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Home » पेद्रो पारामो : जुआन रुल्फो

पेद्रो पारामो : जुआन रुल्फो

हिंदी अनुवाद : अजित हर्षे

by arun dev
January 22, 2025
in अनुवाद
A A
पेद्रो पारामो : जुआन रुल्फो

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लगभग 144 पृष्ठों का ‘पेद्रो पारामो’ उपन्यास स्पेनिश भाषा में 1955 में प्रकाशित हुआ. इसे जादुई यथार्थवाद का अग्रदूत कहा जाता है. मार्खेज़, बोर्हेस, सूसन सौन्टैग आदि लेखकों ने इसे आधुनिक युग की श्रेष्ठतम कृतियों में से एक माना है. यह अपने शब्द-चित्रों ही नहीं शब्द-ध्वनियों के लिए भी विख्यात है. इसके महत्व के विषय में और कुछ कहना दुहराव ही होगा. इसके सभी प्रशंसकों का यह कहना है कि उपन्यास इतना जटिल है कि कई बार पढ़ने पर ही खुलता है. रोड्रिगो पिएर्तो द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘पेद्रो पारामो’ के कारण यह फिर चर्चा में है. कथाकार अजित हर्षे  दशकों से इस उपन्यास के प्रेम में हैं.  उनका यह अनुवाद मार्गरेट सेयर्स पीडन के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है.  दूसरे और अनुवादों से भी मदद ली गई है. यहाँ तक कि अभी-अभी प्रदर्शित रोड्रिगो पिएर्तो द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘पेद्रो पारामो’ ने भी कुछ गुत्थियाँ सुलझाई हैं. कवि-लेखक कुमार अम्बुज के लगातार प्रेरित करने से संशोधित और परिवर्धित होते हुए यह अब आपके समक्ष है. हिंदी में इसका अनुवाद अभी तक नहीं प्रकाशित हुआ था. इसके प्रकाशन के लिए समालोचन ने कुछ ख़ास एहतियात बरता है. इसे 67 अनुच्छेदों में बांटा गया है और अनुवादक ने हर अनुच्छेद के नैरेटर का ज़िक्र भी अपनी तरफ़ से किया है. यथा जगह उक्त फिल्म के कुछ दृश्यों का भी इस्तेमाल किया गया है. लेखक-चित्रकार रवीन्द्र व्यास ने इसके लिए कुछ चित्र भी बनाएँ हैं. अब यह हिंदी में सर्वसुलभ है. और सुगम भी. उपन्यास प्रस्तुत है.      

समालोचन

 

पेद्रो पारामो
जुआन रुल्फो

भूमिका 
अजित हर्षे

 

विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार मार्खेज़ ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन पर प्रभाव डालने वाले दो सबसे बड़े लेखक थे फ्रांज़ काफ्क़ा और जुआन रुल्फो. पेद्रो पारामो के एक स्पैनिश संस्करण की भूमिका में इस उपन्यास का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने इस उपन्यास को इतनी बार पढ़ा है कि वे उसे शुरू से आखिर तक और पीछे से शुरू तक जस का तस सुना सकते थे. वे जुआन रुल्फो के लेखन की तुलना सोफोक्लीज़ के दुखांत नाटकों के साथ करते हैं. मार्केज़ के इतने गुणगान का यह अर्थ नहीं है कि यह उपन्यास या उसके लेखक अपने समय में मेक्सिको में बहुत लोकप्रिय थे. जब मार्केज़ पहले पहल मेक्सिको में रहने आए तो वे इस नाम से बिलकुल अपरिचित थे और लेखकों की दुनिया में उनका ज़िक्र कभी नहीं होता था. वे कहते हैं: वे ऐसे लेखक थे जिन्हें पढ़ते तो सब हैं मगर जिसका ज़िक्र कोई नहीं करता.

