिताई वार्ता में पद्मिनीविषयक प्रकरण के उल्लेख को रतनरंग द्वारा प्रक्षिप्त मानने का आग्रह किया है, जो पूर्वाग्रह लगता है.51
माताप्रसाद गुप्त की संपादित छिताई वार्ता अपूर्ण और अस्पष्ट प्रतियों पर निर्भर थी, इसलिए साही का यह संदेह कुछ हद तक मान्य था, लेकिन अब होशियापुर की प्रति मिल जाने के बाद इस संदेह का कोई आधार नहीं बचता. पद्मिनीविषयक प्रकरण अब तक उपलब्ध सभी प्रतियों में है, इसलिए इसके नारायणदास रचित होने की संभावना ही ज़्यादा है. यदि यह अंश रतनरंग या देवचंद का प्रक्षिप्त भी हो, तो भी अंतःसाक्ष्यों से यह सिद्ध है कि ये दोनों भी या तो नारायणदास के समकालीन हैं या उसके आसपास के ही हैं. इस रचना के किस अंश का रचनाकार कौन है, यह तय करना बहुत मुश्किल काम है, लेकिन हरिहरनिवास द्विवेदी और अगरचंद नाहटा ने परिश्रमपूर्वक यह पहचान भी की है और उनके अनुसार इस रचना का पद्मिनीविषयक प्रकरण से संबंधित अंश नारायणदास द्वारा ही रचित है. कुल मिलाकर यह साफ़ है कि छिताई वार्ता या चरित पद्मावत से पूर्व की रचना है और इसमें आया पद्मिनी विषयक प्रकरण प्रक्षिप्त नहीं है. छिताई चरित में यह उल्लेख इस प्रकार है –
देवगिरि छोडि सौंरसी गईयो. पातसाहि मनु धओखौ भइयो.
मनमहि धोखौ उपनौ साहि. गई छिताए संगहि ताही॥422॥
ढोवा करति होइ दिन हारी. राधौचेतन लीलीयो हकारी.
मेरी कहिउ न मानइ राउ. बेटी देइ न छांडइ ठाऊं॥423॥
सेवा करई न कुत्बा पढई. अहै निसि जूझि बरबर चढई.
धसि सौंरसी देसतरु गयो. अति धोखौ मेरे जिय भयो॥424॥
रनथंभौर देवल लगि गयो. मेरो काज न एकौ भयो.
इउं बोलइ ढीली कौ धनी. मइ चित्तौर सुनी पदुमिनी॥425॥
बंध्यौ रतनसेन मइ जाइ. लइगो बादिल ताहि छंडाइ.
जो अबके न छिताई लेऊं. तो यह सीस देवगिरि देऊं॥426॥
अर्थात् बादशाह के मन में संदेह हो गया (उसे यह समाचार मिल गया) कि समरसिंह देवगिरि छोड़ कर चला गया है. बादशाह को यह संदेह भी हुआ कि उसके साथ छिताई भी चली गई है. (422) आक्रमण करते हुए दिन नष्ट (हारी) हो रहे हैं (यह जानकर उसने) राघवचेतन को बुलाया. (बादशाह ने राघवचेतन को कहा कि राजा (रामदेव) मेरा कहा नहीं मानता. वह न बेटी देता है और न स्थान छोड़ता है. (423) वह न सेवा करता है, और न (अधीनतासूचक) ख़ुत्बा पढ़ता है. समरसिंह निकलकर देशांतर चला गया है. इससे मेरे जी में अत्यंत धोखा हुआ है. (424) “मैं देवल (देवी) के लिए रणथंभौर गया; किंतु मेरा एक भी काम सिद्ध नहीं हुआ.” (फिर) दिल्ली के स्वामी ने कहा, “मैंने चित्तौड़ में पद्मिनी के संबंध में सुना. (425) मैंने जाकर रत्नसेन को बाँध लिया, किंतु बादल उसे छुडा ले गया. जो अबकी बार मैंने छिताई को न लिया, तो यह सिर मैं देवगिरी को अर्पित करूँगा.”(426)52 स्पष्ट है कि छिताई वार्ता या चरित की रचना जायसी की पद्मावत (1540 ई.) के पहले लगभग 1475-1480 ई. के बीच कभी हुई और इसके रचनाकार ने इसमें पद्मिनी प्रकरण के कथा बीजक का इस्तेमाल किया था. संभावना यही है कि जायसी से पहले यह कथा बीजक लोक की स्मृति में मौखिक और लिखित, दोनों रूपों में मौजूद था और यह यहीं से छिताई वार्ता या चरित में आया और इसी को आधार बनाकर जायसी और हेमरतन सहित अन्य कवि-आख्यानकारों ने अपनी रचनाएँ कीं.
