क़यास के बारे में कुछ क़यास
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उदयन वाजपेयी की यह किताब ‘क़यास’, जिसे वे उपन्यास कहते हैं, मैं प्रेम, रहस्य और दुख का महाकाव्य (एपिक) कहता हूँ. और यह सब कुछ आख्यान की सतह पर होता है. यह बात मुझे आश्चर्य में डालती है कि किस तरह पौने दो सौ पन्नों का यह उपन्यास सिर्फ़ आख्यान की अनोखी- नयी और अद्भुत तकनीक के कारण हमारे समय के महाकाव्य में रूपान्तरित हो जाता है. उपन्यास के पहले अध्याय से ही यह सफ़र शुरू हो जाता है, जिसे ‘आरम्भ’ का नाम दिया गया है. ‘आरम्भ’ का कथावाचक कौन है? वह उपन्यासकार के रूप में सामने आता भी है और नहीं भी. वह इस उपन्यास का इम्प्लाईड (आरोपित) लेखक भी हो सकता है और वास्तविक लेखक भी. इस कृति में आख्यान की इतनी परतें हैं कि रूसी फार्मेलिज़्म का फेबुला और जुज़ेट का फ़र्क हास्यास्पद हो जाता है. ऐसे में पाठक क्या करे? वह अनुमान लगाने को मजबूर है.
जब मैंने यह उपन्यास पढ़कर समाप्त किया, मुझे लगा कि क्या यह सब ‘माया’ थी. यह उपन्यास के आख्यान का वास्तविक विकार नहीं था. हम रस्सी को साँप समझ रहे थे यानी यह विकार का केवल ‘आभास’ था. इसे शंकराचार्य के ‘विवर्त’ के सहारे पहले ही समझ लेना चाहिए था. आख्यान में वास्तविक विकार था तो मैं अनुमान लगाने के लिए, क़यास लगाने के लिए मजबूर था क्योंकि मेरा अहंकार ज्ञान के इसी सोपान के जरिए कुछ न कुछ हासिल कर सकता था. क्या ऐसा आख्यान एक चमत्कार नहीं जबकि कहानी सिर्फ़ प्रेम कहानी है. मगर इसमें प्रेम से ज़्यादा प्रेम की ज्ञान मीमांसा को अस्तित्ववादी सतह पर पेश किया गया है. प्रेम एक रहस्य भी है और यातना भी, वह प्रेम करने वलों को सरशार करता है और दूसरों की ज़िन्दगी में ज़हर घोलता है.
क़त्ल किसने किया, क्या किशोर ने? नहीं, नहीं उसमें क़त्ल करने का साहस नहीं है, मगर किशोर के आख्यान के ज़रिए सुदीप्त के बारे में मुझे कुछ पता चल ही जाता है जैसे यह कि वह अब लाइब्रेरी से भूत बन कर बाहर निकलेगा. किशोर का आख्यान एक क़िस्सा-गो का आख्यान है, किसी को सुनाने के लिए नहीं मगर अपने आप से दबी सरगोशियाँ करने के खब्त और सनकीपन के साथ बड़बड़ाते हुआ. यह देख लिया जाए कि कौन-सा कथा वाचक कितनी बार अपना क़िस्सा सुनाने के लिए स्टेज पर चढ़ता है. ये किरदार ही उपन्यास के अध्याय हैं.
- उपन्यास का फ़र्ज़ी लिखने वाला (इम्प्लाईड लेखक)-दो बार (आरम्भ और मार्ग),
2. किशोर-तीन बार,
3. वन्दना-दो बार,
4. स्नेहा-तीन बार,
5. नुआ-तीन बार,
6. मृदुला-दो बार,
7. बिद्दू-एक बार,
8. सुशीला-दो बार,
9. वीना-एक बार,
10. लखना-तीन बार,
11. साँवली-एक बार,
12. चोर-एक बार,
13. अलीम- दो बार,
14. हॉल-एक बार.
इस पूरी क़वायद को आप म्यूज़िकल नोट्स की शक्ल में भी देख सकते हैं क्योंकि इसी तकनीक ने उपन्यास के आख्यान को एक दुख भरे रहस्यमय संगीत का आख्यान भी बना दिया है.
