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Home » जन के जीवन का कवि: पंकज चौधरी

जन के जीवन का कवि: पंकज चौधरी

नरेन्द्र पुंडरीक (15 जुलाई, 1953, बांदा) का छठा कविता संग्रह- ‘समय का अकेला चेहरा’ पिछले वर्ष लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ. आलोचना, अनुवाद और संपादन में भी वह सक्रिय हैं. अगले वर्ष 70 के हो जायेंगे. यह समय उनके कवि-कर्म को देखने-परखने का भी है. कवि पंकज चौधरी ने नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं के जनपदीय आयाम पर प्रकाश डाला है. समाज में जाति और लिंग के पूर्वग्रहों की कविताओं से होते हुए विवेचना की है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 28, 2022
in आलेख
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जन के जीवन का कवि: पंकज चौधरी
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नरेंद्र पुंडरीक
जन के जीवन का कवि

पंकज चौधरी

 

नरेंद्र पुंडरीक हिंदी के एक ऐसे वरिष्ठ कवि हैं जिनकी कविताओं की चर्चा किए बगैर समकालीन कविता की पहचान असंभव है. पुंडरीक अपने सरोकारों, मुद्दों, विषयों से संवेदित और प्रभावित करते हैं. उनकी कविताओं में उठाए गए विषयों को पढ़कर ऐसा कभी नहीं लगता कि इन चीजों ने हमें बुरी तरह से जकड़ नहीं रखा है. पुंडरीक स्‍वनामधन्‍य कवियों की तरह कुछ नहीं छिपाते. वे जो कुछ भी देखते, सुनते और महसूस करते हैं उन्हें पूरी ईमानदारी से कविता में व्यक्त करते हैं. वे चीजें भले ही उनकी जाति, धर्म, वर्ग और समाज की पोल-पट्टी क्यों नहीं खोलती हों. यहीं एक कवि की ईमानदारी चिह्नित होती है-

‘‘मेरी वंश परम्‍परा मुझे यह लगातार याद
दिलाती रहती है कि
जिसमें मैं पैदा हुआ था
वह आदमी नहीं थे
उनके सभ्‍य होने का मतलब था
अपने ही जैसे
शक्‍ल-सूरत, खून और
मांस-मज्‍जा वाले आदमी की
छाया से बचना.’’

यहां यह कहने की जरूरत नहीं कि वे कौन लोग हैं जो आज भी दलितों को सार्वजनिक (?) कुएं या नल से पानी पीने पर गोली मार देते हैं या कोड़ों से पिटाई करते हैं. दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने से उतार देते हैं. शूद्रों को मंदिरों में जाने से रोकते हैं या उनके मंदिरों पर जाने पर उनकी दूध और गंगाजल से सफाई करते हैं. इतिहास गवाह है कि दुनिया की कोई भी सभ्‍यता या संस्‍कृति तभी महान कहलाई है जब वहां के सभी मनुष्‍यों का मान-सम्‍मान एकसमान हुआ है. वहां जन्‍मना ना तो कोई अछूत है और ना ही कोई सछूत. वहां का कोई भी वर्ग यह दावा नहीं कर सकता कि वही सर्वज्ञाता, सर्वश्रेष्‍ठ, जगतगुरु है और बाकी अधम, नीच, निकृष्ट-

‘‘उनके सभ्‍य होने का मतलब
कुछ ना जानने पर भी
सब कुछ जानने का
स्वांग ओढ़कर
पूरी उम्र गुजार देना
उनके सभ्‍य होने का मतलब
परजीवी होकर फैलते चले जाना
चले जाना
और
दुनिया के सकल पदार्थों को
अपनी छाया से ढंक लेना.”

