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समालोचन

Home » पेद्रो पारामो : जुआन रुल्फो » Page 4

पेद्रो पारामो : जुआन रुल्फो

हिंदी अनुवाद : अजित हर्षे

by arun dev
January 22, 2025
in अनुवाद
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पेंटिंग: रवीन्द्र व्यास

 

४०.
(सुज़ाना=डोना सुसानीटा)

 

मैं उसी बिस्तर पर लेटी हूँ जहाँ न जाने कितने साल पहले मेरी माँ की मृत्यु हुई थी. इसी चटाई पर, इसी काले कंबल के नीचे, कंबल में लपेटकर वह हमें सुलाती थी. मैं उसकी बगल में सोती थी, उसकी नन्ही परी, मेरे लिए वह अपनी बाँह का खास बिस्तर तैयार करती थी.

मुझे लगता है, मैं अब भी उसकी साँसों की शांत लय महसूस कर सकती हूँ; उसकी धड़कनें, रह-रहक़र उठने वाले उसके उच्छवास जो मेरी नींद को सुकून से भर देते थे. मुझे लगता है कि मैं उसकी मौत का दर्द महसूस करती हूँ…लेकिन यह सच नहीं है.

यहाँ मैं लेटी हूँ, सीधी, चित, इस आशा में कि उन पुराने दिनों को याद करके मैं अपना अकेलापन भूल जाऊँगी. क्योंकि, यहाँ मैं यूँ ही, सिर्फ कुछ समय के लिए नहीं हूँ. और मैं अपनी माँ के बिस्तर पर नहीं हूँ बल्कि एक काले बक्से में बंद हूँ जैसा मृतकों को दफन करने के लिए होता है. क्योंकि मैं एक मृतक हूँ.

इस बात का एहसास मुझे है कि मैं कहाँ हूँ, लेकिन मैं सोच सकती हूँ…

मैं पकते नींबुओं के बारे में सोचती हूँ. फरवरी की आंधियों के बारे में, जो फर्न की डंठलों को सूखने से पहले ही तोड़-ताड़कर बराबर कर देती थीं. पके नींबुओं के बारे में जो झाड़-झंखाड़ों से आच्छादित आँगन को अपनी सुगंध से और भरा-पूरा कर देते थे.

फरवरी की सुबह में आंधियाँ पहाड़ों से नीचे उतरती थीं. और बादल वहीं गर्मी के मौसम का इंतज़ार करते रहते थे जो उन्हें खींचकर नीचे घाटी में ले जाएगा. इस बीच आसमान साफ नीला होता और धरती पर हर तरफ उठते, धूल और रेत को भौंरों की तरह घुमाते और नारंगियों की शाखाओं पर कोड़े बरसाते छोटे-छोटे चक्रवातों पर प्रकाश खेलता रहता था.

उस मौसम में गौरैया चहकती थीं; आंधी में गिरे पत्तों पर चोंच मारतीं और चहकतीं. वे अपने पंख पेड़ों की कांटो-भरी शाखाओं पर छोड़ आतीं और तितलियों के पीछे भागतीं और चहकतीं. यह वह मौसम था.

फरवरी, जब सुबह आंधियों और गौरैयों और नीले प्रकाश से आच्छादित होती थीं. मुझे याद है, यही माह था जब मेरी माँ मरी थी.

मुझे चीखना चाहिए था. मुझे अपने हाथों को इतना मरोड़ना चाहिए था कि उनसे खून निकलने लगे. उस समय आप यही चाहते. लेकिन सच्चाई यह है कि वह एक बहुत सुहानी सुबह थी. नाज़ुक लताओं को झकझोरती ठंडी बयार खुले दरवाजों से भीतर आ रही थी. मेरी जांघों के बीच स्थित छोटे से उभार पर बाल उग रहे थे और जब मैं अपनी छातियों को छूती तो मेरे हाथ तप्त होकर काँपने लगते थे. गौरैया खेल रही थीं. पहाड़ी खेतों में गेहूँ की बालियाँ उत्तेजना में डोलतीं-इतरातीं. मुझे इस बात का दुख था कि अब वह जस्मिन के फूलों पर खेलती हवाओं को नहीं देख पाएगी, कि चमकीली सुबह के लिए अब उसकी आँखें बंद हो चुकी हैं. लेकिन मुझे रोना क्यों चाहिए?

तुम्हें याद है, जस्टीना? तुमने गलियारे में एक लाइन में कुर्सियाँ लगवाई थीं जहाँ बैठकर लोग अपनी बारी का इंतज़ार करते? लेकिन वे सब ख़ाली की ख़ाली ही रह गई थीं. मेरी माँ अपना पीला चेहरा लिए जलती मोमबत्तियों के बीच अकेली पड़ी रही; मौत की नीली ठंड के कारण बैंगनी हो चुके उसके होंठों के बीच सफेद दाँत मुश्किल से नज़र आते थे.

उसकी पलकें स्थिर थीं, हृदय खामोश था. तुम और मैं न खत्म होने वाली प्रार्थनाएँ पढ़ रही थीं जिन्हें न तो वह सुन पा रही थी न खुद हम, क्योंकि उस रात आंधी का शोर इतना था. तुमने उसके काले कपड़ों पर प्रेस किया था, कॉलर और बाँहों की मोहरियों पर स्टार्च चढ़ाया था जिससे मृत स्तनों पर क्रॉस की तरह रखे उसके हाथ युवा दिखाई दें- उसके थके, सूखे लेकिन बहुत प्यारे स्तनों पर, जिन्होंने कभी मुझे दूध पिलाया था; जब वह मुझे गाकर सुलाती तो वे स्तन गद्देदार, हिलते-डुलते झूले का रूप ले लेते थे.

उससे मिलने कोई नहीं आया. ठीक ही हुआ. मौत को इस तरह पेश नहीं करना चाहिए कि जैसे कोई शुभ काम हुआ हो. दुख की खोज कोई नहीं करता.

किसी ने दरवाज़े की कुंडी खटखटाई. तुम दरवाज़ा खोलने गई.

“तुम जाओ,” मैंने कहा. “लोग मुझे धुंधले दिखाई पड़ते हैं. उन्हें वापस जाने के लिए कह देना. ग्रेगेरियन मास के लिए पैसे माँगने न आए हों? वह कुछ भी छोड़कर नहीं गई है. यह उन्हें साफ-साफ कह देना, जस्टीना. अगर वे मास आदि कर्मकांड नहीं करेंगे तो क्या उसे यातना-गृह में रहना होगा? वे कौन होते हैं जस्टीना, न्याय सुनाने वाले? तुम सोच रही हो कि मैं पागल हूँ? ठीक है, सोचती रहो.”

और जब हम उसे दफनाने जाने लगे तब तक भी तुम्हारी कुर्सियाँ ख़ाली ही पड़ी रहीं. किराए पर लिए गए वे अनजान लोग हमारे शोक से नावाकिफ थे और एक अजनबी महिला के बोझ तले पसीना-पसीना हो रहे थे. उन्होंने बेलचों से गीली मिट्टी खोदी और कफ़न को गड्ढे में उतारा और फिर उन्हीं लोगों ने अपने पेशेवराना सधे हाथों से धीरे-धीरे कब्र पर मिट्टी डाली. इतने श्रम के बाद ठंडी हवा ने उन्हें शांति प्रदान की. उनकी आँखें ठंडी और उदासीन थीं. उन्होंने कहा, “इतना-इतना हुआ.” और तुमने बहुत ध्यान से आँसुओं से गीला अपना रुमाल, जिसे तुम कई बार निचोड़ चुकी थी और जिसमें अब कफ़न-दफन के लिए पैसे रखे थे, खोला और उन्हें कुछ पैसे दिए जैसे बाज़ार में कुछ खरीदने के बाद देती हो…

फिर उसके बाद, जब वे चले गए तो तुम कब्र पर उसके सिर की तरफ घुटनों के बल झुकी और ज़मीन को कसकर चूमा और शायद तुम मिट्टी खोदती हुई उसकी तरफ धँसती चली जाती अगर मैंने ठीक समय पर तुमसे यह नहीं कहा होता: “चलो, जस्टीना. वह अब वहाँ नहीं है. वहाँ एक मृत शरीर के सिवा कुछ नहीं है.”

 

 

४१.
(लेखक)

 

“क्या तुम कुछ कह रही थी, डोरोटिया?”

“कौन, मैं? मैं कुछ देर सो रही थी. तुम अब भी डर रहे हो?”

“मैंने किसी को बात करते सुना. किसी औरत की आवाज़ थी. मुझे लगा, तुम हो.”

“औरत की आवाज़? तुम्हें लगा, मैं हूँ? वही औरत होगी जो अपने आप से बातें करती रहती है. विशाल मकबरे वाली. डोना सुसानीटा. वह हमारे पास में ही दफन है. नमी से परेशान होगी और नींद में यहाँ, वहाँ घूम रही होगी.”

“कौन है वह?”

“पेद्रो पारामो की आखिरी बीबी. कुछ लोग बताते हैं, वह पागल थी. कुछ कहते हैं, नहीं थी. इतना जानती हूँ कि जब वह ज़िंदा थी तब भी अपने आप से बातें करती थी.”

“वह तो बहुत पहले मर चुकी होगी?”

“हाँ, हाँ! बहुत समय पहले. तुमने क्या सुना, क्या कह रही थी वह?”

“अपनी माँ के बारे में कुछ.”

