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Home » कविता की रचनात्मक भूमिका और ‘शब्दों का देश’: शशिभूषण मिश्र

कविता की रचनात्मक भूमिका और ‘शब्दों का देश’: शशिभूषण मिश्र

‘शब्दों का देश’ राकेश मिश्र का चौथा कविता संग्रह है जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने इसी वर्ष प्रकाशित किया है. इस संग्रह की समीक्षा युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने लिखी है.

by arun dev
December 11, 2021
in समीक्षा
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कविता की रचनात्मक भूमिका और ‘शब्दों का देश’: शशिभूषण मिश्र
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कविता की रचनात्मक भूमिका और ‘शब्दों का देश’

शशिभूषण मिश्र

ऐसे समय में जब कविता ‘विवरण के विस्तार’ और ‘कहन की अतिरिक्तता’ का पर्याय होती जा रही है वहाँ राकेश मिश्र ‘संक्षिप्तता और मितव्ययिता’ के साझेपन से कविता का विशिष्ट शिल्प निर्मित करते हैं. ‘शब्दों का देश’ उनकी रचनात्मक यात्रा का अनंतिम पड़ाव है. राकेश मिश्र की कविता-यात्रा- ‘चलते रहे रातभर’, ‘अटक गयी नींद’, ‘जिन्दगी एक कण है’ से होते हुए ‘शब्दों का देश’ तक फ़ैली है. यह एक ऐसा देश है जिसके भूगोल में सरहदें और सीमाएं नहीं, निर्बाध विस्तार है; जिसकी संस्कृति में विचारों की क़ैद नहीं, मुक्त होने की तड़प है और जिसकी संवेदना मनुष्य तक सीमित नहीं; मानवेतर तक विस्तृत है. जीवन के आर पार निहारने की विकलता के चलते राकेश मिश्र का कवि नए ढंग से सोचने का उद्यम ही नहीं करता, नए की सार्थकता की तलाश भी करता है. नए की सार्थकता तभी है जब उसमें बद्धमूल विचार-प्रणाली के बरक्स वैकल्पिकता की तलाश हो; जीवनगत अवरोधों के प्रतिपक्ष में आवाज़ उठाने का साहस हो –

‘कहो
क्योंकि रोकनी हैं अफवाहें
कहो
ताकि लोग बाहर निकलें
कहो
ताकि सुनना न भूल जाएं लोग
कहो
ताकि चौपालें चलती रहें.’
(कहो)

‘आधुनिक सभ्यता के बहरेपन’ के ख़िलाफ़ आवाज़ लगाता कवि लक्षित करता है कि कम्फर्ट जोन में रहते हुए सकारात्मक बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है. परिवर्तनकामी-भविष्य के दरवाज़े चुप्पियों से नहीं खुलते, इसके लिए प्रतिरोध और ‘अवज्ञा-बोध’ का होना ज़रूरी है. कविता में यह संकेत निहित है कि चुप्पी-साधकर हम अपनी ‘मानुष-नागरिकता’ से ही वंचित नहीं हुए हैं; अपने कर्तव्यों से भी वंचित हुए हैं. हम अपने नैतिक पराक्रम से ही च्युत नहीं हुए हैं मनुष्यता के बोध से भी च्युत हुए हैं. ‘चौपालें’ चलती रहने की ज़रूरत को कवि इसी नाते महसूस करता है ताकि संवाद की प्रक्रिया चलती रहे; बातें चलती रहें. कवि को शब्दों की शक्ति पर बहुत भरोसा है –

‘बातें
यदि नज़रबंद हों
तो भी
इतिहास
बदलना जानती हैं.’
(बातें)

राकेश मिश्र कविता को- ‘घुसपैठियों के विरुद्ध / एक सार्थक / सुरक्षा-पंक्ति’ मानते हैं. इन पंक्तियों से कवि की स्पष्ट मान्यता उभरती है कि ‘कविता की सार्थकता’ मनुष्यता के विरुद्ध घुसपैठ को रोकने में है; अगर वह इसमें विफल होती है तो वह सिर्फ शब्दों का खेल रह जाती है. ध्यान रहे ‘मनुष्यता’ सिर्फ मनुष्य जाति तक सीमित नहीं है, यह एक विस्तृत भाव है. राकेश मिश्र इस बात पर बराबर जोर देते हैं कि कवि और कविता को व्यापक लोकतान्त्रिक भूमिका में आना होगा और सभ्यता के छद्म को भेदते हुए संकटों को चिन्हित करना होगा!

