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Home » प्रिया वर्मा की कविताएँ

प्रिया वर्मा की कविताएँ

प्रिया वर्मा की कविताएँ इधर उभर कर सामने आयीं हैं. वे लगातार लिख रहीं हैं. हिंदी कविता में अब दशक बीतते-बीतते नयी काव्य प्रवृत्तियाँ और शिल्पगत प्रयोग समाने आने लगे हैं. साहित्य की नयी पीढ़ी सामने आ जाती है. बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से शुरू हुई ‘नयी सदी की कविता’ में अब बदलाव लक्षित होने लगें हैं. कविताएँ अब फिर विचार, प्रतिरोध, और ब्योरों की तरफ लौटती प्रतीत हो रहीं हैं. उनमें नये देशज बिम्ब, बदलते मुहावरे और शिल्पगत सफाई देखी जा सकती है. ऐसा लगता है नयी सदी का अमूर्त उल्लास यथार्थ से टकराकर मूर्त संकटों को समझने लगा है. इसी पीढ़ी की लेखिका प्रिया वर्मा की दस नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
September 25, 2022
in कविता
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प्रिया वर्मा की कविताएँ
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प्रिया वर्मा की कविताएँ

एक)

मेरी तरह की औरतों
अपने प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखो

लिखो
कि हम अब रोते नहीं हैं. न उम्मीद करते हैं. न डरते हैं. न नौकरी में पीछे रहते हैं. हम घर और बाहर दोनों जगह अपने लिए तय काम करते हैं.

हम काम करते हैं मासिक स्राव के दिनों में, बुखार में, तनाव में, गम्भीर रूप से झगड़ने के बाद भी
माता-पिता, दोस्त, साथी की मृत्यु के शोक के बाद भी

हमने तक़रीबन छोड़ दी हैं उदास आकुलताएँ
सभी भावुकताएँ
जिनके लिए हम पर फ़िकरे कसता रहा परिवार और समाज
हमारी टांग खींचता रहा गणित में कमज़ोर होने को लेकर

अब इतना गणित हमने सीख लिया कि अपने लिए माँग भले न सकें, मना कर सकें.
अपने लिए आवाज़ उठा सकें.
अपने ऊपर बने चुटकुलों पर दे सकें एक शान्त और गम्भीर दृष्टिपात

यूँ तो इतना गणित हमने कक्षा छः में ही सीख लिया था
कि निकाल सकें ज़मीन का क्षेत्रफल
मक़ान की सफ़ाई और पर्दों का रंग ही नहीं, आकार भी तय कर सकें गृहविज्ञान विषय के अनुसार
क्योंकि यही विषय तय था उन दिनों
हम औरतों
(क्षमा करें)
(उन दिनों की हम लड़कियों)
के लिए
काष्ठ एवं पुस्तक कला या अन्य कोई कला हम में से किसी ने ली हो, मुझे याद नहीं पड़ता,माननीय!
कभी अपने ‘मन की बात’ में मन से यह बात कर के देखिए
कि हम अनिवार्य रूप से गृहविज्ञान पढ़ी लड़कियाँ
औरतें बनकर जब घरों में पीटी गईं
अपमानित की गईं
हम पर दुष्चरित्र होने या झगड़ालू होने या घर तोड़ने या वशीकरण करने के आरोप मढ़कर
हमें बेघर किया
तब जब हमारा साथ हमारे दो परिवारों में से किसी ने भी नहीं दिया
हमारा बाज़ू पकड़ कर हमसे कहा गया
कि ये घर नहीं है तुम्हारा
अपने फ़ैसले वहाँ चलाना जो तुम्हारा घर हो

तो प्रधानमंत्री जी
जब आप गरीबों को आवास आवंटित कर रहे थे,
क्या तब आपने औरतों के लिए मुफ़्त गैस चूल्हे की उज्ज्वला व्यवस्था करते हुए
क्या यही सोचा था कि सभी औरतें रसोइया होती हैं?

क्या घर आवंटित करने के समय आपके किसी संतरी को भी
एक बार यह खयाल नहीं आया था
कि वे औरतें
कहाँ रहती होंगी
जिनके घरवाले उन्हें घर से बेदख़ल करने की धमकियाँ देते हैं
या छोड़ देते हैं.

