पंकज सिंह
सर ये नहीं झुकाने के लिएरविभूषण |
हिंदी के दो प्रमुख समकालीन कवियों-आलोकधन्वा और पंकज सिंह से मेरा परिचय और मैत्री-संबंध 1966 से रहा है, जब आलोक धन्वा ने मैट्रिक की परीक्षा भी नहीं दी थी और पंकज सिंह लंगट सिंह कॉलेज में बी.ए. इतिहास ऑनर्स के पहले वर्ष के छात्र थे. उन दिनों लंगट सिंह कॉलेज ही एक प्रकार से बिहार विश्वविद्यालय था. आलोकधन्वा से भेंट और मुलाक़ातें मुंगेर में होतीं थीं जहाँ मेरे बड़े भाई प्रोफ़ेसर शीतांशु, आर. डी. एंड डी. जे. कॉलेज के बेहद लोकप्रिय और प्रतिष्ठित प्राध्यापक थे. मैं एम.ए. फ़र्स्ट ईयर का छात्र था और मुंगेर जाना होता था. लंगट सिंह कॉलेज के न्यू हॉस्टल में उन दिनों मैं रह रहा था और बाद के ड्यूक हॉस्टल में आ गया था.
संभवतः 1966 की वह कोई दोपहर थी, जब न्यू हॉस्टल के अपने कमरे में मैंने एक सुदर्शन व्यक्तित्व वाले एक युवक को अपने पास देखा. वह पंकज सिंह थे, जो मुझसे मिलने आए थे. यह पंकज सिंह से मेरी पहली भेंट थी. उनके बड़े भाई मनोज सिंह, एम.ए. इतिहास के पहले वर्ष में थे. उस समय पंकज की उम्र अठारह वर्ष रही होगी. वह स्मृति, कल की घटना की तरह आज भी आँखों के सामने हैं. कमरे में टेबल पर ‘आँगन के पार द्वार’, पुस्तक थी. पंकज ने उसे, हाथ में लेकर यह कहा था- “अच्छा, आप यह भी पढ़ते हैं.”
अज्ञेय के इस कविता-संग्रह का प्रकाशन 1961 में हुआ था. उन दिनों न वे कोर्स में थे न मुक्तिबोध. पंकज का लहज़ा कुछ भिन्न था. मुझसे उनके मिलने का एक मात्र कारण संभवतः बी.ए. ऑनर्स में मेरा ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ होना था. इस पहली मुलाक़ात के बाद मुज़फ़्फ़रपुर में दोपहर और शाम को उनसे हुई कुछ मुलाक़ातें हैं. शहर में थोड़ा जाना, घूमना और बातचीत करना भी. पंकज का गला बहुत अच्छा था. हॉस्टल के कमरे में अधिक और अन्य कुछ जगहों पर भी उनका गाना कभी भुलाए नहीं भूलता. ‘बादल’ फ़िल्म (1966) में मन्ना डे का गाया गीत उन्हें बेहद प्रिय था और मुझे भी. अब इस गीत के साथ वे ऐसे जुड़े कि पंकज की याद आते ही सबसे पहले इस गीत की याद और गीत की याद आने पर पंकज की याद हमेशा आती रही है, आती रहेगी. यह गीत मेरे प्रिय गीतों में है, जिसे मैं अपने इस कवि-मित्र के व्यक्तित्व से जोड़ता रहा हूँ. उन्होंने कभी यह कहा नहीं, पर यह हमेशा लगा है कि इस गीत से पंकज के व्यक्तित्व को जाना-समझा जा सकता है. यह गीत जावेद अनवर का है. यहाँ पूरा गीत लिखना पंकज के व्यक्तित्व को समझने के लिए भी मुझे ज़रूरी लग रहा है.
ख़ुदग़र्ज़ दुनिया में ये इंसान की पहचान है
जो पराई आग में जल जाए, वो इंसान है
अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए
नाकामियों से घबरा के, क्यों अपनी आस खोते हो
मैं हमसफ़र तुम्हारा हूँ, तुम क्यों उदास होते हो
हँसते रहो हँसाने के लिए
अपनी ख़ुदी को जो समझा, उसने ख़ुदा को पहचाना.
आज़ाद फितरते इंसाँ, अंदाज़ क्यों गुलामाना
सर ये नहीं झुकाने के लिए
बाज़ार से जमाने के कुछ भी न हम खरीदेंगे
हाँ, बेचकर ख़ुशी अपनी, लोगों के ग़म ख़रीदेंगे
बुझते दिए जलाने के लिए
हिम्मत बुलंद है अपनी, पत्थर-सी जान रखते हैं
क़दमों तले ज़मीं तो क्या, हम आसमान रखते हैं
गिरते हुओं को उठाने के लिए
चल आफ़ताब लेकर चल, चल माहताब लेकर चल
तू अपनी एक ठोकर में, सौ इंक़लाब लेकर चल
ज़ुल्म ओ सितम मिटाने के लिए. तू जी ऐ दिल जमाने के लिए.’’
२.
उस समय पंकज से न तो राजनीति पर अधिक बात होती थी, न कविता पर. मोतीझील में पत्र-पत्रिकाओं की एक दुकान थी, जहाँ कुछ पत्रिकाएँ आती थीं. मुज़फ़्फरपुर का माहौल तब तक ‘साहित्यिक’ नहीं हुआ था. गीतकार जानकीवल्लभ शास्त्री और राजेन्द्र प्रसाद सिंह एक तरह से दो ध्रुवों पर थे. विभाग में श्यामनन्दन किशोर जी थे, पर कामेश्वर शर्मा की ख्याति कहीं अधिक थी. शुकदेव सिंह की विभाग में अस्थायी नौकरी लगी थी. उनमें और कामेश्वर शर्मा में अधिक घनिष्ठता थी. एम.ए. में मेरे साथ बेनीपुरी जी की पुत्री प्रभा बेनीपुरी थीं और विजयकान्त थे, जो बाद में अच्छे कहानीकार हुये और ‘पुरुष’ के संपादक. शहर के माड़ीपुर के चित्रगुप्तपुरी मुहल्ले में पंकज का परिवार रहता था. उनकी माँ स्कूल में अध्यापिका थी. मेरे बड़े जीजाजी भी उसी मुहल्ले में थे. उनके आवास और पंकज के आवास के बीच एक सड़क भर का अंतर था. सड़क पार कर पंकज के यहाँ जाया जा सकता था. उनके बड़े भाई मनोज और मेरा बैच एक ही था. पंकज की छोटी बहनें स्कूल में पढ़ रहीं थीं. खपरैल के उस मकान के बाहर एक लम्बा-चौड़ा बरामदा था. सप्ताह में एकाध बार मैं अपनी बड़ी बहन से मिलने हॉस्टल से उनके पास जाया करता था. कई दिन और शामें पकंज के यहाँ बीती होंगी. उनका व्यक्तित्व आकर्षक था. शरीर गठा था. सम्मोहक था. आत्मविश्वास उनमें दिखाई देता था.
मुज़फ़्फ़रपुर की कई यादें पंकज से जुड़ी हुई हैं. हॉस्टल की याद के बाद एक बड़ी याद मोतझील के श्याम टॉकीज़ से जुड़ी हुई है, जब हम दोनों मैटिनी शो में कोई फ़िल्म देखने गये थे. भीड़ अधिक थी, मैं ‘क्यू’ में लग गया था. तुरंत पंकज को दो व्यक्तियों को लगातार घूसे मारते देखा. वे दोनों ब्लैक से टिकट बेचने वाले थे. एक की नाक से ख़ून बहने लगा था और अचानक उन दोनों ने बंद चाक़ू खोल दिये. तुरंत मैं ‘क्यू’ से निकलकर पंकज के पास आया और उन्हें खींचकर बाहर यह कह कर तेज़ी से निकल गया कि फ़िल्म नहीं देखनी है. उनके चेहरे पर कहीं कोई शिकन नहीं थी. लड़ने-भिड़ने को तैयार. ऐसा दबंग व्यक्तित्व वाला समकालीन हिन्दी का कोई कवि नहीं रहा है. भीतर से कोमल, सहृदय और बाहर से आक्रामक. उसका सर शायद ही कहीं कभी झुका हो. ‘सर ये नहीं झुकाने के लिये.’ उसमें एक खरापन था.
विष्णु खरे ने दो-तीन बार सत्तर के दशक को याद करते हुए पकंज के साथ गाये गये फ़िल्मी गीतों की बात कही थी. कई वर्ष पहले उन्होंने बंबई के मरीन ड्राइव पर रात के बारह बजे टैक्सी रोक कर अपने प्रिय फ़िल्मी गीत गाते हुए पंकज को याद किया था. मैं विष्णु खरे और सुन्दर चंद ठाकुर के साथ बंबई के प्रेस क्लब से ड्रिंक-डिनर लेकर लौट रहा था. उन दोनों को मुझे यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में छोड़ना था. पंकज से मैंने कई बार गाने का आग्रह किया था. वे जब गाते थे, तो पूरी रौ में. टेबल पर थाप देते हुये. अमीर खुसरो से लेकर हिन्दी फ़िल्मी गीत तक. ‘छाप तिलक सब छीनी रे’ सबसे पहले शायद मैंने पंकज से ही सुना था. नुसरत फ़तेह अली खान, आबिदा परवीन और राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में बाद में सुना-
‘‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
बात अगम कह दीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भटी का मधवा पिलाइके
मतवाली कर लीनी रे मोसे नैना मिलाइकै
गोरी-गोरी बईयाँ, हरी-हरी चूड़ियाँ
बाईयाँ पकड़ हर लीनी रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निज़ाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीनी रे मोसे नैना मिलाइके
बात अजब कह दीनी रे, मोसे नैना मिलाइके.’’
3.
