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Home » शिक्षक प्रेमचन्द: निरंजन सहाय

शिक्षक प्रेमचन्द: निरंजन सहाय

प्रेमचन्द शिक्षक भी थे, इसकी चर्चा कम होती है. उनका लेखन औपनिवेशिक शिक्षा-जगत की दुश्वारियों के प्रति संवेदनशील है. यह भी दिलचस्प है कि पेशे से ‘मुंशी’ न होते हुए भी उन्हें मुंशी कहा जाने लगा जबकि उन्हें मास्टर या अध्यापक प्रेमचंद कहा जा सकता था. समाज के लिए शायद ‘मुंशी’ अध्यापक से अधिक प्रतिष्ठा का पद रहा होगा शायद अब भी है. निरंजन सहाय ने अपने इस आलेख में कथाकार प्रेमचन्द के शिक्षक-पक्ष की विवेचना की है.

by arun dev
August 29, 2023
in आलोचना
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शिक्षक प्रेमचन्द: निरंजन सहाय
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शिक्षक  प्रेमचन्द
निरंजन सहाय

प्रायः कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार या विचारक के रूप में  प्रेमचन्द का आकलन-मूल्यांकन किया जाता है. कई बार एक लाजवाब अनुवादक के रूप में भी उन्हें याद किया जाता है. यह माना जाता है  कि आधुनिक हिंदी और उर्दू की गद्य चर्चा प्रेमचंद के बिना पूरी नहीं हो सकती है. लेकिन प्रेमचंद के जीवन का एक लम्बा हिस्सा  शिक्षा संचार से जुड़ा रहा है. शिक्षा जगत में प्रेमचन्द का अनुभव संसार एक विद्यार्थी से शुरू होकर अध्यापक,  प्रिंसिपल और डिप्टी इंस्पेक्टर तक विस्तृत रहा है. इसलिए शिक्षा की अहमियत  और उसके अभाव से उपजी समस्याओं को वे बहुत नजदीक से महसूस कर पाये.

इसलिए यह जरूरी है कि प्रेमचंद के शिक्षा जगत से जुड़े विचारों से रूबरू हुआ जाये. इस सन्दर्भ में अध्यापक प्रेमचन्द पर विचार करना मौजूं होगा, क्योंकि उनकी एक प्रमुख  पहचान अध्यापक के रूप में भी खूब थी.  प्रेमचन्द के शिक्षा सम्बन्धी चिन्तन से जब  हम रूबरू होते हैं  तो यह आसानी से समझने में कामयाब होते हैं  कि उनके साहित्य में जो बहुविध सन्दर्भों के विस्तार का वितान नज़र आता है, उसके निर्माण में उस शिक्षक की भूमिका रही जो अपने सरोकारों को लेकर बहुत संजीदा था.

यह विचारणीय बात है कि बनारस में स्थानीय स्तर पर प्रेमचंद को लोग साहित्यकार के रूप में जितना जानते थे, कहीं उससे अधिक उनके आसपास की दुनिया  उन्हें  एक अध्यापक के रूप में जानती थी. इसे  समझने के लिए एक  प्रसंग का जिक्र करना लाजमी होगा. प्रेमचंद के बेटे अमृतराय की रचना ‘कलम का सिपाही’ में उनके निधन के समय का वर्णन है.

“अर्थी बनी. ग्यारह बजते-बजते बीस-पच्चीस लोग किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की ओर चले.
रास्ते में एक राह चलते ने दूसरे से पूछा– के  रहल?
दूसरे ने जवाब दिया- “कोई मास्टर था..”[1]

जाहिर सी बात है कि कलम का सिपाही का यह अंश इस बात की  तसदीक करता है कि बनारस में प्रेमचंद उपन्यासकार और कहानीकार  के रूप में प्रसिद्ध तो थे ही लेकिन उनको सबसे ज्यादा प्रसिद्धि हासिल हुई थी एक अध्यापक के रूप में. आम आदमी की दुनिया में वे एक अध्यापक के रूप में जाने-पहचाने गए थे. यह पूरा प्रसंग इस बात की ओर इशारा करता है कि उनकी उपस्थिति को आम लोग एक अध्यापक के रूप में समझते थे. उनके जीवन का एक लम्बा हिस्सा अध्यापक के रूप में गुजरा.

दो

शिक्षा से जुड़ी उनकी जो दुनिया है, उसे समझने के लिए उनके जीवन काल में जारी शिक्षा परम्पराओं पर हमें ध्यान देना होगा. उस दौर में  मोटे तौर पर  चार  तरह के शिक्षायी संस्थान सक्रिय थे. एक तरफ धार्मिक पद्धति से संचालित शिक्षण संस्थान चल रहे थे, जिनमें गुरुकुल पद्धति से मठों  में शिक्षा दी जा रही  थी. इस्लामी पद्धति से जो शिक्षा संस्थान चल रहे थे वे मकतबों और मदरसों के रूप में मशहूर थे. तीसरी तरफ अंग्रेजी ढंग की पाठशालाएँ थीं और चौथे तरह  के वे शिक्षा संस्थान थे जो समाज में  देशी संस्थान के रूप में अभी आकार ले रहे थे. देशी संस्थान का मतलब यह था कि जो उस समय की स्वाधीनता आंदोलन की अंगड़ाइयों से वाकिफ थे और जो आज़ादी की लड़ाई के सिलसिलें में  बेचैनी के मंजर से भरे थे,  उदाहरण के लिए काशी विद्यापीठ या जामिया मिलिया. ऐसे संस्थानों में खुद को आन्दोलन से जोड़कर रखने की ख्वाहिश भी नज़र आती थी.