“लेकिन उसकी तो कोई माँ ही नहीं थी…”

“लेकिन वह अपनी माँ के बारे में ही कुछ कह रही थी.”

“हम्म…. कम से कम तब उसकी माँ उसके साथ नहीं थी जब वह यहाँ आई थी….लेकिन एक मिनट रुको…. अब मुझे याद आया, उसकी माँ यहीं पैदा हुई थी और जब वह कई साल यहाँ रह चुकी तो अचानक वे लोग गायब हो गए. उसकी माँ तपेदिक से मरी. वह बड़ी अजीब औरत थी जो हमेशा बीमार रहती थी और न तो वह किसी के घर जाती थी और न कोई उसके यहाँ आता था.”

“वह यही कह रही थी. कि जब उसकी माँ मरी तो उसे देखने कोई नहीं आया.”

“क्या मतलब? स्वाभाविक ही, कोई उनके घर कदम भी नहीं रखना चाहता था क्योंकि सब डरते थे कि कहीं वह रोग उन्हें न पकड़ ले. पता नहीं उस इंडियन औरत को याद है या नहीं.”

“वह इसी के बारे में बात कर रही थी.”

“तुम जब दोबारा सुनो तो मुझे बताना. मैं जानना चाहती हूँ कि वह क्या कह रही थी.”

“देखो, कुछ सुनाई दिया? मुझे लगता है कि वह कुछ कहना चाह रही है. मुझे कुछ फुसफुसाहट-सी सुनाई दे रही है.”

“नहीं, ये वो नहीं है. यह कहीं दूर से आ रही है और विपरीत दिशा में जा रही है. और यह आदमी की आवाज़ है. बहुत समय पहले मरी इन लाशों के साथ होता ये है कि जब नमी उन तक पहुँचती है तो वे विचलित हो जाते हैं. वे जागकर उठ बैठते हैं.”

“ऊपर वाला बड़ा उदार है. उस दिन ईश्वर मेरे साथ था. अगर नहीं होता तो न जाने उस रोज मेरे साथ क्या होता. क्योंकि जब मैं यहाँ पहुँचा तब तक रात हो चुकी थी….”

“अब तुम्हें कुछ बेहतर सुनाई दे रहा है?”

“हाँ.”

“…मैं खून से लथपथ था. मैं उठने को होता था तो मेरे हाथ चट्टानों के बीच, खून के कुंड में फिसल जाते थे. वह मेरा खून था. कई बाल्टियाँ भर जाएँ, इतना. लेकिन मैं मरा नहीं था, यह मैं जानता था. जानता था कि पेद्रो पारामो मुझे जान से नहीं मारना चाहता था. सिर्फ डराना चाहता था. वह पता करना चाहता था कि दो साल पहले उस दिन मैं विल्मेयो में था या नहीं. सान क्रिस्टोबल के दिन. शादी में. कौन सी शादी? किस सान क्रिस्टोबल की? मैं अपने ही खून में बार-बार फिसल-फिसल जाता था और तब भी मैंने उससे यही पूछा था: ‘कैसी शादी, डॉन पेद्रो? नहीं! डॉन पेद्रो, नहीं. मैं वहाँ नहीं था. हो सकता है, आसपास रहा होऊँ, वह भी महज इत्तफाकन….’ वह मुझे जान से नहीं मारना चाहता था. उसने मुझे लँगड़ा करके छोड़ दिया था- तुम देख सकते हो- और, कहते हुए दुख होता है कि बाँहों को भी बेकार करके. लेकिन उसने मुझे जान से नहीं मारा. लोग कहते हैं कि तभी से मेरी एक आँख फैल गई है. डर के मारे. लेकिन यह बताना जरूरी है कि उसके कारण मैं कुछ और मर्दाना दिखाई देता हूँ. ऊपर वाला बड़ा उदार है. इस बात पर कभी शंका मत करना.”

“ये कौन था?”

“मैं क्या जानूँ? दर्जनों में से होगा कोई. अपने पिता की हत्या के बाद पेद्रो पारामो ने इतने लोगों का कत्ल करवाया था कि उस शादी में मौजूद लगभग सभी लोग उसके हाथों मारे गए. डॉन लुकास पारामो को कन्यादान करना था. और वास्तव में उसकी मौत महज एक हादसा थी क्योंकि दरअसल दूल्हे के साथ किसी का कोई झगड़ा था. और क्योंकि किसी को कुछ पता नहीं चला कि जिस गोली से वह मरा, वह किसने चलाई, पेद्रो पारामो ने उन सभी को खतम कर दिया. यह मामला उधर, विल्मेयो की पहाड़ी पर घटित हुआ था जहाँ उस समय कुछ मकान थे- अब तुम्हें उनका कोई नामोनिशान नज़र नहीं आएगा… सुनो…लगता है कि ये वही औरत है. तुम्हारे कान जवान हैं, तुम सुनो. फिर बताओ कि वह क्या कह रही है.”

“मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. मुझे नहीं लगता कि वह कुछ कह रही है; सिर्फ आहें भर रही है.”

“आहें क्यों भर रही होगी?”

“कौन जाने, क्यों.”

“कोई न कोई कारण तो होगा. सिर्फ आहें भरने के लिए कोई आहें नहीं भरता. ध्यान से सुनो.”

“वह आहें ही भर रही है. सिर्फ आहें. हो सकता है, पेद्रो पारामो की सताई हुई हो.”

“यह मत कहो. वह उससे प्यार करता था. मैं बता रही हूँ. मेरा दावा है कि इससे उसने जैसा प्यार किया, किसी दूसरी औरत से नहीं किया. जब वे उसे लेकर यहाँ आए थे तब वह पहले से ही बेहद दुखी थी- शायद दुख ने उसे पागल बना दिया था. वह उससे इतना प्यार करता था कि जब वह मरी तभी से एक कुर्सी पर बैठा दिन भर सड़क निहारता रहता था, उस तरफ जिधर से लोग उसे कब्रिस्तान की तरफ ले गए थे. संसार की किसी बात में उसकी रुचि नहीं रह गई. अपनी ज़मीनें उसने परती छोड़ दीं और खेती के सारे औज़ारों को नष्ट करने का हुक्म दे दिया. कुछ लोग कहते हैं कि वह थक गया था इसलिए; कुछ लोग इसका कारण उसके विषाद को बताते हैं. इतना निश्चित है कि उसने अपने खेतों से सारे हरवाहों और मजदूरों को निकाल बाहर किया और खुद उस कुर्सी पर जाकर बैठ गया, टकटकी लगाकर सड़क देखते रहने के लिए.

“उसी दिन के बाद उसने खेतों को उपेक्षित छोड़ दिया. खेत अनाथ हो गए. वास्तव में खेतों के साथ जो हुआ बड़ा दुखद था, वे बेकार पड़े थे तो उन पर प्लेग ने अपना बसेरा कर लिया. हर तरफ मीलों तक लोग हलकान हो उठे. उन पर कहर बरपा था. पुरुषों ने बोरिया बिस्तर समेटे और रोज़ी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में कहीं और निकल पड़े. वे दिन मुझे याद हैं जब कोमाला में हर तरफ सिर्फ “गुड बाई” सुनाई देता था. जब भी हम किसी को बाहर भेजते तो एक तरह का समारोह जैसा हो जाता था. वे गए, लेकिन पक्के इरादे के साथ कि वापस आएँगे. हमसे अपने परिवार का ध्यान रखने और सामान पर नज़र रखने के लिए कहकर गए. बाद में कुछ लोगों ने अपने परिवारों को अपने पास बुला लिया लेकिन सामान यहीं पड़ा रहा. और उसके बाद लगता था, वे गाँव को ही भूल गए हैं, हमें भी और अपने माल-असबाब को भी. मैं यहीं रह गई क्योंकि जाने के लिए मेरे पास कोई जगह नहीं थी. कुछ लोग पेद्रो पारामो की मौत के इंतज़ार में पड़े रहे क्योंकि उसने सबसे वादा किया था कि वह अपनी ज़मीन और घर-बार, सब कुछ उनके लिए छोड़ जाएगा और वे इसी आशा में यहीं रहे आए. लेकिन साल दर साल बीतते गए और वह सही सलामत ज़िंदा रहा, बिजूके की तरह सिर उठाए मेडिया लूना की जमीनों पर नज़र गड़ाए.

“और फिर उसके मरने के थोड़ा पहले ही क्रिस्टेरो वार शुरू हो गया और उनके सैनिक थोड़े से बचे हुए लोगों को अपने साथ समेट ले गए. उसी के बाद वास्तव में मेरी भुखमरी का दौर शुरू हुआ और पुराना समय लौटकर आने की आशा भी हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गई.

“और यह सब डॉन पेद्रो का किया कराया था, उसकी आत्मा की उथल-पुथल के कारण हुआ था. सिर्फ इसलिए कि उसकी बीबी, वह सुसानीटा मर गई. तो अब बताओ कि क्या वह उससे प्यार करता था.”

 

४२.
(लेखक)

 

फुलगर सेडानो ने एक दिन उसे बताया:

“मालिक, आपको पता है कौन वापस आ गया है?”,

“कौन?”

“बर्तोलोमे सान जुआन.”

“कैसे?”

“यही मैं अपने आपसे पूछ रहा था. पता नहीं वह वापस क्यों आ गया?”

“तुमने पता नहीं किया कि क्यों?”

