मैं रावण नहीं हूँ |
शत्रुघ्न ने रावण पर केस ठोक दिया, जुबानी खबर थी.
शत्रुघ्न सिंह रघुवंशी ने लंका के राजा रावण पर सीता जी के अपहरण का केस उत्तरप्रदेश के हरहुआ थाने में दर्ज कराया. केस बनारस न्यायालय की तरफ हस्तानांतरित कर दिया गया. कल पहली सुनवाई होगी – अखबारों की सरगर्म खबर थी.
अगले दिन न्यायालय में तिल रखने की जगह नहीं थी. क्या रावण आएगा? उसे सम्मन कहाँ भेजा जाएगा? लोग हँसी-ठठ्ठा कर रहे थे. क्या मजाक है यार, हजारों साल पहले के किसी मनुष्य पर केस! अच्छा टाइमपास था. ऐसा कुछ न हो तो बनारसी ऊब जाएँ.
मुख्य न्यायाधीश ने कुर्सी सम्हाली और केस को आँखों के पास लाकर पढ़ा और फैसला लिखकर सुना दिया – ‘रावण को न्यायालय में बुलाना सम्भव नहीं है इसलिए यह केस मैं खारिज करता हूँ.’
मजा पानी के लिए आए बनारसियों का मुँह लटक गया.
‘आगे से इस तरह के बेबुनियाद केस कर के न्यायालय के कीमती समय को बर्बाद करना दण्डरहित अपराध नहीं रह जाएगा’, न्यायाधीश ने हिदायत देकर न्यायालय को बर्खास्त कर दिया.
मैं न्यायालय के खुलते ही आ गया था और पीछे बैठा था. मुझे उम्मीद थी कि मेरा नाम लेकर पुकारा जाएगा. मुझमें अनेक अवगुण थे लेकिन न्याय का मैंने यथासम्भव पालन किया था. न्याय के प्रति मेरी आस्था का ही परिणाम था कि दूत हनुमान को मैंने जीवित जाने दिया. जबकि वे दूत की भूमिका में मेरे पूत की हत्या कर असफल हो चुके थे, तब भी मैंने उन्हें जाने दिया. ऐसे अनेक अन्य उदाहरण मिलेंगे मेरे जीवन से.
हजारों साल से मेरे पुतले जलाए जाते हैं, मेरा हर तरह से हनन किया जाता है, अपमान किया जाता है, मैंने कभी कोई प्रतिक्रया नहीं महसूस की. न अच्छा, न बुरा. लेकिन जब यह केस मुझपर किया गया तो अपने महल के खण्डहरों में मैं भी बेचैन हो गया. अगर हजारों साल बाद रावण पर केस किया जा सकता है तो रावण आ भी सकता है. तो मैं आ गया.
मैंने न्यायाधीश को रोका और बताया कि मैं अभियोग का जवाब देने आ गया हूँ. मेरी बात पर सभी हँसने लगे.
मैंने अपनी वेश भूषा का परीक्षण किया, कहीं आज के हिसाब से कुछ ज्यादा नाटकीय तो नहीं लग रहा है? मैंने रेशम की चौड़े पाढ़ वाली धोती पहन रक्खी थी और रेशम का ही गमछा ओढ़ रक्खा था. मेरे किंचित लम्बे केश पीछे की तरफ सँवारे हुए थे और माथे पर त्रिपुण्ड था. मेरी भुजाओं पर भस्म लगा हुआ था और गला, कान तथा मस्तक भी भस्म रंजित था. मैं देवगन गोत्र का ब्राह्मण हूँ, जो काश्यप गोत्र से उद्भूत है. आखिर यही मेरी वेशभूषा है.
लोग मेरी वेशभूषा पर नहीं मेरी बात पर हँस रहे थे. मैंने कोई परिहास तो किया नहीं था? तो क्या आजकल भारत में लोग सामान्य बातों को भी परिहास समझते हैं.
पीछे की कुर्सी से उठकर मैं न्यायाधीश के सामने आ खड़ा हुआ. मैंने उनके प्रति भरपूर सम्मान प्रकट करते हुए कठघरे में आकर अपना बयान देने की अनुमति माँगी. कठघरे में खड़े होने के बाद मैंने ध्यानपूर्वक शोर मचाती भीड़ को देखा. कुछ पल में ही शान्ति हो गई.
मुझसे गीता पर हाथ रखकर शपथ लेने के लिए कहा गया. मैंने मना कर दिया. यह किताब बहुत बाद में लिखी गयी थी, मुझसे अगर शपथ ही लिवाना हो तो अष्टावक्र की महागीता ले आना होगा. महागीता मँगाई गई. मैंने सत्य बोलने का शपथ लिया.
न्यायलय में सन्नाटा पसरा हुआ था. मैंने किसी तरह की माया का प्रयोग नहीं किया लेकिन लोगों ने स्वतः ही अपने-अपने यंत्र स्थगित कर रख दिए और सुनने के लिए कान ओड़ लिए थे. मेरे सामने विविध तरह के मनुष्यों का हुजूम था. सहस्त्रों वर्षों में अंतर यह हुआ है कि मनुष्य और अधिक निर्बल, अनात्म और दीन हुआ है. मेरा मन तिक्त करुणा से भरने लगा. मैंने इस भाव को रोका और अपना बयान देना शुरू किया:
1.
मैं रावण हूँ. मनुष्य के सर्वोत्तम अहंकार का प्रतीक! मेरी इसी रूप में संसार में पूजा होती है. मेरे पुतले जलाए जाते हैं. मेरा स्वाभिमान जायज था, जब मैंने कहा- ‘एको अहम् द्वितीयो नास्ति, ना भूतो ना भविष्यति!’ मुझ जैसा ना कोई पैदा हुआ है ना होगा तो क्या यह सही नहीं था?! मैं मनुष्य की सर्वोत्तम प्रतिभा का भी प्रतीक हूँ. इस पहलू को बहुत महत्व नहीं दिया जाता है. मुझसे बड़ा वैज्ञानिक, मुझसे समर्थ कवि, मुझसे बड़ा भक्त आज तक इस पृथ्वी पर नहीं पैदा हुआ.
मैंने ही पृथ्वी पर पहली और अन्तिम बार स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने का रास्ता आविष्कार कर लिया था. इतिहास के उस गहरे अंधकार में विमान बनाकर उड़ने का सपना पूरा किया था.
मैंने ही कोशिश की थी कि कुछ ऐसा आविष्कार करूँ कि बाप के सामने बेटा ना मरे, पत्नी के सामने पति ना मरे. मैंने ही मनुष्य को देवताओं के सब सुख सुलभ कराने का प्रण लिया था. मैंने ही कोशिश की कि कुछ ऐसा आविष्कार करूँ कि संसार हमेशा के लिए मृत्यु के करुण विलाप से मुक्त हो जाए. मेरे इस मानवीय पक्ष की उपेक्षा की जाती रही है, जबकि विश्व मेरी कविताओं से शिव की आराधना करता है. मैंने रावणहत्था नामक संगीत वाद्य का आविष्कार किया, जिससे आगे चलकर अनेक तारवाद्य विकसित हुए. लेकिन मेरे ये अवदान पण्डितों द्वारा चर्चा से बाहर रक्खे जाते हैं.
मैंने ही वे सभी शक्तियाँ हासिल कर ली थी जो सिर्फ देवताओं के पास थीं. और तुर्रा यह कि मैं उन्हें जन-जन तक पहुँचा देने की कोशिश में था.
देवता मुझे हरा नहीं सकते थे. मेरे पास भक्ति का बल था. देवताओं के पास क्षम्य छल था. अगर छल नहीं करते विष्णु तो मुझसे पशुपति को छीन नहीं पाते! एक तो योग बल से मुझे लघुशंका से पीड़ित किया और पथिक बनकर हर हर महादेव को हर लिया. मैं शिव के सामने दसों सिर चढ़ा देता था. दशसिर की ठोस परिकल्पना मेरे लिए की गई थी. मेरे जन्म के साथ मेरा नाम दशग्रीव, दशानन दिया गया था. मेरे तेजस्वी नानाद्वय माल्यवान और सोमाली ने मेरी दो बाहुओं में दस भुजाओं का बल और मेरे एक मस्तक में दस मस्तकों का तेज देखा था. और उसे मैंने साबित किया.
मैं पचपन विद्याओं का पण्डित बना. दस सिर यानी दस तरह की मेधा में पारंगत.
ब्रह्मा भी सिर्फ पंचतत्व में ही पारंगत है किंतु वे जगत पिता है. मैंने उनसे निवेदन किया था कि विधि में कुछ ऐसा परिवर्तन करें कि पिता को पुत्र की अर्थी को कंधा न देना पड़े और स्त्री को पति के लिए विलाप ना करना पड़े. इस बात के प्रत्युत्तर में उनकी अजीब सी अर्थहीन पितात्मक मुस्कान ने मुझे सुख नहीं पहुँचाया. मैंने कहा अगर आप नहीं करेंगे तो मैं तीनों लोकों पर अधिकार कर स्वयं ये विधियाँ लागू करूँगा.
2.
मेरी शक्ति के आदि स्रोत थे महादेव शंकर. महाबली, महाकवि, महाराजा, महाज्ञानी, महापण्डित, महान रावण, शंकर के सामने स्वयं को सम्पूर्ण समर्पित कर देता था. इसीलिए तो मैंने उन्हें मना लिया था अपने साथ अपने धाम ले जाने के लिए. भोले शंकर ने कहा कि कहीं भूमि पर मत रखना. मैं देवघर तक आ गया था कि भगवान विष्णु कपट रूप बनाकर पहुँच गए. योगी रावण लघुशंका की इच्छा को वर्षों तक दबाए रख सकता था लेकिन उस समय मूत्र त्याग की ऐसी प्रबल इच्छा उठी थी कि क्या कहूँ.
मैं इतनी देर तक लघुशंका करता रहा कि वहाँ एक तालाब बन गया.
एक तो मुझसे छल से शिव को छीन लिया और मुझसे इतनी देर तक पेशाब करवाया कि वहाँ एक तालाब बन गया! आज लोगबाग उस तालाब में नहाकर रोग-शोक से मुक्त होते हैं. मुझे इससे कोई शिकायत नहीं लेकिन मेरा तो जैसे बल ही निकाल लिया. मेरे आराध्य महादेव शंकर पृथ्वी पर गंगा को ले आने के लिए विख्यात है और मेरे नाम से विष्णु ने पेशाब से तालाब बनाने का श्रेय जड़ दिया.
ब्राह्मण वेश! विष्णु हमेशा ब्राह्मण का वेश बनाकर क्यों छलते हैं? इसलिए कि ब्राह्मण सहज विश्वसनीय है? वह दीनहीन बटुक किसी को छल नहीं सकता है. विष्णु ने ब्राह्मण को अविश्वसनीय बना दिया.
लेकिन अवतार जब लेते हैं तो किसी न किसी राजघराने में ही लेते हैं!
देवता होकर छल?! शोभा नहीं देता. अगर यह काम रावण करता तो उतना कदरूप नहीं लगता. रावण दुष्ट था. रावण में अक्षम्य दोष थे. रावण के अपकर्म ने रक्ष संस्कृति को राक्षस विशेषण में बदल दिया. तो एक और छोटा दोष छुप जाता.
छल! वह भी भक्त रावण के साथ?
मैं अपनी भाव बुद्धि और भक्ति की शक्ति से शिव को अपने नगर ले जा रहा था. विष्णु को भी भक्ति की शक्ति से श्रीलंका से शंकर को वापस ले आना चाहिए था.
मैं ईश्वर पर से राजघरानों, ब्राह्मणों और उच्च श्रेणियों के एकाधिकार को मिटा देना चाहता था. मैं ईश्वर को सार्वजनिक कर देना चाहता था. हरि को भजे सो हरि का होई, जात पात पूछे नहीं कोई.
मैं महाब्राह्मण रावण, महापण्डित विश्रवा और महाज्ञानी केकसी का ज्येष्ठ पुत्र. मैं जब ब्राह्मण कह रहा हूँ तो इसका अर्थ चार वर्णों में से किसी वर्ण से लगाया जाए, ना कि जाति से? ब्राह्मण मेरे लिए एक जाति नहीं एक वर्ण है. जो भी ब्रह्म की उपासना करे वह ब्राह्मण, चाहे वह किसी भी कुल में पैदा हुआ हो.
मैं भी तो एक दरिद्र शिक्षक के घर ही पैदा हुआ था.
क्रोध आया मुझे विष्णु के बार-बार के छल से और मैंने उन्हें सबक सिखाना तय कर लिया.
मैं क्या दोषी था अगर चाहता था कि किसी बाप को बेटे की अर्थी को कंधा ना देना पड़े, पृथ्वी पर आ चुका हर प्राणी अमर हो जाए, जो भी हर को भजे उसे प्राप्त कर ले और धरती से स्वर्ग तक सोने की सीढ़ी बन जाए. इतिहास के उस गहरे अंधकार में मैं जाति-पाति मिटा रहा था, ऊँच-नीच और साधु-नीच का भेदभाव मिटा रहा था तो क्या दोष था?
मैं इस संसार का पहला वैज्ञानिक था, जिसे देवताओं के द्वारा बदनाम कर दिया गया. मेरी अच्छाइयों को तो दबा ही दिया गया. सिर्फ दस सिर वाला रावण सामने रह गया. सीता का हरण करने वाला, दुष्ट, कामी, लोभी, छली रावण!