उस वक्त के मदरसे और मकतब की दुनिया के बीच के फर्क को भी समझ लेना मौजू होगा. मकतब वे शिक्षायी संस्थान थे, जिसमें आरंभिक शिक्षा दी जाती थी यानी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा. मदरसे  दरअसल इल्म की दुनिया के वे  रौशन हिस्से थे, जिनमें उच्च शिक्षा की तालीम दी जाती थी. दोनों की शिक्षा पद्धति इस्लामी पद्धति थी और फर्क केवल इतना था कि मकतबों  में  प्रारम्भिक शिक्षा थी और मदरसों में  उच्च शिक्षा की की तालीम का सिलसिला था. मदरसे में इस बात की भी चिंता रहती थी कि वहाँ से जो उपाधि लेकर तालीमयाफ्ता लोग  निकलें उनमें अपने इल्म के हुनर को बांटने के साथ ही प्रचलित इस्लामी तहजीब को भी देश-दुनिया में फैलाने का एक फलसफा हासिल हो. बनारस का काशी विद्यापीठ पहले भदैनी में  कुमार विद्यालय नाम से सक्रिय था जो देशज पद्धति का शिक्षा संस्थान था.

प्रेमचन्द का जुड़ाव दूसरे तरह के संस्थान यानी मकतब, तीसरे तरह के संस्थान यानी अंग्रेजी ढंग की शिक्षा  पद्धति और चौथे ढंग के शिक्षा संस्थान (देशज पद्धति के) से था.  वे तीनों दुनिया से केवल इल्म और अध्ययन के स्तर पर ही नहीं जुड़े रहे बल्कि उन संस्थानों  के अनुभवों  से अपनी समझ को निर्मित किया. प्रेमचन्द के  उन अनुभवों के आधार पर हम यह समझने का प्रयास कर सकते हैं कि  भारत के विचार  के सिलसिले में कौन सी  कल्पना उनके मन में थी और वह किन तरीकों  से आकार ले रही थी? या यूँ कहें कि  शिक्षा के सन्दर्भ में उनका जो सपना था वह किस तरह का था? उनकी नज़र में  शिक्षा ही वह राह थी जिस पर चलकर भारत के भविष्य के किए नींव तैयार हो सकती थी.

प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा उनके घर पर ही हुई. वे जब थोड़े बड़े हुए छह साल के, तो लमही से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर लालपुर के एक मौलवी साहब के मकतब में बतौर शागिर्द दाखिल हुए. मौलवी साहब मूलतः दर्जी थे लेकिन  छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का काम भी करते थे. प्रेमचन्द के स्कूली शिक्षा की झलक  ‘कलम का सिपाही’ में देखने को मिलती है.  इसके अलावा शिवरानी देवी की किताब ‘घर में प्रेमचंद’ में भी प्रेमचन्द की स्कूली शिक्षा का जिक्र नज़र आता  है. प्रेमचन्द के स्कूली दुनिया के जो अपने अनुभव थे उसे भी प्रेमचन्द ने स्वयं भी दीगर ढंग से लिखा है. आरंभिक शिक्षा की दुनिया में  उस वक्त तीन किताबें पढ़ाई जा रही थी–आमदनामा, सादी की गुलिस्ताँ-बोस्ताँ, और आलाहिसाब. ये जो किताबें पढाई  जाती थीं. वे बताते हैं कि वहाँ पर मदरसे में जो बच्चे-बच्चियाँ थीं या जो वहाँ विद्यार्थी थे वह झूम-झूमकर के गाते थे और गाते हुए खेल-खेल में इल्म की उस दुनिया से रूबरू हो जाते थे.[2]

प्रेमचन्द की जीवनी ‘कलम का सिपाही’  में उस दुनिया के तमाम रोचक किस्से हैं जिसमें उस दुनिया की दिलचस्प झलकियाँ देखने को मिलती हैं. बकौल प्रेमचन्द यह आत्मीय वातावरण से निर्मित घरेलू शिक्षा पद्धति थी. प्रेमचन्द के  पिता डाकघर में  सरकारी मुलाजिम थे. और सरकारी मुलाजिम की संतान होने की वजह से प्रेमचन्द की शिक्षा अलग-अलग जगहों से हुई. पहले उनका दाखिला बस्ती में हुआ फिर वे गोरखपुर में पढ़ते हैं और तबादला होते-होते एक बार एक स्थिति ऐसी आती है कि वे अपने गाँव लमही चले आते हैं. फिर उनके पिता का भी देहावसान हो गया. लमही रहते हुए उनकी पढ़ाई जब नौवीं  दर्जे में पहुंची तो काशी के क्विंस  कॉलेज में उनका दाखिला हुआ. जो स्कूल की फ़ीस का मसला है, वह हिंदुस्तान में हर वक्त बड़ा मुश्किल मसला रहा है. प्रेमचन्द के उपन्यासों और कहानियों को पढ़ें तो उसमें तमाम जगहों पर यह जिक्र आता है कि स्कूल की फ़ीस का मसला आम विद्यार्थी के लिए कितना मुश्किल भरा मसला रहा है. प्रेमचंद के खुद के जीवन में भी इस तरह की दिक्कत आई . जब वे क्विंस कॉलेज में  दाखिला लेने के लिए गये तो उसकी फीस चुकाने का मसला आया. लेकिन अच्छा यह रहा कि एक ठाकुर साहब थे उनकी पैरवी से उनकी फीस माफ़ हो गयी.

अपनी आगे की पढाई के लिए जब वे हिन्दू कॉलेज की प्रबंधकारिणी समिति सदस्य ठाकुर इन्द्रनारायण सिंह की पैरवी लेकर कॉलेज गये तब  प्रिंसिपल ने एक कागज़ पर लिखा “इसकी योग्यता की जांच की जाये”. उस समय उनकी मन: स्थिति क्या हुई होगी यह देखना दिलचस्प होगा, बकौल अमृत राय,

“यह नई समस्या उत्पन्न हुई, मेरा दिल बैठ गया. अंग्रेजी के सिवा और किसी विषय में पास होने की मुझे आशा न थी और बीजगणित और रेखागणित से तो रूह कांपती थी. जो कुछ याद था वह भी भूल गया था, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या था. भाग्य का भरोसा करके क्लास में गया और अपना फॉर्म दिखाया, प्रोफ़ेसर साहब बंगाली थे अंग्रेजी पढ़ा रहे थे वाशिंगटन इरविंग का रिप वान विन्किल था. मन विचलित था, मैं पीछे की कतार में जाकर बैठ गया और दो-चार मिनट में ही मुझे ज्ञात हो गया कि प्रोफ़ेसर साहब अपने विषय के ज्ञाता है.  घंटा समाप्त होने पर उन्होंने आज के पाठ पर मुझसे कई प्रश्न किए और मेरे फॉर्म पर संतोषजनक लिख दिया.”[3]