पुंडरीक यहीं नहीं रुक जाते. वे भारत के इस तथाकथित प्रभु वर्ग के अहंकार और झूठी श्रेष्ठता की चिंदियां उड़ाकर रख देते हैं. उनकी काव्‍य पंक्तियों को पढ़कर अब हम यह सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि भारत दुर्दशा के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हैं. आत्म निरीक्षण कवि की सबसे बड़ी विशेषता है-

‘‘उनके सभ्‍य होने का मतलब
अपनी सीलन और अंधेरे के पक्ष में
हमेशा हवा और प्रकाश के सामने
पीठ देकर खड़े होना
अपनी ठेठ उन्मत्त पर
अड़े होना.”

नरेंद्र पुंडरीक ठेठ अंदाज में बात कहने के आदी हैं. यह कविता भारत में चल रहे जाति संघर्ष की सटीक और अचूक अभिव्यक्ति है. जाति संघर्ष के मूल को कवि इस कविता के माध्यम से व्यक्त करते हैं. वर्तमान की ऐसी ईमानदार और निचोड़ अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है.

नरेंद्र पुंडरीक समकालीन हिंदी कविता के उन थोड़े से कवियों में हैं जिनके यहां सामाजिक हकीकत को दर्ज होता हुआ हम पाते हैं. उन्हें इस बात का बेहतर इल्म है कि वही महिलाएं स्वतंत्र हो सकती हैं जो आर्थिक रूप से स्‍वावलम्‍बी हैं. और स्वाधीन हुए बगैर उनकी इच्छाओं और अधिकारों का कोई मोल नहीं है. यह अकारण नहीं है कि उनकी कविताओं में सायास या अनायास उन्हीं महिलाओं को स्‍थान मिला है जो अपने जीवन का निर्णय खुद लेती हैं. कवि पुण्डरीक के मन में ऐसी महिलाओं के प्रति गहरा सम्‍मान है और उन्‍हें वे ऊंचा स्‍थान देते हैं. अपनी बेहतरीन कविता ‘‘वह औरतों के तिजारती शहर से आई थी” में लिखते हैं-

‘‘शहर से आई थी
यानी कटनी शहर की सुवासिन थी
मर्द दर मर्द बदलती
आ लगी हमारे गांव
मर्द का नाम था दुर्गा
पर वह भी ज्‍यादा दिन नहीं टिका
आखिर में सहारा छोड़ मुर्दों का
कूद पड़ी जीवन के द्वन्द्व में
सारे मर्दों का नाम ऐसे मिटा
जैसे वे थे ही नहीं.”

भारतीय समाज में हम जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं, तो पाते हैं कि वहां की महिलाएं स्वतंत्र हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. उनका पति यदि निकम्मा, नामर्द, शराबी-जुआरी है तो वे उनको छोड़ देती हैं. मन-मुताबिक अपने लिए दूसरे मर्दों का चयन कर लेती हैं. वे अपने प्रेमी को भगा भी ले जाती हैं. उनके लिए सेक्‍स कोई टैबू नहीं है या वहां योनि की कोई शुचिता नहीं है. उनके लिए निम्‍न मध्यवर्गीय भारतीय महिलाओं की तरह पति के अलावा किसी दूसरे, तीसरे मर्द की कल्पना करना कोई अपराध नहीं है. एक अच्छी बात इधर यह जरूर हुई है कि महानगरों में रहने वाली मध्यवर्गीय महिलाएं संचार क्रांति, बाजार और आधुनिकता के प्रभाव में स्त्री स्वतंत्रता और ‘‘आर्गेज्‍म” की बात खुलकर करने लगी हैं. लेकिन गौरतलब है कि आर्गेज्‍म और स्‍त्री स्‍वतंत्रता पर विचार-विमर्श भी वही महिलाएं कर रही हैं जो आर्थिक रूप से पराधीन नहीं हैं. बाकी महिलाएं अभी भी परंपरा, संस्कृति और जाति की झूठी श्रेष्ठता ढोने को मजबूर हैं. यह देखी हुई बात है कि स्‍त्री स्वतंत्रता या सेक्‍स कभी भी समाज के कमजोर वर्गों की समस्या नहीं रही है. स्त्रियों पर सारी बंदिशें या उनके आगे बढ़ने पर रोक शुरू से ही द्विज जातियों की समस्या रही है. क्या कोई इस बात को भूला पाएगा कि सती प्रथा, विधवा विवाह पर रोक, घूंघट प्रथा आदि के कारण लाखों-करोड़ों द्विज महिलाओं का जीवन नरक से भी बदतर रहा है इस देश में. अभी भी विधवा विवाह और घूंघट प्रथा एकाध अपवादों को छोड़कर धड़ल्ले से जारी है गांवों में. कभी-कभी सती होने की भी खबरें आ ही जाती हैं.

