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Home » निर्वास : पीयूष दईया की कविताएँ

निर्वास : पीयूष दईया की कविताएँ

अंतहीन पन्नों की कॉपी के किसी कोरे पन्ने पर यह जो आज तिथि अंकित की गयी है, उसे नव वर्ष का आरम्भ कह सकते हैं. यह वर्ष धरती पर सभी के अस्तित्व के लिए सुकूनदेह हो यही कामना की जा सकती है. साहित्य और कलाएं यह बोध और हौसला देती हैं कि मनुष्य सुंदर रच सकता है. अनूठे और लगभग प्रार्थना की तरह की कविताओं के कवि पीयूष दईया, आलोचक शमीम हनफ़ी, चित्रकार और लेखक प्रयाग शुक्ल तथा सीरज सक्सेना के ऊर्जा और उजास से भरे चित्रों के साथ निर्मित इस अंक के माध्यम से समालोचन अपने सभी लेखकों, पाठकों और शुभचिंतकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं देता है.

by arun dev
January 1, 2021
in कविता, पेंटिंग, साहित्य
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निर्वास : पीयूष दईया की कविताएँ
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निर्वास
पीयूष दईया की कविताएँ
वत्सल संतोष पासी, वत्सला योगिता शुक्ला के लिए

 

 

 

बहुत दिन हुए, उर्दू के एक वरिष्ठ आधुनिक कवि ने कहा था: “कर लो’ जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर” अर्थात यह कि आधुनिक कविता अब सिर्फ़ शब्दों का खेल बन कर रह गयी है. इसमें शक नहीं कि हर युग की कविता और कहानी का रूप-रंग शब्दों की मदद से बनाया और निखारा जाता है. लेकिन फ़र्नीचर लकड़ी है, लकड़ी से बनाये जाने के बावजूद सिर्फ़ लकड़ी नहीं होता. कुम्हार मिट्टी से चाक पर तरह-तरह के बर्तन बनाते हैं मगर यह बर्तन सिर्फ़ मिट्टी नहीं होते. कविता इन्सानी सोच की संजीदगी और गहराई से जन्म लेती है. इन्सान के भौतिक और वैचारिक या काल्पनिक अनुभवों को दर्शाती है. पीयूष की किताब त(लाश) ऐसे ही अनुभवों का बयान है. और उनकी खोज जीवन और मरण, ख़ुशी और ग़म, उम्मीद और नाउम्मीदी पर आधारित समझ या उनसे जुड़ी हुई भावनाओं की तह से, यह अनुभव नमूदार हुए हैं. 

पीयूष की सोच और चेतना में एक स्वाभाविक नयापन साफ़ झलकता है. वह भाषा और शब्दों के साथ खेलते भी हैं लेकिन यह खेल हमें किसी न किसी गम्भीर समस्या और दिशा की ओर ले जाते हैं, और मानव अनुभूति के किसी न किसी रहस्य से पर्दा उठाते हैं. इन कविताओं में नयेपन के साथ-साथ एक तरह की ताज़गी भी है. किसी नौजवान की सोच और एहसास में यह नयापन और ताज़गी होनी भी चाहिए. भाषा और शब्दों के स्वरूप से पीयूष ने अपनी कविताओं में एक ख़ास ध्वनि पैदा की है या कोई न कोई तस्वीर बनायी है. यह तस्वीरें कहीं कहीं ऊपर से निराकार दिखाई देती हैं और इनका स्वर बहुत धीमा है लेकिन अर्थहीन नहीं हैं. यूँ भी कविता और कला में अर्थ का रूपरंग सिर्फ़ वह नहीं होता जो शब्दकोश की सहायता से समझा जा सके. मुझे यक़ीन है कि इस किताब के साथ पीयूष की तलाश ख़त्म नहीं होगी, वह जानी अनजानी मंज़िलों की खोज में अपनी यात्रा जारी रखेंगे. देखना यह है कि उनकी यात्रा अन्ततः उन्हें कहाँ और कितनी दूर ले जाती है. कविताओं के साथ अखिलेश की ड्राइंग्ज़ भी बहुत भावपूर्ण हैं और हमें अपनी ओर आकर्षित करती हैं.

