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समालोचन

Home » प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र: रविभूषण » Page 2

प्रेमचंद और भारतीय लोकतन्त्र: रविभूषण

प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880-8 अक्तूबर 1936) की आज पुण्यतिथि है. प्रेमचंद के लेखन में निर्मित हो रहे आधुनिक भारत की समस्याओं और उसके अंतर-विरोधों की विवेचना मिलती है. अगर वर्तमान की गहरी समझ हो तो भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है, लेखक इसीलिए भविष्यदृष्टा कहे जाते हैं. प्रेमचंद की अपने समय की लोकतांत्रिक गतिविधियों पर जो दृष्टि थी उसे ध्यान में रखते हुए यह आलेख वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने लिखा है. प्रेमचंद के इस आयाम पर अधिक विचार हुआ नहीं है.

by arun dev
October 8, 2021
in आलेख
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1934-35 में प्रेमचंद ‘डेमोक्रेसी’ को ‘लूट’ से जोड़ रहे थे. आज के भारतीय लोकतंत्र का हम महालूट से जोड़ेंगे. इसे एक उदाहरण से देखने-समझने की कोशिश करें. अभी 25 सितम्बर को दैनिक हिन्दी समाचार-पत्र ‘दैनिक भास्कर’ ने यह जानकारी दी है कि 18 माह के कोरोना काल में 8 हजार कम्पनियों की ‘वैल्यू’ 160 लाख करोड़ बढ़ी. 42 लाख करोड़ रुपये सिर्फ 10 कम्पनियों के बढ़े. सेंसेक्स 18 महीने में 34,067 अंक ऊपर चढ़ा. 23 मार्च 2020 को यह 25,981 था और अभी इन पंक्तियों के लिखते समय यह साठ हजार के लगभग है. अनेक कम्पनियों के शेयर इस अठारह महीने में तीन-चार गुना बढ़ गये और दूसरी ओर करोड़ों लोगों की नौकरियाँ चली गयीं. प्रेमचंद ने ‘अंधा पूंजीवाद’ (1933) में लिखा था –

‘‘जिधर देखिए, उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है… यह आशा करना कि पूंजीपति किसानों की हीन दशा से लाभ उठाना छोड़ देंगे, कुत्ते से चमड़े की रखवाली करने की आशा करना है. इस खूंखार जानवर से अपनी रक्षा करने के लिए हमें स्वयं सशस्त्र होना पड़ेगा.’’

जनतंत्र के जो तीन स्वीकृत लक्षण- स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व या भाईचारा बताये जाते हैं, उनमें से आज तीनों नदारद हैं और इनके बिना भारतीय जनतंत्र धनतंत्र में बदल रहा है. ‘गोदान’ में मिर्जा खुर्शेद ने तंखा से कहा –

‘‘मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही. जरा-सा काम और महीनों की बहस. हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है… मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ. मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ. जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं, चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं, रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं. बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपनी जबान और कलाम से पब्लिक को जिस तरह चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं. मैंने तो इरादा कर लिया है, कभी इलेक्शन के पास न जाऊँगा. मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा.”

प्रेमचंद ने उसी समय यह समझ लिया था कि डेमोक्रेसी अब चुनाव में सिमट चुका है. यह एक बड़ी बात है. नागार्जुन ने 1972 की एक कविता में ‘चुनाव को प्रहसन’ कहा है-

‘‘अब तो बंद करो हे देवि यह चुनाव का प्रहसन.’’

भारत का संसदीय लोकतंत्र अब चुनावी लोकतंत्र भर रह गया है. नवम्बर 1937 के ‘मॉडर्न रिव्यू’ में नेहरू ने एक लेख में ‘धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विरोधाभासों’ की बात कही थी. आज भारतीय लोकतंत्र को ‘आतंकी लोकतंत्र’, ‘बहुसंख्यक लोकतंत्र’, ‘सत्तावदी लोकतंत्र’, ‘अधिनायकवादी लोकतंत्र’ आदि कहा जा रहा है. लोकतंत्र की पारम्परिक अवधारणा को सत्तावादी लोकतंत्र खारिज करता है और सत्तावादी लोकतंत्र को फासीवाद बढ़ावा देता है और फासीवाद को सत्तावादी लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. अधिनायकवादी लोकतंत्र को ‘ऑर्गेनिक डेमोक्रेसी’ भी कहा गया है.