आप तो लाल किले पर एक सुबह औरतों के साथ न्याय की बात करते हैं
और शाम ढलने के पहले तक बिलकिस बानो के दोषियों को बाइज़्ज़त बरी करते हुए
यह तक भूल जाते हैं
कि बिलकिस को बीसियों बार ठिकाना बदलना पड़ा
सिर्फ़ इज़्ज़त और चैन से रहने के लिए.

दो)

आजन्म बहुत से घरों को बाहर से देखते हैं हम

कभी विचार भी नहीं कौंधता कि भीतर कौन होगा?कैसा दिखता होगा?

कभी जिज्ञासा नहीं होती कितने सदस्य होंगे
कभी मन नहीं डोलता कि अपना परिचय अपनी गर्दन पर लटकाए
दरवाज़े पर दस्तक दे कर कहें
कि मैं तुम्हें जानना चाहती हूँ

हर कमरा हर कोना रसोई और गुसलखाना तक देखना चाहती हूँ
बिस्तर और खिड़की के बीच कितने हाथ का फासला रखा है तुम लोगों ने
कितने कमरे हैं सोने के लिए
कौन लोग साथ सोते हैं.
और किन्हें बांटने की आदत नहीं है अपना कुछ भी

शहद और शक्कर में से तुम नींबू की चाय में क्या मिलाते हो
नमक कौन सा खाते हो
क्योंकि नमक भी अब तीन रँगों में आता है.

नमक पहले भी आता था.
पहले डली वाला नमक डाल देती थी माँ हर रात मेरे मुँह में चूसने के लिए
कि न आए मुझे अस्थमा का दौरा.
मुझे नींद आए

पता नहीं उन दिनों नमक के खार से मेरी जीभ छिली रहती थी
या कि माँ की परेशानी से या नींद की गहराई में फिसलने से
जो आधा दिन चौथाई ताक़त बचाकर घर लौटती थी.

घर क्या वह कमरा था
जो उन दिनों किराए का था.

तीन)

अभी अभी एक पंक्ति खोई है
अभी कुछ देर शोक रहने दो

कुछ देर कुछ न बोलो कुछ न कहो
बस सुनो
मैं एक दिन में कितना कुछ खो देती हूँ, उस हर अनभान के बहाने
मैं शोकातुर हूँ
एक पंक्ति के लिए

जैसे पीड़ा एक नया ज़ख्म पा लेने के बाद
उस पर नृत्य करती है
कि अब देख ली जाएगी
घुंघरुओं की छनक के बीचोबीच

गहरे पल्लव बीच छुपी कोकिल
जैसे चिन्हित हो जाती है.

चार)
नाटक का सबसे छोटा क़िरदार कौन!

क्या मैं!
या तो कोई और

कौन चुनता है उपेक्षा, अंधेरा और निर्लेप

मैं एक मंच
और मंच के तल पर बिछी सफ़ेद चाँदनी पर थिरकती
मैं ही मैं.

एक आदमी
ओह क्षमा!
एक औरत
अभिनेता
नर्तक
नेपथ्य
पार्श्वगायक
संगीतकार
और-और अनगिनत क़िरदार
मंचन हज़ारों हज़ार बार

लम्बे क़िरदार को जीती हुई मैं
यानी एक औरत
सबसे छोटे और न दिखने वाले क़िरदार के लिए
तलाश करती हूँ
जिसे
वह प्रकाश
एक दिलासलाई की चमक जो आँख की पुतलियों में बने बिंदु बराबर बना रहे
देखना दिखता रहे

या मैं उसे तलाश करती हूँ जो सचमुच सबसे छोटा क़िरदार है
इतना कि मंच पर दिखता ही नहीं

और कौन
ईश्वर.

