रामदरश मिश्र
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अभी कुछ समय पहले ही अठानबे बरस की अवस्था में रामदरश मिश्र को हिंदी का अत्यंत प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान मिला है. इससे पहले व्यास सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान, भारत भारती पुरस्कार समेत अनेक विशिष्ट पुरस्कारों से वे सम्मानित हुए हैं. पर रामदरश जी को सम्मानों की लालसा कभी नहीं रही. उनकी राह कुछ अलग है और लिखना, बस लिखना उन्हें अच्छा लगता है. कोई अस्सी बरस पहले जब उन्होंने लिखना शुरू किया था, तो प्रेमचंद की तरह आम आदमी को उन्होंने साहित्य और अपने हृदय के सिंहासन पर बैठाया, जिसके दुख-दर्द, अभाव और मुश्किलों की अनंत कथाएँ उन्होंने अपने गाँव और आसपास देखी, सुनी थीं, भीतर की अफाट विकलता के साथ महसूस की थीं. ये निपट साधारण लगते आम जन ही उनकी कविता, कहानी, उपन्यासों के नायक थे, और हैं भी. उसे बदलने की आज तक उन्हें जरूरत नहीं महसूस हुई.
तब से साहित्य में तमाम आंदोलन आए, गए. बहुत सितारे चमके, बुझे. बहुतों के लेखन की धार बहुत थोड़े समय में ही कुंद पड़ती नजर आई. पर साथ ही हर बार कुछ लेखक अपनी नई रंगत और ताजगी के साथ सामने आए और धीरे-धीरे स्थापित होते दिखे. रामदरश जी ने सबको पढ़ा, संवाद किया, बहुतों को अपना स्नेह और आत्मीयता दी, और सहज कदमों से आगे बढ़ते गए. बगैर किसी हड़बड़ी के, एक धीरज भरी चाल. उन्हें अपने आप और अपनी कलम पर विश्वास था. और अपने विश्वासों पर भी विश्वास. लिहाजा वे सहज भाव से आगे बढ़ते गए और आम आदमी के दुख-दर्द, करुणा और संवेदना की एक अकथ कहानी भी उनके साथ चलती गई, जिसे व्यक्त करने की उनकी प्यास कभी बुझी नहीं और कोई अस्सी बरस से निरंतर चलती आ रही उनकी कलम ने अभी तक रुकना पसंद नहीं किया. इसलिए कि उन्हें अभी बहुत कुछ कहना है, अपनी तरह से कहना है और उन्हें यकीन है कि उसे वे ही कह सकते हैं.
और सिर्फ लिखना ही नहीं, अपने से बाद वाली पीढ़ियों बल्कि एकदम नया लिख रहे लेखकों को भी पढ़ना और उनसे संवाद करते रहना रामदरश जी को प्रिय है. यहाँ तक कि किसी नए लेखक की कोई रचना उन्हें भा जाए, तो उसे खुद फोन करके बधाई देने में भी उन्हें कभी संकोच नहीं होता. मेरी न जाने कितनी रचनाएँ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ीं और उन पर पहली भरी-पूरी विस्तृत प्रतिक्रिया मुझे रामदरश जी से ही मिली. इस अवस्था में भी अपने से बाद वाली पीढ़ी के लेखकों और नवोदितों तक से ऐसा आत्मीय संवाद साध लेने वाला कोई और लेखक मुझे याद नहीं पड़ता, जिसका स्नेह इतना निर्मल और अहेतुक है और सब पर अविरल बरसता है.
साहित्य में आस्था और विश्वास की बात करने वाले बहुतेरे हैं. पर रामदरश मिश्र सही अर्थों में आस्था और विश्वास के लेखक हैं, जो अपने विश्वास को निरंतर यथार्थ की कसौटी पर भी कसते रहते हैं, और यही चीज उनके व्यक्तित्व को विरल बनाती है. और यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि इस अवस्था में भी वे एकदम स्वस्थ, चैतन्य हैं. खूब पढ़ते हैं, लिखते हैं और फोन पर उनकी आवाज एकदम सधी हुई और खासी बुलंद लगती है. स्मृति उनकी बहुत अच्छी है, और अभी तक चलने के लिए उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ी.
रामदरश जी मेरे गुरु हैं. उनसे बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया. उनका बहुत निकट सान्निध्य मुझे मिला है. दिल्ली आने पर जिन लेखकों ने अपने स्नेह का संबल देकर मुझे टूटने नहीं दिया और मन में आत्मविश्वास जगाए रखा, उनमें रामदरश जी अन्यतम हैं.
जब मैं यहाँ आया, तो बहुत डरा-डरा सा था. मेरे जैसा एकदम सीधा-सादा, मगर उजबक सा आदमी. जो मन में आए, वह सीधा सामने वाले के मुँह पर कह दिया, बगैर यह सोचे कि वह सोचेगा क्या…या फिर बदले में क्या कुछ कर गुजरेगा, और मेरा जीना मुहाल हो जाएगा! ऐसे बंदे का सामना यहाँ बड़ी बारीक-बारीक सी, विचित्र भंगिमाओं से हुआ, जो कि दिल्ली को दिल्ली बनाती हैं. मैं काफी परेशान हो गया. मन में हर वक्त खुट-खुट, खुट-खुट होती रहती. लगता, अब भागूँ, अब भागूँ, अब भागूँ…!
पर भागूँ कैसे…? मैं तो पंजाब में अपनी अच्छी-खासी प्राध्यापकी को छोड़-छाड़कर चला आया था. अब वापस जाने के सारे रास्ते बंद. तो फिर…? मैं मन मारकर जीने लगा. पर यह आधे दिल से जीना था. बाकी का आधा दिल जैसे दिनों दिन निस्पंद होता जा रहा था….
पर फिर ऐसे में कुछ बड़े सुखद संयोग भी हुए. पहले सत्यार्थी जी मिले, फिर रामविलास जी मिले, रामदरश जी मिले, शैलेश मटियानी मिले, विष्णु खरे मिले…! और मैं अंदर से भर सा गया. मुझे लगा, इसी दिल्ली में एक और दिल्ली है, उसे मैं क्यों भूले बैठा हूँ? वह तो मेरी और मुझ सरीखे सबकी दिल्ली है, जो अपनी ठेठ कसबाई जिंदादिली को छोड़ने को तैयार नहीं हैं, और दिल्ली को दिल्ली की तरह नहीं, बल्कि अपनी शर्तों और अपने जीवन मूल्यों के साथ जीना चाहते हैं.
और मैंने पाया कि एकाएक जीवन में स्वाद बढ़ गया है. और यह भी कि दिल्ली में मैं भी अपने इन धुरंधर साहित्यिक गुरुओं की तरह ढंग से लिख-पढ़ सकता हूँ, जी सकता हूँ. बहुत कुछ अंदर से उमग-उमगकर सामने आने लगा….यहाँ मैं बहुतों से मिला. बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया. बहुत से मित्र बने. बहुत कुछ लिखा भी. उपन्यास, कविता, कहानियाँ, आलोचना, संस्मरण, साक्षात्कार, बच्चों का साहित्य….जो कुछ मन में उमगता, वह कागजों पर उतरता जाता. लगने लगा, जीवन में रस है. ऐसा जीवन कोई बेमानी तो नहीं!…
उन दिनों रामदरश जी ने पहली बार यह अहसास कराया कि इस दिल्ली में बहुत सारी छोटी-छोटी कसबाई दिल्लियाँ हैं. उन्हें देख पाने की आँख भी उन्होंने दी….पहली बार उनसे मिलकर और उनका लिखा पढ़कर मैंने यह सीखा कि सादगी से बड़ी सुंदरता कुछ और नहीं है. यह एक मंत्र था मेरे लिए, और मैंने महसूस किया कि उसके प्रभाव से, मेरा पूरा जीवन बदलता जा रहा है. बहुत कुछ जो मैंने ओढ़ा हुआ था, छूटने लगा. मैंने महसूस किया, इतना हलका और भारहीन तो मैं कभी न था.
[2]
रामदरश जी को जिसने भी देखा होगा, वह एकबारगी कहेगा कि वे बहुत ही सीधे-सरल हैं. मुझे भी ठीक ऐसा ही लगा था. मैं एक बार उनके निकट आया तो फिर खिंचता ही चला गया. कई बार मैं अपने आप से पूछता हूँ, भला सीधे, सहज रामदरश जी में ऐसा आकर्षण कहाँ से आया? उनमें ऐसा क्या है, जो एक बार आपको बाँधता है, तो आप जिंदगी भर के लिए उन्हीं के होकर रह जाते हैं.