सीताजी को हासिल करना ही मेरा उद्देश्य होता तो क्या कठिनाई थी? मैं भी जनक के दरबार में आता-जाता था और शिव के धनुष की प्रत्यंचा बहुत आसानी से चढ़ा सकता था. लेकिन अपने आराध्य महादेव शंकर के अमोघ अस्त्र को उठाना मेरी व्यक्तिगत धार्मिक मर्यादा के विपरीत था. इसलिए मैं चुप रहा. सीताजी मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं थी.
मैं इन देव संस्कृति के पोषक सूर्यवंशी राजकुमारों का घमण्ड तोड़ना चाहता था. जो मर्यादा के नाम पर ढोंग में फँसे हुए थे. मूर्ख मर्यादा के ढोंग में! महादेव शंकर के आविष्कार को खण्डित करते हुए जिन्हें मर्यादा का तनिक ध्यान न रहा, लेकिन माँ ने कह दिया तो राज्य छोड़कर कायरों की तरह वन में चले आए.
स्त्री के प्रति दम्भपूर्ण कुंठित आस्था का प्रबल प्रदर्शन ही देवताओं का गुण माना जाता है और देवताओं के नकलची ये सूर्यवंशी सच्चाई से आँखें चुराते थे. उसका अपमान करते थे. उसे अपंग करते थे.
3.
मेरी बहन सच्चाई थी. मेरी बहन मीनाक्षी उस निविड़ एकांत में औरत होने की सचाई थी.
राम या लक्ष्मण के सामने उसने प्रेम प्रस्ताव रखा तो क्या अनुचित था? क्या यह उनके सौंदर्य और पौरुष को एक स्त्री द्वारा दिया गया सम्मान नहीं था? भोग-विलास और उन्मुक्त आनंदोत्सव तो उस समय समूचे भारत में स्वीकृत था. यह सिर्फ रक्ष संस्कृति की ही विशेषता नहीं थी. देवता और मनुष्य सभी एकाधिक सम्बन्धों को सहज मान्यता देते थे. यह तो सिर्फ राम ही थे जिन्होंने एक पत्नीव्रत का आविष्कार किया. यह उनकी व्यक्तिगत पसन्द थी. इस मक्कार एक पत्नीव्रत सिद्धान्त को सार्वजनिन बनाने के लिए मेरी प्यारी बहन मीनाक्षी को बलि चढ़ाना क्यों जरूरी था? बलि नहीं तो क्या? एक स्त्री की हत्या कर देने से ज्यादा बड़ा पाप उसका नाक काट लेना है जैसा कि इस मुहावरे का अर्थ है, उसका मानहरण कर लेना है, जो लक्ष्मण ने किया.
मीनाक्षी के प्रेम प्रस्ताव के उत्तर में वे ना कह सकते थे! और शायद उन्होंने ना किया भी लेकिन अपने अहंकार के प्रदर्शन के लिए सीता से मिलवाना क्यों जरूरी हो गया? क्या राम को पता नहीं था कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति सामान्यतया सहज नहीं होती? और अपने से सुंदर स्त्री के प्रति तो कभी नहीं! फिर सीता का प्रदर्शन कर उस अभागी अकेली स्त्री के अहंकार और ईर्ष्या को भड़का देना क्यों जरूरी था? क्योंकि वह अरण्य-कन्या थी? वन की बेटी थी?
दो-दो असाधारण पुरुष थे. किसी भाँति उसे लौटा सकते थे. उसके हाथ-पाँव बाँधकर भी मेरे पास भेज देते तो मैं बुरा नहीं मानता लेकिन उसका नाक काट दिया! उसे कुरूप बना दिया? उसका आत्मसम्मान मिटाकर किसी अन्य पुरुष के लायक नहीं छोड़ा? किसी स्त्री की कामेच्छा की पूर्ति नहीं करने वाला पुरुष नर्क का भागी होता है क्या राम यह नहीं जानते थे? परम्परा से हर कामशास्त्र एकाधिक सम्बन्धों को सहज मानता है, क्या राम को नहीं पता था?
आरण्यक तपस्वियों की अकारण हत्याएँ क्यों की जा रही थीं? अरण्यवासियों को विधर्मी क्यों कहा जा रहा था? उनका अकारण वध, बलात्कार और शिकार क्यों किया जा रहा था? अगर विधर्मी का अर्थ अलग धर्म होता है तो इसमें क्या बुराई थी? मुझे इन प्रश्नों का प्रत्युत्तर चाहिए था. मैं भी अरण्यसुत था.
क्यों भला? सिर्फ उच्च जातियों में पैदा हुए प्रतिभाशालियों को ही विज्ञान और दर्शन, तपस्या और अनुसंधान का अधिकार क्यों दिया जाए? सिर्फ मनुष्य होने के नाते ही हर किसी को अपने सर्वांगीण विकास का अधिकार क्यों न दिया जाए? मैंने जाति-पाति, ऊँच-नीच की अवधारणा को उसी समय खण्डित कर दिया था.
अगर इस पृथ्वी पर मेरा अधिकार हुआ होता तो इतिहास के उस गहरे अंधकार में ही यह दुनिया मनुष्यों के हवाले हो गई होती.
मेरी बहन जिसका नाम नीलमणि था. जो नीलमणि के समान ही सुंदर थी. उसकी आँखें इतनी लंबी थीं कि लगता था चेहरे से बाहर निकल जाएँगी. इन्हीं मछली जैसी आँखों ने उसका प्यार का नाम मीनाक्षी रखवाया था. वह सूर्पणखा नहीं थी. उसके नाखून अनाज फटकने वाले सूप की तरह नहीं थे. वह रक्षकन्याओं में प्रचलित सौंदर्य रीति के अनुरूप थोड़ा लम्बे नाखून रखती थी. क्या लम्बे नाखून स्त्रियों की खूबसूरती बढ़ा नहीं देते? लेकिन ये देवता, ये रजवाड़े, ये उच्चभ्रू आर्य! इनके हृदय में अपनी संस्कृति के सिवा किसी भी दूसरी संस्कृति के लिए सहिष्णुता नहीं थी. लम्बे नाखून रख लिए तो सूर्पणखा हो गई. आज तो सारी औरतें ही तब सूर्पणखा हैं.
वह इतनी सुंदर थी कि कोई भी वीर्यवान मर्द उसका प्रेमी हो सकता था.
रक्ष संस्कृति में भोग पर प्रतिबंध नहीं था और नीलमणि मीनाक्षी को मैंने उन्मुक्त यौन आचरण की राजकीय मुक्ति दे रखी थी. मेरे पास अपने एक पाप के परिहार का दूसरा कोई रास्ता नहीं था.
नीलमणि को विद्युतजिह्व नाम के एक युवक से प्रेम हो गया. वह एक साधारण युवक था. जो संगीत में डूबा रहता था. आत्मलीन रहता था. नीलमणि ने मेरी आज्ञा लिए बिना क्या सोचकर उस युवक को अपना प्रेमी घोषित कर दिया?
और प्रेम! मुझे तो इस शब्द पर ही अविश्वास है. समुद्र आपकी गली से गुजरता होगा, नदी आपको आकर पानी पिलाती होगी, सूरज आपकी खिड़की पर दस्तक देता होगा, लक्ष्मी आपके आँगन में झाड़ू-बुहारी करती होगी, मैं इन सब बातों पर विश्वास कर लूँगा लेकिन कभी किसी स्त्री ने किसी पुरुष को प्रेम किया है; मैं इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता हूँ. माना कि प्रेम, करुणा और ममता स्त्री के स्वाभाविक गुण हैं. माना कि स्त्री और ईश्वर दोनों में आठ-आठ गुण है. दोनों गुणों और आनन्द में समान हैं. माना कि स्त्री ईश्वर का ही देह रूप है. वह मित्र, प्रिया और माँ है. और माँ उसका देवताओं की दृष्टि में सर्वोत्तम रूप है. यह देवता न अजब पाखंडी हैं!
ये तीनों ही गुण स्त्री के समान गुण हैं. इनमें छोटा-बड़ा आँकने का गणित रावण को नहीं समझ में आता है. वह श्रेष्ठ भगिनी, श्रेष्ठ जननी और श्रेष्ठ सहभोग्य है.
मैं स्त्री के भोग्या रूप की आराधना करता था. स्त्री विषयक मेरे सिद्धान्त ही मेरी मृत्यु और पराजय के कारण बने.
मेरे विचारों के निर्माण में मेरे ब्राह्मण पिता विश्रवा, मेरी माँ केकसी और मेरे नानाद्वय माल्यवान और सोमाली की केंद्रीय भूमिका थी. मेरे नाना सोमाली ने बहुत सोच-समझकर मेरा नाम रावण रखा था. रव का अर्थ आँधी तूफान जो था. वे रावण को ऐसा बनाना चाहते थे कि उसके नाम भर से लोग ऐसे काँपें जैसे आँधी-तूफान से और मैं ऐसा ही बना. मैंने रक्ष-संस्कृति को पुनर्जीवित किया. मैंने कुबेर को हराकर लंका को अपने अधीन बना लिया. मैंने देवताओं का घमण्ड चूर-चूर कर दिया.
देवताओं ने तो राक्षसों का लगभग सर्वनाश ही कर दिया था. यह मेरे जन्म से काफी पहले की बात है लेकिन उस वृत्तान्त को जाने बिना आप समझ नहीं पाएँगे कि महाबली रावण खल, कल्मष, गताचार कैसे बना.
तब लंका पर मेरे बड़े नाना माली का राज्य था. जिस समय दिवोदास के राज्य में प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का राज्य था. तब विरोचन और इंद्र के बीच संसार प्रसिद्ध युद्ध हुआ था. मेरे तीनों नाना विरोचन की मदद करने के लिए आगे आए. विरोचन के साथ माली और उन सब के परिवारों की देवताओं ने निर्मम हत्या कर दी.
माल्यवान और सोमाली किसी दैवयोग से चार साल की केकसी को साथ लेकर भाग निकले. उनके सामने ही उनके परिवार के स्त्री-बालक-वृद्ध सबकी समूल हत्या कर दी गई थी. मेरी माँ ने चार साल की उम्र में यह भीषण नरसंहार देखा था. इस युद्ध में शुक्राचार्य ने अनमने भाव से राक्षसों की मदद की. बली से लेकर प्रह्लाद तक सब ने उनकी इच्छा का उल्लंघन कर इंद्र से संधि जो कर ली थी. अवसर का लाभ उठाकर इंद्र ने ऐसा नरसंहार करवाया जैसे उसने संसार से राक्षसों का बीज ही समाप्त कर देने का संकल्प ले डाला हो. नियति को यह मंजूर नहीं था. बिना राक्षसत्व के देवत्व का महत्व असम्भव है, यह नियति को पता था. माल्यवान और सोमाली न केवल देवताओं और इंद्र के घेरे से बच निकले वरन वे पाताल लोक में जाकर छुप गए. आज जिसे आप सोमाली द्वीप के नाम से जानते हैं.
मेरे नानाद्वय समझ चुके थे कि इंद्र से बदला शस्त्र से नहीं, बुद्धि से लेना होगा. क्योंकि इंद्र ने इस युद्ध में राक्षसों की स्त्रियों तक को नहीं बख्शा था. वह तो मेरे नानाओं का सौभाग्य था कि वे चार वर्ष की केकसी को साथ ले जाने में सफल हो गए, नहीं तो इनके पूरे वंश का ही नाश हो गया होता.
ऊपर से जले पर नमक यह कि इंद्र ने कुबेर को लंका का अधिपति बना दिया.
अज्ञातवास के दौरान जब इन्हें इस नयी स्थिति का पता चला तो वे खौल उठे. कुबेर के कारण अब यह दोनों इस बात के लिए चिंतित हो आए की देवता अब लंका में उनके अनुयायियों की छाँट-छाँट कर हत्या करवाएँगे. वे बहुत परेशान हुए लेकिन हताश नहीं हुए. मेरे नाना ने संकल्प लिया कि वे जीते जी लंका को हासिल करके रहेंगे.
यह तो सभी जानते हैं कि परमपिता ब्रह्माजी ने सृष्टि के सभी तत्वों, जीव-जंतुओं, मनुष्य, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, देव और दानवों को उत्पन्न किया. देव और दानव ब्रह्मा जी के पुत्र कश्यप ऋषि की संताने हैं. लेकिन रक्ष, यक्ष, गंधर्व या किन्नर तो मनुष्यों के ही विशेष प्रकार हैं. मनुष्यों में वृत्तियों के अनुसार वर्णों का और कर्मों के अनुसार विशेषणों और जातियों का निर्माण किया.
यह तो सब को ज्ञात है कि पूर्व काल में जल-जंतुओं का निर्माण करने के बाद ब्रह्माजी ने उसे उपस्थित लोगों को सौंप दिया. उनमें से आधे ने कहा कि हम इनका रक्षण करेंगे, वे रक्ष कहलाए और आधे ने कहा हम इनका यक्षण करेंगे, वे यक्ष कहलाए. रक्षण यानी रक्षा करना और यक्षण यानी पूजा-पाठ, सेवा, संरक्षण आदि. इन रक्षकों का नेतृत्व हेति और प्रहेति कर रहे थे. प्रहेति तो तपस्या करने चले गए किंतु हेति ने मया से विवाह कर विद्युतजिह्व नामक पुत्र को जन्म दिया. विद्युत्जिहव ने सुजिह्व को और सुजिह्व ने माल्यवान, सोमाली और माली को पैदा किया.