मुझे इस पर हैरत हुई मगर फ़ौरन ही ये हैरत ख़त्म हो गयी, जब मुझे याद आया कि क़यास का लिखने वाला उदयन वाजपेयी है, वह कुछ भी कर सकता है. वह संगीत ही क्यों, बयानिया को एक कथक रक़्स की तरह भी पेश कर सकता है और ठीक वही आगे चलकर हुआ भी. उदयन ऐसे अद्भुत काम करते रहते हैं, मैं क्यों आश्चर्य से आँखें फाड़ रहा हूँ?
याद रखना होगा कि उपन्यास के मुख्य किरदार सुदीप्त के नाम से एक भी अध्याय नहीं है. वह कथा-वाचक नहीं हैं, मगर वह आखि़र कथा वाचक क्यों होता? सुदीप्त तो ख़ुद आख्यान है, उसे दूसरे ही लिखेंगे. इस रचनात्मकता के लिए लेखक की जितनी तारीफ़ की जाए, मुझे कम महसूस होगी. दरअसल इस उपन्यास में इतने छोटे-छोटे बयानिया एक साथ मौजूद हैं कि उपन्यास एक महाबयानिया का रेगिस्तान बनकर रह जाता है, जिसमें ये छोटे-छोटे बयान रेत के टीलों की तरह जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. जिस तरह रेगिस्तान में चलने वाली तेज़ हवा उन टीलों को उड़ा कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है और वहाँ सफ़र करने वाले यात्री अचानक ठगे-से रह जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी यात्रा में दिशाओं के निर्धारण के लिए रेत के जिन टीलों पर निशान बनाये थे, उन्होंने अपनी जगह बदल ली है. यही हॉल होता है, इस उपन्यास के भीतर सफ़र करने वाले यात्री का. यहाँ वास्तविकता पत्थर की तरह स्थिर नहीं हैं, रेत के टीलों की तरह डाएनमिक है. यह उपन्यास एक रेगिस्तान की तरह सफ़ेद, उजला, महान और दहशत-ज़दा करने वाला है, चाहे वह रेत पवित्र प्रेम की ही रेत क्यूँ न हो.
जो सच है वह मालूम हो जाने के बाद भी मालूम नहीं होता कि क़ातिल कौन है? हमें आगे चल कर यह मालूम भी हो जाता है कि क़त्ल किसने किया मगर क्या हम इस उपन्यास में क़ातिल को ढूँढ़ रहे थे? इसी मक़ाम पर आकर सच की परछाई इतनी लम्बी हो जाती है कि हम डर जाते हैं. हमें सिर्फ़ सच की परछाई दिखायी देती है, सच दिखायी नहीं देता. अस्ल में सच की परछाई अब तक सड़क पर लगे बिजली के खम्भे की तरफ़ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही थी. हम भी उसी तरफ़ जा रहे थे. वह हमारे पीछे-पीछे चल रही थी. फिर जब हम ठीक बिजली के खम्भे के नीचे पहुँचे तो सच की परछाई हमारे ही क़दमों में लेट कर ग़ायब-सी होने लगी. लगा ये खम्भा ही क़ातिल था. हमें यूँ मालूम हुआ कि हमने सच को पा लिया है, अपने पैरों में लपेट लिया है. लेकिन जैसे ही हम सड़क पर लगे उस रौशन लैम्प पोस्ट से आगे बढ़ते हैं, सच की परछाई हमारे पैरों से निकल कर हमसे आगे दौड़ने लगती है. अब हम पीछे हैं और वह आगे.
सच है कहाँ? क्या वाक़ई हम अब तक सिर्फ़ क़यास लगाते रहे? क्या वाक़ई हम पोस्ट ट्रुथ के ज़माने तक आ पहुँचे? पोस्ट ट्रूथ में अगर सच नहीं हैं, तो झूठ भी नहीं है. यह कैसा अद्भुत बयानिया है, जो ‘सच’ के रिलेटिव होने की पोज़ीशन से भी ख़ुद को साफ़ बचा कर ले जाता है. यह न कुरुसावा की फ़िल्म रोशोमन की पोज़ीशन एख़्तियार करता है और न ही जोज़फ़ हेलर के उपन्यास कैच – 22 की परिस्थिति में आकर फँसता है.
इसीलिए मैंने कहा था कि उपन्यास में बहुत ज़़ोर की हवा चल रही है. रेगिस्तान में रेत के टीले उड़ा कर एक जगह से दूसरी जगह रख देने वाली रहस्यमय तेज़ आँधी. यह सिर्फ़ एक मामूली क़लम की निब से निकल रही है. इस आँधी का एपी सेण्टर उदयन वाजपेयी के क़लम की निब है. वैसे अस्ल एपी सेण्टर उदयन जी की आत्मा का कोई भयानक ज़ख़्म है.
