चंद्रयान और वेदों की वापसी चंद्रभूषण |
अंटार्कटिक सर्कल जैसे चंद्रमा के दक्षिणी हिस्से में अपना यान उतार देना इसरो की बहुत बड़ी सफलता है. लेकिन अभी एक चरम पश्चगामी विचारधारा भारत के हर पहलू पर काबिज है, लिहाजा इस उपलब्धि से हमारी राष्ट्रीय चेतना शायद ही कोई गहरा अर्थ ग्रहण कर सके. भक्तोलॉजी से जुड़े वीडियो बता रहे हैं कि विक्रम लैंडर द्वारा भेजे गए कुछ गड्ढों के विजुअल में शिवलिंग और पूरे के पूरे मंदिर देख लिए जा रहे हैं! देश की राजनीतिक मुख्यधारा को ऐसी अटकलों से कोई एतराज नहीं है. वह सचेत ढंग से इन्हें बढ़ावा देने के लिए सक्रिय हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं.
कुछ लोग बहुत पहले से भारतीय इतिहास के हर सकारात्मक मोड़ पर जोर-शोर से वेदों की पिपिहरी बजाते आ रहे हैं. यानी यह कि जो कुछ भी शानदार घटित हो रहा है, वह सब इन्हीं ईश्वरीय ग्रंथों की परंपरा में है, बल्कि इनकी कृपा से ही संभव हो पा रहा है. जैसे, अभी वेदों में आई वैज्ञानिक समझ और वैदिक अंतरिक्ष विज्ञान पर खूब बातें हो रही हैं. इसरो के चेयरमैन एस. सोमनाथ के इसी आशय वाले एक पुराने वीडियो से इस मत को और बल मिला है.
पीछे पलट कर जरा गौर से देखें तो वेदों का एक अक्षर पढ़े बिना, उनकी शक्ल तक देखे बिना उनमें सब कुछ खोज लेना कोई नई बात नहीं है. देश में पिछले कुछ वर्षों से चल रही भगवा बयार में बहकर किसी इंजीनियर या वैज्ञानिक का नागपुर में हुए एक संघी आयोजन में ऐसा बोल देना एकबारगी क्षम्य माना जा सकता है, लेकिन यह कहानी बहुत ऊपर तक जाती है. गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं- ‘दुइ सुत सुंदर सीता जाए, लव-कुश बेद-पुरानन गाए.’ गोसाईंजी यदि आज हमारे बीच होते तो उनके चरणों में बैठकर मैं अवश्य ही उनसे यह प्रश्न निवेदित करता कि पुराण तो बहुत सारे हैं, खोजने पर शायद उनमें कहीं कुछ भी मिल जाता हो, लेकिन आखिर वह वेद कौन सा है, जिसमें सीताजी के गर्भ से उत्पन्न हुए दो पुत्रों लव और कुश का वर्णन ‘गा-गाकर’ किया गया है?
क्या वेदों में ऐसा कुछ भी है, जिसे विज्ञान न सही, वैज्ञानिक भावना के करीब समझा जा सकता है? हां. कम से कम ऋग्वेद में संसार के रहस्यों को समझने को लेकर एक गहरी प्रश्नाकुलता है. जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के आधार पर बनाई गई श्याम बेनेगल की टीवी सीरीज ‘भारत : एक खोज’ इस प्रश्नाकुलता को महसूस करने में आपकी कुछ मदद कर सकती है. और यह कोई थोपी हुई बात नहीं है. इसका आधार ऋग्वेद में संकलित कुछेक ऐसी ऋचाएं हैं, जो अपने अनूदित रूप में संसार में कहीं भी श्रेष्ठ कविता की तरह पढ़ी जा सकती हैं. लेकिन भारतीय समाज के लिए कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ऋग्वेद का ही दूसरा पहलू, उसका ‘पुरुष सूक्त’ है, जहां वर्णों और उनके बीच की हायरार्की की उत्पत्ति ईश्वरीय पुरुष से हुई बताई गई है, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य, चंद्रमा, अग्नि, आकाश, वायु आदि की. ऋग्वेद के दशम मंडल में स्थित पुरुष सूक्त के इन तीन श्लोकों पर गौर करें-
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्बाहू राजन्य: कृत:. ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत॥13॥
चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत. मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥14॥
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत. पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्॥15॥
सही-सही तो नहीं, लेकिन जितनी संस्कृत मुझे आती है, उसके आधार पर क्षमायाचना सहित इसका कामचलाऊ अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूं.