माल्यवान ने वज्रमुष्ठी, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्रों को जन्म दिया. सुमाली ने प्रहस्थ, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धुम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संहलादि, प्रघरू और मारकर्ण नामक दस पुत्रों को जन्म दिया. माली ने अनल, अनिल, हर और संपाती नामक चार पुत्रों को उत्पन्न किया.
अब जरा विरोचन का वंश वृक्ष भी समझ लीजिए. ब्रह्मा के पुत्र कश्यप, काश्यप और काश्यपेय में से कश्यप की पत्नी दिति से दानवों का और अदिति से देवताओं का जन्म हुआ. कश्यप की ही अन्य पत्नियों कद्रू और विनीता से सांप आदि सरीसृप और गरुड़ पक्षी आदि उत्पन्न हुए. कश्यप ने ही मनु के रूप में जन्म लेकर मनुष्य को जन्म दिया.
देवता, दानव और मनुष्य तीनों परमपिता ब्रह्माजी के पास जीवन सम्बन्धी निर्देश लेने के लिए गए. ब्रह्मा जी ने उन्हें द अक्षर का ज्ञान दिया. देवता के लिए द यानी दमन क्योंकि देवता भोगवादी होते हैं. दानव के लिए द का अर्थ दया क्योंकि दानव स्वाभाविक क्रूर थे. मनुष्य के लिए द अर्थात दान क्योंकि मनुष्य संग्रही वृत्ति का होता है.
दिति के दानव पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु में से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद और उनके पुत्र विरोचन थे.
युद्ध तो देवताओं और दानवों के बीच था. हम रक्षकों का इससे सीधे-सीधे कुछ लेना-देना नहीं था. लेकिन यह रक्ष-संस्कृति वस्तुतः भक्ष संस्कृति में बदल चुकी थी. यह प्रवृत्तियों में दानवों के पदचिन्हों पर चले. माली, सोमाली और माल्यवान के पुत्रों ने लंका में राज्य करते हुए हर तरह के अत्याचार अनाचार किए. भोगवादिता में राक्षस देवताओं से आगे निकल गए और क्रूरता में दानवों के प्रतिद्वन्द्वी बन बैठे. इस सांस्कृतिक पतन ने ही राक्षस शब्द को दानव का समानार्थी बना दिया, जबकि यक्ष अपनी जगह सुरक्षित और संयत रहे.
दानव यानी आसुरी वृत्तियों से उत्पन्न मानव. इनके जन्म का प्रसंग भी बड़ा रोचक है. अदिति से उत्पन्न आदित्यों के यशःज्ञान से ईर्ष्या-पीड़ित दिति ने संध्या वेला में कश्यप ऋषि से सहवास की अभ्यर्थना की. कश्यप ने कुबेला जानकर इस प्रस्ताव को टालना चाहा. उन्होंने बताया कि गोधूलि बेला में सहवास करने पर तुम्हें संतान के रूप में दुरात्माएँ प्राप्त होंगी. कश्यप ऋषि द्वन्द्व में थे. यदि पत्नी के प्रस्ताव की उपेक्षा करते तो नर्क के भागी होते और मानने पर दुष्ट आत्माएँ देह धारण करेंगी. उन्होंने शास्त्र को साक्षी मानकर सहवास किया जिससे दानव उत्पन्न हुए.
इस कथा से ऐसा लगता है कि दिति की काम भावना से दानव उत्पन्न हुए. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूँ. यह कश्यप ऋषि और बड़े बड़े ज्ञानी, देव संस्कृति के पोषक विद्वान, सिद्धजन, ये मंत्रों और सिद्धियों के मालिक थे लेकिन मन के मालिक नहीं बन सके. वे अपने ही द्वारा बनाए गए कर्मकांड और नियमों में उलझ गए.
दिति को अगर अपनी बहन अदिति से जलन थी भी तो उन्होंने अदिति के पुत्रों से ज्यादा शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करने के लिए उस ग्रह वेला को चुना था. कश्यप मुनि दो शास्त्रों के बीच फँस गए. कामशास्त्र के अनुसार सकामा स्त्री की उपेक्षा करने पर नर्क जाना होगा और खगोलशास्त्र के अनुसार वह समय सही नहीं था. फिर भी उन्होंने अपने आप को नर्क से बचाने के लिए संभोग किया और दानव उत्पन्न. मेरा सोचना है कि अगर वह मरे मन से, गिरे मन से, डरे मन से, बुझे मन से, आक्रांत मन से संभोग नहीं करते तो दानवों का स्वभाव भिन्न होता. अगर वे सिर्फ एक पति या प्रेमी की मनःस्थिति में होते तब भी ठीक था. लेकिन वे तो दो शास्त्रों के भीषण दबाव में एक डरे हुए बंधुआ पुलिंग की तरह वीर्य दान किए. अगर वे मन के मालिक होते तो क्या बेला, क्या कुबेला.
4.
ईश्वर और स्त्री की आराधना के लिए न तो कोई बेला होती है ना कोई कुबेला. अगर सच्चे और निर्भीक प्रेमी के मन से कश्यप ने दानवों को उत्पन्न किया होता तो हो सकता था कि वे देवताओं से ज्यादा अनुकरणीय होते.
विरोचन और इंद्र के युद्ध में दानवों के साथ राक्षसों का भी लगभग सर्वनाश हो गया था. कुबेर को लंका का राजा बनाकर देवताओं ने लंका-विजय को कठिन कर दिया था. माल्यवान और सोमाली के लिए किसी साधारण राजा को परास्त करना अब भी मुश्किल नहीं था. लेकिन कुबेर को धूल चटाने के लिए बहुत बड़ी सैन्य-शक्ति की आवश्यकता थी. वे सेना कहाँ से जुटाते? वे तो स्वयं छुपते-छुपाते समय काट रहे थे.
विश्रवा मुनि के मित्र भारद्वाज मुनि प्रतिदिन अपने शिष्यों के सामने माल्यवान और सोमाली की विद्वता की चर्चा किया करते थे. उन्हीं के शब्दों में ‘अगर किसी को माल्यवान और सोमाली से ज्ञान प्राप्त करने का शुभ अवसर मिल पाता तो जाने संसार का कितना बड़ा कल्याण होता. क्योंकि इस समय संसार को जिस ज्ञान की आवश्यकता है उसमें इस समय सारे संसार में उनसे कोई स्पर्धा नहीं कर सकता है. वे दोनों वैसे ही ज्ञानी है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र, शौनक आदि.’ शिष्य लोग इस बात को समझ रहे थे कि माल्यवान और सोमाली ही उनके गुरु के वास्तविक प्रतिद्वन्द्वी हैं. और इस बात का थोड़ा बहुत प्रचार भी हो गया था. सिर्फ भारद्वाज मुनि विश्वस्त थे कि वे दोनों जिंदा हैं और कुछ ना कुछ करेंगे अवश्य.
माल्यवान और सोमाली से ज्ञान प्राप्त करने का शुभ अवसर सिर्फ मुझे मिला, लेकिन इस में अभी काफी वक्त था.
धूल में मिल चुके माल्यवान और सोमाली को संसार प्रसिद्ध बनाने में एक स्त्री केकसी ने अजीब भूमिका निभाई थी. राक्षस एक बार फिर इंद्र के सामने उठकर खड़े हो सके तो इसका कारण एक स्त्री थी, केकसी, वरना रक्ष-संस्कृति का नाम लेने वाला भी कोई नहीं बचता. बावजूद इसके संसार ने नारी की ऐसी भूमिकाओं की तरफ देखा ही कहाँ है? संसार तो सिर्फ पुरुषों की सराहना करता है.
भारद्वाज मुनि भी इसके अपवाद नहीं थे. माल्यवान और सोमाली तो प्रतिदिन उनकी चर्चा में रहते थे लेकिन केकसी तो उनकी कल्पना में भी नहीं थी.
नष्टप्राय रक्ष-संस्कृति को बचाने के लिए मेरी माँ, केकसी, की भूमिका काफी बड़ी है. चार साल की केकसी के सोलह साल की युवती में परिवर्तित होने में और बारह वर्ष लगे. ये बारह वर्ष मेरे नानाद्वय ने छद्मवेश में पाताल में बिताया. कुबेर को परास्त करने के लिए शक्तिशाली योद्धाओं की अवश्यकता थी लेकिन वह तो अपने मन की बात भी किसी से नहीं कर सकते थे. क्या मालूम था कि जिसे वे अपना मित्र समझते वही इंद्र का भेदिया निकल जाता और इनका राज इंद्र तक पहुँचा देता. इनके लिए थोड़ी राहत की जगह थी केकसी, जिसे तरह-तरह की कहानियाँ सुना कर ये अपना मन बहलाया करते थे. लेकिन केकसी के बड़े होने के साथ उनका यह सुख भी जाता रहा.
कुबेर विश्रवा मुनि के ही बेटे थे. इन लोगों ने लंका के साम्राज्य में सेंध मारने की एक योजना बना डाली. अगर विश्रवा मुनि से केकसी को संतान प्राप्त हो जाए तो कुबेर का भाई होने के चलते वह ऐसे ही लंका के राज्य में आधे का हकदार बन जाएगा. केकसी के बच्चे का इस सन्दर्भ में भले विश्रवा मुनि समर्थन न करें, लेकिन विरोध भी नहीं होगा. केकसी के चौदह-पंद्रह साल की होने पर उसे देख माल्यवान और सोमाली को कुछ आशा जगी. इन लोगों ने तय किया कि संतान प्राप्ति के लिए केकसी को विश्रवा मुनि के पास भेजा जाए. मगर प्रश्न यह था की यह बात बेटी से कही जाए तो कैसे?
हालाँकि उन दिनों ऐसी इच्छा जाहिर करना मान्य था. फिर राक्षसों में तो मुक्त सहवास तक मान्य था. मगर यह प्रश्न अपनी इच्छा का नहीं था. यहाँ प्रश्न केकसी की इच्छा से जुड़ा हुआ था. पर मजबूरी ऐसी थी कि यह बात उन्हें केकसी से कहनी पड़ी थी. सुनकर वह चौंकी थी लेकिन चाचा की पूरी बात सुनकर राजी हो गई. पिता तथा चाचा के दुख का उसे भी पता था. इसके बावजूद उसने एक नया ही प्रश्न खड़ा कर दिया.
उसने पूछा- ‘वैसे वह अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहेगी, लेकिन विश्रवा जी ने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह उसे स्वीकारेगी या नहीं?’ इस प्रश्न के बारे में सोमाली और माल्यवान किसी ने नहीं सोचा था. शादी कर लेने के बाद केकसी को विश्रवा के साथ रहना होगा. ऐसे में केकसी के लिए लम्बे समय तक राज छुपाए रखना मुश्किल था. दूसरे, बच्चे के विश्रवा के संरक्षण में पलने पर खतरा यह था कि कहीं वह इनका ही विरोधी ना बन जाए.
कूटनीति के पण्डित सोमाली ने सोच विचार कर, केकसी को माल्यवान के संरक्षण में विश्रवा के पास भेज दिया. किसी भी तरह से केकसी पर विश्रवा का ध्यान चला जाए तो इनका काम बन सकता था. इन्हें कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ा. वृद्ध मुनिवर षोडशी कन्या को देखते ही विमुग्ध हो गए. मोहित मुनिवर ने जाति कुल पूछे बिना सीधे शादी का प्रस्ताव रख दिया. माल्यवान अविलंब केकसी को उनके हवाले कर वहाँ से चंपत हो गए.
सोमाली और माल्यवान के नक्षत्र सही स्थिति में थे. बारह साल बाद राजसत्ता की तरफ फेंका गया उनका कूटनीति का पहला ही पासा सही पड़ा था. मेरे जन्म तक वे दोनों दम साधे रहे. मेरे जन्म के बाद दोनों आकर हमारे साथ रहने लगे. केकसी पर लुटे-पिटे विश्रवा को अपनी पत्नी के पिता और चाचा पर शक करने का अवसर ही कहाँ था?
माल्यवान, सोमाली और मेरी माँ केकसी बचपन से ही मुझे कुबेर के खिलाफ तैयार करने में जुट गए. बचपन से मैंने एक ही बात समझी कि कुबेर मेरा सौतेला भाई नहीं, मेरा सबसे बड़ा शत्रु है. मुझे बड़ी माँ के हर व्यवहार में उल्टा ही दृष्टि आता था. विश्रवा के व्यवहार में मुझे कुबेर के प्रति सहज स्नेह और मेरे प्रति दयालुता दिखती थी. इस असहज दयाभाव से सहज ही मुझे खीझ होती थी. लंका के राजा कुबेर अगर मेरी तरफ मुस्कुराकर देखते तो मुझे दिखता कि मेरे सिंहासन पर बैठा हुआ यह देवता मुझे मुँह चिढ़ा रहा है. फिर भी मुझे राज्य का अधिकारी बनने के लिए सोलह वर्ष की उम्र तक इंतजार करना पड़ा था. सोलह वर्ष की उम्र तक भी किशोरावस्था ही मानी जाती थी लेकिन किसी योग्य किशोर के नेतृत्व को स्वीकार करने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती थी. सम्मान और विश्वास आदमी की प्रतिभा को दिया जाता था उम्र को नहीं.