पर जवाब अभी तक नहीं खोज पाया. तब अपने आप को यह कहकर समझा लेता हूँ कि शायद उनके पास कोई कच्चे धागे का सा जादू है. लोग बड़ी से बड़ी चट्टानी दीवारें भी तोड़कर बाहर आ जाते हैं. पर जो एक बार कच्चे धागे से बाँधता है, वह ताउम्र बँधा ही रह जाता है.
रामदरश जी सीधे हैं, सरल हैं. खुद्दार और स्वाभिमानी. हमेशा तनकर चलने वाले. अपने मिजाज में शहरी नहीं, बल्कि गँवई मानुख. पर शायद इसीलिए उन्हें समझना मुश्किल भी है. उन पर कुछ लिखने बैठा हूँ, तो चार आखर जोड़ने में ही पसीने-पसीने हो रहा हूँ.
अब समझ गया हूँ कि जो अपने, नितांत अपने और आत्मीय होते हैं, बल्कि जो खुद में ही कहीं मौजूद होते हैं, उन पर लिखना मुश्किल है. हालाँकि न लिखना और भी मुश्किल है. वे इस तरह लगातार आत्मा के पर्दे पर दस्तक पर दस्तक देते हैं कि उसे अनसुना तो आप कर ही नहीं सकते.
गालिब ने शायद इसी उलझन में पड़कर कभी यह मिसरा कहा होगा, जो हमारे बाबा सत्यार्थी जी को बहुत प्रिय था और वे अकसर उसे गाहे-बगाहे दोहराते ही रहते थे कि, “गोयम मुश्किल वगरना गोयम मुश्किल…!”
गालिब के एक और शेर में इस मुश्किल का जिक्र है—
गो कि दुश्वार है हर चीज का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना.
तो क्या इसीलिए गँवई गाँव के इस आदमी पर, जो बरसों से दिल्ली में रहकर भी दिल्ली का नहीं हुआ, दिल्ली वालों जैसा नहीं हुआ और अपने गाँव का होकर ही गाँव को अलग-अलग शक्लों में जीता रहा—लिखना इतना मुश्किल है कि मैं हर बार घबराकर अधबीच से उठ आता हूँ. और अपने ही आगे पसीना-पसीना होने लगता हूँ.
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लीजिए, अब मैंने रामदरश जी की पुस्तक ‘पड़ोस की खुशबू’ को फिर से उठा लिया है. और उसके पन्ने पलटते हुए उस ‘मानुष-गंध’ को महसूस कर रहा हूँ जो उनमें या कि उनकी रचनाओं में हर कहीं हैं. इस किताब में रामदरश जी की साहित्यिक यात्राएँ हैं और कुछ साहित्यिकों के बारे में उनके संस्मरण भी. इनमें से अधिकांश पढ़े हुए हैं, बल्कि कइयों का तो मैं पहला पाठक रहा हूँ. जब-जब रामदरश जी के यहाँ गया हूँ, अपनी कोई नई रचना वे जरूर सुनाते हैं या फिर आग्रह करके मैं ही पढ़ने लगता हूँ. पर उनकी रचनाओं की खासियत यह है कि जितनी बार पढ़ो, उतनी बार वे नया सुख देती हैं. उनके निकट आतंकित होकर नहीं जाना पड़ता. वे मित्र की तरह हमें बुलाती हैं और धीरे-धीरे हमारे भीतर घुलने लगती हैं. इसीलिए बार-बार उनके नजदीक आना अच्छा लगता है.
लेकिन इसी पुस्तक का एक संस्मरण ऐसा है जो किसी बड़े और जाने-माने लेखक पर नहीं है. वह कभी रामदरश जी के शिष्य रहे विनीतलाल गोस्वामी पर है. लेकिन वह इतना करुण और मार्मिक संस्मरण है कि पढ़ते हुए मैं हिल गया हूँ, आँखें छलछला आई हैं. हालाँकि रामदरश जी ने इसे किसी अति-नाटकीय शैली में नहीं लिखा. अपने उसी सीधे-सादे अंदाज में लिखा है, जिसे कई बार लोग ‘सपाट शैली’ समझने की गलती कर जाते हैं. लेकिन डा. मिश्र की सादगी में छिपी कला वे नहीं समझ पाते और न यह कि वे कैसे भावनाओं की तह पर तह जमाते चले जाते हैं और उसमें से मार्मिक अभिव्यंजना खुद-ब-खुद होती जाती है. यह एक ऐसी सिद्धावस्था है, जो हमारे जमाने में बहुत से बड़े लेखकों को भी हासिल नहीं है. रामदरश जी को वह हासिल है, लेकिन वे इस उस्तादी को ऐसे ढाँककर रखते हैं और इतनी सहजता से, बल्कि बराबरी के स्तर पर आकर हमसे बात करते हैं जैसे कि वे कोई हमउम्र लेखक हों! साथ ही, मित्र और हमसफर भी.
जो भी हो, डा. मिश्र की इसी सहज सिद्धावस्था ने संस्मरण को एक मार्मिक कहानी में तब्दील कर दिया है. पुस्तक मेरे हाथ से छूटकर अगले रोज सुनीता के हाथ में जाती है तो उसकी भी कुछ-कुछ वही हालत होती है. उसका कहना था कि यह इतना मार्मिक और सच्चा संस्मरण है कि आगे बहुत देर तक कुछ भी पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई. मन कुछ अजीब-सा हो गया. एक अजब-सा करुणार्द्र प्रभाव.
साथ ही उसका यह भी कहना था कि इस पुस्तक को पढ़ते हुए निरंतर लगता है कि हम एक बड़े लेखक को पढ़ रहे हैं, बड़े कद के लेखक को पढ़ रहे हैं. जिस आदमी के शिष्य ऐसे हों, उसने निश्चय ही एक समृद्ध जीवन जिया है. एक बड़प्पन के साथ लिखा और अपने लिखे का हरफ-हरफ जिया है. इतनी ‘समृद्धि’ भला कितने लोगों को मिल पाती होगी?
फोन पर रामदरश जी से बात हुई, तो फिर न जाने कैसे ‘पड़ोस की खुशबू’ की चर्चा छिड़ जाती है. मैं विनीतलाल वाले संस्मरण पर आता हूँ, “यह एक मामूली आदमी पर लिखा गया एक बेशकीमती संस्मरण है. इसे पढ़ते-पढ़ते मेरी तो हालत खराब होने लगी. कैसे लिख पाए आप? इतने सीधे-सादे शब्दों में ऐसी करुण गाथा!”
रामदरश जी मानते हैं कि आम लोगों पर—साधारण लोगों पर जब भी वे लिखते हैं, उनकी कलम में एक मार्मिक प्रभाव आ जाता है. इसलिए कि ये सीधे-सच्चे लोग हैं जिन पर सीधे-सच्चे ढंग से लिखना है. कहीं कोई दिखावा नहीं. शर्म नहीं, गुरेज नहीं, कि इन पर ऐसा लिखेंगे तो लोग ऐसा समझेंगे. जबकि लेखकों पर लिखते हुए हमेशा यह भय रहता है कि कहीं कुछ ऐसा न लिखा जाए कि वे बुरा मान जाएँ! लिहाजा आम आदमी के बारे में जो लिखा जाता है, वह ज्यादा रमकर लिखा जाता है. और इसी क्रम में वे ‘आजकल’ में हाल ही में छपी अपनी कहानी ‘विदूषक’ की चर्चा छेड़ देते हैं, जिसका मुख्य पात्र उनका जाना-पहचाना गँवई गाँव का आदमी है. बस, उन्होंने कुछ नाम और स्थितियाँ बदल दी हैं. और वह कहानी इतनी मार्मिक हो गई है कि उनके पास पाठकों की प्रशंसा के बहुत-से पत्र पहुँचे.
“आगे से मैं ऐसे साधारण पात्रों के बारे में ही ज्यादा लिखूँगा.” रामदरश जी अपना संकल्प दोहराते हुए-से कहते हैं.
कुछ लेखक होते हैं जो पहली बार में अच्छे लगते हैं और मन पर छा-से जाते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी प्रभाव-छाया छीजती जाती है और थोड़े अरसे बाद ही वे बेरंग हो जाते हैं. दूसरी और कुछ लेखक ऐसे भी होते हैं जो पहली मुलाकात में बड़े सीधे, साधारण से लगते हैं, पर धीरे-धीरे उनका प्रभाव गहराता है. वे हमें लपेटते जाते हैं और उनके प्रभाव से बच पाना नामुमकिन होता है. रामदरश जी इसी कोटि के लेखक हैं. शायद इसीलिए उनसे जल्दी-जल्दी कुछ मुलाकातें न हों या कुछ ढंग की बातचीत न हो, तो लगता है कि कहीं कुछ छूट गया है और मन बेसब्र होकर उनकी ओर दौड़ पड़ता है.
