अपने-अपने रहीम
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“समालोचन” में 27 जनवरी 2022 को छपे एक लेख “हरीश त्रिवेदी के रहीम” को देख कर मैं चौंका भी और मुझे संकोच भी हुआ, कि मैंने भला ऐसा क्या कर दिया कि एक रहीम मेरे नाम के भी निकल आये! पढ़ने पर पता चला कि ऐसा कहीं कुछ नहीं है, यह लेख बस रहीम पर 2019 में छपी उस पुस्तक की समीक्षा है जो मैंने “अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ: काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता” नाम से सम्पादित की थी. फिर याद आया कि श्री सुजीत कुमार सिंह की यह समीक्षा तो मैं साल-डेढ़ साल पहले भी पढ़ चुका हूँ और समीक्षक महोदय को वहाँ धन्यवाद भी दे चुका हूँ, ख़ास कर रहीम की कृति “नगर-शोभा” सम्बन्धी मेरी भूल से मुझे अवगत कराने के लिए. …खैर, शायद अच्छा ही रहा कि उनकी समीक्षा एक बार फिर प्रकाशित हुई और कुछ और पाठकों का भी ध्यान उस पुस्तक की ओर गया.
यदि लेख के शीर्षक से मुझे क्षण भर का भी कुछ घमंड हुआ होगा तो वह “समालोचन” के एक पाठक ने तुरंत चूर कर दिया यह लक्षित कर के कि पुस्तक के आवरण पर तो मेरा नाम तक नहीं है. (वैसे मैं जोड़ दूं कि अन्दर भी ध्यान से देखने पर ही मिलता है!) अब इस बारे में मैं क्या कहूं सिर्फ इसके, कि छापने वाले की मर्ज़ी! पुस्तक के संयोजन-संपादन में एक मुकाम आया जब वे लोग तो गुलज़ार साहेब से विशेष अनुरोध कर के लिखवाया गया इस पुस्तक का प्राक्कथन, “दो शब्द”, भी उड़ाने वाले थे (मत पूछिए क्यों!), तो फिर मेरी क्या बिसात.
छापने वाले से यहाँ अभिप्राय है न केवल प्रकाशक से बल्कि उनके पीछे खड़ी एक धनी-मानी अंतर्राष्ट्रीय संस्था, आगा खां ट्रस्ट फॉर कल्चर से भी, जो इस पुस्तक की ही नहीं बल्कि रहीम से सम्बंधित एक बड़ी योजना की प्रायोजक है जो कई वर्षों से चल रही थी. उसका मुख्य उद्देश्य था दिल्ली में स्थित रहीम के मकबरे का जीर्णोद्धार- जैसे कि वे लोग हुमायूँ के मकबरे का पहले ही कर चुके थे और निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार के आस-पास की घनी बस्ती का भी कुछ सुधार कर चुके हैं, और शायद अब दिल्ली में ही या भारत में कहीं और किसी मकबरे या बुर्ज में भी हाथ लगाएं. इसी सिलसिले में उन्होंने रहीम पर एक सम्पादित पुस्तक छापी अंग्रेजी में, और फिर उन्हें लगा कि एक पुस्तक रहीम पर हिंदी में भी आनी चाहिए.
इसी पूरे अभियान के सन्दर्भ में गुलज़ार साहेब ने मेरी सम्पादित हिंदी पुस्तक के “दो शब्द” में अपनी ख़ास काव्यात्मक नफासत से लिखा:
“आगा खां ट्रस्ट…को मुबारकबाद दीजिये कि उन्होंने ख़ानेख़ानाँ अब्दुर रहीम के दोनों लिबास सम्हाल लिए. उनके मकबरे को संगमरमर लगा कर पुख्ता कर रहे हैं और उनके दूसरे लिबास को पुख्ता कर रहे हैं इस किताब से.”
इसके पहले रहीम के बारे में वे कह चुके थे:
“वो संत थे और सिपाही की ज़िन्दगी जीते रहे. देह को अगर आत्मा का वस्त्र कहूं तो कहना पड़ेगा कि उस आत्मा ने ग़लत कपड़े पहन रखे थे.”
अस्तु, इस टिप्पणी में मेरा मंतव्य यह दिख़ाना है कि मेरे ही नहीं हम सब के अपने-अपने रहीम हैं. (हिंदी में “अपने-अपने राम” तो हो चुके तो रहीम भी हो जाँय तो राम-रहीम का संतुलन बना रहे.) हिंदी के रहीम से तो हम सब बचपन से परिचित हैं ही, अब आइये तीन-चार और रहीमों पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं: अंग्रेजी के रहीम, फ़ारसी के रहीम, संस्कृत के रहीम, और अंत में हमारे आज के “प्रासंगिक” रहीम.
1.
अंग्रेजी के रहीम
आगा ख़ान ट्रस्ट की रहीम पर अंग्रेजी में छपी पुस्तक पहले आ गयी थी, जिसका शीर्षक था:
Celebrating Abdur Rahim Khan-i-Khanan:
Statesman,
Courtier,
Soldier,
Poet,
Linguist,
Humanitarian,
Patron
(2017).