इन तमाम वर्षों में मैं इस ईर्ष्या के कठिन विष को चबाता रहा. मैं नीलकंठ महादेव की तरह इसे गले में भी नहीं रख सकता था. तब भी रंग तो दिखता ही. कुबेर मेरा शत्रु. देवता मेरे शत्रु. विश्रवा…? नहीं,विश्रवा मेरे शत्रु नहीं. दयनीय पिता!
इसीलिए मैं अपने नाम को अपने प्रपिता से जोड़ना पसन्द करता था. मैं पुलस्त्य का प्रपौत्र, पौलस्त्य, और केकसी का पुत्र कहलाना पसन्द करता था. पिता की उपस्थिति तो मेरे जीवन में महज एक पुल्लिंग की थी, जिन्होंने मेरे जन्म में अपनी कामुक भूमिका निभाई थी.
5.
मेरे बाद मेरे तीन और भाई-बहन पैदा हुए. मेरे बाद कुंभकर्ण, नीलमणि और विभीषण.
विभीषण सबसे छोटा था और साधु प्रकृति का था. वह बचपन से ही बलि और प्रह्लाद के रास्तों पर चल पड़ा. उसे युद्ध नहीं शांति पसन्द थी. उसे साम्राज्य नहीं वन का एकांत रुचता था. वह भोग नहीं ध्यान में मग्न रहता था. विश्रवा का सच्चा स्नेह उसे ही मिला. वह विश्रवा और केकसी के सत्व की संतान था. वह साक्षात सत्यम् शिवम् सुंदरम् की मानव मूर्ति था. विभीषण मेरा लघु भ्राता एक सच्चा राक्षस था. यक्ष और रक्ष को उत्पन्न करने वाले निर्विकार ब्रह्मा भी उस पर गर्व करते थे. मैं बचपन से ही जानता था कि उसी के तर्पण से पुरखों की आत्माएँ तृप्त होंगी. इसीलिए जानबूझकर हमेशा उसकी उपेक्षा करता रहा. मैं चाहता था कि वह मुझसे तनिक भी प्रभावित ना हो. वह मेरे पदचिन्हों में भूल से भी पाँव न रखे. मैं उसके मन में अपने लिए उपेक्षा और घृणा उत्पन्न करना चाहता था. लेकिन हाय रे विभीषण! मेरे पाद-प्रहार के बाद भी मेरे तलवे सहलाने लगा कि कहीं मुझे चोट तो नहीं लगी.
लेकिन मैंने लेशमात्र भी भावुकता का प्रदर्शन नहीं किया. वह राम का सच्चा भक्त था और राम मेरे शत्रु पक्ष के सेनानायक. वह चाहता था कि सीताजी को लौटा दूँ और राम से क्षमा माँग लूँ. हा हा हा.
मैं जानता था कि राम ही इस सृष्टि का संचालन कर सकते हैं और लंका का संचालन यह राम का सच्चा भक्त विभीषण. इसीलिए स्वयं युद्ध पर जाने से पहले मैंने अपना राजकोष दरिद्रों और शिक्षणालयों में बाँट दिया और विभीषण के नाम राज्य लिखकर सिंहासन पर रख दिया. हालाँकि तब तक विभीषण राम के संरक्षण में जा चुका था. अगर विभीषण को मैंने राम के संरक्षण में नहीं भेज दिया होता तो मेरे मरते ही दानव और राक्षस मिलकर विभीषण का संहार कर देते. मैं रावण हूँ, भूत, भविष्य, वर्तमान का प्रत्यक्ष दृष्टा. पचपन विद्याओं का ज्ञाता. ज्योतिष, राजनीति, कूटनीति, औषधिशास्त्र, काव्यशास्त्र, कामशास्त्र आदि सर्व विद्याओं का पूर्ण अधिकारी. मैं सब जानता था.
विभीषण के अलावा हम सभी भाई-बहन भिन्न थे. हमारी अत्यंत ही लोक निंदा हुई है. अति तो यह है कि उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पश्चिमी या पूर्वी भारत में हर जगह देव संस्कृति के पोषक राजाओं के चाटुकार कवियों ने हमें बढ़ा-चढ़ाकर विरूपित किया है.
नीलमणि को, सुंदरी नीलमणि मीनाक्षी को कुरूपा, राक्षसी, कामुक सूर्पणखा बना दिया गया है. और कुंभकरण को भयानक दानव. कुम्भकर्ण! सामान्य से काफी अधिक उसकी ऊँचाई थी और दानवाकार दिखता भी था, यह सच है. लेकिन वह अति सुंदर था. वह सीधा, भावुक और समर्पित सैनिक था. वह अच्छा मनुष्य था किंतु रावण का सेवक था. मेरे और कुंभकरण के जन्म के सम्बन्ध में भी इन चाटुकार पंडितों ने वही कथा पुनर्प्रचारित की है, जो दिति के मय आदि दानव पुत्रों के बारे में फैलाई गई थी.
मेरी माँ के बारे में भी पुराण यही कथा कहते हैं कि वह विश्रवा के पास कुबेला में सहवास की इच्छा लेकर गई थी. इस कुबेला के गर्भाधान के चलते दशग्रीव दशानन रावण पैदा हुआ. किसी भी गलत परिणाम के लिए स्त्रियों को दोषी बना देना हमेशा से विरोधाभासों से भरा रहा है. एक तरफ यह दिति और केकसी को पुत्र उत्पन्न करने का दोषी बताती है और दूसरी तरफ इस तरह के सिद्धान्तों को भी औचित्यपूर्ण ठहराती है, ‘यद्यपि कुपुत्रो जायते, माता कुमाता न भवति’. कुपुत्रों को जन्म देने पर भी माता कुमाता नहीं होती.
मैं अपनी माँ की कुटिलता और विश्रवा की कामुक निर्दयता की संतान हूँ. एक युवती को अर्धवृद्ध मुनि के प्रति कौन सा कामुक आकर्षण होगा भला? स्पष्ट था कि वह एक कूटनीति के तहत सिर्फ निष्काम थी. मुनिवर अगर सिद्ध होते तो अपने संतान की भी संतान की उम्र की केकसी के प्रति उनके मन में स्नेह उत्पन्न होता ना कि कामुकता?
मेरी संसार प्रसिद्ध क्रूरता, घमण्ड और कामुकता के लिए मैं अपने पिता को श्रेय देना चाहूँगा.
इन सोलह वर्षों में मेरी माँ ने अपनी सेवा भावना से उस परिवार के हर सदस्य के हृदय पर राज किया और कुशलता से अपना राज छुपाए रही. इस बीच दो ऐसे अवसर आए जब भेद खुल जाने का भय लगा. दो बार इंद्र मिलने के लिए आए. उनके आने के पहले ही मेरे दोनों नाना किसी बहाने आश्रम से चले जाते थे.
बिना कोई पूर्व सूचना के एक दिन भारद्वाज मुनि पहुँच गए और संयोग ऐसा कि उन्होंने रावण, केकसी, माल्यवान और सोमाली को एक साथ देख लिया. वे सीधे विश्रवा के पास जाकर बैठ गए. मैं जानता हूँ कि भारद्वाज मुनि के द्वारा हमारी सच्चाई बताए जाने के बावजूद विश्रवा के लिए हम पर शक करना आसान नहीं रहा होगा. आधी घटी तो तर्क-वितर्क में ही निकल गई होगी और जब वह सत्य को जाँचने के लिए चले होंगे तब तक हम लोग बहुत ही दूर जा चुके थे. हमारे पीछे आश्रम के सभी विद्यार्थियों को दौड़ाया गया और उनके पीछे विश्रवा और भारद्वाज भी भागे लेकिन तब तक हम पहुँच के बाहर थे.
हम लोगों ने दिति की संतान मय दानव की नगरी में शरण लिया. माल्यवान और सोमाली जैसे कूटनीतिज्ञों को पाकर मय भी प्रसन्न हो गया.
उसके पास योद्धा तो थे लेकिन कूटनीतिज्ञ नहीं थे. खतरा यह था कि उसकी भी दृष्टि लंका के राज्य पर थी. इसका भी सहज समाधान मेरे कूटनीतिज्ञ नेताओं ने निकाल लिया.
उन्होंने मय दानव की बेटी मंदोदरी से मेरा विवाह करा कर दोनों का लक्ष्य एक कर दिया. सुरा सुंदरियों वाली देवताओं की सुप्रसिद्ध कमजोरी का फायदा उठाकर इन लोगों ने देवताओं को आपस में लड़ाना शुरू किया. कुबेर भले हर समय सुरासुंदरी में डूबा नहीं रहता था लेकिन इनका रसिक हो चला था. उसके पास भेजी जाने वाली युवतियों का प्रशिक्षण मेरी माँ केकसी के देखरेख में चल रहा था. जैसे-जैसे लंका पर मेरा दबाव बढ़ता गया केकसी सुरक्षा व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनाती गई. वह कुबेर को मरवाना नहीं चाहती थी. उसने तीन बार कुबेर पर होने वाले हमलों को विफल कर दिया और जब कुबेर की सेना को कूटनीतिक तरीके से अपने अधीन कर मैंने महल में प्रवेश किया तो कुबेर को चोर दरवाजे से निकालकर सुरक्षित विश्रवा के पास पहुँचा दिया.
6.
लंका का राज्य मेरे हाथ में आते ही मैं मदांध हो गया. मैंने पृथ्वी, आकाश, पाताल सब पर विजय प्राप्त करने की योजना बना डाली. विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता थी. शक्ति के लिए हम तीनों भाइयों ने ब्रह्मा जी की उपासना की. कठिन तपस्या के बाद जब ब्रह्मा जी प्रकट हुए तो विभीषण ने अनन्य भक्ति की माँग की, मैंने अबध्य होने की माँग की लेकिन कुंभकरण इंद्रासन माँगने गया था. सरस्वती ने उसकी मति भ्रष्ट कर दी और उल्टे वह निद्रासन माँग बैठा. क्षणमात्र भी गँवाए बिना परमपिता ने तथास्तु कह दिया. मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने वीर कुंभकरण को छः महीने में एक दिन का जागरण का वरदान दिया.
वरदान प्राप्त कर मैंने धरती आकाश पाताल हर जगह अपनी विजय के झंडे गाड़ दिए. पौराणिक कथाओं में यह बार-बार वर्णित है कि मैंने कुबेर से विमान छीन लिया. यह सच नहीं है, अगर कुबेर या विश्वकर्मा ने विमान बनाया था तो उन्होंने दुबारा क्यों नहीं बना लिया और मैं दूसरा विमान क्यों बनाता भला? वह एक महाशक्ति थी और उस पर मैं अकेले अधिकार रखना चाहता था.
मेरी मृत्यु के समय राम ने लक्ष्मण को मेरे पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा. अबोध और अभिमानी लक्ष्मण मेरे सिर के पास आकर खड़ा हुआ. वह जिस लायक था मैंने उसे ज्ञान दिया. मैं अपना समस्त ज्ञान सिर्फ राम को दे सकता था. लेकिन हाय रे सूर्यवंशियों का अहंकार! राम स्वयं नहीं आए, उस मिथ्याभिमानी कुमार को भेज दिया. मेरा ज्ञान-विज्ञान मेरे साथ ही चला गया. राम को भी सिर्फ विमान ही चाहिए था. आखिर वे भी तो एक कुशल राजनीतिज्ञ ही थे.
मेरा विमान मन के इशारों पर, मन की गति से चलता था. वह आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा हो सकता था. उसमें ठोस सोने की सीढ़ियाँ और आसन बने थे. वह बिना इंधन के चलता था. उसकी स्वयं जीवित सत्ता थी. वह लगभग सजीव था. अपने मालिक के सम्पर्क में आते ही वह उसकी सजीवता का हिस्सा बन जाता था. यह तकनीक आज भी मानव मात्र की पहुँच के बाहर है.
बहरहाल, मुझे बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर देना बाकी है. जैसे सीता का हरण मैंने क्यों किया? सूर्पणखा यानी नीलमणि के पति विद्युत की हत्या क्यों की? राम से युद्ध में अपने सभी सगे-संबंधियों की हत्या करवाने के बाद मैं युद्ध में क्यों आया?
प्रेम! प्रेम शब्द में विश्वास नहीं होने के बावजूद मैंने नीलमणि के प्रेम को सम्मान दिया और विद्युत से उसकी शादी करवा दी. हालाँकि पहले मैंने विद्युत को मल्लयुद्ध के लिए ललकारा- ‘अगर तू मुझे मल्लयुद्ध में परास्त कर देगा तो मैं अपनी बहन तुम्हें दे दूँगा.’ नीलमणि ने कहा कि आप से बड़ा योद्धा पृथ्वी पर कोई है ही नहीं. अगर होता तो मैं उसी से विवाह करती. विद्युत को क्षमा कर दीजिए.
प्यारी बहन की बात को मान कर मैंने अपना प्रस्ताव निरस्त कर दिया. विद्युत को अपना बहनोई बनाकर उच्च पद पर बिठाया. जब मैं पाताल विजय के लिए निकला तो विद्युत को सारा कार्यभार सौंप दिया. लौटने पर पता चला कि मेरी अनुपस्थिति में विद्युत ने लंका के राज्य को अपने अधिकार में लेने की योजना बना डाली थी.