[4]
दिल्ली आने के बाद की जिन घटनाओं को आज तक नहीं भूल पाया, उन्हीं में एक वह प्रसंग भी है—एक घटनाविहीन घटना, जब मैं पहली बार रामदरश जी से मिला था. तब क्या जानता था कि वह धूप खिला सीधा-सरल दिन मेरे भीतर इस कदर गहरे धँस जाने वाला है कि मैं अपने जीवन में उसकी स्नेहिल और रागात्मक दस्तकें हमेशा सुनता रहूँगा. और रामदरश जी को याद करना मेरे लिए अपने घर के किसी आत्मीय जन या किसी बड़े बुजुर्ग को याद करने जैसा हो जाएगा.
याद पड़ता है, मेरे दिल्ली आने के यह कोई पाँच बरस बाद की बात है. संभवत: सन् 1989 की. उन दिनों मैं दिल्ली प्रेस की नौकरी छोड़कर हिंदुस्तान टाइम्स की बच्चों की पत्रिका ‘नंदन’ के संपादकीय विभाग में आ गया था. मेरे साथ बच्चों के प्रसिद्ध कवि रमेश तैलंग के अलावा देवेंद्र कुमार भी थे, जो ‘नंदन’ पत्रिका में मेरे वरिष्ठ सहयोगी और बड़े अच्छे मित्र थे. काफी अच्छी कविताएँ और कहानियाँ वे लिखते थे, पर लिख-लिखकर अपनी फाइल में रखते जाते. उनकी कहानियाँ तो शुरू-शुरू में ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ समेत कई अच्छी पत्रिकाओं में छपीं भी, लेकिन कविताएँ अप्रकाशित रहीं.
मेरी भी बहुत-सी कविताएँ ‘लहर’, ‘जमीन’, ‘कथन’, ‘ऋतुचक्र’, ‘धरती’, ‘आने वाला कल’ वगैरह लघु पत्रिकाओं में पहले छप चुकी थीं, लेकिन नौकरी की भागमभाग में मैं सबसे कटता चला गया. अब मन था कि वे चीजें फिर से सामने आएँ, किसी एक किताब की शक्ल में. लिहाजा देवेंद्र जी और मैंने ‘कविता और कविता के बीच’ संकलन निकाला. यही कविता संकलन रामदरश जी को भेंट करने के लिए उनका पता कहीं से खोजकर मैं देवेंद्र जी और रमेश तैलंग के साथ उनके घर पहुँचा था.
तब की मेरी मनःस्थिति क्या थी, इसे शब्दों में बता पाना मुश्किल है. दिल कुछ असामान्य ढंग से धड़क रहा था. खासा संकोच था, और एक अजब तरह की उत्तेजना भी. इतने बड़े कवि-कथाकार से मिलने जा रहे हैं, जिसकी रचनाएँ न जाने कब से पढ़ते आ रहे हैं या पढ़-पढ़कर बड़े हुए हैं!
शाम का समय. हम लोग बिना सूचना दिए अचानक ही पहुँच गए थे. सूचना देते भी कैसे? हमारे पास तो केवल उनका पता ही था, जो हमने किसी पत्रिका से टीप लिया था—आर-38, वाणी विहार, उत्तम नगर, नई दिल्ली. फोन नंबर तो था नहीं. लिहाजा हम लोग सीधे पहुँच गए और यह संकोच हमारे चेहरों पर था….
पर वहाँ जिन रामदरश जी से हमारी मुलाकात हुई, वे तो जैसे बरसों—बल्कि सदियों से हमारे जाने हुए थे. घर के बाहर बरामदे में फरवरी की गुनगुनी धूप में खरहरी खाट पर लेटे हुए. एकदम गँवई गाँव के किसान की मानिंद. वैसी ही सीधी देहयष्टि, वैसा ही मुक्त मन, वैसी ही खुली बातें. सच्चाई की आब से दमकता माथा, चमकती आँखें. सिर पर इतने छोटे बाल, जैसे बिना कंघी किए सिर्फ हाथ फिराकर छोड़ दिए गए हों. कोई खास लेखकीय मुद्रा नहीं. बस मिले, परिचय हुआ और गपशप चल निकली. कुछ ऐसे, जैसे एक लंबे अंतराल के बाद घर के किसी चिरपरिचित व्यक्ति से मिल रहे हैं.
और साहित्य-चर्चा की उस अनाविल रसधारा में कितने ही दिलचस्प प्रसंग आ-आकर जुड़ते चले गए. बहुत-सी बातें उनसे कहने-सुनने को हमारे भीतर उमड़ और अकुला रही थीं और रामदरश जी भी हमारे संग-संग बहते-बतियाते हुए थक नहीं रहे थे.
इसी बीच मैंने और देवेंद्र जी ने उन्हें पुस्तक भेंट की, तो रामदरश जी ने मुसकराते हुए कहा, “मैं संग्रह की कविताएँ पढ़ूँगा. फिर आपसे बात भी करूँगा….”
मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अपनी कुछ कविताएँ सुनाएँ. और तभी अचानक मुझे उनकी बहुत-सी प्रसिद्ध कविताओं के साथ-साथ ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ में पढ़े एक बहुत पुराने गीत ‘उमड़ रही पुरवाई कुंतल-जाल सी, अंबर में लहराए कारे-कारे बदरा…!’ की याद आई. मैंने बहुत संकोच के साथ आग्रह किया कि अगर उनका मन हो तो वे यह गीत भी सुनाएँ. इस पर उन्होंने वह पुराना पावस गीत तो सुनाया ही, अपनी कुछ फागुनी कविताएँ भी सुनाईं, जिनकी गंध अब भी मेरे मन में बसी हुई है. इनमें वसंत के अनेक प्रतीकार्थ थे और बहुत-से अछूते, रागात्मक बिंब. महानगर में वसंत के आने और भीड़ की भब्भड़ और तेजी के बीच उसके चुपचाप उपेक्षित होकर चले जाने का दर्द भी था.
रामदरश जी से मिलकर लौटते हुए लगा, हम एक भरा-पूरा दिन जीकर लौटे हैं. इसमें कोई कुंठा नहीं, कोई दुराव नहीं, कोई मैल-मत्सर नहीं. यह एक वासंती धूप-खिला दिन था, जिसमें भीतर-बाहर की उजास थी और यह दिन मेरे लिए ‘घटना’ बन गया. उस दिन एक बड़े लेखक का यह बिंब मेरे मन में बना कि वह सीधा-सहज और अपनापे से भरा होता है. मिलने पर वह आपको छोटा नहीं करता, बल्कि कुछ और बड़ा बनाकर एक गहरे प्यार और खुलेपन के साथ अपना लेता है.
बहरहाल, उस दिन के बाद न रामदरश जी हमारे लिए अजनबी रह गए, न हम उनके लिए. जब-जब मिले, यही लगा, जैसे हम सदा से उन्हें जानते हैं और वे सदा से हमारे साथ हैं, हमारे अपने हैं!
[5]
उसके बाद रामदरश जी से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो बरसों-बरस चला और आज भी थमा नहीं है. हालाँकि मैं ‘नंदन’ पत्रिका में था, तो वहाँ मिलने की ज्यादा सुविधा थी. कनॉट प्लेस पहुँचना उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं था. मैं भी कभी-कभी बड़ी सुबह निकलता था और उनसे मिलने के बाद दफ्तर आ जाता था. हालत यह थी कि कुछ दिनों तक मुलाकात न हो तो न उन्हें चैन पड़ता था, न मुझे. उनकी कोशिश होती थी कि घर से निकलें तो किसी न किसी तरह रास्ते को कनॉट प्लेस की ओर मोड़कर चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही, मुझसे मिल लें. और वे नहीं आते थे, तो मैं ही सुबह-सुबह उनके घर जा पहुँचने और साहित्य-चर्चा के साथ-साथ उनके साथ नाश्ते का आनंद लेने का सुख छोड़ नहीं पाता था.
इस बीच मैं ही नहीं, मेरी रचनाएँ भी कैसे उनके निकट आती चली गईं और वे उनके बारे में अपनी राय, आलोचना और सुझाव स्पष्ट तौर से देते हुए अपने साथ-साथ खुद मेरी राह भी बनाते चले गए, यह याद करता हूँ तो हृदय उनके आगे कृतज्ञता से झुका पड़ता है.