पांच)
आधा-आधा

अधेड़ उम्र के प्रेम में होने की उम्मीद
नहीं होती जिन्हें
उन्हें अधेड़ उम्र से
उन्स की नज़्मों की उम्मीद भी नहीं होती

उन्हें किशोरवय में कामेच्छा की बात सहन नहीं होती

उन्हें फ़िक्र के नाम पर बेड़ी की आदत होती है
पहने पहने हर जगह हद देखने की आदत होती है
धर्म हो या बातचीत

यह दुनिया अजीब नहीं लगती जिन्हें
उन्हें हर चीज़ अजीब तरह से घूरती है
मानो कहती है कि देख कर कुछ भी कहने से पहले
बोल देना
गुनाह है.

गुनाह है आधा मिलना
आधा देखना
आधा दिखना-दिखाना
आधा छूटना
अधूरी फ़िल्म देखना, अधूरा संगीत सुनना, अधूरी किताब पढ़ना
और सबसे बड़ा गुनाह है
अधूरी मुलाक़ात करना

आधी कराह से डांवाडोल नहीं होता
जिनका मन, वे भी
न्याय-
पूरा चाहते हैं

झट से सुना देते हैं फ़ैसला
जो फ़ैसला करना नहीं जानते.

छह)

नहीं दी एक पँक्ति तक
प्रेमी ने
तब रोई प्रेमिका दीवार को गले लगाकर
ऐसे रोई कि जैसे अनिवार्य था रोना
जैसे ज़रूरत के समय कहना कितना अनिवार्य था साँस को साँस
यह क्या कि पानी पिया बिना जाने पानी का नाम
बिना सीने में भींचे इन्तज़ार किया
कानों में पहना गछा हुआ पेड़ और छाया को उतार दिया
मेरे अनन्त प्रेमी के पास आती होगी वह देहगन्ध
जो मेरे नासापुटों को सुहाए और बताए मुझे
वह प्रेम मैं हूँ जिस ने तुम्हें भटकाए रक्खा
रास्ता भी मैंने ही दिखाया
मेरे पास चेहरा नहीं है
सो तुम्हें आँखें खोलकर नहीं मूंदकर मुझे छू लेना था
अब छुओ मेरी मिट्टी को चूने को रँग को
मेरी निर्मिति को
छुओ मेरे कारीगर को उसके बरतन को छुओ
उस ठठेरे के पाँव छुओ जिस ने वह बरतन ठोंक पीट कर गोल बनाया
एक आकार देना कितना पीड़ामय सुख है

एक पँक्ति नहीं बनी मुझसे
मैं ठठेरा नहीं था प्रेमी था. मेरे हिस्से की पँक्ति तुम स्वयं बनाना
और उसे तोड़ना फिर बनाना
जीर्ण शीर्ण होने पर भी पँक्ति को बचाना

तुम्हें दुनिया प्रेमिका नहीं कवि कहेगी
खोजेगी मुझे
मानो तुमने अपनी प्रतीक्षा को शब्दपंख दिए
और रात भर हुई बारिश ने चींटियों को साहस दिया जल मरने का
बारिश की अगली रात में.

सात)

इस दिन तक आने में कितना ईंधन जलाया है
इसका ठीक हिसाब नहीं है मेरे पास
मसलन ये मेरी आँखें
ये जिन दृश्यों के साथ सोती और जागती रहीं
वे जाने कब क्या से क्या होते गए
मेरी नाक से दूर होती गई जानी और पहचानी गन्धें
जिन्हें सु और दु के हिंडोले से दूर बहुत दूर रख कर
मैंने अपना कहा था- पर सपना हां तो सपना ही हो गईं वे सभी
मेरे कानों को अब वे आवाज़ें नहीं पुकारतीं, न वे थपकियाँ न दिल की धुकधुक न रेलगाड़ी की छुक छुक छुक
न वे दस्तकें जिन पर धरे रहते थे कान और नाक भी
कि लिफाफे में भरे पकवान अभी मेरे ठीक सामने रखे हुए होंगे

और पकवान से याद आता है मेरी जीभ
जिसे सिवाय तालू से चिपकने या लगातार चलते जाने के सिवाय कोई काम नहीं रह गया
इस जीभ पर कुछ रहता था बागेश्री की रागिनी-सा
अनारकली के थिरकने के दृश्य-सा जिसमें मधुबाला के अतिरिक्त नहीं बैठता था
कोई चेहरा इतना सटीक

बूढ़ी नानी की लटकती हुई झुर्रियों की गुदगुदाहट
और माथे पर हथेलियों की परख; सब
सब जो कुछ भी मेरी
देह के रंग से ज़्यादा किसी और चीज़ से चीन्ह लिया जाता था वह
स्पर्श,स्वाद,बातें
अब कहाँ हैं?