Juan Rulfo (1917-86) with an Aztec skull. courtesy The New York Times

हिंदी भाषी पाठकों में भी ज़्यादातर पाठक फ्रांज़ काफ्क़ा के नाम से तो परिचित होंगे किंतु बहुत थोड़े से होंगे जिन्होंने जुआन रुल्फो का नाम सुना होगा. जिन्होंने सुना होगा उनमें से भी बहुत थोड़े लोगों ने उनका लिखा कुछ पढ़ा होगा. मैंने भी मार्केज़ के इंटरव्यू के बाद ही उन्हें जाना और उत्सुकतावश उनकी पुस्तकों को तलाश किया. सिर्फ दो किताबें मिलीं: एक कहानी संग्रह और दूसरा यह उपन्यास, पेद्रो पारामो. यह उपन्यास 1955 में प्रकाशित हुआ था लेकिन दशकों तक किसी ने उसे नोटिस नहीं किया. बाद में लातिन अमरीकी दुनिया में वह लोकप्रिय होने लगा और बोर्खेस जैसे लेखकों ने भी उसे दुनिया की सभी भाषाओं में लिखे गए महानतम उपन्यासों की श्रेणी में रखा. फिर भी दुनिया भर में भी अभी-अभी तक उनके पाठक कम ही थे. मुझे भी पेद्रो पारामो  का अंग्रेजी अनुवाद बाहर से मंगवाना पड़ा था, पर वह बहुत पुरानी बात है. हाल ही में उनकी पुस्तक, पेद्रो पारामो पर फ़िल्म बनी है और पाठकों की रुचि उनमें बढ़ी है.

जहाँ तक उपन्यास का सवाल है उसके पहले दो-तीन पृष्ठ सामान्य लगते हैं जिसमें एक युवक मृत माँ की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए अपने पिता की खोज में अपने गाँव की ओर निकला हुआ है. जैसे ही वह अपने गाँव पहुँचने को होता है एक के बाद एक उसकी मुठभेड़ मृत व्यक्तियों से होती जाती है. गाँव पहुँचने पर उसे पता चलता है कि यह उसकी माँ द्वारा वर्णित गाँव से सर्वथा भिन्न है. उस उजाड़ गाँव में टूटे-फूटे और जर्जर होकर ढहते घर हैं. जर्जर सड़कों पर तरह-तरह की आवाज़ों और फुसफुसाहटों के बीच घूमते हुए अंततः युवक भी मारा जाता है. लोगों के प्रेत ही उसे दफ़न करते हैं और कब्र में ही उसे गाँव की दुर्दशा की कहानी सुनाते हैं. ‘इन फुसफुसाहटों ने मेरी जान ले ली,’ वह कहता है. आख्यान लगातार भिन्न-भिन्न कालखंडों में विचरता रहता है. यथार्थ, यहाँ ताकि जादुई यथार्थ की तलाश में निकले सामान्य पाठकों को उपन्यास की तार्किकता समझ में आना मुश्किल है. उपन्यास पूरी तरह भूतकाल में घटित है किंतु कई बार लगता है जैसे भूतकाल आपकी आँखों के सामने, वर्तमान में मौजूद है.

इस पुस्तक का अनुवाद करना न सिर्फ चुनौतीपूर्ण काम था बल्कि बेहद त्रासद भी. दस साल से भी अधिक समय से मैं इसे लेकर बैठा था. कई बार इसका विचार त्याग भी दिया किंतु बार-बार वह अपनी ओर खींच लेता था. कई बार शक होता कि पता नहीं यह अंग्रेज़ी अनुवाद मूल स्पैनिश के साथ न्याय करता है या नहीं. कभी लगता कि शायद वह पर्याप्त प्रामाणिक भी नहीं है.

दिक्कत यह है कि रुल्फो का गद्य पाठक से गहरी संवेदनशीलता, एकाग्रता और संयम की मांग करता है. उसे बार-बार पढ़ना पड़ता है. लेकिन अगर एक बार उसे पढ़ लिया जाए तो वह बार-बार अपनी ओर खींचता भी है.

 

नोट:
1) यह हिंदी अनुवाद मार्गरेट सेयर्स पीडन द्वारा अंग्रेज़ी में किए गए अनुवाद (1994 संस्करण) पर आधारित है जिसे सन 1987 में पहली बार सर्पंट्स टेल, लंदन द्वारा प्रकाशित किया गया था.

