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समालोचन

Home » हिमांक और क्वथनांक के बीच : महेश चंद्र पुनेठा

हिमांक और क्वथनांक के बीच : महेश चंद्र पुनेठा

हिमालय और उसके समाज पर शेखर पाठक दशकों से लिख रहे हैं. उनकी पुस्तक ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ केवल यात्रा वृत्त नहीं है. यह उसका सम्पूर्ण पर्यावरण है. इसकी चर्चा कर रहे हैं कवि-लेखक महेश चंद्र पुनेठा

by arun dev
January 25, 2025
in समीक्षा
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हिमांक और क्वथनांक के बीच : महेश चंद्र पुनेठा
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हिमांक और क्वथनांक के बीच


हिमालय की प्राकृतिक सुषमा और यात्रा की दुरूहता का आख्यान
महेश चंद्र पुनेठा

गंगोत्री कालिंदीखाल यात्रा मार्ग उच्च हिमालय के कठिनतम यात्रा मार्गों में से एक है, जिसके चलते इस मार्ग पर कम ही यात्री जाते हैं. इतिहासकार, पर्यावरणविद और घुमक्कड़ शेखर पाठक ने वर्ष 2008 में अपने साथियों के साथ इस मार्ग में यात्रा की. इस यात्रा पर नवारुण प्रकाशन से पिछले वर्ष उनकी एक किताब “हिमांक और क्वथनांक के बीच” नाम से आयी है.

शेखर पाठक अपनी भूमिका में कहते हैं कि- “यह हमारे जीवन की सबसे कठिन यात्रा थी. उच्च हिमालय ने कभी इस तरह नहीं डराया था हमें.”

शेखर पाठक

इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हैं तो लगता है कि यह एक कठिन ही नहीं बेहद कठिन यात्रा थी. और ऐसी यात्राएं आदमी को आध्यात्मिक बना देती हैं और इस बात का एहसास करा देती हैं कि प्रकृति की विराटता के सामने मनुष्य एक कण के समान है. उसका सारा का सारा अहंकार चूर-चूर होकर रह जाता है. शेखर पाठक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रकृति की क्षमता और शक्ति के साथ मनुष्य की मर्यादा और सीमा का इतनी गहराई से पहली बार एहसास हुआ. पर इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रकृति जितनी भी विराट हो लेकिन मनुष्य का साहस उसके सामने कभी भी कम नहीं रहा. वह हार नहीं मानता है. पिछली असफलताओं से सीख लेते हुए फिर नयी चढ़ाई की तैयारी शुरू कर देता है. वरिष्ठ कवि शैलेय की कविता यहां याद आती है…हताश निराश लोगों से/बस एक सवाल/एवरेस्ट ऊंचा कि बछेंद्री पाल.

यह किताब तेरह अध्यायों में बंटी है. इस मार्ग के साथ-साथ उत्तराखंड नेपाल हिमालय के बारे में बहुत कुछ बताती है. शेखर पाठक किताब में पिछली यात्राओं और उस दौरान मिले हुए लोगों को भी याद करते हैं. उच्च हिमालयी क्षेत्र में की गयी अपनी पुरानी यात्राओं का विवरण भी देते हुए चलते हैं. पूरी किताब में अतीत और वर्तमान के बीच यह आवाजाही चलती रहती है, जिसके चलते यह काफ़ी रोचक और उपयोगी बन गयी है.

नयी-नयी आवाज़ों, दृश्यों और घटनाओं से हमारा परिचय होता है. इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हुए एकदम नये अनुभव मिलते हैं, जो केवल यात्रा करते हुए ही मिल सकते थे. यहीं पर मुझे किताबों का महत्व दिखाई देता है. किताबें हमें उन जगहों तक भी पहुंचा देती हैं, जहां हम स्वयं नहीं पहुंच पाते हैं. इतने कठिन मार्ग की यात्रा करना हरेक के लिए संभव नहीं होता है लेकिन ऐसे यात्रा वृत्तांतों के माध्यम से हम इन मार्गों के बारे में जान सकते हैं. अत्यंत निर्मम और निर्मोही एकांत में प्रकृति के कितने सारे रूपों को लेखक की नज़र से देख और सुन सकते हैं.