मुझे यहाँ नहीं होना था, मैं जहाँ हूँ.
इस पार आकर मैंने जाना कि जीवन मधु कहीं नहीं है.
एक मिथ्या है सब जिसके लिए मैंने अपनी पिछली पीढ़ियों की तरह सब बिसराया
लोग मुझसे ऐसे छूट गए जैसे खो जाता है अपरिचय
सब कुछ जानने के बाद.

आठ
अचानक नहीं

आवरण बदलने से क्या होगा
अर्थात मुख
अर्थात कवर
अंग्रेज़ी उर्दू कोई मान्यताप्राप्त भाषा है, अर्थात ज़बानें अर्थात लैंग्वेजेज़
अर्थात चेहरे
अर्थात अक्षर
अर्थात पहचान
अर्थात पेंच फिर चूड़ी

अचानक नहीं हुआ है यह
उलझाऊँगी नहीं तुम्हें
न कहूँगी पुनः
अर्थात बार-बार

ठहरो अर्थात रुको अर्थात मत जाओ
अर्थात
तुम दोषी नहीं हो
अर्थात गिल्टी अर्थात अपराधी अर्थात गुनहगार

मेरे कानों ने पहना हुआ है मायावन और अनन्त लोक तक भारी मोह
आँखों पर जाले लगे हुए हैं
अभी अभी तो हुई थी गर्भिणी
अभी भ्रूण कैसे हुई हूँ
कैसे कह सुन पा रही हूँ
यहाँ अत्यल्प है सब सटा हुआ एक सघन ठसा हुआ घर अर्थात देह अर्थात इमारत

इस पापी मन की धुनक किसी जुलाहे के द्वार भीतर से उठता संगीत है
मैं जुलाहे को खोजती हूँ
अर्थात बुनकर

अर्थात को जाने दे रही हूँ
भाव को संश्लेषित कर शब्दों को प्रवाहित कर रही हूँ

तुम नहीं समझोगे मेरी स्वजनित पीड़ा
परन्तु किसी स्त्री से न कहना फिर कभी अपना स्वप्न
अर्थात औरत
अर्थात सपना
अर्थात अर्थात को जाने देती हूँ.
अर्थात जाने देने को जाने देती हूँ.
ठहरो रुको मत जाओ जुलाहे
बुनते रहो मेरे लिए
यह रात
बिना स्वप्न की बिना चंद्रमा की बिना आँख की

अथार्गलास्रोतम् सम्पूर्णम् जैसा कहने की सुविधा नहीं है हमें

विक्टिम नहीं हूँ मैं
अर्थात प्रताड़ित अर्थात जोंक

जोंक!

विज़िटिंग कार्ड के बग़ैर भी हो सकता है मिलना
अर्थात भेंट
अर्थात पूर्व योजना के बिना

अर्थात अचानक नहीं
फिर भी अचानक!

फिर से कहो कि खून मत पियो मेरा
अर्थात रक्त
मैं हृदय हूँ तुम्हारा
अर्थात दिल अर्थात हार्ट

यही पाठ है अर्थात लैसन अर्थात अध्याय
भाषा की अदल बदल में भी तुम और मैं नहीं बदलेंगे.
यहाँ कोई नहीं हँसता
यह कैसा शहर है
अर्थात जेल? अर्थात जन्म?

अर्थात को प्रश्न के भाव में जाने देते हैं.

धरती सुबह उठकर अपने स्तनों को देखने के लिए खोजती है दर्पण
अर्थात आकाश

सब एक साथ आ रहा है जा रहा है
अभी जो था अब नहीं है

कविता में कहानी नहीं है- कहानी में कविताएं नहीं हैं.

एक अच्छे कहानीकार ने कहा यह कविता का दौर है.
कविता अर्थात कहानी?
अर्थात एक क्षण की धार से कट रहा है जन्म.