किरदार आते हैं, जाते हैं, हर किरदार के बयान से सुदीप्त की परछाई के कुछ कंटूर रौशन होते हैं, फिर धुँधले हो जाते हैं. वन्दना के बयान से भी यही होता है. वन्दना के बयान से ज़्यादा इन्सानी आख्यान मैंने आज तक नहीं सुना. किसी अपने की मौत को इतने इन्सानीपन के साथ धारण करते हुए मैंने नहीं देखा. यह कमाल उपन्यास के पहले पन्ने से ही शुरू हो जाता है. स्नेहा का बयानिया इनसानी रिश्तों और रवैयों का प्रिज़्म बन कर मेरी आँखों को धुँधला कर गया. फिर उस बच्ची नुआ का किरदार है, जिसके पास मासूम पवित्रता की एक डोर है, जिसके दूसरे सिरे पर उसका बाप है. पर उसका बाप अब नहीं है. उसे मार दिया गया है. वैसे क्या किसी को मार दिया जाता है? या उसे मरना पड़ता है? पता नहीं? मैं किससे पूछूँ? नुआ से तो बिलकुल नहीं पूछा जाता.
तो क्या मृदुला से पूछूँ? एक वफ़ादार भारतीय पत्नी से उसी के पति के बारे में कुछ पूछने की मेरी हिम्मत नहीं है. मगर मृदुला का बयान एक साफ़ शफ़्फ़ाफ़ झरने की आवाज़ जैसा है, जो रास्ते में आने वाले अप्रिय और दुख के पत्थरों से टकरा कर भी अपनी अस्ल आवाज़ को नहीं खोता. अपनी चाल, अपनी गति, अपनी रफ़्तार में, शुरू से लेकर आखि़र तक. और उधर कोई गालियाँ दे रहा है, बिद्दू की ये गालियाँ मैं सुनता हूँ, मैं उस खिड़की की तरफ़ सर उठा कर देखता हूँ, जहाँ से गालियों की आवाज़ें आ रही हैं. मैं डर जाता हूँ, मैं नफ़रत करने लगता हूँ, प्रेम के लिए मैं हिंसात्मक गालियाँ सुनता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ. फिर दुनिया है जो शायद उससे प्रेम करती थी. उससे यानी सुदीप्त से, मगर सुदीप्त से प्रेम करना शायद एक क़यास से प्रेम करना है. आख़िर सुदीप्त ख़ुद भी एक क़यास, एक अनुमान ही तो है. जो लाइब्रेरी से भूत बन कर नहीं निकला, मगर एक किताबी कीड़े की तरह हिक़ारत से मार दिया गया. बिल्कुल काफ़्का के ग्रेगोरी साम्सा की तरह.
यह ठीक है कि चोर से जो हुआ, सो हुआ. मगर उसका बयान हमें सुदीप्त की रहस्यमय पीठ का दर्शन ज़रूर करा देता है. हमें ‘सच’ की वो झलक दिखा देता है, जिसमें बहुत से छोटे-छोटे सच, झूठे तारों की तरह जगमगाते हुए नज़र आने लगते हैं. उपन्यास ने अभी आधा रास्ता तै किया है. मार्ग में आरम्भ का बयान करने वाला फिर आकर हमें चौंका जाता है बल्कि चौकन्ना कर जाता है कि होशियार अब बहुत तेज़ आँधी आने वाली है. रेगिस्तान में अब यह सफ़र तुम्हें मार्ग से भटका देगा. मगर क्या यहाँ वाक़ई कोई मार्ग था?
यह रेगिस्तान है या जंगल, जहाँ ज्ञान भी ठिठक रहा है. उसके मुक़द्दर में भी हर इन्सान की तरह सिर्फ़ ठिठकन ही है और वह चुपचाप खड़ा है. वह हॉल जिसमें थिएटर के शो होते थे, उसके पास अपनी जुबान है. वह अपनी कहानी इस तरह बयान करता है जैसे आकाश अपनी कहानी सुना रहा हो. यहाँ तक आते-आते सारा ब्रह्माण्ड ही एक किरदार और क़िस्सा गो में बदल जाता है और हमें इस महाबयानिया के आगे घुटने टेकने पड़ते हैं.
