मार्क्सवाद का नवीकरण नवीकरण का पुरानापन चंचल चौहान |
“मार्क्सवाद के सभी अध्येता जानते हैं कि मार्क्सवाद के समर्थकों को अपने विरोधियों से उतना नहीं झगड़ना पड़ता जितना खुद मार्क्सवादियों के भीतर झगड़े होते रहते हैं. इस तथ्य पर परदा डालने की जगह इसे भी उनकी विशेषता मानना ठीक रहेगा और मार्क्सवादियों की यह विशेषता अब भी क़ायम है.”
(उक्त पुस्तक से, पृ. 214)
पिछले दिनों गोपाल प्रधान की पुस्तक, ‘मार्क्सवाद का नवीकरण’ पढ़कर लगा कि इस पर आलोचनात्मक विचार किया जाये. लेखक के अपने ही आमुख के अनुसार-
‘इस किताब में शामिल लेख कोरोना से पहले के दो सालों में लिखे गये हैं. इनमें मार्क्स और मार्क्सवाद के अतिरिक्त हालिया बदलावों को भी समझने की कोशिश की गयी है.’
लेखक ने इन लेखों को पांच खंडों में बांटा है जिनमें से पहले तीन खंड मार्क्स के जीवन, कृतित्व और दर्शन पर इस सदी के शुरू के दो दशकों में हुए अकादमिक शोधों की जानकारी हमें देते हैं, बाक़ी दो खंड विविध विषयों पर पश्चिमी अकादमिक जगत में प्रकाशित शोधों पर आधारित हैं.
अंत में एक ‘उपसंहार’ और एक ‘परिशिष्ट’ भी जोड़ा गया है जिनमें एक साक्षात्कार और कुछ अन्य लेख शामिल हैं. एक कठिनाई यह है कि लेखक का अपना कोई आलोचनात्मक नज़रिया कहीं नहीं झलकता, इसलिए बहुत से अंतर्विरोधी विचार देखने को मिलते हैं.
पहला खंड तो पूरी तरह मार्चैलो मुस्तो की पुस्तक, ‘एनअदर मार्क्स’ का संक्षिप्त अनुवाद ही है. गोपाल प्रधान ने लिखा है कि इन लेखों में मार्चेलो मुस्तो की एक किताब- ‘एनादर मार्क्स’ से काफ़ी मदद ली गयी है.’
मोर्चैलो मुस्तो इटली मूल के कनाडा में योर्क यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर है, उन्हें इस किताब के लिए योर्क यूनिवर्सिटी से अच्छी रक़म हासिल हो गयी थी, उसके बाद तो धनवर्षा हो रही है! वह दलगत राजनीति से मार्क्स को अलग रखने की वकालत करते हैं. इस तरह की मध्यवर्गीय मंथरावृत्ति दुनिया के अनेक बुद्धिजीवियों में दिखायी देती है जो मार्क्सवाद को अपने बुद्धिविलास के लिए ही या फिर किताबी अध्ययन बहस के लिए ही उपयोगी समझते हैं, जबकि इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारी बदलाव राजनीति और पार्टी के नेतृत्व में ही होता है.
उससे परहेज़ रखने का उपदेश अंततः शोषक-शासक राजनीति को ही बल पहुंचाता है.
हर पूंजीवादी देश में पूंजीपतियों की पार्टियां होती हैं, उनसे संघर्ष करने वाली सर्वहारा हितों की नुमाइंदगी करने वाली मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टी भी होती है जो दिन प्रतिदिन की राजनीति में अपना पक्ष रखती है, जनसंगठनों के माध्यम से शोषित जन के पक्ष में राजनीति करती है, अनेक बुद्धिजीवी भी उससे जुड़कर बदलाव की सही भूमिका निभाते हैं, कोरी लफ़्फ़ाजी करके आत्मतुष्ट नहीं होते.
मार्चेलो मुस्तो की मूल किताब के अंग्रेज़ी संस्करण के आखि़री अध्याय में यह सच्चाई दर्ज है जहाँ उन्होंने लिखा है,
‘It was no longer a question of how to reform the existing society, but how to build a new one. For this new advance in the class struggle, Marx thought it indispensable to build working-class political parties in each country.’ (P-234 of English Version)
पूंजीवाद अपने जन्मकाल से ही ‘वैश्विक व्यवस्था’ के रूप में वजूद में आया, तब वह ‘व्यापारिक पूंजीवाद’ था, और भारत में भी ‘कंपनी’ के माध्यम से उसने तभी प्रवेश किया था.