“नहीं. मैं पहले आपको बताना चाहता था. उसने कोई घर ढूँढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई. वह सीधे आपके पुराने मकान में गया, घोड़े से उतरा और सूटकेस लेकर अंदर चला गया जैसे पहले ही वह घर आपने उसे किराए पर उठा दिया हो. लगता ही नहीं था कि उसके मन में कोई झिझक या शक हो.”

“और तुम क्या कर रहे हो इस बारे में, फुलगर? यह सब क्या चल रहा है, तुमने पता क्यों नहीं किया? इन्हीं सब कामों के लिए तुम्हें अच्छी खासी तनख्वाह मिलती है. मिलती है कि नहीं?”

“वास्तव में, जो अभी-अभी मैंने आपको बताया, उससे मैं थोड़ा चक्कर में पड़ गया था. लेकिन अगर आप चाहते हैं तो कल तक मैं सब कुछ पता कर लूँगा.”

“कल को मारो गोली. मैं खुद सान जुआन परिवार को देख लूँगा. दोनों आए हैं?”

“हाँ, वह और उसकी पत्नी. लेकिन आप कैसे जानते हैं?”

“क्या वह उसकी बेटी नहीं है?”

“हम्म, उसके साथ जिस तरह का उसका व्यवहार है, उससे तो वह पत्नी ज़्यादा लगती है.”

“फुलगर, अब तुम घर जाकर सो जाओ.”

“जैसी आज्ञा, मालिक.“

 

४३.
पेद्रो पारामो

 

तीस साल तुम्हारा इंतज़ार किया मैंने, सुज़ाना. मैं सब कुछ पाना चाहता था, सिर्फ कुछ टुकड़े नहीं. सब कुछ जो पाया जा सकता है. उतना जिसके बाद पाने के लिए कुछ नहीं रह जाता. और कोई कामना नहीं सिर्फ तुम्हारी लालसा. कितनी बार तुम्हारे पिता से कहा कि वापस आ जाओ और यहाँ आकर रहो, मुझे आपकी ज़रूरत है. यहाँ तक कि इसके लिए मैंने छल-कपट का इस्तेमाल भी किया.

मैंने उसे प्रशासक या कोई भी बड़ा से बड़ा पद देने का प्रस्ताव किया जिससे मैं तुम्हें देख सकूँ. और उसने क्या जवाब दिया? “सेन्योर डॉन बर्तोलोमे कोई जवाब ही नहीं देते, मालिक,” हरकारे का एक ही जवाब होता. “आपकी चिट्ठी हाथ में आते ही वह फाड़कर फेंक देते हैं.” पर उसी हरकारे से मुझे पता चला कि तुम्हारी शादी हुई थी और जल्द ही यह भी पता चल गया कि अब तुम बेवा हो चुकी हो और अपने पिता की देखभाल के लिए उसके साथ रहती हो.

फिर एक लंबा सन्नाटा.

हरकारा जाता था और लौट आता था और हर बार यही जवाब, “उनका पता नहीं चला, डॉन पेद्रो. लोग कहते हैं कि उन्होंने मस्कोटा छोड़ दिया है. कोई कहता है कि इधर गए हैं कोई कहता है उधर.”

मैंने उससे कहा, “खर्च की बिलकुल फिकर मत करना. लेकिन उन्हें ढूँढ़कर लाओ. ज़मीन उन्हें निगल नहीं गई होगी.”

फिर एक दिन वह आया और मुझसे कहाः

“मैं जंगलों-पहाड़ों में डॉन बर्तोलोमे सान जुआन को खोजता हुआ भटकता रहा मालिक कि कहाँ छिपे बैठे हैं और आखिर मैंने उन्हें खोज ही निकाला. यहाँ से बहुत दूर ला अन्द्रोमेडा की उजाड़ खदानों के पास एक पहाड़ी है, वहीं एक खोखली गुफा जैसी है, उसी की आड़ में लकड़ी की झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं.”

अजीबोगरीब हवाएँ चल रही थीं तब. हथियारबंद विद्रोह की खबरें आ रही थीं. अफवाहें कानों में पड़ रही थीं. वही हवाएँ तुम्हारे पिता को वापस यहाँ उड़ा लाईं. अपने लिए नहीं, तुम्हारी सुरक्षा की खातिर, अपनी चिट्ठी में उसने लिखा. वह तुम्हें वापस सभ्यता के बीच ले आना चाहता था.

मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे आसमान फट पड़ा हो. मैं भागकर तुमसे मिलना चाहता था. तुम्हें सुख-शांति में सराबोर कर देना चाहता था. खुशी में रोना चाहता था. और वाकई रोया सुज़ाना, जब मुझे पता चला कि आखिर तुम वापस आ रही हो.

 

४४.
लेखक

 

“कुछ गाँव फूटी किस्मत की तरह गँधाते हैं. उनकी रुँधी, बासी और निष्प्राण हवा में पहली साँस भरते ही पता चल जाता है कि आप किसी मरती हुई जगह में आ गए हैं. यह वैसा ही एक गाँव है, सुज़ाना.

“पीछे, उधर, जहाँ से हम अभी-अभी आए हैं, कम से कम तुमने अंकुराती, पैदा होती चीज़ों को देखने का आनंद लिया है: बादल, चिड़िया और काई. तुम्हें याद होगा. और यहाँ धरती से रिसती हुई ऊपर उठती इस सड़ी, पीली दुर्गंध के सिवा कुछ नहीं है. यह कस्बा शापित है, गर्दिश में इसका दम घुट रहा है.

“वह चाहता था कि हम वापस आ जाएँ. उसने हमें यह घर रहने के लिए दिया. हमारी ज़रूरत की हर चीज़ उसने हमें उपलब्ध कराई. लेकिन हमें उसका अहसानमंद होने की ज़रूरत नहीं है. यह हमारे लिए कोई वरदान नहीं है क्योंकि यहाँ न होने में ही हमारी मुक्ति है. मैं यह शिद्दत के साथ महसूस करता हूँ.

“तुम जानती हो, पेद्रो पारामो क्या चाहता है? मैंने कभी भी यह नहीं सोचा कि वह हमें यह सब यूँ ही बिना किसी मतलब के दे रहा है. मैं उसे इसकी कीमत अदा करता, पूरी मेहनत से उसके लिए काम करके, क्योंकि हमें उसका एहसान किसी न किसी तरह चुकाना ही था. मैंने उसे ला अन्द्रोमेडा के बारे में विस्तार से बताया कि अगर हम वहाँ की खदानों पर ढंग से काम करें तो उससे अच्छी कमाई की जा सकती है. तुम्हें पता है उसने क्या कहा? “तुम्हारी खदानों में मेरी कोई रुचि नहीं है, बर्तोलोमे सान जुआन. मैं तुम्हारी बेटी के सिवा कुछ नहीं चाहता. वही तुम्हारी सर्वोच्च उपलब्धि है.”

“वह तुमसे प्यार करता है, सुज़ाना. बता रहा था कि बचपन में तुम दोनों साथ खेला करते थे. कि वह तुम्हें पहले से जानता है. यह भी कि जब तुम जवान थे, नदी में साथ-साथ तैरा करते थे. मैं यह नहीं जानता था. अगर जानता तो तुम्हें मार-मारकर अधमरा कर देता.”

“ज़रूर कर देते.”

“क्या मैंने वही सुना जो तुम कह रही हो? ‘ज़रूर कर देते’?”

“तुमने ठीक सुना.”

“तो तुम उसके साथ सोने के लिए तैयार हो?”

“हाँ, बर्तोलोमे.”

“क्या तुम जानती नहीं कि वह शादीशुदा है. कि वह इतनी सारी औरतों को रखे हुए है कि तुम गिनती नहीं कर सकती?”

“जानती हूँ, बर्तोलोमे.”

“तुम मुझे बर्तोलोमे मत कहो. मैं तुम्हारा बाप हूँ.”

बर्तोलोमे सान जुआन, एक मृत खनिक. सुज़ाना सान ज़ुआन, अन्द्रोमेडा की खदानों में कत्ल एक खनिक की बेटी. वह साफ-साफ देख पा रहा था. “मरने के लिए मुझे वहीं जाना चाहिए,” उसने सोचा. फिर उसने कहाः

“मैंने उससे कहा कि भले ही तुम एक विधवा हो मगर अब भी अपने पति के साथ ही रह रही हो- कम से कम रहने का नाटक तो करती ही हो. मैंने उसे हतोत्साहित करने की बहुत कोशिश की, मगर जब भी मैं उससे बात करता हूँ वह तीखी नज़र से मेरी तरफ देखता है और जब तुम्हारा नाम लेता हूँ, आँखें बंद कर लेता है. मुझे ज़रा भी शक नहीं है कि वह एक घोर पापी है…. ऐसा है ये पेद्रो पारामो .”

“और मैं क्या हूँ?”

“तुम मेरी बेटी हो. मेरी. बर्तोलोमे सान जुआन की बेटी.”

सुज़ाना के मन में विचारों का तूफान आकार लेने लगा. पहले धीरे-धीरे. फिर कुछ हल्का हुआ और अंत में इतनी तेज़ी के साथ बाहर निकला कि वह सिर्फ इतना कह पाईः

“यह सच नहीं है….यह सच नहीं है.”

“यह दुनिया चारों तरफ से घेरकर हमारा कचूमर निकाल रही है. वह हमारी धूल मुट्ठी में लेकर धरती पर बिखेरती है. हमारे छोटे-छोटे टुकड़े करके इस धरती को मानो हमारे खून से सींच रही है. आखिर हमने किया क्या है? क्यों हमारी आत्माएँ इस तरह सड़ गई हैं? तुम्हारी माँ हमेशा कहा करती थी कि कम से कम हमें ईश्वर की कृपा पर तो विश्वास करना चाहिए. फिर भी तुम उसे नकारती हो, सुज़ाना. तुम मुझे अपना पिता मानने से इनकार क्यों करती हो? क्या तुम पागल हो?”