हमें इस यात्रा वृत्तांत में एक इतिहासकार भी दिखाई देता है. एक  पर्यावरणविद भी, प्रकृति प्रेमी भी, सामाजिक सरोकारों से लैस एक जागरुक नागरिक भी, उच्च हिमालय के भूगोल का जानकार भी, साहित्य का अध्येता भी और एक आंदोलनकारी भी. पुस्तक में दिखाई देता है कि जब कोई इतिहासकार यात्रा वृत्तांत लिखता है तो उसके यात्रा वृत्तांत में एक सामान्य लेखक के यात्रा वृत्तांत से काफ़ी अंतर होता है. वह इस रूप में कि एक इतिहासकार द्वारा लिखे गये यात्रा वृत्तांत में जब भी किसी जगह, व्यक्ति या घटना का जिक्र आता है तो उससे जुड़ी हुई पुरानी घटनाओं का जिक्र भी प्रामाणिक तथ्यों सहित उसके साथ जुड़ता चला जाता है. शेखर पाठक बार-बार हमें इतिहास की ओर ले जाते हैं.

उनके द्वारा गंगोत्री कालिंदीखाल यात्रा मार्ग में पहली बार 24 जुलाई 1931 को आए कैप्टन इजी बरनी से लेकर 2007 में नीरज पंत द्वारा की गई यात्राओं का संक्षिप्त इतिहास और उनके संघर्षों तथा उनके द्वारा लिखे यात्रा साहित्य को इस पुस्तक में रेखांकित किया गया है. उन तमाम लोगों को याद किया गया है, जिन्हें इस यात्रा के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ी. जानकारी के लिहाज से यह पुस्तक का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो आने वाले पथारोहियों  और हिमालय साहित्य के पाठकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा.

हमें विभिन्न स्थानों की ही यात्रा नहीं बल्कि उन स्थानों से जुड़े हुए व्यक्तित्वों की जीवन यात्रा भी करा देते हैं. जैसे जब वह उत्तरकाशी पहुंचते हैं तो वहां पर उन्हें विल्सन की याद आती है और इस बहाने वह विल्सन के बारे में बहुत कुछ बताते हुए चलते हैं. जोंकों द्वारा खून चूसने के प्रसंग तक का वर्णन कि कैसे जोंक चुपके से छिपकर खून चूसते हैं? कैसे उनसे बचाव होता है? बड़े रोचक ढंग से किताब में करते हैं.

इसी तरह यात्रा की पीड़ा परेशानियों के साथ-साथ लोगों द्वारा मिले हुए स्नेह को भी याद करते हैं. उनका यह याद करना बड़ा प्रीतिकर लगता है. जब वह पुरानी घटनाओं को बताते हैं तो ऐसा लगता है कि हम छोटी-छोटी कथाएं पढ़ रहे हों. इन कथाओं में स्मृतियों के साथ-साथ पूरी आत्मीयता और संवेदनशीलता झलकती है. यह तरीका यात्रा वृत्तांत को बहुआयामी और उपयोगी बना देता है. इतिहास के विद्यार्थियों को तो उसे बहुत सारी नयी जानकारियां मिल जाती हैं.

एक अच्छी बात यह है कि शेखर पाठक जी अपनी बात कहने का कोई न कोई बहाना ढूंढ लेते हैं. जैसे चतुरंगी के साथ चलते हुए वह एक जगह से शिवलिंग शिखर के ऊपर बादलों को उड़ते हुए देखकर सागरमाथा और तेनजिंग का जिक्र करने लग जाते हैं. इसी तरह चिड़िया उड़ती देखते हैं तो अनूप साह और सालिम अली को याद करने लग जाते हैं. यात्रा में साथ चल रहे पोटर्स बलबीर कार्की, पूर्ण बहादुर शाही और अन्य के बहाने पोटर्स की स्थितियों, संघर्षों और नेपाल की राजनीति का जिक्र ले आते हैं. यह यात्रा वृतांत की इकरसता को तोड़ने और उसे अपने समय और समाज के सवालों से जोड़ने का अच्छा तरीका है. नमक लगी ककड़ी खाने जैसी लेखक के जीवन की छोटी-छोटी स्मृतियां, इस वृत्तांत में एक नया रस पैदा करती हैं.