मुझे याद है, मेरा दूसरा कविता-संग्रह ‘छूटता हुआ घर’ जब निकला था, तो यह एक तरह से विस्मृति में ही विलीन हो गया था. मुझे याद नहीं पड़ता, इस पर कहीं कोई आलोचनात्मक प्रतिक्रिया या समीक्षा छपी हो. लेकिन हाँ, रामदरश जी ने इस पर एक लंबा-सा पत्र लिखा था और यह प्रसन्नता प्रकट की थी कि ‘कविता और कविता के बीच’ के दिखावटी विद्रोह वाला रास्ता छोड़कर मैंने अच्छा किया. और इधर की मेरी कविताओं में भीतर की बेचैनी, तनाव, पीड़ा और बीच-बीच में जीवन की बड़ी प्रसन्न छवियाँ भी कई रूपों में छलछलाकर सामने आ रही हैं.
‘छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर की स्मृति पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तो इसकी सूचना भी रामदरश जी ने ही मुझे दी. रात को करीब नौ-साढ़े नौ बजे उनका फोन आया और उन्होंने कहा, “एक अच्छी खबर आपको देनी है. प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार के लिए आपके संग्रह ‘छूटता हुआ घर’ को चुना गया है.”
मैं हक्का-बक्का. मैंने तो कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था. और सच कहूँ तो पुरस्कारों के लिए मन में कहीं एक अरुचि सी भी थी. मैंने यह रामदरश जी से कहा तो उनका उत्तर था, “मनु जी, आपने तो पुस्तक पुरस्कार के लिए जमा की नहीं थी. पुरस्कार के निर्णायकों (रामदरश मिश्र, जगदीश चतुर्वेदी तथा अजितकुमार) ने खुद-ब-खुद आपकी पुस्तक पढ़कर यह निर्णय लिया है. पिछले तीन वर्षों में छपे सभी कविता-संग्रहों को पढ़ने के बाद यह निर्णय लिया गया है. इसके बाद माथुर जी के परिवार की भावना भी जुड़ी है. अगर आप इनकार करेंगे, तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा.”
मैंने कहा, “ठीक है डाक्साब, पर मैं राशि स्वीकार नहीं करूँगा.”
उन्होंने कहा, “हाँ, यह निर्णय तो आपको करना है. आप इस बारे में चाहे जो भी निर्णय कर सकते हैं.”
बहरहाल, त्रिवेणी सभागार में हुए आयोजन में ‘छूटता हुआ घर’ की कविताओं पर वे जिस आवेश और आग्रह के साथ बोले थे, उसकी याद बहुतों को होगी.
बाद में जब पुरस्कार की राशि में कुछ राशि और जोड़कर मैंने ‘सदी के आखिरी दौर में’ नाम से मित्र कवियों का एक संग्रह निकाला, तो रामदरश जी ने त्रिवेणी सभागार में इन अज्ञात कुल-शील कवियों की कविताओं के बारे में खूब बोला, खूब जमकर तारीफ की.
ऐसा नहीं कि यह सिर्फ मेरे साथ ही हुआ हो, शायद रामदरश जी से मिलने वाले सभी नए-पुराने, खासकर युवा लेखकों की यही प्रतीति रही होगी. नए से नए लेखक की रचनाएँ पढ़ना और अगर वे चाहें, तो उन्हें अपनी सुचिंतित सलाह देना, उन्हें अपने साथ चला ले जाना—
ये कुछ ऐसी चीजें हैं जिनके पीछे कहीं न कहीं हमारी एक विस्मृत गुरु-शिष्य परंपरा के कुछ-कुछ बारीक धागे गौर से देखने पर नजर आ सकते हैं.
सच तो यह है कि रामदरश जी उन लोगों में से हैं, जिनमें परंपरा का बहुत-कुछ बचा हुआ नजर आ सकता है. वे न परंपरा का अंध पाठ करने वाले में से हैं और न परंपरा की खिल्ली उड़ाने को ही ‘आधुनिकता’ मान लेने वालों की जमात में. इसके बजाय वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रसाद और निराला की उस परंपरा में हैं, जिसमें परंपरा के सार्थक हिस्से को अपनाकर उसे ‘पुनर्नवा’ कर दिया जाता है. शेष जो अप्रासंगिक और निरर्थक हो चुका है, खुद-ब-खुद छूटता चला जाता है. लिहाजा कुछ छोड़ने और बहुत-कुछ ग्रहण करने की उनकी परंपरा आगे चलकर खुद-ब-खुद आधुनिकता का ही एक जरूरी हिस्सा हो जाती है. सच पूछिए तो दंभ और छद्म से भरे बहुत से अतिरेकी आधुनिकतावादियों की तुलना में रामदरश जी मुझे कहीं ज्यादा आधुनिक लगते हैं.
दिल्ली में इतने बरस रहकर भी रामदरश जी न अपने गाँव की मिट्टी, खेत और पानी की गंध को भूले हैं और न वहाँ के दुख और समस्याओं के बीहड़ को! उनका गाँव उनके साथ-साथ चलता नजर आता है. कोई ताज्जुब नहीं कि दिल्ली में इतने बरस रहने के बाद आज भी वे गँवई गाँव के आदमी लगते हैं और इसमें उन्हें कोई शर्म नहीं महसूस होती.
रामदरश जी की एक प्रसिद्ध कविता है जिसमें वे बताते हैं कि अपने घर में उन्होंने कच्ची जमीन छोड़ रखी है. यह कच्ची जमीन इसलिए कि वहाँ परंपरा के बिरवे और हरी घास लहराती रहे. यह जो वनस्पतियों के साथ होना है, यह अनिवार्यत: जीवन के साथ होना है और यह चीज उन्हें भीतर से समृद्ध करती है.
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रामदरश जी की रचनाओं को पढ़ें या उनके निकट जाकर उनके व्यक्तित्व की लकीरों को पढ़ें, उनकी बातें सुनें—इस बात की तरफ आपका ध्यान जरूर जाएगा कि वे जीवन से बहुत मजबूती से और गहरे आंतरिक लगाव से जुड़े हैं और उनके पैर पूरी तरह जमीन पर हैं. इसीलिए उनकी आस्था जितनी मनुष्य में है, उतनी किसी और में नहीं. उनका मानना है कि ईश्वर है या नहीं है, यह बड़ी बात नहीं, बड़ी बात यह है कि मनुष्य है. इसी से यह धरती इतनी सुंदर है और इसी से यह दुनिया इतनी अजब, निराली और बहुरंगी है.
रामदरश जी के बीज शब्द है—गाँव, मिट्टी, पानी, परंपरा और अपने लोग. और उनके निकट जाएँ, तो इन शब्दों के नए-नए अर्थ, बल्कि इनका एक समूचा दर्शन समझ में आता है और जीवन से रामदरश जी के गहरे लगाव का पता चलता है. यहाँ तक कि उनके लेखन का बीज या ‘उत्स’ भी यहीं कहीं है. माँ और पिता की भावुकता, खासकर पिता के फक्कड़ स्वभाव और गाँव की मिट्टी के खिंचाव और मस्तीभरे परिवेश ने इसे यकीनन कुछ और बढ़ा दिया.
एक बार अंतरंग क्षणों में बड़े गहरे भावाकुल अंदाज में उन्होंने बताया था—
“मेरी माँ और पिता दोनों ही बड़े भावुक थे. पिता तो कुछ सैलानी, घुमक्कड़ तबीयत के थे और भावुकता, रसिकता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी. वे होली आदि त्योहारों पर मस्ती में भरकर गाया करते थे तो देखते बनता था. ऐसे ही स्त्रियों के गीतों में हमेशा माँ सबसे आगे होती थी. मुझे लगता है, इस पारिवारिक परिवेश का भी जरूर कुछ न कुछ असर हुआ होगा और यों लेखन का जो बीज-भाव भीतर मौजूद था, उसका पोषण हुआ….तो इस तरह जो गाँव मैंने जिया है, वह ऐसा गाँव है जो सौंदर्य और अभाव से ठसा हुआ गाँव है, बाढ़ की विभीषिका से हर क्षण काँपता हुआ गाँव. लेकिन बाढ़ का पानी उतरते ही मिट्टी की महक इस कदर खींचने-लुभाने लगती है कि मस्ती में भरकर लोग गा रहे हैं, बजा रहे हैं. दरअसल तब लोगों की प्रवृत्ति मस्ती की थी, मस्ती से जीने की. व्यावसायिक बुद्धि इतनी नहीं थी. गाने-बजाने में लोग इतने मस्त रहते कि खेतों तक की ज्यादा चिंता नहीं रहती थी.”