साठ के दशक के मध्य से हिन्दी में बंगला का भूखी पीढ़ी आन्दोलन के स्वर सुनाई पड़ने लगे थे- मलय रॉय चौधुरी, समीर राय चौधुरी और शक्ति चट्टोपाध्याय भूखी पीढ़ी के आन्दोलनकारी कवि थे. हिन्दी कवियों में राजकमल चौधरी इस आंदोलन से जुड़े थे. 1966 में ही कामेश्वर शर्मा एम.ए. हिंदी की कक्षा में नामवर सिंह और राजकमल चौधरी को लेकर आये थे. इन दोनों को पहली बार मैंने उसी समय देखा था. नामवर ने हिंदी साहित्य के इतिहास पर व्याख्यान दिया था. उस समय कामेश्वर शर्मा और शुकदेव सिंह हिन्दी के दो ऐसे अध्यापक थे, जिन्हें समकालीन हिन्दी कविता-कहानी की सर्वाधिक जानकारी थी. शुकदेव सिंह को बाद में राजकमल चौधरी ने ‘मुक्ति प्रसंग’ पुस्तक दी थी. उसकी सीमित प्रतियाँ छपी थीं. मैंने शुकदेव सिंह से लेकर ही 1967 में मुक्ति-प्रसंग पढ़ा था. संभव है, पंकज शुकदेव सिंह के संपर्क में रहे हों. भूखी पीढ़ी के आंदोलनकारी कवियों का दर्शन स्पेंगलर (29.5.1880-8.5.1936) के ‘द डिक्लाइन ऑफ़ द वेस्ट’ से जुड़ा था जिसका पहला भाग 1918 में और दूसरा भाग 1922 में प्रकाशित हुआ था.
बंगला कविता की भूखी पीढ़ी का आंदोलन पचास के दशक के ‘कृतिवास ग्रुप’ के लिए एक प्रकार की चुनौती, धमकी थी. ‘भूखी पीढ़ी’ ने भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था पर आक्रमण किया था. मलय रॉय चौधुरी के काव्य ग्रंथ ‘शयनातेर मुख’ (1964) के पहले ‘मार्क्सबादेर उत्तराधिकार’ (1962) का प्रकाशन हो चुका था और ‘आमार जनरेशनर काव्यदर्शन’ 1964 में आ गया था.
‘ज़ख़्म’ कविता 1965 में छपकर प्रसिद्ध हो चुकी थी. पंकज से कई दिनों तक भेंट-मुलाक़ात न होने के बारे में तब यह बताया था कि वह अखाड़ा घाट जाता है जहाँ बूढ़ी गंडक नदी बहती है. उसने उसकी रेत पर बैठे या लेटे रहने की भी बात कही थी. वह समय ही कुछ भिन्न था.
हिंदी में गिंसबर्ग (3.6.1926-5.4.1997) की चर्चा होने लगी थी. पंकज 1966-67 में गिंसबर्ग से थोड़ा-बहुत परिचित थे. उनका थोड़ा ही सही, परिचय भूखी पीढ़ी आन्दोलन से भी था. मलय रॉय चौधुरी का जन्म और आरंभिक शिक्षा-दीक्षा पटना में हुई थी. वे कविता लिखने के कारण जेल गए थे. हिन्दी, भोजपुरी और मैथिली का उन्हें अच्छा ज्ञान था.
1965-66 में संभवतः पंकज मुज़फ़्फ़रपुर में अकेले थे, जो इन सब रचनाओं से कुछ परिचित थे. उन्होंने अपनी बातचीत में शायद एकाध बार गिंसबर्ग का नाम उस समय लिया होगा. राजकमल चौधरी पर भी गिंसबर्ग का प्रभाव था. कलकत्ता और पटना में गिंसबर्ग ने शक्ति चट्टोपाध्याय और मलय रॉय चौधुरी के साथ कई बार चाय की चुस्कियाँ ली थीं. उस समय कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में एलियट (26.9.1888 – 4.1.1965) पढ़े-पढ़ाए जाते थे. वे ‘कोर्स’ में भी थे गिंसबर्ग ‘कोर्स’ के बाहर थे उनके साथ युवाओं की एक पीढ़ी थी. साठ के दशक के आरम्भिक वर्षों में उन्होंने भारत की यात्रा की थी और 1962-63 में वे लगभग छह महीने कलकत्ता रहे थे. फिर बनारस गये. कलकत्ता में शक्ति चट्टोपाध्याय (25.11.1933-23.3.1995) और सुनील गंगोपाध्याय (7.9.1934-23.10.1912) से उनकी मैत्री हुई. बंगला की भूखी और क्रुद्ध पीढ़ी इनसे प्रभावित थी. उनकी ‘हाउल’ कविता युवा कवियों के बीच प्रसिद्ध थी. 1954-55 में लिखी गईं यह कविता ‘हाउल एंड अदर पोयम्स’ (1956) में संकलित है.
गिंसबर्ग समलैंगिक थे. बीट और हिप्पी पोयटी का यह जनक दिसंबर 1962 से मई 1963 तक अपने साथी पीटर ओरलोव्स्की के साथ बनारस में था. दिल्ली और अल्मोड़ा की उसने यात्रा की. अजन्ता और एलोरा की गुफाए देखीं. साँची और सारनाथ की यात्रा की, कई योगियों एवं आध्यात्मिक गुरुओं से भेंट की. स्वामी शिवानन्द ने उसे ‘ओहम’ का उच्चारण-वाचन सिखाया, बताया, धर्मशाला में दलाई लामा और डलहौज़ी में चोग्याम ट्रंगप्पा रिनपोचे से भेंट की, जो बाद में अमेरिका में उसके गुरु बने.
अपनी एक प्रसिद्ध युद्ध-विरोधी कविता ‘विचिता वोर्टक्स सूत्र’ (1966) में उन्होंने शम्भू भारती बाबा, खाकी बाबा, देवरहा बाबा, ओंकारदास ठाकुर, सत्यानन्द, कालीपद गुहा रॉय और शिवानन्द को याद किया है.
वह वियतनाम युद्ध (1.11.1955-30.4.1975) का समय था. उस समय गिंसबर्ग भारत में सुर्ख़ियों में थे. कलकत्ता से प्रकाशित ‘ज्ञानोदय’ और कई हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी चर्चाएं थीं और ये पत्रिकाएँ हिन्दी प्रदेशों में दूर-दूर तक जाती थीं. मुज़फ़्फ़रपुर में भी बहुत-सी पत्रिकाएँ उपलब्ध थीं. साठ के दशक की हिन्दी कविता-‘किसिम-किसिम की कविता’ थी. ‘नयी कविता’ के आठवें अंक में इस पर विचार किया गया था. पंकज उस दौर में हो रही इन हलचलों से बहुत न सही, कुछ अंशों में अवश्य परिचित थे. उनकी कविताएँ ‘वातायन’ सहित अन्य कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं. हिन्दी कविता पर विचार करने वाले आलोचकों ने साठ के उस दशक पर पूरी व्यापकता में कम विचार किया है.
4.
‘आहटें आसपास’ (1981) पंकज का पहला कविता-संग्रह है, जिसकी पहली कविता ‘शरद के बादल’ (1966) है.
‘‘फिर सताने आ गए हैं
शरद के बादल
धूप हलकी सी बनी है स्वप्न
क्यों भला ये आ गए हैं
यों सताने
शरद के बादल
धैर्य धरती का परखने
और सूखी हड्डियों में कंप भरने.”
पंकज कम उम्र में ही बड़े क़द का व्यक्ति बन रहा था. उसके निर्माण में पिता की बड़ी भूमिका थी. अपना तीसरा कविता संग्रह– ‘नहीं’ (2009) उसने “पिता और कॉमरेड शिवरत्न सिंह की स्मृतियों को” समर्पित किया है.
पिता नैतिक और आदर्शवादी थे. पार्टी के सदस्य नहीं थे, लेकिन कम्युनिस्ट थे. पिता से ‘चेतना और संस्कार प्राप्त करने की बात उसने कही भी है. पचास-पचपन वर्ष पहले की सभी यादें धुंधली है. दृश्य और स्थान के साथ कई आत्मीय व्यक्तियों का चेहरा और उनके अंदाज़ में कहीं कोई धुंधलापन नहीं है. उनके पिता से शायद मेरी भेंट नहीं है पर माँ का सुंदर और लगभग भव्य चेहरा स्मृति में है. वे लम्बी थीं और उनका व्यक्तित्व शालीन और गंभीर था. पकंज किसान परिवार से आते थे. मैं उनके गाँव ‘चेता’ नहीं गया था, पर पुराने मोतिहारी ज़िला की कई यादें आज भी मेरे भीतर हैं. पंकज में साहित्य की समझ छात्रावस्था में ही विकसित हो रही थी.
जे. एन. यू जाने के पहले पंकज का एक बड़ा संबंध-संपर्क बन चुका था. वे समकालीन लेखन से अधिक परिचित थे. किताबों पत्र-पत्रिकाओं से उसका एक आत्मीय रिश्ता छात्र-जीवन में ही बन गया था. पिता की अपनी एक लगभग समृद्ध लायब्रेरी थी. उसके मानस-निर्माण में सबसे पहले किताबों और पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका रही. बाद में समय, स्थान और परिवेश की. 1967 का वर्ष कई मायनों में पहले से विशिष्ट हैं.
नामवर इसी वर्ष ‘आलोचना’ के सम्पादक बने, रघुवीर सहाय का कविता-संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ प्रकाशित हुआ, चौथे लोकसभा चुनाव में काँग्रेस की सीट घटी और कई राज्यों में वह पिटी. काँग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका था पर सबसे बड़ी घटना दार्जिलिंग ज़िला के सिलीगुड़ी अनुमंडल के नक्सलबाड़ी प्रखंड में किसान-विद्रोह की उस चिनगारी की थी, जो कुछ समय बाद अग्नि लपट बनकर चारों ओर फैल गयी. 3 मार्च 1967 को कुछ किसानों ने ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर खेतों में लगी फ़सल काटना आरंभ कर दिया था. 18 मार्च तक वे जोतदारों से ज़मीन छीनने लगे थे. 25 मई 1967 को पुलिस गोलीकाण्ड में नौ महिलाओं के साथ पर बच्चा भी मारा गया था. पश्चिम बंगाल में उस समय सरकार संयुक्त मोर्चा की थी और अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री थे.