रहीम के लिए यहाँ प्रयुक्त सातों विशेषण सही हैं पर ज़रा उनका क्रम देखिये, जिसमें उनका कवि-रूप चौथे नंबर पर आता है. यह दृष्टिकोण हिंदी का नहीं है, यह मुग़ल इतिहास का दृष्टिकोण है जिसे अंग्रेजी ने अपना लिया है, जिसमें सबसे पहले वे राज/कूट/नीतिज्ञ थे, फिर दरबारी, फिर सिपहसालार, और इस सब के बाद कवि भी थे.
उस पुस्तक के सम्पादक थे श्री शकील हुसैन जो अमेरिका में रहते हैं और “designer” भी हैं. जिन बारह लोगों के लेख हैं उनमें सात भारत के बाहर रहते हैं और पांच जन्मजात विदेशी हैं. कुछ लेख उनके व्यक्तित्व और उनके दरबारी पक्ष पर हैं, दो उनके फ़ारसी में किये गये लेखन पर हैं जिनमें एक अनुवाद है (जिसका उल्लेख बाद में होगा) और कुछ छुट-पुट रचनाएँ हैं, और अंत में दो लेख रहीम की हिंदी कविता पर केन्द्रित हैं. इनके लेखक हैं एक तो इंग्लैंड के रुपर्ट स्नेल (Rupert Snell) जिनसे अच्छी हिंदी जानने वाले मेरी राय में भारत में भी कम ही हैं, और खड़ी बोली ही नहीं बल्कि अवधी और ब्रज भी; अभी उन्होंने बिहारी के चार सौ दोहों का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया है. और दूसरी हैं एलिसन बुश (Allison Busch), जो अमेरिका में हिंदी पढ़ाती थीं और जिनकी केशवदास और रीति-काल पर अनूठी पुस्तक है.
मैंने अपना लेख कुछ व्यापक सन्दर्भ ले कर लिखा “Rahim in His World and in Ours” शीर्षक से, जिसमें मैंने रहीम को लम्बे साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में देखा और अनेक और कवियों का भी उल्लेख किया: खुसरो, कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, रसख़ान, केशव, बिहारी- और स्वयं रहीम के प्रश्रय में लिखने वाले गंग, संत और प्रसिद्ध नाम के कवि भी. अंत में मैंने कहा कि रहीम ने भक्ति कविता लिखी तो पूरी तरह मुस्लिम बने रहते हुए, रसख़ान की तरह हिन्दू हो कर नहीं. यह भी इंगित किया कि हमारे समय में उनको हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के ध्वजावाहक के रूप में शेख सलीम अहमद ने भी देखा है और नामवर सिंह ने भी.
कई पाठकों को मेरी सम्पादित हिंदी पुस्तक सामान्य हिंदी पुस्तकों की तुलना में कहीं अधिक भव्य लगी, साज-सज्जा में और अनेक रंगीन चित्रों के प्रयोग के अर्थ में. वे यदि अंग्रेजी वाली पुस्तक देखें तो उन्हें पता चले कि सचमुच भव्य क्या होता है! मैंने ही मना किया कि हिंदी वाली पुस्तक अधिक भव्य न हो जिससे हिंदी के पाठक खरीद सकने की सोच तो सकें. तभी अंग्रेजी पुस्तक का दाम है 2000 रुपये और हिंदी पुस्तक का 895 रुपये (पेपरबैक में रु० 495).
यह अंतर कुछ और बड़े रूप में दिखा जब अंग्रेजी पुस्तक का विमोचन हुआ. सब सहयोगी लेखक बुलाये गए, विदेश से भी, और कई आये भी. दिन-भर की गोष्ठी हुई, और उसके आगे-पीछे तीन दिन तक शाम को संगीत के कार्यक्रम हुए. एक शाम रहीम के दोहे और पद गाये राजन और साजन मिश्र बंधुओं ने, एक और शाम लोक शैली में गाये रहमत खाँ लाँगा और उनके साथियों ने, और तीसरी शाम एक कार्यक्रम किस्सागोई का भी हुआ रहीम को लेकर.
वैसे 2020 में हिंदी की पुस्तक का विमोचन भी अच्छा ही हुआ. “सुन्दर नर्सरी” नामक निजामुद्दीन मोहल्ले में स्थित सुन्दर उपवन में (जिसका भी आगा ख़ान ट्रस्ट ने उद्धार किया है) खुले सभागार में शाम का दो घन्टे का कार्यक्रम हुआ जिसमें संस्कृति मंत्री भी आये, दस-पन्द्रह मिनट रहीम के पद भी गाये गए, और चार-पांच संक्षिप्त भाषण भी हुए. पर ध्यान आता रहा कि रहीम इतने बड़े मुग़ल दरबारी न रहे होते और उनका इतना बड़ा मकबरा न होता तो निश्चय ही ये दोनों पुस्तकें भी न होतीं.
२.
हिंदी-रहित रहीम
अंग्रेजी-हिंदी में भेद और भी खुल कर सामने आया अंग्रेजी की गोष्ठी में. एक वक्ता थे श्री टी. सी. ए. राघवन, जो भारतीय विदेश सेवा में रहे हैं, और जो रहीम पर हाल में ही अपनी एक अलग किताब लिख चुके थे अंग्रेजी में, Attendant Lords (2017) नाम से. (इस शीर्षक में टी. एस. एलियट की एक कविता “प्रूफ्रॉक” की ओर गूढ़ इशारा है और उस कविता में यहाँ “हैमलेट” की ओर इशारा है, पर वह सब पेंच-दर-पेंच जाने दें.) पुस्तक के सन्दर्भ में इसका अनुवाद होगा “दो मुसाहिब”, और ये दो मुसाहिब हैं अकबर के संरक्षक बैरम ख़ान और उनके पुत्र रहीम, जिन दोनों को ही यहाँ कवि और दरबारी कहा गया है. यह पुस्तक मुख्यतः ऐतिहासिक है, विद्वत्तापूर्ण, मौलिक और रोचक है, पर इसका बस अंतिम अध्याय ही रहीम की हिंदी कविता के बारे में है, बल्कि रहीम की हिंदी में कवि के रूप में प्रतिष्ठा के बारे में.
