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Home » देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह

देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह

पंजाबी कविताओं की अपनी अलग तासीर है, मुहावरा है. बाबा फ़रीद, बुल्लेशाह, वारिस शाह, अमृता प्रीतम आदि से होती हुई यह धारा समकालीन कविताओं के खुलेपन और खरेपन के प्रवाह में अभी भी बची हुई है. सौन्दर्य और प्रेम की आसक्ति के खिले हुए फूल इसमें बहते हुए दिख जाएंगे. छल की पहचान और उस पर भाषा की वक्रोक्ति देखने लायक है. समालोचन में समकालीन पंजाबी कवियों के अनुवाद आप लगातार पढ़ रहें हैं, इनमें अधिकतर अनुवाद रुस्तम द्वारा किये गये हैं जो हिंदी के समर्थ और महत्वपूर्ण कवि हैं. देवनीत की कविताओं के अनुवाद रुस्तम ने पंजाबी कवि बिपनप्रीत की मदद से किये हैं जो यहाँ प्रस्तुत है. देवनीत की कविताओं को पढ़ते हुए भारतीय कविता की विविधता और सौष्ठव का पता चलता है.

by arun dev
October 11, 2022
in अनुवाद
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देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह
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पंजाबी

देवनीत की बारह कविताएँ

हिंदी अनुवाद पंजाबी कवि बिपनप्रीत की मदद से : रुस्तम सिंह

फैमिली फ़ोटो

स्टूडियो में आ खड़ा है
एक मज़दूर परिवार

पति-पत्नी तीन बच्चे
बच्चों पर दो-दो रुपए वाले
काले चश्मे

मज़दूर लड़का बोला
हम सब की इकट्ठी
फ़ोटो ले लो

उसके चेहरे पर
फ़ोटो खिंचवाने का चाव
फैल गया

तीस रुपये में खरीदा
तीन पलों का चाव

लड़की के चेहरे पर
शादी के वक्त वाली
शर्म सिमट रही

वह तीन बच्चों की
माँ होना भूल गयी.

 

बीज जो अभी अंकुरित होना है

भगत सिंह नौजवान है
सिर-फिरा

जज़्बाती है, गर्म ख़ून है
जोश के पास होश नहीं
हक़ीक़त नहीं पढ़ते बच्चे
बस अड़ जाते हैं

यह टिप्पणियाँ ग़रज़-परस्तों की  हैं

यह नहीं कि वे नहीं जानते
भगत सिंह किस बात का नाम है
जानते हैं

डर जाते हैं. सोचते तो हैं, बोलते नहीं
उनको पता है बोलेंगे तो
इतने बड़े राष्ट्र का बापू कौन बनेगा
चाचा से छूट जाएगा भारत
गुलाब के फूल
कोट की जेब में नहीं उगेंगे
मज़दूरों की मुस्कान में खिलेंगे
पर नहीं उगने देंगे वे बीज
अंकुरित हैं जो

भगत सिंह के अन्दर
गोल-गोल घूमती तकली की
सफल चाल पर
धरती रो पड़ी

भगत सिंह धरती को नतमस्तक हुआ :
हे माँ ! बीज है हरा कायम
ज़रूर कभी अंकुरित होगा
तेरे अन्दर.

 

जामुनी साड़ी

एक शाम मैं
सब डोरों से टूट
जा अटका था
शाम के एक कोने….कनॉट प्लेस

कई रंगों की पतंगें

शाम अन्दर
घूम रहीं थीं कितनी औरतें

चाँदी की नदी में तैरती
जलपरियाँ

उन रंग-परियों में से
रंग-परी थी एक
सामने चल रही

जामुनी साड़ी

उसकी नाभि के नीचे
कहीं से
बांसुरी के मुँह से
फैल रहे थे सुर

उसके पैरों पर बहती
जब वह चलती
फाल लहराती

हवा का एक पंख
उसके सामने से उड़ता
मेरी ओर

मेरे पास-पास आता
पास-पास होता जाता

नीचे-नीचे होता
धरती से लग
मिट जाता

वह दूसरा कदम लेती
एक और पंख उड़ता
मेरी ओर

फिर और
एक और

देखते-देखते
मेरे सामने
फैल गयी थी फाल

सारी औरतें गायब हो गयी थीं
फाल के पीछे

मैं अपने सारे रंग
खो रहा था

अब मैं
जामुनी हो गया था.