गोपाल प्रधान ने भी इस किताब में लिखा है कि
‘2017 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से विलियम क्लेयर राबर्ट्स की किताब, ‘मार्क्स’ इनफ़र्नोः द पोलिटिकल थियरी आफ़ कैपिटल’ का प्रकाशन हुआ. लेखक का कहना है कि मार्क्स ने पूंजीवाद की आलोचना करते हुए उसे पूंजी का जटिल और विश्वव्यापी शासन माना था.(पृ.232)
गोपाल प्रधान की किताब में मार्चैलो मुस्तो का यह कथन सही है कि सर्वहारा से परिचय के ज़रिये मार्क्स ने हेगेल की नागरिक समाज की धारणा को वर्गीय पहलू से देखना शुरू किया. उन्हें यह भी लगा कि सर्वहारा, ग़रीब से अलग नया वर्ग है.(पृ. 22)
मार्क्स बुनियादी तौर पर सर्वहारा के वैज्ञानिक नज़रिये से ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की जटिल परतों को खोल रहे थे. गोपाल प्रधान ने हिंदी में कहीं इसे ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की पद्धति’ कहा है, कहीं ‘अर्थतंत्र’ और कहीं ‘आर्थिकी’. बेहतर होता वे एक सी अवधारणा के लिए पूरी किताब में एक ही हिंदी अनुवाद रखते. उदाहरण के तौर पर नीचे कुछ वाक्य दे रहा हूं:
‘मार्क्स ने अर्थतंत्र के लगभग सारे तत्वों को ऐतिहासिक बनाया.’ (पृ. 27)
‘बुर्जुआ समाज पिछले युगों के अर्थतंत्र की समझ के लिए संकेत प्रदान करता है लेकिन समाजों के बीच भारी अंतर को देखते हुए इन संकेतों को जस-का-तस नहीं लागू करना चाहिए.’ (पृ. 37)
‘अर्थशास्त्र वाला काम पूरा करना चाहते थे लेकिन समय की भारी कमी महसूस हो रही थी.’ (पृ. 38)
‘खामोशी के साथ उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान को पूरा किया.’ (पृ. 40)
‘ज्ञान को भी समूची आर्थिकी से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी आयी है. ज्ञान के उत्पादन के केंद्र होने के नाते विश्वविद्यालय ठोस रूप से पूंजीवादी आर्थिकी के अंग बनाये जा रहे हैं.’ (पृ. 164)
‘शेयर मार्केट का आभासी अर्थतंत्र वास्तविक अर्थतंत्र को खा गया है लेकिन उसके बिना ज़िंदा भी नहीं रह पा रहा है. अर्थतंत्र और सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में कारगर उपाय करने की अपेक्षा राज्य से होती है लेकिन उदारवादी विचारधारा के प्रभाव में उसकी संपदा, प्राधिकार और प्रभुसत्ता को खोखला किया जा रहा है.’ (पृ. 219)
‘इस दौर में कम्युनिस्टों की मांग पूरी होने की संभावना न देखते हुए अर्थतंत्र पर राजकीय नियंत्रण और प्रगतिशील कराधान जैसे उपायों के लिए जनमत बनाने की अपील की.’ (पृ. 60)
‘इसमें पहला काम पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधी स्वरूप के विस्तृत विश्लेषण के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र पर पकड़ मज़बूत करना था.’ (वही)
गोपाल प्रधान ने अनेक लेखकों की बहुत सी भ्रामक स्थापनाओं के प्रति आलोचनात्मक रुख़ नहीं अपनाया. अधिक समय किताबों के अंशों को अनूदित करने में ही लगाया है. मसलन, ‘2019 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से मैट विडाल, टोनी स्मिथ, तोमास रोट्टा और पाल प्रेव के संपादन में ‘द आक्सफोर्ड हैंडबुक आफ कार्ल मार्क्स’ में संकलित किसी लेखक की इस मान्यता को देखें:
“लगता है कि 1970 और 1980 के दशक में मार्क्सवाद संबंधी रुचि में कमी की वजह कुछ 1968 के विद्रोही आंदोलनों की पराजय और कुछ पूंजी के खुले वर्गीय हमले के समक्ष मज़दूर वर्ग आंदोलन का बिखराव था.” (पृ. 63)
भारत में तो यही वह दौर है जब मार्क्सवाद में रुचि का सबसे अधिक उभार देखा गया, देश के कई राज्यों में मार्क्सवादी पार्टियों की वाममोर्चे की सरकारें सत्ता में आयीं, मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा पर आधारित अनेक जन-संगठन गठित हुए. नेपाल में भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ के विचारों में रुचि बढ़ रही थी. यूरोप में भी यूरो-कम्युनिज़्म जैसे विचलन या नये प्रयोग उसी दौर में हुए जिनमें मार्क्सवाद के अमल पर कटु बहसें पूरी दुनिया में चलीं. यह ज़रूर है कि इसी दौर में यूरोप में मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर आधारित राजनीति में बिखराव बहुत अधिक हो रहा था.