शमीम हनफ़ी

 

(कृति: सीरज सक्सेना)

 

 

  

 

१   

इतने सालों में लिखावट कितना बदलती गयी है. यहाँ तक कि अपने पिछले दस्तख़त सरासर जाली लगते हैं. एक चिह्न की तो बिन्दी तक कई बार बड़ी-छोटी हुई है; नज़र गड़ाओ तो आभास होता है कि शायद विस्मयादिबोधक चिह्न है. लेकिन मुझे शक है, ऐसा कोई चिह्न क्या मैं बरतता रहा हूँ. 

बिन्दी हो कि बिन्दु, कभी ठीक से गोला बन ही नहीं सका. क्या मालूम यह पानी की किसी सूख गयी बूँद का निशान हो या उस नन्ही-सी गेंद का जिसे दीवार पर फेंका तो वह मेरे पास वापस लौट आयी. 

लानत है! लिखावट लायक़ तक न बचा. 

 

 २ 

 

लिपिकार की भूल से अभी वह एक ऐसा शरीर नहीं है जिसे देखा जा सकता हो : वह अशरीरी हो गया है, अपने से परे देखने की अनुमति देता. 

अपने कायान्तरण में वह अपनी भाषा प्रकाश के पास छोड़ देता है ताकि भाषातीत से एक हो सके : यह उस की बारहबानी इच्छा रही है. वह यह भूल जाता है कि अभी वह विधि के पाठ की भूल है, इस विधान से अनजान कि ऐसे एक हो अनन्य होना दरअसल समय से बाहर होना है. 

लिपिकार का ध्यान अपनी चूक की ओर जाता है. भूल ठीक कर लेने पर लिपिकार के हाथ का पाठ अ-चूक है. 

तब तक तो, लेकिन : वह है, अब

निर्वास में—

  

३

हो सकता है वह एक ख़ाली छोड़ दिया गया नाम हो

मृगतृष्णा के लिए               या निषिद्ध का एक पृष्ठ 

दिनलिपि की लौ में 

दो धुएँ के रंग से रँगा       एक सम्बन्ध जैसे

                  अपने शून्य पर खोला गया

                  आकाश 

जहाँ सभी मूक हैं, लेकिन सारे स्वर सुन सकते हैं 

इच्छा-पूर्ति के धागों से

समापक बुनते हुए 

अपना

ही 

 

(कृति: सीरज सक्सेना)

 

४

आपकी आवाज़ में बोलता अपने को सुन रहा हूँ कि आप चुप क्यों हैं, लेकिन आवाज़ केवल विराम-चिह्न को आकार देती है, उस बोलने की तरह धीरे-धीरे त्याग देती है जो धीरे-धीरे मेरा सुनना है : ऐसे मैं अनाथ छूट जाता हूँ 

सुने बिना

चुप 

 

५ 

पूरे शरीर में अनाम की प्यास व्याप गयी है जो पानी के लिए तड़पती है. मैं रात भर पानी का सपना देखने लगता हूँ जो अनाम का सपना है. मेरा सूखा गला, अब उस का गला है. वह मुझे मरुथल बना देती है जो उस की प्यास से बना है जहाँ मेरी आँख में मरीचिका पानी की तरह दीखती है. मरुथल में वह मुझे मरीचिका की तरह पाती है जो उस की तृष्णा से बनी है. तभी अपने में मरुथल की ख़ामोशी बोलती सुनायी देती है. मुझे न केवल पता चल जाता है कि मैं ख़ाली शरीर हूँ, बल्कि जो आवाज़ नहीं है वह मुझे गोचर में समो लेने की कुँजी है, लेकिन हमेशा अकेले क्योंकि पानी मिलते ही अनाम अपनी प्यास बुझा लेगी, केंचुल की तरह मुझे छोड़ते हुए. 