पर लम्हा बीतते ही सपने धराशायी हो गए,` दूसरा घंटा बीजगणित का था, इसके प्रोफ़ेसर भी बंगाली थे.  इन प्रोफ़ेसर साहब ने गणित में मेरी परीक्षा ली और मैं फेल हो गया. फॉर्म पर गणित के खाने में और असंतोषजनक लिख दिया.  मैं इतना हतोत्साहित हुआ कि फॉर्म लेकर फिर प्रिंसिपल के पास ना गया, सीधा घर चला गया.  गणित मेरे लिए गौरी शंकर की चोटी थी, कभी उसे पार ना कर सका.[4]

इस तरह प्रेमचन्द उस वक्त की जो शिक्षण व्यवस्था थी उसके तमाम पहलुओं पर बात करते हैं. इसके साथ ही उनके जीवन की जो  आर्थिक मुसीबतें थी  उसका भी वे उल्लेख करते हैं. शिक्षा अर्जन की जद्दोजहद के बीच प्रेमचंद के पिताजी का देहांत हो गया और परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधो पर आ गयी. आगे की पढाई उनको लाचारी में छोड़नी पड़ी. साल 1899 के संघर्ष के उन दिनों में जब वे चक्रवर्ती गणित की किताब बेचने बनारस के एक बुकसेलर की दूकान गए तब वहाँ उन्हें चुनार मिशन स्कूल के हेडमास्टर  मिल गए, परिचय और बातचीत के सिलसिले में हेडमास्टर ने 18 रुपए माहवार की नौकरी की पेशकश की.  उन दिनों  को याद करते हुए अमृत राय ने लिखा है, –

“सवाल पूछनेवाले सज्जन चुनार के एक छोटे-से मिशन स्कूल के हेडमास्टर थे. उन्हें मैट्रिक पास एक मास्टर की तलाश थी. वेतन था अठारह रुपया. कहने भर की देर थी, नवाब ने लपककर मंजूर कर लिया. जैसे दिन उसने देखे थे उनके सामने नवाब का यह कहना गलत नहीं था कि अठारह रुपए उस समय मेरी निराश व्यथित कल्पना की ऊंची से ऊंची उड़ान से भी ऊपर थे .”[5]

इस तरह उनके अध्यापक जीवन की शुरुआत हुयी. वे वहाँ गए , फिर पढ़ाने लगे. तमाम तरह की पाठशालाओं में पढ़ाते रहे. कानपुर, बस्ती फिर गोरखपुर के नॉर्मल  स्कूल में पढ़ाने  लगे. उनके अध्यापक जीवन के बहुत सारे किस्से मशहूर हैं.  पढ़ाते-पढ़ते उन्होंने बी.ए. की परीक्षा पास की. बी.ए. की परीक्षा में उन्होंने जो विषय लिए वे थे अंग्रेजी, फ़ारसी, तर्कशास्त्र और आधुनिक इतिहास.  एंट्रेंस के  अठारह वर्ष बाद 1916 में उन्होंने इन्टर की परीक्षा पास की और उसके बाद अध्यापक के रूप में उन्हें इतिहास पढ़ाने का भी अवसर मिला.

अपनी ही धुन में रहने वाले अध्यापक प्रेमचन्द उस संगीत की तरह थे जो रूह तक पहुँचे और जिसका असर देर तक तारी रहे. उनकी उपस्थिति की मायने और इतिहास पढ़ाने के तौर-तरीके यानी इतिहासबोध का फलसफा कैसा था,  इस बारे में उनके शागिर्द  मौलाना मजहरुल हक़ के हवाले से अमृत राय लिखते हैं–

“आपका नियम था कि स्कूल में आमतौर पर ठीक समय पर पहुँच जाते थे. घंटा बजा और आप शायराना अंदाज़ में निकले. अक्सर आप  खुले सर, बाल बिखरे हुए, और एक कोट, जिसके बटन खुले रहते थे, और धोती पहने एक अजीब अंदाज़ से स्कूल आते थे. लडके जितना उनका अदब करते थे किसी दूसरे का नहीं करते थे. मेरे दर्जे को इतिहास पढ़ाते थे……अक्सर ऐसा होता कि जो कुछ इतिहास की पुस्तक में से पढ़कर सुनाते उसके ख़िलाफ़ इतिहास के दूसरे हवालों से बयान करते.’[6]

कहना न होगा जब वे इतिहास का जिक्र करते थे और सभ्यताओं के विकास की कहानी कहते थे, तब कई बारे ऐसा होता था कि पाठ्यपुस्तकों की जो तवारीखी दुनिया है, उससे बाहर निकलकर इतिहास बोध की अपनी समझ को पुख्ता करते हुए ऐसी बाते कहते थे जो इतिहास के सिलसिले को समझने में या यूँ कहें  सभ्यता के विकास के सिलसिले को समझने में सहायक हो. बेहतरीन बात यह थी, कि वे जिस विषय को पढ़ाते थे, उसमे वह एक कदर डूब जाते थे कि उस विषय का वह हिस्सा हो जाते थे. वे बाहरी वेशभूषा और  बाहरी रंग-रूप से ज्यादा इस बात की जरुरत  महसूस करते थे कि जिस विषय को पढ़ा जाए या जिस विषय की दुनिया का हिस्सा बना जाए, उसका इस तरह से निवासी बन जाया जाये कि वहाँ पर आदमी  एक बाहरी  आदमी के रूप में न नजर आये बल्कि उस दुनिया का हिस्सा होकर अपने को महसूस कर सके.