फिर तो पाताल तक उसका पीछा करके मैंने उसका वध कर दिया. एक बार विश्वास खो चुका व्यक्ति दोबारा अगर विश्वास प्राप्त कर ले तो अधिक बड़ा छल करता है. राजनीति के नियमों के अनुसार ऐसे चरित्रों के लिए मृत्यु के सिवा कोई दूसरा दण्ड नहीं. विश्वासघात के लिए और क्या दण्ड हो सकता है भला? मगर दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो मैंने अपनी बहन के पति की हत्या कर दी.
नीलमणि दूसरी शादी करने के लिए तैयार नहीं हुई. वह उन्मुक्त स्वेच्छाचार करने लगी. अयोध्या के राजकुमार राम के पास जब वह गई है तब वह एक रमणी थी. तथाकथित पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण ने तब एक स्त्री के साथ छिछोरे क्षत्रिय कुमारों जैसा उच्छृंखल व्यवहार किया. राम ने उसे लक्ष्मण के पास भेजा, यह कह कर कि लक्ष्मण अकेला है. लक्ष्मण ने अगले तर्क से उसे राम के पास लौटाया. एक दूसरे के पास भेजने का यह खेल इतनी बार दोहराया गया कि वह शर्म और खींझ से उबल पड़ी. उसके स्वाभिमान को इतनी ठोकरें मारी गई कि लंकाधीश रावण की बहन का क्रोध जाग उठा. इसके बाद सुसंस्कृत दुष्टता यह कि तथाकथित मर्यादा पुरुषोत्तम ने सुंदरी सीता से भी उसे मिलवा दिया. ‘मेरे पास इतनी सुंदर विश्वसुंदरी पहले से है तुम जैसी काली-कलूटी रक्षक कन्या का मैं क्या करूँगा?’ कुछ ऐसा ही भाव था उस राजकुमार के व्यवहार में हालाँकि शब्दों में वह अत्यंत संयत था.
7.
जिस राम को विष्णु का अवतार साबित करने में सैकड़ों सदियाँ और करोड़ों पृष्ठ नष्ट हुए हैं वह एक साधारण से विशेष क्षत्रिय कुमार ही थे. राम को महिमामण्डित और रावण को धूल-धूसरित करने का ही वृथा श्रम किया गया है. कहा तो यह भी जाता है कि विद्युत की मृत्यु का बदला लेने के लिए मुझे नीलमणि ने राम-लक्ष्मण के विरुद्ध भड़काया और सीता का हरण करने के लिए उकसाया. इसमें आंशिक सत्य हो भी सकता है लेकिन यथार्थ यह है कि उस राजकुमार को विश्वसुंदरी वरण कर लेने का घमण्ड था और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यदि विश्वसुंदरी का वरण कर ले तो उसे एक पत्नीव्रतधारी तो हो ही जाना चाहिए.
नीलमणि हम तीनों भाइयों के समान ही शिक्षित बुद्धिमान और तत्वदर्शी ज्ञानी थी. उसे पता था कि दानवकुमार विद्युतजिह्व की हत्या न्यायसंगत है. उसे क्षत्रिय कुमारों से अपने अपमान का बदला चाहिए था. उसे राम के घमण्ड से ठेस लगी थी. राम अगर दस वर्ष भी अयोध्या में शासन की गद्दी पर बैठे रह गए होते तो मैं देखता कि कब तक एकपत्नीव्रत का पालन कर पाते. वन गमन ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनने में भारी मदद की. वन में कोई और स्त्री या तमसानुकूल राजस उपलब्ध ही नहीं था. साथ में एक हठी भाई था, जो बिना स्त्री के रह रहा था और रक्ष-कन्याओं से अशोभन परिहास करता था. स्त्री को जब राजमहल में ही छोड़ देना था तो विवाह क्यों किया?
देव संस्कृति में प्रचारित स्त्री सम्बन्धी अधिकांश नियमों और विचारों से मैं हमेशा असहमत रहा हूँ. स्त्री को शोभा की वस्तु मानने वाले इन पाखंडियों को मैंने कभी पसन्द नहीं किया. स्त्री रहस्य है, देवी है, पूज्य और महान है. विवाह करके उसे महल में सड़ने के लिए छोड़ दो और स्वयं छद्मयोगी बनकर वल्कल में गुप्त दिव्यास्त्र लेकर घूमते रहो. इनके दृष्टिकोण से स्त्री और चाहे जो भी हो मगर मनुष्य नहीं है, क्यों?
मैंने स्त्री को मनुष्य माना और इतिहास के इस गहरे अंधकार में उनकी प्रतिभा को सम्मान दिया. मैं पहला शासक था जिसके तंत्र में अनेक स्त्रियाँ उच्च पदों पर आसीन थीं. व्याघ्रसर में ताड़का मेरी जनपद अधिकारी थी. जिसे आज की भाषा में आप लोग जिला कलेक्टर कहते हैं. समुद्र में सुरसा जल-सेना की सेनापति थी और लंका की सुरक्षा का कार्यभार लंकिनी पर था. मैंने देवताओं की तरह स्त्रियों को रानी, दासी या नर्तकी के कार्यों तक ही सीमित नहीं रखा. देव संस्कृति के पोषकों में बहुत प्रचलित सूत्र है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’; जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं.
जहाँ नारी की सिर्फ पूजा होगी, उसे देवी बना दिया जाएगा, वहाँ देवता ही रमण करेंगे. आखिर उनका उपभोग कौन करेगा या तो देवता या दानव? यह सिर्फ एक परिहास है.
यथार्थ यह है कि मैंने आज तक किसी अकामा नारी का स्पर्श तक नहीं किया. मैंने कभी चंद्रमा, इंद्र आदि देवताओं की तरह छल से किसी स्त्री का उपभोग नहीं किया. छल, प्रपंच का उपयोग मैंने हमेशा राजनीति के लिए ही किया जो कि शास्त्रसम्मत था. जब मैं अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए छल से सीताजी का हरण करके चला तो वह अत्यंत करुण स्वर में विलाप करने लगीं. उनका विलाप असहनीय था. मैंने उन्हें सांत्वना दी और कहा- ‘हे सीते! रो मत. यदि तुम मेरे प्रति अकामा हो तो मैं तुम्हारा स्पर्श भी नहीं करूँगा.’ यहाँ मैंने शास्त्र का ही पालन किया.
कामशास्त्र के अनुसार अकामा, रजस्वला या अधीन स्त्री के साथ सहवास करने वाला नर्क का भागी होता है. मैंने सीताजी के वन-गमन के व्रत को भी खण्डित नहीं होने दिया. उन्हें अपने महल में नहीं, अशोक वन में ठहराया. मैंने प्रतिदिन उनसे एक ही प्रार्थना की है कि एक बार मेरी तरफ दृष्टि उठा कर देखिए. मैं जानता था कि रावण से दृष्टि मिलाने के बाद कोई भी प्राणी आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता है. मगर सीताजी ने एक बार भी मुझे दृष्टि उठा कर नहीं देखा. मेरी दृष्टि के मोहपाश को भी वे दूब की एक रेखा से छिन्न- भिन्न कर देती थीं.
स्त्री, धन और साम्राज्य के लिए मैं कुछ भी कर सकता था. मेरे प्रति आकर्षण की एक बारीक रेखा भी मुझे स्त्री की भंगिमा में दिख जाए तो मैं उसका अपहरण कर लेता था. वेदवती, रम्भा और राजघरानों की अनेक युवतियाँ मेरी प्रबल कामुकता का शिकार हुईं थीं.
सीताजी के लिए मेरे मन में असीम श्रद्धा थी. राम के साथ वनगमन के लिए महल छोड़कर उन्होंने विवाह नामक व्यवस्था के धर्म का यथार्थ पालन किया था. सीताजी इतनी तेजस्वी थीं कि एक दृष्टि मात्र से वे रावण की लंका क्या तीनों लोकों को तिनके की तरह खण्ड-खण्ड कर सकती थीं. वे पृथ्वी की तरह सम्पूर्ण थीं. इसीलिए जब तक वे अशोक-वन में रहीं, मैंने उन्हें माता ही संबोधित किया. राम को उन्हें सौंपते हुए मैंने कहा था- ‘हे राम! मैंने सीता जी की वैसे ही सेवा की है जैसे कोई अपनी बूढ़ी माँ की सेवा और रक्षा करता है.’
राम और काम इस जीवन में यही दो सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य हैं. इनको व्यवस्थित रखने के लिए धर्म और शास्त्रों को मान्यता दी गई है. मैंने शास्त्रसम्मत जीवन ही जिया है. राम, दशरथ सुत राम! अगर इस पृथ्वी पर मुझे कोई पूरी-पूरी तरह समझता था तो वे राम ही थे. काम यानी कामना की तुष्टि के बाद ही राम यानी ब्रह्म की प्राप्ति होती है. राम ही मुझे राम से मिला सकते थे. इसीलिए राम ने जब मेरे प्राणों को आहत किया तो मैंने हँसकर कहा कि मेरे जीते जी आप लंका पर विजय नहीं प्राप्त कर सके. लेकिन मैं आपके सामने ही आपके धाम जा रहा हूँ.
मैं मरा नहीं. मेरा समस्त अर्जित सत्व-पुंज एक विद्युत की तरह मेरे अस्तित्व से निकल कर पलमात्र में राम में समाहित हो गया. मेरी नाभि का अमृत मुझे मरने नहीं देता और राम का तीर मुझे जीने नहीं देता. जीवन और मृत्यु के बीच शायद मैं भी अमर हूँ. हाँ, मैं हूँ. अमर लोगों में मेरा भी नाम दर्ज किया जाना चाहिए. प्रतिभा ही आत्मा है और आत्मा अनश्वर है. रावण अनश्वर है.
रावण को परास्त करने के लिए जब राम ने शक्ति पूजा की तो पूर्णाहुति के लिए उन्हें ब्राह्मण की आवश्यकता पड़ी. रावण के समूल नाश के लिए किए जा रहे अनुष्ठान की पूर्णाहुति रावण से बड़ा पण्डित ही करवा सकता था और रावण से बड़ा पण्डित केवल रावण ही था.
मुझसे बड़ा पण्डित इस भूमि पर आज तक पैदा नहीं हुआ. मैं एकमात्र ऐसा व्यक्ति हूँ जिसका गायत्री मंत्र का जाप कभी टूटा ही नहीं. तो राम ने मेरे पास पुरोहित बनने का आमंत्रण भेजा. तो एक ब्राह्मण के कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए मैंने आमंत्रण को स्वीकार कर लिया और सीताजी को साथ लेकर गया. राम का ग्रंथि बंधन कराया, पूर्णाहुति करवायी. राम अशिव के संहार के लिए सात्विक युद्ध लड़ रहे थे. मैं अपने आधिपत्य को बनाए रखने के लिए भौतिक युद्ध लड़ रहा था. सत्य की स्थापना के लिए युद्ध भी सात्विक तरीके से सिर्फ ईश्वर ही लड़ सकता है. यहीं राजकुमार राम ईश्वर हो जाते हैं और ईश्वर के बुलावे को भला कौन ठुकरा सकता है!
राम के बारे में बहुत प्रचारित किया गया है कि वे विष्णु के अवतार थे और मनुष्य धर्म का निर्वाह कर रहे थे लेकिन मैं तो मनुष्य ही था. अलग से मुझे मनुष्य धर्म का निर्वाह नहीं करना था. एक ब्राह्मण के रूप में मैंने पुरोहित की भूमिका निभाई और एक शत्रु के रूप में सूर्यवंशी राम को कष्ट पहुँचाया. जिस सीता को पुनः प्राप्त करने के लिए वे शक्ति पूजा कर रहे थे, उन्हीं को साथ लेकर गया और वापस ले आया.
राम मेरे पाण्डित्य के कायल थे. राम मेरे व्यक्तित्व के प्रशंसक थे. मुझे पहली बार देखने के बाद राम ने कहा था– ‘अहो, राक्षसराज रावण! मैंने आज तक ऐसा सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं देखा. अगर तुम विधर्मी नहीं होते तो देवलोक को भी जीत लेते.’
यह एक आरोप, ‘विधर्मी’, जिसका अर्थ है अलग धर्म को मानने वाला या राज-संरक्षित, प्रचलित, विज्ञापित सर्वमान्य धर्म से विरोध करने वाला.
मेरे सबसे बड़े भक्त की बात करूँ तो वे राम ही थे. राम मुझे सम्पूर्ण जानते थे इसीलिए अपनी मुक्ति का भार मैंने उन्हीं को सौंप दिया. मुझ से युद्ध करते हुए राम ने अपने अचूक अस्त्र चलाएँ और प्रत्यक्ष दर्शन किया कि वे अस्त्र मुझे छू भी नहीं सके. शक्ति मुझे गोद में लेकर बैठी हुई थी और राम के दिव्यास्त्र शक्ति में समाहित होकर मेरी शक्ति ही बढ़ाने का अवदान कर रहे थे. जामवंत ने उन्हें युद्ध छोड़कर शक्ति को सिद्ध करने की युक्ति दी और पुरोहित बनकर मैंने उनकी सिद्धि करवाई. सीताजी से पहले मैंने उन्हें शक्ति दी कि वे अशिव का संहार कर सकें. सीताजी तो भौतिक प्रतीक मात्र थी. मैंने ही राम को ईश्वर बनाया.