“क्या तुम नहीं जानते थे?”

“क्या तुम पागल हो?”

“बिलकुल. मैं पागल हूँ, बर्तोलोमे. क्या तुम नहीं जानते थे?”

 

 

४५.
पेद्रो पारामो

 

“तुम जानते ही हो, फुलगर कि वह इस धरती पर सबसे खूबसूरत औरत है. मुझे विश्वास हो गया था कि मैं उसे हमेशा हमेशा के लिए खो चुका हूँ. अब उसे दोबारा खोना नहीं चाहता. बात समझ रहे हो ना, फुलगर?…तुम उसके बाप से कहो कि वह जाए और खदानों में अपनी खोज-बीन जारी रखे. और जब वह वहाँ पहुँच जाए तो…मेरे ख्याल से ऐसी सूनी, एकांत जगह में गायब हो जाने में उस बुड्ढे को कोई मुश्किल नहीं होगी. तुम क्या कहते हो?”

“यह हो सकता है.”

“हो सकता है नहीं. यह काम हो ही जाना चाहिए. सुज़ाना को परिवार विहीन किया जाना ज़रूरी है. हम तभी कोई जवाबदारी लेते हैं जब किसी को हमारी देखभाल की ज़रूरत होती है. इस बात से तुम सहमत हो या नहीं? हो ना?”

“मुझे नहीं लगता इसमें कोई दिक्कत होगी.”

“तो तुरंत इस काम में लग जाओ, फुलगर. देर न हो इसमें.”

“और अगर उसे पता चल गया तो?”

“उसे कौन बताने जा रहा है? बोलो, कौन बताएगा उसे. तुम्हारे मेरे बीच की बात है. उसे कौन बताएगा?”

“मुझे लगता है, कोई नहीं.”

“मुझे लगता है” को भूल जाओ. इसी पल भूल जाओ, फिर सब आराम से हो जाएगा. सोचो, अभी अन्द्रोमेडा में कितना ज़रूरी काम बाकी है. उस बूढ़े को वहाँ काम में लगा दो. उसकी मर्ज़ी से यहाँ आने दो, जाने दो. मगर उसके दिमाग़ से यह विचार हमेशा-हमेशा के लिए निकाल दो कि अपनी बेटी को वह साथ ले जा सकता है. उसकी देखभाल के लिए यहाँ हम बैठे हैं. उसका काम वहाँ खदानों में है और उसका घर, यहाँ. जब जी चाहे, आता-जाता रहे. यह उससे ज़रूर कह देना, फुलगर.”

“मुझे फिर से एक बार कहने दें मालिक, कि काम करने का आपका तरीका मुझे बेहद पसंद है. लगता है, आपका जोश और ज़िंदादिली वापस आती  जा रही है.”

 

पेंटिंग: रवीन्द्र व्यास

४६.
लेखक

 

कोमाला घाटी के खेतों में बारिश हो रही है. महीन, भुरभुरी बारिश. इस इलाके के लिए असामान्य, जहाँ सदा मूसलाधार बारिश होती है. आज रविवार है. अपांगो से कॅमोमाइल की मालाएँ, मेहंदी और अजवाइन के फूलों के गुलदस्ते लेकर इंडियंस आ गए हैं. वे ओकट पाइन की लकड़ियाँ नहीं लाए क्योंकि वे अभी गीली हैं और न ही ओक के पत्तों की पतवारें क्योंकि वे भी लगातार बारिश के चलते सूख नहीं पाई हैं. उन्होंने अपनी जड़ी बूटियाँ फुटपाथ की मेहराबों के नीचे फर्श पर बिछा दीं और इंतज़ार करने लगे.

रिमझिम बारिश हो रही है और पानी की बूंदें डबरों के पानी में तरह तरह की आकृतियाँ बना रही हैं.

क्यारियों के बहते पानी के बीच मक्के में नए अंकुर फूट रहे थे. मर्द आज बाज़ार नहीं गए. वे फावड़ों से क्यारियों को कहीं-कहीं तोड़कर पानी के बहाव को मोड़ने की जुगत भिड़ा रहे हैं जिससे कोमल अंकुर बह न जाएँ. वे झुंड बनाकर खेतों का जायज़ा लेते हुए कभी क्यारियों की मिट्टी हटाते हैं तो कभी अंकुरों की जड़ों को मिट्टी से बांधने की कोशिश करते हैं जिससे वे सुरक्षित और मज़बूती के साथ खड़े रह सकें.

इंडियंस इंतज़ार करते हैं. उन्हें लगता है आज का दिन अशुभ है. शायद इसीलिए वे अपने भीगे हुए कोटों और लबादों के भीतर कँपकपा रहे हैं- ठंड से नहीं बल्कि डर और आशंका से. वे महीन बारिश की तरफ ताकते हैं और आसमान की तरफ, जो घने काले बादलों से आच्छादित है.

कोई नहीं आता. जैसे गाँव में कोई रहता ही नहीं. एक औरत आकर रफू का कपड़ा माँगती है, एक पैकेट शक्कर और अगर हो तो, मक्के का दलिया छानने की चलनी भी. जैसे-जैसे दिन बीतता है उनके लबादे नमी के कारण और भी भारी होते जाते हैं. इंडियंस आपस में बातें करते हैं, मज़ाक करते हैं और हँसते-खिलखिलाते हैं. कॅमोमाइल के पत्ते बारिश की ओस में झिलमिलाते हैं. वे सोचते हैं, ‘अगर हम थोड़ी सी मैगवे की शराब ले आते तो इतनी मुसीबत नहीं होती. मगर मैगवे के हृदय तो यहाँ पानी के समुद्र में डूब-उतरा रहे हैं. क्या करें? खैर, आप कर ही क्या सकते हैं?’

पिछले दिनों इतनी बारिश हुई थी कि कई जगह पगडंडी पर भी पानी बह रहा है. कीचड़ से बचते-बचाते और छाता टाँगे मेडिया लूना से जस्टीना डियाज़ इधर ही आ रही है. चर्च के मुख्य दरवाज़े पर रुककर उसने क्रॉस का निशान बनाया और फिर मेहराबों के नीचे से गुजरकर प्लाज़ा में प्रवेश किया. सारे इंडियंस सिर घुमाकर उसकी तरफ देखने लगे. आगे बढ़ते हुए उसने उनकी आँखों को अपने शरीर पर महसूस किया जैसे वह किसी सूक्ष्म परीक्षा से गुज़र रही हो. वह जड़ीबूटियाँ लेकर बैठे एक इंडियन के सामने रुकी, दस सेन्टावो दिए और मेहँदी खरीदकर वापस मुड़ गई. अनगिनत आँखें अब भी उसका पीछा कर रही थीं.

“इस मौसम में हर चीज़ कितनी महंगी हो जाती है,” वापस मेडिया लूना की तरफ लौटते हुए उसने सोचा. “मेहंदी की चार काड़ियाँ और दस सेन्टावो! इतने से कमरा बड़ी मुश्किल से महक़ पाएगा.”

शाम होते-होते इंडियंस अपना सामान उठाने लगे. पीठ पर अपना भारी सामान लादे वे बारिश में भीगते हुए पैदल निकल पड़े. चर्च के सामने वे वर्जिन की प्रार्थना करने के लिए रुके और अजवाइन के फूलों के कुछ गुच्छे वहाँ चढ़ावे के रूप में रखकर अपने घर, अपांगो के लिए रवाना हो गए. “एक और दिन गुज़र गया,” उन्होंने कहा. फिर हँसी-ठट्ठा करते हुए वे आगे बढ़ गए.

जस्टीना डियाज़ सुज़ाना सान ज़ुआन के सोने के कमरे में गई और मेहंदी को एक ताक पर रख दिया. खिड़कियों के गिरे हुए पर्दे प्रकाश को रोके हुए थे और अंधेरे में सिर्फ परछाइयाँ दिखाई देती थीं. वह सिर्फ अंदाज़ ही लगा पा रही थी कि क्या देख रही है. उसने सोचा कि सुज़ाना सान ज़ुआन सो रही है. वह चाहती थी कि सुज़ाना सोने के अलावा कुछ न करे और क्योंकि अभी वह सो रही थी, जस्टिना प्रसन्न थी. पर तभी उसे एक ठंडा उच्छवास सुनाई दिया जो अंधेरे कमरे के दूसरे छोर से आता महसूस हुआ.

“जस्टीना!” कोई पुकार रहा था.

उसने चारों तरफ नज़र घुमाई. वह देख नहीं पाई कि कौन है मगर अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श महसूस किया और कान के पास साँसों की हलचल़. एक रहस्यमय आवाज़ ने कहा, “चली जाओ, जस्टीना. सामान बाँधो और भागो. हमें अब तुम्हारी ज़रूरत नहीं है.”

“उसे है,” तनकर खड़े होते हुए उसने कहा. “वह बीमार है और उसे मेरी ज़रूरत है.”

“अब नहीं है, जस्टीना. उसकी देखभाल के लिए मैं अब यहीं रहने वाला हूँ.”