विद्यार्थियों के अनुशासन के बारे में भी प्रेमचन्द का नजरिया बिल्कुल साफ़ था. उनको बाहरी अनुशासन पर भरोसा नहीं था. वे मानते थे कि अनुशासन अंतःकरण की चीज है और उसमें स्व के विवेक के निर्माण से यह दिशा तय होनी चाहिए कि हम किसी बात को समझ सकें कि क्या सही है और क्या गलत है?  इस बात का निर्णय हम करने में सक्षम हों. इस तरह के  अनुशासन के वे कायल थे. एक और बात है, जिसका जिक्र करना मुनासिब होगा. जब गोरखपुर के  स्कूल में वे अध्यापक थे, तब उन्ही दिनों का एक किस्सा है. जहाँ उनका स्कूल था वहीं सड़क के दूसरी तरफ कलेक्टर साहब का बंगला था. एक दिन प्रेमचंद की गाय कलेक्टर के बंगले के भीतर चली गई. जब अमले मारते हुए गाय को भगा रहे थे,  उस समय कलेक्टर आग-बबूला होकर बाहर निकला और प्रेमचंद के पास पहुंचा. प्रेमचन्द ने कहा वह सांड नहीं प्रेमचंद की गाय है.

दूसरे दिन  स्कूल के  प्रिंसिपल ने  प्रेमचन्द से  कहा  कि आपने कलेक्टर साहब की बेइज्जती की है. आपको पता है, कलेक्टर जिले के सबसे बड़े अधिकारी होते हैं, चाहे तो एक मिनट में इस स्कूल को तहस-नहस कर दें. इस पर मुंशी प्रेमचंद ने जो कहा वह बड़ा दिलचस्प है. उन्होंने कहा कि वह कलेक्टर साहब हैं तो मैं अध्यापक हूँ और जो गाय है, वह चली गयी थी उनके अहाते में. बस इतनी सी बात के लिए वह इस तरह जो पैरवी कर रहे थे वह ठीक नहीं.`सांड़ नहीं है, यह प्रेमचन्द की गाय है, मजिस्ट्रेटी का अभिमान दूर कर दूँगा.’[7]

इस तरह का आत्मविश्वास उनमें दिखाई पड़ता है. इसी तरह एक बार स्कूल इन्स्पेक्टर स्कूल का मुआइना करने आया और उसी शाम जब वह उनके घर के सामने से गुजर रहा था, उस वक्त ऐसा हुआ कि प्रेमचंद बैठे कोई फ़साना पढ़ रहे या कुछ लिख रहे थे. तब इन्स्पेक्टर ने गाडी रुकवाई और अमले को बुला लाने के लिए भेजा और प्रेमचंद से कहा कि,`तुम बड़े मगरूर हो. तुम्हारा अफसर दरवाज़े से निकल जाता है, उठकर सलाम भी नहीं करते?’ प्रेमचन्द का जवाब था-` मैं जब स्कूल में आता हूँ तब नौकर हूँ. बाद में मैं भी अपने घर का बादशाह हूँ.’[8]

यह घटना  एक शिक्षक के स्वाभिमानी  होने का  परिचय है. ये तमाम किस्से ऐसे हैं, जो बताते हैं कि उनमें स्वाभिमान कैसे बसा हुआ था.  प्रेमचन्द के  जीवन की जो बहुत सारी दुश्वारियाँ हैं, जिसमें सच्चाई की रौशनी हमेशा टिमटिमाती रहती है, उससे जब हम गुजरते हैं तो पाते हैं कि एक स्वाभिमानी शिक्षक होने का अर्थ  प्रेमचंद की दुनिया में बहुत ही खूबसूरती से उपस्थित है.

प्रेमचन्द अध्यापकों के खराब  आर्थिक स्थिति को लेकर चिंतित दिखाई पड़ते हैं.  ‘संयुक्त प्रान्त में आरंभिक शिक्षा’ लेख में वे कहते हैं कि

“हमारी आरंभिक शिक्षा के  सुधार और उन्नति के लिए सबसे बड़ी जरूरत योग्य शिक्षकों की है.”[9]

अब योग्य शिक्षक कैसे मिलेंगे इसके बारे में कहते हैं-

“और योग्य आदमी आठ रुपए और नौ रुपए  माहवार के वेतन पर दुनियाके पर्दे में कहीं नहीं  मिल सकते हैं.”[10]

यानी उनका स्पष्ट मानना था कि यदि  वेतन कम दिया जाय  तो शिक्षक की योग्यता इससे प्रभावित होती  है. आगे लिखते हैं-

“जिस आदमी की पेट की फ़िक्र से आजादी नसीब न होगी, वह तालीम की तरफ क्या ख़ाक ध्यान देगा? जब सरकारी मदरसों का यह हाल है तब  इमदादी मदरसों का ज़िक्र  क्या? उनमें कम से कम तीन-चार चौथाई  ऐसे हैं जिन्हें सरकार चार रुपए महीने इमदाद देती है. उससे एक आना मनीआर्डर का महसूल कट जाता है. तीन रुपए पंद्रह आने में कौन महीना भर दर्दशरी  गवारा  करेगा. शहरों में  कहारों की तनख्वाहें छह रुपये और सात रुपये महावार हैं, बल्कि अक्सर तो इससे भी ज़्यादा. मामूली मजदूर चार आने  पैसे रोज कमा लेते हैं. मगर गरीब मुदर्रिस  इनसे  भी जलील समझा जाता है.”[11]

जो मँहगे प्राइवेट स्कूल हैं वहाँ बहुत सारी फीस प्रेमचंद के समय में भी ली जाती थी और अब तो प्राईवेट स्कूल की फ़ीस चुकाना किसी गरीब-गुरबे की बस की बात नहीं. प्रेमचन्द इस समस्या को लेकर  कई जगहों पर खुलकर अपनी राय रखते हैं. उनका उपन्यास है ‘कर्मभूमि’ उसकी शुरुआत ही इस बात से होती है कि

’’हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती. महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है. उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है. या तो फ़ीस दीजिए या नाम कटवाइए, या जब तक फीस न दाखिला हो, रोज कुछ जुर्माना दीजिए. कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फीस न दी तो नाम कट जाता है. काशी के क्वींस कॉलेज में यही नियम था. सातवीं तारीख को फीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख को दुगुनी फीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था. ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायें? वहीं हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है. वह किसी के साथ रियायत नहीं करता. चाहे जहाँ से लाओं, कर्ज लो, गहने-गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फीस जरूर दो, नहीं दूनी फीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जायेगा. जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है. हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता. वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-ला का व्यवहार होता है. कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय. देर में आइए तो जुर्माना; न आइए तो जुर्माना; सबक न याद हो तो जुर्माना; किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना; कोई अपराध हो जाये तो जुर्माना; शिक्षालय क्या है,  जुर्मानालय है. यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है. जिसकी तारीफों के पुल बांधे जाते हैं. यदि ऐसे शिक्षालयों पर जान देने वाले पैसों पर गरीबों का गला काटने वाले पैसे के लिए अपनी आत्मा बेच देने वाले निकलते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है?”[12]