नौ)
सर्वनाम की कर्ज़दार हुए बग़ैर

रहना चाहती हूँ जीवित
रहना चाहती हूँ उदास
रहना चाहती हूँ मुक्त
अतीत से नहीं, डरावनी परछाईंयों से

दीपक से उठती रत्ती-रत्ती घटती बढ़ती दीप्ति की
काली कोख़ से अगाध सम्बन्ध है मेरा
पर प्रेम के भार को इस देह पर
अब और लेपना नहीं चाहती

अच्छा लगता है जहाँ- तहाँ से बिना बचे
काजल की कोठरी में रंगे पाँव बाहर चले आना
और पकड़े जाना; कुछ भी नहीं छुपाना

सुख होता है एक दिन अपनी आँखों को खोजना
खोजना कि दोनों आख़िर क्या खोजती हैं?

तो क्या हुआ कि नहीं खोजतीं अब प्रेम!
खोजती हैं देह. पुरुष हो गई हैं आँखें
तो रख देती हूँ पहली मुलाक़ात में सामने
(जो भी नाम है तुम्हारा वह) (संज्ञा)
आओ और देखो
अनावृत
इस ब्रह्मांड को

नहीं रखती उम्मीद
कि खोजो मेरी चेतना
छुओ मेरी आत्मा

कि प्रेम, जाने कब से,
हर दुनियावी भाषा की
खोह में
गायब हो चुकी लोकोक्ति है.

दस)
परिभाषाएं मूर्तियाँ नहीं हैं

जब लिखी गई होगी संज्ञा की परिभाषा
तब कहाँ पता होगा कि
संज्ञाओं से मच जाएगा कोलाहल
प्रथम द्वितीय से लेकर षष्टादश तक पहुँचेगा फ्रांस का सिंहासन

माँएं गर्भ में पलते बच्चे का लिंग जाने बग़ैर ही उस के लिए दो मौलिकताओं को खोजेगी
वे नाम जो कहीं और न मिलें
वे लोग जो हमें पूरा न जानते हों
वे विशेषण जिन की स्थापना न हुई हो
वे शीर्षक जो अनछुए रह गए हों

अनगिन बार नापी जा चुकी इस पृथ्वी पर
कोई रास्ता बचा ही नहीं जिस पर पहली बार चला जाए

अपनी तरह और सब की तरह के द्वंद में सिर झटकते हुए
मैं मूर्तिभंजन कर रही हूँ.
परिभाषा ने जितना भी सिखाया
वह उतना ही सच है
कि इन्सानों की तरह दिखती है ईश्वर की देह
जबकि एक जंगली भैंसे का ईश्वर है भी या नहीं
यह किसी परिभाषा में नहीं.

प्रिया वर्मा
सीतापुर (उत्तर प्रदेश)
itspriyavetma@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँनयी सदी की हिंदी कविताप्रिया वर्मा
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Comments 17

  1. Dr Om Nishchal says:
    3 years ago

    सुकूनदेह कविताएं।

    Reply
  2. हरदीप सिंह says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा जी,
    ये कवितायेँ स्त्री विमर्श को एक नया आयाम देती हैं. प्रधान मंत्री से सीधा सवाल पूछने का साहस सराहनीय है .

    Reply
  3. Kumar Mangalam says:
    3 years ago

    सुंदर कविताएँ हैं। बिल्कुल टटकी। बधाई

    Reply
  4. सुरेन्द्र प्रजापति says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा कि नदी कविताएँ बिल्कुल नई शिल्पगत शैली और नये मुहावरे के साथ। नई सदी की पड़ताल करती नए तेवर और प्रतिरोध की कविताएँ। प्रिया वर्मा को बधाई और समालोचन व अरुण सर को बहुत बहुत धन्यवाद🙏