‘ब्राह्मण इस (परम पुरुष के) मुंह से और राजन्य (क्षत्रिय) भुजाओं से उत्पन्न हुआ. उसके उरु (कमर या जंघा) से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुआ. मन से चंद्रमा का और आंखों से सूर्य का जन्म हुआ. इंद्र और अग्नि मुख से और प्राणों से वायु उत्पन्न हुआ. नाभि से अंतरिक्ष और शीर्ष से प्रकाश निकला, जबकि पैरों से भूमि और दिशाएं तथा कानों से अकल्पनीय लोकों की सृष्टि हुई.’
यह किस्सा अभी इस हद तक ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा’ जान पड़ता है कि कुछ विद्वान व्याख्याकार इसे बाद में जोड़ दिया गया क्षेपक अंश बताने लगे. लेकिन संसार की कोई सभ्यता ऐसी नहीं है जिसके मूल में कोई ‘क्रिएशन थिअरी’ न हो और जो अभी पढ़ने पर निहायत अटपटी न लगती हो. सेमिटिक धर्मग्रंथों में ईश्वर द्वारा सात दिन में पूरी सृष्टि बना देने का जो किस्सा चलता है, जिसको आधार बनाकर न जाने कितने नास्तिकों, उदार धार्मिकों और वैज्ञानिकों को मौत के घाट उतार दिया गया, वह भला किस मायने में तार्किक कहा जा सकता है?
बहरहाल, पुरुष सूक्त में आई क्रिएशन थिअरी एक मायने में संसार की सभी क्रिएशन सिद्धांतों से अलग है कि इसमें ईश्वर बाकी जीवों की तरह इंसानों का भी जोड़ा नहीं बनाता. यहां ईश्वर के शरीर से कोई जीव-जंतु, यहां तक कि स्त्री भी नहीं निकलती. सिर्फ प्राकृतिक शक्तियों की तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र निकलते हैं. वह भी आपस में एक तयशुदा हायरार्की लेकर, जिसमें बदलाव लाना जैविक दृष्टि से असंभव है. लोगबाग भूल ही जाते हैं कि उन्होंने एक बेसिर-पैर की बात पकड़ ली है. उनका तर्क यहां से शुरू होता है कि पैर तो पैर की ही जगह रहेगा, उसे सिर की जगह लगा देने या सिर के साथ मिला देने की बात न सिर्फ अव्यावहारिक है, बल्कि धर्मविरुद्ध भी है!
क्या इसे नरबलि और सती प्रथा की तरह पुराने जमाने की एक बकवास मानकर परे नहीं झटका जा सकता? क्या वेदों में लिखी हर बात भारतीय समाज में ईश्वरीय वचन की तरह स्वीकार की जाती है? जी नहीं. कुछ जातियों के शादी-ब्याह और हवन-यज्ञ में बोले गए मंत्रों को छोड़ दें तो वेदों से हमारे समाज का कुछ खास लेना-देना नहीं बचा है. लेकिन किसी न किसी तरह की हायरार्की हर समाज में हमेशा से चलती रही है और कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भारत का सामाजिक उच्चताक्रम पुरुष सूक्त में आए इस ढांचे से पिंड छुड़ाने के लिए कभी राजी नहीं हुआ.
ऐसा जान पड़ता है कि पुरुष सूक्त को एक कविता की उड़ान से आगे बढ़कर एक सामाजिक संहिता का आधार बनाने की पहली कोशिश ब्राह्मण ग्रंथों में हुई थी, जिनके बारे में आगे हम थोड़ी और बात करेंगे. वैदिक साहित्य को चार हिस्सों में बांटकर देखने का रिवाज रहा है- वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद. इन्हें ऐतिहासिक रूप से बिल्कुल साफ टाइम-फ्रेम में नहीं बांधा जा सकता. लेकिन इतना तय है कि वेद और ब्राह्मण ग्रंथ इनमें सबसे पुराने हैं. इन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी रटकर सुरक्षित रखने की ही परंपरा थी, लिहाजा इन्हें श्रुति या श्रुत ग्रंथों के रूप में ही जाना जाता है. ऐसे आनुवंशिक-अनुत्पादक काम का केवल एक समुदाय, ब्राह्मण जाति तक सिमटे रहना लाजमी था.