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण (1303 ई.) संबंधी देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य की सुदीर्घ परंपरा लोक में सदियों से प्रचलित कथा बीजक पर आधारित है और इनकी जायसी के पद्मावत (1540 ई.) पर निर्भरता की धारणा सर्वथा निराधार है. यह धारणा उन ‘आधुनिक’ इतिहासकारों-विद्वानों ने बनायी है, जिन्हें लोक में स्मृति के व्यवहार के ख़ास ढंग और इस प्रकरण से संबंधित देशज कथा-काव्यों के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी. पद्मावत की ख्याति इसकी रचना के पचास वर्ष में ही जायस से सुदूर राजस्थान में पहुँच गई, यह विश्वसनीय नहीं लगता. जायसी कवि तो बड़े थे, लेकिन वे बहुत लोकप्रिय नहीं थे- उनका उल्लेख पारंपरिक इतिहास और सांप्रदायिक साहित्य में नहीं मिलता. राजस्थान, पंजाब और गुजरात, जहाँ पारंपरिक पद्मिनी-कथा-काव्यों की रचना हुईं, के ग्रंथागारों में पद्मावत की कोई प्रति नहीं मिलती. इन कथा-काव्यों के रचनाकारों ने पद्मावत को कहीं भी उद्धृत नहीं किया, जबकि पारंपरिक कथा-काव्यों में पूर्व की संबंधित रचनाओं के प्रसिद्ध कथनों का उद्धृत करने की परंपरा थी. इस कथा बीजक के आधार पर जायसी ने 1540 ई. में और हेमरतन 1588 ई. में अपनी रचनाएँ कीं, लेकिन इससे पूर्व भी इस बीजक को कथा-काव्य का स्वरूप देने के उपक्रम होते रहे थे. इन दोनों से प्राचीन गोरा-बादल कवित्त नामक रचना उपलब्ध है. पद्मिनी प्रकरण का छिताईचरित (1475-1480 ई.) में उल्लेख भी यह भी प्रमाणित करता है कि जायसी के पद्मावत से पूर्व यह कथा बीजक लोक में प्रचलन में था. परवर्ती इस्लामी इतिहासकार मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता, अबुल फ़ज़ल और हाजी उद्दबीर के पद्मिनी संबंधी प्रकरण वृत्तांत भी जायसी की पद्मावत के बजाय पारंपरिक कथा बीजक या पारंपरिक देशज आख्यानों-ख्यातों पर निर्भर हैं.
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संदर्भ और टिप्पणियाँ :
1. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास (जोधपुर: राजस्थानी ग्रंथागार,1996-97), 190.
2. जेम्स टॉड, “ऑथर्स इंट्रोडक्शन”, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, संपा. विलियम क्रूक (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 1971, प्रथम संस्करण 1920), 1: IXII.
3. टॉड, वही, 1:307.
4. श्यामलदास, वीरविनोद-मेवाड़ का इतिहास (दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 1986, प्रथम संस्करण 1886), 1: 286.
5. वही, 286.
6. वि.ए. स्मिथ, ओक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (लंदन: ओक्सफ़ोर्ड, संशोधित संस्करण 1921). 233.
7. ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास. 190.
8. वही, 187.
9. वही, 190.
10. किशोरीशरण लाल, हिस्ट्री ऑफ़ ख़लजीज़ (मुबई: एशिया पब्लिकेशन हाउस,1967), 122.
11. कालिकारंजन कानूनगो, स्टीडीज़ इन राजपूत हिस्ट्री (दिल्ली: एस चंद एंड कंपनी, 1960), 1.
12. वही,19.
13. इरफ़ान हबीब और हरबंश मुखिया ने फ़िल्म पदमावत पर विवाद के दौरान अपने विचार नितिन रामपाल की स्टोरी (“पदमावती कंट्रोवर्सी: हिस्ट्री इज एट रिस्क ऑफ़ बीइंग ट्रेप्ड बिटविन लेफ्ट राइट इंटरप्रिटेशंस ऑफ़ दी पास्ट,” फर्स्ट पोस्ट, 21 सितंबर 2019, https://www.firstpost.com/india/padmavati-controversy-history-is-at-risk-of-being-trapped-between-left-right-interpretations-of-the-past-4225695.html) में व्यक्त किए.