इसी तरह जहाँ वह लेखक ‘1970 और 1980 के दशक में मार्क्सवाद संबंधी रुचि में कमी’ की बात कर रहा है वहीं उक्त मान्यता के विपरीत, डेविड हार्वे ने 70 के दशक में अमेरिका में मार्क्सवाद के प्रति बढ़ते आकर्षण की अपनी व्याख्या की है. गोपाल प्रधान ने लिखा है:
“नये चिंतकों में डेविड हार्वे का नाम सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है. 2000 में एडिनबर्ग (सही उच्चारण: एडिनबरा) यूनिवर्सिटी प्रेस से डेविड हार्वे की किताब ‘स्पेसेज़ आफ़ होप’ का प्रकाशन हुआ. लेखक चूंकि काफ़ी वर्षों से मार्क्स को पढ़ाते रहे हैं इसलिए किताब का पहला अध्याय पीढ़ी दर पीढ़ी मार्क्स की समझ में बदलाव पर केंद्रित है. उनका कहना है कि 70 दशक के पूर्वार्ध में काफ़ी राजनीतिक उत्साह रहा करता था. उस ज़माने की उथल-पुथल में बौद्धिक-राजनीतिक दिशा की बेचैन तलाश थी. चूंकि अमेरिका में लंबे दिनों तक मार्क्स का नाम प्रतिबंधित जैसा रहा था इसीलिए उनके प्रति आकर्षण भी था.”
(पृ. 77)
गोपाल प्रधान इस तरह के अकादमिक जगत में परस्पर विरोधी मान्यताओं को ठीक से रेखांकित नहीं कर पाते. जो किताबें वे पढ़ते हैं, उनमें हो रही ग़लतबयानी पर उंगली उठानी चाहिए थी, लेकिन उसके लिए अपनी निज की एक आलोचना दृष्टि भी होनी चाहिए जो गोपाल प्रधान के लेखन में कहीं स्पष्ट तौर से नज़र नहीं आती. इसे उनके अपने निज के लेख, ‘मार्क्सवाद की नवीनता’ में भी देखा जा सकता है. वे जो भी कहते हैं, वह ‘आम धारणा’, ‘कुछ लोगों का मानना है’ जैसे पदों की बैसाखी के सहारे कहते हैं, उनका अपना क्या मानना है यह नहीं बता पाते. उसी लेख में वे बताते हैं कि
“आमतौर पर लोगों का कहना है… कि बीसवीं सदी में…एक तरह से मार्क्सवाद का एकेडमाईज़ेशन हो गया था. कहने का मतलब यह कि वह जीवंत प्रसंगों के मुक़ाबले एक तरह से पढ़ने लिखने की चीज़ ज़्यादा हो गया था…उसके मुक़ाबले इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में जो जनांदोलन हैं इन जनांदोलनों ने अपनी ऊर्जा दी हुई है और जनांदोलनों के साथ संवाद करते हुए मार्क्सवाद के नये-नये क्षेत्र खुल रहे हैं. आम तौर पर ये फ़र्क़ बीसवीं सदी के मार्क्सवाद से इक्कीसवीं सदी के मार्क्सवाद में महसूस किये जा रहे हैं.” (पृ. 81)
यह कितना भारी भरकम झूठ है जिसे वे देख ही नहीं पा रहे. बीसवीं सदी में ही 1917 में महान सर्वहारा क्रांति हुई, 1949 में चीनी क्रांति हुई. भारत, इंगलैंड और अनेक देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां बनीं, उनके संघर्षों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा की ‘प्रैक्सिस’ ही तो थी, बीसवीं सदी में ही भारत के मार्क्सवादियों के नेतृत्व में कई राज्यों में सरकारें बनीं, केंद्र में उनके सहयोग से सरकारें चलीं. इस ‘प्रैक्सिस’ को अनदेखा करके यह कहना कि ‘बीसवीं सदी में….एक तरह से मार्क्सवाद का एकेडमाईज़ेशन हो गया था’ पूरा असत्य है.
मार्क्सवाद अपनी ‘थियरी’ में ज्ञान की दुनिया में भी विकसित हो रहा था और ‘प्रैक्सिस’ में वह विशाल जनआंदोलनों का नेतृत्व भी कर रहा था. गोपाल प्रधान ने अपनी नज़र अकादमिक दुनिया तक ही शायद सीमित कर रखी है, इसलिए वृहत सत्य उनकी निगाह से ओझल हो रहा है. यही वजह है कि साफ़ दिखने वाले झूठ भी उनकी पकड़ में नहीं आते.