‘प्रेम’ राकेश मिश्र की कविताओं का नमक है, लेकिन यह आदर्शीकृत प्रेम नहीं, आनुभूतिक प्रेम है- ‘निजता’ और ‘ऐंद्रिकता’ से लबालब. इसमें प्रिय के आने की बेचैन प्रतीक्षा है; मिलन की उत्कंठा है. इस प्रणय में हथेलियों का आड़ा-तिरछा स्पर्श और ‘तुम’ का वैयक्तिक आधार है. यह प्रेम कभी कल्पनाओं में मुखरित होता है तो कभी स्मृतियों के माध्यम से प्रिय तक पहुँचता है. स्वाभाविकता और टटकेपन से लबरेज़ इस प्रेम संसार में निजत्व का स्पन्दन है. इन प्रेममय दृश्यों को प्रकट करने के लिए ऐसे बिम्ब अपनाए गए हैं जो अमूमन प्रयोग में लाए नहीं जाते. राकेश मिश्र का कवि प्रतिमानों की स्थापित परम्परा का साहसपूर्ण विस्तार करता है. कुछ ऐसी कविताओं के अंश साझा कर रहा हूँ जिनमें कवि की इस प्रयोगशीलता को देखा जा सकता है –

‘कसाई के छुरे जैसा
अचूक प्रेम है
उसका
तराजू पर जिन्दा मछली की
व्याकुलता है
उसमें’
(उसका प्रेम)

‘वो
याद आती है
मेरी दवाओं की तरह
जिनसे
मैं ठीक हो गया था.’
(याद)

‘दरअसल
मैं असफल प्रेमी हूँ
जब भी प्रेम करता हूँ
बदल जाता है क़ारोबार.’
(दरअसल)

‘मेरी देह
छूती है
तुम्हारी देह जैसे कसाई छूता है
मांस.’
(देह-1)

‘यह सच है
प्यार में पहली नज़र
पांवों को ही लगती है.’
(प्यार में)

‘नयी किताबों–सी
तुम्हारी देह गंध
समय के साथ
किताबों के
धूसर पन्नों से
धूल-सी लिपटी है..’
(देह गंध)

‘प्यार अक्सर
जेठ की धूप होता है
जो तपता है तो
जल उठती हैं रातें.’
(प्यार)

‘प्रेम करते हो’, ‘प्रथम प्रेम’, ‘प्रेमिकाएं’, ‘सुबह’, ‘भागते हुए’, ‘प्रेम यात्राएं’, ‘सोचता हूँ’, ‘तुम्हारा जाना’, ‘तुम हंसी थी’, ‘मेरा नाम’, ‘स्पर्श’ आदि कविताओं में प्रेम के ऐसे ही कई रंग हैं. ‘प्रेम की भूमि’ पर खड़े स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने के साथ ‘स्त्री द्वारा बरते जाने वाले प्रेम से पुरुष द्वारा बरते जाने वाले प्रेम के बुनियादी अंतर को’ व्यक्त करती मानीखेज कविता है – ‘स्त्रियाँ’ जिसे पढ़ते हुए पाठक के मानस में बहुत कुछ जुड़ता जाता है. कवि की इस असमाप्य प्रेम-यात्रा में अचीन्ही मनःस्थितियों को शब्द-बद्ध करने की तादाद बहुत है.