स्पेन के फ्रांसिस्को फ्रैंकों (4.12.1892-20.11.1975) ने 1939 से 1975 तक एक तानाशाह के रूप में स्पेन पर शासन किया था और उसी ने ‘ऑर्गेनिक डेमोक्रेसी’ शब्द  का प्रयोग किया. प्लेटो ने अपने समय में लोकतंत्र से तानाशाही के जन्म लेने की बात कही है.

प्रेमचंद ने सबसे अधिक लोकतंत्र पर विचार करने के क्रम में चुनाव के बारे में अपना मत प्रकट किया है. अगस्त 1934 के ‘हंस’ में उन्होंने ‘चुनाव चुथौअल’ लेख में कहा –

‘‘योग्य व्यक्तियों के होते हुए भी उनके मार्ग में काँटे बिछा कर जो लोग स्वयं खड़े होना चाहते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि वे यह अनुचित कार्य करके राष्ट्र का हित नहीं अहित कर रहे हैं… चुनाव का उम्मीदवार वही हो सकता है, जिसने राष्ट्र के लिए त्याग किया हो, जो राष्ट्र हित को गंभीरता से जानता हो, जनता जिसे अपना प्रतिनिधित्व करने के योग्य समझती हो. जो केवल यश की इच्छा से या सम्मान की भूख से त्याग दिखलाता हो, केवल कौंसिलों अथवा मेम्बर बन जाने की धुन रखता हो, उसे राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं है और न वह राष्ट्र का हित ही कर सकता है.’’

आज जो चुनाव लड़ते हैं, वे न इसे पढ़ेंगे और अगर पढ़ भी लिया, तो अमल में लाने का सवाल ही नहीं उठता. प्रेमचंद का सारा बल योग्यता और निःस्वार्थ सेवा पर था. आज स्थिति यह है कि चुनाव लड़ने के लिए टिकट की खरीद होती है और जिन्हें टिकट नहीं मिलता, वे दूसरी पार्टी में जाकर टिकट प्राप्त कर लेते हैं. प्रेमचंद ने अच्छी तरह बताया है कि राजनीति और चुनाव में कोई मैत्री स्थायी नहीं होती. ‘गोदान’ में जिस तंखा ने राय अमरपाल सिंह के दोनों चुनावों में पैरवी की थी, उसमें उसे पहले चुनाव में पाँच सौ रुपये दिये गये थे और दूसरे चुनाव में एक ‘सड़ी-सी टूटी-फूटी कार’ मिली थी. दो बार चुनाव में खड़े होने के बाद भी राय साहब का मन नहीं भरा था. उनकी संतानें आज सैकड़ों-हजारों की संख्या में हैं. राय साहब दो बार चुनाव में निर्वाचित होने के बाद भी तीसरी बार चुनाव लड़ने का लोभ नहीं छोड़ पाते. चुनाव उनके लिए

‘‘सोने की हँसिया थी, जिसे न उगलते बनता था, न निगलते. अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक-एक लाख की चपत पड़ी थी.”

