पॉल रिचर्ड ब्रास
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पॉल ब्रास (1936-2022) भारतीय राजनीतिक-अध्ययन के उस्ताद थे, उन्होंने भारतीय राजनीति को परिवर्तित करने वाली प्रत्येक घटना को सूक्ष्म नज़रों से देखा और उसकी ख़ूबी-ख़ामी को गहराई से समझा. ब्रास की पारखी नज़र से न केवल राजनीतिक कोलाहलों को समझने का सैद्धांतिक आधार मिलता है, संरचनात्मक पक्षों को भी वे खोलकर समाने रखते हैं. उनकी अध्ययन पद्धति में सिद्धांत और व्यवहार कभी एक दूसरे से ओझल नहीं होते.
जब मैं शोधार्थी होने का ख़्वाब देख रहा था और इस ख़्वाब को उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर उतारना चाह रहा था तब प्रो. मधुलिका बनर्जी ने ताकीद करते हुए कहा था: “उत्तर-प्रदेश पर शोध करना चाहते हो तो ब्रास को पढ़ो.”
प्रो. बनर्जी की यह बात मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में घर कर गई, लेकिन फिर सवाल यह उठा कि ब्रास की कौन सी किताब पहले पढ़ी जाए. असल में, मेरे जैसे निम्न मध्यवर्गीय और हिन्दी माध्यम से पढ़कर आए छात्र के लिए पॉल ब्रास के गम्भीर शोध को पढ़ना आसान नहीं था. फिर एक दिन जब पुस्तकालय से घर लौट रहा था, प्रो. उज्ज्वल कुमार सिंह ने सवाल पूछ डाला:
“और डाक्टर साहब आज कल क्या पढ़ रहे हैं?”
मैंने कहा, “पॉल ब्रास को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ सर.”
उन्होंने शायद मेरी बेचैनी और अनिश्चितता भांप ली थी.
‘तो फिर ‘द पॉलिटिक्स ऑफ़ इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस’ से शुरु करो’. उनके इस वाक्य ने मेरा संकट दूर कर दिया.
यह किताब पढ़ने के बाद मुझे भारतीय राजनीति को समझने का एक सैद्धांतिक आधार मिला. यह किताब भारतीय राजनीति की क्लासिक रचनाओं में शामिल की जाती है. इसमें भारतीय राजनीति के 27 वर्षों के सफ़र के ऐसे विस्तृत ब्योरे हैं जो जातीयता, राष्ट्रवाद और राजनीतिक-आर्थिकी के त्रिकोणीय अंतर्विरोधों को एक प्रमेय की तरह खोल कर रख देते हैं.
इस किताब में ब्रास यह भी बताते हैं कि सामाजिक रूप से खंडित कृषि प्रधान देश में सिर्फ सियासत की रस्साकशी ही दिखती है, जबकि सत्ता के खेल की बनावट और आर्थिक संसाधनों की घेरेबंदी का पक्ष ओझल हो जाता है.
नेहरू युग के बाद, यह खेल जैसे-जैसे केंद्रीकृत होता गया, समाज पर उसका नकारात्मक प्रभाव अलग-अलग रूपों में दिखाई देने लगा. राजनीतिक संगठनों का प्रभाव संकुचित होता गया, जातीय, धार्मिक, जातिगत, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय संघर्ष बढ़ते गए.
ब्रास ने इन परिघटनाओं को “प्रणालीगत संकट” के अस्तित्व के रूप में परिभाषित किया है. इस संकट के समाधान के लिए ब्रास जिस वैकल्पिक राजनीति का तसव्वुर कर रहे थे, उसमें राजनीतिक शख़्सियत की तलाश एक अहम भूमिका रखती है. चार वर्ष के बाद इसी किताब की संशोधित भूमिका में ब्रास ने संकट की एक व्यापक अवधारणा की ओर इशारा करते हुए दर्ज किया कि लोकप्रिय नेतृत्व, सम्मोहक आदर्श और स्थानीय संगठनों का तालमेल लगभग बिगड़-सा गया है.