उस गोष्ठी में श्री राघवन ने कहा कि एक प्रश्न यह उठता रहा है कि कहाँ रहीम का दरबारी व लगभग राजसी वातावरण और कहाँ जन-भाषा हिंदी? क्या मुग़ल दरबार के रहीम वही रहीम हैं जो हिंदी के कवि कहे जाते हैं या ये दो अलग-अलग व्यक्ति हैं? जैसे कि शेक्सपियर के बारे में कहते थे कि वह छोटे से गाँव का आदमी जो यूनिवर्सिटी भी नहीं गया वह इतने उच्च कोटि के काव्यात्मक और उदात्त नाटक कैसे लिख सकता था? वे अवश्य उसके नाम से लॉर्ड बेकन या Earl of Oxford या उनके मुख्य प्रतिद्वंदी नाटककार मार्लो ने लिखे होंगे!
उनके तुरंत बाद बोलने की मेरी बारी आई तो मैंने कहा कि “रहीम” या “रहिमन” हस्ताक्षर वाले सैकड़ों दोहे और पद यदि अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना ने नहीं लिखे तो श्री राघवन रहीम के समकालीन किसी और हिंदी लेखक का नाम बताएं जिसने रहीम के नाम से वे सब दोहे इत्यादि लिखे हों या लिख सकने में समर्थ रहा हो. यह क्या बात हुई कि रहीम यदि उच्च वर्ग का जीवन जीते रहे तो जनता से और जन-भाषा से, खास कर अपने सिपाहियों से, उनका संपर्क ही न रहा हो?
हिंदी को इतना दीन-हीन समझने की प्रवृत्ति अनेक इतिहासकारों में मिलती है, कुछ इस कारण से भी कि वे अंग्रेजी में लिखते हैं. इसके सिवा फ़ारसी स्रोतों के आधार पर उर्दू में लिखने वाले कुछ आधुनिक लेखकों ने भी रहीम को हिन्दी का कवि मानने से इन्कार किया है जिनमें श्री राघवन अपनी पुस्तक में विशेषकर सैय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान और उनकी पुस्तक “बज़्म-ए-तैमूरी” (तीन खण्डों में 1973-81 में प्रकशित) का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि न रहीम हिंदी के लेखक थे और न उनका किसी और हिंदी कवि से कोई वास्ता था. (Raghavan, p. 282-85)
3.
फ़ारसी के रहीम
मुग़ल काल में फ़ारसी का जो जल्वा और दबदबा था उसकी अब कल्पना करना भी मुश्किल है. वैसे मुग़ल जब आये तो उनकी भाषा तुर्की थी. बाबर ने अपनी आत्मकथा 1529-30 में तुर्की भाषा की चुगताई शैली में लिखी और जब अकबर ने 1580 के आस-पास फ़ारसी को मुग़ल दरबार की भाषा घोषित किया तो उसका फ़ारसी में अनुवाद करने का काम रहीम को सौंपा गया, जो उन्होंने 1589 में पूरा करके अकबर बादशाह को पेश किया.
यह अनुवाद ही रहीम की फ़ारसी में लिखी प्रमुख कृति है. इसके अलावा उनकी लिखी कुछ चिट्ठियां और फरमान है, कुछ फ़ारसी किताबों की अपनी प्रतियों पर लिखी उनकी टिप्पणियां हैं, और बहुत ही कम शायरी है जिसमें कुछ ग़ज़लें हैं और कुछ रुबाइयाँ हैं. ये भी इसलिए उपलब्ध हैं कि रहीम के जीवनीकार ने उनकी जो हज़ारों पृष्ठों में जीवनी लिखी उसमें ये इधर-उधर बिखरी हुई मिलती हैं. फ़ारसी और उर्दू में जिस शायर ने अपना दीवान (यानी ग़ज़लों का संग्रह) प्रकाशित नहीं किया उसको शायर नहीं माना जाता. इस अर्थ में रहीम फ़ारसी के शायर नहीं थे.
पर फ़ारसी ही सरकार या दरबार की भाषा थी. जहाँ से मुस्लिम विजेता आए थे, यानी खैबर दर्रे के पश्चिम से, उधर उनकी आँखें लगी ही रहती थीं. काबुल, कंदहार और यहाँ तक कि समरकंद और बुखारा तक मुग़ल साम्राज्य का आधिपत्य हो यह सभी मुग़ल बादशाहों का सपना रहा, जब कि ये जगहें अधिकतर फारस के कब्जे में रहीं. लगभग सभी मुग़ल शाहजादे काबुल-कंदहार पर चढ़ाई करने बड़ी-बड़ी फौजें लेकर गए और अधिकतर हार कर लौट आये. इनमें औरंगजेब भी थे और दारा शुकोह भी. प्रसंगवश, प्रेमचंद के आरंभिक काल की एक अल्पलक्षित कहानी है
“दारा शिकोह का दरबार” (सितम्बर 1908), जिसमें बहस होती है कि अपना साम्राज्य फैलाने के लिए मुग़ल शासक भविष्य में अपनी फ़ौज और शक्ति का रुख किस तरफ करें, हिंदुस्तान से बाहर काबुल-कंदहार की तरफ या हिन्दुस्तान में ही दक्षिण (जिसे फ़ारसी में “दकन” कहते थे) की तरफ, और गहन विमर्श के बाद यह तय पाया जाता है कि अपने पुरखों की ज़मीन पर फख्र करना मुगलों का परम कर्त्तव्य है इसलिए कंदहार को हिंदुस्तान का हिस्सा बनाने और बनाये रखने का हर प्रयत्न उन्हें करते रहना चाहिए (“प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य,” 1980).