इधर लिखी जा रही कविताओं में ‘ह्यूमन सेंट्रिक’ होने का आरोप लगाया जाता रहा है. कविता का ‘मनुष्यकेंद्री’ होना चिंता का विषय नहीं है; असल चिंता इस बात की है कि इसमें मानवेतर जीवन का स्पेस लगातार घटता गया है. इस सन्दर्भ में ‘शब्दों का देश’ की उपस्थिति उल्लेखनीय हो जाती है. यह संग्रह ‘पर्यावरणीय चेतना’ और ‘संवेदनशील प्रकृति-दृष्टि’ के लिए विशेष तौर पर रेखांकनीय है. ध्यान रहे यह ‘प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा और नयनाभिराम दृश्यों’ वाली प्रकृति’ नहीं ; ‘जीवन की रहनी को पोषित करने वाली’ प्रकृति है. मनुष्यगत प्रकृति-रूपों के इस परिसर में -‘मेरी धरती’, ‘नन्हें बादल’ , ‘बारिश’, ‘समुद्र’, ‘पानी में रंग’, ‘जलते हुए पेड़’ ‘पीले पत्ते’, ‘स्मृतियों में कविता’ ‘देह-2’, ‘रात भर’, ‘नवम्बर के दिन’, ‘चाँद’, ‘जो निराशा’, ‘पहला तिनका’, ‘एक अधूरा प्रेम पत्र’, ‘क्वार में’ जैसी कविताएँ कई अर्थों में विचारणीय हैं.

कविताओं के इस आत्मीय परिसर में धरती,आकाश,जल,समुद्र और वनस्पति के प्रति गहरा सम्बन्ध-बोध और ऋण-बोध है. यह जीव-संसार को जीवन देती, पालती-पोसती, समृद्ध करती पृथ्वी कई बार,कई रूपों में ‘कवि-देहरी की’ सांकल खटखटाती है. अपने दो तिहाई हिस्से पर खारे समुद्रों को सहेजने वाली यह पृथ्वी वनस्पतियों, प्राणियों और जीवों के लिए अबाध है. कवि इस पृथ्वी को ‘ठिठुरती-अंधेरी रात’ में यात्रा-रत देखता है तो उसे महसूस होता है कि बंद कमरे के भीतर भी उसका बिस्तर ठंढा पड़ गया है. धरती के बारे में इस तरह के भाव का आज बहुत अभाव है ! वह इस विडंबना की ओर भी हमारा ध्यान खींचता जिसमें ‘धरती की अबाधता’ को महाद्वीपों और देशों की हदबंदियों में ही नहीं जकड़ दिया गया है बल्कि वह खाते-खतौनियों में सिमटकर रह गयी है.

कवि दर्ज करता है कि जिस तरह हम ‘एकल मनुष्यता’ के स्वप्न को पूर्ण करने में विफल हुए है ठीक उसी तरह धरती को ‘अविभाजित रखने का स्वप्न’ भी विफल हुआ है. मौन की सांकेतिक भंगिमाओं का ऐसा अर्थानुकूल और सामयिक प्रयोग विरल है. कवि के भीतर धरती के लिए ही नहीं आकाश के लिए भी ऋण-बोध है. वह आकाश को ‘पानी का पिता’ मानता है; ‘आकाश के चेहरे पर’ उसे पानी का चेहरा दीखता है. कवि उसे पानी का पिता इसलिए कहता है कि उसमें धरती और यहाँ बसने वाले जीवों को पालने का भाव है. आकाश एक पिता की तरह समुद्र की जलराशि को निरंतर एकत्रित करता रहता है ताकि वनस्पतियों और जीवों को जीवन वर्धमान हो. वर्षा की बूंदों के रूप में आकाश अपने पितृत्व धर्म को सार्थक करता है.

राकेश मिश्र की कविता में पर्यावरणीय विनाश के प्रति गहरी चिंता का भाव है. इस सन्दर्भ में ‘एक अधूरा प्रेम पत्र’ मानीखेज कविता है. इसमें कवि ने प्रेम, प्रकृति और पर्यावरणीय विनाश को एक साथ गूंथ दिया है-

‘भूख के उस छोर पर बैठकर
जहां पके-अधपके का फ़र्क नहीं होता
तुम्हें प्रेम पत्र लिखना चाहता हूँ
पत्र में एक पंख उसी पक्षी का है
जो उड़ते हुए मारा गया है
थोड़ा खून
बारीक मुलायम रोओं से चिपका हुआ
पहुंचेगा तुम्हारे पास
कुछ सवाल उनके भी भेजूंगा
जिनका धरती पर आना जाना ठहर गया है.’