मगर मैं क्या बयान कर रहा हूँ, कुछ भी नहीं, क्योंकि मैं भी तो इस ब्रह्माण्ड का एक अंश हूँ. इस उपन्यास में बड़ी सुन्दरता से दिखायी देने वाले शब्दों यानी दृश्य-शब्द को भी टाँक दिया गया है और ये दृश्य-शब्द एक मंजर, एक दृश्य की तरह उपन्यास के हर अध्याय के शुरू में शामिल हैं. लगता है कि कहीं दूर, इस उपन्यास की फ़िज़ा और माहौल से दूर, कहीं कोई तमाशा चल रहा है, कोई शो हो रहा है, अगरचे वह बहुत दूर हो रहा है, मगर उसका गहरा सम्बन्ध इस उपन्यास से है. इस बयानिया से है और इसके किरदारों के मुक़द्दर से है. फिर ऐसा भी लगता है जैसे ये उपन्यास ही कोई तमाशा तो नहीं जिसकी पृष्ठभूमि में एक दूसरे तमाशे की तैयारी चल रही है. कुछ मिसालें पेश है-
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‘हॉल के क़रीब ही नदी बहती है. बारिश के बाद उसमें मछली का शिकार होता है. उन्हीं दिनों बाहर के अहाते में जब कोई आवाज़ नहीं होती, नदी के बहने की सरसराहट वहाँ तक पहुँच जाती है मानो नदी पास सरक आयी हो.’ (पेज 41)
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‘कुत्ता टहलता हुआ अहाते में आ गया है. ‘कुत्ता घुस आया है,’ कोई बोला. किसी दूसरे ने बिलकुल शान्त स्वर में कहा, ‘वह यहीं रहता है. अभी देखना किसी क्यारी के पास जाकर फैल जायेगा.’ (पेज 55)
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‘एक स्त्री हमेशा ही दोनों कन्धों पर भारी-भरकम थैले लेकर प्रवेश करती. उसके पीछे थका हुआ- सा एक आदमी भी आता. वो पहले पास की सीट पर अपने थैले रखती, फिर बैठती. थका हुआ-सा आदमी पास खड़ा उसे देखता रहता.’ (पेज 159)
मुझे ये मिसालें कविता के टुकड़ों जैसी लगती हैं, मगर उससे ज़्यादा पेंटिंग्स की तरह. हालाँकि अच्छी पेंटिंग और कविता में कोई फ़र्क़ वैसे भी नहीं होता. मगर सिर्फ़ इतने से ही मेरी बात पूरी नहीं होती. मुझे ये टुकड़े किसी अनजान तमाशे के पोस्टरों जैसे भी लगे और कुछ ऐसी दूर से आती हुई आवाज़ों की तरह भी जो उससे भी अलग कुछ अनजान किरदारों के संवाद तैयार करने के रियाज़ से निकले हैं. दरअसल ये उपन्यास में सच को खोजने जैसा नहीं बल्कि उसे दूसरे छोटे-छोटे सत्यों से ढाँपने और पेबन्द लगाने जैसा है और इस तरह उपन्यास के आख्यान में कोई नया अर्थ पैदा हो न हो, एक नया भाव और एक नया रस ज़रूर पैदा हो जाता है. मिसाल देना शायद ग़लत न हो –
ये नुआ नाम के अध्याय के ख़त्म होते ही सामने आता है, जिसमें नुआ बुआ से पूछती है.
‘बताओ वो क्या है जो जब तक रहते हैं दिखते नहीं, जब उड़ जाते हैं तब पता चलता है कि कभी थे, अब नहीं हैं. अब बताओ क्या है?’ बुआ मेरा मुंह ताकते हुए बोलीं, ‘भैया, मैं तो हार गयी.’ ‘मैं बताऊँ?’ ‘बताओ’, बुआ बोलीं. मैं तपाक से बोली, ‘प्राण पखेरू.’ बुआ मुझे देखती रह जाती हैं. जैसे मैंने कोई ओछी बात कह दी हो.’ (पेज 133)
इस तरह देखिए कि वन्दना का हर शो मृत्यु-नाटक का शो है. मृत्यु के बिना तो कोई बड़ी रचना क़ायम नहीं की जा सकती. मृत्यु के अलावा किसी और षै में इतना क़यास भी नहीं लगाया जा सकता. ये एक महान कलाकार की कला के वे बिन्दु हैं, वे स्ट्रोक्स हैं जिनको मैं महसूस तो कर सकता हूँ मगर गिन-गिन कर बताने में शायद उम्र ही बीत जाए. अस्ल में क़यास पढ़ने के बाद ही डी.एच. लारेंस की इस बात पर मुझे यक़ीन आया, जिसे मैं अफ़वाह समझता था:
‘उपन्यासकार को मैं किसी भी सती, जती, सूफ़ी, फ़लसफ़ी और साइंस दाँ से ज़्यादा बड़ा मानता हूँ क्योंकि ये सब लोग ज़िन्दगी और संसार के सिर्फ़ अंश का ही अध्ययन करते हैं जबकि उपन्यासकार सारे जीवन और सारे संसार को पूर्णता में ग्रहण करते हैं.’