ऐसे में जिस तरह का वैकल्पिक नेतृत्व उभर कर आया वह स्वयं को भारत की हिन्दू परंपरा का वाहक मानता था. इस नेतृत्व की संगठनात्मक तैयारी और एक शक्तिशाली राज्य की उसकी ख्वाहिश वर्तमान राजनीति की हक़ीकत बन गई है. इसकी संगठनात्मक प्रक्रिया को देख कर ब्रास ने आगाह किया था कि अयोध्या आन्दोलन के नाम पर आरएसएस और भाजपा हिंदूओं के बीच जिस तरह का ध्रुवीकरण कर रहें हैं, वह भारत को हिंसक राजनीति की ओर ले जा सकता है. यह शायद इसी का परिणाम है कि आज भारतीय राजनीति अपने धर्मनिरपेक्ष आधारों से लगभग च्युत होकर सांप्रदायिक उन्माद का अखाड़ा बन गयी है.
ब्रास की यह स्थापना हमें दो अन्य पुस्तकों की ओर ले जाती है. इनमें एक है उत्तर प्रदेश की राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर 1965 में लिखी गई ‘फिक्शनल पॉलिटिक्स इन ऐन इंडियन स्टेट’. यह किताब दो सौ से ज्यादा नेताओं और राजनीतिक विशेषज्ञों के साक्षात्कार पर आधारित है. यह किताब उस दौर में कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी की शनाख़्त करती है. इस गुटबाजी के चलते कांग्रेस का संगठन जिला और स्थानीय स्तर पर प्रभावहीन होता चला गया था और कांग्रेस के परंपरागत समर्थकों में दरारें पड़ने लगी थीं. विचारणीय है कि ब्रास यह सब तब लिख रहे थे जब रामजन्मभूमि और मंडल जैसे आन्दोलनों की कोई ज़मीन मौजूद नहीं थी. लेकिन ब्रास की पारखी नज़र यह देखने में सक्षम थी कि भारतीय राजनीति का अगला पड़ाव क्या होगा.
इस क्रम में दूसरी महत्वपूर्ण किताब ‘लैग्वेज, रिलीजन एंड पॉलिटिक्स इन नार्थ इंडिया’ 1974 में प्रकाशित हुई थी. ब्रास ने इस किताब में इतिहास और समकालीन राजनीति के उन दो किरदारों- धर्म और भाषा की निशानदेही करते हुए बताया कि भारतीय अभिजन समहों ने इन किरदारों को राजनीति के प्रतीक के रूप में इस प्रकार तैयार किया कि वे एक दूसरे के साथ गुंथे नज़र आते हैं. शायद इसी पारस्परिकता के कारण जातीयता और राष्ट्रवाद भारतीय राजनीति पर छाए हुए हैं.
१९९१ के बाद दक्षिण एशिया में साम्प्रदायिकता राजनीतिक शक्तियों के कंधे पर चढ़कर पहचान की राजनीति के सहारे आगे बढ़ रही थी. यह मन्दिर, मंडल और मार्किट का दौर था. सांप्रदायिकता इस कदर हावी हो चुकी थी कि तात्कालिक सरकार ने ‘सेटेनिक वर्सेज़’ जैसी किताब पर प्रतिबन्ध लगा दिया. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता एक दूसरे से कुछ इस तरह होड़ कर रही थीं कि राज्य की शक्तियां उनकी अनुचर बन कर रह गयीं. राजनीति के पास खुद को व्याख्यायित करने के लिए कोई आधार नहीं बचा था.