यह एक समाजशास्‍त्रीय कविता है और लम्‍बी बहस की मांग करती है. यह कविता दलित-बहुजन महिलाओं की स्वतंत्रता को जितनी परिलक्षित करती है, उससे कहीं ज्यादा द्विज महिलाओं की पराधीनता के बारे में सोचने-समझने की दरख्वास्त करती है. आर्गेज्‍म और स्‍त्री स्वतंत्रता की बातें आखिर हवा में तो नहीं होने लगी है.

दलित-बहुजन जातियों में ऐसी खुदमुख्तार, कर्मठ, जुझारू और जीवंत महिलाओं की कमी नहीं. आज से 25-30 साल पहले गांवों में ऐसी महिलाएं अधिकांश घरों में पाई जाती थीं, जो अपने खसम, बिरादरी और समाज को ठेंगे पर रखती थीं. असामाजिक तत्‍वों से अपनी रक्षा तो करती ही थीं, गाढ़े वक्‍त में परिवार, बिरादरी और पूरे समाज के लिए भी खड़ी हो जाती थीं-

‘‘पतंग की डोर की तरह
वहीं से बंधी थी
वहीं से बंधी जीवन की
ठोस इच्छा से
जीती रही यहां
और अपने पीछे छोड़ गई
अपनी ठोस इच्छाओं से
जीने वाली औरतों की एक पूरी जमात
जो प्रलय के आखिरी पल तक
सिर्फ अपने बूते
इस दुनिया को दुनिया
बनाए और बचाए रखेगी.”

हमारे देश में ऐसी अजातशत्रु महिलाओं की कमी नहीं. लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि हिंदी में शायद पहली बार नरेंद्र पुंडरीक का ध्‍यान इस ओर गया है. कवि ने पूरे मान-सम्‍मान और गरिमा के साथ उसका चित्रण किया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसे चरित्र को अब हिंदी कविता में पर्याप्त स्थान प्राप्त होगा. यह कविता इतनी ताकतवर है कि इसके बगैर स्त्री स्वतंत्रता और अस्मिता की चर्चा संभव नहीं.

कवि नरेंद्र पुंडरीक के यहां ऐसी महिलाएं बार-बार अपना स्‍थान पाती है जो आत्मसम्मान की खोज में लगी हुई हैं. जिन्होंने ऐसे पुरुषों का साथ पाया है जिनसे उनका आत्मसम्मान छीज रहा है. जिनसे उनके अंदर बहुत कुछ दरक रहा है. टूट रहा है और स्‍व की तलाश किए बगैर ना तो उनकी हीनता में कमी हो सकती है और ना ही उनका मनोबल ऊंचा हो सकता है-

‘‘अचानक एक दिन वह आई
वैसे नहीं जैसे वह
पहले आती थी
उसके चेहरे और पहनावे में
काफी अंतर था
बातचीत में हीनता नहीं
विश्वास झलक रहा था
जो पति के खत्म होने के बाद
एक स्त्री के भीतर पैदा हुआ था.”

इस कविता में कवि एक ऐसी महिला की चर्चा करते हैं जो अपने शराबी और निक्‍कमे पति के साथ रहने और उसकी गालियां खाने को मजबूर हैं. कवि का कहना है कि पति की बुराइयों ने पत्नी की तमाम अच्छाइयों को ग्रस लिया है और वह उससे निकलने को छटपटा रही है. लेकिन झूठी सामाजिक मर्यादाओं और प्रतिष्ठा ने उसे ऐसा करने से तब तक रोके रखा जब तक कि उसका पति मर नहीं जाता. पति की मौत के बाद ही वह स्वतंत्र होकर खोए आत्मसम्मान को प्राप्त करती है.