अभी हाल में उभरी एक बौद्धिक धारा का ऐसा मानना है कि-
‘सुदूर अतीत में वेदों जैसा कहीं कुछ था ही नहीं. पिछले चार-छह सौ सालों में ही कुछ किताबें बनाकर ऐसी एक कहानी गढ़ ली गई है कि भारत की समूची संस्कृति और चिंतन उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता रहा है.’
दुनिया भर में अभी तक वेदों को लेकर, उनकी भाषा, उनमें मौजूद विवरण और उनके काव्य विधान में आए बिंबों को लेकर अभी तक जितना काम हुआ है, उसे ध्यान में रखते हुए सरसरी तौर पर यह नतीजा निकाला जा सकता है कि नई बौद्धिक धारा का यह निष्कर्ष खुद में एक प्रतिक्रिया है.
इस धारा के पास अपनी बात के पक्ष में अकाट्य तथ्य और तर्क भले न हों लेकिन औचित्य की दृष्टि से उसे कमतर नहीं माना जा सकता. भारत का कुलीन वर्ग सच-झूठ की परवाह किए बगैर वेदों को लेकर बात-बात पर जिस तरह नाचने-कूदने लगता है, उसे देखकर सवाल उठना लाजमी है कि ऐसी कोई चीज दुनिया में कभी थी भी, या धंधेबाजों ने अपनी जरूरत के हिसाब से अभी हाल में बना ली है? मजबूरी में इस प्रस्थापना पर भी कुछ बातें कहनी होंगी.
लोकायत दर्शन से जुड़कर चले आ रहे एक श्लोक की अर्धाली- ‘त्रयो वेदस्य कर्तारो भंड धूर्त निशाचराः’ बताती है कि वेदों को ज्यादा भाव न देने, उन्हें भांड़ों, धूर्तों और निशाचरों की कृति मानने की प्रवृत्ति तब से चली आ रही है, जब वेद चार नहीं, तीन ही हुआ करते थे. जाहिर है, चार्वाक अथवा लोकायतों की धारा बहुत पुरानी है. बुद्ध के समय तक यह हाशिये पर जा चुकी थी. उनसे ठीक पहले चर्चित सात मुनियों में कोई चार्वाक मतानुयायी नहीं था.
वेदों में आई विषमतावादी, अतार्किक धारणाओं से सबसे गहरी बहसें बौद्ध चिंतकों ने की हैं. खासकर अश्वघोष, भावविवेक (भव्य) और संघभद्र ने, लेकिन इन तीनों का समय ईसा की दूसरी सदी से लेकर छठीं सदी के बीच का है. बुद्ध के परिनिर्वाण से पांच सौ या हजार साल बाद का. त्रिपिटक में स्वयं बुद्ध के यहां वेद कोई संदर्भ नहीं बनाते.
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपने ग्रंथ ‘बुद्ध ऐंड हिज धम्म’ में वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों को आपस में जुड़े हुए और अलग, दोनों अर्थों में लिया है. कुछ इस रूप में कि ब्राह्मण ग्रंथ वेदों के ‘एंड नोट’ जैसी चीज हैं. एक वेद के साथ कम से कम दो ब्राह्मण ग्रंथ जुड़े हुए हैं. वेद चार हैं और ब्राह्मण ग्रंथ कुछ धुंधलके के साथ लगभग बीस हैं.
ब्राह्मण ग्रंथों के जिम्मे दो काम जगजाहिर हैं- एक, वेदों में उल्लिखित यज्ञों और संस्कारों की विधि बताना, और दो, वहां आई धारणाओं की व्याख्या करना. इन ग्रंथों की रचना का समय वेदों के बाद का, यानी नवीं सदी ईसा पूर्व से सातवीं सदी ईसा पूर्व तक का बताया जाता है. डॉ. आंबेडकर का कहना है कि वेदों में जो खुलापन दिखाई देता है, ब्राह्मण ग्रंथों ने ब्यौरों से भरे कर्मकांड और कठोर व्याख्याओं से व्यवहार में उसके लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी.