इसी तरह का एक और झूठ उनकी टिप्पणी में भी आया. वे लिखते हैं कि ‘2014 में प्लूटो प्रेस से लारेंस काक्स और एल्फ़ गुनवाल्ड नीलसेन की किताब ‘वी मेक आवर ओन हिस्ट्री: मार्क्सिज़्म ऐंड सोशल मूवमेंट्स इन द ट्विलाइट आफ़ नियोलिबरलिज़्म’ का प्रकाशन हुआ.’ गोपाल जी को ‘ट्वाइलाइट’ लिखना चाहिए था. नीचे के उद्धरण में निहित झूठ को कोई भी आसानी से देख सकता है :
“एल्फ भारत के बारे में लिखते थे और लारेंस आयरलैंड के बारे में. दोनों ही जगहों पर ऐसे मार्क्सवादियों का बोलबाला था जो इतिहास बनाने वाले के रूप में जनता की क्षमता में विश्वास नहीं करते थे.” (पृ. 89)
भारत के कौन से मार्क्सवादियों पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे ‘जनता की क्षमता में विश्वास नहीं करते थे’, हो सकता है उनकी निगाह चंद ‘नक्सलियों’ पर हो, मगर जो मार्क्सवादी चुनावी राजनीति में दख़ल रखते हैं, उन पर यह आरोप कैसे लगाया जा सकता है? पूरी किताब में गोपाल जी की आलोचकीय दृष्टि में वैज्ञानिक और तर्कसंगत पक्षधरता का अभाव दिखायी देता है. यही वजह है कि एल्फ़ और लारेंस की किताब में निहित ढेर सारे झूठ उनसे चिन्हित नहीं होते या वे उन झूठों के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं. इस किताब पर लिखे लेख के अंतिम पैरे में निहित अनर्गल प्रलाप को देखेंः
“समय बेहतरीन है तो बदतरीन भी है. यूरोप में अपूर्व आंदोलनों ने असंभव प्रतीत होने वाले काम किये हैं. लैटिन अमेरिका में लड़ाई का एक दौर पूरा हुआ है. अमेरिका में आंदोलन व्यापक बदलाव लाने में सक्षम साबित नहीं हुए. भारत और चीन में भी राज्य की ताक़त के सामने आंदोलनों को घुटने टेकने पड़े. अरब मुल्कों में आंदोलनों की दूसरी नयी लहर का इंतज़ार है.” (पृ. 91)
पूरी किताब में यह ध्वनित होता है कि पूरी दुनिया में अब पूंजीवाद को ख़त्म करके ‘समाजवाद’ की स्थापना कर डालनी चाहिए. 2011 में पी एम प्रेस से छपी साशा लिली की किताब ‘कैपिटल ऐंड इट्स डिसकांटेन्ट्स: कनवर्सेशंस विथ रैडिकल थिंकर्स इन ए टाइम आफ़ ट्यूमल्ट’ पर लिखे लेख के अंत में गोपाल जी लिखते हैं:
“प्रथम इंटरनेशनल के बिखराव से पहले का समाजवादी विचार इक्कीसवीं सदी के पूंजीवाद विरोधी वामपंथ के लिए प्रेरणा स्रोत है. किसी भी विश्वसनीय पूंजीवाद विरोधी परियोजना के केंद्र में निजी संपदा की जगह पर सार्वजनिक प्राचुर्य का विचार रहेगा.” (पृ. 120)
दरअसल, मार्क्सवाद के साथ लेनिनवाद को नहीं जोड़ा जायेगा तो इसी तरह की अधूरी समझ सामने आयेगी. हर समाज के विकास की अपनी-अपनी सीढ़ियां हैं, सबके लिए एक ही इलाज यानी ‘समाजवाद’ हर वक्त़ सही नहीं होता. कई समाजों में समाजवाद से पहले के कुछ पड़ाव तय किये गये जिनमें ‘निजी संपदा’ का ‘समाजीकरण’ करने की जल्दबाज़ी घातक सिद्ध हो सकती है.
चीन ने पिछले दिनों 2049 को समाजवाद में संतरण का लक्ष्य बनाया है क्योंकि तब तक उत्पादक शक्तियां इतनी विकसित हो जाने की संभावना है कि नये युग में प्रवेश किया जा सके. भारत में भी सीधे समाजवाद में छलांग लगाने की रणनीति घातक सिद्ध हो सकती है इसीलिए सर्वहारा की राजनीति के अगुआ दस्ते ने ‘जनता की जनवादी क्रांति’ को लक्ष्य बनाया है जिसमें ‘निजी संपदा’ का अधिकार और छोटे पूंजीवादी उत्पादन तंत्र की जगह होगी. समाजवाद उसके आगे की सीढ़ी है, सामाजिक विकास की मौजूदा मंज़िल में समाजवाद का जाप सर्वहारा वर्ग की राजनीति के लिए विध्वंसक होगा.