साथ ही यात्रा मार्ग के बाहर के जीवन की झांकियां भी हमें यहां दिखाई देती हैं. जो लेखक की जीवन के प्रति गहरी रागात्मकता को बताती है. यहां यात्रा करते हुए लेखक के मन में तमाम जिज्ञासाएं, उत्सुकताएं और प्रश्न पैदा होते हैं. प्रकृति के रहस्यों को समझने की कोशिश में लेखक के मन में बाल सुलभ  प्रश्न उठते हैं कि यह गल पहले बना होगा या यह शिखर? यहां शेखर पाठक एक चुटकी लेते हैं कि वही (बच्चे ही) सवाल पूछते हैं. हम बड़े ना सवाल पूछते हैं और न जवाब देते हैं. देश के सबसे जिम्मेदार लोगों में जवाब देने का निकम्मापन सबसे ज्यादा प्रकट हुआ है. इस तरह की पंक्तियां बताती हैं, वह किताब में मौजूदा समय और देश की राजनीतिक व्यवस्था पर टिप्पणी भी करते हैं. यहां उनके भीतर का एक सचेत नागरिक कुलबुलाने लगता है.

कहीं-कहीं वह व्यंग्य में भी अपनी बातें कहते हैं. जैसे एक जगह वह एवरेस्ट बेस कैंप का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि एवरेस्ट बेस कैंप में जाते हुए शोपियां के पास मैंने ऐसा ही निडर कस्तूरा मृग देखा था. जब मैंने उससे कहा, “अब तू चला जा कोई मार सकता है तो उसने पलट कर कहा कि क्या मैं उत्तराखंड में हूं कि जो मार दिया जाऊंगा. मैं शेरपाओं के इलाके में हूं और वह मेरे जीवित होने का अर्थ जानते हैं. मैं अपना सा मुंह लेकर रह गया. पर मैं उसे आंख भर देखता रहा  फिर वह चलते-चलते दूसरी ओर निकल गया.” यह बात उनके ध्यान में भरलों के समूह को देखकर आया. वह लिखते हैं, “भरत निर्भय घूम रहे थे. हमें तीन दिन में चार या पांच भरत दल मिल गए थे. उन्हें गिनने का उत्साह घट गया था. उनका निर्भय होना दरअसल राहत देता था. जनतंत्र में नागरिक भी यदि इसी तरह निर्भय हो जाए तो ठगी करने वाली राजनीति समाप्त हो सकती है या कहें कि ऐसी राजनीति के समाप्त होने पर ही ठगी बंद होगी.” इस तरह की चुटकियां लेना शेखर पाठक के स्वभाव में है. इस किताब में भी जगह जगह उनका यह स्वभाव प्रकट होता है.

शेखर पाठक यात्रा के दौरान नींद में देखे गये सपनों का भी जिक्र इस किताब में करते हैं. अधिकांश सपने तो नींद खुलने के बाद याद नहीं रह पाए ऐसा बताते हैं. इन सपनों को पढ़ना भी रोचक है. लेखक की मनोदशा का अनुमान लगाया जा सकता है. शेखर पाठक यह भी बताते हैं कि जब भी उच्च हिमालय की यात्रा करते हैं तो उन्हें इस तरह के सपने अक्सर आते हैं. कोई मनोविश्लेषक इनको पढ़े तो मन की हलचलों और दबावों के बारे में बहुत कुछ विश्लेषित कर सकता है.

यात्रा वृत्तांतकार यदि भूगोल का जानकार होता है तो पहाड़, नदी, नाले, गधेरे, झील, ग्लेशियर आदि स्थलाकृतियां अपने नामों के साथ उतर आती हैं जैसे वे सारे लेखक के बचपन के यार दोस्त हों. यही बात पाठक जी के संदर्भ में सटीक बैठती है. वह खुद को गंगोत्री कालिंदीखाल बद्रीनाथ यात्रा मार्ग तक सीमित नहीं रखते हैं, बल्कि हिमालय क्षेत्र के अन्य भागों के भूगोल पर भी बात करते हैं. अन्य गलों, नदियों, शिखरों, तालों का जिक्र भी इस किताब में हमें मिलता है. केवल गंगा ही नहीं उसकी अन्य बहनों के बारे में भी सोचते हैं और पाठकों को उस बारे में बताते हैं. इस बात पर भी प्रकाश डालते हैं कि गंगा नदी का इतना मान क्यों है पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में.