14. रजत दत्ता, “रानी पदमिनी: ए क्लासिक केस ऑफ़ हाउ लोर वाज इंसरटेड इन टू हिस्ट्री,” दि वायर, 1 दिसंबर 2017, https://thewire.in/200992/rani-padmini-classic-case-lore-inserted-history/.
15. रम्या श्रीनिवासन, दि मेनी लाइव्ज़ ऑफ़ ए राजपूत क्वीन (सिएटले: युनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन प्रेस, 2007), 3.
16. जार्ज अब्राहम गियर्सन, दि मोडर्न वरनाक्यूलर लिटरेचर ऑफ़ हिंदुस्तान (कलकत्ता: दि एशियाटिक सोसायटी, 1889),15.
17. अबुल फ़ज़ल एल्लामी, आईन-ए-अकबरी, अनु. एवं संपा. एच.एस. जैरट (दिल्ली: लो प्राइस पब्लिकेशन, 2011, प्र. सं. 1927), 1: 274.
18. अब्द-अल-क़ादिर बदायूनी, मुंतख़ब-अल-तवारीख़, अंगेजी अनुवाद, वोलेस्ले हेग (कलकत्ता: एशियाटिक सोसायटी, 1925), 3.47.
19. थोमस विलियम बेयले, हेनरी जार्ज कीने (सं), एन ओरियंटल बायोग्राफिकल डिक्शनरी (लंदन, 1894, न्यूयार्क: क्राउस रीप्रिंट कारपोरेशन, 1965) 309.
20. विजयदेवनारायण साही, जायसी (इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडेमी, चतुर्थ संस्करण 2017), 23.
21. मुहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता, हिस्ट्री ऑफ़ राइज दि मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया (टिल दि ईयर 1612 ए.डी.), अनु. एवं संपा., जॉन ब्रिग्ज (कलकत्ता: आर. केम्ब्रे एंड कंपनी, 1909), 1: 206.
22. मुनि जिनविजय, “रत्नसिंह की समस्या,” गोरा-बादल चरित्र (जोधपुर: राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, तृतीय संस्करण 2000), 34.
23. अबुल फ़ज़ल एल्लामी, आईन-ए-अकबरी, 1:274.
24. वही, 274.
25. अब्दुल्लाह मुहम्मद उमर अल-मक्की अल-आसफ़ी अल-उलुग़ख़ानी हाजी उद्दबीर, ज़फ़रुल वालेह बे मुज़फ़्फ़र वालेह- ऐन अरेबिक हिस्ट्री ऑफ़ गुजरात (बड़ौदा: ओरियंटल इंस्टिट्यूट,1974), 1: 645-646.
26. पदमावत की फ़ारसी-अरबी में कई प्रतियों मिलती हैं. रामचंद्र शुक्ल ने उपलब्ध 13 प्रतियों को आधार पर इसका पाठ संपादन किया, जिनमें से पाँच प्रतियाँ अच्छी थीं. इनमें से चार लंदन स्थित कॉमनवेल्थ ऑफ़िस में हैं और पाँचवीं प्रति गोपालचंद के पास है. वासुदेवशरण अग्रवाल ने गोपालचंदवाली प्रति के साथ प्रो. श्रीहसन असकरी के पास बिहार से उपलब्ध दो प्रतियों के आधार पर इसका पाठ संपादन किया है. वासुदेवशरण अग्रवाल ने मनेर शरीफ़ के खानका पुस्तकालय की प्रति का भी अपने संपादन में उपयोग किया है. माताप्रसाद गुप्त ने 16 प्रतियों को आधार बनाकर इसका संपादन किया, जो 1963 ई. में प्रकाशित हुआ. पद्मावत मध्यकाल में ही लोकप्रिय हो गया था. 1650 ई. में अराकान के वज़ीर मगन ठाकुर ने इसका बँगला में अनुवाद करवाया. पद्मावत की अधिकांश प्रतियाँ अवध और बिहार क्षेत्र मिली हैं.
27. जिनविजय, “गोरा-बादल पदमिणी विषयक पर्यालोचन,” गोरा-बादल चरित्र, 18.