बहरहाल, अकबर और रहीम के ज़माने में मुग़ल साम्राज्य चाहे जितना बड़ा या समृद्ध हो जाये वह अपने को फारस के साम्राज्य, साहित्य और संस्कृति से कमतर समझता था. शताब्दियों तक सिलसिला चला कि फारस से आये लोग मुग़ल दरबार में तुरंत ऊंचा ओहदा पाते थे, शायद इसलिए भी कि मुगल शासकों को उन पर भरोसा ज्यादा था. इसका एक उदाहरण यह भी है कि फारस से एक छोटे-मोटे शायर सन 1614 में चले हिन्दुस्तान की ओर पैसा कमाने, जितना फारस में मिल सकता था उससे कहीं ज्यादा, और यहाँ आ के उन्होंने रहीम के चरण चूम लिए. रहीम को अब्दुल बाक़ी निहावंदी नाम के वे शख्स पसंद आ गए, और उनको रहीम ने सीधे अपना आधिकारिक जीवनीकार नियुक्त कर दिया, बड़ा ओहदा और वेतन दे कर. तब रहीम 58 साल के थे, उनके जीवन की बड़ी घटनाएँ अधिकतर घट चुकी थीं, इनके पुराने साथी-संगियों में निहावंदी किसी को नहीं जानते थे, यहाँ की कोई भाषा नहीं जानते थे, यहाँ की रीति-रस्में नहीं जानते थे, यहाँ की राजनीति नहीं जानते थे, यहाँ का समझिये कि कुछ भी नहीं जानते थे – बस फ़ारसी जानते थे. और आज हम रहीम के बारे में जो भी जानते हैं उसका नब्बे प्रतिशत इन्ही निहावंदी साहेब की महाकाय जीवनी से जानते हैं!
तो स्वाभाविक है कि निहावंदी ने अपनी “मा’सिर-ए रहीमी” में रहीम के साहित्यिक पक्ष का परिचय देते हुए फ़ारसी की ही बात की है कि रहीम ने किन-किन और कितने फ़ारसी कवियों को कितना अधिक प्रश्रय दिया. पर उन्होंने यह भी माना है कि जिन हिंदी कवियों को भी रहीम ने प्रश्रय दिया उनके बारे में वे लिखने बैठें तो शब्द कम पड़ेंगे और वह वृत्तान्त समाप्त होने को नहीं आएगा. (यानी उनके बारे में वे कुछ नहीं जानते, पर यह ज़रूर जानते हैं कि वे कुछ नहीं जानते!) यह भी उन्होंने कहा है कि रहीम स्वयं हिंदी के सुन्दर और मोहक कवि थे और हिंदी कवियों में उनके प्रति पूरा सम्मान था. (देखिये, Sunil Sharma का निहावंदी पर लेख, Celebrating Rahim में, p. 92.)
4.
संस्कृत के रहीम
रहीम संस्कृत जानते थे, और संस्कृत में और संस्कृत-हिंदी मिश्रित भाषा में भी उनकी कुछ रचनाएँ मिलती हैं. हिंदी में उनकी जो रचनाएँ हैं उनमें तत्सम, तद्भव और देशज तत्त्व समान रूप से मिलते हैं. उनकी दोहावली का पहला ही दोहा शुरू होता है “अच्युत-चरन-तरंगिनी, शिव-सिर मालति-माल.” मिश्रित संस्कृत-हिंदी में उनकी ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं:
“शरद निशि निशीथे चाँद की रोशनाई
सघन वन निकुंजे कान्ह वंशी बजाई.”
खुसरो ने ऐसी मिश्रित पंक्तियाँ फ़ारसी और खड़ी बोली मिला कर लिखी थीं, रहीम ने यह प्रयोग संस्कृत और खड़ी बोली को मिला कर भी किया.