कवियों ने महिलाओं पर खूब लिखा है. ईश्वर और महिलाएं कवियों के सर्वाधिक प्रिय विषय रहे हैं. महिलाएं कवियों के यहां जिस तरह अनेक रूपों में आती रही हैं वैसे ही उल्‍लेख्‍य कवि के यहां भी आई हैं. वह प्रेयसी, पत्नी, खुदमुख्तार, स्‍वाभामिनी के रूप में यदि आई हैं, तो एकाधिक जगहों पर इस रूप में भी आई हैं-

‘‘वह उसे मेरी तरफ
देखने के लिए मजबूर कर रहा था
सो मेरी पुरुष होने की फितरत ने
उसे वहां से किसी तरह से निकालकर
अपनी अच्‍छी-खासी सीट पर
जिसपर मैं आराम से बैठा चला आ रहा था
ला बैठाया और स्वयं भीड़ में
बैताल की तरह खड़ा हो गया.”

कवि यहां उस महिला के संबंध में बात कर रहे हैं जिसे भीड़ भरी बस में लोगबाग कुचल देने को आमादा थे. लेकिन कवि उसे वहां से निकालकर अपनी सीट पर बैठाता है. कवि का यह जीवनानुभव है जिसे वह अपनी कविता में टांकते हैं. यह जीवनानुभव उन्‍हें सर्वाधिक सुख, खुशी और आत्मविश्वास का अहसास कराता है. इससे उनको असीम ताकत की अनुभूति होती है और वह लिखता है-

‘‘शब्दों में ताकत
आदमी के व्यवहार से आती है
यह एक खुशनुमा दृश्य था
अभी एक स्त्री के प्रति स्त्री होने का
बर्ताव बाकी था.”

कवि का मंतव्‍य यहां स्पष्ट है. वह कथनी और करनी में कोई फांक नहीं देखना चाहता. कवि जैसा कहता है उसे वैसा करके दिखाता है, तभी शब्दों में ताकत आई है. मेरा ख्याल है कि हिंदी साहित्य की सबसे खूबसूरत पंक्तियों में इन पंक्तियों की गणना होनी चाहिए क्योंकि निस्संदेह आदमी के व्यवहार से ही शब्दों में ताकत आती है.

नरेंद्र पुंडरीक को खुदमुख्तार, निडर, संघर्षशील और श्रमशील महिलाएं प्रिय हैं. कवि ने अपनी कविताओं में ऐसी महिलाओं का चित्रण करके सौन्दर्य की परिभाषा ही बदल दी है. महिलाएं जब जीवन की निर्माता और निर्देशक के रूप में उपस्थित होती हैं तो लगता है कि दुनिया वाकई बदल रही है. ऐसी महिलाएं जीवन संघर्ष के रास्ते में किसी से भी टकराने की हिम्मत रखती हैं-

‘‘लकड़ियां बेचकर
ये पूरे घर के लिए
सपने खरीदतीं
सपने खरीदने से
इन्हें नहीं रोक पाया ईश्वर.”

कवि ने अपनी कविताओं में महिलाओं के संघर्ष, साहस, जिंदादिल एवं उनसे जुड़े और छूटे प्रसंगों को जिस तरह प्रस्तुत किया है, उससे समकालीन हिंदी कविता की परिधि का विस्तार होता है-

‘‘ना जाने कितनी बार
उनमें से कइयों ने
पार कराया मुझे
बरसात में करियानाला
उस वक्त उनके एक हाथ में
मेरा हाथ होता था
दूसरे से संभला होता था सर का बोझ
पानी की तेज धार
ना उससे मेरा हाथ छुङा पाती
और ना ही गिरा पाती सर का बोझ.”