1967-68 से हिंदी कविता का स्वर, बदलने लगा था, जिसमें मुख्य भूमिका नक्सलबाड़ी आंदोलन की थी. 1967 में मैं ड्यूक हॉस्टल आ गया था और पंकज उस हॉस्टल के 52 नंबर के कमरे में शायद ही कभी आये हो. एक-डेढ़ वर्ष बाद मुज़फ़्फ़रपुर में उनसे मुलाक़ातें कम होने लगी थी. बाहर के कवियों-लेखकों से उनका संपर्क बढ़ने लगा था. उनकी नज़र घटनाओं से लेकर उस समय की उन साहित्यिक गतिविधियाँ और सक्रियताओं पर थीं, जो शहर में नहीं, बाहर घट रही थीं. 1966 से 70 के बीच कविताएँ जितनी भी लिखी हों, पर पहले काव्य-संग्रह ‘आहटें आसपास’ में इन पाँच वर्षों के बीच की केवल तीन कविताएँ हैं- ‘शरद के बादल’, पश्चात सच’ और ‘ऋतुएँ गुनती हैं’.
कविता में शब्द उनके लिए आरंभ से ही महत्वपूर्ण रहे थे. वे 1967 में ‘टूटे हुए शब्दों में अटकी ‘धब्बों भरी एक चीख़’ सुन रहे थे, लिख रहे थे. ‘ऋतुएँ गुनती हैं’ में ‘आसपास स्थानान्तरित होते शब्द’, ‘तुम्हारे फड़कते हुए होंठों पर टूटते शब्द’ ‘मेरे पागल आवारा शब्द’ ‘मेरे अग्नि भरे शब्द’ हैं. यह कवि अपने आरम्भिक दौर में ‘विराट और महान लोकतन्त्र को देख और समझ रहा था. जिस नक्सलबाड़ी आंदोलन ने 1970 के बाद की हिन्दी कविता को प्रभावित कर कविता का संसार बदल दिया, उसके संबंध में आज एक बार पुनः उन पुराने दिनों की याद ज़रूरी लग रही है.
लेनिन (22.4.1870-21.1.1924) के जन्म दिन के अवसर पर 22 अप्रैल 1969 को कलकत्ता में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट (सी.पी.आई. एम. एल.) की स्थापना हुई. संस्थापकों में चारु मजुमदार (15.5.1915-28.7.1972) कानू सन्याल (1932-23.3.2010) और जंगल संथाल (1925-3.12.1988) थे. उस समय पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन था. 1970 से 72 तक यह आंदोलन देश बड़े हिस्से में फैल चुका था.
बिहार में इसकी अपनी एक अलग चमक-धमक थी. उस समय हिन्दी में जो नए कवि कविताएँ लिख रहे थे उन पर इसका प्रभाव लाज़िमी था. जो इससे बचे रहे, वे ‘सीन’ से ‘आउट’ हुये. धूमिल की पटकथा 1968 की ‘आलोचना’ में प्रकाशित हो चुकी थी. कविता का स्वर और रंग बदल रहा था. बाद में ‘बारूदी छर्रे की ख़ुशबू’ आई.
1968 में एम.ए. का रिज़ल्ट आ गया था. मुज़फ़्फ़रपुर छूट चुका था. नवम्बर 68 से एक कॉलेज में और फ़रवरी 1969 से भागलपुर के टी.एन.बी. कॉलेज में मेरी नियुक्ति हो चुकी थी. पंकज से अब भेंट कठिन थी. पंकज की दुनिया वृहत्तर हो रही थी.
पटना से आयोजित युवा लेखक सम्मेलन (27-28 दिसंबर 1970) में वे नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, विजयमोहन सिंह, धूमिल, नीलाभ आदि के साथ मौजूद थे. उनके संबंध से सूचनाएँ और जानकारियाँ मिल रही थीं. लगभग सभी पत्र-पत्रिकाएँ मेरे पास आ रही थीं. बदलता समय और साहित्य सामने था. 1970-72 से उस क्रांतिकारी विचारधारा के प्रभाव में मैं भी था और भागलपुर में नौकरी करते हुए थोड़ी- बहुत सक्रियता थी, जो संस्कृति के मोर्चे पर सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में विशेषतः जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद कहीं अधिक तेज़ हुई.
जे. एन. यू. में पंकज के जाने की ख़बर थी. पंकज के साहित्यिक-सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में जे.एन.यू. की बड़ी भूमिका है. बिहार विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. करने के बाद वे वहाँ रिसर्च करने गये थे. मैं सत्तर के दशक में दिल्ली नहीं गया था. उस समय तो नहीं, पर बाद में यह पता चलता रहा कि वहाँ पंकज कितने अधिक सक्रिय थे. वे वहाँ की ‘लिटरेरी सोसायटी’, के अध्यक्ष रहे थे. 66-67 का भटका, दिग्भ्रमित विद्रोह समाप्त था. सामने एक नयी, चमकीली राह थी, जिसपर वे अकेले नहीं, अनेक प्रतिबद्ध, समर्पित साथियों के साथ थे. उनमें आक्रामकता बढ़ गई थी.
पंकज का व्यक्तित्व अपने सभी समकालीन कवियों, लेखकों से भिन्न रहा है. उनमें लाग-लपेट के होने का सवाल ही नहीं था. वे कभी भी किसी को कुछ भी कह सकते थे, किसी के साथ किसी हद तक जा सकते थे. कइयों ने उनमें अराजकता-उदण्डता भी देखी, पर उनके साहसी व्यक्तित्व की प्रशंसा तो करनी ही होगी. दिल्ली के उस समय के साथी ही उस दौर को याद कर पंकज के संबंध में कुछ भी कहने के अधिकारी हैं. उनके कई अंतरंग भी उनकी तरह इस नश्वर संसार से जा चुके हैं.
पंकज दिल्ली में कुछ अधिक ‘वायलेंट’ थे. उनमें शालीनता सविता सिंह से संबंध के बाद आई, ऐसा मेरा अनुमान है. आंध्र प्रदेश में तेलुगु कवियों-लेखकों ने श्री श्री के नेतृत्व में विरसम की स्थापना 1970 में की थी. वरवर राव इसके प्रमुख कवि थे. विप्लव रचयतला संघम एक ‘क्रांतिकारी लेखक संघ’ के रूप में स्थापित हुआ था. 1972-73 में किसी ने यह बताया था कि पंकज इससे जुड़े थे या दिल्ली में इसकी शाख़ा स्थापित करना चाहते थे.
नचिकेता ने ‘अन्तराल’ पत्रिका का प्रकाशन-संपादन आरंभ किया था. उसके दूसरे अंक में मेरा एक लेख छपा था- ‘नवगीतः कितनी हार, कितनी जीत.’ 1972 के इस अंक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह, शांति सुमन (मुज़फ़्फ़रपुर) के साथ मद्रास के लक्ष्मीकान्त सरस तक के ‘गीतकारों’ के एक मैत्री-संबंध या गुट पर आक्रामक ढंग से लिखा था, जिससे सब तिलमिलाये. राजेन्द्र प्रसाद सिंह मुज़फ़्फ़रपुर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘आईना’ के मासिक साहित्य अंक के संपादक थे. उनके यहाँ लेखकों का ‘अड्डा’ जमता था. पंकज की उनसे मैत्री हुई थी. पता चला कि पंकज ने मेरे बारे में यह कहा है कि वे तो मुज़फ़्फ़रपुर के ही हैं. उन्हें यहीं रोक लिया जाएगा. मैं सुन कर मुस्करा कर रह गया. इसकी सत्यता-असत्यता के बारे में मैंने कभी पूछा भी नहीं. यह एक घटिया कर्म होता.
पंकज की विजयकान्त से मारपीट की नौबत तक आई थी. उस समय जे.एन.यू. में, मेरा अनुमान है, पंकज सबसे अधिक ‘पापुलर’ थे. वे नक्सलबाड़ी आंदोलन के कवि थे, साहसी, दबंग और निर्भीक थे. किसी से भी दबना या किसी के सामने झुकना उनके स्वभाव में नहीं था. ‘सर ये नहीं झुकाने के लिए.’
सत्तर का दशक पंकज के बौद्धिक निर्माण का दशक है. इस दौर में उन्होंने कई ऐसी कविताएँ लिखीं जिन्हें आज भी याद किया जाता है. आपातकाल में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहे थे. इमरजेंसी से पुलिस उन्हें ढूँढ़ रही थी और वे बचते रहे. ‘सम्राज्ञी आ रही है’ कविता (1974) आपातकाल के पहले की है-
“स्वतन्त्रता की इस दोग़ली बहार में
झुक जाओ भद्र भाइयों
सम्राज्ञी आ रही है.’’
उसी समय उन्होंने देख लिये थे ‘सभागारों में उमड़ते आते हैं झूठ के हज़ारों रंग’, जो आज लाखों रंग में हैं. मुक्तिबोध ने साफ़ शब्दों में कहा था- ‘तय करो किसे ओर हो तुम?’ पंकज की एक कविता है- ‘तुम किसके साथ हो’ (1974), इस कविता में उन्होंने ‘संस्कृति के व्याकरण’ के साथ ‘फासीवादी चरित्र’ को पहचाना –
“देखो कैसे चमकता है अंधेरा
काई की गाढ़ी पात सा
एक निर्मम फासीवादी चरित्र पर
देखो लोकतंत्र का अलौकिक लेप’’
कुछ कविताओं को पढ़ते समय ऐसा लग सकता है कि उसके आसपास कहीं मुक्तिबोध और शमशेर की कुछ छायाएँ है, पर पंकज ने कविता में यथासंभव स्वयं अपना एक अलग मार्ग बनाने का प्रयत्न किया, भारत को उस समय ‘अर्ध औपनिवेशिक’, राष्ट्र मानना नक्सलवादी विचारधारा से प्रभावित लोगों के लिए सामान्य बात थी. पंकज ने भी- इस अर्ध उपनिवेश की सुरक्षा के नाम पर, क़ैद कर लिये जाने की बात कही है.