अनेक विद्वानों ने न केवल रहीम की ऐसी रचनाओं पर लिखा है बल्कि यह भी दिखाया है कि रहीम के अनेक दोहे कैसे स्पष्ट ही संस्कृत के श्लोकों पर आधारित दीखते हैं. इस की चर्चा करते हुए मैंने अंग्रेजी पुस्तक वाले अपने लेख में ध्यान दिलाया था कि रहीम ही नहीं बल्कि सूर, तुलसी, केशव, बिहारी और उस युग के अनेक अन्य लेखक भी यही कर रहे थे, क्योंकि उस युग में संस्कृत साहित्य का हिंदी के (और लगभग सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के भी) मूल स्रोत या आधार के रूप में निस्संकोच प्रयोग किया जा रहा था. संस्कृत वह आधार-शिला थी जिस पर नयी भाषाएँ अपने-अपने साहित्यिक भवन खड़े कर रहे थीं. (Trivedi, in Celebrating Rahim, p. 49)
इन सभी पक्षों की विस्तृत समीक्षा करते हुए और बहुत कुछ और भी जोड़ते हुए एक पुस्तक आई है, श्री प्रताप कुमार मिश्र की “ख़ानख़ाना अब्दुर्रहीम और संस्कृत” (2007, 342 पृष्ठ). मिश्र जी अत्यंत उत्साही, आदर्शवादी, उद्यमी और सदाशय-धर्मी जीव हैं और संस्कृत और उर्दू/फ़ारसी के बीच सेतु की भूमिका निभाते रहे हैं. यहाँ तक कि उन्होंने उर्दू उपन्यास “उमराव जान अदा” का संस्कृत में अनुवाद भी प्रकाशित किया है (2016), जिसमें गद्य के अलावा अनेक “गजलगीति” और “शे’रपद्यानि” की छटा दर्शनीय है.
अस्तु, फ़ारसी की तरह रहीम की संस्कृत रचनाएँ भी मात्रा में अधिक नहीं हैं और “मदनाष्टक” के अलावा “खेटकौतुकम” में तो संस्कृत के साथ हिंदी/फ़ारसी मिली हुई है तो इन्हें काव्यकौतुक अथवा वाग्विलास भी माना जा सकता है. प्रताप मिश्र जी ने अपनी पुस्तक में जो भी विरल तथ्य कहीं भी मिल सकते थे उन सब का विशद संग्रह और विवेचन किया है. कई जगह तथ्यों के अभाव में उन्होंने अनुमान और कल्पना का भी आश्रय लिया है जो कहीं-कहीं अविश्वसनीय-सा हो जाता है, जैसे कि उन्हीं के शब्दों में उनकी यह “आश्चर्यजनक” खोज कि “पंडितराज जगन्नाथ तक रहीम के साहित्यिक संपर्क और उनके संरक्षण में थे” (पृष्ठ 60), जो उन दोनों की जीवन-अवधि देखते हुए असंभव तो नहीं है पर अधिक संभाव्य भी नहीं है.
पर मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक में उनका जो लेख है उसमें जब कुछ और आगे बढ़ कर उन्होंने इन दोनों महानुभावों के बीच दिल्ली के लाल किले में हुई एक भेंट का सजीव वर्णन किया तो मुझे टोकना पड़ा कि लाल किला तो बनना ही रहीम के स्वर्गवास के ग्यारह साल बाद शुरू हुआ था. वह युग भले ही किम्वदंती और अतिशयोक्ति का रहा हो पर हमारे युग में स्वीकृति के मानदंड बदल गए हैं.
प्रताप जी ने अपनी पुस्तक में यह भी अच्छा किया है कि परिशिष्ट में रहीम की सभी संस्कृत(/मिश्रित) रचनाओं का पूरा पाठ दे दिया. साथ ही एक और अल्पज्ञात रचना उन्होंने छापी है, रूद्र कवि का छोटा-सा ही “नवाबख़ानख़ानाचरितम” जो संस्कृत में ही है, और जिसमें इस प्रकार की पंक्तियाँ हैं: “कीर्ते केलिनिकेतनम विजयते श्रीख़ानख़ानानृपः” लगता है कि इस कृपाकांक्षी कवि द्वारा रहीम को संस्कृत की प्रशस्ति-परम्परा में पूर्णतः समाहित कर लिया गया था.
5.
प्रासंगिकता के रहीम
पिछले कुछ दशकों से हिंदी में किसी भी लेखक का मानदंड एक ही रह गया है कि वह कितना “प्रासंगिक” है, जिसका मतलब होता है कि हमारे जो आज के राजनीतिक-सामाजिक सरोकार हैं उनमें वह कितना अधिक जुड़ सकता है या जोड़ा जा सकता है. पहले भी प्रासंगिकता या अर्थवत्ता की बात होती थी पर उमसे यह भाव प्रमुख था कि हम विनम्र भाव से करबद्ध हो कर उस कवि के यथासंभव निकट जाकर उसके तत्कालीन सरोकारों को पहले समझें और फिर देखें कि उनकी कितनी संगत हमारे समय और सरोकारों के साथ बैठती है. और यदि न भी बैठे तो ऐसा नहीं था कि हम मान लें कि वह कवि अगर सीधे-सीधे हमारे काम का नहीं है तो फिर वह किसी काम का नहीं है.
लेकिन अब लगता है कि बात फरक है. अब रहीम के वही दो-तीन दोहे दोहराए जाते हैं जो हमारी समकालीन दृष्टि में उनका सर्व-धर्म-समभाव दिखाते हैं और उन्हें धर्म-निरपेक्ष सिद्ध करते दीखते हैं:
“रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चिटकाय...” या
“रूठे सुजन मनाइए जो रूठें सौ बार…”
पर रहीम की किसी भी रचना में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का कोई संकेत तक नहीं मिलता, और यह भी नहीं स्पष्ट है कि उस ज़माने में अकबर की राजपूतों पर विजय के बाद ऐसे कौन से हिन्दू थे जो रूठने की जुर्रत कर सकते थे या प्रेम (या कम से कम सादर अनुज्ञा) का धागा चिटका कर तोड़ सकते थे. बल्कि रहीम पर आश्रित अनेक हिन्दू कवि तो उनकी तुलना बड़े-से-बड़े देवताओं से करने में और रहीम को उनसे भी अधिक पराक्रमी सिद्ध करने की जैसे होड़ लगाये रहते थे.