‘कर्मभूमि’ में प्रेमचंद जब यह बात कह रहे हैं तो कहीं न कहीं उनके वे दिन भी इसमें ज़रूर शामिल हैं जब वह स्कूल में पढ़ते थे और उन्हें फीस के चलते तमाम तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता था और न जाने किन-किन के आगे उन्हें मिन्नतें करनी पड़ती थी. पुरानी किताबें बेचनी पड़ती थी या पुराने कोट बेचने पड़ते थे  या कपड़े बेचने पड़ते थे. शिक्षा अर्जन से जुड़ी तमाम मुश्किलों का जिक्र उन्होंने किया है, जो उन्होंने खुद भोगा था. बहुत सारे लड़के-लड़कियाँ जो बेरोजगार हैं और जो कहीं न कहीं  पढ़ा भी रहे हैं, उनको आज भी कालेजों में 5000-6000 पर रखा जा रहा है.  स्कूलों में और भी हालत बुरी है. उनको वहाँ और भी कम पैसे दिए जाते हैं. ये सब तमाम मुद्दे हैं जिसपर प्रेमचन्द विचार करते हैं.

प्रेमचन्द  बेहतर मनुष्य होने पर जोर देते थे, उनका मानना था कि शिक्षा प्राप्त करने का मूल उद्देश्य बस रोजगार पाना हो तो लोग केवल  पैसों के पीछे भागेंगे पैसों के लिए गरीबों का शोषण करेंगें, इसलिए वे शिक्षा का मुख्य उद्देश्य संवेदनशील मनुष्य बनना मानते हैं. कर्मभूमि का मुख्य पात्र ‘अमरकांत’ कहता है-

“जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं. हमारी डिग्री है- हमारा सेवा भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता. अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृति नहीं हुई, तो कागज की डिग्री व्यर्थ है.”[13]

प्रेमचन्द का रचना समय भारतीय पृष्ठभूमि में गाँधी की सक्रिय उपस्थिति का भी समय रहा है. गाँधी की विचार-दृष्टि का प्रभाव प्रेमचन्द की चिन्तन प्रक्रिया पर दिखाई देता है. जिसमें शिक्षा दर्शन  भी शामिल है. शिक्षा पर विचार करते हुए गाँधी लिखते हैं-

“शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा का उत्कृष्ट एवं सर्वांगीण विकास करे.”[14]

प्रेमचन्द  भी शिक्षा को लेकर ऐसी ही सर्वांगीण विकास की बात करते हैं, जिसमें शारीरिक के साथ मानसिक विकास भी हो. प्रेमचंद लिखते हैं-

“वाद-विवाद, ड्रामा, स्काउटिंग, तत्काल चिकित्सा आदि विषयों की स्कूलों के कर्मचारी उतना महत्व नहीं देते, जितना देना चाहिए. चूँकि अध्यापकों की कारगुजारी लड़कों के पास होने पर मुनहसर है, इसलिए लाजिमी तौर पर अध्यापकगण इन विषयों को फालतू समझते है, क्योंकि इनसे लड़कों की परीक्षा पर कोई असर नहीं पड़ता. यदि शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष की ओर से इस आशय का कोई हुक्म निकल जाय कि स्कूलों के कर्मचारियों को कम से कम एक सप्ताह में एक दिन इन उपयोगी बातों में लगाना चाहिए, तो यह प्रश्न व्यक्तिगत न रह जाय. यह कहने की जरूरत नहीं कि लड़कों के मानसिक विकास में इन विषयों का जो स्थान है,वह किसी तरह गणित या भूगोल से कम नहीं. बल्कि कई अंशों में कुछ ज्यादा ही है.”[15]

गाँधी बेसिक शिक्षा के साथ हस्त कौशल पर भी जोर देते हैं. गाँधी का यह मानना था कि बालक के मानसिक विकास के लिए शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का विकास और प्रशिक्षण आवश्यक है. प्रेमचन्द भी बाल विकास के संदर्भ में ठीक इसी तरह के विचार व्यक्त करते हैं. प्रेमचन्द लिखते हैं-

“हमारे सुचालित मदरसों में अब इस बात को लोग समझने लगे हैं कि लड़कों को हाथ से कुछ काम कराना अव्वल दर्जे की मानसिक और नैतिक साधना है. हर एक घर में ऐसा ही होना चाहिए. लड़के में आत्मविश्वास उत्पन्न करने का इससे उत्तम कोई साधन नहीं हैं. लड़के  की स्वाभाविक रचनाशीलता को जगाना चाहिए. लड़का खिलौने बनाना चाहे, बेतार का यन्त्र बनाना चाहे, मछली का शिकार करना चाहे, बीन बजाना चाहे, उसे बाधा मत दो. अगर कोई बालक साल के चन्द हफ्ते भी प्राकृतिक शक्ति के बीच में रहे, दरिया में किश्ती चलायें, मैदान में गाड़ी चलाये या फावड़ा लेकर खेत  काम करे, तो उसे आत्मविश्वास का जो अनुभव होगा, वह पुस्तकों और उपदेशों से नहीं हो सकता.”[16]

कहना न होगा प्रेमचन्द गाँधी की तरह  बच्चों में  रचनात्मक कौशल का विकास करना चाहते थे.