कहना नहीं होगा कि ऐसे ही प्रसंगों और संदर्भों से कविता चमक उठती है, जिसका दिग्दर्शन पुंडरीक कराते हैं. एक बात यहां विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि कवि जब महिलाओं का चित्रण करते हैं, तो इस बात का ख्‍याल रखना नहीं भूलते कि यदि वे ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं तो गांव की, और शहर की हैं, तो शहर का भी वर्णन करते चले-

‘‘इस समय दोनों अपने
सुखों से कोसों दूर
दुख के बीच धंसकर बैठी थीं
दोनों इस वक्‍त एक तथाकथित
शहर में थी जहां सुख
ना होने पर भी
कभी-कभार वह अपनी
झलक मार जाता था
गांव में दुखों की लम्‍बी लिस्‍ट थी.”

इस तरह हम देखते हैं कि पात्र के साथ-साथ स्थान, दृश्‍य, समय की भी कविताओं में मुखर अभिव्यक्ति होती जाती है, जो एक मुक्‍कमल कविता के निर्माण और उसका प्रभाव उत्पन्न करने में सहायक की भूमिका निभाते हैं.

पिता की कृतज्ञता के बोझ से लदी रही है हिंदी कविता. पिता और मां हिंदी कवियों का बहुत दूर तक पीछा करते हैं. नरेंद्र पुंडरीक ने भी इन पर कविताएं लिखी हैं. लेकिन पुंडरीक का स्‍वर अन्‍य हिंदी कवियों से थोड़ा भिन्‍न है. पिता की कृतज्ञता की महिमा उल्‍लेख्‍य कवि भी गाते हैं लेकिन वे पिता को देवता नहीं बनाते. देवता में भी जब कमजोरियां हो सकती हैं तो मनुष्‍य उनसे अछूते कैसे रह सकते हैं?
किसी भी मनुष्‍य का निर्माण तब तक संभव नहीं जब तक कि उनमें नेकनीयती के साथ-साथ मानवीय कमजोरियां नहीं हों. मानवीय कमजोरियां भी यदि किसी में नहीं हो, तो उसका मनुष्य होना संदिग्ध है. पिता का एक रूप यदि अपने बच्चों पर प्रेम, स्नेह और लाड बरसाने वाला का है, तो वहीं बात-बेबात पर उनका गुस्सा करने वाला भी रूप हो सकता है-

‘‘टिकरी पर लेटे पिता
लगता था अभी एकदम से
झटककर हाथ, उठकर चल देंगे
सब कुछ फेंक कर
धरी रह जाएगी
परोसी थाली
एकटक ताकते रह जाएगा
लोटे का पानी
तेज गति से अभी ही फन-फनाकर चल देंगे
छपरा की तरफ
मां जाएगी कुछ दूर तक पीछे-पीछे
कहेगी, देखो इनको
ऐसा ही यह करते हैं हमेशा
बुढ़ा गए हैं
लेकिन अभी नहीं बुढ़ाया है इनका गुस्‍सा.”

इस तरह हम देखते हैं कि कवि पिता का एक ऐसा चित्र खिंचते हैं जो सम्‍पूर्ण के साथ-साथ विश्‍वसनीय भी है. कवि नरेंद्र पुंडरीक पिता और मां पर जब इस बेलौस अंदाज में कविताएं लिखते हैं, तो वे अनमोल हो जाती हैं. कवि के खजाने में ऐसी बेहतरीन कविताएं दर्जनाधिक हैं. नरेंद्र पुंडरीक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैसा कि मुलाकातों में वे बातचीत करते हैं, बिल्कुल उसी अंदाज में बिना किसी जोड़ तोड़ के कविताएं लिखते हैं. एकदम ठेठ देसी अंदाज में. बोलचाल की भाषा में. कोई कृत्रिमता नहीं. कोई बनावट नहीं. उनकी किसी भी कविता को पढते हुए आपको बार-बार यह अहसास होगा की पीछे से नरेंद्र पुंडरीक बोल रहे हैं. किसी कवि की यही मौलिकता, पहचान और ताकत होती है, जो उल्‍लेख्‍य कवि में भरपूर है. यह विशेषता सब कवियों के साथ आपको देखने को नहीं मिलेगी. हिंदी कविता में संप्रेषणीयता की जब भी बात होगी नरेंद्र पुंडरीक का नाम उसमें सबसे ऊपर होगा. कवि ने उस हरेक विषय पर कलम चलाई है जिससे हम जैसे मनुष्‍य का जीवन प्रभावित और संचालित होता है. करुणा, संवेदना, समानता, भाईचारा इन कविताओं के अन्‍यतम मूल्‍य हैं जिनको खत्‍म करने की साजिश लगातार रची जा रही है. वरिष्‍ठ कवि-आलोचक विजय कुमार के शब्‍दों में-