मतदाता को रुपये देकर खरीदने की बात ‘गोदान’ में कही गयी है. सूर्य प्रताप सिंह, राय अमरपाल सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने का निश्चय करते हैं और ‘डंके की चोट पर एलान’ करते हैं कि ‘‘चाहे हर एक वोटर को एक-एक हजार ही क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जाय, मगर राय अमरपाल सिंह को कौंसिल में न जाने दूँगा.’’ चुनाव में ब्यूरोक्रेसी का महत्व आज ही नहीं, उस समय भी था. राजा सूर्य प्रताप सिंह को ‘‘अधिकारियों ने अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था.’’ यह कौंसिल के चुनाव की बात थी. प्रेमचंद कौंसिल के चुनाव को लेकर ‘गोदान’ में जो लिख रहे थे, उसे आज के संसदीय चुनाव और विधानसभा चुनाव में कई गुना अधिक रूप में हम देख सकते हैं. प्रेमचंद तीस के दशक में ही यह बता रहे थे कि वोटर खरीदे जाते हैं और अधिकारी पक्षपात करते हैं. प्रेमचंद ने देख लिया था कि कौंसिलों के चुनाव में अयोग्य व्यक्ति ही खड़े हो रहे हैं. स्वतंत्र भारत में 1949 में आजमगढ़ विधानसभा के उपचुनाव में आचार्य नरेन्द्र देव के खिलाफ एक साधु-सन्यासी को खड़ा किया गया था, जिसने तुलसी दल बाँट कर चुनाव को धार्मिक रंग देकर जीत हासिल की. इसी के बाद बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियाँ रखी गयी थीं.

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जता है. ‘प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनाने का श्रेय एडमंड बर्क (12.1.1729-9.7.1797) को जाता है, जो 1766 और 1794 के बीच हाउस ऑफ कॉमन्स में सांसद थे. उन्होंने ही ‘प्रेस’ को ‘लोकतंत्र का चौथा स्तंभ’ कहा है. ‘गोदान’ में ‘बिजली’ के सम्पादक पं. ओंकारनाथ पर कम ध्यान दिया गया है. गोदी मीडिया के दौर में उन्हें देखने-समझने की अधिक जरूरत है. मालती- ओंकारनाथ और राय साहब- ओंकारनाथ संवाद के जरिये पत्रकारों की असलियत स्पष्ट होती है. आज दुनिया के देशों में पत्रकारिता की दृष्टि से भारत बहुत निचले पायदान पर है. मिस मालती को दुनिया में सबसे ज्यादा डर सम्पादकों से लगता है क्योंकि वे जिसे चाहे, एक क्षण में बिगाड़ दें. यही भय लोकतंत्र में फैलकर लोकतंत्र को नष्ट करता है.

ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में यूनानी इतिहासकार थ्यूसीदाइदस ने ‘भय’ को लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह माना था और आज ढाई हजार वर्ष बाद, भारतीय लोकतंत्र में भय सर्वत्र फैला हुआ है. ‘गोदान’ में ‘बिजली’ पत्र के सम्पादक पं. ओंकारनाथ अपनी वाणी में जो हैं, कर्म में नहीं है. उनके वचन और कर्म में कोई सामंजस्य नहीं है. मेहता ने विचार और व्यवहार में सामंजस्य के न होने को ‘धूर्तता और मक्कारी’ कहा है. प्रेमचंद ‘गोदान’ में ही नहीं, अन्यत्र कई स्थलों पर पत्रकारिता और प्रेस का असली रूप दिखा कर लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर प्रकाश डालना नहीं भूलते. पंडित ओंकारनाथ राय साहब से उपकृत है. प्रेस का संबंध यहाँ जनता से नहीं, जनता के लुटेरों से है. सही खबर छापने की हिम्मत न पं. ओंकारनाथ में है और न उनके आज के वंशजों में है. ओंकारनाथ राय साहब से डरता है –

‘‘राय साहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं. कौंसिल के मेम्बर तो हैं ही. अधिकारियों में भी उनका काफी रसूख है. वह चाहें तो उन पर झूठे मुकदमे चलवा सकते हैं, अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैं.”

कौंसिल के सदस्य का यह चरित्र आज के सांसदों और विधायकों के चरित्र से बड़ा नहीं है. उस समय कौंसिल के सदस्य गुंडों से भी संबंध रखते थे. गुंडे तब कौंसिल में नहीं पहुँचे थे. राय साहब ओंकारनाथ के अखबार को पाँच गुना चंदा देकर अखबार को अपने खिलाफ लिखने नहीं देते. आज सरकारें विज्ञापन देकर अखबारों को अपने विरूद्ध सही खबरें प्रकाशित करने से रोकती है. राय साहब ने ओंकारनाथ से कहा –

‘‘पचहत्तर रुपये देता हूँ, इसलिए कि आपका मुँह बंद रहे… आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ नहीं निभा सकते.’’