 

६

वे न केवल अपने में रहते हैं बल्कि अपने में अपने से रचे गये हैं और जब तक आप यह देख नहीं लेते कि उन्होंने अपने रचाव से आपकी सांस कैसे ली है तब तक वे आप की सांस लेते हैं : ऐसे वे आपको जीते हैं 

          कविता में        

सांस लेते हुए              

शब्द 

 

७ 

अनाम आवाज़ के सबसे दूर के निशान पर आया वह गुमनामी में खोया अपने को मार डालने की सोचता है, ख़ून की रोशनी से नहाये  

सन्नाटे में बहती हवा उन पत्तों को ले आती है जिन में निहित जवाब से उस की अकेली आँखें खुल जाती हैं और वह देखता है : 

आग अपना प्रकाश त्याग देती हुई राख के दर्पण का आकार ले रही है—एक जगह बनाती रहस्योदघाटन के लिए, लेकिन जिसे उस पार्थिव शरीर ने लिखा ही नहीं जो पहले ज़मीन पर लेटा रहा होगा क्योंकि वह उसी अनाम आवाज़ की भाषा में लिखा जा सकता है जिसके सब से दूर के निशान पर वह निम्नलिखित होने में है— 

 

(कृति: सीरज सक्सेना)

 

 ८ 

घर उठ जाने पर वह नींव में जा कर बसने लगा तो देखा नींव अपूरणीय तरह से एक ख़ाली काग़ज़ की तरह खुली है, जिसे घर के आकार में तराशते हुए उस ने ख़ुद को सुना और अपने को गूँगा पाया. अपने सुनने को इबारत में बदलने के लिए उस ने नींव के पत्थर पर उकेरा : हम अपने जन्म में भाग ले सकते हैं, उस से भाग नहीं सकते. यह भाग लेना ही हम हैं, हमारी मौत. 

 

९

अपना नाता खोलते हुए तुम ने पाया कि नाता तुम्हारी रचना है, जिस से नाता है या बन सकता है, उस की रचना का मालूम नहीं. हो सकता है वह कोरा हो, लेकिन तुम नहीं.

तुम ने रचना को कपूर की तरह जलाया : नाता अन्तर्धान हो गया. 

यह जानने का उपाय न बचा कि जिस से नाता था या हो सकता था उस की रचना क्या है? क्या नहीं? 

नाता रचना का रचाव था जो तुम ने रचा. रचना तुम से है. रचाव नहीं तो रचना नहीं तो नाता नहीं. नाता रहने पर यह भेद जान लेने की सम्भावना रहती कि तुम जिस का नाता हो उस का रचाव क्या है? क्या नहीं है?  

तुम ने रचना को जला डाला.

तुम रचना की मौत हो. 

क्या भेद नाते में था जो अब अभेद है—

अन्तर्धान, हँसता वह   

 

१०

एक बार में सब कुछ समझ से बाहर हो गया, तो वह बूढ़ा हो गया, खोखल-सा. अपने थोड़े से बचे सफ़ेद बालों को छूता जैसे मकड़ी के जाले को. एक भूतिया मतिभ्रम की तरह निर्जन पगवट पर चलते उसे जीवन ने छेद दिया पर जाने नहीं दिया. किसी के साथ अपनी अनहोनी को कम करने के लिए, चीज़ों की जाँच करने के लिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि कुछ भी बाहर नहीं हुआ है, वह धीरे-धीरे अपने को नंगा करता गया—रसातल में कान लगाये, अपने को देखते हुए, हर बार अपने ख़िलाफ़ झुकते हुए. उस की आपबीती में दुःख से अँधेरा नहीं फैला, लेकिन अँधेरा कभी अजनबियों से ख़ाली भी नहीं रहा. उस ने उन बातों से सब को दूर-तम रखा जो उस पर बीतती रहीं थीं. 

अब जब :

कहीं बहते पानी में एक हाथ ने दूसरे हाथ को धो लिया है और दोनों ने एक दूसरे को. वह समय को एक कुटी में बन्द करता है जहाँ एक भी शब्द पहले जैसा नहीं लगता. वहाँ इच्छा की वर्णमाला में अभी भी समुद्र एक बूँद है, लेकिन इसे कैसे लिखना है, यह मालूम नहीं. एक के बाद एक बात जितनी मुश्किल में आती है, लिखावट गोल होती जाती है और बूँद का बुलबुला फूट जाता है. 

 

११ 

कण्ठलग्न सखी से हुए सूत्रपात से

अभी कथा में मज़बूती से गाँठ को कसा है. गाँठ इतनी दिव्य है कि अन्त में कथा के पास कथा का कारण होगा. 