5.
सत्तर के दशक की राजनीति, सत्ता-व्यवस्था और हिन्दी कविता पर समग्रता में विस्तार से विचार करने की आज भी आवश्यकता है क्योंकि जिसे ‘अस्सी के दशक की कविता’ कहा जाता है, उसका अपने इस पूर्व समय से कैसा घनिष्ठ, आत्मीय रिश्ता था, यह जानना चाहिए. इस विचारधारा के सभी कवियों की राजनीतिक समझ इस रूप में साफ़ थी कि हम जिसे आज़ादी कहते हैं, वह वास्तविक अर्थों में ‘सत्ता का हस्तांतरण’ था. नक्सलबाड़ी आंदोलन और विचारधारा का एक इतिहास है और जो कवि-लेखक भावनात्मक स्तर पर इससे जुड़े थे, उनमें से बहुतों को वहाँ की घटना-दुर्घटना का ज्ञान था.
पार्टी की पहली कॉन्फ्रेंस कलकत्ता में 1970 में हुई थी. एक केन्द्रीय कमिटी बनी थी. अगले ही वर्ष 1971 में सत्यनारायण सिंह ने पार्टी नेतृत्व के ख़िलाफ़ बग़ावत की. पार्टी दो घड़ों में बटी. एक धड़ा सत्यनारायण सिंह के नेतृत्व में आया, दूसरा चारु मजुमदार के नेतृत्व में बना रहा. पुलिस हिरासत में 1972 में चारु मजुमदार की मृत्यु हुई. उनकी मृत्यु के बाद सत्तर के दशक में पार्टी और अधिक विभाजित हुई- चारु मजुमदार के समर्थकों और विरोधियों के बीच. केन्द्रीय कमिटी के चारु मजुमदार समर्थक धड़े ने, जिनमें शर्मा और महादेव मुखर्जी प्रमुख थे. चारु मजुमदार की ‘लाइन’ पर चलना उचित समझा. यह धड़ा फिर लिन बिआओ (5.12.1907-13.9.1971) समर्थक और विरोधी धड़ों में बँटा, जौहर, विनोद मिश्र और स्वदेश भटाचार्य ने केन्द्रीय कमिटी की लाइन का विरोध कर, उससे अपने को अलग किया और 1973 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट) लिबरेशन की स्थापना की.
यह पुनर्गठित पार्टी थी, जो लिन बिआओ विरोधी ग्रुप के रूप में जानी गई, जब कि महादेव मुखर्जी का घड़ा लिन बिआओ समर्थक था. 28 जुलाई 1974 को चारु मजुमदार की दूसरी शहादत वर्षगाँठ पर लिबरेशन की एक केन्द्रीय समिति गठित हुई, जिसके महासचिव जौहर (सुब्रत दत्ता) हुए ओर विनोद मिश्र एवं स्वदेश भट्टाचार्य (रघु) सदस्य हुए.
22 अप्रैल 1974 से शहादत दिवस 29 दिसंबर 1975 तक जौहर पार्टी के महासचिव थे. उनके पहले कॉमरेड रामेश्वर यादव और कॉमरेड जगदीश प्रसाद (मास्टर साहब) की हत्या हो चुकी थी. जौहर की हत्या के बाद विनोद मिश्र (वी. एम. के नाम से विख्यात) पार्टी के महासचिव हुए.
किंचित विस्तार से यह सब लिखने की ज़रूरत इसलिए है कि इन सभी घटनाओं की बहुत अंशों में पंकज सिंह को अधिक जानकारी थी. नक्सलबाड़ी आंदोलन ने शिक्षित युवा-वर्ग का मानस बदला, उसे क्रांतिकारी चेतना से लैस किया, एक विश्व-दृष्टि थी और क्रांति-मार्ग पर चलने को प्रेरित और उत्साहित किया. बंगला के अनेक कवि मारे गये. हिंदी के इस विचारधारा से प्रभावित प्रायः सभी कवि सुरक्षित किया. बंगला के अनेक कवि मारे गए. हिंदी के इस विचारधारा से प्रभावित प्रायः सभी कवि सुरक्षित रहे. वे जेल तक नहीं गये. इस विचारधारा से इन कवियों को गहरा लगाव था जो उनकी कविताओं में प्रकट हुआ. दिल्ली आने के बाद पंकज को सोच और कर्म की एक दिशा मिली और जे. एन. यू. से उनके संघर्ष और सक्रियता का दौर आरंभ हुआ. पंकज ने अंत-अंत तक यह माना-
‘‘यह समाज एक दीर्घ-कालिक युद्ध की प्रक्रिया में है. इस युद्ध को सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पादन के सभी स्तरों पर महसूस किया जा सकता है.’’
‘कॉमरेड जौहर की स्मृति को समर्पित’ कविता (1979) ‘रन एक प्रन कठिन’ में वे भोजपुर के संघर्ष को याद करते हैं-
‘‘ख़ून के फूलों ने
लिखनी शुरू की कथाएँ नयी
नए इतिहास की भोजपुर से.’’
उनके पहले हिंदी कविता में बंदूकें गरज़ चुकी थीं, आलोक धन्वा ‘गोली दागो पोस्टर’ लिख चुके थे. ऐसे स्वर लगभग एक दशक तक हिंदी कविता में सुनाई देते रहे-कभी ‘लाउड’ और कभी धीमी आवाज़ में. पंकज ने ‘रन एक प्रन कठिन’ ने लिखा-
‘‘समझने समझाने को अब एक ही चीज़ है
एक ही भाखा
बल्लम बरछे लाठी कैंते की
भाखा बारूद के बदले बारूद की.”
इस कविता से छह वर्ष पहले ‘यहीं से उपजायी जाती हैं ख़ुशियाँ’ (1973) में सत्ता द्वारा ‘गोलियाँ का एक नया व्याकरण’ लोगों को दिए जाने का कवि-स्वर है और ‘नष्ट होते जन्म लेते’ (1973) में ‘लोहे और ख़ून और बारूद के उजाले’ हैं. बार-बार कविता में ‘बारूद’, आता है. कवि को ‘‘अपनी कविता की साँसों में बारूद की गंध’, दिखाई देती है. (हम इतिहास के बेटे हैं’ 1976) उस दौर में कई कवियों ने अपनी कविताओं में गोलियाँ दाग़ी. कविता में इसके पहले शायद ही कभी इतनी अधिक ‘बारूद’ भरी गई हो.
इससे कविता बदली, मुहावरे भी बदले. ऐसी कविताओं पर काफ़ी कुछ लिखे जाने के बाद भी आज भी यह विचार किया जाना चाहिए कि इस विचारधारा से प्रभावित हिन्दी कवियों में एक दूसरे से कहाँ भिन्नता और विशिष्टता है.? कविताओं में गोलियाँ और बारूद थे पर कविताएँ पूरी तरह बारूदी नहीं थी, ऐसी नहीं थी, जिससे राज्य सत्ता ख़ौफ़ खाती. प्रायः सभी कवि यथास्थिति के विरुद्ध और परिवर्तन कामी शक्तियों के साथ थे. पंकज के लिए सामान्य जन ‘पवन पानी’ की तरह है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है. बिना पवन पानी के जैसे कोई जीवन नहीं होता, उसी तरह सामान्य जन से अलग जीवन का कोई अर्थ नहीं है.
6.
पंकज एक समय तक सक्रियवादी कवि रहे. जुलूसों प्रदर्शनों में भाग लिया, अगुवाई की. आंदोलनों में सक्रिय रहे. क्रांतिकारी विचारधारा के चर्चित और महत्वपूर्ण कवियो में उनका स्थान है. तीसरी दुनिया की हलचलों को वे देख रहे थे. आरंभ में जो वर्गीय समझ और दृष्टि बनी, विकसित हुई, वह कभी कमज़ोर नहीं हुई. छाती में ‘वर्ग घृणा’ दहाड़ती रही-
‘‘हमारे अंधेरे में शामिल है एक सिरे से फैलती
तीसरी दुनिया की समस्त आग.”
जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से उनका जुड़ाव नहीं था. ऋतु, प्रकृति के जो चित्र उनकी कविताओं में हैं, उनमें देखने की एक नई दृष्टि है. ‘वसंत’ (1975) वहाँ सामन्य ऋतु नहीं है- ‘‘हर वसंत में फूटता है हर तरफ़ से उजाला.’’
पंकज की एक ख़ूबी उसकी भाषा थी. उच्चारण साफ़ और सुस्पष्ट था. तत्सम शब्दों और सामासिक शब्दों के साथ विशेषक के प्रति एक आग्रह भी है. सत्तर का दशक पहले और बाद के दशकों से एकदम भिन्न और अलग था. इस समय बहुत कुछ बदल रहा था, बन-संवर रहा था. एक ओर इंदिरा निरंकुशता थी तो दूसरी ओर वाम सक्रियता भी थी. हिंदी के जो कवि उस दौर में सृजन रत थे, वे एक साथ अपने को, अपनी भाषा को माँज रहे थे.
‘आहटें आसपास’ पंकज का पहला कविता-संग्रह है, जिसमें 1966 से 1980 तक के पंद्रह वर्षों की कविताएँ हैं. संग्रह की उनचास कविताएँ तीन हिस्सों में हैं, और इन सभी हिस्सों के समर्पण को देखने से उनके व्यापक चिंतन और संबंध-संसार से भी हम परिचित होते हैं. उस दौर के कई कवियों की कविताओं में ‘शब्द’, ‘भाषा’ के प्रति चिंताएँ व्यक्त हो रही थीं. वे सब नये, सार्थक, दीप्तिमान शब्दों को कविता में ला रहे थे, उन पर कविताएँ भी लिख रहे थे. कविता में केवल अंतर-वस्तु ही महत्वपूर्ण नहीं है. गंभीर और बेचैन कवि उन शब्दों की तलाश में भी रहता है, जिसमें वह वह कहे, जो अभी तक कहा नहीं गया है. यह मात्र शब्दों की खोज का मामला भर नहीं है.