वह इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि जिस गंगा नदी को हम इतना पवित्र मानते हैं, उसी नदी को प्रदूषित करने से पीछे नहीं रहते हैं. हमने गंगा को दुनिया की सबसे प्रदूषित दर्जन भर नदियों में से एक बना दिया है. वह हमारी आस्था पर भी सवाल उठाते हैं कि आखिर काल्पनिक उद्धार के चक्कर में प्रकृति के सुंदर स्थानों को कब तक गंदा करते रहेंगे? किताब में वह जगह-जगह उच्च हिमालय क्षेत्र और तीर्थ स्थान में आने को लेकर जो विश्वास और मान्यताएं प्रचलित हैं उनका उल्लेख करते हुए उन पर ज़रूरी प्रश्न खड़ा करते हैं.

एक प्रकृति प्रेमी के द्वारा लिखा यह यात्रा वृत्तांत हमें हिमालय के चित्ताकर्षक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर स्थानों को देखने के लिए प्रेरित करता है क्योंकि जगह-जगह शेखर पाठक जी ने उन स्थानों का जिक्र अपने इस यात्रा वृत्तांत में किया है, जहां का जादू उनको बहुत प्रभावित करता रहा है, जो उनके मन में स्थाई स्मृति की तरह पसरी है, जिसे वह हिमालय यात्री की पूंजी कहते हैं, जो सिर्फ बांटने से बढ़ती है. वह लिखते हैं कि खूबसूरत जगहें हमारे मन मस्तिष्क में अपना नाम लिख देती हैं और वह एक कविता, गीत या चित्र की तरह हमारे साथ सदैव रहती हैं. ऐसी जगहें शायद हममें अधिक मानवीय गुण भरती हैं और प्रकृति के आगे विनम्र होने की समझ देती हैं. यह जगहें आदमी की रचनाएं नहीं हैं. आदमी और उसकी व्यवस्थाओं ने तो उनको कुछ न कुछ नष्ट करने की ज़रूर कोशिश की है. पर आत्मसात भी लगातार किया. एक प्रकृति प्रेमी ही इतनी आत्मीयता, गहरे सौंदर्यबोध और संवेदनशीलता से प्रकृति को देख सकता है.

शेखर पाठक साहित्य के गहरे अध्येता होने के चलते इस किताब में स्थान-स्थान पर न केवल चर्चित कविता पंक्तियां या कविता शीर्षकों को याद करते हैं बल्कि खुद कविता सी रचते चलते हैं. जो दृश्य वह रचते हैं, वे पाठक के मन और आंखों दोनों में बस जाते हैं. वह अभिभूत हो उठता है.

प्रकृति के प्रति गहरे लगाव के चलते शेखर पाठक पत्थर मिट्टी के साथ पानी, हवा और सूरज के खेलों को न केवल खुद देखते और आनंदित होते हैं, बल्कि उन खेलों का आनंद पाठकों तक पहुंचाने में भी सफल रहते हैं. कितना सुंदर बिंब खड़ा करते हैं कि पत्थर, मिट्टी, रेत पर पानी का सूरज और हवा के बाजे के साथ गाया जा रहा कोरस आश्चर्य की तरह है. हैलो करती वनस्पतियां. उतार चढ़ाव … आवाज़ पर भीतर लगातार बोलता हुआ यह विराट गल हमारे सामने था. अब हम सभी इसका हिस्सा हो गये थे. अग्नि से जीवन इसके ऊपर चल रहे थे. ये पंक्तियां बताती हैं कि लेखक कैसे प्रकृति से पूरा तादात्मीकरण स्थापित कर लेता है. तभी वह प्रकृति के रूप, रंग, गंध, स्पर्श, ध्वनि और स्वाद को पाठकों तक पहुंचाने में सफल होता है. इस तादात्म्य का ही प्रतिफल है यह यात्रा वृतांत. एक अच्छा यात्रा वृतांत तब तक लिखना संभव नहीं है, जब तक यात्रा के दौरान दिखाई देने वाले दृश्यों, घटनाओं, लोगों और प्रकृति को पूरी तरह आत्मसात न कर लिया जाए.

प्रकृति का जहां-जहां चित्रण हुआ है, उनको बार-बार पढ़ने और महसूस करने का मन करता है. ऐसा अनुभव होता है कि पंख होते तो अभी उड़ कर वहां पहुंच जाते. ऐसा लगता है कि हम प्रकृति पर लिखी गयी कोई कविता पढ़ रहे हों. वह सही कहते हैं कि मनुष्य के लिए यह ज़रूरी है कि प्रकृति को सुनने के लिए वह स्वयं चुप रहना सीखे.