लेकिन अवतार कोई था तो वह सीताजी थीं, शक्ति का अवतार. सीता-स्वयंवर में मैं धनुष तक गया, उसे प्रणाम किया और लौट आया. राजाओं ने समझा कि मैंने हार मान ली. सिर्फ सीता ने समझा था मेरी भूमिका को. मैं सीता के योग्य नहीं था. मेरी अनेक स्त्रियाँ थी. मैं चाहे जितना भी पुरुषार्थी था. मैं स्खलित मनुष्य था. रावण खल, कल्मष, गताचार!
किंतु मैं वह धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा सकता था. सीताजी पहले ही जनक की वाटिका में राम को अपना हृदय दे चुकी थी. उनके मन में किसी दूसरे पुरुष के लिए स्थान नहीं था.
कथा तो यह भी फैलाई गई है कि सीताजी व्यंग्य से हँसी थी और इसी का बदला लेने के लिए मैंने उनका अपहरण किया और राम को वन-वन भटकना पड़ा. यह सर्वथा मिथ्या बात है. ना तो सीताजी इतनी छिछोरी थी, ना रावण. यहाँ पुरुष राम के व्यक्तित्व को मर्यादा पुरुषोत्तम तक उठाने के लिए सीताजी के व्यक्तित्व को भी गिराना क्यों आवश्यक है? उसके लिए तो रावण को ही गिराना पर्याप्त से बहुत अधिक है. सीता के लिए मेरे मन में कोई राग-विराग नहीं था. सीता वह अवतार थी जिसने मेरे और राम के पुरुष होने के अहंकार को चूर-चूर कर दिया. मेरी तरफ दृष्टि ना उठाकर और राम में शक्ति की आराधना का बोध जगा कर.
मैं सीता को उठाकर जब चला, तब मैंने राम को एक साधारण राजकुमार ही समझा था और सीता को एक साधारण राजकन्या. लेकिन तुरंत ही अपनी भूत-भविष्य दृष्टि से मैं सब समझ गया. सीता को उठाकर मैं वह साँप बन गया जिसने छछूंदर निगल लिया था. उगलूँ तो अंधा बन जाऊँ, निगलूँ तो मृत्यु हो जाए. साक्षात् महामाया के नागपाश में खुद को पाकर जीवन में पहली बार मुझे भय लगा. भय की एक तरंग नख-शिख कौंध गई. भय से यह मेरा पहला परिचय था. राक्षस परम्परा के विरुद्ध आर्य संस्कृति के विचारों का क्रांतिकारी उपदेश देते हुए अदीन और निर्भीक सीता ने मुझसे कहा था – ‘अपवित्र मन का मालिक और उपदेश न ग्रहण करने वाला राजा बड़े-बड़े साम्राज्यों के अंत का कारण बन जाता है. ठीक ऐसे ही ये रत्नराशि लंका भी तुम्हारे अपराध के कारण अतिशीघ्र नष्ट हो जाएगी. तुमने जितने लोगों को कष्ट पहुँचाया है वे तुम्हें कष्ट में देखकर हर्षित होंगे. यही तुम्हारी संसार प्रसिद्ध कमाई है.’
मैं समझ गया था कि इस बार मेरा ही अपहरण हो चुका है. रावण चूक गया था. बीच रास्ते ही सीताजी को सादर लौटा देने के विषय में मैंने विचार किया. लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी.
सीता को लौटा देता तो एक साधारण राजकुमार से पराजय की लोक-निंदा और हमेशा के लिए रावण के प्रताप को खो देने का भागी बनता.
बलात संभोग करूँ तो सिर सौ टुकड़ों में खण्डित हो जाएगा. शब्दों और मंत्रों के प्रताप को मैं अच्छी तरह जानता था. मैं जानता था कि कुबेर के तपस्वी पुत्र नलकुबेर की वाणी शुद्ध है. उसका अभिशाप, नंदीश्वर और राम के पुरखे अनरण्य का अभिशाप, वेदवती का अभिशाप सब मेरी आँखों के सामने चित्रवत चलने लगे. मैं अपने दुष्कर्म के बोझ तले दब चुका था और लड़ने के सिवा कोई मार्ग नहीं था.
मेरे लिए तपस्वी वेशधारी राम-लक्ष्मण नामक अयोध्या कुमारों को मार देना बहुत आसान था. लेकिन मैंने उन्हें सेना एकत्रित करने का मौका दिया. यहाँ भी मैंने शास्त्र का ही अनुगमन किया. राम मर्यादा पुरुषोत्तम और पुरुषार्थी थे.
चार पुरुषार्थों यानी अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में से मोक्ष एकाकी है. जीवन रहते मोक्ष प्राप्त भी नहीं किया जा सकता है. इसलिए जीवन में तो पहले तीन ही काम्य हैं. मोक्ष का ना तो साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है और ना जीते जी उसका आनन्द लिया जा सकता है. बाकी तीन अर्थात् अर्थ, धर्म और काम की अनेक विधाएँ हैं और प्रत्येक का अपना वर्ग भी होता है किंतु तीनों को मिलाकर त्रिवर्ग की संज्ञा भी दी जाती है. यह तीनों साध्य भी होते हैं और साधन भी. यह तीनों परस्पर सहायक भी होते हैं और विरोधी भी. साधन और साध्य के रूप में इनका विवेकपूर्ण उपयोग सफल जीवन का एकमात्र सोपान है. मैं त्रिवर्गी हूँ.
8.
तीनों वर्गों में काम प्रधान है क्योंकि वह सर्वजीव संवेदन और सर्वजन सुलभ है. शब्द प्रयोग भी काम की प्रधानता का परिचायक है. धर्म की कामना, अर्थ की कामना, शब्दों का प्रयोग जितना समझा जाता है उतना काम का धर्म और काम का अर्थ नहीं समझे जाते. यौन सम्बन्ध काम का एक प्रकार है. किसी भी प्रकार की कामना या इच्छा को काम के अंतर्गत माना जाता है. किंतु सभी प्रकार की कामनाओं में यौन सम्बन्ध इतना प्रमुख है कि यह काम का पर्याय बन गया है. किसी शक्तिशाली औषधि की तरह इसका अविधि प्रयोग हानिकारक भी बहुत होता है. इस पर नियंत्रण के लिए धर्म की व्यवस्था की गई है और साधन के रूप में अर्थ को मान्यता दी गई है. ब्रह्माजी ने तीनों वर्गों पर एक लाख अध्यायों की एक पुस्तक लिखी थी जिससे मनु ने धर्मशास्त्र, वृहस्पति ने अर्थशास्त्र और नंदी ने एक हजार अध्यायों में कामशास्त्र का उद्धार किया. नंदी के काम शास्त्र का श्वेतकेतु और वाभ्रब्य ने संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया. बाद में अनेकानेक आचार्यों ने टीकाएँ लिखीं और अनुसंधान किए लेकिन वाभ्रब्य से पहले और उसके बाद किसी कामशास्त्री ने एकपत्नीव्रत जैसे पाखण्ड की बढ़ा-चढ़ाकर स्थापना नहीं की थी. राम तो मुझे उन्हीं के सिद्धान्तों के अनुगामी लगते हैं. राम के पिता दशरथ की ही तीन पत्नियाँ थी. राम ने सत्य और सुंदर की एक ऐसी परिकल्पना की जिसमें सब नहीं समा सकते थे. एकपत्नीव्रत, माता-पिता की अंधभक्ति, रिश्तो में अत्याचार की सीमा के पार तक आचार-विचार और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में तो इतने नियम कानून लगा दिए कि वासना की सच्चाई कई परतों के नीचे दब गई.
कामानंद और ब्रह्मानंद सहोदर हैं, यह तो हम शताब्दियों से सुनते आ रहे थे. ब्रह्म का आनन्द है दसों इंद्रियों के ताप और कामनाओं से मुक्ति. सम्पूर्ण आत्मनिर्भरता. मोक्ष!
काम का आनन्द है सम्पूर्ण इंद्रियों की संयुक्ति. सभी इंद्रियों का भोग. जीवित रहते अगर अर्थ, धर्म साधनों से काम की तृप्ति हो जाए तो मोक्ष स्वाभाविक रूप से अगला चरण है.
भोग को योग से कमतर मानने का सिलसिला राम से ही शुरू हुआ. राम ने काम के आनन्द का स्तर गिरा दिया. यहाँ भी देव संस्कृति की छोटे-बड़े की सोच ही प्रेरक है. वरना दोनों समान ही है.
भगवान शिव प्रतीक रूप में पार्वतीजी को अपने बाएँ जांघ पर बिठाए रहते हैं. उनका बाया हाथ पार्वती के उत्तुंग कुच पर और दृष्टि मुख पर होती है. यह सम्पूर्ण छवि ही ब्रह्म का आनन्द है. शिव की तीन पत्नियाँ थीं, पर्वत की बेटी पार्वती, देवकन्या गंगा और वनकन्या काली. जनेश्वर शिव ने तीनों संस्कृतियों का समन्वय किया था. शिव के यहाँ ना कोई छोटा था, ना बड़ा. ना ऊँचा, ना नीचा. वहाँ आनन्द ही सत्य था और वही सुंदर. शिव ने मानव, दानव, देव, राक्षस, भूत, बेताल, प्रेत, पिशाच, साँप, हाथी, चंदन, मदार सब को एक समान स्तर पर ला दिया.
राम ने एकपत्नीव्रत को लोकाचार बना देना चाहा. यह उनकी हठधर्मिता थी और यही उनकी शक्ति का आदि स्रोत भी. जो एक में है वही सब में है. राम ने एक ही स्त्री से स्त्री पदार्थ को समझ लिया. उन्होंने काम को धर्म से नियंत्रित कर लिया. यह अद्वितीय और सराहनीय कर्म है. यहीं पर राम रावण से बहुत बड़े हो जाते हैं.
मैं रावण! वृद्ध, रोगी, शिशु एवं क्लीव लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ, परंतु जो वीर्यवान पौरुषेय है वह केवल पुरुष और प्रकृति के भेद को जानता है. वह केवल नर और मादा को जानता है. उसके लिए स्त्री केवल रमणी है, कामिनी है, भोग्या है और महज मादा है. रिश्ते तो कृत्रिम हैं, मानव निर्मित हैं.
इन्हीं कुविचारों के आलोक में मैंने तपस्विनी वेदवती के साथ असंयत मर्दानगी का प्रदर्शन किया था और अगले किसी जन्म में बदला लेने का संकल्प लेकर उस तेजस्विनी ने आत्मदाह कर लिया था.
उसके कुछ दिन बाद ही मैंने एक राजघराने के उत्सव से दस-बारह सुंदरियों का अपहरण किया और गंधमादन पर्वत पर ले जाकर उन सबके साथ बलात सम्भोग किया और उन्हें वही छोड़ दिया, उनके राज्य से सैकड़ो योजन दूर.वे अपने बच्चों और परिवार की दुहाई देकर वापस यथास्थान पहुंचा देने का निवेदन करती रहीं लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया क्योंकि मेरा ध्यान सज धजकर आती हुई रम्भा पर था जो मेरे भतीजे नलकुबेर की प्रेयसि थी. भावी पुत्रवधू होने के उसके दावे के बावजूद मैंने उसके साथ सम्भोग किया और तपस्वी नलकुबेर के अभिशाप से अभिशिप्त हुआ- ‘अब से अगर तुमने किसी भी स्त्री को उसकी इच्छा और अनुमति के बिना स्पर्श किया तो तेरा सर सौ टुकड़ों में खंडित हो जाएगा.’
स्त्री के सन्दर्भ में मेरे धृष्ट विचारों से प्रेरित मेरे कुकृत्यों ने मेरे मंत्रियों और प्रजा को भीषण भोगी बना दिया था.
और युद्ध में सामने था युवा योगी राम.
राम! मनुष्यता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं. राम ईश्वर की सदेह उपस्थिति हैं.
यह ईश्वर ही महापराक्रमी दशग्रीव दशानन के द्वारा फैलाई गई भोगवादी संस्कृति को भस्म कर सकता था. अपने अभिमान की क्रूर, दाहक, कामुक परिणति मेरे परिवारजन, मेरे मंत्री, मेरे अधिकारी, योद्धा और सैनिकों, रक्ष से राक्षस बने पथभ्रष्टों को मिटाए बिना मुझे मोक्ष नहीं मिल सकता था. यह सत्य मैं जान चुका था कि यदि आदमी अपनी स्वतंत्रता का और औरत अपनी सम्पूर्णता का दुरुपयोग न करे तो यह संसार संतुलित हो जाएगा.
मैं तीन सोपानों, अर्थ, धर्म, काम को पार कर चुका था और मोक्ष की चौथी सीढ़ी पर धनुष बाण लेकर ईश्वर खड़ा था धरती पर नंगे पाँव. वाह रे रावण! पहली बार मैंने स्वयं की सराहना की थी.
किंतु दशरथसुत राम को मैंने इस लायक नहीं समझा कि सर्वप्रथम मैं ही सामना करने जाऊँ. इसीलिए मैं अपने एक-एक योद्धा को उनके पास भेजता गया. सबके मोक्ष के बाद मैंने राम से युद्ध किया.
मैं प्रतापी रघुवंशियों का सामना नहीं करना ही युक्तिपूर्ण मानता था. जैसे वेदों में सबसे पहले प्रणव आता है वैसे ही राजाओं में सबसे पहले सूर्य के पुत्र वैवस्तव मनु हुए. इस वंश में दिलीप और रघु जैसे अत्यंत शुभ, चरित्रवान, प्रतापी राजा उत्पन्न हुए.