ब्रास की किताब ‘एथनिसिटी एंड नैशनेलिज़म: थ्योरी ऐंड कम्पैरिजन’ राजनीति की इस केंद्रहीनता का व्याख्यापरक पाठ पेश करती है. ब्रास इस किताब में दिखाते हैं कि जातीयता और राष्ट्रवाद केंद्रीकृत राजनीति में नेतृत्व और गैर-दबंग जातियों के अभिजनों के बीच लाभ की पारस्परिकता से उत्पन्न होती है. बाद में ‘फॉर्म्स ऑफ़ कलेक्टिव वायलेंस: राइट्स, पॉगरोम्स ऐंड जेनोसाइड इन मॉडर्न इंडिया’ जैसी गंभीर किताब लिख कर ब्रास ने यह प्रतिपादित किया कि हिंसा कोई आकस्मिक घटना नहीं है, बल्कि उसके पीछे अन्तर सामूहिक हिंसा और अन्ततः सामूहिक हिंसा की एक लंबी प्रक्रिया मौजूद रहती है. इस किताब में ब्रास उत्तर प्रदेश में घटित पांच घटनाओं की विवेचना के ज़रिये यह दिखाते हैं कि सामूहिक हिंसा असल में राजनीतिक आकांक्षा की प्रक्रिया का परिणाम होती है. वे पांच घटनाएँ ये थीं- अलीगढ़ जिले के जैन मंदिर से मूर्ति चोरी की घटना, मेरठ जिले में एक हिन्दू लड़की का मुस्लिम वृद्ध द्वारा किया गया कथित बलात्कार. (‘कथित’ शब्द का प्रयोग जानबूझकर ब्रास ने किया है, जिससे मामले की अस्पष्टता और उलझाव को समझा जा सके) पुलिस और ग्रामीणों की हिंसा, 1980 में इंदिरा गाँधी एवं उनके बेटे संजय गाँधी की राजनीतिक चाहत का परिणाम तथा 1992 के बाद कानपुर शहर की हिंसा.
ब्रास ने यहां उन घटनाओं को आधार बनाया है जो प्रायः देखने में तो छोटी लग सकती हैं लेकिन समाज की आंतरिक बनावट पर उसका असर बहुत गहरा होता है.
आमफ़हम शब्दों में कहा जाए तो ब्रास अपने अध्ययन में इस तथ्य पर रोशनी डालते हैं कि हिंसा और राजनीतिक व्यक्तित्व दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं. वे बताते हैं कि हिंसा का कोई एक रूप या तरीका नहीं होता. उनके अनुसार भारतीय राजनीति में हिंसा की मौजूदगी को देखने और समझने के लिए बड़ी तारीख (भारत का विभाजन या फिर आपातकाल जैसी घटना) जैसे ब्योरे ही पर्याप्त नहीं होते, बल्कि स्थानीय स्तर पर होने वाली हिंसा भी भारतीय राजनीति और राष्ट्रवाद का स्वरूप तय करती है.
विद्वानों का एक वर्ग ब्रास की सैद्धांतिक निष्पत्तियों और सूत्रों की यह कह कर आलोचना करता है कि हिंसा की प्रक्रिया में स्थानीय कारकों की तलाश के कारण राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली राजनीतिक कार्रवाइयां अनदेखी रह जाती हैं. इसके चलते स्थानीय तंत्र आवश्यकता से अधिक प्रमुख हो जाता है. पॉल ब्रास के कृतित्व का एक अन्तविर्रोध यह भी गिनाया जाता है कि वे हिंसा के तथ्यों की तलाश में राजनीति के समावेशी तथ्य को दरकिनार कर देते हैं.
ए आर मोमिन ने ब्रास की पद्धति (केस स्टडी) को संदिग्ध माना है. मोमिन का मानना है कि विशिष्ट सामाजिक स्थितियों की जटिलता, गतिशीलता और गहनता को सूक्ष्मता से पकड़ने के लिए इस पद्धति का प्रयोग आवश्यक है. और ब्रास इस पद्धति का प्रयोग इन्हीं लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिए करते है. लेकिन इस पद्धति की अपनी समस्या भी है. दरअसल, इस पद्धति के अंतर्गत व्यक्ति अपने अध्ययन के क्षेत्र को तुलना के मानदंड के रूप में लेता है और इसके आधार पर व्यापक सामान्यीकरण में प्रवृत्त हो जाता है. जैसाकि ब्रास ने अलीगढ़ के सांप्रदायिक हिंसा का हवाला देकर इस बात का सामान्यीकरण किया है, सांप्रदायिक दंगा ही लामबंदी का एकमात्र आधार होता है. जबकि ब्रास की यह तजवीज़ गुजरात के नरसंहार के संबंध में अधूरी मानी जाएगी क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा स्वयं ही राजनीतिक लामबंदी का आधार रही है.