“आप हैं, डॉन बर्तोलोमे?” पर वह जवाब सुनने के लिए रुकी नहीं. वह चीख पड़ी और उसकी चीख ऐसी थी कि वह खेतों से लौटते मर्दों, औरतों तक को सुनाई दी. ऐसी चीख जिसे सुनकर उन्हें कहना पड़ा, “लगता है कोई चीखा, मगर वह किसी इंसान की आवाज़ नहीं हो सकती.”

बारिश आवाज़ों को निर्जीव बना देती है. दूसरी सभी आवाज़ों को खामोश कर दिया जाए तभी वह सुनाई देती है, अपनी बर्फीली बूँदों को छितराती, जीवन के धागों को बुनती, अंकुरित होती ध्वनियाँ.

“क्या बात है, जस्टीना? तुम चीखी क्यों?” सुज़ाना सान ज़ुआन ने पूछा.

“नहीं तो. मैं नहीं चीखी, सुज़ाना. तुम निश्चय ही सपना देख रही थी.”

“मैं तुम्हें बता चुकी हूँ कि मैं सपने कभी नहीं देखती. तुम्हें मेरे आराम का ज़रा भी खयाल नहीं है. कल रात मैं ज़रा भी नहीं सो पाई. तुम बिल्ली को बाहर करना भूल गई और वह रात भर मुझे परेशान करती रही.”

“वह तो मेरे पास सो रही थी, मेरे पैरों के बीच. वह बारिश में गीली हो गई थी और मुझे उस पर दया आ गई. उसे मैंने अपने पास सुला लिया. मगर उसने शोर बिलकुल नहीं मचाया.”

“शोर तो नहीं मचाया लेकिन सर्कस की बिल्ली की तरह रात भर सिर से पैर तक मेरे ऊपर उछलती-कूदती रही और धीमी आवाज़ में म्याँऊ-म्याँऊ करती रही, जैसे भूखी हो.”

“मैंने उसे अच्छे से खिलाया था और फिर रात में एक बार भी वह मेरा बिस्तर छोड़कर नहीं गई. तुम फिर से झूठे सपने देखने लगी हो, सुज़ाना.”

“मैं कह रही हूँ, रात भर वह यहाँ कूदती फांदती रही. उसकी कूद-फांद से मैं बार-बार बिदक जाती थी और चौंककर जाग उठती थी. तुम अपनी बिल्ली से बहुत प्यार करती होगी मगर आगे से जब मैं सो रही होऊँ वह मेरे आसपास भी न फटकने पाए.”

“यह सब तुम्हारे दिमाग़ का फितूर है, सुज़ाना. बिलकुल यही बात है. पेद्रो पारामो को आने दो. मैं उससे कहूँगी कि अब मैं तुम्हारे साथ बिल्कुल नहीं रह सकती. मैं उससे कहूँगी कि मैं अब जा रही हूँ. बहुत से अच्छे लोग हैं जो मुझे काम दे देंगे. सब तुम्हारी तरह सनकी नहीं हैं. सबको तुम्हारी तरह दूसरों को नीचा दिखाने में आनंद नहीं मिलता. कल सबेरे मैं काम छोड़कर जा रही हूँ. अपनी बिल्ली को साथ ले जाऊँगी जिससे तुम चैन से रह सको.”

“तुम काम छोडकर नहीं जा सकती, दुष्ट कहीं की. तुम कहीं नहीं जाओगी क्योंकि मेरे जैसा प्रेम करने वाला तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा.”

“नहीं जाऊँगी, सुज़ाना. कहीं नहीं जाऊँगी. तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारी देखभाल करती रहूँगी. तुम मुझे क़सम दिलाकर मना भी कर दो तब भी मैं यहीं रहक़र तुम्हारी सेवा करती रहूँगी.”

उसने सुज़ाना को जन्म से ही पाला-पोसा है. उसने उसे बाँहों में भरकर खिलाया है. चलना सिखाया है. वे दो पग उठाना, जिन्हें अनादि काल से इसी तरह उठाया जा रहा है, उसने उसी से सीखा है. उसने उसके विकसित होते होठों और आँखों को मिश्री की गोलियों की मिठास में तब्दील होते देखा है. “पुदीने की मीठी गोलियाँ नीली होती हैं. पीली और नीली. हरी और नीली. पुदीना और विंटरग्रीन को मिश्री पाक में चलाकर कैंडी तैयार की जाती है.” कभी वह उसके गुदगुदे पैरों पर धीमे से दाँत गड़ा देती तो कभी खेल-खेल में अपना सूखा स्तन उसके मुँह से लगा देती, जैसे वह कोई खिलौना हो. “इससे खेलो. अपने प्यारे खिलौने से खेलो.” सुज़ाना से वह कहती. और कई बार तो वह उसे इतनी ज़ोर से चिपटा लेती कि उसका दम घुटने लगता.

बाहर, केले के पत्तों पर पानी बरस रहा था और गड्ढों में भरा पानी ऐसी आवाज़ निकाल रहा था जैसे उबल रहा हो.

चद्दरें ठंडी और नम थीं. ड्रेन-पाइपों से गुड़गुड़ाहट की आवाज़ें आ रही थीं. वे भी रात-दिन लगातार काम करके थकान के मारे चरमरा रहे थे. पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था और हर कहीं बाढ़ के उफान का स्वर सुनाई देता था.

 

पेंटिंग: रवीन्द्र व्यास

४७.
लेखक

 

आधी रात का वक्त था. बारिश के शोर ने दूसरी सभी आवाज़ों को मिटा दिया था.

सुज़ाना सान ज़ुआन जल्दी जाग गई. वह अलसाते हुए धीरे-धीरे उठकर बैठी और फिर बिस्तर से नीचे उतर आई. आज फिर उसे महसूस हुआ कि उसके पैर बहुत भारी हो गए हैं. और जैसे यह भारीपन धीरे-धीरे उसके शरीर में ऊपर की तरफ बढ़ रहा है और सिर तक पहुँचने का प्रयास कर रहा हैः

“बर्तोलोमे? तुम हो क्या?”

उसने सोचा, उसने दरवाज़ा चरमराने की आवाज़ सुनी है, जैसे कोई अंदर आ रहा हो या फिर बाहर निकल रहा हो. उसके बाद सिर्फ बारिश. रुक-रुककर बरसती हुई, ठंडी, केले के पत्तों पर इकट्ठा होती और फिर नीचे गिरती हुई बारिश, खुद अपनी सड़न में खौलती हुई.

वह फिर सो गई और तब तक नहीं जागी जब तक प्रकाश की किरणें लाल ईंटों की दीवारों और उन पर बनी सीलन की पच्चीकारी पर नहीं पड़ने लगीं. नए दिन की मैली सुबह हो रही थी. उसने पुकाराः

“जस्टीना!”

कंधों पर शाल डाले जस्टीना तुरंत हाज़िर हो गई जैसे वह दरवाज़े पर ही खड़ी हुई थी.

“क्या बात है, सुज़ाना?”

“बिल्ली. बिल्ली फिर आ गई है.”

“मेरी प्यारी सुज़ाना.”

उसने अपना सिर सुज़ाना के सीने पर रख दिया और उससे चिपट गई. वह कुछ देर वैसी ही लिपटी पड़ी रही तब सुज़ाना ने सिर उठाया और पूछा, “तुम रो क्यों रही हो? मैं पेद्रो पारामो से कह दूँगी कि तुम कितनी अच्छी हो और मेरा कितना खयाल रखती हो. मैं तुम्हारी बिल्ली के बारे में भी नहीं बताऊँगी कि वह मुझे हमेशा डराती रहती है. रोओ मत, जस्टीना.”

“तुम्हारे पिता नहीं रहे, सुज़ाना. परसों रात वे मर गए. कुछ लोग आज आए थे और बता रहे थे कि हम कुछ नहीं कर सकते थे. उन्होंने उसे दफना भी दिया है. दूरी के कारण उन्हें यहाँ लाना मुश्किल था. तुम अब दुनिया में बिल्कुल अकेली हो, सुज़ाना.”

“इसका मतलब वे पिताजी ही थे. यानी वे मुझे गुड बाई कहने आए थे,” सुज़ाना ने कहा और मुस्कुराई.

बहुत साल पहले, जब वह बच्ची ही थी, एक दिन उसके पिता ने उससे कहा थाः

“नीचे उतरो, सुज़ाना और मुझे बताओ वहाँ क्या दिख रहा है.”

एक रस्सी से बँधी वह नीचे लटक रही थी. रस्सी से उसकी कमर लुहलुहान हो रही थी और हाथ रगड़ खा-खाकर छिल चुके थे मगर वह उसे छोड़ नहीं सकती थी क्योंकि वही थी जिसने उसे बाहरी दुनिया से जोड़ रखा था.

“यहाँ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है, पापा.”

“ठीक से देखो, सुज़ाना. कुछ नहीं दिख रहा है तो देखो कि कुछ दिख रहा है क्या.”

और उसने एक लैंप उस पर चमकाया.

“मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, पापा.”

“मैं तुम्हें और नीचे उतारता हूँ. बताना, जब तुम तले तक पहुँच जाओ.”

कुछ तख्तों के बीच की सँकरी जगह से होते हुए वह भीतर गई थी. चिकनी मिट्टी में लिथड़े, सड़े और जंग लगे तख्तों पर चलते हुए उसे यहाँ तक आना पडा था:

“और नीचे उतरो, सुज़ाना, तब जो मैंने बताया था, तुम्हें मिलेगा.”