‘‘इन कविताओं में मनुष्‍य के स्‍वप्‍न और यथार्थ के बीच फैली हुई यह कठिन जमीन बार-बार उपस्थित होती है. मूल्‍यों के तीव्रता से होते क्षरण को लेकर उपजी बेचैनी और उन्हें बचाए रखने की विकलता इन कविताओं में बार-बार लक्षित की जा सकती है जो जीवन के बीच से जीवन के पार तक ले जाती है.”

पंकज चौधरी
सितंबर
, 1976 कर्णपुर, सुपौल (बिहार)
प्रकाशन : कविता संग्रह ’उस देश की कथा’ तथा पिछड़ा वर्ग और आंबेडकर का न्याय दर्शन (संपादित)
बिहार राष्ट्रंभाषा परिषद का ’युवा साहित्यकार सम्मान’, पटना पुस्तक मेला का ’विद्यापति सम्मान’ और प्रगतिशील लेखक संघ का ’कवि कन्हैोया स्मृति सम्मान’.कुछ कविताएं गुजराती,अंग्रेजी आदि  में अनूदित

pkjchaudhary@gmail.com
Tags: 20222022 आलेखनरेंद्र पुंडरीकपंकज चौधरी
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Comments 10

  1. अमन कुमार शर्मा says:
    9 months ago

    बहुत कलात्मक पोस्टर हैI पेंटिंग की तरहl पंकज चौधरी न अपनी कविता में न आलोचना में हाशिये के लोगों को भूलते हैंl यह सच्चाई ही उनकी ताकत है I समालोचन के पोस्टरों पर अलग से बात होनी चाहिए.

    Reply
  2. Vinod Mishra says:
    9 months ago

    नरेन्द्र पुणडरीक पर यह एक महत्वपूर्ण लेख है।पंकज चौधरी ने अच्छा लिखा है।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    9 months ago

    मुझे अफ़सोस है कि आज का आधुनिक समाज दलितों से भेदभाव करता है । दलितों में चेतना और शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं में स्वावलंबन आया है । वे पुरुषों के व्यवहार को चुनौती दे रही हैं । वे चेरी नहीं हैं । जैसा नरेंद्र पुंडरीक ने लिखा है कि सेक्स इनके लिये taboo नहीं है । ये महिलाएँ योनि की शुचिता से पार चली गयी हैं । इनका स्वावलंबन इनकी ताक़त है ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी आपने लिखा है कि नरेंद्र जी स्वनामधन्य कवियों में से नहीं हैं जो यथार्थ से बचकर निकले । इसलिये वे सती प्रथा के लिये मजबूर करने और घूँघट में रहने का आग्रह करने वाले समाज से सहमत नहीं हैं । जिन्हें सवर्ण कहा जाता है उनके स्वभाव में बदलाव आ रहा है । यह प्रक्रिया धीमी है । लेकिन प्रयास का सातत्य परिणाम लायेगा । हाँ गाँवों में हालात ख़राब हैं । शिक्षा इसका निराकरण हो सकता है ।