‘प्रेम-पत्र में पर्यावरणीय-विनाश’ का ऐसा सन्दर्भ शायद हिन्दी कविता में पहली बार आया है ! कविता जैसे जैसे आगे बढ़ती जाती है वैसे यह एहसास गहरा होता जाता है कि मानव सभ्यता ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संतुलन को जिस तरह नष्ट किया है उसका आगामी असर कितना भयावह होगा ! प्रेम-पत्रों के अब तक के अभ्यास में कीटों के नष्ट होने का दुःख शायद ही दर्ज हुआ हो –

‘मैं जानता हूँ
यह पत्र कभी पूरा नहीं होगा
पर पढ़ना उसे भी
जो लिख नहीं पाया हूँ
जब तक तुम्हें यह पत्र मिलेगा
जलते जंगलों से अन्यमनस्क
दुनियां
कीटों-पक्षियों के बसेरे से
दूर जा चुकी होगी…

बहुत ज्यादा कीट हैं
धरती पर
कीटनाशकों से भी ज्यादा
दुनिया को कीटों से मुक्त होना है…’

इस कविता को एक गंभीर सवाल की तरह पढ़ा जाना चाहिए ! पढ़ा जाना चाहिए इसे एक प्रश्न की तरह कि दुनियां को नष्ट करने वाले असली कीट कौन हैं ? कविता की समूची संरचना में विडंबना और व्यंग्य का भेदक एहसास विन्यस्त है. ‘प्रकृति और पर्यावरण’ पर आसन्न संकट को ‘आधुनिक सभ्यता की करतूतों’ से नाथ कर कवि ने एक ऐसी कविता को जन्म दिया है जिसकी अनुगूंजों को बहुत दूर तक सुना जा सकता है.

राकेश मिश्र की कविताओं में मानवेतर जीवन के प्रति गहरी करुणा और साहचर्य का भाव है. इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता में किसी एक संग्रह में पशु-पक्षियों और जीव-जंतुओं को लेकर इतनी संख्या में कविताएँ बड़ी मुश्किल से मिलेंगी ! कहना होगा ‘शब्दों का देश’ एक ओर मानवेतर-जीवन का पुनर्वास है तो दूसरी ओर पशुओ-पक्षियों और जीवों के प्रति मनुष्य की बेमुरौव्वती का स्वीकार्य –

‘अक्सर झुंडों में
निरुद्देश्य भटकते पशु
निर्मम कथानक हैं
मनुष्य के शोषक संस्कारों के’
(देवों के देश में)

संग्रह की ‘घोड़ा’, ‘नन्हा अजगर’, ‘कसाई का घर’, ‘सांप-1’, ‘सांप-2’, ‘सड़क का कुत्ता’, ‘बकरियां’, ‘हथियार’, ‘आज फिर’, ‘यात्रा मार्ग’ ‘निजता’, ‘अनुपयुक्त’ आदि कविताएँ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं. मानवेतर जीवन की इस करुणा-संवलित यात्रा में कवि गायों, बछड़ों, घोड़ों, नील गायों, की सजल आँखों में छलकती बेबसी को पढ़ता है. जानवरों की मनःस्थितियों समझने के लिए कभी वह ‘दड़बे में सो रही मुर्गियों के मन’ के भीतर प्रवेश करता है और पाता है कि ‘उनके सपनों में कल की यात्रा के मार्ग’ हैं; कभी वह उन बतखों के ‘मन में मारे जाने की भयाकुलता’ को टोहता है. कभी वह बंधे पैर वाले मुर्गे की छटपटाहट को महसूसता है तो कभी सड़क किनारे टूटे पैर वाली गाय की उदासी को ताकता है. वह द्रुतगामी सभ्यता के पहियों से कुचली-मारी गयी ‘आसन्न प्रसवा हिरणी’ के परिवार के विषाद में शामिल होता है तो कभी उस विभ्रमित मोरनी की पीड़ा का साझीदार बनता है जिसके नन्हें बच्चों को उठा कर कोई बाज ले गया है.