इस वंश में प्रजा को चंद्रमा के समान सुख देने वाले सात्विक राजाओं की कड़ी में दशरथ और राम पैदा हुए. इस सात्विक शक्ति से मदमत्त गज भी नहीं टकरा सकता था. लेकिन मदमस्त रावण अवश्य टकरा सकता था. मैंने राम के पितामह से युद्ध किया था. अयोध्या को बचाने के लिए वह प्रतापी राजा अंतिम क्षण तक लड़ता रहा. उसे परास्त कर देने के बाद मैंने उसका उपहास करना शुरू किया. मैं उसका उपहास करने लगा. पराजय का मैं क्रूर उपहास किया करता था. कुरूपता मुझे हँसी के लिए प्रेरित करती थी. कामुकता मुझे अंधा कुक्कुट बना देती थी.
घायल अनरण्य के शरीर को क्षत-विक्षत करते हुए मैं ठहाके लगा रहा था. उस शुद्ध, सरल, साधु समान राजा ने मुझे अभिशाप दे दिया- ‘एक राजा के रूप में तुमने मुझे परास्त किया यह सही है. एक मनुष्य के रूप में तुमने बहुत नीच हरकत की है. मेरे ही वंश में राम नामक एक कुमार जन्म लेगा जो तुम्हारा संहार कर तुम्हारे अहंकार की सजा देगा.’ उस तेजस्वी राजा ने इतना कहकर प्राण त्याग दिए.
वह श्राप मुझे लग चुका था. अपनी विजय लालसा को मैंने कभी अयोध्या की तरफ नहीं बढ़ने दिया जबकि वाराणसी और व्याघ्रसर मेरे अधीन थे.
वही अयोध्या, समुद्र पर पुल बाँधकर मेरी सीमा में युद्ध करने आ गया था. उस परम पावन अयुध्या भूमि को मैंने युद्ध करके रक्तरंजित किया था. उस भूमिखण्ड का पुतला राम बिना रथ, बिना कवच, बिना घोड़ा, महावैज्ञानिक रावण के समक्ष था.
इस तेजपुंज से टकराकर मिटना तय था इसलिए मैंने अपने सारे चिन्ह मिटा दिए.
कुंभकरण को जब मैंने बलपूर्वक जगा कर बुलवाया तो उसने मेरी कटु भर्त्सना की. उसने भी विभीषण के ही विचारों को दोहराया. किंतु युद्ध में मेरे लिए जूझ पड़ने का वादा कर चला गया. मैं उदास हो गया. सिर्फ मैं ही जानता था कि ब्रह्मा ने यह चेतावनी भी दी थी कि यदि कुंभकरण को समय से पहले जगाया गया तो वह मर जाएगा.
मैंने सिर्फ कुंभकरण की जीवित बलि दी थी. वह मेरा प्रिय भाई था. मैं शोक में डूब गया. अगर मैं उसे युद्ध में नहीं भेजता तो उसके जीवन को परिणति नहीं मिलती. अपनी शक्ति का भोग किए बिना मरने पर वह प्रेत हो जाता. अगर मैं युद्ध में लंका हार जाता तो उसकी तो नींद में ही हत्या हो जाती.
युद्ध में मुझसे राम नहीं विश्वमित्र लड़ रहे थे. विश्वमित्र ही इस पृथ्वी पर दूसरे ब्रह्मा थे. वह दूसरे ब्रह्माण्ड की रचना कर सकते थे और त्रिशंकु के लिए उन्होंने आंशिक रूप से किया भी. उन्होंने मकई जैसे अन्न का आविष्कार किया जो अपने आप में सम्पूर्ण हैं .दलहन, तेलहन, रुई, कपास, सरकंज, चरी यानी मनुष्य और पशु पक्षियों के उपयोग में आने वाले सभी उपयोगी फसलों का एक ही अन्न में समावेश कर दिया. विश्वमित्र ने ही गायत्री का आविष्कार किया था. जिसकी मैंने सिद्धि कर ली थी. मैं अजेय था.
ब्रह्मा से मैंने यक्ष, गंधर्व, किन्नर, देव, दानव, राक्षस किसी से भी अवध्य होने का वरदान लिया था. मैंने मानवों को जब उस गिनती में नहीं रक्खा तो वानर आदि अर्धपशु जातियाँ मेरी सोच के बाहर थीं.
जब सब में वही एक नियंता है तो मनुष्य और वानर को कमतर समझना मेरी मदांधता की भूल थी. विश्वमित्र ने ही मुझे मारने के लिए बल-अतिबल यंत्र का आविष्कार किया और राम आदि बंधुओं को उसकी सिद्धि करायी. वस्तुतः मुझसे विश्वमित्र लड़ रहे थे. मैंने लम्बे समय तक उनको किसी भी तरह की सिद्धि नहीं करने दी थी. येन-केन-प्रकारेण मैं यज्ञ प्रयोगों को नष्ट कर देता था.
सिंहासन पर बैठा हुआ राजा अगर सब को सुखी ना बना सके तो विफल है, धिकृत है. राजा सब को राजा बना दे तो स्वतः महाराजा हो जाता है. लंका में हर व्यक्ति राजा था. हर व्यक्ति साधक. हर घर मंदिर. हर मनुष्य देवता.
9.
सीताजी के व्यक्तित्व के बहुत से शक्तिशाली पहलुओं को कवियों ने संपादित कर दिया. सीता के यथार्थ को छुपाकर राम के व्यक्तित्व को अतिकल्पना से भर दिया गया. यहाँ तक कि पुराणों में मेरा भी बचाव करने की कोशिश की गई है. सीता को मेरी बेटी और बहन भी साबित किया गया है.
क्यों नहीं! सीताजी तो ब्रह्मांडेश्वरी हैं. त्रिपुरसुंदरी हैं. जगत माता हैं. वह सर्वस्व है. श्रीराम हो या दशानन सबकी ममतामई प्रसूता वही है. तो क्या अन्तर पड़ता है कि वे रिश्ते में मेरी क्या लगती हैं?
इस विराट ब्रह्माण्ड के एक छोटे से कण पृथ्वी के एक भूखण्ड के महर्षियों के शोधित आचार-विचारों की ठोस प्रतिमूर्ति होने के बावजूद श्रीसीताजी इस विराट की नियंता भी हैं. वे सर्वोपरि है. सीताजी के तेज के आगे एकादश सूर्यों का तेज भी मद्धम है. और उनकी जीवन यात्रा में उनकी वाणी के अद्भुत अग्निअक्षरों को कवियों की लेखनी उठा नहीं सकी.
आपको ज्ञात है वन-गमन के लिए सीताजी किस कारण साथ हुईं? उन्होंने क्या कहा था?
मैं बताता हूँ. सीता प्रखर बुद्धिसम्पन्न होने के साथ स्वाभिमानी, निर्भय और स्पष्ट वक्ता थीं. जब राम उन्हें वन ले जाने से विरत करते हैं तो वे अदीन आक्षेप करती हैं- ‘मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप में पाकर क्या कभी यह भी समझा था कि आप शरीर से ही पुरुष हैं, कार्यकलाप से तो स्त्री ही हैं. आपकी कायरता के कारण आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया. ऐसे अपौरूषेय की वशवर्ती और आज्ञापालक बनकर मैं नहीं रहूँगी.आपके माता-पिता की सेवा के लिए अनेक दासियाँ हैं. मैंने आपकी सेवा और सानिध्य के लिए आपसे विवाह किया है.’
नदियों, वनस्पतियों, वन्य-प्राणियों के साथ प्रज्ञावान सीताजी ने वन का भरपूर आनंद उठाया. अपने पति और देवर को भी प्रकृति में रमने का निमंत्रण देती रहीं लेकिन उनका ध्यान काव्यात्मक नहीं रह गया था. उन्हें अनुमान भी नहीं था कि जिस वन में वे आनंद मना रही थीं वे उसे ही विनष्ट करने की तैयारी में हैं.
राम जब दाहुक वन को राक्षसों से मुक्त करने का निर्णय लेते हैं तो वह राम को सावधान करती हैं- ‘बिना बैर-विरोध के दूसरे के प्राणों की हिंसा लोग मोहवश करते हैं. वही दोष आपके सामने उपस्थित है. एक उदाहरण देकर उन्होंने राम से कहा कि मैं आपको शिक्षा देती हूँ कि धनुष-बाण लेकर बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए. बिना अपराध के किसी को मारना संसार में अच्छा नहीं समझा जाएगा. वह यह भी कहती हैं कि राज्य त्याग कर वन में आ जाने पर यदि आप मुनि वृत्ति से ही रहे तो मेरे सास-ससुर को अतिप्रसन्नता होगी. हम लोगों को देश-धर्म का आदर करना चाहिए. वह यह भी कहती हैं कि आप इस विषय में अपने छोटे भाई के साथ बुद्धिपूर्वक विचार कर लीजिए फिर आपको जो उचित लगे वही करें.’ दूसरी ओर राम यह मानकर चलते हैं कि सारी पृथ्वी इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रियों की है. इसलिए वह सब को दण्ड देने के अधिकारी हैं. जबकि उत्तरी भारत में स्वतंत्र राज्यों का उल्लेख उसी कालखण्ड में मिल जाता है.
मेरी मृत्यु पर विलाप करते हुए जब मंदोदरी ने मेरी हत्या को मेरे अधम कर्मों का परिणाम कहा तो क्या गलत कहा – ‘अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव, असुर और मनुष्यों की कन्यायों का जहाँ-तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है.’ मंदोदरी निर्भीक सत्यवक्ता थी. वह सीता की तरह ही अदीन और तेजस्वी थी.
मंदोदरी को देखकर हनुमान ने उन्हें सीता समझ लिया था. सीता और मंदोदरी में फर्क सिर्फ राम और रावण का था. वह तो एक ही थी.
दानवराज मय की पालिता पुत्री मंदोदरी हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी. सत्व की वह जीती-जागती मिसाल थी. वह सर्वगुण सम्पन्न थी. लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति उसकी चारुता की सुगंधि के लिए मेरे महल में ही घूमती रहती थी. पवन उसका स्पर्श कर मलय पर्वत जाना भूल गया था और उसकी आभा से फूटने वाली सुगंधि को पीकर मेरे आँगन में झाड़ू बुहारी किया करता था. आधी सृष्टि को तो मैंने उसी दिन जीत लिया जिस दिन इस ब्रह्माण्ड की अधीश्वरी मंदोदरी से मेरा विवाह हो गया. मंदोदरी के अलावा मेरी अनेक स्त्रियाँ थीं. इनमें से किसी को मैंने जबरन अपनी पत्नी नहीं बनाया था, न अपहरण किया था. वे स्वेच्छया मेरी रमणी बनी थीं.
बाल ब्रह्मचारी, बज्र कौपीनधारी हनुमान ने जब अंतःपुर में मेरे विशेष केलिगृह में प्रवेश किया तो वे स्तब्ध रह गए.
केलि के बाद शिथिल पड़ी मेरी विभिन्न नायिकाओं के बीच मैं महाबली रावण श्लथ पड़ा हुआ था. लगता था जैसे फेनिल उर्मियों से सजी नर्मदा नदी के बीच ऐरावत सुस्ता रहा हो. मेरे एकदम निकट मंदोदरी गहरी नींद में आश्वस्त पड़ी हुई थी. मैंने तांबूल खाकर उसकी पलकों पर चुंबन अंकित किए थे. उसकी मुंदी पलकों पर पान की बारीक पीक-रेखाएँ अंकित थीं. रावण के मुक्त आचरण में किसी प्रकार की वर्जना के लिए स्थान नहीं था.
एक क्षण के लिए हनुमान ने मंदोदरी को ही सीता समझ लिया था. हनुमान ने मन ही मन कहा- ‘अहो राक्षसराज रावण! तुम सिंह की तरह सुंदर और तेजस्वी हो. अगर अधम नहीं होते तो तीनों लोकों पर राज करते.’
कुंभकरण युद्ध के लिए चला गया और मैं उदास बैठा था.
मुझे हनुमान के साथ नंदी की स्मृति भी कौंधी.
मैं शरवण नामक प्रसिद्ध सरपतों के वन से पुष्पक विमान में बैठा जा रहा था. शिव के प्रधान नंदीश्वर ने मुझे रोका. उन्होंने बताया कि इस पर्वत पर भगवान शंकर पार्वती जी के साथ विचरण कर रहे हैं. इसलिए उस तरफ यक्ष, गंधर्व, देव सबका जाना रोक दिया गया है. मैं हठपूर्वक विमान से उतरकर चल पड़ा.
आगे मुझे साक्षात शिव बनकर खड़े नंदी ने रोका. उनका तेज अनिर्वचनीय था. किंतु उनकी मुखाकृति बंदर जैसी थी. कुरूपता मुझमें हास्य का भाव जगाती थी. मैं तरह-तरह उपहास कर नंदी पर ठहाके लगाने लगा.
क्रुद्ध होकर नंदी ने मुझे अभिशाप देते हुए कहा – ‘अरे राक्षसराज रावण! तू महाबली है, महाविद्वान भी है, लेकिन तू एक मूर्ख भी है. मेरी शांतचित्तता को भंग कर अकारण तूने मेरा क्रोध जगा लिया है. तू एक उद्धत बालक होता तो मैं तुम्हें क्षमा कर देता लेकिन तू एक उद्धत राजा है. आने वाले समय में मेरे ही जैसे मुख वाला एक वानर तुम्हारा सर्वनाश करेगा.’