‘‘यह सिर्फ़ भाषा का मामला नहीं है
कि शब्द
वास्तविकताओं के पक्ष में चले आ रहे हैं
लगातार.’’ (शब्द ; 1979)
‘शब्द’ कविता में नगाड़ों के बजने के साथ शब्दों के आगमन की सूचना है, ‘पास-शब्दों में’ भरी हुई कराहें हैं. कवि ने यहाँ शब्दों को विशेष संदर्भों में रखकर देखा है. भाषा के प्रति पंकज आरंभ से है सचेत रहे हैं. ‘जैसे पवन पानी’ में एक कविता है, ‘ओ मेरी भाषा’ (1982)-
‘‘उग जाग ओ मेरी भाषा
गुज़रती सदी के रंग बिरंगे कोहराम में
आग का
मौन दर्प लिये.’
भाषा इस कवि के लिए मात्र भाषा नहीं थी-
“खून के आईने में वक्त का चेहरा दिखा
ओ मेरी भाषा, मेरी औरत, मेरी माँ, मेरी धरती.’’
शब्दों की रक्षा का प्रश्न आज जितना बड़ा प्रश्न है, उस समय नहीं था. यह अध्ययन का विषय है कि स्वतंत्र भारत की राजनीति ने शब्दों की दुनिया को सँवारा या बिगाड़ा. कवि अगर शब्द-सचेत नहीं है, तो वह कविता नहीं लिख सकता. सत्तर के दशक में जो कुछ शब्द गूँजे और फैले उनमें एक शब्द ‘क्रान्ति’ है. नक्सलबाड़ी ने संसदीय राजनीति के विरुद्ध क्रांतिकारी राजनीति को केंद्र में ला दिया था. दूसरी ओर जयप्रकाश नारायण ‘संपूर्ण क्रांति’ की बात कर रहे हैं-
‘‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है
भावी इतिहास हमारा है.’’
हम जिन्हें नक्सलबाड़ी विचारधारा से प्रभावित और उनके प्रति समर्पित जिन कवियों का अब तक उल्लेख करते हैं, उन सभी कवियों की ‘शब्द’ और ‘भाषा’ के प्रति चिंता या गहरे सरोकारों पर हमने कम ध्यान दिया है. पंकज के तीन काव्य-संग्रहों में ‘शब्द’ और ‘भाषा’ की मात्र शाब्दिक उपस्थिति नहीं है, उसके प्रति चिंताएँ और उसे सार्थक रूप में साकार करने की एक छटपटाहट या बेचैनी भी है. वे जहां ‘खोए शब्दों’ की बात करते हैं वहाँ हमें यह देखना होगा कि कैसे शब्द कब खो गये? ज़ाहिर है, ऐसे शब्दों में ‘स्वाधीनता’, ‘बदलाव’, संघर्ष’ और ‘क्रांति’ जैसे शब्द ही नहीं इनके सभी पड़ोसी शब्द भी होंगे. ‘अपने ही खोए शब्दों का आविष्कार करना होगा’ या ‘संभव करेंगे सुंदरतम शब्दों का पुनर्जन्म! पंकज ‘अनुभव की वर्णमाला’ को कविता में प्रस्तुत करते हैं.
उस दौर के कवियों में भाषिक दृष्टि से पंकज का अपना अलग स्थान है. वे ‘छूटे अधूरे संवाद’ को शुरू करने के किए केवल ‘याददाश्त’ को जरूरी नहीं मानते–
“इस मामले में याददाश्त से ज़्यादा जरूरी होगी
स्वाधीनता की आदिम इच्छा.’’
स्वाधीनता मात्र एक शब्द नहीं है. वह जीवन है. 1947 की राजनीतिक स्वाधीनता उन सभी कवियों के लिए अधूरी थी, जिसे पूरी करने के लिए वे एक प्रकार की ‘स्वाधीन कविता’ की रचना कर रहे थे. हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि नक्सलबाड़ी आंदोलन स्वाधीन भारत में बीस वर्ष बाद घटित हुआ था. उस दौर के कवियों में ‘स्वप्न’ बार-बार दिखाई देगा. पाश ने तो लिखा ही था. ‘सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना’.
स्वप्न का यथार्थ बनना कठिन है. इसे असंभव नहीं माना जा सकता. नहीं माना जाना चाहिए. जहाँ तक ‘यथार्थ’ का प्रश्न है वह बहुत पहले ही साफ़-साफ़ दिखाई नहीं पड़ता था-
‘‘प्रकाश और धुँधलके कितने परदों
कितने रहस्यों में लिपटा होता है यथार्थ”
(यथार्थ के बारे में’ कविता)
यह कवि-दायित्व है कि वह जो यथार्थ और वास्तविक है, उसकी न केवल पहचान करे बल्कि सबको उसकी पहचान भी कराये. यहीं कविता ‘झूठ’ के ख़िलाफ़ और ‘सच’ के साथ खड़ी हो जाती है. नव उदारवादी अर्थ-व्यवस्था के दौर में हिन्दी कवियों का दायित्व पहले से कहीं अधिक, हो कहीं अधिक बड़ा-बढ़ा है. ‘बेतुके’ और ‘क्रूर’ समय की समझ के बिना समय की कविता नहीं लिखी जा सकती सच कहने के लिए साहसी होना ज़रूरी है-
“अब ज़रूरी है लगभग अड़ने की आदत
कोई वृत्तांत संभव न होगा बिना जोखिम उठाए
साफ़ शब्दों में बताना होगा बिना लाग-लपेट”
पंकज का काव्य-स्वर ‘अस्वीकार’ का है. जो है जो घटित हो रहा है, उसके अस्वीकार का है. तीसरे, काव्य -संग्रह ‘नहीं’ में हम इसे देख सकते हैं, जहाँ ‘नहीं’ में नकार, अस्वीकार का साहस भी है. संग्रह में ‘नहीं’ शीर्षक से कोई कविता नहीं है, पर यह वह कवि-स्वर है, जो अधिसंख्य स्मृतियों में ही सुरक्षित है. पुराने शब्दों में ‘सच की आभा’ थी.
‘‘पुराने खोये हुए शब्द जाने कहाँ-कहाँ से निकल आते हैं
मुझे अकेला पाकर पास आ बैठते हैं, विवर्ण हैं’’
पंकज भाषा में ‘संघर्ष का चित्र’ निर्मित करना चाहते थे- ‘‘कोई चित्र नहीं बनता भाषा में संघर्ष का’’
वर्तमान में सत्याभा वाले सभी शब्द धुँधले ही नहीं हुये, विरूपित और अर्थहीन भी किये जाने लगे. न स्वप्न रहे, न वैसे ऊर्जस्वित शब्द, न संघर्ष, न आंदोलन. शताब्दी के अंत का माहौल और समय एकदम भिन्न हो चुका था. पंकज ने शब्द सत्य, स्वप्न सबको एक साथ रखा-
‘‘सच की आभा वाले उन्हें पुराने शब्दों को
कि उन्हीं में बसी है हमारे सपनों की साँसे.’
7.
बार-बार पंकज का चेहरा, उसके बाल और अंदाज़ आँखों के सामने आ जाते हैं. अपने व्यक्तित्व में भी वह अपने अन्य समकालीन कवियों से भिन्न थे. लगभग एक दशक के बाद अस्सी के दशक में उन से मेरी भेंट मुज़फ़्फ़रपुर में ही हुई थी. पता लगा था कि पंकज शहर में हैं और उनकी बहन की शादी हुई है. मैं उनसे मिलने गया था. वहाँ नीलाभ भी थे. फिर पंकज का वही अन्दाज़. नीलाभ से उसने कहा-ये ऑनर्स एवं एम.ए. के ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ हैं. यह मुझे नागवार लगता था, पर मैंने उन्हें कहा – पुरानी बातें हैं. केवल सर्टिफ़िकेट में है- अब अर्थहीन है. हम तीनों शहर के कल्याणी चौक तक आए थे. पंकज ने बातचीत में जानना चाहा था- मैं क्या पढ़ रहा हूँ. उन दिनों मैं कृष्ण बलदेव वैद को थोड़ा-बहुत पढ़ रहा था.
सुनने पर पंकज ने कुछ आश्चर्य से पूछा था- अरे! वैद! मेरे स्वभाव में मार्क्सवाद् से बाहर की भी चीज़ें थीं. जो थोड़ी-बहुत उपलब्ध होती, उन्हें देख लेता. बलदेव वैद को हिंदी में स्वीकृति नहीं मिली थी. उन्हें पढ़ना और समझना दुष्कर था. कल्याणी चौक पर उस शाम की एक घटना भुलाये नहीं भूलती. एक रिक्शा चालाक को एक पुलिस अपनी लाठी से पीटना ही चाहता था कि हम तीनों उसके पास पहुँचे. पंकज ने उसे पकड़कर कहा था-उस कार वाले को क्यों नहीं पीटते, जिसकी कार सड़क पर है. दो-चार मिनट की बातचीत के बाद सिपाही का रवैया बदल चुका था.
यह सत्तर के दशक का पंकज नहीं था. पंकज की राह सदैव एक ही रही. समय के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया होगा, पर वे संयत होने लगे थे. फ़्रांस और लंदन में अधिक समय तक रहे थे. लेनिन, माओ और हो-भी मिन्ह के बाद अब वे चे और फ़िदेल कास्त्रो के साथ अधिक थे. उनका मस्तक सदैव ऊँचा उठा रहा. कई मित्रों ने कई तरह की बातें कहीं- स्त्री-प्रेम, शादी, फ़्रैंच लड़की से संबंध से लेकर तारिक अनवर और सीताराम केसरी से संबंधों को लेकर. मैं केवल सुनता रहा था.