कवि जीव-जंतुओं की दुनियां को अपनी दुनियां से अलगा नहीं पाता इसीलिए जब वह अजगर के नन्हें बच्चे को भीड़ के बीच निरुपाय देखता है तो सहसा उसे अपने बच्चे की याद आ जाती है. अजगर के बच्चे के प्रति ऐसा वत्सल और रक्षणीय भाव विरल है. इन कविताओं में ऐसे अनेक सन्दर्भ गुंथे हैं जिन्हें पढ़ते हुए राकेश मिश्र की भीतरी दुनियां का अक्श उभरने लगता है. राकेश मिश्र की कविताओं में पशु-पक्षी-जीव-जंतु अपनी यातनाओं-विवशताओं के साथ मिलते हैं. वह विभोर कर देने वाले प्रसंगों के नहीं व्याकुल कर देने वाले दृश्यों के कवि हैं. इन दृश्यों में कुतिया के बेमौत मरते पिल्ले हैं,मारे जाते ‘अहिंसक सर्प’ हैं. इतना ही नहीं उनका कवि मुर्गियों, बकरियों और मछलियों तक की पीड़ा भरी उदासी को अपनी कविता में दर्ज करना नहीं भूलता.

‘शब्दों का देश’ में ‘जंगल’ शीर्षक से लिखी कविताओं के ‘अर्थ-वलय’ में हम हिंस्र जानवरों से भरे जंगल की वास्तविकता को ही नहीं देखते बल्कि अपने आसपास उग आए जंगल को भी महसूस करते हैं –

‘कोई फ़र्क नहीं
जंगल और देश में
सिवाय इसके कि
जंगल जानता है
कौन मरेगा
किसके हाथ
और देश में
हत्यारे खोजने का
कानून है.’

इन कविताओं में व्यंग्य की गहरी धारा भी है और अभिव्यक्ति की विदग्धता भी. कविताओं से गुजरते हुए हम ख़ुद को ‘व्यवस्था के जंगल’ के बीच खड़ा पाते हैं. हकीक़त यही है कि केवल जंगल में ही नहीं, हमारी व्यवस्था में भी ‘हिरन’ की जान की कीमत पर ही ‘शेरों’ की भूख मिटती है. जंगल की यही निर्दयता है कि उसमें सबसे कमजोर को ही मारा जाना है ! अहिंसक मनोवृत्ति का चाहे जानवर हो या मनुष्य,बर्बरता की कीमत उसे ही चुकानी पड़ती है. ये कविताएँ अपने आसपास दिखने वाली सचाइयों से उपजी हैं इस नाते इनमें यथार्थ की अनुगूजें अधिक स्पष्ट हैं. इनमें निवेशित कवि-दृष्टि की परास देखी जानी चाहिए –

तब भी
मरते हैं हिरन
जब जंगल में
बसंत होता है.

‘नैतिक-बोध’ की अनुपस्थिति से रचना की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है. सवाल पूछा जा सकता है कि ‘कविता में नैतिक बोध’ का क्या आशय है ? कवि-नैतिकता या कविता की नैतिकता से हमारा आशय रचना की पक्षधरता से है. अपने समय के सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों को चिन्हित किए बगैर कोई भी रचना सार्थक नहीं कही जा सकती. इस संदर्भ में राकेश मिश्र की कविताएँ अपनी बुनियादी नैतिकता से विरत नहीं होतीं. वह कविता में अपनी इस प्रतिबद्धता को दुहराते हैं कि ‘दुनियां में क्या अच्छा है और क्या बुरा है’ यह बड़ा सवाल नहीं है बल्कि इससे बहुत ज्यादा जरूरी सवाल यह है कि ‘हमने इस दुनिया को अपना क्या दिया है ! इस दुनियां को सुन्दर बनाने में हम अपनी तरफ से क्या नया जोड़ पाए हैं ! ‘बारिश में गिरते घर’, ‘रैन बसेरा’, ‘ये धरती’, ‘महानगर’, ‘जीना’, ‘देवों के देश में’ आदि कविताओं में कवि की इस मनोभूमिका का साक्षात्कार किया जा सकता है –

‘ये धरती
रहने लायक नहीं तब तक
जब तक
लोग पेट के लिए
जीते रहेंगे.’
(ये धरती)

‘मनुष्य के लिए
केवल युद्ध बचे हैं…
मनुष्य जहां भी जीता है
सर्व प्रथम ख़त्म करता है
दूसरों के जीवन अवसर.’
(देवों के देश में)

‘दुनिया के सारे हत्यारे
पूछना चाहते हैं
क़त्ल होने वालों से
उनके अंतिम सन्देश
पर डरते हैं क्योंकि
बहुत शक्तिशाली होते हैं
अंतिम सन्देश.’
(अंतिम सन्देश)