    Reply
  5. राजेन्द्र दानी says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा मेरी पसंदीदा कवयित्रियों में से एक है । लीक पर चल रही कविताओं को तहस नहस करके , परोक्ष में ,ईमानदार और ठोस हस्तक्षेप प्रिया वर्मा ने पिछले वर्षों में किया है । उनकी कविताएं चकित नहीं करती , चौंकाती नहीं , पर सबसे ज़रूरी अवयव करुणा से पाठक को भेदती हैं । हम अक्सर पाते है कि उनके यहां भयावहता में डूबे ऐसे धूसर दृश्य हैं जिनसे हम रोज़-ब-रोज़ रु-ब-रु होते हैं पर दृष्टि नहीं डाल पाते । प्रिया अपनी सृजनात्मक पहल से हमारी दृष्टि को मोड़ देती हैं । उनका यह आघात प्रकारांतर से अनोखे , अपरिचित संज्ञान से पाठक को एकाकार कर देता है । वे अपनी क्रियाशीलता में अपनी अनुभूतियों से जिस तरह जुड़ती हैं दरअसल उसे खोजने की ज़रूरत है खासकर उन लोगों को जिनके अंदर कविकर्म की गहरी बेचैनी है ।

    Reply
  6. रोहिणी अग्रवाल says:
    3 years ago

    चेतना के भीतर बहुत गहरे पैठा प्रतिरोध, जैसे मार्मिकता के बीच सांस ले रही है आत्मालोचन की सघन सजगता.

    Reply
  7. नेहल शाह says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा जी की कविताएँ पढ़ना रुँधे गले से अपने प्रतिरोध को दर्ज करने जैसा है। वे सब कह लेती हैं और बहुत सलीके से। चाहे स्त्रियों के अधिकारों और सुरक्षा को लेकर चल रहा ढोंग हो,
    या प्रेम में उम्र का हवाला देते लोगों की बात,
    किसी को जानने की जिज्ञासा या
    पंक्ति के खो जाने का दुःख,
    सब कह सकती हैं प्रिया गहराई से लय में उतर कर।
    शुक्रिया समालोचन का साझा करने के लिए!💐🦋

    Reply
  8. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    व्यवस्था से प्रतिवाद एवं असहमति दर्ज करती ये कविताएँ स्त्री-अस्मिता के अनेक प्रसंगों को बेधड़क छूती हैं जिनका संबंध पितृसत्तात्मक भी है। ये अपनी कहन से हमें खींचती और संवेदित करती हैं। कवि एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !

    Reply
  9. सुशीला पुरी says:
    3 years ago

    “कि खोजो मेरी चेतना
    छुओ मेरी आत्मा

    कि प्रेम, जाने कब से,
    हर दुनियावी भाषा की
    खोह में
    गायब हो चुकी लोकोक्ति है.”…….
    प्रिया वर्मा ❤️ सखी की इन कविताओं को पढ़ना इक्कीसवीं सदी की स्त्री से सच्चा साक्षात्कार है। इन कविताओं के ब्यौरे स्त्री जीवन का वह आईना है जहां से किसी भी भारतीय स्त्री के पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक सरोकारों की पड़ताल की जा सकती है और उन विडंबनाओं पर ठगा सा महसूस भी किया जा सकता है कि जब स्त्री को इस दुनिया से चाहिए था प्रेम, तो उसे मिली पीड़ा, उसे मिला विस्थापन। समालोचन और प्रिया को दिल से बधाई 🌹🎼

    Reply
  10. सुशीला पुरी says:
    3 years ago

    “कि खोजो मेरी चेतना
    छुओ मेरी आत्मा

    कि प्रेम, जाने कब से,
    हर दुनियावी भाषा की
    खोह में
    गायब हो चुकी लोकोक्ति है.”…….
    प्रिया वर्मा ❤️ सखी की इन कविताओं को पढ़ना इक्कीसवीं सदी की स्त्री से सच्चा साक्षात्कार है। इन कविताओं के ब्यौरे स्त्री जीवन का वह आईना है जहां से किसी भी भारतीय स्त्री के पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक सरोकारों की पड़ताल की जा सकती है और उन विडंबनाओं पर ठगा सा महसूस भी किया जा सकता है कि जब स्त्री को इस दुनिया से चाहिए था प्रेम, तो उसे मिली पीड़ा, उसे मिला विस्थापन। समालोचन और प्रिया को दिल से बधाई 🌹🎼