उच्च हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले भरल, हिमचितुवा, पीली चोंच वाले कौव्वे, दाढ़ी वाले गिद्ध ,गौरैया जैसी घने पंखों वाली चिड़िया, कठफोड़वा, रेड स्टार्ट बड़वा, रोजी पीट, गोल्डन स्टेटस रेड स्टार्ट, चूहा पीक जैसे पशु पक्षियों और कीट पतंगों का जिक्र इस यात्रा वृत्तांत में आता है. कुछ से तो पहली बार परिचय होता है. बहुत सारी ऐसी अजनबी चिड़ियों का भी जिक्र हुआ है, जिनके नाम भले लेखक को पता ना हों लेकिन उनका वह रूप, रंग, आकार, प्रकार बताते हुए चलते हैं. यह वृत्तांत उनके सौंदर्य और आदतों को जानने के प्रति हमें उत्सुकता से भर देता है. भरल तो इस किताब में बार-बार आता है. फूल जैसे सींगों के साथ आता है. उसी तरह कौवा भी. जैसे सहयात्री हो. यात्रा मार्ग में पशुओं को देख लेखक के मन में ये विचार उठते हैं कि हमारे समाज में मासूमियत कम बची है, जो बची हुई थी उसे धूर्त राजनीति में साफ कर दिया है. हम आजकल आक्रामकता से आगे प्रत्यक्ष हिंसा तक चले गये हैं. आदमी की जान की कोई कीमत नहीं. काश हम पशुओं में बची मासूमियत और विश्वास से ही द्रवित हो पाते.

एक पर्यावरणविद के नाते वह उच्च हिमालय क्षेत्र में जमा होते जा रहे प्लास्टिक, कूड़ा करकट, शराब और पानी की खाली बोतलों तथा अन्य तरह के अवशिष्ट को लेकर भी अपनी चिंता व्यक्त करते हैं. वह कहते हैं कि हमें सागरमाथा क्षेत्र के लोगों से सीखना होगा कि किस तरह अपने जंगली जीव बचाए जा सकते हैं? कैसे सौर ऊर्जा और केरोसिन का इस्तेमाल कर प्रकृति पर पड़ने वाले दबाव को घटाया जा सकता है? वह बार-बार वहां के लोगों विशेषकर शेरपाओं का उदाहरण देते हैं. इस किताब में बहुत सारे तथ्य भी हमें मिलते हैं. जैसे, गंगोत्री गल का 1818 से आज तक का आंकड़ा देते हैं, जिसके अनुसार 200 सालों में यह गाल 15 किमी से अधिक पीछे गया है. इस तरह के आंकड़े न केवल भविष्य के प्रति डराते हैं बल्कि सचेत भी करते हैं. सोचने को मजबूर करते हैं कि इसी तरह यदि गल सूखते चले गये तो हिमालय से निकलने वाली सदानीरा नदियों का क्या होगा? कहां से उनमें पानी आएगा? एक ओर गल पीछे खिसक रहे हैं दूसरी ओर इस क्षेत्र में पाए जाने वाले नौले, धारे और गधेरे मानवीय उपेक्षा और अनियंत्रित निर्माण कार्यों के चलते सूखते जा रहे हैं जो हिमालय की नदियों को रिचार्ज करने में सहायक होते हैं.

प्रकृति के साथ हो रही छेड़छाड़ और जबरदस्ती को लेकर शेखर पाठक सरकारों और समाज से तीखे प्रश्न करते हैं कि सरकारों या समाज को किसी नदी की हत्या करने या अधमरा बनाने का हक किससे मिला था. इस तरह के प्रश्न किताब में जगह-जगह मिलते हैं, जो लेखक की पर्यावरण की प्रति गहरी संवेदनशीलता, सरोकारों तथा चिंताओं को व्यक्त करते हैं. साथ ही वह प्रकृति और समाज में  आ रहे बदलावों को रेखांकित करते हैं. उसके कारणों की पड़ताल करने की भी कोशिश हमें यहां दिखाई देती है. शेखर पाठक जी उत्तराखंड में समय-समय पर हुए भूस्खलनों का जिक्र करते हुए पाठकों को याद दिलाते हैं कि जो व्यक्ति, समाज या सरकार प्राकृतिक या अन्य मानव जनित आपदाओं या राजनीतिक तथा आर्थिक आपदाओं को भुलाते हैं, वह उन्हें पुनः पुनः भुगतने के लिए अभिशप्त रहते हैं और आगामी समय में भी रहेंगे. इस तरह वह हमें सचेत भी करते हैं. प्रकृति के साथ हो रही छेड़छाड़ और अवैज्ञानिक दोहन को लेकर एक जिम्मेदार नागरिक के दायित्व का निर्वहन भी करते हैं.