उदयन वाजपेयी ने ये काम तो किया ही है, एक दूसरा काम भी किया है, जो कोई उपन्यासकार न करे तो मिलान कुन्देरा के मुताबिक़ वह उपन्यास लिखे ही क्यों. मिलान कुन्देरा ने कहा है कि उपन्यास अगर इन्सानी अस्तित्व के पोशीदा रहस्य को उद्घाटित नहीं करता है तो वह उपन्यास कहलाए जाने के क़ाबिल नहीं है. इसी मक़ाम पर वे उपन्यास की थीम और विषय से ज़्यादा तकनीक पर ज़ोर देते हैं. मिलान कुन्देरा के यहाँ पोर्नोग्राफ़ी का इस्तेमाल एक तकनीक के तौर पर हुआ है. मगर क़यास में जो तकनीक इस्तेमाल की गयी है, वह इनसानी अस्तित्व के महज कोई छुपे हुए आयाम ही नहीं बल्कि एक दूसरे से जुड़े न जाने कितने आयामों की एक रौशन ज़ंजीर बना कर रख देती है. यह काम हर बयान में छिपी हुई आइरनी और विडम्बना के ज़रिए भी होता है और उपन्यास के किरदारों की अपनी-अपनी मुख़्तलिफ़ व्यक्तिगत आरजुओं के ज़रिए भी. बिद्दू की हिंसा से भरी नफ़रतपूर्ण गालियाँ इसी विडम्बना का सिर्फ़ एक छोटा-सा अंश हैं.
इस उपन्यास में, जैसा कि मैंने पहले अर्ज किया था, लगभग चौदह आवाज़ें हैं और सारी आवाज़ें एक दूसरे से अलग हैं. ये सारी व्यक्तिगत आवाज़ें हैं. बाख़्तीन ने जिसे पोली-फ़ोनिक उपन्यास कहा था, उसका सबसे अच्छा उदाहरण ‘क़यास’ ही है. ये आवाज़ें एक दूसरे को ओवरलेप करती हैं तो कमाल ये है कि शोर की उत्पत्ति के बजाए सिम्फ़नी की उत्पत्ति होती है. और यह भी बाख़्तीन ने ही कहा था कि उपन्यासकार से अकेला दुनिया में कोई और नहीं होता तो मैं साफ़ देख रहा हूँ कि इस कार्नीवाल में अगर कोई दूर अकेला खड़ा रह गया है तो वह इस उपन्यास का लेखक है यानी उदयन वाजपेयी स्वयं.