 

रानी

वह औरत
अक्सर ही देखी जा सकती है

चौराहों में, सड़कों पर
कागज़ के टुकड़े उठाती
काँच चप्पलें और वह सब कुछ
जो उसके बिना
सब के लिए बेकार होता

उसके पाँव के तलवे
उसकी चप्पलें बन गयी हैं

उसके जिस्म के कपड़े
फट गये हैं
जहाँ से उन्हें नहीं था
फटना चाहिए

देख रहा हूँ
उसकी अंगूठी पहनने वाली उँगली
ख़ाली नहीं है.

 

छोटा कुम्हार बड़ा कुम्हार

बचपन में
साथियों सा…साथियों संग
जाता था…खेतों में

वे जाते थे कुछ खाने- बेर, कच्चे चने
मैं जाता था कुछ देखने – हिरन, खरगोश

अकेला खड़ा
देखता रहता
ऊँची मेंड़ पर कुलाँचे भरते
हिरन

दिल करता…ईश्वर मुझे हिरन बना देता
मनमर्जी से…खाता-पीता, दौड़ता रहता

खेत से भाग सभी
बुध राम की भट्ठी पर आ बैठते
बुध राम चाक घुमाता
बर्तन बनाता रहता
हम इर्द-गिर्द बैठ जाते

बुध राम पूछता – बताओ क्या बनेगा
दीया ! हम सभी इकट्ठे बोलते

वह अपनी उँगलियों के दबाव बदलता
बन जाता
कुछ और

हँस पड़ता बुध राम
जीत जाता बुध राम
हार जाते हम

फिर बुध राम बारी-बारी
हर एक के हिस्से का
बनाता एक बर्तन

मेरा मेरा करते रहते
ठण्डी काली मिट्टी
के पास बैठे
हम बच्चे

सोचता हूँ आज

अगर मैं
बुध राम जितना जानता होता
ईश्वर को
तो बन जाता
मैं हिरन.

 

यात्री ध्यान दें

आ जाओ अन्दर

मेरी कोठड़ी का लाईव हॉल
मैट पर नाराज़ पड़ा पायदान
साथ ही अंडरवियर
और रुमाल
पड़े हैं
रुमाल के साथ ही कल बाँधी पगड़ी के
खण्डरात

मेहदी हसन की ग़ज़ल
चल रही है

बोतल और साथी उसकी अन्य सामग्री में
घिरा हूँ मैं
अपना अकबर हूँ मैं

अब
समय
मेरा बीरबल नहीं.

 

मेरे घर के

मेरे घर के
मुख्य द्वार के पास
आपके लिए
डेलिए का फूल खिला है

साथ ही
घास का
हरा-कचूर मैदान

आगे कमरों में
कूड़ा-झूठ-चाल-कबाड़-
घृणा

आप आगे नहीं जा सकते
अब

मैंने सब को
घास में रखना सीख लिया है.

 

मेरी बुकिंग विण्डो

मैं अपना बहुत कुछ
ख़ुद ही जानता, जानता
पचास का हो गया हूँ

अगर कोई और जान लेता
मैं कितना उसका वो मेरा
हो जाता

सोचता तो रहा
जानती होगी ज़रूर वह
साँवली सहपाठिन दलित लड़की
मेरे अन्दर के सौन्दर्य की
कितनी मालकिन है वह
जिसके दुपट्टे के छेद में से देखते हुए
मैंने अभी
उसका कुछ होना था

वह सारी की सारी छेद में से
मेरे अन्दर आ बैठी
पर वह जान ना सकी ज़रा भी

और वह
सूक्ष्म शायरा साँवली
भी देख ना सकी
मेरे अन्दर
ईश्वर की भरी कटोरी
कहती
देवनीत, यह तेरी ईगो है
कि तेरे अन्दर की प्रेम-कटोरी कोई ख़ुद ही छुए

मैं उससे डर गया
कटोरी उठा एक तरफ़ रख दी
अब कटोरी वाली ख़ाली जगह
उसको श्राप दे रही है.