इस तरह से यह केवल विशुद्ध यात्रा वृतांत नहीं है, बल्कि अपने समय के सवालों से सीधे मुठभेड़ करता हुआ एक दस्तावेज है. किताब बीच-बीच में घुम्मकड़ी के दर्शन और उसके उद्देश्य पर भी बात करती है और बहुत सारे ज़रूरी सुझाव भी देती है. इन पर विचार किया जाए तो हिमालय क्षेत्र में की जाने वाली यात्राओं को यहां की प्रकृति और संस्कृति की दृष्टि से मित्रवत बनाया जा सकता है. उनकी सार्थकता को बढ़ाया जा सकता है.

किताब का 11वां और 12वां अध्याय इस किताब का केंद्रीय हिस्सा है. सबसे अधिक कौतूहल पैदा करने वाला हिस्सा. कुछ इस तरह का दृश्य है…लगातार 24 घंटे से एक ही स्पीड से गिरती हुई बर्फ. बर्फ के कुछ कम होने पर बढ़ती हुई बारिश. चारों ओर होते हुए भूस्खलन. पीछे लौटने और आगे बढ़ने दोनों में खतरा ही खतरा. यात्रा दल के साथियों के दिवंगत होने की घटनाएं. यात्रा दल में थे जो इधर-उधर बिखेर चुके थे. कौन आगे गया और कौन पीछे रह गया इसका अंदाजा कोई नहीं कर पा रहा था. सभी इतने आत्म केंद्रित हो गये थे कि कभी-कभी किसी और का ख्याल ही नहीं आता था. पानी काट खाने को आ रहा था. यात्रियों की आंखों में भय था. मौत की आहट बिल्कुल नजदीक से सुनाई दे रही थी. पास में बहती नदी में इतना पानी बढ़ गया था कि वह अपना विकराल रूप दिखा रही थी. ठंड से यात्री थर थर कांप रहे थे. रोशनी बहुत कम हो चुकी थी. कुछ साथियों को दिखाई देना भी बंद हो गया था. कुछ साथियों का सामान नदी में गिर गया था. सामने ही यात्री दल के सदस्यों को ठंड से अकड़ते हुए और दिवंगत होते हुए देख रहे थे. असहाय से कोई किसी को बचाने की स्थिति में नहीं था. सामान भीग कर भारी हो रहा था. कुछ साथी अपने सामान को रास्ते में ही छोड़कर आगे बढ़ गये थे. महीन ओले पड़ रहे थे. फिसलने की संभावना ज्यादा बढ़ गयी थी. चलने की गति भी नहीं बढ़ाई जा सकती थी. सहायता के लिए आईटीबीपी के जवानों के आने की उम्मीद भी खत्म जैसी हो गई थी. पहाड़ के दोनों तरफ से पत्थर ही लुढ़क रहे थे.