प्रेमचंद पत्रकारिता का असली रूप दिखाते हैं.

प्रेमचंद को लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका पर भरोसा नहीं था. उन्होंने शायद ही कभी वकीलों की प्रशंसा की हो, जबकि आजादी की लड़ाई में प्रमुख रूप से भाग लेने वालों में वकीलों की संख्या कम नहीं थी. न्यायपालिका पर संविधान की रक्षा का दायित्व है और संविधान में भारतीय नागरिकों को लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त है. प्रेमचंद ने लोकतंत्र के सभी स्तंभों को अपने समय में ही कमजोर रूप में देखा था. उस समय ब्रिटिश शासन था आज हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र मात्र कहने के लिए है. कानून-न्याय सब सम्पत्तिशाली वर्ग के हित में है. ‘गोदान’ में झिंगुरी सिंह ने पंडित दातादीन को बताया

‘‘कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है. कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है.’’

ओंकारनाथ की पत्रकारिता से आज की पत्रकारिता कहीं अधिक असंतोष जनक है. रायसाहब ने ओंकारनाथ को कहा –

‘‘आपको कुछ खबर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने गरीबों का खून हो रहा है, कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं? है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूँ, प्रमाण सहित’’

प्रमाण सहित सामग्री देने वाले आज कहीं अधिक हैं, पर उसे प्रकाशित करने का ‘बूता’ कितने सम्पादकों को है? ब्रिटिश भारत में प्रेमचंद ने डेमोक्रेसी और उसके विविध अंगों-स्तंभों को जिस तरह समझ कर देशवासियों को सचेत किया था, क्या आज के कथाकार आज की बदतर स्थिति में उसी तरह या उससे बढ़कर सचेत कर रहे हैं? क्या आलोचकों, प्रेमचंद के विशेषज्ञों और अनुसंधित्सओं का ध्यान ‘गोदान’ के उस धनुष-प्रसंग पर नहीं जाता जहाँ वे सब एकत्र हैं, जिनसे समाज को लाभ न पहुँचकर राय साहब और वहाँ उपस्थित सबको एक दूसरे से फायदा पहुँचता है ‘धनुष यज्ञ’ एक माध्यम है. उद्देश्य कुछ और है.

जिस उदार लोकतंत्र का जन्म प्रबोधन-युग में हुआ था, वह आज रुग्ण, अशक्त और लगभग मृत प्राय है. राम जन्म भूमि पूजन के बाद सुहास पलसीकर ने अपने एक लेख में भारतीय गणराज्य के एक दूसरे गणराज्य में बदलने की बात कही है, जिसे ‘धार्मिक’ या ‘हिन्दू गणराज्य’ भी कहा जा सकता है. भारत का प्रधानमंत्री किसी धर्म विशेष का प्रधानमंत्री न होकर पूरे देश का प्रधानमंत्री है. इसी कारण राम जन्म भूमि पूजन (5 अगस्त 2020) के बाद यह प्रश्न किया गया कि प्रधानमंत्री ने वहाँ शिला-पूजन और भूमि-पूजन कैसे किया? राम जन्म भूमि पूजन में प्रधानमंत्री केवल ‘विशिष्ट अतिथि’ ही नहीं थे, वे एक धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकाण्ड के संरक्षक भी थे, ‘जजमान’ भी थे. एक अमेरिकी नृतत्ववादी विलियम हेनरिक्स वाइजर (28.1.1890-21.2.1961) की 1936 में प्रकाशित पुस्तक ‘द हिन्दू जजमानी सिस्टम’ (मुंशिराम मनोहरलाल), एडिलेड यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया के एसोसिएट प्रोफेसर पीटर मेयर के ‘इनवेंटिग विलेज ट्राडीशन: द लेट नाइनटीन्थ सेंचुरी ऑरिजिन्स ऑफ द नॉर्थ इंडियन ‘जजमानी सिस्टम’ और अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित जजमानी व्यवस्था के जन्म, इतिहास, स्वरूप आदि के संबंध में हम यह जान पाते हैं कि यह व्यवस्था कैसे विकसित होकर आज भारत में किस रूप में है.