2) जैसा कि भूमिका से स्पष्ट है, यह उपन्यास अत्यंत जटिल है.  इसमें नैरेटर बार-बार बदलता रहता है. इसलिए अंग्रेज़ी अनुवाद में ही परिच्छेद बना दिए गए हैं. लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए मुझे अनुभव हुआ कि कई बार एक ही परिच्छेद में भी नैरेटर बदल जाते हैं. इसलिए मैंने हर परिच्छेद की शुरुआत में इटैलिक्स में नैरेटर का उल्लेख कर दिया है. परिच्छेद के बीच में भी जहाँ नैरेटर बदले हैं वहाँ भी उसका उल्लेख किया गया है. एकाध जगह दो पात्रों के बीच वार्तालाप के दौरान संबोधित व्यक्ति का नाम बदल जाता है जो मेरी समझ से बाहर रहा है और मैंने उसे जस का तस रखा है. संभव है संबोधित व्यक्ति को कई नामों से पुकारा जाता रहा हो जिसे लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है लेकिन क्योंकि ऐसा एक या दो स्थानों पर ही हुआ है और पढ़ते हुए संबोधित व्यक्ति का पता स्वयं ही चल जाता है इसलिए इससे कोई व्यवधान उपस्थित नहीं होता. इसका एक उदाहरण एक जगह  है जहाँ एल तिल्कुएट से बात करते हुए पेद्रो  पारामो उसे अगले ही वाक्य में दमाज़ियो नाम से संबोधित करने लगता है.

3) एक बात और. अक्सर मैंने देखा है कि हिंदी अनुवादों में मूल भाषा के प्रथम पुरुष संज्ञाओं के उच्चारण पर बड़ा मतभेद होता है. (संज्ञाओं के उच्चारण में सर्वसम्मति होना असंभव है, यह मेरा विचार है, स्वयं स्पैनिश लोग भी Jose का उच्चारण कई प्रकार से करते हैं). हालांकि अनुवाद करते समय मैंने ऐसी सभी संज्ञाओं, अर्थात पात्रों, स्थानों इत्यादि के नामों के स्पैनिश (मैक्सिकन), अंग्रेजी और हिंदी सभी उच्चारणों को जाँचा-परखा है, मैंने हिंदी भाषी लोगों के लिए और विशेषकर मुझे सबसे सरल और स्वाभाविक प्रतीत होने वाले उच्चारणों का इस अनुवाद में उपयोग किया है.
आशा है इतने स्पष्टीकरण से उपन्यास को समझने में आसानी होगी.

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Tags: 20252025 उपन्यासpedro-paramo in hindiअजित हर्षेजादुई यथार्थजुआन रुल्फोपेद्रो पारामो
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Comments 18

  1. कुमार अम्बुज says:
    5 months ago

    इस उपन्यास को हिंदी में आना ही चाहिए था और यह आया। यह कृति क्रिएटिविटी का उत्कृष्ट और अनन्य उदाहरण है। अजित ने अपने आलस्य के पार जाकर इसे अंतत: संशोधित और पूर्ण किया और अरुण ने अद्भुत ढंग से एक साथ ही पेश कर दिया। इस तरह यह A++ काम हुआ।
    बधाई।

    Reply
    • M P Haridev says:
      5 months ago

      कुमार अम्बुज जी, सहमत हूँ कि विश्व प्रसिद्ध कृतियों का हिन्दी अनुवाद छपना चाहिये ।

      Reply
  2. Mekhraj says:
    5 months ago

    लेखक के नाम का मेक्सिको की हिस्पानी में उच्चारण ‘ख्वान रुल्फ़ो’ के निकट है।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    5 months ago

    For a long time I thought to write that names of foreign writers be also written in brackets. Moreover, the authors’ books translated into Hindi and their publishers names.
    इस संक्षिप्त कथा में भी महत्वपूर्ण प्रसंग महिलाओं की उपेक्षा [घृणा और हिंसा भी पहलू होते हैं] से जुड़ी पीड़ा है । मुझे नहीं मालूम कि पितृ-सत्ता की जड़ें कितनी गहरी और पुरानी हैं । क्या आदिम युग से हैं । आधुनिक संसार में महिलाओं की शिक्षा ने उन्हें मज़बूत बनाया है । वे कमाती हैं । इसके बावजूद घर में काम करना इन्हीं के ज़िम्मे है ।
    क़रीब 5 वर्ष पहले [My chronology is weak] द इंडियन एक्सप्रेस में रविवारी संस्करण में सत्य घटना पर लेख था । मैं पहले कई लेखों की कतरने काटकर फ़ाइलों में रखता था । अब भी हैं लेकिन आयु अधिक होने के कारण छोड़ दिया] यह घटना केरल की है । इसलिये मलयालम भाषा में फ़िल्म बनायी गयी थी । कथा का आरंभ एक 12-14 साल के लड़के और उसकी माँ से जुड़ी है । पिता मज़दूर हैं । माँ का इलाज कराने की रक़म नहीं । उसकी देह उम्र से पहले दोहरी हो गयी थी । माँ काम करने में असमर्थ हैं । एक रोज़ बालक रसोई में स्लैब पर लगे सिंक के पास बर्तन साफ़ करता है । कमर और शरीर में दर्द होना आरंभ हो गया ।
    उसी रोज़ बच्चे ने संकल्प किया कि विवाह के बाद अपनी जीवनसंगिनी के साथ रसोई एवं घर के कार्यों में सहयोग करूँगा । संकल्प का व्यवहार में परिवर्तन हुआ । कथा छपने के दिन तक इन दंपति के एक पुत्र और एक पुत्री हैं । उनसे पुरुष और महिला दोनों के काम कराने का शिक्षण दिया गया ।
    इस चित्रपट के माध्यम से केरल में उनके रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों की वर्किंग वुमन के फ़ोन आने लगे । कि कोई तो है जो हमारे कष्टों को समझता है ।