    Reply
  11. Joshnaa Banerjee Adwanii says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर और सशक्त कविताएँ हैं। बिंबों के साथ शानदार रचनात्मकता और शैली बहुत कमाल करते दिख रहे हैं। वे कविताओं में नये प्रयोग कर रही हैं। ऐसे प्रयोग कविता को एक नया स्तर देते हैं।
    प्रिया वर्मा आपको खूब खूब बधाई।

    Reply
  12. Devi Prasad Mishra says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा संयमित आवेग की अप्रतिम कवयित्री हैं, इसके लिए उनकी दस कविताएँ विपुलाधिक प्रमाण हैं। विनम्र भाषा में प्रच्छन्न लपट और कौंध अलक्षित नहीं रहती। वह भूमिगत और स्वगत पदावली में बात करती हैं लेकिन प्रदत्त सृष्टि में आग लगाने के लिए वह माचिस खनकाती घूमती हैं। क्या साफ़ ज़बान और कैसा तो सीवन विहीन स्थापत्य । दिल्ली के सत्तात्मक, छद्म, चालू और नकली नारीवाद की यांत्रिकता के बरक्स ये कविताएँ स्त्री के आत्मन् की अपरायजिंग सरीखी हैं। इस विनीत शिल्प के प्रतिकार से दंग हुए बिना नहीं रहा जा सकता। विकल्प के लिए फिक्रमंद प्रिया कोई पारदर्शी श्वेतपत्र लहराती घूमती हैं – पीड़ा को कहने की क्या तो मरोड़ और उसी के समानांतर प्रतिसृष्टि पाने की अप्रतिहत यत्नशीलताएं । रूपम मिश्र, अनुपम सिंह और प्रिया की त्रयी ने स्त्री कविता की तहज़ीब को एक नया कोण, नजरिया और उठान दिया है । दिलचस्प है कि ये तीनों ही अवध की हैं और तीनों ही पितृपक्षीय गार्हस्थ्य को उजाड़ने के आग्रहों से भरी हैं। स्री कविता का यह स्वर्ण युग है। जो इसका मठ बनाना चाहते हैँ और इस बहुस्वरीय सांस्कृतिक आंदोलन पर एकाधिकार करना चाहती हैं , उनके औसतपन से सावधान रहने की ज़रूरत है। वामा का भी वाम होता है, प्रिया इस नैसर्गिक स्वप्न को किसी भी चकाचौंध में भूलती नहीं।

    Reply
  13. Anonymous says:
    3 years ago

    प्रिया की कविताओं में जितना चिंतन है,उतना ही प्रश्न है,कुछ व्याकुलता है,और है उम्मीद का एक सिरा….दस कविता जैसे दस जीवन!
    मैं प्रिया की कविता को इत्मीनान से शब्द दर शब्द पढ़ती हूँ.. आप से उम्मीद बढ़ती जा रही है,प्रिया!!

    Reply
  14. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    प्रिया वर्मा की कविताएं पहली बार पढ़ीं। लेकिन कविताओं ने बहुत प्रभावित किया। संवेदना और कविता की समझ गहरी हो तो कविता के अनछुए इलाके पर कविता लिखी जा सकती है। प्रिया वर्मा की कविताएं एक अचेतन मूर्छा को सहलाने और उसे जगाने का काम करती हैं।
    उनकी कविताओं से संभावनाओं का एक नया शहर बसता दिखाई देता है।
    बधाई और शुभकामनायें।

    Reply
  15. धनंजय वर्मा says:
    3 years ago

    वाकई सशक्त, मार्मिक और लीक से हट कर कविताएँ

    Reply
  16. Anuradha Singh says:
    3 years ago

    प्रज्ञा और संवेदना से आपूर ये कविताएँ लगातार चल रही हैं उस ओर जिसे भविष्य कहते हैं। शांत शब्दों की पहली परत के नीचे दिखने या छिपने की सीमा लाँघ चुका वह विद्रोह जो कला के परिष्कार में प्रकट होना जानता है, इनकी सत्ता है। हमारे सम्पूर्ण समय जीवन को कविताओं में बहा देने को आकुल इस समर्थ कवि को बहुत शुभकामनाएँ।

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  17. शालिनी सिंह says:
    3 years ago

    प्रिया बहुत बढ़िया कविताएँ हैं

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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