‘इस बरसात
जो मर गए
अपने घरों में
अजन्मों के साथ
उस बारिश की रात
उसके सपनों में
एक पक्का घर रहा होगा.’
(बारिश में गिरते घर)

इन्हीं भव्य इमारतों में
जिन्दा दफ़न है
पहाड़ का अंतस
नदी की आत्मा
वृक्षों का वसंत
और मजदूर की दिहाड़ी !
(महानगर)

 

संग्रह में जंगल शीर्षक की तरह मृत्यु शीर्षक से चार कविताएँ हैं. मृत्यु को कवि पीड़ा के संसार से दूर सतरंगी लोकों की अनंत स्वप्न-यात्रा के रूप में देखता है. कवि मृत्यु को देह- पीड़ा का विकल्प मानते हुए उसे जीवन के बन्धनों से मुक्ति के अहसास के रूप में प्रस्तुत करता है. कवि की इस स्थापना में बल है कि- मृत्यु के रहते ही जीवन हिसाब से है’. कवि की मृत्य विषयक इन कविताओं की कुछ पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ –

‘जीवन
मृत्यु से मिला समय है.’
………………
‘हम तैयार नहीं होते
मृत्यु के लिए
जबकि विषद होती हैं
मृत्यु की तैयारियां.’

राकेश मिश्र अपनी कविताओं में वैचारिकता और भाषिकता के बीच संतुलन को बरकरार रखते हैं किन्तु जहां तक कविता के फार्म का सवाल है वहाँ अभी संतुलन की दरकार है. हालाकि पूर्ण संतुलन को पाना एक असंभव संभावना है. राकेश मिश्र की कविताओं की संरचना को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उसमें गति के नियंत्रण पर कम ध्यान दिया गया है. शब्दों के मध्य की अन्विति को साधकर कविता की गतिकी को नियंत्रित करना थोड़ा आसान हो जाता है ! बहरहाल, संतुलन को साधने का कोई फार्मूला नहीं होता; इसके लिए रचना की समूची अन्विति में एक-एक शब्द को परखने का धैर्यपूर्ण यत्न करना पड़ता है. अपनी बनायी संरचना को कई बार संशोधित और परिवर्धित करना पड़ता है. इस सन्दर्भ में कविता की ‘लय’ का बड़ा महत्व है. यह एक ऐसा सूत्र है या कहें कविता का ऐसा अनिवार्य तत्व है जिसके आधार पर ‘पाठ’ की बारीकियों को बहुत हद तक समझा-सुधारा जा सकता है. लय की त्वरा का स्पर्श करते हुए कविता को सुनने–गुनने के उपक्रम में अपने आप कई संरचनात्मक अवरोध पकड़ में आने लगते हैं.

दरअसल क्राफ्ट किसे भी रचना का बहुत बुनियादी मामला है. यह जितना बाहरी मामला है उतना ही आंतरिक. रही बात विचारों की सुसंबद्धता की तो इसके लिए कविता में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों की वैकल्पिकता पर विचार किया जाना ज़रूरी हो जाता है.

राकेश मिश्र की वैचारिकता किसी ‘ख़ास विचारधारा की पक्षधरता या विरोध’ का नकार करती अपनी मौलिक राह तलाशती है. विचारशीलता की इस मौलिकता को उदाहृत करती कुछ कविताओं के अंश यहाँ द्रष्टव्य हैं-

‘जुते खेतों में
खुली होती है धरती की कोख
तब केवल उम्मीद में होते हैं
बीज और बारिश…’
(जो निराशा )

‘बेंचों पर बहुत विश्वसनीय होता है
अकेलापन
सारे सवाल सुरक्षित होते हैं
वहाँ’
( बेंचें )

‘धरती के शिलालेख
भय के दस्तावेज हैं
समय की क़िताब तो पृष्ठ विहीन है.’
(शिलालेख)

‘परछाइयाँ
कहीं ज्यादा
सार्थक संकेत होती हैं
मूल से भी ज्यादा
व्यथा होती है उनमें.’
(परछाइयाँ)

‘स्त्रियों के रोने पर
सृष्टि में पानी का अनुपात
बराबर रखने के लिए
सूख जाते हैं बादल.’
(मुझे शब्द चाहिए)