यह एक अद्भुत उपन्यास है. बिला सुबहा अद्भुत. उपन्यास क्या है, एक मेले का-सा समाँ है. किरदार तेज़ी से आते हैं, अपनी बात कहते हैं, एक दूसरे से टकराते हैं फिर भीड़ में गुम हो जाते हैं. ये किशोर फिर आ गया. ये तो नुआ है. ये मृदुला और ये …. ये कौन? ये तो लखना है. हर किरदार, हर चेहरा दूसरे चेहरे से नक़ाब या मुखौटे का, हल्का-सा हिस्सा ऊपर उठा देता है. ये सारे चरित्र आकाश को छूने वाले एक बहुत विशाल झूले में बैठ कर आते हैं. नीचे, फिर ऊपर, फिर नीचे, फिर ऊपर. इस झूले की मेरी-गो-राऊण्ड की चर्ख़ चूँ एक संगीत रचती है. इस पूरे उपन्यास का ताना-बाना संगीत के ज़रिए बुना गया है. यह हर पाठक के सेन्स डेटा को आहिस्ता से छू लेता है, बड़ी नरमी के साथ. जैसे हमें एक रूहानी नूर, एक आध्यात्मिक प्रकाश छूता है. सवाल यह है कि सिर्फ़ शब्दों से यह कारनामा उदयन वाजपेयी ने कैसे कर दिखाया, यह एक पहेली है और मैं पहेली बूझने में यक़ीन नहीं रखता. मैं सिर्फ़ कुछ पैरेग्राफ़ नक़्ल कर रहा हूँ –
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उसे आवाज़ ही कहना होगा. हाँ, वह आवाज़ ही थी. रात होते न होते वह हल्के-से मुझे घेरने लगती. मानो सेमल की रूई का उजला रेशा अँधेरे में तैरता हुआ आकर मुझे हर ओर से लपेट ले रहा हो. वह फुसफुसाहट से भी कम थी. मौन के इलाक़े के ठीक बाहर खिंची लहराती-सी कोई रेखा. (पेज 149)
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‘आज अन्त में मैं आपको उस व्यक्ति का कहा सुना रही हूँ जिसने हमारे शहर में इस कार्यक्रम की कल्पना की थी. …. प्रेम अनन्त में भागीदारी का नाम है. मृत्यु इसीलिए उसे बाँध नहीं पाती. उसमें शामिल हो जाती है…’. (पेज 187)
मगर मैं कहाँ तक पैरेग्राफ़्स की नक़्ल करुँगा. मैं तो ख़ुद उसी बयाबान में शामिल हो रहा हूँ. मैं प्लाट की बात नहीं करूँगा, न संवाद और न मंज़र निगारी की मगर भाषा पर मैं ज़रूर कुछ कहूँगा. मैं आपको उपन्यास का सारांश, उसकी कहानी भी नहीं बता सकता क्योंकि वह मुझे ख़ुद भी नहीं पता. बस मुझे तो ‘क़यास’ की भाषा पढ़ते समय विटगेंसटाइन की वो बात बार-बार याद आती रही कि भाषा की फ़ितरत, उसकी प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह जो कह नहीं पाती उसे छलकाती जाती है. उपन्यास में जो कहा गया, वह तो है मगर जो नहीं कहा गया, उसके लिए दिमाग़ी कसरत की ज़रूरत नहीं क्योंकि वह छलक रहा है.
एक भाव, एक संवेदना, एक एहसास की तरह. ऐसी भाषा लिखना आसान काम नहीं था. प्रेम के रहस्य की मीमांसा इसी भाषा में की जा सकती थी. और ये भाषा सिर्फ़ उदयन वाजपेयी ही लिख सकते थे क्योंकि यह उनकी रूह के नाप की भाषा है. मैं कहना चाहूँगा कि किसी भी भाषा के लिए उदयन वाजपेयी का यह उपन्यास बहुत बड़ी धरोहर है. अन्त में यह भी एतराफ़ करता हूँ कि मैंने इस उपन्यास के बारे में जो भी लिखा है, वह भी एक क़यास ही है, बड़ी और आलीशान रचना कभी पूरी तरह नहीं खुलती है क्योंकि वह मोबीडिक की तरह अपना एक हिस्सा हमेशा ओझल रखती हैं. इसलिए मुझे एहसास है कि मैं मोबीडिक के किरदार कैप्टन अहअब बनने के सिवा कुछ नहीं कर सका हूँ.