    Reply
  4. Ganesh vispute says:
    5 months ago

    हुआन रूल्फो का यह उपन्यास आज ७० वर्ष बाद भी अद्भुत लगता है। हिंदी में यह अनुदित होना शुभ समाचार है। भाषा वृद्धि का यह राज पथ भी है।

    Reply
    • आनंद विंगकर says:
      4 months ago

      फिलहाल इंग्लिश मे यह उपन्यास मै पढ रहा हु लेकिन समजनेमे खूब जटील है खासतौर उस देश का ईतिहास की जानकारीभी मालूम लेना जरुरी है
      हिंदी मे आप लोगोने ऐस क्लासिक किताब का अनुवाद किया
      धन्यवाद
      किसी हालत मे मूझे यह उपन्यास चाहिये
      आनंद विंगकर तहसिल कराड जिला सातारा महाराष्ट्र पिनकोड 415122

      Reply
  5. अच्युतानंद मिश्र says:
    5 months ago

    नमस्कार , आज के कारनामे के लिए समालोचन को बहुत बहुत बधाई। समालोचन में ही यह सम्भव है।अब सामलोचन साहित्य की एक संस्था का रूप ले चुका है।कमाल है ।
    क्या यह उपन्यास पीडीएफ के रूप में उपलब्ध हो सकता है, ताकि प्रिंट लेकर पढ़ा जा सके?

    Reply
  6. अरुण आदित्य says:
    5 months ago

    पाँव में मल्टिपल फ्रैक्चर के कारण दो हफ्ते से बिस्तर पर हूँ। बिस्तर पर पड़े रहने की ऊब और उदासी के बीच पढ़ना शुरू किया। एक झटके में बीस पेज से अधिक पढ़ गया। इस बीच ऊब और उदासी हाशिए पर दुबकी रहीं। पाठक को मोहपाश में बाँध कर रखने वाला उपन्यास है। भाषा में प्रवाह ऐसा कि बिल्कुल नहीं लगता जैसे अनुवाद पढ़ रहा हूँ। अजित हर्षे और समालोचन ने यह महत्वपूर्ण काम किया है।

    Reply
  7. मोनिका कुमार says:
    5 months ago

    अद्भुत संयोग है ! छह सात दिन पहले इनकी दो कहानियां पढ़ी और इस उपन्यास के बारे में NY Times में Valeria Luiselli का आर्टिकल ! और उसी क्रम में हिंदी अनुवाद मिल गया और वह भी इतनी जल्दी. शुक्रिया अरुण जी !

    Reply
  8. आमिर हमज़ा says:
    5 months ago

    देर सवेर दिल की बात पहुँच ही जाती है, प्यारे लोगो तक। बड़ी तमन्ना थी इसे नागरी में पढ़ने की, पूरी हुई। यह हिंदी की उपलब्धि है। समालोचन पर इसका होना यक़ीन से परे की बात नहीं है। अब कुछ दिन बस यही। समालोचन और अजित हर्षे जी का ख़ूब शुक्रिया!

    Reply
  9. Ashutosh Dube says:
    5 months ago

    अद्भुत है कि समालोचन ने अपनी इस ख़ास पेशकश में पूरा उपन्यास ही दे दिया है। अजित जी का और आपका आभार।

    Reply
  10. Shivmurti says:
    5 months ago

    अति उत्तम कार्य.
    एक दशक पहले किसी मित्र ने इसकी चर्चा की थी और PDF भेजा था.पढ़ते हुए किसी भुतही गुफा में जाने का रोमांच हुआ था.अब हिन्दी में पढ़ेंगे तो ज़्यादा आसान होगा.