आराम कुर्सी पर बैठे बुद्धिजीवी मार्क्सवाद की व्याख्या कुछ नये शब्दों, आकर्षक नयी पदावली से करते रहते हैं, किसी अवधारणा में ‘पोस्ट-’ या ‘नियो-’ जोड़कर नयी बोतल तैयार कर लेते हैं, यानी ‘नया ब्रांड’ पेश कर देते हैं! हमारे भारतीय विश्वविद्यालयीय प्रोफ़ेसर नये ब्रांड के प्रति तुरत आकर्षित होते हैं और बग़ैर अपने आलोचकीय विवेक का प्रयोग किये उसी की हांकने लगते हैं. गोपाल प्रधान भी उसी बौद्धिक सक्रियता के शिकार हैं. उदाहरण के लिए उनकी किताब में इस टिप्पणी को देखा जा सकता है:
“उत्तर औद्योगिक समाज में राजनीतिक व्यवहार को समझने के लिए पारंपरिक औजारों की अपर्याप्तता को देखते हुए नये तरह के वर्ग के उदय को परखा जा रहा है. इसी बात को समझाने के लिए जान मैकएडम्स ने 2015 में एक किताब लिखी ‘द न्यू क्लास इन पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी’ जिसका प्रकाशन पालग्रेव मैकमिलन से हुआ है. लेखक का कहना है कि पूंजीवादी लोकतंत्र में राजनीति को लोकतांत्रिक वर्ग संघर्ष समझा जाता था. अस्सी दशक के आरंभ में सेमूर मार्टिन लिपसेट ने माना था कि विकसित देशों में राजनीतिक दलों ने वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को अवश्य तिलांजलि दे दी थी लेकिन उनकी नीतियों और उनको मिले समर्थन से ज़ाहिर होता था कि वे अलग अलग वर्गों से जुड़े हुए हैं. लोकतंत्र में संख्या बल के चलते अधिकांश राजनीतिक दल निचले या मध्य वर्ग से जुड़े होते थे. इस प्रवृत्ति में निश्चित बदलाव दिखायी पड़ रहे हैं.”
(पृ. 163)
वे खुद से यह सवाल नहीं करते कि यह तथाकथित ‘उत्तर औद्योगिक समाज’ क्या बला है! वे इन प्रोफ़ेसरों के बयानों में छिपी मिथ्या चेतना को भी नहीं पहचान पाते जो उक्त कथन के हर वाक्य में झलकती है. इस किताब में एक जगह गोपाल प्रधान से हास्यास्पद भूल भी हो गयी है. उन्होंने ‘निष्पक्षता के विरुद्ध’ शीर्षक से हावर्ड ज़िन (Howard Zin) की किताब ‘यू कां’ट बी न्यूट्रल इन ए मूविंग ट्रेन: ए पर्सनल हिस्ट्री आफ़ आवर टाइम्स’ के आधार पर जो लेख लिखा, उसमें वे असावधानीवश यह लिख गये:
“ज़िन भी अवसादग्रस्त हो गये होते अगर उनके जीवन में वे स्मरणीय क्षण न रहे होते जिनका ज़िक्र भी इस किताब में हुआ है. बचपन के सात बरस उन्होंने पत्नी और बच्चों के साथ दक्षिणी भाग में बिताये, अश्वेत समुदाय के साथ रहे और नस्ली भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में भाग लिया.” (पृ. 172)
मूल किताब में ‘बचपन’ का उल्लेख नहीं है, भला बचपन के सात बरस में कोई ‘पत्नी और बच्चों’ वाला गृहस्थ हो सकता है क्या? अंग्रेज़ी मूल में यह लिखा था:
“The early chapters deal with my seven years in the South, when my wife and children and I lived in the black community around Spelman College in Atlanta, and became participants in the southern movement for racial justice.”
गोपाल प्रधान ने मार्क्सवाद के बारे में पिछले बरसों में लिखी गयी ढेर सारी नयी किताबों की सामग्री दे कर एक समृद्ध सूचना समुच्चय हिंदी पाठकों के समक्ष पेश किया है जिसमें हर किताब पर बहस हो सकती है. इस किताब में सबसे उपयोगी सामग्री पृ. 215 से मिलती है जिससे हमें अपने समय की सही समझ हासिल होती है. इसी समझ का इज़हार मैंने भी अपने कई अंग्रेज़ी और हिंदी लेखों में (जो मेरे वेबसाइट पर मौजूद हैं) और 2014 तक जनवादी लेखक संघ के महासचिव के रूप में पेश दस्तावेज़ों और ‘नया पथ’ के संपादकीयों में किया था.
यह समझ गोपाल प्रधान की किताब के पृ. 215 से ‘आज का समय’ उपशीर्षक से रूसी विद्वान, बोरिस कागरलित्सकी की 2000 में छपी ‘द ट्वाइलाइट आफ़ ग्लोबलाइजे़शन’ में निहित है और समकाल को समझने में दिलचस्पी रखने वाले हर हिंदी पाठक को इसे ग़ौर से पढ़ना चाहिए.