तीन

साहित्यकार अपने स्वभाव: प्रगतिशील होता है, किन्तु वह ऐतिहासिक सीमाओं में भी बंधा होता है. लेखक के आत्मसंघर्ष से उसके इतिहास की सीमाओं  की बहुत सी बेड़ियाँ टूट जाती हैं, फिर भी कुछ बेड़ियाँ यह एहसास दिलाती रहती हैं की ऐतिहासिकता से पूरी तरह मुक्ति किसी भी कलाकार के लिए सम्भव नहीं है. जहाँ एक तरफ प्रेमचन्द स्त्री प्रश्न को लेकर ‘गबन’ उपन्यास में  यह लिखकर कि

“जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है. स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरुषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहाँ जनता इतनी अधिक आचार-भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहीं करती.”[17]

स्त्रियों की भागीदारी की बात करते हैं,  वहीं दूसरी तरफ स्त्री शिक्षा को लेकर वे पितृसत्तात्मक सोच रखते हैं . वे गोदान उपन्यास में  लिखते हैं-

’’मैं नही कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है. है और पुरूषों से अधिक. मैं नहीं कहता देवियो को शक्ति की जरूरत नहीं है. है और पुरूषों से अधिक; लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरूष ने संसार को हिंसा क्षेत्र बना डाला है. अगर वही विद्या और वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरूस्थल हो जाएगा. आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं सृष्टि और पालन में है.”[18]

स्त्री संदर्भ में आदर्श के आवरण में इस तरह की पितृसत्तात्मक दृष्टि प्रेमचन्द के अलावा उनके समकालीन प्रसाद में भी दिखाई पड़ती है. जो स्त्री की छवि को ‘नारी तुम केवल श्रध्दा हो/ विश्वास रजत-नग पग तल में/ पियूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में” की आदर्श बेड़ियों में बांधना चाहते हैं. असल में यहाँ हिन्दी नवजागरण की उस चेतना का प्रभाव  प्रसाद और प्रेमचंद दोनों पर दिखाई पड़ता है, जो  भारतीय संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से मुक्त रखना चाहते हैं. इसी दौर में  में हिन्दू संस्कृति के घोषित प्रेस ‘गीता प्रेस की स्थापना’ और उसका प्रसार पूरे उत्तर भारत में होता है, इसके समाजशास्त्र को  भी  हमें ध्यान में रखना होगा.

शिक्षा का मसला एक जटिल मसला है, जिसपर लगातार विचार करते रहने की जरूरत है.  एक तरफ बच्चों के अभिभावक हैं, जो इस बात के लिए परेशान हैं कि स्कूल में दाखिला दिलाते  वक्त या स्कूलों में पढ़ाते वक्त बहुत सारी दिक्कतें आ रही हैं और वहीं अध्यापक को अलग तरह की परेशानी है. इस पर खुलकर प्रेमचंद विचार करते हैं कि आर्थिक तंत्र किस तरह से होना चाहिए. वे लिखते हैं-

“मैं चाहता हूँ, ऊंची-से-ऊंची तालीम सबके लिए मुफ्त हो, ताकि गरीब-से-गरीब आदमी भी ऊंची-से-ऊंची लियाकत हासिल कर सके और ऊंचे-से-ऊंचा ओहदा पा सके. यूनिवर्सिटी के दरवाजे मै सबके लिए खुले रखना चाहता हूँ. सारा खर्च गवर्मेन्ट पर पड़ना चाहिए.”[19]

नयी शिक्षा नीति कहती है कि सम्पूर्ण बजट का 6% शिक्षा पर खर्च होगा पर अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वह किस रूप में खर्च होगा. सरकार की ऐसी घोषणाएँ हर बजट में खानापूर्ति के लिए होती है, पर हकीकतन ऐसा होता नहीं. भारतीय मानस में यह अनुभव गहरे पैठा हुआ है.

प्रेमचन्द एक शिक्षक थे, इसलिए वे बच्चों के मानसिक विकास और व्यक्तित्व विकास के मनोविज्ञान को अच्छे से समझते थे. बाल मनोविज्ञान पर प्रेमचन्द का एक महत्वपूर्ण लेख है ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ प्रेमचंद ने वह लेख बच्चों के मानसिक विकास को  ध्यान में रखकर लिखा है. उसमें प्रेमचन्द शिक्षा के मूल्यों पर बात करते हैं. जिसमें कुछ बातें ऐसी हैं जिनका जिक्र करना मै जरूरी समझता हूँ.  प्रेमचन्द के विचार से बच्चों को स्वाधीन बनाना इसलिए जरुरी है कि जो बच्चे स्वाधीन नहीं होंगे वे ताकतवर भी नहीं होंगे और जब बच्चे ताकतवर नहीं होंगे तो ताकतवर नागरिक भी नहीं होंगे. पराधीन बच्चे ताकतवर बच्चे नहीं होते. किसी राष्ट्र का यह पहला लक्ष्य होना चाहिए. ताकतवर बच्चों की शुरुआत  बच्चो की स्वाधीनता से ही होती है. वे इस बात पर अपनी असहमति जाहिर करते हैं कि यदि शिक्षक, शिक्षिका या घर के अभिभावक अनुशासन के नाम पर आदेश पालन को सही मानते हों  तो ऐसे अनुशासन से अच्छे और आत्मनिर्भर नागरिक तैयार होंगे.  वे कहते  हैं कि हमारे घरों में और  हमारी कक्षाओं में हिटलर और मुसोलिनी की तरह आज्ञाएं  जारी करना  बड़े बुजुर्गों का कर्त्तव्य-सा दिखता है और जिसको पालन करने की जिम्मेदारी बच्चों एवं बच्चियों पर लाद दिये जाते हैं. उनका मानना है कि यदि हम इस तरह से अनुशासनबद्ध बनाते हैं तो विद्यार्थियों की दुनिया में सबसे  सबसे बड़ी परेशानी क्या निकलेगी?