रामदरश जी यह भी बड़े सहज और अकुंठ भाव से स्वीकार करते हैं कि, “मैं कोई चमत्कारी प्रतिभा का व्यक्ति नहीं हूँ. बहुत जल्दी में, आपाधापी में मैं कोई चीज नहीं समझ पाता!”
शायद इसी का परिणाम यह है कि पढ़ाई-लिखाई की ‘आतंककारी’ विधि से वे शुरू में ही घबरा गए थे. बड़े भाईसाहब ने घर पर अक्षर-ज्ञान देने की कोशिश की. बार-बार झल्लाए, डाँटा-डपटा और अंत में पट्टी उठाकर फेंक दी. उन्होंने जैसे ऐलान कर दिया कि पढ़ना-लिखना इसके बस का नहीं है.
माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं, बस अक्षर-ज्ञान उन्हें था. उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने बालक रामदरश की आँखों के भीतर जाने क्या देख लिया था, पहचान लिया था कि उन्होंने एक दिन घोषणा की, “तुम्हें मैं पढ़ाऊँगी.”
जाड़े के दिन थे. सभी अलाव के पास बैठे थे. माँ ने उसी अलाव की बुझी हुई राख निकाली और उसे सामने फैला दिया. बोलीं, “लिखो बेटा ‘क’.” और बच्चे की उँगली पकड़कर आहिस्ता से ‘क’ पर घुमाने लगीं.
रामदरश जी अपनी आत्मकथा ‘सहचर है समय’ में बचपन की इस अविस्मरणीय घटना के बारे में लिखते हैं—
“कोई हड़बड़ी नहीं थी, कोई दबाव नहीं था. पढ़ाई का कोई अलग-से वातावरण नहीं बनाया गया था. इसलिए मैं माँ के साथ कौड़ा तापने की-सी सहजता से उसके साथ ‘क’ लिखने लगा. माँ को लगा, जैसे मेरे भीतर बँधी हुई कोई गाँठ खुल रही है. उसके स्पर्श की आँच से जड़ता धीरे-धीरे पिघल रही है और भीतर सोई हुई या अवरुद्ध चेतना अपनी ऊष्मा फेंक रही है. माँ बहुत विश्वास से मुसकराई थी और पता नहीं क्या चमत्कार हुआ कि सात-आठ दिन में पूरी वर्णमाला मैं सीख गया.”
उसके बाद रामदरश जी की अध्ययन की यात्रा सहज भाव से चल पड़ी. हालाँकि स्कूल में अध्यापकों का बच्चों को पीट-पीटकर आतंकित करने का जो तरीका था, उसे याद करके वे आज भी असहज हो जाते हैं, जैसे वे अध्यापक न हों, थानेदार हों! कितने ही लायक बच्चे उन अध्यापकों के आतंक के कारण हमेशा के लिए पढ़ने-लिखने से वंचित रह गए. उनमें से कितने ही आगे चलकर कुछ बन सकते थे, क्योंकि प्रतिभा की उनमें कमी नहीं थी. रामदरश जी को आज भी वह दृश्य नहीं भूलता, जब गाँव के तताम बच्चे ‘बरम बाबा’ की पीढ़ी के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते थे, मन ही मन बड़बड़ाते हुए, “हे बरम बाबा, आज मैं मार न खाऊँ, दुहाई बरम बाबा की!”
बहरहाल, गाँव के इसी परिवेश में, जिसमें घर-परिवार के साथ ही प्रकृति, स्कूल, खेत-खलिहान, हाट-बाजार और पर्व-त्योहार सभी एक-दूसरे में गुँथे हुए थे, रामदरश जी का बचपन बीता. एक ओर घर की अफाट निर्धनता, कमजोर कच्ची भीतें, टपकते छप्पर, निर्धनता से पैदा हुए दुख, क्षोभ और अपमान, हर साल फूत्कारती हुई आती बाढ़ का आतंक और दूसरी ओर गाँव के जीवन की भावनात्मक समृद्धि, इनसानी संवेदना और गान-बजाने की मस्ती. शायद जीवन की इस खुली पाठशाला से ही रामदरश जी ने जीवन के बड़े-बड़े पाठ सीखे.
इसी बीच थोड़ी-बहुत तुकबंदी भी शुरू हो गई. वे कोई लोकगीत सुनते या कविता पढ़ते तो उन्हें लगता, ‘अरे, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ.’ और यों भीतर का जो भराव था, जो रचनात्मक समृद्धि थी, उसने कविता की ओर बह आने का क्षीण ही सही, मगर रास्ता जरूर तलाश लिया था.
[7]
बाद में आगे की पढ़ाई के लिए बनारस जाने पर रामदरश जी को जैसे एक नया जीवन मिला. ज्ञान की एक दुनिया खुलने का रोमांच उनके भीतर भर गया था. वे बताते हैं-
“पहला अनुभव बनारस का यही था कि एक गाँव के आदमी के भीतर एक बड़े शहर का परिदृश्य खुल पड़ा. शहर की अनेक सुंदरताएँ मन को अभिभूत कर देने के लिए काफी थीं…!”
बनारस में एक निजी संस्थान था, कैंब्रिज अकेडेमी. यहाँ से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. इस संस्थान के पास ही जयशंकर प्रसाद का घर था. रामदरश जी ने पहली बार उसे देखा तो रोमांचित हो उठे. कुछ समय बाद राजेंद्रनारायण शर्मा से उनकी घनिष्ठता हुई जो प्रसाद जी के अंतेवासी रहे थे. उनसे प्रसाद जी के संस्मरण सुनकर वे अभिभूत होते. फिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इंटरमीडिएट में दाखिला लिया तो बेढब बनारसी, सीताराम चतुर्वेदी, कांतानाथ पांडे ‘चोंच’ तथा अनेक साहित्यकारों से परिचय हुआ. दूसरी ओर शंभुनाथ सिंह, मोती बी.ए., त्रिलोचन शास्त्री, ठाकुरप्रसाद सिंह, नामवर सिंह आदि से दोस्ती शुरू हुई, जो अभी शुरुआती चीजें लिखकर साहित्य में अपनी पहचान बना रहे थे.
बनारस की एक दिलचस्प घटना यह है कि केशवप्रसाद मिश्र जब हिंदी विभाग से सेवा-निवृत्त हुए, तो रामदरश जी का मन उखड़ गया. उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय. छोड़कर इलाहाबाद जाने का निर्णय कर लिया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय का आकर्षण उन्हें खींच रहा था, जहाँ धीरेंद्र वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि थे. उन्होंने वहाँ दाखिले का फार्म भी भर दिया था. लेकिन फिर राजबली पांडेय ने उन्हें बताया कि शांतिनिकेतन से हजारीप्रसाद द्विवेदी आ रहे हैं, तो अचानक उन्होंने अपना फैसला बदल दिया.
यह घटना रामदरश मिश्र के जीवन के निर्णायक मोड़ों में से है, इसलिए कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आगे चलकर न सिर्फ उनके साहित्यिक गुरु और प्रेरणा-स्रोत बने, बल्कि उनकी छिपी हुई शक्तियों और कल्पना के अपार वैभव को उन्होंने ही उजागर किया. उनके भीतर जीवन की रसात्मक वृत्ति और उदात्त जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिनसे रामदरश मिश्र कभी दूर नहीं हुए. और यों उनके मन में गुरु के आसन पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की मुक्त और उदात्त छवि मानो अब भी ज्यों की त्यों प्रतिष्ठित है. जैसे अब भी वही संकट या द्वंद्व के क्षणों में रामदरश जी को आगे की राह सुझाती हो.
दिलचस्प बात यह है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से रामदरश जी की निकटता भी उनकी एक कविता के माध्यम से ही हुई थी. हुआ यह कि काशी विद्यापीठ में एक कवि-गोष्ठी थी, जिसकी अध्यक्षता आचार्य द्विवेदी कर रहे थे. रामदरश जी ने अपना प्रसिद्ध गीत पढ़ा, ‘उमड़ रही पुरवैया कुंतल-जाल सी…!’ पढ़ते-पढ़ते चोर निगाहों से द्विवेदी जी की ओर देखा, तो मालूम पड़ा कि वे आँखें बंद किए झूम रहे हैं. सिर हौले-हौले हिल रहा है.