अपनी कुछ कविताओं में उन्होंने ‘ऊँचे माथे’ को सामने रखा- ‘‘माथा ऊँचा किए रहूँगा आख़िरी वार तक’’ (यथार्थ के बारे में) और ‘मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा’ कविता में
‘‘सजल स्मृतियों से अभिस्मित मस्तक को ऊँचा उठाये
सहज गति से चलता हुआ मैं जाऊँगा.’
कवि को ही क्यों प्रत्येक लेखक, शब्दकर्मी, संस्कृतिकर्मी को कुछ भी नहीं छुपाना चाहिए, उनका दोहरा व्यक्तित्व नहीं होना चाहिए. पंकज के व्यक्तित्व में कोई दोहरापन-दोग़लापन नहीं था. जो हैं, वे हैं. जिस कवि और रचनाकार में आत्मसम्मान नहीं होता, वह कभी खड़ा नहीं हो सकता. पंकज की कविताओं से उसका एक व्यक्ति-चित्र निर्मित हो सकता है.
‘‘छिपाते हैं षड्यंत्रकारी छिपाते हैं चोर
छिपाते हैं लालची और क्रूर शासक, उनके कारकुन
ईर्ष्या और प्रतिरोध के जहर में उफनते लोग.”
उसने अपना रास्ता चुन लिया था. इस रास्ते पर चलने से थोड़ा नुक़सान संभव था. मुझे नहीं पता कि पंकज को कितना नुक़सान हुआ या लाभ? सविता सिंह से विवाह के बाद, मेरा अपना अनुमान है, पंकज अधिक स्थिर हुआ, अधिक शालीन. उसके लिए
“बड़ी चीज़ है साफ़ जिन्दगी, बड़ी चीज़ है साफ़गोई
आतंक की आँखों में आँखें डाल, सादगी से कहना अपनी बात.’’
बाद की कई कविताओं में उसने सादगी से अपनी बातें कहीं हैं. पंकज ने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी. हताशा-निराशा का शायद ही कोई स्वर उनके यहाँ मिले. अक्सर मुझे लगता है पंकज की जीवन-यात्रा और रचना-यात्रा में भी चार दौर प्रमुख है. पहला मुज़फ़्फ़रपुर में छात्र-जीवन और दूसरा जे.एन.यू. का समय है. तीसरा समय फ़्रांस और लंदन में रहने का है और चौथा या अन्तिम समय सविता सिंह से वैवाहिक जीवन के बाद का है. कम ही सही इन चार चरणों के बारे में जब कुछ सोचता हूँ, लगता है वे निरन्तर ‘मैच्योर’ होने गए हैं.
उनसे मेरी कभी कोई झड़प नहीं हुई. हमेशा मेरे-उनके बीच एक शालीनता और गंभीरता रही है. हम दोनों एक दूसरे के संपर्क में कम रहे, पर जब भी मिलना हुआ, बड़े प्रेम से मिलना हुआ. विगत पचास वर्ष में मैं कहीं नहीं झुका. शायद बाद की मैत्री का भी यह एक पुख़्ता आधार रहा हो कि इस व्यवस्था और राज्य सत्ता के विरुद्ध हम दोनों ही रहे.
8.
अब केवल पुरानी यादें हैं. दिल्ली में उनसे कई बार की भेंट हुई. उनके आवास पर अनीता और मैं दोनों लंच या डिनर पर आमंत्रित थे. मंगलेश भी थे. फिर पुस्तक मेले में हुई कई भेंटें. मिलने की बातें. अंतिम बार हाथ मिला कर और शायद गले मिलकर भी घर पर आकर मिलने का वादा जो वादा ही रहा. देहरादून में वीरेन, मंगलेश, सविता सिंह, अनीता के साथ सड़कों पर चलना और वह गीत गायन. अब न वीरेन है, न पंकज.
पंकज लम्बे समय तक ‘स्टाइलिश’ रहे थे. ‘रजनीगंधा’ के दिनेश ठाकुर की तरह चश्मा हाथों में रहता था. शानदार, शुद्ध उच्चारण. शब्द-प्रयोग के साथ वाक्य-संरचना पर ध्यान. एक प्रकार की नफ़ासत, बहुआयामी व्यक्तित्व. कविता में शब्द, वाक्य, क्रियाओं, सह क्रियाओं पर ध्यान. विषय-वैविध्य. एक क्रिया-प्रयोग यह भी-
‘‘ग़रीबी है तो हैगी
हारी-बीमारी हैगी.’’
ऐसी क्रियाओं में ध्वनियाँ बोलती हैं.
पंकज ने एक विचार-प्रमुख ‘सोच’ पत्रिका निकाली थी. भेजी थी. मैंने दो-तीन बार ‘प्रभात ख़बार’ के दीपावली अंक के लिए उनसे कविताएँ माँगी. उन्होंने दी और फ़ोटो भेजते हुए यह भी कहा कि यह अकेला फ़ोटो है, इसे अवश्य भेज दीजिएगा. उनसे हुई भेंटों के बीच में कितने भी अंतराल-वर्ष क्यों न आए हो, पर संबंध सदैव वैसा ही बना रहा-तरो-ताज़ा और आत्मीय. समय बदलता गया. कई कवि भी बदले, पर पंकज अपने मार्ग से न हटा न डिगा. मस्तक वैसा ही तना रहा. ‘सर ये नहीं झुकाने के लिए’ उनमें एक अनौपचारिकता थी. मेरी अपनी एक समझ है कि जो कवि औपचारिक होगा, वह कुछ भी हो लेकिन कवि नहीं होगा. न विष्णु खरे थे वैसे न देवताले.
9.
यह सब जानते हैं, वे बी. बी. सी. की हिंदी सेवा में उद्घोषक थे. जनसत्ता में उन्होंने कला-समीक्षाएँ लिखी थीं. संभवतः नवभारत टाइम्स में वामपंथी दलों पर भी लिखा. कुछ कथा-फ़िल्मों के स्क्रिप्ट भी लिखे. सम्प्रदायवाद और फ़ासीवाद के सदैव विरोधी रहे. संभवतः एक उपन्यास भी लिख रहे थे और अपने चौथे कविता-संग्रह की तैयारी में भी लगे थे. कवि का जीवन सुरक्षित नहीं होना चाहिए, ऐसा वे मानते थे. घिरे तो हम सब है, पर पंकज ‘हम घिरे हैं, गिरे नहीं.’ कविता में अपनी बिटिया ‘मेधा’ से कहते हैं-
‘‘वह कौन है, मेधा? मोमबत्ती ढूँढती हुई अंधकार में
अपनी ही प्रति-छाया सी
किसी गोपनीय शाप का दूसरा सिरा थामे- हम एक दूसरे को प्रशान्त स्वर में बताते हैं
कि हम घिरे हैं
गिरे नहीं
डर और लालसा की बजबजाहट में.”
समय जितना बदल गया हो, दृश्य भी बदल गए होंगे, पर जो भी कवि परिवर्तनकामी है, वह देखेगा- ‘‘दृश्यों के बीचोबीच उगते हैं आग के फूल भी रक्तवात नीलाभ.’’ कविता में उन्होंने अपनी कवयित्री पत्नी से कुछ-
“इस क्रूर समय में बर्बरता के सम्मु
मैंने तय किया है, सवि, महज़ शिकायत नहीं करूँगा
लड़ूँगा
माथा ऊँचा किए रहूँगा आख़िरी वार तक
बीच में रोना सुनाई दे कभी तो ज़्यादा कान न देना
जब तक टूटने-तड़पने की आवाज़ें बेहद तेज़ न हो जाएँ
ठीक से समझ लेने की बात यह है, सवि
कि मुमकिन चीज़ों की सूची में
मारे जाने की आशंका को काफ़ी ऊपर रखना होगा”
पंकज ने ‘आहटें आसपास’ शिक्षा शास्त्री इवान इलिच, श्यामाचारण दुबे, वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह और साथी कवि-लेखक-पत्रकार मित्र आनन्द स्वरूप वर्मा, अजय सिंह, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, नीलाभ, विजयमोहन सिंह एवं अपने साथ आमोद कंठ के साथ चित्रकार सैयद हैदर रज़ा, कवि कारोलिन दमीनक, कवि केदारनाथ सिंह तथा गिरधर राठी, सुरेश शर्मा, रेखा कामत, विजय चौधरी, फ़्रॉक रोलिए, ब्रिजित, कारोलिन दोर्मिनिक, रने दावी दूधनाथ, ज्ञानरंजन, कुबेर-कमलिनी समर्पित किया है.