प्रेमचंद कहते हैं कि –

“आज्ञा पालन हमारे जीवन का एक अंग है और हमेशा रहेगा. अगर हर एक आदमी अपने मन की करने लगे, तो समाज का शीराजा बिखर जायेगा. अवश्य हर एक घर में जीवन के इस मौलिक तत्व की रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही माता-पिता की यह कोशिश भी होनी चाहिए, कि उनके बालक उन्हें पत्थर की मूर्ति या पहेली न समझें. चतुर माता-पिता बालकों के प्रति अपने व्यवहार को जितना स्वाभाविक बना सकें, उतना बनाना चाहिए, क्योंकि बालक के जीवन का उद्देश्य कार्य-क्षेत्र में आना है, केवल आज्ञा मानना नहीं. वास्तव में जो बालक इस तरह कि शिक्षा पाते हैं, उनमें से आत्म-विश्वास का लोप हो जाता है. वे हमेशा किसी की आज्ञा का इन्तजार करते हैं. हम समझते हैं कि आज कोई बाप अपने लड़के को ऐसी आदत डालनेवाली शिक्षा न देगा.’[20]

शिक्षा के लक्ष्यों का एक प्रमुख घटक उत्तरदायित्वबोध  है. इसकी चाहत हर माँ-बाप को होती है, लेकिन उनके लालन-पालन में इस वृत्ति के निर्माण और विकास का प्रशिक्षण शामिल नहीं होता. प्रेमचन्द कहते हैं,

`एक बादशाह ने जब अपने बालक को एक अध्यापक को सौंपा, तो यह सलाह दी जितनी जल्दी हो सके, अपने को बेकार बना लेना. हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि हम सदा अपने लड़कों से अपनी आज्ञाएँ मनवाते रहे बल्कि उनको इस योग्य बना दें कि वह खुद अपने मार्ग का अपने आप निश्चय कर लें. युवकों में यह प्रवृत्ति जितनी अधिक होगी, उतनी ही सफल उनकी शिक्षा भी समझनी चाहिए.’[21]

वे जनतंत्र की हिमायत करते हुए इसे शिक्षा और घर की रवायतों का हिस्सा बनाने के कायल हैं,`घर गृहस्थी को जनतन्त्र के क्रायदों पर चलाना चाहिए. तजुर्बे से यह बात मालूम होती है, कि हम जनतन्त्र पर चाहे कितना ही विश्वास क्यों न रक्खें, हमारे घरों में स्वेच्छाचार ही का राज्य है. घर का मालिक मुसोलिनी वा कैंसर की तरह डटा हुआ उसे जिस रास्ते चाहता है, ले जाता है और कभी इसका उलटा दिखायी देता है. घर में न कोई कायदा है न कोई कानून जो जिसके जी में आता है, करता है, जैसे चाहता है, रहता है; कोई किसी की खबर नहीं लेता. लड़के अपनी राह जाते हैं, जवान अपनी राह और बूढ़े अपनी राह दोनों ही तरीके जनतन्त्र से कोसों दूर हैं- पहले तरीके में स्वतन्त्रता का नाम नहीं, दूसरे तरीक़े में जिम्मेदारी का यह दोनों तरीके लड़कों की शिक्षा की दृष्टि से अनुचित हैं. करना यह चाहिए कि घर के मामलों में शुरू ही से बच्चों की राय ली जाये. छोटा बालक भी अगर उसको सीधे रास्ते पर लगाया जाये अपनी जिम्मेदारी को समझने लगता है. जिन लड़कों के साथ माँ-बाप बुरा व्यवहार करते हैं, वे भी उनके साथ सच्चा स्नेह रखते हैं, मगर माँ- बाप उनकी इस प्रकृति को अपने स्वेच्छाचार से कुचल डालते हैं और उसका बुरा नतीजा हम रोज अपनी आँखों से देखते हैं.’[22]

बच्चो में इस विवेक का उदय हो कि उसे क्या करना है, क्या नहीं करना है? इसकी समझ उसके दिमाग का हिस्सा बने, उसके चिंतन का हिस्सा बने और  उसकी समझ का हिस्सा बने. बच्चों को अपने तरीके से  काम करने की आजादी दी जानी चाहिए. ऐसा प्रेमचंद का मानना है. मनुष्य का स्वभाव होता है, चाहे बच्चे या बच्चियाँ ही क्यों न हों जब उसकी राय सुनी जाती है या उन्हें राय जाहिर करने का अवसर दिया जाता है तो उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है. आत्मविश्वास से मनुष्य  एक बेहतर नागरिक के रूप में रूपांतरित होता है. अक्सर घर के जो बड़े निर्णय होते हैं या घर की काम करने का तंत्र होता है उससे बच्चों को दूर रखा जाता है. कहा जाता है कि तुम अभी छोटे हो, तुम्हारे काम की चीज़ नहीं है. तुम इस बात को न सुनो, तुम अभी बच्चे हो.

प्रेमचंद का मानना है कि जो घर के निर्णय होते हैं, उसमे बच्चों या बच्चियों की हिस्सेदारी भी जरूरी है, ताकि उसे इस बात का इल्म हो कि उसके होने का मतलब घर के लिए भी है, ताकि जब वह बड़ा हो तब उसके होने का मतलब समाज में  भी है, इस बात की उसे  समझ  हो. प्रेमचन्द के जीवन और सृजन संसार से गुज़रते हुए उनका वह रूप उभरता नज़र आता है  जिसमें  हम बहुत सारे सूत्रों को हासिल करते हैं और समझ पाते हैं कि किस तरह से स्वाधीन बच्चों के रूपांतरण में शिक्षा की भूमिका का  महत्त्वपूर्ण स्थान होता है. इस तरह  प्रेमचंद एक अध्यापक, विचारक और शिक्षाविद् के रूप में  हमारे सामने आते हैं.


सन्दर्भ:

[1] अमृत राय, कलम का सिपाही,पृष्ठ संख्या 652 लोकभारती प्रकाशन,2021
[2] अमृत राय, कलम का सिपाही,पृष्ठ संख्या 16 लोकभारती प्रकाशन,2021
[3] वहीं, पृष्ठ संख्या 37
[4] वहीं, पृष्ठ संख्या 37
[5] वहीं, पृष्ठ संख्या 39
[6] अमृत राय, कलम का सिपाही,पृष्ठ संख्या 167- 168 लोकभारती प्रकाशन,2021
[7] वहीं,पृष्ठ संख्या-209
[8] वहीं,पृष्ठ संख्या-211
[9] अमृत राय, कलम का सिपाही,पृष्ठ संख्या 107 लोकभारती प्रकाशन,2021
[10] वहीं
[11] वहीं
[12] प्रेमचन्द, कर्मभूमि, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 03,
[13] प्रेमचन्द, कर्मभूमि, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 66,
[14] डॉ0 श्रुतिटण्डन, गाँधीजी के शैक्षिक विचार, https://www.mkghandhi.org.translate
[15]प्रेमचन्द, गोरखपुर में शिक्षा सम्मेलन, प्रेमचन्द के विचार भाग-2, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 206-207, संस्करण-2010
[16] प्रेमचन्द, प्रेमचन्द के विचार,  भाग-2, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 181-182, संस्करण-2010
[17] प्रेमचन्द, गबन, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 89
[18] प्रेमचन्द, गोदान, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 128
[19] प्रेमचन्द, कर्मभूमि, https://hindisamay.com/premchand%20samagra/karmbhoomi/karmbhoomi.htm
[20] प्रेमचन्द – प्रेमचन्द के श्रेष्ठ निबन्ध (सम्पादक -सत्य प्रकाश मिश्र ), पृष्ठ संख्या 22 , ज्योति प्रकाशन, इलाहाबाद (2003)
[21] वहीं
[22] वहीं