भारतीय लोकतंत्र को अब ‘धार्मिक लोकतंत्र’ भी कहा जाता है. धर्म ‘गोदान’ में भी है. राय साहब अपने लाभ के लिए धनुष-यज्ञ कराते हैं, जिसका सामान्य जन-मानस पर विशेष प्रभाव पड़ता है. मेहमानों के लिए

‘‘शराब भी थी और माँस भी… माँस भी कई तरह के पकते थे, कोफ्ते, कबाब और पुलाव, मुर्ग, मुर्गियाँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर, जिसे जो पसंद हो, वह खाये.’’

भारत का संसदीय लोकतंत्र चुनावी लोकतंत्र में बदल चुका है. अब यह बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र बन रहा है, जिसका संबंध, सत्तावादी लोकतंत्र से है, जिसके गर्भ से फासीवाद का जन्म होता है. स्वतंत्र भारत के नेताओं, जन प्रतिनिधियों ने ही संसदीय लोकतंत्र को कमजोर और नष्ट किया है. निर्वाचित जन प्रतिनिधियों और सरकारों का सारा ध्यान चुनाव पर केन्द्रित हो गया है. स्टीवेन लेवित्सकी एवं डैनिअल जिबलैट ने ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ’ (2018) में उदाहरण सहित यह बताया है कि लोकतंत्र की हत्या केवल जनरल ही नहीं करते, निर्वाचित नेता भी उसकी हत्या करते हैं, चाहे वे राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री. वे इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पलट देते हैं, जिसके तहत वे निर्वाचित और सत्तासीन हुए हैं. कुछ तो तेजी से इसे विघटित करते हैं, जैसा हिटलर ने 1933 में किया और अधिकतर उसे धीमी गति से समाप्त करते हैं. अत्यधिक ध्रुवीकरण भी लोकतंत्र की हत्या का जिम्मेदार है. प्रेमचंद ने ‘डेमोक्रेसी’ पर विचार के क्रम में सर्वाधिक विचार ‘इलेक्शन’ पर किया है. दिसम्बर 1934 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अधिवेशन में उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे आज अधिक ध्यान से सुना जाना चाहिए.

‘‘जो राष्ट्र के अगुआ हैं, जो इलेक्शनों में खड़े होते हैं और फतह पाते हैं, उनसे मैं बड़े अदब के साथ गुजारिश करूँगा कि हजरत, इस तरह के एक सौ इलेक्शन आएँगे और निकल जाएँगे, आप कभी हारेंगे, कभी जीतेंगे, लेकिन स्वराज्य आपसे उतनी ही दूर रहेगा, जितनी दूर स्वर्ग है.’’

स्वराज्य तो मिला, पर वास्तविक आजादी, लोकतंत्र और संविधान का क्या हुआ, क्या हम प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर इसे समझना नहीं चाहेंगे?
___________________

रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
‘रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
 राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com 
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Tags: प्रेमचंदरविभूषणलोकतंत्र
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Comments 11

  1. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    आज दलाल झुनझुनवाला की तस्वीर लगाई जाती है, उसकी लोकतंत्र पर कही बात समझने के लिए प्रधानमंत्री नतशिर हो रहा होता है, वहाँ प्रेमचंद की क्या बिसात… हिंदी साहित्य समाज का मार्गदर्शक कभी नहीं रहा…प्रेमचंद के लिखे-पढ़े में लोकतंत्र में ग़ज़ब की आस्था है. रविभूषणजी अकादमिकता से अलग प्रेमचंद को इसलिए देख पा रहैं कि उन्होंने ज्ञानघर के दरवाजे और खिड़कियाँ खोल रखी हैं, और उनकी व्यक्तिगत आस्था भी लोकतंत्र में ही है…