पुस्तक के तीसरे खंड में मुन्ना भैया और एलिज़ाबेथ को और कुछ कविताएँ ‘माँ के लिए है’, यह लिखना इसलिए आवश्यक लगा कि 1980 पंकज के आत्मीय संसार का एक व्यापक फैलाव था. इस समर्पण नाम-सूची से उसकी गहरी आत्मीयता, अभिन्नता और संवेदनशीलता भी प्रकट होती है. पारिवारिक होने के बाद ‘जैसे पवन पानी’ की कविताएँ ‘सविता, मेधा, दिव्या, को भेंट की और ‘नहीं’ को अपने पिता को समर्पित किया. जिस तरह पिता ‘हड्डियों में कड़कते दर्द के बावजूद’ ‘ल्यूकीमिया में आख़िरी साँस तक’ गाते रहे थे, बहुत कुछ उसी तरह पंकज भी अंतिम दिनों तक गाते रहे. वे ‘पिता के पुराने गीतों और सपनों के साए में’ बड़े हुए थे. वे पिता की राह पर चले-
‘‘लोग पहचान लेते है कहते हैं अरे
यह तो उन्हीं मास्टर साहब का बेटा है
कम्युनिस्ट थे नाकाम रहे ग़रीबी में मरे, च्च…च्च
और यह भी उसी राह पर दिखे है, हाय’’
पिता की राह मार्क्सवाद की राह थी. पंकज की राह उससे कुछ क़दम आगे मार्क्सवाद-लेनिनवाद की राह थी. नक्सलबाड़ी आंदोलन शिथिल हुआ, पार्टी में टूट-फूट हुई, पर पंकज अंत-अंत तक उस विचारधारा के साथ रहे. स्वाधीनता के आग्रही और क्रांति-स्वप्न देखनेवाले अकेले कवि नहीं थे. इस विचारधारा से जड़े कवियों के दूसरे दौर में थे वे. पहले दौर में धूमिल, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, ध्रुवदेव मिश्र पाषाण, तड़ित कुमार, हरिहर द्विवेदी, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, लीलाधर जगूड़ी, गोरख पाण्डेय, कुमार विकल आदि थे और दूसरे दौर में ज्ञानेंद्रपति, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह, बल्ली सिंह चीमा, मदन कश्यप आदि कई नाम है, इन सभी कवियों में बौद्धिकता पंकज में सर्वाधिक रही है. प्रश्न पहले और दूसरे दौर का नहीं है और न किसी कवि-विशेष की प्रमुखता का है. पंकज अंत-अंत तक अपनी भावधारा और विचारधारा में लगभग समान हैं. शब्दों और भाषा के प्रति गहरा लगाव उनमें आद्यन्त रहा है. उन्होंने, ‘बच्चों की हँसी, देखी’ और ‘छिली त्वचा’ भी.
वे प्यार को प्यार करने वाले कवि हैं- ‘‘मैंने प्यार को प्यार किया”. उनकी कुछ कविताओं और काल-पंक्तियों को पढ़ते समय अचानक रघुवीर सहाय की याद आ जाती है. ‘मसलन महेश’ (1999) में महेश मारा जाता है इसी प्रकार ‘हें, हें, प्रतिनिधि’ कविता. पंकज पर किसी कवि का प्रभाव नहीं है. मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय किसी का नहीं. उस समय जैसी कविताएँ लिखी जा रही थीं, उनसे उनका काव्य-स्वर एकदम भिन्न है.
रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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बहुत सुंदर स्मृति आलेख । पंकज सिंह के जीवन काल में लिखा जाता तो अच्छा होता । जिन दोस्तों की पंकज सिंह ने कवि बनने में, किताब प्रकाशित कराने में और जीवन के अन्य प्रसंगों में मदद की उन्होंने ही उनकी घोर उपेक्षा की । मंगलेश डबराल का प्रथम कविता संग्रह पंकज सिंह के प्रयासों से ही प्रकाशित हुआ उसका कवर शायद बिष्ट जी से बनवाने वे लखनऊ चले गए थे । समकालीन हिंदी कविता के वे प्रमुख कवि थे/हैं । विजयकांत से मुजफ्फरपुर में जब पंकज सिंह का झगड़ा/मारपीट हुई तो विजयकांत ने पुरुष का एक पिटाई अंक ही प्रकाशित कर दिया था । बहुत बातें हैं ।
देर आयद दुरुस्त आयद । रविभूषण जी और समालोचन का आभार यह स्मृति लेख पढ़वाने के लिए ।
षड्यंत्रों का एक अंतहीन सिलसिला उनके खिलाफ चलता रहा। वे लिखते – पढ़ते रहे, अपना काम करते रहे। लोगों से प्रेम करते और पाते रहे। मैं इसपर सोचती रही हूं, लिखती भी। यह एक तरह की संस्कृति रही है हिंदी की मैडक्यूलिनिस्ट दुनिया की।
अपने षड्यंतकारियों से ज्यादा बड़े कवि और इंसान थे वे।
खोजबीन से ज्ञात हुआ है कि 1974 में अपने ज़माने की एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका #पुरुष के सम्पादक और एक भुला दिये गये विलक्षण कथाकार विजयकांत की पिटाई 24 वर्षीय उठते हुए एक नयनाभिराम कवि Pankaj Singh ने मुज़फ्फरपुर के चतुर्भुज-स्थान से कोई एक किलोमीटर दूर कल्याणी-चौक पर की थी, तब तक शायद अपने Prabhat Ranjan पैदा भी नहीं हुए होंगे और अगर पैदा हो गये होंगे तो घुटरुन चलत होंगे ।
ज्ञात हुआ है कि इस पिटाई-प्रकरण पर सम्पादक विजयकांत ने ‘पुरुष’ का एक पिटाई-विशेषांक निकाला था, जिसमें उस वक़्त के जाने-माने लेखकों यथा ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, विजयकांत, सुरेश कांटक, ज्ञानेन्द्रपति, विनय श्रीकर और शायद Neelabh Ashk इत्यादि लेखकों ने लेख लिखे थे ।
‘पुरुष’ के उस ऐतिहासिक पिटाई-विशेषांक की हम खोज कर रहे हैं – किसी के पास अगर यह दुर्लभ अंक हो तो कृपया बताएं, जिससे हिंदी-साहित्य के इस अलिखित इतिहास को लिपिबद्ध किया जा सके !
#दुर्लभ_दस्तावेज़
एक पुरानी पोस्ट का हिस्सा ।
कल्पित जी, दरअसल ‘पुरुष’ पत्रिका के संपादक विजयकांत की पिटाई चतर्भुज स्थान से एक किलोमीटर दूर कल्याणी चौक पर न होकर पुरानी बाजार स्थित लोगों की नित्य अड्डेबाजी की एक दुकान ‘राजेन्द्र टी स्टॉल’ में हुई थी। यह दुकान मक्खन मलाई टोस्ट और लीफ की चाय की मशहूर हुआ करती थी, जहां संध्या समय राजेन्द्र प्रसाद सिंह ही नहीं, शहर के लेखक-कवि गण के साथ बौद्धिक जगत के लोग प्रायः बैठा करते थें। इसके दुकानदार का नाम भी राजेन्द्र था और बड़े ही नफीस अंदाज में हिन्दी बोलते थे इस कारण लोग उन्हें आदर से राजेन्द्र जी पुकारते।
वाकया यह था की उसी टी स्टॉल में राजेन्द्र प्रसाद सिंह, पंकज सिंह, विजयकांत और सुरेश शर्मा साथ बैठ चाय पीते विचारधारा पर बात कर रहे थें। विचारधारा पर बात होते हुए सामंत और जमींदारों की बात आई तो विजयकांत ने राजेन्द्र प्रसाद सिंह की जमींदारी सवाल खड़े किए और उन्हें सामंती कहा। पंकज सिंह ने विरोध करते कहा कि उनका जन्म जमींदार घर में होना इत्तेफाक है, इससे वे सामंत कैसे हो गए। उनका लेखन तो शोषितों के पक्ष है, इसलिए विजयकांत, तुम्हारी यह बात अनुचित है। तुम अपनी इस बात के लिए भाई जी(राजेन्द्र जी के प्रति उनका यही संबोधन हुआ करता था।) से माफी मांगो। इस बात पर बात बढ़ गई और विजयकांत ने उन्हें क्षद्मलेखक कह दिया। यह सुन पंकज सिंह उखड़ गए तो मार्क्स की मास्टरी करने वाले विजयकांत ने पंकज सिंह को भी गैर मार्क्सवादी लेखक कह डाला। इतना कहना था कि झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया पंकज सिंह ने विजयकांत के गाल पर। यह दृश्य देख सुरेश शर्मा भाग निकले और राजेन्द्र प्रसाद सिंह उठकर पंकज सिंह का हाथ पकड़ा। विजयकांत गाल सहलाते वहां से चले गए।
इस घटना को विजयकांत ने देश के समस्त मार्क्सवादी लेखकों पर की गई आक्रामक कारवाई के रूप में चिन्हित करने के लिए अपनी पुरुष पत्रिका में मुहिम चलाई। पैंपलेट छापकर उन्हें साहित्य जगत से वहिस्कृत करने और गैर मार्क्सवादी लेखक सिद्ध करने पुरजोर कोशिश की। लेकिन आज कौन वहिस्कृत है यह सबके सामने है। वैसे विजयकांत कई बाहरी लोगों के साथ-साथ अपने कई अंतरंग मित्रों से दारूबाजी के कारण पिट चुके हैं। विजयकांत के पुत्र की शादी डॉ. खगेन्द्र ठाकुर की पुत्री से पटना में हुई थी। पटना में विजयकांत ने उस शादी में क्या दृश्य उपस्थित किया था वह कई सौ लेखकों के जेहन में आज भी होगा।
पंकज सिंह की आक्रामक छवि के कारण लोग उन्हें अराजक भी कहते। लेकिन इस आक्रामकता के पीछे उनकी निडरता थी। वे किसी से दबते नहीं, गलत का सदैव विरोध करते हुए किसी भी सीमा तक चले जाते। हिंसक तक हो जाते। इसी तरह विद्यार्थी जीवन में वे कॉलेजिएट स्कूल में एक लड़के को पीट डाला। उसका सिर फट गया। वो थाने चला गया। यह जानकर वे भागने की जगह थाने चले गए यह जानने कि वह वहां क्या कह रहा। थानेदार ने उन्हें बिठा लिया। शाम जब पुलिस कप्तान से उनकी बात हुई तो उनकी तर्क शक्ति और बोलने की शैली से इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया।
निडरता स्वरूप उनका आक्रामक या अराजक हो जाना उनके लिए जानलेवा भी था। यह बात वे जानते थे। क्योंकि बचपन से ही वे हिमोफिलिक रोग की चपेट में रहे। इसमें रक्तस्राव होने पर ब्लड क्लोटिंग नहीं होता। शरीर में कहीं कट-फट जाए तो खून बहना रुकता नहीं। इस भयंकरता को जानते हुए भी अपने आक्रामक स्वभाव को बदल नहीं पाए। गलत तो गलत होता है और इसका विरोध करना उनके अंत समय तक उनकी फितरत बनी रही।
5-6 जुलाई 2007 को पटना के छज्जू बाग स्थित ‘हिन्दी भवन’ में अयोध्या प्रसाद खत्री की जो 150वीं जयंती संपन्न हो सकी, उसके पीछे पंकज सिंह ही थे। आईपीएफ के फॉर्मेशन के समय पंकज सिंह मुजफ्फरपुर से कई लोगों को लेकर दिल्ली साथ चले तो रास्ते में अलीगढ़ से पहले कुछ लड़कों ने जब राजेन्द्र प्रसाद सिंह के साथ अभद्रता की तो उसे उठाकर पंकज सिंह ने परे धकेल दिया। वे झुंड में थे और धमकी दी कि अलीगढ़ में देख लूंगा। पंकज सिंह की बलिष्ठ काया दहाड़ी तो अलीगढ़ क्या दिल्ली तक कोई नहीं दिखा।
रविभूषण जी को इस आलेख के लिए बधाई एवं शुक्रिया।
पंकज सिंह और उनके सृजन संघर्ष का संपूर्ण मूल्यांकन ।इस तरह का मूल्यांकन रविभूषण जैसे लोग ही कर सकते हैं जो उस दौर से जुड़े रहे हैं और उनके गवाह हैं।
पंकज सिंह के जीवन को समेटते हुए 70 -80 के दशक के नक्सलवादी आंदोलन,सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य का संपूर्ण चित्रण ।
आत्मीय संस्मरण। उनसे कभी मिला नहीं लेकिन समालोचन पर अनेेक बार प्रकाशित संस्मरणों से उनकी शख्सियत से बहुत कुछ वाकिफ हूँ।बतौर कवि सविता जी से भी मेरा संवाद कभी-कभार होते रहा है। पंकज जी एक विरल व्यक्तित्व के संवेदनशील कवि एवं न झुकनेवाले इंसान थे।ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं।उन्हें मेरी श्रद्धांजलि!