‘स्त्रियाँ अक्सर
अलग रहती हैं अपनी देह से
पुरुष अक्सर
प्रवेशित होते हैं
स्त्री विहीन देह में…
स्त्री अनुपस्थित रहती है
देह के रास्ते पर अक्सर.’
(स्त्रियाँ)

राकेश मिश्र के लिए कविता जीवन से उपजी एक ऐसी कार्यशाला है जिसमें विषयों और विचारों की विविधता है. इसमें एक ओर अपनी गुमशुदा बेटी के लौट आने की उम्मीद में अपने भीतर आर्तनाद छिपाए बैठी माँ है तो दूसरी ओर भेड़ियों के पंजों से लहूलुहान दर्द छिपाती-संभालती लड़कियां हैं. गंवई दृश्यों की बात की जाए तो कहीं नहर की एकल पटरी से गुजरती साइकिल है तो कहीं नवम्बर की शामों में खेतों से घर लौटती लड़कियों का चहकता समूह है; कहीं स्कूल जाती पगडंडियों में धूल से सने पांवों के निशान हैं तो कहीं चटख फूलों में तैरते रंगों के निशान हैं. इस कार्यशाला में कवि उन शब्दों की तलाश करता है जिनसे कार्तिक के पवित्र मास में पक उठे धान के सुगन्धित खेतों का हाल लिखा जा सकें; सूखते जल में फंसी मछलियों की पारदर्शी आँखों में छितराए भय को पढ़ा जा सके और जिनसे बेरहमी से काट दिए गए हरे पेड़ों के महारुदन को बयां किया जा सके ! अपने समय के बेहद ज़रूरी सवालों से टकराने के साथ जीवन को व्यापक सन्दर्भों में देखने-परखने और उसमें अपना कुछ नया जोड़ने के मद्देनज़र इन कविताओं का पाठ जरूरी हो जाता है.

सम्प्रति
सहायक प्रोफेसर- हिन्दी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाँदा (उ.प्र.)
संपर्क-9457815024
Tags: राकेश मिश्रशशिभूषण मिश्र
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समीक्षा

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Comments 13

  1. M P Haridev says:
    4 years ago

    राकेश मिश्र की ‘संक्षिप्ता और मितव्ययिता’ पर मुझे विनोद कुमार शुक्ल की याद आ गयी है । वे भी अपने कहन में कम शब्दों का प्रयोग करते हैं । जो व्यक्ति कम रुपये ख़र्च करने में विश्वास करता हो उसे हमारी बोली में शूम कहते हैं । संस्कृतियों और विचारों को क़ैद रखने की वृत्ति से धरती पर क़त्लेआम हुए हैं । प्रेम कविताओं का ही नहीं बल्कि जीवन जीने का नमक है । पत्नी और पति मिलकर एकरूप हो जाते हैं । संतति निर्माण होता है । प्रेम संतानों पर उलीचा जाता है । मैं 15 जनवरी को विश्व पुस्तक मेले में जाऊँगा । राजकमल प्रकाशन समूह का मैं पुस्तक मित्र हूँ । इस पुस्तक सहित प्रोफ़ेसर अनामिका जी की पुस्तकें ख़रीद लूँगा । 25% वर्तन (discount) भी मिलेगा । “कहो क्योंकि रोकनी हैं अफ़वाहें’ वर्तमान समय में अफ़वाहों को ख़ारिज करना ज़रूरी हो गया है । साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो रहे हैं । कल ही हमारे राज्य हरियाणा के रोहतक नगर में साम्प्रदायिक तत्वों की भीड़ ने ईसाइयों को गिरजाघर में नहीं जाने दिया ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी; ‘कम्फ़र्ट ज़ोन’ से बाहर निकलकर स्थान-स्थान पर शासन और प्रशासन की अकर्मण्यता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है ।
    राकेश मिश्र की कविताएँ गहन अनुभूति से लिखी गयी हैं । ‘वो याद आती है मेरी दवाओं की तरह’ । उत्तम । शशि भूषण जी मिश्र ने इस कविता संग्रह की अप्रतिम समीक्षा की है । उन्हें मेरी बधाई हो ।