28. श्रीनिवासन, दि मेनी लाइव्ज ऑफ़ ए राजपूत क्वीन, 3.
29. हेमरतन, गोरा-बादल पदमिणी चऊपई, संपा. उदयसिंह भटनागर (जोधपुर: राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, द्वि. सं. 1997), 98.
30. लब्धोदय, पद्मिनी चरित्र चौपई, संपा. भँवरलाल नाहटा (बीकानेर: सादुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, 1960), 1.
31. ऋग्वेद में प्रयुक्त आख्यान संकेतों में से कुछ इस प्रकार हैं- 1. शुन:शेप (1.24), 2. अगस्त्य और लोपामुद्रा (1.179), 3. गृत्समद (2.12), 4. वसिष्ठ और विश्वामित्र (3.53, 7.33 आदि), 5. सोम का अवतरण (3.43), 6. त्र्यरुण और वृशजान (5.2), 7. अग्नि का जन्म (5.11), 8. श्यावाश्व (5.32), 9. बृहस्पति का जन्म (6.71), 10 राजा सुदास (7.18), 11. नहुष (7.95),12. अपाला (8.91), 13. नाभानेदिष्ठ (10.61.62), 14. वृषाकपि (10.86), 15. उर्वशी और पुरुरवा (10.95), 16. सरमा और पणि (10.108), 17. देवापि और शन्तनु (10.98), 18. नचिकेता (10.135) आदि.
32. राधावल्लभ त्रिपाठी, “भारतीय कथा परंपरा,” कथा संस्कृति, संपा. कमलेश्वर (नयी दिल्ली: भारतीय ज्ञानपीठ, 2006), 56.
33. वही, 63.
34. मुनि जिनविजय, “गोरा-बादल पदमिणी विषयक पर्यालोचन,” 18.
35. गोरा बादलरा कवित्त की पांडुलिपि (ग्रंथांक-7499) अगरचंद नाहटा संग्रह (अभय जैन ग्रंथ भंडार, बीकानेर) में संग्रहीत है.
36. देखिए: अध्याय-2 की टिप्पणी सं. 7.
37. गोरा-बादल कवित्त, 115-124.
38. मुनि जिनविजय, “गोरा-बादल पदमिणी विषयक पर्यालोचन,” 19.
39. दशरथ शर्मा, “रानी पदमिनी-एक विवेचन,” पद्मिनी चरित्र चौपई, 4.
40. नारायणदास, छिताई वार्ता, संपा. माताप्रसाद गुप्त (काशी: नागरी प्रचारिणी सभा, 1958).
41. रुद्र काशिकेय, भूमिका, वही, 20.
42. वही, 21.
43. माताप्रसाद गुप्त, प्राक्कथन, वही, 11.
44. नारायणदास, रतनरंग और देवचंद, छिताईचरित, संपा. हरिहरनिवास द्विवेदी एवं अगरचंद नाहटा (ग्वालियर: विद्यामंदिर प्रकाशन,1960), 4.
45. दशरथ शर्मा, “रानी पदमिनी-एक विवेचन,” 15.
46. हरिहरनिवास द्विवेदी, “प्रस्तावना,” छिताईचरित, 31.
47. नारायणदास, रतनरंग और देवचंद, छिताईचरित, 34.
48. वही, 34.
49. हरिहरनिवास द्विवेदी, “प्रस्तावना,” छिताईचरित, 30.
50. वही, 29.
51. साही, जायसी. 79.
52. नारायणदास, रतनरंग और देवचंद, छिताईचरित, 41.
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Madhav Hada Fellow, Indian Institute of Advanced Study, Rashtrapati Niwas, Shimla- 171005Former Professor & Head, Department of Hindi, Mohanlal Sukhadia University, Udaipur607, Matrix Park, Near Dhanshri Vatika New Navratan Complex, Bhuwana UDAIPUR 313001 Rajasthan, India Mobile: 9414325302, E-mail: madhavhada@outlook.com |
Badhiya vishleshan
जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।
एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।
किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।
भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
“दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”
फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
जिस पर अजीब से आरोप हैं
कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी
शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले
प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
अपने ढंग से कहने में
जोखिम है या नहीं
यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं
शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह
सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।
वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।
शरद कोकास
आभार !
आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।
आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।
इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
नीरज
आभार!