गोष्ठी के बाद उन्होंने रामदरश जी से पूछा, “क्या कर रहे हो?” रामदरश जी ने कहा, “आपका शिष्य हूँ!” बस, उसी दिन से वे उनके प्रिय शिष्यों की कोटि में आ गए. रामदरश जी के गीत-संकलन ‘पथ के गीत’ की भूमिका भी आचार्य द्विवेदी ने ही लिखी थी.
इसके बाद का समय रामदरश जी के लिए एक अजब तरह के संघर्ष और तनाव का समय है. एक तरह से आजीविका की चिंता में भटकने का समय. बनारस विश्वविद्यालय में उन्होंने कुछ समय तक अस्थायी तौर पर पढ़ाया, फिर नौकरी के चक्कर में गुजरात गए और वहाँ सन् 56 से 64 तक करीब आठ साल तक पढ़ाया. हालाँकि वहाँ के दुख, अपमान और पीड़ाएँ कुछ अलग तरह की थीं. हमेशा उखड़ने, हटा दिए जाने और राजनीतिक दुरभिसंधियों की तलवार सिर पर लटकती रहती थी. वहाँ से उखड़कर अंतत: दिल्ली आए, जहाँ आजीविका के लिए एक पिछड़ गई दौड़ में शामिल होना उनकी मजबूरी थी. यों भी कुछ ज्यादा तेजी और आपाधापी उनके स्वभाव में नहीं थी. वे धीरे-धीरे चलते गए और बढ़ते गए.
हाँ, इस सबके बीच वे जिस चीज को नहीं भूले, वह था उनका साहित्य-सृजन, जिसमें वे पूरी शिद्दत, ईमानदारी और अडिग निष्ठा से जुटे रहे. मानो उन्होंने जान लिया हो कि जीवन की सारी उखाड़-पछाड़ और भागदौड़ के बीच, एक साहित्य ही है जो उनका संबल है, और वही उनकी पहचान भी है. लिहाजा वे बरसों प्राध्यापक रहे, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के पद से सेवा-मुक्त हुए, लेकिन उनकी पहचान एक जीवनधर्मी लेखक की ही है. वे गाँव या लोक से जुड़े एक सहज लेखक पहले हैं, प्राध्यापक बाद में और दिल्लीवासी तो और भी बाद में. इसलिए कि दिल्ली में, खासकर इसकी अपरिमित फैलती बस्तियों में मैंने उन्हें बड़ी गहरी और आर्द्र संवेदना के साथ अपने गाँव को ही तलाशते पाया है.
याद पड़ता है, मैंने एक बार उनसे पूछा था कि ऐसा क्यों है कि इतने लंबे समय तब दिल्ली में रहने के बाद भी दिल्ली उन पर हावी नहीं हुई, और वे पहचाने गए गाँव के लेखक के रूप में ही. क्यों भला? इस पर उनका जवाब बड़ा शानदार था. उन्होंने मुझे बताया कि इस दिल्ली में भी कई दिल्लियाँ हैं और कुछ तो एकदम उनके गाँव-कस्बे जैसी हैं. उसी से उन्होंने रिश्ता साधा है. फिर उन्होंने यह भी बताया कि उनकी कई कहानियाँ उत्तम नगर के आस-पास के गँवई माहौल की कहानियाँ हैं. इसी उत्तम नगर के वाणी विहार इलाके में उनका घर है और इस घर की जड़ें दूर-दूर तक हैं. जो भी रामदरश जी से सरल मन से मिला, वह जैसे उनका हो गया. इसी घर का प्राणी, जिसके सुख-दुख की कहानियाँ रामदरश जी के भीतर हमेशा घुमड़ती रहती हैं, और न जाने कब उनकी कविता, कहानी या उपन्यास के रूप में ढल जाती हैं.
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रामदरश जी की जिस कृति में पहली बार मैंने उन्हें संपूर्णता में पाया और जिससे सचमुच एक दिग्गज और कालजयी लेखक के रूप में उनकी छवि बनी, वह है उनकी आत्मकथा ‘सहचर है समय’. हालाँकि इसके कुछ अंश पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके थे और आत्मकथा के अलग-अलग खंड पुस्तकाकार भी छपे. लेकिन मेरा ध्यान उनकी तरफ नहीं गया था. मैंने उनकी आत्मकथा को पहली बार और संपूर्णता के साथ ‘सहचर है समय’ शीर्षक शीर्षक से छपे एक बृहत् ग्रंथ में पढ़ा, और सचमुच अभिभूत हो गया. जैसे उसके प्रभाव की छाया मुझे लपेटती जा रही हो और मैं अवश सा उसके साथ बहता जा रहा होऊँ. थी तो वह आत्मकथा, लेकिन किसी उपन्यास से ज्यादा दिलचस्प और बाँध लेने वाली. ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया, रामदरश जी के मनुष्य और लेखक का कभी न मिटने वाला चित्र मेरी आत्मा के पर्दे पर बनता चला गया.
‘सहचर है समय’ पढ़कर पता चलता है कि निपट गँवई गाँव का एक अभावों में पलता और थोड़ा-सा झिझका हुआ भयकातर बच्चा कैसे धीरे-धीरे अपनी सीमाओं और अभावों से टकराता है, अपने समय के थपेड़े झेलता है और धीरे-धीरे राह बनाता हुआ आगे निकलता जाता है. इस रास्ते में उसे दुख, अपमान, बार-बार की पराजय, विश्वासघात के धक्के और जख्म, क्या कुछ नहीं मिला. लेकिन सबको वह अपने समय का प्रसाद मानकर ग्रहण करता है. और अपनी ही गति से एक ईमानदार राह पर आगे बढ़ता जाता है. तमाम हैं जो शॉर्टकट के सहारे आगे निकला चाहते हैं, बहुत-से उसे टँगड़ी मारकर भी आगे बढ़ जाना चाहते हैं. वह सबको देखता है, समझता है, पर अपनी राह नहीं छोड़ता और एक दिन उसी राह पर चलते-चलते वह हासिल करता है जो किसी भी लेखक का—एक सच्चे और ईमानदार लेखक का प्राप्य है.
खास बात यह है कि आत्मकथा लिखते समय रामदरश जी कैमरे का ‘लेंस’ सिर्फ खुद पर नहीं रखते, उसे लगातार अपने साथियों और सहयात्रियों पर घुमाते रहते हैं. यहाँ तक कि उनकी ओर भी, जो उन्हें शत्रु-भाव से देखते रहे और उन्हें नीचा दिखाने की कोशिशें करते रहे. रामदरश जी की आत्मकथा में यह सब है और एक ऐसे महाकाव्यात्मक औदात्य का हिस्सा बनकर आया है, जिसमें चीजें रहती तो हैं, लेकिन उनके प्रति निजी राग-द्वेष की कड़वाहट बहुत कम रह जाती है. लिहाजा बहुत छोटे-छोटे मामूली प्रसंग भी समय की कथा में ढलकर एक बृहत्तर अर्थ के वाहक हो जाते हैं.
इसी तरह रामदरश जी की रचना-यात्रा का एक जरूरी और बेहद महत्त्वपूर्ण खंड उनके उपन्यास हैं. ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’, ‘अपने लोग,’ ‘दूसरा घर’, ‘बिना दरवाजे का मकान’, ‘बीच का समय’, ‘सूखता हुआ तालाब’, ‘आकाश की छत’, ‘आदिम राग’, ‘रात का सफर’, ‘थकी हुई सुबह’, ‘बीस बरस’, ‘परिवार’, ‘बचपन भास्कर का’ तथा ‘एक बचपन यह भी’. उपन्यासों का एक लंबा सिलसिला, जिनका रचना-काल कई दशकों तक फैला है. रामदरश जी के ज्यादातर उपन्यासों का परिचय जो इधर-उधर की छिटपुट टिप्पणियों ने हमारे भीतर भर दिया है, वह यह था कि ये ‘आंचलिक उपन्यास’ हैं. हालाँकि आंचलिक उपन्यास कहने से इन दिनों कोई बहुत साफ, स्वच्छ और अच्छी तसवीर नहीं उभरती. लगता है, इनमें वही कुछ होगा जो आंचलिक उपन्यास के नाम पर लीक पीटने के लिए लिख दिया जाता है. लेकिन जब मैंने एक-एक कर रामदरश जी के उपन्यासों को पढ़ा तो लगा कि एक विराट जीवन इनमें से खुल-खुलकर बाहर आ रहा है. लिहाजा जो आंचलिकता का ठप्पा इन पर लगाया गया था, वह कब का छूटकर परे जा गिरा.