निरंजन सहाय
फरवरी, 1970; आरा, बिहार

प्रकाशन: ‘केदारनाथ सिंह और उनका समय’, ‘आत्मानुभूति के दायरे’, ‘प्रपद्यवाद और नलिन विलोचन शर्मा’, ‘शिक्षा की परिधि’, ‘जनसंचार माध्यम और विशेष लेखन’, ‘कार्यालयी हिन्दी और कंप्यूटर अनुप्रयोग’. महादेवी वर्मा: सृजन और सरोकार, हिन्दी गद्य : स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँ

सम्प्रति : हिंदी और अन्य भारतीय भाषा विभाग,  महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
ई-मेल : drniranjansahay@gmail.com

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Comments 8

  1. बजरंगबिहारी says:
    2 years ago

    प्रेमचंद के अध्यापक रूप की चर्चा अपेक्षाकृत कम होती है। प्रो. निरंजन सहाय ने इस विषय पर तमाम संदर्भों के हवाले से ज़रूरी विमर्श किया है। आज जब स्कूली शिक्षा निजी क्षेत्र के आधिपत्य में दिख रही है,और प्रेम-वात्सल्य की पाठशालाएं हिंसा व नफ़रत का अड्डा बनाई जा रही हैं तब शिक्षा, पाठ्यक्रम, विद्यालय आदि पर प्रेमचंद का पक्ष जानना उपयोगी हो जाता है। इस लेख के लिए निरंजन जी को बधाई। समालोचन को धन्यवाद।

    Reply
    • निरंजन सहाय says:
      2 years ago

      हार्दिक आभार!

      Reply
  2. M P Haridev says:
    2 years ago

    अध्यापक के रूप में प्रेमचंद का जीवनवृत्त बहुआयामी है । वे विद्यार्थियों को स्वतंत्रचेता नागरिक बनाना चाहते हैं । अनेक आभार ।

    Reply
  3. Stuti rai says:
    2 years ago

    अध्यापक के रूप में प्रेमचंद की जो अहम् भूमिका रही उस पर यह बेहतरीन आलेख है। कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबंधकार, पत्रकार, पटकथा लेखक के साथ अध्यापक के रूप में प्रेमचंद को जानना – समझना एक बिल्कुल अलग अनुभव रहा। प्रेमचंद के इस नए रूप से हमारा परिचय कराने के लिए शुक्रिया सर 🙏

    Reply
  4. प्रतिभा says:
    2 years ago

    सर प्रेमचंद को हम बचपन से विभिन्न रूपों में पढ़ते आ रहें हैं, हम उन्हें एक कथाकार एक उपन्यासकार, एक निबंधकार एक नाटककार आदि के रूप में जानते और पढ़ते आए हैं लेकिन आज आपने एक शिक्षक प्रेमचंद से जिस तरह रूबरू कराया वो अलहदा है। इसके लिए आपका बेहद शुक्रिया सर 🙏

    Reply
  5. सुजीत कुमार सिंह says:
    2 years ago

    बढ़िया लिखा है।

    Reply
  6. Pragya shukla says:
    2 years ago

    वर्षों से हिंदी साहित्य में प्रेमचन्द के ऊपर ‘ कलम का सिपाही’ , ‘ कलम का मजदूर’ और ‘ उपन्यास सम्राट’ जैसे विषयों के इर्द गिर्द ही चर्चा होती रही है।यह आलेख ‘अध्यापक प्रेमचंद’ , प्रेमचंद को एक नए रूप में स्थापित करता है, व साहित्य प्रेमियों को एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है।बहुत कम लोग ही ‘ उपन्यास सम्राट’ के इस रूप से परिचित होंगे। इस आलेख को पढ़ते हुए, प्रेमचंद व उनके साहित्य के प्रति एक नवीन शोध परक दृष्टिकोण जागृत होती है।इस आलेख के लिए आपकी आलोचकिय दृष्टि और अध्ययनशीलता सराहनीय है।इस बेहतरीन आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

    Reply
  7. ओम आनन्द गुप्ता says:
    10 months ago

    आदरणीय सर को चरण स्पर्श सर आपके आलेख में हमेशा एक नई दृष्टि एक नई विचारों को प्रादुर्भाव रहा है शिक्षा की महत्ता और शिक्षकों को किस तरह तैयार किया जाय यह प्रेमचंद के बहाने अपने विचार भी सर आपने अद्भुत पेश किया है इस आलेख बाल्य कौशल की बात की है , पर सर समाज में यह अनुभव प्राप्त करने के बाद यह बालक उसे कौशल न समझ कर उसे जीविकोपार्जन हेतू प्रयोग करने लगता है जिससे वह शिक्षा और अध्ययन क्षेत्र से दूर हो जाता हैं वैसे यह आलेख शिक्षा से जुड़े अध्ययन , अध्यापक , अभिभावक सबके उपयोग का है बच्चों के जो निर्णय बात कही है यह अद्भुत है सर इस आलेख के लिए बहुत बहुत आभार एक नई दृष्टि से देखने के लिए शिक्षक और अध्यापको को और “अध्यापक प्रेमचंद जी” को पुनः आलेख को बधाई 💐💐 आपके चरणों में कोटि कोटि स्नेह

    Reply

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