दरअसल, रूसी लेखक ने विश्वपूंजीवाद में आये उस बदलाव को सही समझा है जिसकी ओर दुनिया के मार्क्सवादियों का ध्यान ही नहीं गया था. इस बदलाव की शुरुआत जुलाई 1944 में आयोजित एक सम्मेलन से हुई थी जिसे ‘ब्रेटन वुड्स कान्फ्रेंस’ के नाम से जाना जाता है. इसी में आइ एम एफ़, वर्ल्ड बैंक के रूप में ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ के रूप में विश्वपूंजीवाद ने अपना नया चोला धारण किया था जिसमें बाद में डब्ल्यू टी ओ भी जुड़ गया.
रूसी लेखक का मत है कि ‘द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटन वुड्स में स्थापित वैश्विक संस्थाओं की ज़िम्मेदारी अंतर्राष्ट्रीय बाजार को नियंत्रित करने की थी लेकिन नवउदारवाद ने इन्हें विनियमितीकरण के हथियार में बदल दिया है…. ‘ यह स्थापना सही नहीं है, विश्वपूंजीवाद ने शुरू से ही अपनी अपनी वित्तीय पूंजी के बजाय उसे संकेद्रित करके नया चोला धारण करने का ही खेल खेला था और उसी का एजेंडा था ‘नवउदारवाद’ और ‘ग्लोबलाइज़ेशन’. आज पूरी दुनिया पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की संस्थाओं का वर्चस्व है. सारे देशों पर उनका क़र्ज़ लदा पड़ा है. बोरिस कागरलित्सकी का यह मत सही कि
‘ये संस्थाएं अपना एजेंडा खुद तय करती हैं तथा उसे जनता और सरकारों पर थोप देती हैं. ये वित्तीय संस्थान इस तरह काम करते हैं जैसे समूची दुनिया पर इनका कब्ज़ा हो. इन संस्थाओं के विशेषज्ञ तय करते हैं कि रूस के कोयला उद्योग का क्या किया जाये, कोरिया में कंपनियों को कैसे संगठित करें या मेक्सिको की वित्त व्यवस्था कैसे दुरुस्त होगी.’ (पृ. 217)
दरअसल, 1991 के बाद हमारे देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर भी ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ का वर्चस्व स्थापित है. उनकी पसंद का ही प्रधानमंत्री होता है, रिज़र्व बैंक का गवर्नर होता है, पहले प्लानिंग कमीशन का उपचेयरमैन भी वहीं से आता था. दुनिया में धुरदक्षिणपंथी राजनीति के उभार के लिए भी यही वित्तीय पूंजी ज़िम्मेदार है. बोरिस कागरलित्सकी ने भी इस नयी परिस्थिति का सही आकलन इस तरह किया है:
“वैश्वीकरण के चलते आये इन बदलावों में दो बदलाव बुनियादी हैं. एक तो यह कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के अनेक देशों के बड़े पूंजीपतियों का अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी से घनिष्ठ एकीकरण हुआ है. इसका सबूत यह है कि धन कुबेरों की सूची में अब भारत और चीन के भी कुछ लोग शामिल रहते हैं. दूसरे कि पूंजी का प्रवाह विभिन्न देशों के आरपार बेरोकटोक हो रहा है और तीसरी दुनिया के देशों में अंतर्राष्ट्रीय निवेश से जो कारख़ाने लग रहे हैं उनमें स्थानीय बाज़ार के साथ ही दुनिया भर में निर्यात के लिए तमाम वस्तुओं का उत्पादन हो रहा है.” (पृ. 224)
सर्वहारावर्ग की राजनीति करने वाली दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों में सी.पी. आइ. (एम) समेत कुछ ही राजनीतिज्ञों ने विश्वपूंजीवाद के बदले हुए स्वरूप की सही पहचान की. सी.पी. आइ (एम) ने अक्टूबर 2000 में अपना नया पार्टी प्रोग्राम जारी किया जिसके पैरा 2.6 में इसी यथार्थ की पहचान दर्ज है :
“The concentration and internationalization of finance capital has reached unprecedented heights in the current phase of capitalism. Globally mobile finance capital is assaulting the sovereignty of nations, seeking unimpeded access to their economies in pursuit of super profits. The imperialist order in the service of this speculative finance capital breaks down all barriers for its free flow and imposes the terms favorable to such capital in every part of the globe. The International Monetary Fund, the World Bank and the World Trade Organization are the instruments to perpetuate this unjust post-colonial global order.”