अगर आप मुझसे पूछें कि रामदरश जी के तीन सबसे अच्छे उपन्यास कौन-से हैं तो मुझे बताने में एक क्षण का भी विलंब नहीं होगा, ‘जल टूटता हुआ’, ‘अपने लोग’ और ‘पानी के प्राचीर’. हाँ, अगर रामदरश जी के सबसे अच्छे उपन्यास का नाम पूछा जाए तो आज भी सूई बड़ी तेजी से ‘जल टूटता हुआ’ और ‘अपने लोग’ के बीच घूमती है, जैसे ठीक-ठीक निर्णय न कर पा रही हो कि कहाँ टिके. और अंत में बड़ी मुश्किल से, झिझकते हुए ‘जल टूटता हुआ’ पर आकर ठिठक जाती है. हालाँकि दोनों उपन्यासों की अपनी-अपनी खासियत है. ‘जल टूटता हुआ’ अगर गाँव की जिंदगी का महाकाव्य है तो ‘अपने लोग’ में गोरखपुर की जो कथा कही गई है, वह सचमुच छोटे-छोटे सुख-दुख और द्वंद्व-उलझनों में फँसे मामूली आदमी के देवत्व की कथा है. ऊपर से देखने पर निहायत टुच्ची और सड़ाँध भरी लगती हुई जिंदगी में भी मनुष्यता कैसे जी और जगमगा रही है, इसे देखना और दिखा पाना रामदरश मिश्र जैसे किसी बड़े उपन्यासकार का ही कमाल हो सकता है.
मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि रामदरश जी के उपन्यासों ‘जल टूटता हुआ’ और ‘अपने लोग’ की गिनती हिंदी के कुछ सबसे अच्छे उपन्यासों में की जानी चाहिए. ये सचमुच कालजयी उपन्यास हैं और सिर्फ रामदरश मिश्र की रचना-यात्रा की ही नहीं, पूरे हिंदी साहित्य की उपलब्धि हैं. यकीनन ये उन उपन्यासों में से हैं, जिनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर ये न लिखे गए होते तो हिंदी उपन्यास-यात्रा में कुछ न कुछ अधूरापन और कमी रह जाती.
लेकिन रामदरश जी के बाकी उपन्यास भी ऐसे नहीं है कि वे आपके मन पर गहरी छाप न छोड़ें. उनके गुजरात के अनुभवों पर लिखे गए बेहतरीन उपन्यास ‘दूसरा घर’ के अलावा ‘आकाश की छत’ और ‘रात का सफर’ जैसे कुछ छोटे उपन्यासों की मुझे खासकर याद आ रही है, जिन्हें पढ़ना अनुभव की एक गहरी खराश से गुजरना है. और इन्हें पढ़ते हुए जिस चीज की ओर हमारा ध्यान सबसे ज्यादा जाता है, वह यह कि रामदरश जी लगातार जिंदगी और रचना का भेद मिटाते हुए लिखते जाते हैं. उनकी रचनाओं की ‘प्रेमचंदीय’ सादगी और ‘कलाविहीनता की कला’ उनकी सबसे बड़ी ताकत है.
सच कहूँ तो रामदरश जी के साथ मैंने अनेक बार गोरखपुर और बनारस की सैर की है और उनके गाँव भी कई बार हो आया हूँ. बल्कि रामदरश जी का गाँव समय के साथ-साथ कैसे बदला है, इसका चित्र भी कोई चाहे तो उनकी कहानियों और उपन्यासों को सामने रखकर आँक सकता है. फिर देखते ही देखते उस गाँव में पूरे भारत की देशज परंपराएँ और ठेठ हिंदुस्तानी संस्कृति का ठाट शामिल होने लगता है, जो आज भी गाँव-कस्बों और छोटे शहरों में अपनी अकुंठ मस्ती के साथ पसरा नजर आता है.
[9]
अगर मैं सर्दियों के उस धूप भरे दिन का जिक्र न करूँ, जब मैं एक भीतरी उमंग से भरकर यों ही रामदरश जी के यहाँ पहुँच गया था बातचीत करने के लिए, तो यह संस्मरण अधूरा ही रहेगा.
वह दिन जैसे तमाम दिनों से अलग खड़ा, मन पर दस्तक दे रहा है. उस दिन रामदरश जी के जीवन के तमाम पन्ने खुले और खुलते ही चले गए. मैं लगभग पूरे दिन उनकी बातों और उनके अनुभवों की आँच में सीझा उनके पास बैठा रहा. उनकी जिंदगी और लेखन-यात्रा तथा संघर्षों के बहुत-से मर्म-बिंदु जानता था, लेकिन उनकी आधार-पीठिका पहली बार खुली. और उस खुली बातचीत में रामदरश जी को ज्यादा खुलेपन से और कहीं ज्यादा करीब से जाना.
खास बात यह थी कि उनके यहाँ बड़े लेखकों वाली दिखावटी व्यस्तता का ताम-झाम मुझे बिल्कुल नजर नहीं आया. उनका वह पूरा दिन जैसे मुझे दे दिया गया. वे पूरी तरह प्रफुल्ल थे और बातचीत के मूड में थे. और वह बातचीत इस तरह अनौपचारिक थी कि एक प्रसंग में से तमाम प्रसंग निकलते चले जा रहे थे. फिर एकाएक रामदरश जी के साथ-साथ उनके तमाम साथियों और सहयात्रियों के चेहरे उनमें से झाँकने लगे. खासकर निराला और अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी का जिक्र आने पर तो वे बेहद भावुक हो गए थे. तमाम वरिष्ठ लेखकों का जिक्र हुआ और उनके तमाम संस्मरणात्मक प्रसंग इस लंबी बातचीत में खुल-खुलकर सामने आने लगे. लेकिन सबसे बढ़िया प्रसंग वे थे, जिनमें गाँव के मामूली और अनपढ़ लोगों का जिक्र था और वे उनकी अद्भुत शख्सियत का बखान-सा करते थे कि उस समय उन लोगों ने मुझे बचाया न होता तो आज मैं कुछ न होता, कहीं न होता.
इसी बातचीत के क्रम में मैंने एक ‘असुविधाजनक’ सवाल पूछ लिया कि “तमाम लोगों ने आपके साथ यात्रा की, मगर वे बहुत आगे निकल गए, उनका बहुत नाम है और आप कुछ पिछड़-से गए हैं. ऐसा किसलिए?” मैं सोचता था, सवाल सुनकर वे नाराज होंगे. लेकिन बड़ी ही सहजता के साथ उन्होंने सवाल का सामना किया और कहा कि-
“जो-जो ये तथाकथित बड़े लेखक हैं, उनके साथ कोई न कोई बड़ी पत्रिका या लेखक-संगठन जुड़ा रहा और उनकी जो भी अच्छी रचनाएँ हैं, वे इस कदर उछाले जाने से पहले की हैं. बाद में तो वे लेखक के रूप में चुक ही गए, जबकि मैं लगातार एक लेखक के आत्मविश्वास के साथ अपनी राह पर आगे बढ़ता गया. और मुझे इस बात का मलाल नहीं है कि मुझे इतना उछाला क्यों नहीं गया. मुझे अपने पाठकों का बहुत प्यार मिला है और वही मेरी शक्ति है. जबकि इस तरह से बहुत उछाले गए लेखकों की रचनाएँ शायद पढ़ी ही नहीं जातीं.”
मेरा एक और थोड़ा अटपटा-सा सवाल था कि जो जीवन उन्होंने जिया, क्या उससे वे संतुष्ट हैं? और अगर दुबारा जीवन की शुरुआत करनी पड़े तो…? सवाल के जवाब में उन्होंने मुसकराते हुए कहा-
“जो जीवन मैंने जिया, उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ. अगर दुबारा जीवन जीने को मिले, तो मैं बहुत कुछ ज्यों का त्यों रखना चाहूँगा. हाँ, मैं चाहूँगा कि मेरा झेंपू स्वभाव और घरघुसरापन थोड़ा कम हो, ताकि जो उपेक्षा मेरे खाते में आई है, वह न रहे और लोग मेरे बारे में जानें. खुद अपने गले में ढोल लटकाकर आत्म-विज्ञापन करने वालों की दुनिया में अगर एक ईमानदार लेखक को जीवित रहना है, तो उसे अपना अति संकोच और घरघुसरापन तो छोड़ना ही होगा.”