दूसरी तरफ, चूंकि ऐसे सामान्यीकरण आमतौर पर एक स्थिर ढांचे के भीतर किए जाते हैं इसलिए उनमें बदलते सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों का उचित संज्ञान नहीं लिया जाता. ब्रास जब अपनी पद्धति के हवाले से यह कहते है कि दंगा एक प्रक्रिया है और जिसे परिभाषित करने के लिए वे ‘संस्थागत दंगा प्रणाली’ पद का प्रयोग करते है. तब सवाल यह है कि दंगे की शुरुआत कैसे होती है? क्या हम धर्म या जातीयता के आधार पर होने वाली हर प्रकार की हिंसा को दंगा ही कहेंगे? ऐसे सवालों को लेकर ब्रास का शोध लगभग मौन है.
आशुतोष वार्ष्णेय ने ब्रास की सामूहिक हिंसा के पूरे विचार को ही यह कहकर ख़ारिज का दिया है कि दंगे और हिंसा की रूपरेखा किसी विशेष स्थान को ध्यान में रखकर तय नहीं की जा सकती. आशुतोष वार्ष्णेय ब्रास द्वारा प्रयुक्त पद- ‘संस्थागत दंगा प्रणाली’ के विपरीत ‘संस्थागत शांति प्रणाली’ का प्रयोग करते है. इसके साथ वार्ष्णेय का यह भी कहना है कि जातीय संघर्ष के संबंध में कोई आम राय क़ायम नहीं की जा सकती.
वार्ष्णेय अपनी किताब ‘एथ्निक कॉनफ्लिक्ट एंड सिविक लाइफ: हिन्दू एंड मुस्लिम इन इंडिया’ में इस बात को स्वीकार करते हुए दिखते हैं कि ऊपरी तौर पर जातीय हिंसा भले ही धार्मिक टकरावों के रूप में प्रकट होती हो परंतु उसके प्रक्रिया बनने में राजनीतिक चाहतों और सामाजिक पदसोपानीयता का भी समावेश होता है.
उल्लेखनीय है कि ब्रास के ऊपर उठाए गए ये सवाल गैर वाजिब नहीं है. ख़ूबियों और ख़ामियों का यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा, लेकिन इससे ब्रास के उस बहुविध योगदान की चमक धूमिल नहीं पड़ती. एक पाठक के दृष्टिकोण से पॉल ब्रास को याद करते समय मैं यह कहना चाहता हूं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने में मैंने उनके लेखों और किताबों को बेहद उपयोगी पाया है. उन्होंने राजनीतिक रूप से सही शब्दावली के इस्तेमाल से दूरी बनाए रखी और राजनीति विज्ञान और अभिजातों के बीच बने अनुशासनात्मक संबंधों के प्रति हमेशा सचेत रहे. इसी प्रवृति के कारण ब्रास के शोध पर उठाए गए लगभग सभी सवालों के जवाब भी मिलते रहे हैं. ब्रास का व्यक्तित्व विचार-विमर्श और संवाद के स्तंभों पर खड़ा था, इसलिए उनका कोई भी शोध कभी पुराना नहीं पड़ता बल्कि एक नए शोध की उत्पत्ति का आधार बनता है.
कुँवर प्रांजल सिंह |
ब्रास का सामान्य परिचय मिला ।विस्तृत विवरण एवं विश्लेषण चाहिए।
बहुत अच्छा लिखा है प्रांजल ने
ज्ञानवर्धक। बधाई प्रांजल।
प्रांजल का आलेख पठनीय और ज्ञानवर्धक है। बधाई प्रांजल।
प्रांजल जी ने चरण सिंह पर पाॅल ब्रास के तीन खंडीय पुस्तक का
उल्लेख तक नहीं किया है?