ऐसा लगता है कि जैसे शेखर पाठक मृत्यु का रेखाचित्र हम लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहे हों. इतने नजदीक से मृत्यु का साक्षात्कार अपने आप में दुर्लभ अनुभव है. मौत अट्टहास कर रही है और जीवन उसके सामने दया की मांग कर रहा है. मृत्यु हजार वेश धर रही है. यहां मृत्यु और जीवन जैसे दोनों अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं. दोनों ही अपनी अपनी जीत को सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हों. जीवन, गीत संगीत को मृत्यु से लड़ने के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है. यह संघर्ष रोमांचित करने वाला भी है और डराने वाला भी. उस संघर्ष का आंखों देखा हाल पाठकों के सामने रखने में वह पूरी तरह सफल रहे हैं. उतार चढ़ाव भरी मनस्थिति का बहुत ही जीवंत और मर्मस्पर्शी चित्रण किया है. जितना बारीकी से बाहर का उससे भी अधिक बारीकी से भीतर का भी. एक उदाहरण देखिए…”मौत हमारे आसपास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज उसी का राज था. हमारे शरीर लगातार हिमांक के पास थे और हमारे मन मस्तिष्क में भावनाओं का उबाल क्वथनांक से ऊपर पहुंच रहा था…..हम शब्दों में कोई संवाद नहीं कर पा रहे थे. शब्द भी नहीं ढूंढ़ पा रहे थे. शब्द जैसे गायब हो गए थे और भावनाएं जैसे पथरा गई थी. यह लाटा हो जाने की निरीहता थी…..मैंने इतना बदहवास पराजित और हतप्रभ अपने को जीवन में कभी नहीं पाया था. बेचैनी और विडंबना भाव से मचलता मेरा चेतन अवचेतन क्वथनांक को पार कर रहा था. यह हम सब के मानस के ध्वस्त होने जैसा था. हमारा एक साथी हमारे साथ न था. शायद हम सब का मन मस्तिष्क ठहर सा गया था. जैसे एकाएक बिजली चली गयी हो या फ्यूज उड़ गया हो और टॉर्च या दियासलाई पास में न हो.”

किताब में यह सारा विवरण पढ़ते हुए भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. बार-बार मन में यह प्रश्न उठता है कि आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों और जान को जोखिम में डालकर कोई भला क्यों यात्रा करने इतने कठिन क्षेत्र में जाते होंगे? कैसे कोई इतनी कठिन परिस्थितियों से बचकर आने के बाद फिर से एक नई यात्रा में निकल पड़ता होगा?

यह किताब यात्रा किए जाने के लगभग 12 वर्ष बाद लिखी गई है, लेकिन आश्चर्य होता है कि इतने समय अंतराल के बाद लिखने के बावजूद यात्रा के विवरण इतनी बारीकी से आए हुए हैं. छोटी-छोटी बातों का उल्लेख हुआ है. लगता है जैसे कल की ही बात हो. निश्चित रूप से यह कमाल यात्रा के दौरान डायरी लिखने की उनकी आदत के चलते ही संभव हुआ होगा. यह यात्रा वृत्तांत लिखने वालों के लिए एक सीख है कि यात्रा के दौरान डायरी अवश्य लिखी जानी चाहिए, तभी “हिमांक और क्वथनांक के बीच” जैसी यात्रा पुस्तक संभव हो सकती है. इसी के चलते यह किताब हर आयु वर्ग के पाठकों के लिए इतनी उपयोगी बन पाई है. मैं पाठक जी की जिजीविषा, दृढ़ता, अनुशासन और काम के प्रति गंभीरता की दाद दूंगा कि उन्होंने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी डायरी लिखना नहीं छोड़ा. चलते-चलते थोड़ी देर सुस्ताने के दौरान ही वह डायरी लिखने लग जाते.

पुस्तक को पढ़ते हुए कहना पड़ेगा कि शेखर पाठक जी का भाषा को बरतने का अंदाज़ कमाल का है. छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी और गंभीर बात करने वाली भाषा. वह टकसाली भाषा में नहीं लिखते हैं. भाषा के साथ नये प्रयोग करते हैं. संदर्भ के अनुसार उनकी भाषा नये अर्थ देती है. एक सहज प्रवाह है उनकी भाषा में. कविता की तरह दृश्य बिंब खड़े करती है. रूपकात्मकता मन मोह लेती है. एक गद्य काव्य का जैसा आनंद आता है. किताब के नाम सहित, भीतर जितने भी अध्याय हैं, उनके शीर्षक बहुत काव्यात्मक हैं, जो पाठक को बहुत देर तक उस पर सोचने और उसके भीतर प्रवेश करने को आमंत्रित करते हैं. किताब में कहीं कहीं पर लोक बोली के शब्दों का आना भी बड़ा प्रीतिकर लगता है. वैसे शेखर पाठक जी का कहने का अंदाज़ भी कम प्रीतकर नहीं है! वह बिल्कुल इस तरह से लिखते हैं, जैसे वह बोलते हैं. जिस तरह से उनके व्याख्यान बहुत सम्मोहित करने वाले होते हैं. इस यात्रा वृत्तांत की भाषा भी उसी तरह सम्मोहक है. किस्सागोई के अंदाज़ में अपने साथ बहाकर ले जाते हैं.