इस सन्दर्भ में इस पर भी किसी का ध्यान नहीं जाता कि रहीम ने यह भी तो लिखा था कि
“रहिमन बिपदा हू भली जो थोड़े दिन होय...” या
“रहिमन चुप ह्वे बैठिये देखि दिनन को फेर…” या
“ज्यों नाचत कठपूतरी करम नचावत गात…” या फिर यह भी:
“कह रहीम कैसे निभै केर बेर को संग…”
साथ ही, राम या कृष्ण के प्रति भक्ति-भाव दर्शाते हुए उनके अनेक दोहे तो हैं ही, उनके बरवै-संग्रह का जो मंगलाचरण है उसमें “बिघन-बिनासन” गणेश, “नंदकुमार” कृष्ण, “सूरज देव”, “गिरिजा-ईस”, और “सुअन- समीर” अर्थात पवनपुत्र सभी को एक-एक दोहे में नमन किया गया है. तो उनके काव्य का एकांगी अर्थ निकालना तो बस मीठा-मीठा गप करने वाली बात हुई. रहीम की जीवन-दृष्टि में व्यंग्य-विनोद भी था और जीवन की विडम्बनाओं की सहज स्वीकृति भी थी.
यह ठीक है कि पहले के लेखकों का हम सब कुछ नहीं बचाए रखते पर “थोथा देय उड़ाय” की प्रक्रिया एजेंडा लेकर नहीं चलती, न ही उसमें लेखक के मूल स्वर के प्रति अन्याय होता है.
निष्कर्ष
तो इस सब का निष्कर्ष क्या निकलता है? यह तो दिखता ही है कि अंग्रेजी, फ़ारसी, संस्कृत और प्रासंगिकता सभी के अलग-अलग रहीम हैं. अंग्रेजी और फ़ारसी के लोग तो यह मानने को ही प्रस्तुत नहीं हैं कि रहीम का हिंदी से भी कुछ सम्बन्ध था. और रहे हम हिंदी-वाले, तो हम तो यह भी नहीं जानते कि ऐसी लोगों का भी इस जगत में अस्तित्व है और वे अभागे ऐसा सोचते हैं! किसी और हिंदी कवि को लेकर विविध भाषाओं में शायद इतना घोर मतान्तर नहीं रहा और अब भी बना हुआ है.
वैसे अनेक हिंदी पाठक भी रहीम को शायद अधिक नहीं जानते. हम सब स्कूल में रहीम के आठ-दस दोहे अवश्य पढ़ते हैं जिनमें से कुछ अपनी सहज मार्मिकता के कारण जीवन-भर हमारा साथ निभाते हैं. पर रहीम की “दोहावली” में लगभग 280 दोहे हैं, जिनमें कुछ तो उनकी रसिकता के ऐसे मोहक नमूने हैं कि वे कदापि “छात्रोपयोगी” नहीं कहे जा सकते और किसी स्कूल के पाठ्य-क्रम में शामिल नहीं किये जा सकते. उनमें से हम बड़े हो कर भी कितने पढ़ते हैं? या “नगर-शोभा” जैसी लोक-जीवन पर आधारित अ-नायिका जैसी नायिकाओं पर लिखी शृंगारिक पर विनोदपूर्ण पुस्तक, जिसमें 142 दोहे हैं और एक से एक बढ़ कर? या रहीम का बरवै छंद की अलग ही ललित यति में लिखा “नायिका-भेद” जिसकी मौलिकता का प्रभाव मतिराम आदि परवर्ती कवियों पर दूर तक पड़ता रहा, या उनकी अन्य कई रचनाएँ भी इसी नए छंद में?
मेरी सम्पादित पुस्तक में बस मेरे ही रहीम नहीं हैं, जो मेरे परिचयात्मक आरंभिक लेख और अंत में सम्मिलित एक और विवेचनात्मक लेख (“रहीम की जीवन-दृष्टि”) में पाए जा सकते हैं. उस पुस्तक में मेरे अनुरोध पर लिखे गए (या मेरे द्वारा चयनित पहले के लिखे) नौ लेख और हैं रहीम के विविध पक्षों पर, जिनमें हर एक लेख-क के अपने-अपने रहीम दिखेंगे.
पर इस पुस्तक में जो असली रहीम हैं वे दूसरे भाग के उन सौ पृष्ठों में पाए जायेंगे जिनमें उनके सभी काव्य-ग्रंथों से चुना हुआ एक संकलन है, हर एक पद्य के कठिन शब्दों का शाब्दिक अर्थ देते हुए और फिर उसका पूरा भावार्थ व्याख्यायित करते हुए. व्याख्याकारों में एक हैं श्री माधव प्रसाद मिश्र, जिनका अपने पेशेवर जीवन में साहित्य से कोई लेना-देना नहीं रहा पर जिनका कविता-प्रेम अद्भुत है. और दूसरी हैं डॉ. दीपा गुप्ता जो अल्मोड़ा में एक कॉलेज में हिंदी पढ़ाती हैं. आगा खां ट्रस्ट के द्वारा प्रायोजित अंग्रेजी और हिंदी की दोनों पुस्तकों में वे एकमात्र सहयोगी लेखक हैं जिनकी पूरी पीएच. डी. रहीम पर हैं.