    Reply
  2. Hammad फारूकी says:
    4 years ago

    विश्लेषण परक, सम सामयिक लेख, साझा करके पढ़े जाने,चर्चा किया जाने वाला।आज के भारत की मूल राजनीतिक समस्या पर तार्किक ढंग से विचार किया गया है। और अच्छा।होता कि प्रेमचंद के समकालीन हिंदी।के अन्य लेखक,आलोचक लोकतंत्र के बारे में क्या सोच रहे थे,उसे कैसे देख रहे थे,उनका।भी उल्लेख होता । तो एक व्यापक परिदृश्य सामने आता । रवि भूषण जी, अरुण देव, समालोचन का।आभार।

    Reply
  3. रवि रंजन says:
    4 years ago

    समाजविज्ञान की विचार भूमि पर खड़े होकर रविभूषण द्वारा किया गया प्रेमचंद की भावभूमि का गहरा विश्लेषण ज्ञानवर्धक होने के साथ ही आज साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण की नई प्रविधि को प्रस्तावित करता है।

    Reply
  4. Gc Bagri says:
    4 years ago

    रविभूषण सर ने कितनी समग्रता के साथ अपनी बात रखी है। बहुत सी हमारी नहीं पढ़ी हुई रचनाओं और अध्ययन को नया दृष्टिकोण देता हुआ जरूरी आलेख।समालोचन और रविभूषण सर का शुक्रिया।

    Reply
  5. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    4 years ago

    रविभूषण जी अनोखे विषयों पर लिखने के लिये ख्यात है ,इसके लिए वे भरपूर अध्ययन करते है । यह आलेख इस तथ्य का उदाहरण है

    Reply
  6. पंकज मित्र says:
    4 years ago

    आज के लोकतंत्र की सारी रूग्णताओं को प्रेमचंद दूरदर्शिता के कारण पहले ही डायग्नोज़ कर चुके थे। रविभूषण जी का यह आलेख उन्हें सामने लाता है और प्रेमचंद के बारे में हमारी समझ को माँजता है।

    Reply
  7. M P Haridev says:
    4 years ago

    प्रेमचंद ने अपनी दूरदृष्टि से जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी वह वैसा नहीं हो सका अपितु जस की तस है । यह चिन्ता का विषय है कि लोकतांत्रिक पायदान पर भारत 97 नम्बर पर है और नेपाल 78 वें नम्बर पर । भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहने की बजाय सबसे अधिक जनसंख्या का लोकतान्त्रिक देश है । चीन 🇨🇳 की आबादी भारत से अधिक है । शुक्र है कि रवि भूषण जी ने चीन को लोकतान्त्रिक देश नहीं माना । नेपाल के 78 वें स्थान पर मेरी आपत्ति है । वहाँ के शासन घोर मार्क्सवादी प्रचण्ड दहल की पकड़ है । दुनिया भर में कम्युनिस्ट देशों को उदारवादी लोकतान्त्रिक देश माना जाता है । यह पैरामीटर सिरे से ग़लत है । वहाँ भी चीन की तरह निरंकुश शासकीय व्यवस्था, अवांछित गोपनीयता और प्रेस पर प्रतिबंध है । ओ पी ओली शर्मा को प्रधानमंत्री पद से इसलिए हटना पड़ा कि दुनिया के अनेक देशों से मदद की राशि मिलती थी उसकी जानकारी वे सदन को नहीं देते थे । मुझे इस रक़म का मुग़ालता है कि यह 5000 million dollars थी । चीन, उत्तर कोरिया, क्यूबा, वियतनाम 🇻🇳 और रशिया में एक दलीय शासन प्रणाली है । इन देशों में चुनाव नहीं होते । उत्तर कोरिया में एक परिवार का शासन है । मिखाइल गोरबाचेव 1986 के खुले लोकतन्त्र और प्रेस की आज़ादी के बाद सोवियत यूनियन का अप्राकृतिक संघ विखण्डित हो गया । तब मास्को के अधीन 15 देशों ने dynast North Korea को कम्युनिस्ट देश होने की मान्यता दी थी । पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच की दीवार को गिराने और एक लोकतान्त्रिक देश बनाने में मिखाइल गोरबाचेव की भूमिका थी ।
    जहाँ तक भारत का प्रश्न है यहाँ के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी निरंकुश शासक हैं । फिर भी भारतीय संविधान में पाँच सालों के बाद विधानसभाओं और संसद के चुनाव होते हैं । चुनाव होने पर विपक्षी या विपक्षी गठबन्धन की सरकार बन सकती है । Indian National Congress is also a dynast party. Nehru-Rajiv, Rahul Gandhi and his mother has crores of movable and immovable property. कल या आज के इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में Pinarayi Vijayan की मार्क्सवादी सरकार ने भी कोर्ट में झूठा हलफ़नामा देने की रिपोर्ट है । मेरी समझ में प्रेमचंद को प्रगतिशील लेखक संघ या जनवादी लेखक संघ के खाँचे में फिट करना उचित नहीं है । प्रेमचंद ग़रीब थे, लेकिन ग़रीबी के चलते ब्रिटिश शासन के विरोध में लिखते थे । ईस्ट इंडिया कम्पनी और बाद में वायसराय के ऐशो-आराम की ज़िंदगी पर अपने पात्रों के ज़रिए उनका मुखर विरोध किया था ।