रविभूषण जी बेहद आत्मीयता के साथ पंकज सिंह पर लिखा है । मेरा पंकज सिंह से 8वें दशक से परिचय था । वे आहटें आसपास की पांडुलिपि और रजा का बनाया हुआ किताब का आवरण साथ लेकर सम्भावना प्रकाशन आएं थे ,उन दिनों मैं गढ़मुक्तेश्वर में पोस्टेड था और हापुड़ से आवाजाही करता था । एक बार वे फ्रांसीसी जोड़े के साथ हापुड़ आये थे और मैंने उन्हें गढ़मुक्तेश्वर घूमने का निमंत्रण दिया था । वे जोड़े को अंग्रेजी में गढ़मुक्तेश्वर के बारे में बता रहे थे । उनकी अंग्रेजी लाजबाब थी , मैं तो उनका कायल हो चुका था । दिखने में वे दवंग दिखते थे लेकिन भीतर से बेहद कोमल और सम्वेदनशील थे । उन दिनों वे सविता सिंह के साथ प्रेम में थे ,उनके प्रेम प्रसंग सुनाते थे । बाद में वह उनकी जीवन संगिनी बनीं । मैं जिले दर जिले ट्रांसफर पर भागता रहा ,इस तरह दिल्ली मुझसे दूर होती गयी । यह कसक दिल में रह गयी कि उनसे उस तरह नही मिल पाया जैसे मिलना चाहिए था । बहरहाल उनकी बहुत सी यादें मेरे पास है जो उनकी कविताएं पढ़ते समय जीवन्त होने लगती हैं ।
रवि भूषण जी ने पंकज सिंह के जीवन को समग्र रूप से लिखा है । आद्योपांत पढ़ा । मैंने पंकज सिंह के दो पुस्तक संग्रह पढ़े हैं । जैसे पवन पानी और आहटें आस पास । फ़ेसबुक कई वर्षों तक उनकी कविताओं के अंश लिखे । इनकी भाषा निराली है । मुझे मालूम नहीं था कि पंकज सिंह नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित थे । उनके दोनों कविता संग्रहों के ब्लर्ब पर उल्लेख नहीं है । मैं जनवरी ३०, २००२ को विश्व पुस्तक मेले में गया था । राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर गया । वहाँ के विक्रय विभाग के व्यक्ति से पूछा कि क्या पंकज सिंह यहाँ हैं । उन्होंने कहा कि रचनाकारों के लिये बने बैठक कक्ष में बैठे हैं । मैं उनसे मिलने के लिये उत्सुक था । कारण था कि नवभारत टाइम्स में उनकी कविता छपी थी ।
“प्रेम ही करेगा
इस पृथ्वी को इतना निशंक
कि जा सके जीवन अपने पैरों
भविष्य की ओर”
मैंने राजकमल से जैसे पवन पानी ख़रीदा । उनसे मिलने और ऑटोग्राफ़ लेना चाहता था । थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद वे बैठक कक्ष से बाहर । मैंने उन्हें पहचान लिया । और ऊपर लिखी चार पंक्तियाँ सुना दी । पंकज जी ने मुझे सीने से कस कर लगा लिया ।
बहरहाल, तेलुगु के श्री श्री (मैं नहीं जानता) ने कुछ रचनाकारों के साथ विरसम संस्था बनायी । विरसम का फ़ुल फार्म लिख देते ।
जितना मुझे मालूम है-सविता सिंह पंकज सिंह की दूसरी पत्नी हैं ।
मैं सविता सिंह के फ़ेसबुक पेज पर पंकज सिंह के लिये श्रद्धांजलि लिखना चाहता था । लेकिन उनकी प्रोफ़ाइल लॉक्ड है ।
हमारे ज़िला केंद्र हिसार में बहुत वर्ष पहले Suman Keshari, सविता सिंह और बहादुरगढ़ के एक वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे । मैंने अपनी बात रखी । सुमन जी का हिन्दी भाषा का उच्चारण उत्कृष्ट है ।
कमाल । आपका बहुत शुक्रिया । कितना जीवंत वर्णन आपने किया । आप वीरेन नंदा हैं शायद ? विजयकांत जी तो अभी हैं । अद्भुत कथाकार । विजयकांत को भी हिंदी संसार पचा नहीं पाएगा । विजयकांत फिर लौटेंगे । लेकिन पुरुष का पिटाई विशेषांक कैसे मिले ?
आत्मीयता से भरा आलेख। एक दौर को हम समझ सकते हैं। १९६० से १९८० के हिंदी कविता पर नक्सलबाड़ी के प्रभाव पर विस्तार में लिखा गया । उस प्रसंग की चर्चा होती जिसे लेकर विजयकांत के साथ पंकज सिंह का संघर्ष हुआ। विजयकांत ने उस प्रसंग पर ‘पुरुष’ का विशेष अंक ही निकाल डाला।
रविभूषण पत्र में कॉलम लिखते हैं, जहाँ संक्षिप्तता अनिवार्य शर्त होती है, लेकिन जब वे आलोचना-कर्म में उतरते हैं तो विषय को विस्तार से टटोलते हैं। फुनगी से जड़ तक जाते हैं। वे किसी भी रचनाकार पर ठहरते हुए विचार करते हैं। पंकज सिंह के कवि कर्म और उनके व्यक्तित्व के लगभग सभी पहलुओं पर रविभूषण जी ने विचार किया है। इस विचार से पंकज सिंह की कविताओं का नया पाठ भी खुलता है।
मेरे प्रिय टुन्ना भैया की यादें आपने इस लेख में उजागर किए। मैं उनके साथ कुछ समय बिताने की आस में रह गया लेकिन वो निकल पड़े इस जग दुनिया से परे जहां के वो हैं और रहेंगे। धन्यवाद एक छोटे भाई से आपको रविभूषण। बहुत ही अच्छी लेख। बहुत दिनों बाद हिंदी में कुछ अच्छा पढ़ा।
प्रिय कवि से सम्बद्ध रविभूषण जी का यह आलेख तथ्यपूर्ण भी है, भावपूर्ण भी!
मैं जब भी चैता (पंकज सिंह का पैतृक ग्राम) जाता, स्व० रामनरेश सिंह (मेरे श्वसुर स्व० ध्रुव नारायण सिंह, अधिवक्ता के पिताजी), जो पंकज सिंह और विशेषकर उनके पिता जी शिवरत्न सिंह (शिवरतन सिंह) के बारे में बताते .. .. कि शिवरत्न सिंह के पिता भोला सिंह थे, माता रामज्योति देवी थीं। शिवरत्न सिंह की पत्नी गंगा देवी (सिंह) उस जमाने में एम०ए०(हिंदी) तक पढ़ी थीं और मुजफ्फरपुर के एक महाविद्यालय में व्याख्याता थीं। वे बताते – “शिवरतन भाई ने 1940 में लक्ष्मी एच०ई०स्कूल,डुमरा (अब सीतामढ़ी) से मैट्रिक और 1942 में जी०बी०बी०कॉलेज, मुजफ्फरपुर से इन्टरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की..”।
वे पूरा विवरण देते कि पंकज सिंह के बाबूजी कहाँ-कहाँ पढ़ें,कहाँ-कहाँ नौकरी की! वे उनके पुस्तक-प्रेम और संगीत-प्रेम की चर्चा करते। लगता है, पंकज सिंह के व्यक्तित्व के निर्माण उनके पिता के संघर्षशील व्यक्तित्व का प्रभाव था!
कल्पित जी! मेरे पास पुरुष का वह अंक है, लेकिन वह पिटाई अंक नहीं है। उसमें कुछ पृष्ठ उस घटना पर और अनेक लेखकों के प्रतिवाद -प्रतिक्रियाएं हैं। आवरण पर माओ त्से तुंग का चित्र है
रविभूषण जी का यह लेख अपने उस दौर का भी जीवंत दस्तावेज़ है। पंकज सिंह के बहाने वह समय भी सामने आ खड़ा होता है। रविभूषण हमें समृद्ध करते हैं।