पार्क में मार्क्स

पार्क में
पुलिस का उच्चतम अफ़सर
गश्त पर है
ट्रैक सूट में फास्ट वॉकिंग

उसके पीछे-पीछे
पाँच फुट के फ़ासले पर
सिपाही वर्दीधारी
घोड़े की दुलकी चाल पर
अपनी चाल
अफ़सर की सहजता मुताबिक
असहज कर रहा है

अचानक
पाँच फुट के फ़ासले के बीच
कहीं से आ गया मार्क्स
सिपाही की स्कूलिंग करता

मुझे तुझ पर तरस नहीं गुस्सा है
तू इसके बराबर क्यों नहीं चलता

तुम दोनों इंसान हो, बराबर हो
बराबर चल
बस इतना ही अन्तर है
बड़ा पर्स
और फटे-पुराने कपड़े में
बँधे सिक्के

मैं तेरे लिए
एक पर्स छीन के लाता हूँ
तुम इसके बराबर चलने लगोगे

सिपाही टेंस हो गया
नहीं कामरेड नहीं !
मैं तीन सदियों से
इसके पीछे-पीछे
चल रहा हूँ

मुझे पता है सब
मुझे बातों में
ना उलझा

मैंने
ड्यूटी के बाद
अपने बच्चों के लिए
अच्छे एक स्कूल का
दाख़िला-फार्म

खरीदने जाना है.

 

मेरे पास वाली सवारी

गरीबी
कहीं-कहीं
मुझे अच्छी भी लगती है

बुल्ले के चूल्हे जैसी

दीवाली वाले दिन भी
शाम तक रिक्शा चलाती
आती है

पच्चीस का पऊआ ले
दो की कलई, सात के खाण्ड-खिलौने, दस के पटाखे

रिक्शे में धरी आती
अपनी किंगडम

पर आज
पता नहीं कब बस में
मेरे साथ वाली सीट पर आ बैठी है गरीबी
सादा साड़ी में लिपटी

साड़ी में किस ने किस को पहना है

अपनी टिकट वाली सीट पर
सिमटी हुई बैठी है

केला छीलने से हिचकिचाती
का चेहरा देखता हूँ मैं

मुझे कवि होने से डर लगता है.

 

दिन में दिन रात को रात

अँधेरी ठण्डी शरद रात है
चारों ओर ख़ामोशी है

जुझारू कवि
अपनी दोस्त लड़की के पास जा रहा है

दूर कहीं कुत्ता ताक रहा है

कवि और लड़की के बीच
दरवाज़ा खुलेगा

रात को
इंकलाब की ज़रूरत नहीं है.

 

लड़की क्या जाने

सुबह-सुबह छोटी सी लड़की
मेरे घर
दूध का भरा लोटा देने
आती है

मैं दूध को ख़ाली बर्तन में उड़ेलता हूँ
देखता हूँ धीरे-धीरे हिल रहा है दूध

मुझे मेरे ज़िन्दा होने का
पता चलता है
अब मैं सारा दिन
इस्तेमाल करता रहूँगा बर्तन
ख़ाली होने तक जीता रहूँगा.