आहत मन से अग्नि की तरह लपट बन निकले शब्द, वाण की तरह निशाने पर लगते हैं. मैं इसी ख्याल में था.
हनुमान ने एक दूत के कर्तव्यों को भंग करते हुए अशोक वन को नष्ट कर दिया. मेरे पुत्र अक्षय कुमार को मार डाला. फिर भी दूत के प्रति व्यवहार की नैतिकता का पालन करते हुए मैंने उन्हें जीवित छोड़ दिया. सांकेतिक सजा के तौर पर मैंने उनकी पूँछ जलाने की आज्ञा दी थी और उन्होंने लंका नगरी का सर्वनाश कर दिया. जबकि हनुमान जानते थे कि सीताजी को कोई कैद नहीं कर सकता था. अंगद, हनुमान, जामवंत आदि किसी के साथ वे आसानी से लंका से बाहर जा सकती थीं और मैं भी यही चाहता था. लेकिन वे मेरे द्वारा कैद किए गए गुलामों और स्त्रियों की मुक्ति के लिए राम की सेना का इन्तजार कर रही थीं. मैं महामाया के जाल में भृंग की तरह फँस चुका था, एक धीमी मौत मरता हुआ, स्वयं का विवश द्रष्टा!
10.
विश्वमित्र के शिक्षणालय और शोध संस्थान सिद्धाश्रम में आने के बाद राम ने कुछ कविताएँ लिखीं थी, जो अत्यंत ही मनोहर और श्रेष्ठ भावों से भरी हुईं थीं. कविताएँ सुनने के बाद विश्वमित्र ने उन्हें तनिक भी प्रोत्साहित नहीं किया.
राम न तो कवि बन सके, न कलाकार, वे एक सहज सुन्दर क्षत्रिय कुमार बनकर रह गए. माता-पिता और गुरु की आज्ञा के आगे अपने विचारों को उन्होंने निरादृत किया. उनकी सांस्कृतिक समझ पारम्परिक, संकीर्ण और रुद्ध हो गई. विविधता, नवीनता और अनेकता के लिए उनके मन के द्वार बंद थे. वे एक आज्ञा पालक योद्धा बनकर रह गए.
किन्तु वे अत्यधिक संवेदन शील थे. उनमें राजनीतिज्ञों वाली सहज क्रूरता नहीं थी. वे साधु वृत्ति के थे. उनका सहज स्वभाव प्रेम, करुणा, शान्ति और अहिंसा में रमता था. इसीलिए विजयी राम जब अपने कृत्यों का मूल्यांकन करते हैं तो निराश हो जाते हैं. लंका में तो एक ही रावण था लेकिन जिस अयोध्या में राम को जल-समाधि लेनी पड़ी वहाँ कितने गुप्त रावण होंगे!
जिस कवि को विश्वमित्र ने राम के हृदय में दबा दिया वह आजीवन अन्तःसलिला बनकर उन्हें प्राण देता रहा और उसी ने उनके प्राण ले भी लिए. वे एक असफल कवि और सफल संत थे. संत का मूल्यांकन मैं मृत्यु से करता हूँ. योद्धा, कवि या कलाकार की मृत्यु आकस्मिक हो सकती है लेकिन संत तो मृत्यु को ही साधता है. मृत्यु का चुनाव कर सकता है.
धन्य वह सरयू नदी जिसकी गोद में राम समाधिस्थ बैठे हैं.
वन-गमन से लौटने पर सीता, लक्ष्मण और राम का अयोध्या में हृदय से स्वागत हुआ. लेकिन जल्द ही लोगों को पता चल गया कि इनके राजा रामचंद्र ने इंद्र के बहकावे में आकर अति तेजस्वी और तपस्वी ब्राह्मण पुत्र रावण की कुल-वंश समेत हत्या कर दी है. तब नागरिकों में आक्रोश फैलने लगा. सबसे पहले महर्षि वशिष्ठ ने अयोध्या के राजगुरु पद का परित्याग कर दिया और हिमालय के सघन प्रदेशों में चले गए.
अयोध्या की जनता में भयानक विद्रोह की संभावना को देखते हुए राम ने विश्वमित्र और अगस्त्य मुनि से सलाह ली और लक्ष्मण और सीता सहित नैमिषारण्य के निकट हत्या-हरणी नामक स्थान पर एक वर्ष तक रहकर अपने कृत्यों का प्रायश्चित किया. फिर भी ब्राह्मणों, कवियों, विद्वानों, शिल्पियों और कलावन्तों ने अयोध्या का त्याग कर दिया.
निर्दोष लंकावासियों और आम रक्ष-नागरिकों, बच्चों, स्त्रियों की निर्मम हत्या के पाप के बाद अयोध्या भी उजड़ गई थी.
वह लंका नगरी जिसकी कवियों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है. जहाँ रात्रि के तीसरे पहर से भजनों, श्लोकों, प्रार्थनाओं और हवन की धूम से आकाश मेघाच्छन्न हो जाता था. घंटियों की गूंज से समुद्र की गर्जना मृदंग हो जाती थी. जो एक परम सात्विक नगर था.
ऐसी प्यारी लंका को भष्म कर दिया गया और आपलोग हर साल मुझे जलाते हैं. अगर मुझे जलाते हैं तो हर घर में मैं ही क्यों हूँ? हर मन में मेरी ही छाया ही क्यों है? कुरूपता, दीनता और हीनता के प्रति हर तन में क्रूर उपहास करते घमंडी रा-मन का ही शासन क्यों है? अगर यह मेरा ही पाप है तो यह इतना व्यापक क्यों है? असमाप्त जैसा!
इसे मुझे ही समाप्त करना होगा. राम के इसी काम से मेरी मुक्ति होगी. महापण्डित रावण अपना तर्पण स्वयं करेगा.
मेरी बुराइयाँ ही अति प्रचारित की गई हैं. मेरी गुणवत्ता का प्रचार अब मैं खुद करने लौटा हूँ. इतना प्रचार हुआ मेरी गलतियों का कि सारी दुनिया गलत रास्ते पर चल पड़ी. अब मैं अपनी अच्छाइयों की धारासार वर्षा से इस पृथ्वी को नवीन कर दूँगा.
इस ब्रह्माण्ड को फिर से बनाऊँगा.
न्यायाधीश और जनता जनार्दन से मेरा निवेदन है कि मुझे सटीक अर्थों में समझा जाए और अपने भीतर के दशग्रीव दशानन को हृदय की चिता पर जला कर मुझ रावण को भी एक मनुष्य का दर्जा दिया जाए. जिसका मैं अधिकारी हूँ.
इतना कहकर मैंने न्यायाधीश की तरफ देखा. कुर्सी रिक्त थी. पूरी अदालत ही रिक्त थी. तो क्या मुझे किसी ने नहीं देखा? किसी ने नहीं सुना? मेरा निर्णय अधूरा रह गया? मेरा बयान दर्ज नहीं हुआ?
मैं जानता हूँ कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी अभिव्यक्ति नष्ट नहीं होती है. मेरा बयान भी कहीं न कहीं दर्ज हुआ होगा. कभी न कभी अवश्य पढ़ा जाएगा, सुना जाएगा.
यही सब सोचता हुआ मैं रावण अपने महल के खण्डहरों में लौट गया.
अनुपम ओझा ‘गुरिल्ला सिनेमा’ के प्रवर्तक और इसे मुहिम की शक्ल में जमीन पर उतार देने के महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न.दो किताबें प्रकाशित हैं- ‘भारतीय सिने-सिद्धान्त” और ‘जलतरंगों की आत्मकथा’ (कविता). बड़का सिंघनपुरा, बक्सर, बिहार PIN: 80 21 20 dranupamojha@gmail.com /mob: 9936078029 |
यह कहानी अनुपम ने कुछ दिनों पूर्व ही पढ़वाया था।अनुपम बहुत धैर्य के साथ खुद को नेपथ्य में रख अपना काम करने वाले हैं। यह कहानी हमारे पौराणिक ग्रंथों को निचोड़कर बनी है और बहुत सारे ढ़के दबे तथा निषिद्ध तथ्यों को सामने लाते हैं। अनुपम की कहानी को खोलने की प्रतिभा देखते ही बनती है। बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ!
पूरा पढ़ा, कठिन पाठ रहा। कई बार बातें एक दूसरे को काटतीं हुईं लगीं।
शायद रावण के पक्ष में प्राप्त सभी तथ्यों और लोक चर्चाओं को शामिल करने की इच्छा के चलते ऐसा हुआ हो।
लिखते समय क्रमबद्ध अभियोग पत्र का न होना क्रमबद्ध बचावपत्र के न बन पाने का कारण हो जाता है।
यदि कोई कहे कि रावण के पक्ष को रखते हुए शायद राम का सम्मान और समसामयिक सुरक्षा को बनाए रखने का दबाव रचना पर रहा है तो इंकार करना कठिन होगा।
मेरे पास आलोचनात्मक दृष्टि नहीं है परंतु यह मात्र पाठकीय आकलन है।
अच्छा लेख है. शोध भी है और सब एक साथ समेट देने की व्यग्रता भी. आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास ‘ वयं रक्षाम: ‘ याद आता रहा. लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि रावण भी राम के बलात् बनाये गये ईश्वरत्व के घेरे को तोड़ न सका?
लेखक और समालोचन दोनों को हार्दिक बधाई.
ऐसे संश्लिष्ट विचारोत्तेजक लेख आज के आलोचनाविहीन समय की पहली जरूरत हैं.
बहुत सारा ज्ञान और तर्क हासिल करना पड़ता है ऐसी कहानी लिखने के लिए। मेहनत और अनुशासन तो होता ही है।
एक दृष्टि अच्छा बनने-बनाने का भी।
यह कहानी वाचन की शैली में लिखी गई है। मुझे लगा रावण अपने पुण्यों-पापों को साफ शब्दों में संसार के सामने रख रहा है, विभिन्न भावों-भंगिमाओं से अंत:पीड़ित/द्रवित होकर!
कहानी को पढ़ते हुए मंचस्थ रावण की भूमिका की अनुभूति-सी हुई। यह मेरी प्रथम पाठ पर पाठकीय टिप्पणी भर है।
निर्मल वर्मा की कहानी डेढ़ इंच ऊपर की तरह की तरह यह एकालाप की कहानी है। एक एकल चरित्र का नाटक भी कह सकते हैं। इसके मंचन और फ़िल्मांकन के लिए अनुपम निरन्तर सोचते रहते हैं। इस कहानी को छापना है कहकर दो पत्रिकाओं ने नहीं छापा। यह सुनकर दो वेबसाइटों ने छापने का प्रस्ताव रखा जिसमें समालोचन को यह कहानी मिली। समालोचन ने इसे दस पार्ट करके इसकी प्रस्तुति को पाठकीय दृष्टि से सरल किया। इसका फ़ायदा यह हुआ कि किसी को पढ़ने के बीच से कहानी को रोकना पड़ा तो उसे याद रहेगा कि उसने इस पार्ट पर कहानी छोड़ी थी और अब अगले पार्ट से उसे पढ़नी है। नहीं तो ऐसा नहीं था कि रावण का बयान दस दिनों तक चला हो। रावण एक ही दिन में अपना सारा बयान देकर अपने महल के खंडहरों में लौट गया। वह आया इसलिए था कि किसी कलयुगी व्यक्ति ने उस पर सीता के अपहरण का मुक़दमा कर दिया था। सीता के प्रति सम्मान और भक्ति दिखाकर और अपनी नियति की मजबूरियाँ बताकर वह अपहरण के आरोप से स्वयं ही मुक्त हो जाता है। अब महाप्रतापी, महाब्राह्मण देवताओं को पराजित करने वाले रावण को सिर्फ़ एक चीज़ चाहिए। मानव का दरज़ा। उसे मनुष्य समझा जाय। गोया मानव किसी स्त्री का अपहरण नहीं करता। घटनाओं, मान्यताओं और तर्कों की इतनी बहुलता है कि विरोधाभासों से बचा नहीं जा सकता। एक निश्चित उद्देश्य की ओर बढ़ती कहानी में सिर्फ़ रोचकता ही बची रह जाय यही बड़ी बात है। यही बड़ी बात है कि कहानी में रोचकता आदि से अंत तक है।
कहानी का एक भाग उठाता हूं और दो तीन घंटे तक उसके हैंगओवर मे रहता हूं। जाने कितने दिन मे पूरी होगी। बुनावट मे इतनी कसावट चकित करता है अनुपम भाई। दानव का मानवीय पक्ष सारे स्थापित मिथको को तार तार करता है। तर्क रिलायबल से लगने लगते है। अवाक् हूं।बस।
गजब का शोध और महीन बुनावट की कहानी है। डॉ. अनुपम ओझा जी जैसे अद्वितीय चिंतक से ही यह कहानी संभव हो सकती है। कथा – संरचना भी प्रभावशाली है। ओझा जी को इस कथा के लिए बधाई तथा इसे इस रूप में प्रस्तुत करने के लिए समलोचन और सुप्रसिद्ध कवि आलोचक अरुण देव जी का बहुत आभार।
डॉ. अनुपम ओझा जिंदाबाद।
इतना ही आनंद मनु शर्मा जी की कृष्ण की आत्मकथा पढ़ने में आया था