    Reply
  8. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत सार्थक आलेख,तथ्यात्मक और वस्तुनिष्ठ भी। रवि भूषण जी को साधुवाद ! आलेख में बस एक बात समझ में नहीं आयी कि भारतीय लोकतंत्र (नकली) रूप में है, अंतर्वस्तु में नहीं।मैं तो अबतक यही समझता था कि कन्टेन्ट महत्वपूर्ण होता है, रूप नहीं। जैसे एक ग्लास में शर्बत और दूसरे में जहर है तो फार्म तो एक है पर कंटेंट में फर्क है।

    Reply
  9. रमेश अनुपम says:
    4 years ago

    रवि भूषण जी के इस आलेख को मैं किंचित देर से पढ़ पाया। प्रेमचंद के बहाने देश में मौजूदा लोकतंत्र के हालात पर नजर डालें तो भीषण संकट की स्तिथि चारों तरफ दिखाई देती है । लोकतंत्र अब कहां है ।उसकी हत्या की जा चुकी है ।हत्यारे चारों ओर घूम रहे हैं ।प्रेम चंद को इस तरह से देखना और खासकर वर्तमान लोकतंत्र के संदर्भ में उनके विचारों के निकट जाना मेरी दृष्टि में एक बेहद जरूरी सृजनकर्म है। रविभूषण और ’समालोचन’ दोनों बधाई के पात्र हैं।

    Reply
  10. बजरंगबिहारी says:
    3 years ago

    लोकतंत्र के वर्तमान संकट का स्वरूप और स्रोत समझाते हुए रविभूषण जी ने प्रेमचंद के महत्त्व का सम्यक विवेचन किया है।
    पठनीय-मननीय लेख है।
    लेखक और समालोचन को धन्यवाद।

    Reply
  11. Madhu Kankaria says:
    3 years ago

    प्रेमचन्द की डायग्नोसिस और रवि भूषण जी की रडार जो हर अलक्षित की ओर तनी रहती है। दोनो के मेलजोल से बना यह अद्भुत आलेख है जो विचारों के बीज बिखेरता है और आपकी आंखों में अंगुली डाल दिखाता है – देखो कहां है हमारा लोकतंत्र ?देखो यह है प्रेमचंद की चेतावनियां।आज यदि हमारा लोकतंत्र आईसीयू में है तो इसी कारण कि हमने इसके गिरते ग्राफ पर गंभीरता से चिंतन नहीं किया।
    प्रेम चंद हमें लगातार अगाह करते रहे पर हमने उनके साहित्य के सामाजिक, सांस्कृतिक पक्ष पर चर्चा की पर लोकतंत्र पर वे क्या सोचते हैं,उस पर ध्यान देने की जरूरत न समझी।

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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