 

देवनीत (1951—2013) समकालीन पंजाबी कविता के परिदृश्य में बड़े व महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं. वे ज़मीन और आम व्यक्ति से जुड़े हुए कवि थे. अपने विचारों में वे मार्क्सवाद के बहुत क़रीब थे और एक समतावादी समाज के पक्षधर थे. उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए. महत्वपूर्ण पंजाबी कवि गुरप्रीत ने 2013 में उनके जीवन व कविता पर केन्द्रित एक पुस्तक का सम्पादन किया. वे पंजाबी साहित्य व धर्म अध्ययन के विशेषज्ञ थे. वे 2009 में पंजाबी साहित्य के प्राध्यापक के तौर पर सेवा-मुक्त हुए. 2013 में उनकी कैंसर से मृत्यु हुई. उनकी स्मृति में कविता के क्षेत्र में देवनीत यादगारी पुरस्कार दिया जाता है.
Tags: 20222022 अनुवाददेवनीतपंजाबी कविताएँरुस्तम
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Comments 9

  1. श्रीविलास सिंह says:
    6 months ago

    बेहतरीन कविताएँ। जीवन के तमाम रंग समेटे। जो सहज भावनायें कविताओं में लहरों की तरह छलक रही हैं उसे अनुवाद की सरल और प्रांजल भाषा ने और प्रभावी बना दिया है। इन कविताओं से परिचित कराने का हार्दिक आभार।

    Reply
  2. Hardeep Singh says:
    6 months ago

    फिर सार्थक अनुवाद के लिए बहुत-बहुत बधाई

    Reply
    • विमल थोरात says:
      5 months ago

      पंजाबी कवि देवनीत की कविताओं का बेहतरीन अनुवाद पढ़ने का अनुभव बहुत निराला है, लगता है रुस्तम सिंह कवि के साथ साथ चलते हुए उनके वक्त के, संवेदनाओं से घुल मिल गए हो। सार्थक सृजन के लिए धन्यवाद

      Reply
  3. Deepak Sharma says:
    6 months ago

    Thank you Arun Deb ji for presenting these powerful poems of Devneet.
    Rare nomadic gatherings of ideas n scenes where marginalized people figure!
    His was a strong voice of the Punjabi traditional Sufi poetry interspersed with Marxist leanings.
    So unfortunate it is that cancer struck him n took him away.
    Thanks n regards to you n Rustam ji
    Deepak Sharma

    Reply
  4. राजेन्द्र दानी says:
    6 months ago

    पंजाबी कविताओं की कोई विशेष जानकारी नहीं है । छिट पुट पढ़ी हैं पर इन्हें पढ़ते हुए लग रहा है कि वे कितनी संपन्न हैं । कविता के लिए सौंदर्यात्मक तरतीब यहां सबसे ज्यादा दिख रही है । जितनी ये संक्षिप्त हैं उसके विपरीत विशाल अर्थवेत्ता ग्रहण किए हुए हैं । “समालोचन”की यही विशेषता है कि यहां वहां बिखरी महत्वपूर्ण रचनात्मकता को वह हमारे गुण ग्रहण के लिए उपलब्ध कराती है । आभार अरुण देव जी ।

    Reply
  5. नवल शुक्ल says:
    6 months ago

    देवनीत की कविताओं को पढ़कर देखने और कहने के बहुप्रचलित तरीके से भिन्न रचनाओं के सान्निध्य में अपने को पाया।मितकथन और सहज मानवीय व्यापार की अनुभूति और सौंदर्य इन कविताओं में हैं।कुछ अलग जमीनी ढंग जो बहुत सारी अदृश्य si परतों को अनुभूति की ठोस सतहों को प्रत्यक्ष और रोशन करती हैं।
    रुस्तम और आपको बधाई।

    Reply
  6. तेजी ग्रोवर says:
    6 months ago

    देवनीत से रुस्तम और मेरी मुलाकात पहली बार भारत भवन, भोपाल में हुई थी। हम लोग, जैसा कि अक्सर होता है, भारत भवन में कवियों को सुनने जाते हैं और फिर कई मुलाक़ातें इतनी घनी हो जाया करती हैं कि जीवन अपना रुख़ बदल लेता है।