    Reply
    • Rakesh Mishra says:
      4 years ago

      हार्दिक आभार डॉ शशिभूषण मिश्र , समालोचन व श्री अरुण देव जी 🌷

      Reply
  2. श्रीविलास सिंह says:
    4 years ago

    बहुत अच्छी समीक्षा। राकेश जी की कविताएँ वास्तव में कम शब्दों में अधिक कहने का उदाहरण हैं। उनमें जीवन अपनी समग्रता में उपस्थित रहता है। कवि को बधाई।

    Reply
  3. Vinod Mishra Editor -KRITI BAHUMAT says:
    4 years ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं राकेश मिश्र की। शशि भूषण जी ने अच्छा लिखा है।शिल्प और संरचना की दृष्टि से भी ये प्रभावित करती हैं। मैं राकेश मिश्र को निरंतर पढ़ रहा हूं।वे लगातार अपने कवि को परिमार्जित कर रहे हैं और हर बार अधिक महत्वपूर्ण होकर पाठकों से संवाद कर रहे हैं ।

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  4. Arti Jaiswal says:
    4 years ago

    Rakesh Sir depicts in a way which is so real and I love this , the ethos is so natural ,it seems that he has painted it somewhere and I am watching it , difficult to actually put it in words , hats off to the person who has evaluated so Amy poems … Rakes Sir’s poetry touches human heart … many congratulations 💐

    Reply
  5. Anonymous says:
    4 years ago

    राकेश मिश्र की कविताएं मितकथन/कमसुख़नी की कला है । जीवन के विविध प्रसंग यहां अपनी पूरी मार्मिकता के साथ उजागर होते हैं । शशिभूषण मिश्र ने बहुत अच्छा लिखा/विश्लेषण किया । समालोचन का शुक्रिया ।

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  6. Dr+Om+Nishchal says:
    4 years ago

    सुखद व्याख्या। जैसे पूरा संग्रह बांच गया।

    Reply
  7. नरेंद्र पुंडरीक says:
    4 years ago

    इस काव्य मूल्यांकन में शशिभूषण द्वारा समकालीन कविता की गम्भीर पड़ताल की गई है । आज समकालीन आलोचना में एसे ही मूल्याकंन की जरुरत है। जिससे समकालीन रचनात्मकता की दिशा तय होती है और मूल्यांकन की भी । कवि और आलोचक दोनो को बधाई

    Reply
  8. Kumar Neeraj Singh says:
    4 years ago

    Excellent write up to match to the outstanding poetry! Congratulations!

    Reply
  9. सुधीर मिश्र says:
    4 years ago

    ‘शब्दों का देश’ शब्दों की शक्ति से परिचय कराने वाला अद्भुत काव्य संग्रह , और शशिभूषणजी की वैसी ही सशक्त समीक्षा भी
    प्रत्येक काव्यप्रेमी केलिये न सिर्फ़ संग्रहणीय बल्कि काव्य विमर्श केलिये प्रेरित करने वाला भी
    बहुत बहुत बधाई, हार्दिक शुभकामनाये 🌷🌺

    Reply
  10. नीरज कुमार मिश्र says:
    4 years ago

    बहुत दिनों बाद इतनी बेहतरीन समीक्षा पढ़ने को मिली।कविता का गहन अध्ययन का प्रतिफलन है ये समीक्षा।शशिभूषण भाई जैसा गंभीर अध्येता ही ऐसी समीक्षा लिख सकता है।इनके लेखन से मुझे बहुत सीखने को मिलता है।आपको और Shashibhushan Mishra भाई को हार्दिक बधाई🙏🙏🌹🌹

    Reply
  11. डाॅ. रामानंद तिवारी says:
    3 years ago

    ‘शब्दों का देश’ कविता-संग्रह राकेश मिश्र जी की चौथी काव्य-कृति है। इस संकलन में संग्रहीत कविताएँ कवि के शब्द-विवेक और उसकी काव्य-व्यंजकता की कसौटी हैं; जिसमें समर्थ रचनाकार की काव्य-प्रतिभा का चरमोत्कर्ष देखा जा सकता है। भाई शशिभूषण मिश्र द्वारा लिखी गई समीक्षा बेजोड़ है। कवि और समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई!

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    अच्छी और संतुलित समीक्षा। समीक्षक को शुभेच्छाएँ।

    Reply

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