अंधेरे में किनारों से टकराती, ठोकर खाती, लटकते पैरों को इधर-उधर हवा में लहराती वह फिर झूलने लगी.

“नीचे, सुज़ाना. थोड़ा और नीचे. बताओ, कुछ दिखा.”

और जब उसके पैर ज़मीन पर पड़े, डर के मारे उसकी घिघ्घी बँध गई. लैंप की वृत्ताकार रोशनी पहले उस ‘चीज़’ पर घूमती रही फिर उसके कदमों के पास एक छोटे घेरे पर केंद्रीभूत हो गई. ऊपर से आती तेज़ आवाज़ से वह काँप उठीः

“वह मुझे दे दो, सुज़ाना.”

दोनों हाथों से उसने खोपड़ी उठाई मगर जब प्रकाश पूरी तरह उस पर पड़ा वह उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ी.

“यह किसी मरे आदमी की खोपड़ी है,” उसने कहा.

“देखो, उसके पास ही तुम्हें कुछ और भी मिलेगा. जो भी वहाँ मिले मुझे लाकर दो.”

कंकाल की हड्डियाँ टूटकर अलग-अलग हो चुकी थीं: जबड़े की हड्डी शक्कर के दानों की तरह बिखरकर दूर जा गिरी थी. वह एक-एक करके सारे टुकड़े ऊपर पहुँचाती गई. पंजों की हड्डियाँ आखिर में, जिन्हें वह एक जोड़ के बाद दूसरा करके थमाती गई. लेकिन सबसे पहले खोपड़ी, गेंद की तरह गोल, जो उसके हाथों से गिरकर टूट गई थी.

“ढूँढ़ती रहो, सुज़ाना. रुपयों के लिए. गोल सोने के सिक्के. चारों तरफ देखो, सुज़ाना.”

उसके बाद उसे बहुत दिनों तक कुछ भी याद नहीं रहा. फिर कई दिनों बाद याद आया, जब वह ठोस बर्फ में कैद हो गई थी. अपने पिता की चमकती आखों की बर्फ में.

इसीलिए वह अभी हँस रही थी.

“मैं जानती थी कि तुम ही हो, बर्तोलोमे.”

और बेचारी जस्टीना, सुज़ाना की छातियों पर सिर रखकर रोती हुई. अचानक वह उठी, यह देखने के लिए कि यह सुज़ाना क्यों इतना हँस रही है. यहाँ तक कि उसकी हँसी धीरे-धीरे ठहाकों में तब्दील होती जा रही थी.

बाहर, बारिश अब भी हो रही थी. इंडियंस चले गए थे. सोमवार था और कोमाला की घाटी पानी में डूबती जा रही है.

 

 

रोड्रिगो पिएर्तो द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘पेद्रो पारामो ’ से एक दृश्य

४८.
लेखक

 

एक के बाद एक दिन गुज़रते रहे लेकिन हवाएँ रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. यही हवाएँ बारिश लेकर आई थीं. बारिश रुक गई मगर हवा के थपेड़े बदस्तूर जारी रहे. खेतों में अब सूखे और मुरझाए हुए नाज़ुक पत्ते क्यारियों में लेटे पड़े थे, हवाओं से बचते हुए. दिन में तो हवाएँ कुछ सहनीय होती थीं, सिर्फ लताओं को परेशान करतीं और छप्परों को झकझोरती रहतीं, मगर रात होते ही वे कराहने लगतीं. सारी रात विलाप करती रहतीं. बादलों के चंदोवे आसमान में इतना नीचे मँडराते कि लगता जैसे धरती पर हमला बोलना चाहते हों.

बंद खिड़की पर सुज़ाना सान ज़ुआन को हवाओं के कोड़ों की मार सुनाई दी. वह अपनी हथेलियों को सिर के नीचे रखकर लेटी हुई थी और रात की आवाज़ों को सुनती हुई सोच रही थी: कैसे रात पर बेचैन हवाएँ टूट पड़ती हैं लेकिन फिर अचानक शांत भी हो जाती है.

किसी ने दरवाज़ा खोला है. हवा का झोंका लैंप बुझा देता है. वह सिर्फ घना अंधेरा देख पा रही है और उसकी विचार-प्रक्रिया रुक जाती है. वह हल्की सरसराहट सुनती है. तुरंत उसे अपने हृदय की धड़कनें सुनाई देने लगती हैं, अस्थिर और तेज़. बंद पलकों की कोरों से उसे लैंप की लौ का अहसास होता है.

वह अपनी आँखें नहीं खोलती. उसके बाल चेहरे पर बिखर गए हैं. प्रकाश में पसीने की बूंदें उसके ऊपरी होंठ पर झिलमिला उठती हैं. वह पूछती हैः

“आप हैं, फादर?”

“हाँ, मैं तुम्हारा पिता हूँ, मेरी बच्ची.”

वह अधखुली आँखों से इधर-उधर देखती है. ऐसा आभास हो रहा है जैसे उसके बिखरे हुए बालों ने एक छायाकृति को अपनी ओट में लेकर छत पर टांग दिया है और उसका सिर सुजाना के चेहरे के ठीक ऊपर आ गया है. उसकी पलकों की धुंध के बीच एक अस्पष्ट आकृति उभर रही है. आकृति के दिल की जगह जलता हुआ प्रकाश है, नन्हा सा हृदय, फड़फड़ाती लौ की तरह स्पंदित होता हुआ. “तुम्हारा दिल दर्द से फटा जा रहा है,” सुज़ाना सोचती है. “मैं जानती हूँ कि तुम मुझे यह बताने आए हो कि फ्लोरेंसियो मर चुका है. लेकिन यह तो मैं पहले से ही जानती हूँ. किसी और बात के लिए दुखी मत हो. मेरी चिंता मत करो. मैं अपने दुख एक सुरक्षित स्थान पर छिपाकर रखती हूँ. अपने हृदय को बुझने मत दो.”

वह बिस्तर से उठी और घिसटती हुई फादर रेंटेरिया की तरफ बढ़ी.

“मैं तुम्हें दिलासा देने आया हूँ. मुझे कहने दो कि तुम्हें शांति प्राप्त हो,” हाथ की ओट में मोमबत्ती की लौ को बचाते हुए फादर रेंटेरिया ने कहा. “अपने दुखी और अशांत हृदय से मैं तुम्हें दिलासा देना चाहता हूँ.”

फादर रेंटेरिया उसे अपनी तरफ आते और फिर अपने हाथों से जलती लौ के चारों ओर घेरा बनाते देखता रहा. सुज़ाना गौर से मोमबत्ती को देखती रही. फिर उसका चेहरा मोमबत्ती की लौ की ओर झुकता चला गया और इतना करीब आ गया कि माँस के जलने की दुर्गंध आने लगी. तब फादर रेंटेरिया ने झटके से मोमबत्ती को अलग किया और फिर बुझा दिया.

एक बार फिर सुज़ाना अंधेरे में थी. वह भागती हुई बिस्तर पर आई और चादर ओढ़ ली.

फादर रेंटेरिया ने कहाः

“मैं तुम्हें ढाढ़स बंधाने आया हूँ, बेटी.”

“अगर यह बात है तो आप जा सकते हैं, फादर,” उसने कहा. “और वापस मत आइएगा. मुझे आपकी ज़रूरत नहीं है.”

और वह वापस जाते कदमों की आहट सुनने लगी जो हमेशा उसके शरीर में ठंड और डर की अनुभूति पैदा कर देती थी.

“जब आप मर चुके हैं तो मुझे देखने क्यों आते हैं?”

फादर रेंटेरिया ने दरवाज़ा बंद किया और रात की ठंडी हवा में बाहर निकल आया.

तेज़ हवा के थपेड़े लगातार जारी थे.

 

 

४९.
लेखक

 

एल तार्तामुदो नाम का एक आदमी मेडिया लूना आया और पेद्रो पारामो के बारे में पूछने लगा.

“तुम उससे क्यों मिलना चाहते हो?”

“मैं उससे ब्…ब बात करना चाहता हूँ.”

“वह घर पर नहीं है.”

“जब वह आए तो ब्…ब बताना कि ड्..डॉन फुलगर के बारे में कुछ बात करनी है.”

“मैं जाकर पता करता हूँ, मगर तुम्हें कुछ देर इंतज़ार करना पड़ेगा.”

“उ..उससे कहना, ज़्..ज ज़रूरी बात है.”

“बोल दूँगा.”

एल तार्तामुदो घोड़े पर बैठे-बैठे ही इंतज़ार करने लगा. कुछ देर बाद ही पेद्रो पारामो, जिसे एल तार्तामुदो ने पहले कभी नहीं देखा था, बाहर आया और पूछाः

“बोलो, क्या है?”

“मुझे सीधे मालिक से ब्..ब बात करनी है.”

“मैं ही मालिक हूँ. बोलो, क्या बात है?”

“अंऽ बस यह कि उन्होंने डॉन फुलगर सेडानो को म्..मा मार डाला. मैं उसके साथ ही था. बांध सूखता जा रहा था और हम नीचे देखने गए थे कि प्..पानी कहाँ से रिस रहा है कि तभी घोड़ों पर सवार कुछ लोगों का झुंड आया. उनमें से ए..एक चिल्लाकर बोला, “मैं उसे प्…प पहचानता हूँ. यह म्…मेडिया लूना का फोरमैन है.”