इन सभी सम्मिलित स्वरों से मिलकर बने हैं इस पुस्तक के रहीम, और यही पुस्तक की सार्थकता है. अंग्रेजी और फ़ारसी के लोगों को उनके हाल पर छोड़ दीजिये, हम अपने हिंदी के रहीम को तो अपना बनाये रखें, और उनसे कुछ अधिक परिचय और आत्मीयता अर्जित करें.
अंत में, रहीम की एक पंक्ति है जो मुझे बार-बार लगता है कि उनकी पूरी सम्वेदना की परिचायक है और कई अर्थों में उनके अपने जीवन पर भी लागू होती है. इसमें जीवन की एक विडम्बना दर्शाई गयी है जो यहाँ दुःख का नहीं बल्कि सुख का कारण है:
“बेटा भयो बसुदेव के धाम औ’ दुन्दिभि बाजत नन्द के द्वारे” !
तो रहीम पैदा तो हुए थे तो तुर्की-फ़ारसी के घर पर दुन्दुभि बजती रही है हमारी हिंदी के द्वारे. यह हम सब का परम सौभाग्य है.
जयपुर लिटररी फेस्टिवल में इस पुस्तक पर एक सत्र हुआ था, जिसमें हरीश त्रिवेदी के साथ श्री यतीन्द्र मिश्र और प्रो० रेखा सेठी ने भाग लिया था. इस लिंक से देखा जा सकता है.
https://www.youtube.com/watch?v=3M0QhWu9nXA
हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
यह संपन्न करनेवाला आलेख है।
बधाई। और धन्यवाद ।
पठनीय और बहुत मह्त्त्वपूर्ण आलेख। रहीम के व्यक्ति और उनकी हिंदी कविता में फाँक है, हम हिंदी वाले इस पर
कम विचार करते हैं ….
सूफ़ी संत रहीम को मिडिल स्कूल से पढ़ते आ रहे हैं. उनके दोहे स्मृति के जल में कितनी ही बार धुलते रहते रहे हैं और हर बार उनका उज्ज्वल रूप निखरता हुआ आता रहा है.
उनका उस समय और इस समय का दोहा शायद ही कोई भूला होगा जिन्होंने रहीम को पढ़ा है :—
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।।
हरीश जी ने जिस साधना और तपस्या से रहीम को परखा है व विद्वजनों के कथनों का उल्लेख कर रहीम के नानाविध रूपों को संयोजित किया है वह अद्वितीय हैं .
गायन से लेकर पठनीयता की ये आत्मसात् यात्रा और उसके पड़ावों में अनूठापन आच्छादित हो जाता है- रसास्वादन यही है.
उन्होंने ने आध्यात्मिक विश्लेषण नहीं बल्कि अन्तर्निहित भावों को समकालीन आकाश में विस्तीर्ण किया है.
रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ,
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।
रहीम को पढ़ने की ललक और उन्हें बारम्बार पढ़ते रहने की चिर जोत प्रज्ज्वलित की है, उन्हें व समालोचन के प्रति कृतज्ञ हूँ.
वंशी माहेश्वरी.
पढ़कर बहुत अच्छा लगा |
रहीम पर यह अब तक की खोजों की सार्थक तहकीकात है। हिन्दी वालों को यह संदेह जरूर हो सकता है कि सेनापति बैरम खां के बेटे खानेख़ाना अब्दुर्रहीम ही हमारे हिन्दी फ़ारसी कवि या कोई और। बेशक हरीश त्रिवेदी जी ने इन शक-शुबहो का निराकरण किया है।
यह असाधारण रूप से गंभीर आलेख है। इसके अध्ययन में उतरने से ही कुछ पा सकते हैं।
प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी को सुनना,पढ़ना और संगोष्ठियों में उनके साथ भाग लेना तथा संवाद करना एक रचनात्मक अनुभव हुआ करता है। विनम्रता के साथ दृढ़ता का मणिकांचन संयोग और अपनी सांस्कृतिक माटी की सोंधी गन्ध की गहरी पहचान आपके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है।
भारत के जिन गिनेचुने विश्वप्रसिद्ध अंग्रेज़ी साहित्य के मर्मज्ञों की हिंदी के नए-पुराने साहित्य में गहरी रुचि है उनमें प्रोफेसर त्रिवेदी संभवत: सर्वाधिक प्रमुख हैं।
Jstor वेबसाइट पर अंग्रेज़ी में हिंदी साहित्य के बारे में सबसे ज़्यादा छोटे-बड़े आलेख उन्हीं के मिलते हैं।
यह अलग बात है कि उनमें कुछ लेख लगभग परिचयात्मक हैं, जिसकी वजह मेरे ख्याल से यह है कि वे संभवतः हिंदी साहित्य में रुचि लेने वाले विदेशी छात्रों और विद्वानों के लिए लिखे गए हैं।
अक्सर अंग्रेज़ी में हिंदी के बारे में लिखते हुए संभावित पाठक वर्ग का ध्यान रखकर लोग जाने-अनजाने कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो सनसनीखेज़ भले हो,पर उससे हिंदी के बारे में विभ्रम पैदा होता है।प्रोफेसर त्रिवेदी का लेखन इससे अलग किस्म का है।