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ख़ालिद जावेद उर्दू के सुविख्यात उपन्यासकार और कहानीकार . बरेली में कई सालों तक दर्शनशास्त्र का अध्यापन. इन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में उर्दू के प्रोफ़ेसर. ख़ालिद जावेद के दो कहानी संग्रह ‘बुरे मौसम में’ और ‘आखिरी दावत’ तथा दो उपन्यास ‘मौत की किताब’ और ‘नेमत खाना’ प्रकाशित हैं. हॉल ही में आपने दो उपन्यास लिखे, जिनमें से एक ‘एक खंजर पानी में’ शीघ्र प्रकाश्य है. आपकी कुछ कहानियों को प्रिंसटन यूनिवर्सिटी और जाधवपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. ख़ालिद जावेद की कृतियों का हिन्दी समेत कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है. आपको 1996 में कथा सम्मान, 2017 में दिल्ली उर्दू अकादेमी सम्मान, 2014 में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और ‘मौत की किताब’ उपन्यास के लिए पाखी सम्मान 2018 में मिला है. |
खालिद जावेद का उदयन के उपन्यास ‘ कयास’ पर समीक्षात्मक कयास बहुत ही दिलचस्प लगा। रेत के उड़ते टीलों के रूपक से इस उपन्यास मन को परखने का उदाहरण पाठकों के लिए मददगार होगा। जब मैंने इस कृति को पढ़ा था तब मुझे भी यह अहसास हुआ कि जीवन सच की परछाईं जैसा ही तो है और परछाईं कभी ठहरती नहीं। परछाईं सच का कयास ही है। जावेद भाई का कयास पर कयास इसी मायने में पाठकों को एक और कयास लगाने को ज़रूर प्रेरित करेगा।
बस पढता चला गया।क्योंकि इसमे रुकावट के लिए खेद है का भान स्वयं टिप्पणीकार की ओर से नही है।वह तैर रहा है किस उम्दा तरीके से और हम मे उसके साथ होने की इच्छा बढती जाती है।
उदयन और खालिद जावेद को बधाई।
बहुत। ।
अद्वितीय समीक्षा है, जिन्होंने पढ़ा है वे फिर से पढ़ने का मन बनायेंगे, और जिन्होंने नहीं पढ़ा वे
उत्सुक आँखों की जोत लिये इस उपन्यास को पढ़ने के लिये व्याकुल हो जायेंगे ( ये प्रसंग रसिकों के लिये है ) .
हमारे समय के श्रेष्ठ रचनाधर्मिताओं में उदयन
जी का वैशिष्ट्य स्थान है. उनमें कई विविधतायें हैं-व्यक्तिगत, कलागत .
ख़ालिद जावेद जी अन्वेषक हैं जिन्होंने कृति के केन्द्र में ( मर्म ) पहुँचकर,पैठकर ,खोजकर , खोलकर जो कौतुकी, जिज्ञासा लाये हैं. वह शिल्प और शैली की भी आत्माभिव्यक्ति है , अविष्कारक-उदयन जी ने जो प्रेमाख्यान की अनगिन छवियों की निराली छँटा बिखेरी है वह निस्संदेह अद्भुत है.
उर्वरकता तो बीज का घर भी है .
जावेद जी ने सूक्ष्मदर्शी पड़ताल की है , रेत के स्तूप की तरह , जो प्रेम की मंद-मंद बयार में रेत के असंख्य कणों को अपने साथ लेकर जाती है
और फिर रेत के स्तूप को बदल देती है.
उपन्यास में एक ही धारा से कई धारायें निकलती हैं चुनाँचें ये उपन्यास और समीक्षा सहस्रकमल है.
जिसके रंग,गंध,स्पर्श, चित्र, चित्त में बस जाते हैं.
जावेद जी , उदयन जी, अरुण जी व पाठकों के प्रति
आभार.
वंशी माहेश्वरी.
यह अनोखा उपन्यास मैंने अभी तक नहीं पढ़ा इसका मलाल तो कुछ दिनों में, इसे पढ़ लेने पर ,दूर हो जाएगा। पर यह कचोट नहीं मिटेगी कि खालिद जावेद की अंदरूनी आंखों में इसका रिसाव होने तक किसी से या कहीं से भी इसके होने तक का सुराग़ नहीं मिला। या शायद यह मेरे घोर अनपढ़पन का ही नतीजा हो!वैसे अपनी हिन्दी में उन रचनाओं का,जिनके ज़िक्र से दिल दिमाग़ को ख़ुराक़ मिलती हो, तिजोरियों में बंद रहना आम बात है।और आलोचन विवेचन की इबारत में इस तरह की बहुआयामी नज़रसानी और हिन्दी की बुलंदी तो सचमुच अनोखी उपलब्धि है।
गजब की समीक्षा है।हिंदी में ऐसी समीक्षाएं दुर्लभ जैसी हैं। जिस ऊंचाई पर रचना पहुंची है, उसी ऊंचाई तक या उससे ऊपर बढ़ती हुई यह रचना को और ऊपर उठा रही है। किसी महान रचना को ऐसी दृष्टि से वही परख सकता है जो खुद भी गहन संवेदना से परिपूर्ण एक सर्जक हो और जिसके पास विशद अध्ययन से प्राप्त विविध संदर्भों को जोड़ने वाली समृद्ध भाषा हो। उदयनजी और खालिद जावेद जी दोनों को सलाम।
दिवा भट्ट
एक अनूठे उपन्यास के साथ सह-लेखन करती समीक्षा।बधाई।