यह कारण-भूमि उर्वर है बीजों के लिए

यूँ जड़ों-सा उलझा देती जैसे खेतों में पके हुए बेल : 

इस से फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि कथा पर चुम्बन चमका या हवा का पक्षी. वह स्वयं को एक अवास्तविक कथानक की देहरी पर पायेगी ही

ख़ुद को भोगते हुए 

ऐसे कला है कथा भी, पूरी तरह से

विमोहन 

कथानेत्री का 

 

(कृति: सीरज सक्सेना)

 

 १२  

जैसे मल्लाह थाह लेता है लग्गी से कि कहाँ कितना पानी है वैसे ही आँखें थाह रहा है जो दोपहर के तपे बालू-सी जलने लगी हैं : उम्मीद की हस्ती ऐसी है कि वह अपने को कभी पूरा लील जाने नहीं देती. आगन्तुक भी रात की मिट्टी में एक काले कुदाल की तरह उन सपनों को खोदता रहा जो ख़त्म हो गये थे : ऐसे आगन्तुक ने जगह का अवलोकन किया पर वर्णन में नहीं गया. जगह को रहने लायक बनाने में इतना समय लगा कि जाने का पहर सामने नज़र आया. धुन्ध के बावजूद साफ़ था कि वह अदूर है. अपना ली गयी जगह से जाना उसे सहसा सरल लगा; अपने जाने के बाद वह आने की उम्मीद नहीं कर सकता : वह एक अकेला व्यक्ति है जो सदा के लिए अकेला है. उस के लिए असल सार जाने में था न रहने में; वह जहाँ रहा वहीं उस की जोत भी. इतना अपना कि जगह के बारे में वह लिख गया जो मिट्टी के लिए एक बुत था. 

आगन्तुक को सब जगह अपना घर लगती रहीं. इतना काफ़ी था कि थोड़ी देर को सब सगे रहे, एक साथ इकट्ठा हुए. यह भी किसी वरदान से कम न था कि उसे चारदीवारी से बाहर लाने के लिए चार जीवित लोग मिल गये. 

दीपक में तेल रहा, दिल में शान्ति.

सब अपनी दुनिया में. हमेशा की तरह. जगह के बाद जगह, और फिर कभी नहीं. 

लेकिन अब उस की दीठ पर लगी मुहर खुलेगी नहीं क्योंकि हृदय में उस के लिए नींव नहीं है 

इसलिए

इन वचनों के लिए कोई खोंता नहीं 

 

१३  

अनन्तता हर ओर है. 

हवा में उड़ता एकमात्र पक्षी ग़ायब हो गया है. एक बादल तक नहीं. आकाश ख़ाली है, नीला-सा शरीर का दिल. विशुद्ध, कभी नहीं. 

राख रंग में घुला दूधिया आवरण. आकाश का. निराकार. शान्त. कहीं साँस नहीं, प्रकाश का आलाप मात्र. आवाज़ का सपना. वहाँ कभी बादल बहा होगा. 

जो वापस नहीं आता, जल्द ही भुला दिया जाता है. 

 

१४  

कठोर धागों का एक घोंसला जहाँ अपना अन्तिम संस्कार होना है वहाँ आग के दर्पण में अन्तर्धान होता कहूँगा नहीं मृत्यु के बारे में न ही जलने के बारे में लेकिन लगता है आग में कुन्दन होना चाहिए. 

 

१५ 

ओस की नश्वरता से तर होने के लिए एक फूल सुबह से दूर नहीं 

 

१६ 

उस का कहना है कि वह दिवंगत अपूर्ण है जो अब तक याद से बाहर नहीं हुआ है : उस का असली सम्बन्ध वही है जो सदा के लिए उस को भुला देता है ताकि वह अपने दिवंगतत्व में पूरा हो सके—यही निर्वासी का मोक्ष है.

(छायाकार : सत्यानन्द निरुपम)

 

 

 

 
पीयूष दईया
जन्म : अगस्त १९७२, बीकानेर (राज.)
दो कविता-संग्रह, एक काव्य-कथा,  अनुवाद की दो पुस्तकें तथा
चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद प्रकाशित
साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन.
todaiya@gmail.com
Tags: कविताएँ
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