“उ..उन्होंने मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया पर डॉन फुलगर से कहा कि घोड़े से नीचे उतरो. वे क्..कह रहे थे कि हम क…क क्रांतिकारी हैं. और यह कि हम तुम्हारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने आए हैं. “ज..जाओ,” वे लोग डॉन फुलगर से बोले. “भ्..भागो. अपने मालिक से कहना, इंतज़ार करे हमारा. हम आ रहे हैं.” और वह भ्..भागा, ड् ड डर के मारे उसका बुरा हाल था. बहुत तेज़ नहीं, क्योंकि मोटा है. मगर भागा. लेकिन उन्होंने उसे ग्…ग गोली मार दी. मरते वक्त उसका एक पैर हवा में था और दूसरा ज़्..ज़मीन पर.

“मैं बुत की तरह खड़ा का खड़ा रह गया. बाल बराबर भी नहीं हिला. मैं रात का इ..इंतज़ार करता रहा और अब तुम्हारे सामने हूँ, ब्..बताने के लिए कि क्या हुआ.”

“तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो, बेवकूफ? जाओ. उन्हें जाकर बताओ कि मैं यहाँ बैठा हूँ, जब मर्ज़ी हो, चले आएँ. मैं अभी निबटने के लिए तैयार हूँ उनसे. लेकिन पहले ला कॉन्साग्रेसिऑन वाले रैंच पर जाओ. एल तिल्कुएट को जानते हो ना? वही मिलेगा तुम्हें वहाँ. उससे कहो, मुझसे तुरंत मिले. और फिर उन गुंडों से जाकर बोलो कि मैं यहाँ हूँ, पहली फुरसत में आएँ और मिल लें….कौन-सी ब्रैंड के क्रांतिकारी हैं वे लोग?”

“म्…म मुझे नहीं पता. उन्होंने ब्..बस यही कहा था: क्रांतिकारी.”

“ठीक है, ठीक है. एल तिल्कुएट से कहना, हर हाल में कल मेरे पास पहुँच जाए.”

“कह द्..दूँगा, मालिक.”

पेद्रो पारामो ने अपने ऑफिस का दरवाज़ा पुनः बंद किया. वह बूढ़ा और थका महसूस कर रहा था. फुलगर के लिए परेशान होकर अपना कीमती वक्त बरबाद करना उसे बेकार लगा. वैसे भी वह अब “इस दुनिया से अधिक दूसरी दुनिया” का हो चुका था. जितना वह काम आ सकता था, आ चुका था. वह अब भी उपयोगी था लेकिन किसी भी दूसरे आदमी से ज्यादा नहीं. “लेकिन उन चिरकुट हरामियों का पाला एल तिल्कुएट जैसे ब्राज़ीलियन अजगर, बोआ कोंस्ट्रिक्टर से नहीं पड़ा होगा जो अपने शिकार का चूरा बना देता है,” उसने सोचा.

और फिर उसके सोच की दिशा सुज़ाना सान ज़ुआन की तरफ मुड़ गई जो पूरे वक्त अपने कमरे में सोई पड़ी रहती थी. सोई हुई या सोने का नाटक करती हुई. उसने पूरी रात उसके कमरे में गुज़ारी थी, दीवाल से टिककर, खड़े-खड़े, मोमबत्ती के पीले, बीमार उजाले में, पसीने में चमकते उसके चेहरे को निहारते हुए. रात भर वह बेचैनी से करवटें बदलती रही और तकिये को नोचती-खसोटती रही, यहाँ तक कि वह उधड़कर तार-तार हो गया.

जब से वह उसे अपने साथ रहने के लिए लेकर आया है, उसकी हर रात इसी तरह गुज़रती थी: पीड़ा में तड़पना और अंतहीन व्याकुलता में उसका छटपटाना देखते हुए. अपने आपसे उसने पूछा, ऐसा कब तक चलता रहेगा.

उसे आशा थी कि अधिक दिन नहीं. कुछ भी हमेशा नहीं रहता; कोई भी स्मृति, कितनी भी उत्कट क्यों न हो, ऐसी नहीं होती कि न मिटे.

काश, वह जान पाता कि क्या चीज़ उसे इतनी यंत्रणा दे रही है. क्या है जो उसे रात भर अपनी अनिद्रा में बिस्तर पर बेचैनी के साथ ऐंठते, करवटें बदलते रहने को मजबूर करता है; जैसे कोई रहस्यमय चीज़ भीतर से उसकी धज्जियाँ उड़ा रही हो.

उसने सोचा था, वह उसे जानता है. भले ही अब वह समझ गया हो कि वह उसे बिलकुल नहीं जानता, लेकिन फिर भी, क्या इतना काफी नहीं है कि उससे वह इस दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करता है और हमेशा, हमेशा से करता रहा है. और-और यह सबसे महत्वपूर्ण बात है- कि सिर्फ उसी के लिए वह इस धरती को ऐसी कल्पना से जगमगाता छोड़ जाएगा जो दूसरी सभी स्मृतियों को मिटा देगी.

लेकिन सुज़ाना सान ज़ुआन किस दुनिया में रह रही थी? यह एक ऐसी बात थी जिसे पेद्रो पारामो कभी नहीं जान पाएगा.

 

 

५०.
जुआन प्रेसीयाडो

 

“गुनगुनी रेत मेरे बदन पर बड़ी सुखद लग रही थी. मेरी आँखें बंद थीं, मेरी बाँहें डैनों की तरह फैली हुईं और मेरे पैर समुद्र से आती ठंडी हवा को भीतर समेटने के लिए एकदम खुले. समुद्र मेरे सामने था, दूर क्षितिज में समाता हुआ और अपने मुलायम फेन से मेरे पैरों को सहलाता…”

“अब यह उसने कहा था, जुआन प्रेसीयाडो. वह क्या कहती है मुझे बताना मत भूलना.”

“…वह सुबह का पहला पहर था. समुद्र पछाड़ें मारता, फेन से खुद को मुक्त करते हुए साफ हरी लहरों में तब्दील होता हुआ दूर चला जा रहा था.

“मैं हमेशा समुद्र में नंगी तैरती हूँ,” मैंने उससे कहा. और उसी पहले दिन वह मेरे पीछे आ गया, नंगा, रेत की चमक में टिमटिमाता, समुद्र की तरफ से इधर आता हुआ. वहाँ समुद्री पक्षी नहीं थे, सिर्फ वे पक्षी थे जिन्हें ’स्वॉर्ड बीक्स’ कहते हैं और जो ऐसी आवाज़ निकालते हैं जैसे खर्राटे भर रहे हों और जैसे ही सूरज ऊपर आता है, गायब हो जाते हैं. पहले दिन से ही वह मेरे पीछे पड़ गया और लगता था, मेरी मौजूदगी के बावजूद वह अकेलापन महसूस कर रहा है.

“तुम भी इन्हीं में से एक लग रही हो, इन पक्षियों जैसी,” उसने कहा. “मुझे तुम रात में बिस्तर पर लेटी हुई ज़्यादा अच्छी लगती हो, मेरे साथ एक ही चादर के नीचे, अंधेरे में एक ही तकिए पर सिर टिकाए.”

“वह दूर निकल गया.

“मैं वापस चली गई. मैं हमेशा वापस चली जाती थी. समुद्र मेरे टखनों को नहलाता है और वापस चला जाता है. घुटनों को, जांघों को नहलाता है. वह मेरी कमर को अपनी कोमल भुजा के घेरे में ले लेता है. मेरे स्तनों पर हाथ फेरता है, मुझे गले लगाकर मेरे कंधे सहलाता है. फिर मैं उसमें डूब जाती हूँ, मेरा पूरा शरीर. मैं अपना अस्तित्व उसकी स्पंदित होती प्रचंडता को समर्पित कर देती हूँ, उसके शालीन स्वामित्व में विलीन कर देती हूँ, कुछ भी अपने पास नहीं रहने देती.”

“मैं समुद्र में तैरना पसंद करती हूँ,” मैंने उसे बताया.

“पर वह समझ नहीं पाया.

“और अगली सुबह मैं फिर समुद्र में थी, अपने शुद्धिकरण के लिए. फिर अपने आपको लहरों के हवाले करते हुए.”

 

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हार्ट लैंप : सरिता शर्मा
समीक्षा

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा

Comments 18

  1. कुमार अम्बुज says:
    5 months ago

    इस उपन्यास को हिंदी में आना ही चाहिए था और यह आया। यह कृति क्रिएटिविटी का उत्कृष्ट और अनन्य उदाहरण है। अजित ने अपने आलस्य के पार जाकर इसे अंतत: संशोधित और पूर्ण किया और अरुण ने अद्भुत ढंग से एक साथ ही पेश कर दिया। इस तरह यह A++ काम हुआ।
    बधाई।

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    • M P Haridev says:
      5 months ago

      कुमार अम्बुज जी, सहमत हूँ कि विश्व प्रसिद्ध कृतियों का हिन्दी अनुवाद छपना चाहिये ।

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  2. Mekhraj says:
    5 months ago

    लेखक के नाम का मेक्सिको की हिस्पानी में उच्चारण ‘ख्वान रुल्फ़ो’ के निकट है।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    5 months ago