रहीम पर आपके द्वारा सम्पादित पुस्तक से हिंदी में गंभीर पठन-पाठन से जुड़े लोगों तथा खास तौर पर मध्यकालीन कविता पर काम करने वाले विद्वानों एवं शोधार्थियों को सहूलियत होगी।
साधुवाद।
हरीश जी जैसे मेहनती विद्वानों को पढ़ना हमेशा मेरे लिए समृद्धकारी रहा है । उनके पास शोध और विवेचना की जबरदस्त तार्किक दृष्टि है । रहीम पर आज तक इस तरह सामग्री पढ़ने का सुअवसर नहीं मिला । रहीम की परम्परा क्या है और उसकी सही पहचान क्या है,इस संदर्भ में भी यह लेख रहीम के संदर्भ में हमारी दृष्टि का विस्तार करता है ।
एक बहुत ज़रूरी बात की ओर इशारा करते हुए त्रिवेदी जी ने लिखा है कि “हिंदी को इतना दीन-हीन समझने की प्रवृत्ति अनेक इतिहासकारों में मिलती है, कुछ इस कारण से भी कि वे अंग्रेजी में लिखते हैं. इसके सिवा फ़ारसी स्रोतों के आधार पर उर्दू में लिखने वाले कुछ आधुनिक लेखकों ने भी रहीम को हिन्दी का कवि मानने से इन्कार किया है जिनमें श्री राघवन अपनी पुस्तक में विशेषकर सैय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान और उनकी पुस्तक “बज़्म-ए-तैमूरी” (तीन खण्डों में 1973-81 में प्रकशित) का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि न रहीम हिंदी के लेखक थे और न उनका किसी और हिंदी कवि से कोई वास्ता था. “(Raghavan, p. 282-85)
प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी को यदा-कदा पढ़ने और कई बार प्रत्यक्ष सुनने का सौभाग्य पाया है। उन्हें पढ़ते हुए उन्हें सुनने की सी ही अनुभूति होती है। वही विशद अध्ययन और गंभीर मनन से अर्जित सहज, विनम्र और दृढ़ पांडित्य और वही प्रीतिकर तथा सूक्ष्म व्यंग्य-विनोद के हल्के बघार वाली सुपाच्य और पौष्टिक अभिव्यक्ति। रहीम से मेरा लगाव फिर जगाने का काम आकाशवाणी में पूर्व वरिष्ठ सहकर्मी मूलतः दमोह-वासी श्री एम. के. मोदी ने किया था, जब 1994-95 में मेरी आकाशवाणी, जगदलपुर में पदस्थापना के दौरान वे वहाँ हाई-पॉवर ट्रांसमिटर की स्थापना के लिये लंबे दौरों पर आते थे और अपने-अपने परिवारों से दूर हम दोनों आवारागर्दियों और सुदीर्घ अड्डेबाज़ी का सुख उठा रहे थे। मोदी जी इंजीनियर थे, लेकिन जीवन और साहित्य रस से भरे हुए (दुर्भाग्य से अवकाशप्राप्ति के बाद उनका अपेक्षाकृत जल्दी ही निधन हो गया)। वे रहीम की कविता के बड़े मुरीद थे और उनकी संगत ने मुझे भी रहीम और उनके बहाने भक्तिकाल के साहित्य से एक नयी पहचान करने के लिये उन्मुख किया। त्रिवेदी जी के इस लेख को पढ़ कर कम से कम उस अवस्था तक तो पहुँच गया हूँ, जब इतना जान लिया जाए कि मैं कितना कम जानता हूँ। इस अनमोल पठन सुख को उपलब्ध कराने के लिये ‘समालोचन’ का हार्दिक आभार।
आप सभी को अनेकशः धन्यवाद! टिप्पणी करने वाले सभी सुधी और उदारमना पाठकों ने जिस प्रकार मेरा उत्साह-वर्द्धन किया है उसके लिए कृतज्ञ हूँ.
पुनश्च के रूप में एक छोटी सी बात और, जो बाद में ध्यान में आई. जिनको संदेह हो कि दरबारी रहीम वही व्यक्ति हैं कि नहीं जो हिंदी के कवि हैं वे उनके उन दोहों या पदों को देखें जहां रहीम राजसी मानसिकता और कवि की मानसिकता दोनों को समान भाव से देखते हैं और फिर उनके बीच के द्वंद्व को एक अलग ही उदात्त धरातल पर ले जाते हैं. ऐसा यह दोहा मुझे विशेष प्रिय है:
भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप.
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तो एकै रूप.
यह तो भर्तृहरि से भी बढ़ कर लगता है!
पुनः सब को धन्यवाद.
हरीश त्रिवेदी
वाह! किस दोहे प्रतिगामी ठहरी है।प्रणाम!
निशब्द हूंँ – इतना सुविचारित और सुघड़ आलेख पढ़कर ! किसी भी रचना को पढ़कर यदि पाठक की वाणी ‘मौन’ हो जाए, तो इसे क़लमकार की क़लम का कमाल ही कहा जाएगा !
इतने उत्कृष्ट आलेख को तो, साहित्य अकादमी की पत्रिका “समकालीन भारतीय साहित्य” में छपना चाहिए था !
हरीश जी को बहुत- बहुत साधुवाद ! उनकी क़लम इसी तरह शिद्दत से चलती रहे…….आमीन !!!
दीप्ति
(पूर्व प्रोफ़ैसर)
पुणे .