मार्क्सवाद को किताबी ज्ञान और अकादमिक बहसों तक सीमित रखने वाले बुद्धिजीवी दरअसल उसे ‘प्रैक्सिस’ से अलग करके देखने के आदी हैं. गोपाल प्रधान इसीलिए अपनी किताब में उन लेखकों की मध्यवर्गीय अस्मिताखोजी नज़र की कमज़ोरी के प्रति आलोचकीय रुख नहीं अपनाते जो मार्क्स को सर्वहारावर्ग की राजनीति से अलग रखने का प्रयास करते साफ़ दिखायी देते हैं. वे मार्क्सवाद के साथ लेनिनवाद को भी नहीं जोड़ते जिसके बग़ैर इस विचारधारा को समझा ही नहीं जा सकता, बल्कि आज की दुनिया को सही तरीक़े से व्याख्यायित किया ही नहीं जा सकता.
आज के दौर में ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ की भूमिका को लेकर लेनिन ने बहुत पहले ही दुनिया को आगाह किया था. उन्होंने दिसंबर 1915 में एन बुखारिन के एक पैम्फ़लेट के ‘प्राक्कथन’ में जो कुछ लिखा था, ऐसा लगता है मानो उसे आज की दुनिया को देखकर लिखा हो: अंग्रेज़ी में ही उसे देखें तो बेहतर होगा:
“Finance capital took over as the typical “lord” of the world; it is particularly mobile and flexible, particularly interknit at home and internationally, and particularly impersonal and divorced from production proper; it lends itself to concentration with particular ease, and has been concentrated to an unusual degree already, so that literally a few hundred multimillionaires and millionaires control the destiny of the world.
(Preface to N. Bukharin’s Pamphlet, Collected Works Vol. 22, p-106, December 1915)
यह ध्यान रहे कि लेनिन के समय में उस वित्तीय पूंजी के मालिक साम्राज्यवादी देश ही थे, उसका रूपांतर आइ एम एफ़ और विश्व बैंक व डब्ल्यू टी ओ जैसी संरचनाओं में नहीं हुआ था जिनका बीज वपन लेनिन की मृत्यु के बाद 1944 में ब्रेटन वुड़्स कान्फ्रेंस में हुआ था, किंतु उस रूपांतरण की पहचान उन्हें थी, जिसका विस्तार से उल्लेख उनकी साम्राज्यवाद की मंज़िल पर लिखी मशहूर किताब में आंकड़ों के साथ मौजूद है.
यह नज़रिया मार्क्सवाद की क्रांतिकारी ‘प्रैक्सिस’ से ही हासिल होता है, जिसका अगुआ दस्ता सर्वहारा की राजनीतिक पार्टी ही होती है, बंद कमरे की आरामकुर्सी नहीं. गोपाल प्रधान की किताब में शामिल किये गये अधिकांश लेखक हमें सर्वहारा के ‘राजनीतिक दल’ से दूर रहने की सलाह देते हैं, इससे वे जाने अनजाने विश्वपूंजीवाद की गुलामगीरी कर रहे होते हैं. गोपाल प्रधान शायद ऐसे लेखकों से सहमति जताते हुए अपनी किताब में लिखते हैं कि
“मार्क्स को देखने में बड़ी बाधा का ज़िक्र करते हुए लेखक (विलियम क्लेयर राबर्ट्स) ने कहा है कि उनके देहांत के एक सदी बाद से ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने मार्क्स की व्याख्या की अपनी अपनी शब्दावली विकसित कर ली और उनकी जकड़बंदी के बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो गया है.” (पृ. 234)
इस तरह के लेखक अपने दिमाग़ को ‘शब्दावली’ तक ही बंद करके रखते हैं. वे यह नहीं जानते कि मार्क्सवाद एक जड़ विज्ञान नहीं है. जिस तरह सारे विज्ञान समय के साथ विकसित और समृद्ध होते आये हैं और इसी प्रक्रिया में आज टेक्नोलॉजी विकास के चरम तक पहुंच रही है, उसी तरह दुनिया और समाज में होने वाले परिवर्तनों के सारतत्व को समझने और मानव समाज को और अधिक बेहतर, समतामूलक, ‘सुखी, सुंदर व शोषणमुक्त’ बनाने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचारधारा भी अपनी ‘प्रैक्सिस’ में नये-नये विचार, नयी रणनीति और कार्यनीति को अमली जामा पहनाती है, वह मात्र ‘अपनी अपनी शब्दावली’ नहीं है, सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी विचारधारा का अनेक उतार चढ़ाव के कांटेभरे रास्तों से गुज़रना है.
आज दुनिया में फ़ासीवाद को उभारने वाली ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ जैसी विशाल भीमकाय दानवी शक्ति के सामने उसकी शक्ति विफल होती सी दिख रही है, लेकिन इस वैश्विक दानवी शक्ति का दमनचक्र हमेशा चलने वाला नहीं है, इसके क़र्ज़े के बोझ तले दबी मानवता जब बेहद ‘असमान विकास’ की चरमावस्था पर पहुंचेगी तो इसके पतन के दिन शुरू होंगे और तब मानवता के आगामी विकास के लिए दुनिया मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मशाल हाथ में लेकर समतामूलक शोषणमुक्त समाज बनाने के क्रांतिकारी सपने को पूरा करने के लिए आगे बढ़ेगी ही. बक़ौल मुक्तिबोध,
‘यह भवितव्य अटल है
इसको अंधियारे में झोंक न सकते.’