इस पुस्तक की एक खासियत यात्रा से संबंधित रंगीन एल्बम है, जिसमें चित्र बिल्कुल जीवंत से प्रतीत होते हैं. हिमालय के अभिभूत कर देने वाले सुंदर दृश्य इस एल्बम में मौजूद हैं. वहां के गल, झील,‌ झरनों, हिमाच्छादित शिखरों, जीव जंतु और वनस्पतियों को देखने का प्रत्यक्ष सा आनंद घर बैठे ही ले सकते हैं. अद्भुत फ़ोटोग्राफ़ी है. कुछ ऐसे दुर्लभ जानवरों के फोटो भी हैं, जिन्हें देखने का बहुत सारे पाठकों को पहली बार अवसर मिलता है. इन चित्रों को देखकर यात्रा की दुरूहता और भयावहता को भी अधिक गहराई से समझा जा सकता है. इस पुस्तक के लगभग हर पेज में उपस्थित श्वेत श्याम चित्र भी कम सुंदर नहीं हैं. हर चित्र बहुत देर तक नज़रें गढ़ाए रखने के लिए विवश करता है. हर चित्र सही स्थान पर लगाए भी गए हैं. विवरण और चित्र दोनों एक दूसरे के पूरक की तरह आए हैं.

कुल मिलाकर इस पुस्तक में उच्च हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा, यात्रा मार्ग की दुरूहता, साहसिक यात्राओं का रोमांस,  उनकी कठिनाइयां, आसन्न मृत्यु की भयावहता, उससे लड़ने की जीवटता, साहस, प्रयत्न, जीवन की जिजीविषा, उम्मीद, हताशा, उत्साह जैसे मनोभावों के तमाम शेड्स, जीवन के अंतर्द्वंद्व, जीवन दर्शन, विकास और पर्यावरण का संघर्ष, इस तरह के तमाम भावों, विचारों और इंद्रियबोधों से इस किताब में गुज़रना होता है. एक ऐसी किताब जो बार-बार पढ़ने को आमंत्रित करती है और हर बार पहली बार पढ़ने सा आनंद देती है. कहीं-कहीं इसे पढ़ते हुए किसी हॉरर फ़िल्म को देखने जैसी अनुभूति होती है. दिल की धड़कन बढ़ जाती है. यह एक मुकम्मल यात्रा वृत्तांत है. इस सब के बावजूद इस किताब में बहुत कुछ आने से रह गया होगा जिसके बारे में खुद शेखर पाठक किताब में एक स्थान पर लिखते हैं, “बहुत कुछ हम सतत यात्रियों की आंखों और अनुभव में आने से इस बार भी रह जाएगा. हम कायनात के कुछ हिस्से ही देख पाते हैं और समझ तो और भी कम को पाते होंगे. कुछ रह भी जाना चाहिए. पूरी प्रकृति का डॉक्यूमेंटेशन मनुष्य द्वारा संभव नहीं है और यह उसे पा भी नहीं पाएगा.

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें

 

महेश चंद्र पुनेठा
10 मार्च 1971,  पिथौरागढ़, उत्तराखंड
पंछी बनती मुक्ति की चाह, भय अतल में तथा अब पहुंची हो तुम  कविता संग्रह प्रकाशित
‘शैक्षिक दखल’ (शिक्षा केंद्रित पत्रिका) का संपादन

Tags: 20252025 समीक्षामहेश चंद्र पुनेठाशेखर पाठकहिमांक और क्वथनांक के बीच
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Comments 2

  1. अरुण आदित्य says:
    4 months ago

    एक धड़कती हुई किताब के बारे में इसी तरह धड़कता हुआ लेख लिखा जाना चाहिए। बधाई महेश जी।

    Reply
  2. तेजी ग्रोवर says:
    4 months ago

    बहुत बढ़िया आलेख. शेखर पाठक निश्चित ही हमारे बीच एक विलक्षण उपस्थिति हैँ. कुछ भी कहें वह नाकाफ़ी होगा.

    उनका लिखा हम लोग पढ़ते आये हैँ. यह पुस्तक मंगवाती हूँ

    Reply

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