अंग्रेजी में ब्राह्मण ग्रंथ और ब्राह्मण जाति के लिए अलग शब्द हैं- ‘ब्राह्मन’ और ‘ब्राह्मिन’. लेकिन मूल संस्कृत रूप में दोनों शब्दों की लिखाई एक है. डॉ. आंबेडकर ने 1938 ई. में मनमाड में रेलवे मजदूरों के बीच दिए गए अपने एक भाषण में और कुछ अन्य जगहों पर भी ‘ब्राह्मनिज्म’ और ‘ब्राह्मिनिज्म’ के बीच का फर्क समझाया है, लेकिन अपनी आम लिखाई में वे ‘ब्राह्मिनिज्म’ शब्द ही इस्तेमाल करते हैं और ‘ब्राह्मनिज्म’ को उसके हाल पर छोड़ देते हैं.
स्वतंत्रता आंदोलन के समय ऐसा लगता था कि आने वाले समय में वेदों को उनकी प्रश्नाकुलता, प्रकृति के साथ मनुष्य की एकरूपता और अद्भुत कल्पनाशीलता के लिए ही याद किया जाएगा और उनमें मौजूद जड़ीभूत समाज-व्यवस्था को बीते दिनों की बात की तरह बिसरा दिया जाएगा. यह नजरिया जवाहरलाल नेहरू के लेखन और छायावाद की समूची साहित्यिक धारा में दिखता है. कुछ उसी तरह जैसे शेली और बाकी रोमांटिक यूरोपियन कवि ग्रीक साहित्य को देखते थे. लेकिन वेदों को इस तरह देख पाने के लिए जाति और वर्ग की दोहरी मार झेल रहे समाज के मेहनतकश तबकों से पूरी तरह कटकर रहना किसी कुलीन बौद्धिक के लिए बहुत जरूरी था.
इसके पहले, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता की पृष्ठभूमि में वैदिक जागरण की मुहिम एक सामाजिक आंदोलन की तरह स्वामी दयानंद सरस्वती ने शुरू की थी, जो 1930 के दशक तक फैलाव की स्थिति में रहा. इस आंदोलन की सबसे अच्छी बात यह थी कि इसने जातिप्रथा, मूर्तिपूजा और अवतारवाद को अवैदिक तत्व माना. इसके प्रभाव में कुछ लोगों ने ‘आर्य’ टाइटल ग्रहण किया और कुछ ने जातिनाम लिखना छोड़ दिया. लेकिन ‘आर्यीकरण’ की यह ‘लहर’ 1920 के दशक में उठे दंगों में हिंदू पहचान का हिस्सा बन गई और इस्लाम ही नहीं, सिक्खी से भी इसका टकराव दिखने लगा. तीस के दशक में आंबेडकर के नेतृत्व में उभरी दलित चेतना के सामने यह ठिठक गई और अभी बहुतेरे आर्यसमाजी ‘हिंदुत्वा’ से जुड़कर गर्व का अनुभव करते हैं.
आज जब वैदिक गणित, वैदिक साहित्य, वैदिक शिक्षा, वैदिक विज्ञान यहां तक कि वैदिक स्थापत्य तक पर रीझते हुए हम इतने उत्साह से वेदों की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं, तो इसके दूसरे पहलू पर भी हमें जरूर सोचना चाहिए. संविधान प्रदत्त सार्विक मताधिकार और सरकार द्वारा किए गए समता के तमाम प्रयासों के बावजूद भारत का प्राचीन वर्णाश्रम धर्म अघोषित जातिगत विशेषाधिकारों के रूप में खुद को अजर-अमर साबित करता जा रहा है. वेदों से क्या ग्रहण करें और क्या हमेशा के लिए छोड़ दें, ‘अमृतकाल’ में इतना विवेकवान तो हमें हो ही जाना चाहिए.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर एक मोटी किताब पर चल रहा काम अभी-अभी पूरा हुआ है. patrakarcb@gmail.com |
बेहद ज़रूरी लेख !
आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रन्थों पर वैज्ञानिकता का आरोप मढ़ देने की एक लंबी परंपरा रही है। मैं इस वैज्ञानिकता को आरोप की तरह इसलिए देखता हूँ कि मूल रूप से आध्यात्मिक ग्रन्थों की प्रवृत्ति हमें भौतिकता से परे हमारे आंतरिक जगत में ले जाने की है। यद्यपि कुछ आवश्यक भौतिक तत्त्व आ जाना या लाया जाना संभव हो सकता है। दूसरी ओर किसी भी कथन की नई व्याख्या प्रस्तुत होती रही हैं जैसे मूल रूप से नास्तिक दर्शन योग, सांख्य जैन और बौद्ध आज आस्तिकता का पोषण करने हेतु व्याख्यायित होते हैं।
जब भी हमारे यहाँ कोई भी वैज्ञानिक सफलता प्राप्त होती है हम वेद या शास्त्रों में उसका वर्णन ढूँढने लगते हैं। प्रायः इस प्रकार के वर्णन को विचारों और कल्पना के रूप में ढूंढ लेना संभव है परंतु वैज्ञानिक वर्णन के रूप में हम इसे प्रायः नहीं ढूंढ पाते। विचारों और कल्पना के रूप में इनका होना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि वहीं से वैज्ञानिक विकास कि यात्रा संभव होती है। परंतु इसी बिन्दु पर हमारे संसार में ब्राह्मणवाद का केतू जन्म लेता है। ब्राह्मण तोते की तरह वेद तो आगे की पीढ़ियों तक ले आते हैं परंतु वास्तविक उत्पादकों और सेवा प्रदाताओं के साथ ज्ञान का साम्य न होने के कारण विकास की यात्रा प्रारम्भ होने से पहले दम तोड़ देती है। यही कारण है कि सुश्रुत और धन्वन्तरि पर गर्व के बाद हम उस क्षेत्र में दूसरे या तीसरे वैज्ञानिक का नाम नहीं ले पाते। हमारा ज्ञान उतना ही बढ़ता है जितना विमर्श से बढ़ सकता था। हम उसे प्रयोग के धरातल पर नहीं ला पाते।
और एक दिन हमें कहना पड़ता है कि वेद तो किसी असुर ने ले जाकर पाताल में छिपा दिये। इस प्रसंग पर स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी में कई बार व्यंग उत्पन्न होता है जब उन्हें किसी न किसी ब्राह्मण से कहना पड़ता है कि वेद उपलब्ध हैं।
मेरा मानना है कि भले ही वेद या बाद के ग्रन्थों में ज्ञान रहा हो या कल्पनाएं रही हों, परंतु उनका पिछले तीन चार हजार वर्ष में वैज्ञानिक धरातल पर न उतर पाना ब्राह्मणवाद द्वारा पैदा की गई सबसे बड़ी हानि है। और यह सब मुस्लिम आक्रांताओं के आने से बहुत पहले हो चुका था।
बेहद संकीर्ण दृष्टिकोण से लिखा गया आलेख । इसमें न ही वेद के आंशिक ज्ञान तत्व है और न ही भौतिक विज्ञान की आधुनिक तर्कणा । एक खास “स्कूल ऑफ थाॅट” के पूर्व स्थापित नजरिए का महज विस्तार है । आये दिन ऐसे हल्के लेखकीय प्रयासों से साक्षात्कार होता रहता है जो बेहद अशोभनीय है । जिस व्यक्ति को भारतीय मूल षड दर्शनों की गहरी समझ न हों उसकी दृष्टि न ही उपनिषद समझ सकते हैं, न बाह्यण और न ही आरण्यक । वेदों की तो बात ही छोड़िए । वेदों तक पहुंचने का रास्ता छ: वेदांगो से जाता है जिसको वरण किये बिना मंत्र, शब्द विज्ञान, काल गणना और छंद सहित विचारों का आत्यांतिक स्वरूप हमारे समझ से सदैव बाहर रह जाता है । भारतीय दर्शन एकबार यदि हम छोड़ भी दें तो भी पाश्चात्य विद्वानों और वैज्ञानिकों की एक लम्बी श्रृंखला है जो शोपेनहावार, मैक्समूलर, अल्बर्ट आइंस्टीन से लेकर हाकिंग और लांजा तक भारतीय दार्शनिक वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के पक्ष में खड़े ही नहीं अपनी अभिव्यक्तियों में मुखर देखते हैं ।