    देवनीत के साथ मुख़्तसर सी वह मुलाकात ऐसी ही थी।

    हमारे लिए जदीद पंजाबी कविता का “खुल जा सिमसिम” देवनीत ही थे। वे हमसे “तेजी रुस्तम की कविताएँ” नामक पुस्तक ले गए और उनकी कुछ किताबें हमने मंगवा लीं और उन्हें धीरे धीरे पढ़ने लगे।

    फिर देवनीत ओझल हो गए।

    लेकिन हमें अपने मित्र पंजाबी कवियों से मिलवाने जो पगडण्डी वे तराशकर गए, उसकी कहानी भी अद्भुत है और कई पंजाबी कवि-मित्रों द्वारा कभी भविष्य में लिखे गए सुदीर्ध संस्मरणों में भी उस पगडण्डी की आत्मीय झिलमिलाहट पूरी तरह बयान किसी से न हो पाएगी।

    उन कवियों को आप सब कई वर्षों से रुस्तम के अनुवाद में पढ़ते आये हैं। आप सब भी उस पगडण्डी को अब देख ही रहे होंगे।

    कभी हिम्मत करके उन ख़तों का अनुवाद भी करूँगी जो देवनीत ने रुस्तम और मुझे लिखे थे।

    देवनीत का अंतिम समय कष्ट में बीता। इस संवेदनशील और सच्चे जनपक्षधर कवि को कैंसर ने धर दबोचा और फिर हम लोगों का फोन पर बातचीत होना भी बंद हो गया।

    मेरे लिए देवनीत के साथ सम्पर्क बनाए रखना कठिन था। यह बात मुझे कई वर्ष तक सालती रही और देवनीत कभी जान भी नहीं पाए कि मेरे लिए ऐसा करना क्रमशः क्यों कठिन होता चला गया।

    हमारे साझे मित्र उस रम्य और आत्मीय पगडण्डी पर चलना मुझसे कहीं बेहतर जानते हैं।

    जब देवनीत के जाने की खबर आई, मेरी हिम्मत और भी पस्त हो गई।।

    देवनीत जिन दोस्तों की सोहबत से हम लोगों को नवाज़ गए, उन्हीं में देवनीत का अक्स देख मुतमइन होते रहना होगा शेष बचे समय में।

    कविताएँ तो आप सबने पढ़ी होंगी। और आप समझ भी रहे होंगे देवनीत को कवि होने से डर क्यूँ लगता था…

    मेरा बहुत मन है Bipan Preet हम सबके मित्र हो जाने की कथा कहना शुरू करे!

    Reply
  7. भूपिंदर प्रीत says:
    6 months ago

    रुस्तम जी, यह कवि तो बहूत पहले आ जाना चाहिए था, यह एक शुद्ध कवि है, चिंतक नही,pure soul, जिसके अंदर कविता की धारा सहज और सतत बहती थी, बच्चे जैसा था वो एक किनारे से फिलास्फर भी,एक बार किसी कवि सम्मेलन से प्राप्त लोई बेच कर उसने हमारे लिए दारू खरीदी और सडक पर हमने कवि सम्मेलन किया, उसकी बदौलत हम तेज़ी रुस्तम से मिले, जब उसने हमें इन दोनों की किताब ‘तेजी रुस्तम की कविताए’ की एक कॉपी फोटो स्टेट करा कर अमृतसर हमे भेजी,क्या सोच कर भेजी होंगी कि इस मार्फ़त हम इन दोनों को ढूढ़ लेंगे, आखिर ढूंढ ही लीया। देवनीत की कविताए छापने के लिए बहुत आभार अरुन जी।

    Reply
  8. R.P.singh says:
    5 months ago

    Guzrey waqt ka ,punjabi kavion me Devneet ek aalatreen aur apni hi kisim ka vilakshan kavi raha hai.Mujhey mool punjai se hindi translation mufeed lga ,jo Rustam ji ki minutes dristi ka prmaan hai.

    Reply

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