    For a long time I thought to write that names of foreign writers be also written in brackets. Moreover, the authors’ books translated into Hindi and their publishers names.
    इस संक्षिप्त कथा में भी महत्वपूर्ण प्रसंग महिलाओं की उपेक्षा [घृणा और हिंसा भी पहलू होते हैं] से जुड़ी पीड़ा है । मुझे नहीं मालूम कि पितृ-सत्ता की जड़ें कितनी गहरी और पुरानी हैं । क्या आदिम युग से हैं । आधुनिक संसार में महिलाओं की शिक्षा ने उन्हें मज़बूत बनाया है । वे कमाती हैं । इसके बावजूद घर में काम करना इन्हीं के ज़िम्मे है ।
    क़रीब 5 वर्ष पहले [My chronology is weak] द इंडियन एक्सप्रेस में रविवारी संस्करण में सत्य घटना पर लेख था । मैं पहले कई लेखों की कतरने काटकर फ़ाइलों में रखता था । अब भी हैं लेकिन आयु अधिक होने के कारण छोड़ दिया] यह घटना केरल की है । इसलिये मलयालम भाषा में फ़िल्म बनायी गयी थी । कथा का आरंभ एक 12-14 साल के लड़के और उसकी माँ से जुड़ी है । पिता मज़दूर हैं । माँ का इलाज कराने की रक़म नहीं । उसकी देह उम्र से पहले दोहरी हो गयी थी । माँ काम करने में असमर्थ हैं । एक रोज़ बालक रसोई में स्लैब पर लगे सिंक के पास बर्तन साफ़ करता है । कमर और शरीर में दर्द होना आरंभ हो गया ।
    उसी रोज़ बच्चे ने संकल्प किया कि विवाह के बाद अपनी जीवनसंगिनी के साथ रसोई एवं घर के कार्यों में सहयोग करूँगा । संकल्प का व्यवहार में परिवर्तन हुआ । कथा छपने के दिन तक इन दंपति के एक पुत्र और एक पुत्री हैं । उनसे पुरुष और महिला दोनों के काम कराने का शिक्षण दिया गया ।
    इस चित्रपट के माध्यम से केरल में उनके रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों की वर्किंग वुमन के फ़ोन आने लगे । कि कोई तो है जो हमारे कष्टों को समझता है ।

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  4. Ganesh vispute says:
    5 months ago

    हुआन रूल्फो का यह उपन्यास आज ७० वर्ष बाद भी अद्भुत लगता है। हिंदी में यह अनुदित होना शुभ समाचार है। भाषा वृद्धि का यह राज पथ भी है।

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    • आनंद विंगकर says:
      5 months ago

      फिलहाल इंग्लिश मे यह उपन्यास मै पढ रहा हु लेकिन समजनेमे खूब जटील है खासतौर उस देश का ईतिहास की जानकारीभी मालूम लेना जरुरी है
      हिंदी मे आप लोगोने ऐस क्लासिक किताब का अनुवाद किया
      धन्यवाद
      किसी हालत मे मूझे यह उपन्यास चाहिये
      आनंद विंगकर तहसिल कराड जिला सातारा महाराष्ट्र पिनकोड 415122

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  5. अच्युतानंद मिश्र says:
    5 months ago

    नमस्कार , आज के कारनामे के लिए समालोचन को बहुत बहुत बधाई। समालोचन में ही यह सम्भव है।अब सामलोचन साहित्य की एक संस्था का रूप ले चुका है।कमाल है ।
    क्या यह उपन्यास पीडीएफ के रूप में उपलब्ध हो सकता है, ताकि प्रिंट लेकर पढ़ा जा सके?

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  6. अरुण आदित्य says:
    5 months ago

    पाँव में मल्टिपल फ्रैक्चर के कारण दो हफ्ते से बिस्तर पर हूँ। बिस्तर पर पड़े रहने की ऊब और उदासी के बीच पढ़ना शुरू किया। एक झटके में बीस पेज से अधिक पढ़ गया। इस बीच ऊब और उदासी हाशिए पर दुबकी रहीं। पाठक को मोहपाश में बाँध कर रखने वाला उपन्यास है। भाषा में प्रवाह ऐसा कि बिल्कुल नहीं लगता जैसे अनुवाद पढ़ रहा हूँ। अजित हर्षे और समालोचन ने यह महत्वपूर्ण काम किया है।

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  7. मोनिका कुमार says:
    5 months ago

    अद्भुत संयोग है ! छह सात दिन पहले इनकी दो कहानियां पढ़ी और इस उपन्यास के बारे में NY Times में Valeria Luiselli का आर्टिकल ! और उसी क्रम में हिंदी अनुवाद मिल गया और वह भी इतनी जल्दी. शुक्रिया अरुण जी !

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  8. आमिर हमज़ा says:
    5 months ago

    देर सवेर दिल की बात पहुँच ही जाती है, प्यारे लोगो तक। बड़ी तमन्ना थी इसे नागरी में पढ़ने की, पूरी हुई। यह हिंदी की उपलब्धि है। समालोचन पर इसका होना यक़ीन से परे की बात नहीं है। अब कुछ दिन बस यही। समालोचन और अजित हर्षे जी का ख़ूब शुक्रिया!

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  9. Ashutosh Dube says:
    5 months ago

    अद्भुत है कि समालोचन ने अपनी इस ख़ास पेशकश में पूरा उपन्यास ही दे दिया है। अजित जी का और आपका आभार।

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  10. Shivmurti says:
    5 months ago

    अति उत्तम कार्य.
    एक दशक पहले किसी मित्र ने इसकी चर्चा की थी और PDF भेजा था.पढ़ते हुए किसी भुतही गुफा में जाने का रोमांच हुआ था.अब हिन्दी में पढ़ेंगे तो ज़्यादा आसान होगा.

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  11. श्रीनारायण समीर says:
    5 months ago

    बहुत महत्त्व का काम। हिंदी के क्षितिज को विस्तार देने की दृष्टि से भी बड़ा कार्य है यह। इसे पढ़ना तो है ही, संभाल कर रखना भी है। आपको और अनुवादकर्ता अजित हर्षे को बहुत – बहुत बधाई ।

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  12. Jatinder Aulakh says:
    5 months ago

    बहुत अच्छा काम किया। आपका इस पुस्तक से अवगत कराने लिए धन्यवाद।

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  13. अनुपम ओझा says:
    5 months ago

    फिल्म दो बार देख चुका हूं। उपन्यास पढ़ रहा हूं। समालोचन इस वक्त हिंदी साहित्य को दिशा दृष्टि देने का कठिन काम कर रहा है। अनुवादक और संपादक को बहुत बहुत धन्यवाद्!

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  14. राजीव कुमार शुक्ल says:
    5 months ago

    अजित हर्षे से चार दशकों की घनिष्ठ मित्रता है। इस प्रसंग से वह और गाढ़ी हुईं। उनकी असंदिग्ध सर्जनात्मकता का यह एक और सोपान सम्भव करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के लिए पुराने प्यारे साथी कुमार अम्बुज और अरुण देव जी को अशेष साधुवाद। इसे पढ़ने की तीव्र उत्कंठा जाग उठी है। यात्रा पर हूॅं। स्थिर होते ही प्राथमिकता से पढ़ूॅंगा।

    Reply
  15. रोहिणी अग्रवाल says:
    5 months ago

    समय से साक्षात्कार समय को अवरुद्ध करने वाली जड़ताओं से टकराए बिना नहीं हो सकता। उपन्यास इस जोखिम को उठाता है, लहूलुहान होता है और अपने ही हाथों किये गए विध्वंस को देख हूक-हूक रोता है।

    कथा को मेटाफर का रूप देना और चरित्रों में अखंड देश-काल की स्मृतियों को भर देना आसान नहीं होता। तब पेद्रे पारामो क्या सिर्फ एक व्यक्ति भर बना रह जाता है? क्या वह अपनी व्युत्पत्ति में तमाम तामसिकताओं से बुनी बर्बरता नहीं जो संस्कृतियों, साम्राज्यों, सल्तनतों और सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के पराभव को सुनिश्चित कर हरे-भरे संभावनाओं से लहलहाते जीवन को प्रेतों का शहर बना देती है?

    कथ्य के भीतर गहरी सांस बन कर दुबका जादुई यथार्थवाद शैल्पिक ऊँचाइयाँ न लिए होता तो अर्थगर्भित प्रतीक, बिंब, फुसफुसाहटें और सन्नाटे में खो जाती आहटें/ कराहें भय एवं रहस्य गहराने की विलक्षण युक्तियाँ बन कर रह जातीं, लेकिन यह तो मुर्दों के टीले में जिंदगी के अस्तित्व और मायने तलाशने की पुकार है।
    फलने-फूलने के दंभ में डूबी तमाम सभ्यताओं के बीच आज भी पेद्रो पारामो सब जगह है। बूंद बन कर पैबस्त होता है पल में, और फिर आसमान बन कर ढांप लेता है वजूद …चेतना.. विवेक… गति … असहमति… और ताकत प्रतिरोध की।

    अजित हर्षे और समालोचन का आभार । कलजयी वैचारिक गद्य भी उपलब्ध कराएं तो आज के आलोचनाहीन-विचारहीन समय में सार्थक हस्तक्षेप का मंच बन जाएगा समालोचन ।

    Reply
  16. पूनम मनु says:
    5 months ago

    बाप रे! इतना भी आसान नहीं है पूरा उपन्यास एक ही बार में समझ आना। इसको समझने को इसकी गहराई में उतरना आवश्यक है। जब आप इसे पढ़ो तो किसी दूसरी ओर सोचो नहीं। बढ़िया 👏👏 धन्यवाद समालोचन अरुण देव जी। आभार अजीत हर्षे जी 🙏।सुना था इस उपन्यास के विषय में, पढ़ा आज। समालोचना की बदौलत। आभार समालोचना, ये तो लाइब्रेरी है मेरी 😊🙏

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