    Reply
  4. Mamta Jayant says:
    9 months ago

    समय समाज को दर्ज़ करती बेहतरीन कविताओं की शानदार समीक्षा! कवि और समीक्षक दोनों को शुभकामनाएँ

    Reply
  5. Vishakha says:
    9 months ago

    नरेंद पुण्डरीक जी के काव्य संग्रह पर पंकज जी की सुन्दर , सारगर्भित समीक्षा पढ़ने मिली । आप दोनों को बधाई , आभार समालोचन

    Reply
  6. निधि अग्रवाल says:
    9 months ago

    आडंबरहीन कविताएँ समाज की विसंगतियों पर गहरा प्रहार करती हुई। पंकज जी की सुचिंतित टिपण्णी कविताओं के महत्व पर प्रकाश डाल इनके आलोक वृत्त को विस्तार दे रही है। 💐

    Reply
  7. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    9 months ago

    नरेंद्र पुण्डरीक मध्यवर्गीय जीवन और उसकी बिडम्बना के कवि हैं । उनकी कविता में पारिवारिक जीवन के विवरण शिद्दत के साथ आते है । बुंदेलखंड के बिम्ब और वहां का ठेठ जीवन उनकी कविताओं में दिखाई देता है ।
    भाषा में सहजता है ।

    Reply
  8. Shridhar Mishra says:
    9 months ago

    बढ़िया लिखा है पंकज चौधरी ने
    नरेंद्र पुण्डरीक हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं, वे समाज का बड़ी गहरी नज़र से अन्वीक्षण करते हैं, वे मूलतः सभ्यता- समीक्षक हैं व संस्कृति के तंतुओं से भी रिश्ता बनाये रखते हैं, इसके लिए बड़ा धैर्य चाहिए होता है, प्रायः कवि इस उपक्रम में अपने भीतर की अराजकता का शिकार हो जाते हैं, नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएं मनुष्यता की मातृभाषा में जीवन की समीक्षा हैं– पंकज चौधरी व नरेंद्र पुण्डरीक– दोनो को बधाई

    Reply
  9. कुसुमलता सिंह says:
    9 months ago

    नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में जिन साथी प्राणियों के साथ उन्होंने जन्म लिया तथा अवियोज्य रूप से बंधे उनके साथ संबंध को परिभाषित करने तथा जीवन के अनुभवों के दबाव में स्वयं को पुनर्मूल्यांकित करने का भी प्रयास है। पंकज चौधरी ने नरेंद्र पुण्डरीक जी की जिन कविताओं का उल्लेख करते हुए अपने आलेख में संदर्भ लिया है वह मानवीय संबंध और उसकी स्थिति,नियति, यातना, संघर्ष का चित्रण करती हैं। वह यह भी बयान करती हैं कि कवि को मनुष्य की अपराजेय शक्ति का भरोसा है।
    इस पुस्तक का प्रकाशन मेरे लिटिल बर्ड प्रकाशन दिल्ली से हुआ है। मैंने सभी कविताएं पढ़ी हैं। मैं पूरे विश्वास के साथ मानती हूं कि नरेन्द्र पुण्डरीक मौलिकता और आधुनिकता से पूर्ण विशिष्ट कवि हैं। पंकज चौधरी ने उनकी कविताओं की बहुत अच्छी विवेचना की है । पंकज चौधरी, नरेन्द्र पुण्डरीक और अरुण देव जी जिन्होंने इसे समालोचना में प्रकाशित किया उन सबको बधाई। — कुसुमलता सिंह ,दिल्ली .

    Reply
  10. Gagan Gill says:
    9 months ago

    बहुत उम्दा! लगभग हर उद्धरण आपका रास्ता रोक लेता है। साधारण जीवन में करुणा की ऐसी मार्मिक अभिव्यक्ति विरल ही मिलती है। कभी नरेंद्र पुंडरीक जी की आठ दस कविताएँ एक साथ दीजिए। उनके काम पर ठीक से बात होनी चाहिए।

    Reply

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