    Reply
  11. श्रीनारायण समीर says:
    4 months ago

    बहुत महत्त्व का काम। हिंदी के क्षितिज को विस्तार देने की दृष्टि से भी बड़ा कार्य है यह। इसे पढ़ना तो है ही, संभाल कर रखना भी है। आपको और अनुवादकर्ता अजित हर्षे को बहुत – बहुत बधाई ।

    Reply
  12. Jatinder Aulakh says:
    4 months ago

    बहुत अच्छा काम किया। आपका इस पुस्तक से अवगत कराने लिए धन्यवाद।

    Reply
  13. अनुपम ओझा says:
    4 months ago

    फिल्म दो बार देख चुका हूं। उपन्यास पढ़ रहा हूं। समालोचन इस वक्त हिंदी साहित्य को दिशा दृष्टि देने का कठिन काम कर रहा है। अनुवादक और संपादक को बहुत बहुत धन्यवाद्!

    Reply
  14. राजीव कुमार शुक्ल says:
    4 months ago

    अजित हर्षे से चार दशकों की घनिष्ठ मित्रता है। इस प्रसंग से वह और गाढ़ी हुईं। उनकी असंदिग्ध सर्जनात्मकता का यह एक और सोपान सम्भव करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के लिए पुराने प्यारे साथी कुमार अम्बुज और अरुण देव जी को अशेष साधुवाद। इसे पढ़ने की तीव्र उत्कंठा जाग उठी है। यात्रा पर हूॅं। स्थिर होते ही प्राथमिकता से पढ़ूॅंगा।

    Reply
  15. रोहिणी अग्रवाल says:
    4 months ago

    समय से साक्षात्कार समय को अवरुद्ध करने वाली जड़ताओं से टकराए बिना नहीं हो सकता। उपन्यास इस जोखिम को उठाता है, लहूलुहान होता है और अपने ही हाथों किये गए विध्वंस को देख हूक-हूक रोता है।

    कथा को मेटाफर का रूप देना और चरित्रों में अखंड देश-काल की स्मृतियों को भर देना आसान नहीं होता। तब पेद्रे पारामो क्या सिर्फ एक व्यक्ति भर बना रह जाता है? क्या वह अपनी व्युत्पत्ति में तमाम तामसिकताओं से बुनी बर्बरता नहीं जो संस्कृतियों, साम्राज्यों, सल्तनतों और सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के पराभव को सुनिश्चित कर हरे-भरे संभावनाओं से लहलहाते जीवन को प्रेतों का शहर बना देती है?

    कथ्य के भीतर गहरी सांस बन कर दुबका जादुई यथार्थवाद शैल्पिक ऊँचाइयाँ न लिए होता तो अर्थगर्भित प्रतीक, बिंब, फुसफुसाहटें और सन्नाटे में खो जाती आहटें/ कराहें भय एवं रहस्य गहराने की विलक्षण युक्तियाँ बन कर रह जातीं, लेकिन यह तो मुर्दों के टीले में जिंदगी के अस्तित्व और मायने तलाशने की पुकार है।
    फलने-फूलने के दंभ में डूबी तमाम सभ्यताओं के बीच आज भी पेद्रो पारामो सब जगह है। बूंद बन कर पैबस्त होता है पल में, और फिर आसमान बन कर ढांप लेता है वजूद …चेतना.. विवेक… गति … असहमति… और ताकत प्रतिरोध की।

    अजित हर्षे और समालोचन का आभार । कलजयी वैचारिक गद्य भी उपलब्ध कराएं तो आज के आलोचनाहीन-विचारहीन समय में सार्थक हस्तक्षेप का मंच बन जाएगा समालोचन ।

    Reply
  16. पूनम मनु says:
    4 months ago

    बाप रे! इतना भी आसान नहीं है पूरा उपन्यास एक ही बार में समझ आना। इसको समझने को इसकी गहराई में उतरना आवश्यक है। जब आप इसे पढ़ो तो किसी दूसरी ओर सोचो नहीं। बढ़िया 👏👏 धन्यवाद समालोचन अरुण देव जी। आभार अजीत हर्षे जी 🙏।सुना था इस उपन्यास के विषय में, पढ़ा आज। समालोचना की बदौलत। आभार समालोचना, ये तो लाइब्रेरी है मेरी 😊🙏

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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