उ.प्र. के एटा ज़िले के एक गांव में जन्म, दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी व हिंदी में एम. ए. आर्नल्ड वेस्कर पर पीएच. डी. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में अंग्रेज़ी का अध्यापन, अब सेवानिवृत्त. कविता व आलोचना की कई किताबें. 1972 में पहला कविता संग्रह, ‘प्रहार स्याह रात पर’ (राजकुमार सैनी के साथ), 1976 में ‘मुक्तिबोध: प्रतिबद्ध कला के प्रतीक’ आलोचना पुस्तक. 1979 में ‘जनवादी समीक्षा’, 1982 में दूसरा कविता संग्रह, ‘खोलो बंद झरोखे’; 2008 में ‘आलोचना की शुरुआत’ आयी; 2011 में ‘हिंदी कथा साहित्य: विचार और विमर्श’ प्रकाशित, मुक्तिबोध काव्य पर 1976 में प्रकाशित पुस्तक, नये रूप में ‘मुक्तिबोध के प्रतीक और बिंब’ शीर्षक से प्रकाशित. एंजेल फ्लोरेस के संपादन में रूसी आलोचना लेखों का अनुवाद, ‘मार्क्सवाद और साहित्य’ के रूप में. अंग्रेज़ी पत्रिका, Journal of Arts & Ideas के संपादन से जुड़े रहे. ‘साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र’ राजकमल से शीघ्र प्रकाश्य. संपूर्ण रचनावली (दस खंडों में) प्रकाश्य. ‘जनवादी लेखक संघ’ के फ़रवरी 2014 तक महासचिव, उसके बाद उपाध्यक्ष, अभी कार्यकारी अध्यक्ष. मो. 9811119391 |
चंचल चौहान ने फैशनी मार्क्सवाद की बखिया उधेड़ कर रख दी है। यह नवीकरण आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के खतरों को भी सामने लाता है जहां भूसे की तरह तथ्यों के दृष्टि रहित दुरुपयोग की भयावह आशंका है।
गोपालजी प्रधान के लेखन की सबसे बड़ी सार्थकता है कि वे नए प्रश्नों, चिंताओं को सामने रखते हैं।जाहिर है ऐसा करते हुए वे वैश्विक व्याख्याकार और विचारकों को हिंदी में रखने का बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
चंचल चौहान की आलोचना की समस्या यह है कि वे संकट को अनदेखी करने को भी मार्क्सवाद समझते है । इसके विपरित वैश्विक संकट की गहरी अनुभूति और चिन्तन से मार्क्सवाद का जन्म हुआ है ।
चंचल चौहान के चिंतन में एक तरह का यांत्रिक मार्क्सवाद कार्यरत है। यांत्रिक मार्क्सवाद में उनकी गहरी आस्था का प्रमाण लेख के अंत में उनकी ये पंक्तियां हैं
“आज दुनिया में फ़ासीवाद को उभारने वाली ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ जैसी विशाल भीमकाय दानवी शक्ति के सामने उसकी शक्ति विफल होती सी दिख रही है, लेकिन इस वैश्विक दानवी शक्ति का दमनचक्र हमेशा चलने वाला नहीं है, इसके क़र्ज़े के बोझ तले दबी मानवता जब बेहद ‘असमान विकास’ की चरमावस्था पर पहुंचेगी तो इसके पतन के दिन शुरू होंगे और तब मानवता के आगामी विकास के लिए दुनिया मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मशाल हाथ में लेकर समतामूलक शोषणमुक्त समाज बनाने के क्रांतिकारी सपने को पूरा करने के लिए आगे बढ़ेगी ही.”
यह तर्क कुछ इस तरह का है कि – अंततः संसार बदल जाएगा। सवाल यह है कि क्या एक बौद्धिक को इस तरह विचार करना चाहिए?
यह एक तरह का भाववादी दृष्टिकोण है,जो अंततः अस्थावाद की ओर ही ले जाता है।
गोपालजी प्रधान ने पिछले कुछ वर्षो में मार्क्सवाद के नए प्रश्नों को सामने रखा है- उस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
बहुत सुचिंतित समीक्षा के लिए चंचल चौहान को बधाई । 1970 के बाद जनवादी पत्रिकाओं में इस प्रकार की तीखी बहस हुआ करती थीं, जो अब परस्पर प्रशंसाओं में बदल गई हैं ।