डिस्कवरी ऑफ इंडिया, बाबा साहब अंबेडकर और आधुनिक समय में घटित कुछेक सांस्कृतिक और धार्मिक आंदोलनों के आधार पर वेद, वेदांग, उपनिषद और भारतीय विशालतम दर्शनों पर मूर्खतापूर्ण टिप्पणी करना यह बताता है कि लेखक मनुष्यता के प्रगति के हित में अपनी वैज्ञानिक तर्कणा को केंद्र में रखने के वावजूद विषय की गहरी समझ और सार्थक दृष्टि की उचित दिशा से रिक्त हैं ।
सवाल वेदों के पक्ष या विपक्ष में बात करने का नहीं है मूल चिंता है कि ज्ञान के जो भी श्रोंत हमारे वेदों में है या विश्व के अन्य धार्मिक ग्रंथों में उसे निरपेक्ष भाव से पढ़ा और समझा जाए जिससे हमारी वैज्ञानिक चिंतन पद्धति और सुदृढ़ हों । साधारण दृष्टि से यदि कहा जाए तो आज के हमारे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों और अनुसंधानों के आरंभिक आधार वे धार्मिक ग्रंथ ही रहें हैं जिसने विश्व को अपनी अवधारणाओं से पुष्ट किया है ।आधुनिक विज्ञान में जिस शइखरतम “स्ट्रींग थ्योरी” की बात होती है उसमें भारतीय मूल के अपूर्व गणितज्ञय व वैज्ञानिक रामानुजम को आप कैसे नकार सकते जिनकी वैचारिक अवधारणाएं पूर्ण वैज्ञानिक है !!!
मेरे ख्याल से, किसी ने आपको वेद पढ़ने से या उसकी श्रेष्ठतम व्याख्या करने आपको रोक नहीं रखा है, बशर्ते आप उन समुदायों से न आते हों, जिनके कान में इनका एक भी शब्द पड़ जाने पर वहां पिघला हुआ सीसा डाल देने की व्यवस्था अतीत के हिंदू विधान में की गई थी। एक विनम्र प्रश्न है। मेरे वेदज्ञान पर जितना आक्रोश आप जता रहे हैं, उसका आधा भी क्या हर जगह वेद का नाम लेकर कूद रहे लोगों के खिलाफ भी जताएंगे? निश्चित ही उन्होंने और आपने यह लंबा रास्ता पार करके ही वेदों की पढ़ाई की होगी!
बहुत अच्छा आलेख। लेखक को बधाई।
४ वेदों, १३ उपनिषदों और १०८ पुराणों का अध्ययन अलग विषय है । परंतु चंद्रयान-३, आर्यभट और अन्य नामों से भेजे गये सैटेलाइट मिशन पूर्णतः वैज्ञानिक अध्ययन और सफलता है । इन दोनों विषयों को मिलाकर लिखने के पीछे ग्रंथों के अस्तित्व को अस्वीकार करना समझ में नहीं आया । जैन और बौद्ध संप्रदाय तथा अंबेडकर के विचारों की अभिव्यक्ति अपना अर्थ नहीं खोती । लेकिन इन्हें सनातन धर्म पर लाठी भाँजने के रूप में इस्तेमाल करना एकतरफ़ा कार्रवाई है ।
जितना मुमकिन हो सकता है समालोचन पढ़ता हूँ । आपको बुरा लगे तो भी पढ़ता रहूँगा ।
विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना दो अलग अलग बिन्दु हैं । विज्ञान पढ़ने वाले छात्र हों या विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक , आवश्यक नहीं कि उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो । इसी वजह से एक ओर वे विज्ञान को मानते हैं वहीं दूसरी ओर अवैज्ञानिक बातों मे विश्वास करते हैं ।