यह बात कोई कम काबिले-तारीफ नहीं कि राजधानी में इतने बरसों से रहते हुए भी रामदरश जी ने अपनी सहजता और गाँव के आदमी का खरापन खोया नहीं. इससे उन्हें नुकसान चाहे जो भी हुए हों, लेकिन एक फायदा भी हुआ है कि वे छोटे-बड़े हर नए आदमी से प्यार से धधाकर मिलते हैं और पूरी तरह उससे समरस हो जाते हैं. इसीलिए तथाकथित बड़े जब एकांत की चारदीवारियों में कैद हैं, रामदरश जी ने खुद को खुला छोड़ दिया है. अब वे खुद के ही नहीं रहे, उन सभी के हैं जो उन्हें प्यार करते हैं और उन्हें प्यार करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जाती है. खासकर युवा पीढ़ी को उनसे जो प्यार मिला है, उसकी तो मिसाल ही मुश्किल है. भला कितने साहित्यकार हैं, जो नई पीढ़ी के लेखकों से इतना खुलकर संवाद रख पाते हैं!
मुझे याद है, बरसों पहले वाणी विहार में रामदरश जी के सम्मान समारोह में डॉ. नित्यानंद तिवारी ने एक बड़े काम की बात कही थी. उन्होंने कहा—
“अगर रामदरश जी को तथाकथित महान लोगों में ही शुमार होना होता, तो वह तथाकथित महानता तो उन्हें बहुत पहले ही मिल गई होती. तब वे औरों के बताए रास्तों और औरों के साँचों के हिसाब से औरों जैसा ही लिख रहे होते, पर रामदरश जी को ऐसी तथाकथित महानता की दरकार नहीं थी. इसके बजाय उन्होंने अपने ही रास्ते पर चलकर, अपने ही जैसा लिखना पसंद किया. और इसी कारण उन्हें अपने पाठकों का बेशुमार प्यार मिला. यह महानता, तथाकथित महानों की किसी भी नकली महानता से ज्यादा बड़ी है. पाठकों का जो आदर और प्यार रामदरश जी को मिला है, वही उन्हें महान बनाता है और उनकी यह महानता आज सभी स्वीकार कर रहे हैं.”
यहीं एक प्रसंग और याद आता है. रामदरश जी से एक बार किसी ने पूछा,
“आपकी नजर में महानता क्या है…या महान आदमी कौन है?”
इसके जवाब में रामदरश जी ने सहजता से कहा था,
“मेरे खयाल से महान व्यक्ति वह है, जो अपने संपर्क में आने वाले छोटे-बड़े सभी को अपनाकर मिलता है और उन पर अपने बड़े होने का आंतक बिल्कुल नहीं डालता.”
इस लिहाज से अगर देखें तो आज के साहित्यिक परिवेश में रामदरश जी उन थोड़े से लेखकों में से हैं, जो इतना अधिक नए लेखकों को पढ़ते हैं और निरंतर उनकी हौसला अफजाई करते हैं. शायद इसी सचेत भाव से जीने ने ही उन्हें एक ऐसा सक्रिय, ऊर्जावान लेखक बनाया है, जो निरंतर खुद को बाँटता और देता चल रहा है, और इसीलिए उनका लेखकीय कद भी समय के साथ निरंतर बढ़ा है.
[10]
यह बात मुझे सुखद विस्मय से भर देती है कि इस अवस्था में भी, जब रामदरश जी सौ का आँकड़ा छूने के काफी निकट आ गए हैं, वे तन-मन से काफी स्वस्थ और सचेत हैं. कभी-कभार आ जाने वाली छोटी-मोटी व्याधियों के अलावा कोई ऐसी चीज नहीं, जो उन्हें काम करने से रोक सके. यहाँ तक कि उम्र की नवीं दहाई में उन्होंने दो-दो उपन्यास लिख डाले और वे दोनों रस विभोर कर देने वाले उपन्यास हैं, जिनमें बचपन की बड़ी मोहक छवियाँ हैं. इनमें ‘बचपन भास्कर का’ में तो स्वयं रामदरश जी का बचपन है. इस उपन्यास के जरिए उन्होंने हमें अपने बचपन में ले जाकर उन दिनों की सैर कराई है, जहाँ आज की दुनिया से अलग एक निराली ही दुनिया थी और उसकी कुछ अजब सी मुश्किलें.
लेकिन इससे भी अचरज भरी चीज इस दौर की उनकी कविताएँ हैं. इस दौर में छपी उनकी कविता पुस्तकों ‘आम के पत्ते’, ‘आग की हँसी’ और ‘मैं तो यहाँ हूँ’ में बड़े ही सहज ढंग से रामदरश जी की कविता एक नया मोड़ लेती है. मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि उम्र की दहाई तक आते-आते रामदरश जी इस कदर कवि-सिद्धता हासिल कर चुके हैं कि उनकी कविताएँ बड़ी सहज और अनौपचारिक हो चली हैं. अपने आसपास का जो जीवन वे डूबकर जीते हैं, वह सहज ही उनके शब्दों की संवेदना में घुल-घुलकर बहता दीख पड़ता है. इतना सहज कि उन्हें कविता लिखने के लिए विषय ढूँढ़ने की दरकार नहीं है. बल्कि उनके आसपास जो कुछ भी है, वह खुद-ब-खुद कविता की ओर खिंचा चला जाता है, और फिर कवितामय होकर हमारी आँखों के आगे आता है तो हम चौंक पड़ते हैं कि अरे, यहाँ तक आते-आते तो रामदरश जी के लिए मानो सारा जीवन ही कवितामय हो उठा है. जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो उनकी कविता की चौहद्दी से बाहर हो.
इस लिहाज से रामदरश जी की मेज, चाकू, चम्मच जैसी रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों पर लिखी गई कविताएँ तो अद्भुत हैं. उनकी ‘मेज’ कविता पढ़ते हुए हम चकित होकर देखते हैं कि यहाँ मेज केवल मेज ही नहीं रह जाती, वह पूरी जिंदगी हो जाती है. और एक लेखक के जीवन का तो पूरा इतिहास ही उसमें होकर बहता है. इस मेज के आसपास कितने लोग आकर बैठे. उन सबके सुख-दुख की अपार कहानियाँ, दर्द और संवेदनाएँ, मित्रों और परिवारीजनों के साथ स्नेह-प्रीतिमय संवाद, सब की साक्षी यह मेज ही तो है. फिर एक-एक कर इस मेज पर जमा होती गई पुस्तकें, पत्रिकाएँ और उनमें बहती हुई तरल संवेदना की यह गवाह है. इतना ही नहीं, इस मेज पर रखी हुई चिट्ठियाँ, किताबें…स्याही के धब्बे, दाग…सभी जैसे जिंदगी के अनथक प्रवाह की कहानी कह रहे हैं. रामदरश जी न सिर्फ अपार धैर्य से उसे सुनते हैं, बल्कि आहिस्ता से कविता में भी पिरो देते हैं—
रात होते ही
शोर में डूबी पुस्तकें
आहिस्ता-आहिस्ता अपने पृष्ठ खोलने लगती हैं,
न जाने कितने-कितने स्वरों में बोलने लगती हैं
वे आपस में बतियाती हैं
कभी प्यार से झगड़ती हैं
कभी नदी बन जाती हैं, कभी पहाड़
कभी खेत, कभी खलिहान
कभी पेड़, कभी चिड़िया
कभी जेठ की दुपहरिया
कभी शिशिर की रात
कभी सावन की बदली
कभी वसंत की हवा
कभी पेट की आग
कभी आँख का पानी
कभी सागर पार से आती आवाजें
यहाँ की आवाजों से गले मिलती हैं
कभी अनंत दूरियों की कोख से उगती हुई
कुछ आवाजें आती हैं बच्चों की तरह
और आज के आँगन में खेलने लगती हैं
और देखते-देखते ये सभी कुछ
आपस में मिलकर आदमी में समा जाते हैं
और मुझे लगता है कि
मैं सूखे काठ से एक समग्र जीवन की संवेदना में बदल गई हूँ.
यों रामदरश जी की कविता में आई मेज सिर्फ मेज नहीं, एक सृजनधर्मी लेखक का पूरा जीवंत इतिहास बन जाती है. वह सुख-दुख की अमिट कहानी के साथ-साथ उन मानवीय उपलब्धियों को भी आँखों के आगे ले आती है, जिससे हमें अपना मनुष्य होना सार्थक लगने लगता है.
हमारी जिंदगी की ऐसी ही मामूली चीजों में चाकू भी है. चाकू काटने के काम आता है और रसोई में इस्तेमाल होने वाली एक सामान्य चीज है. पर रामदरश जी तो उसमें गृहिणी की तरल संवेदना का इतना गहरा परस देख लेते हैं कि उन्हें लगता है, हमारे जीवन में जो भी सुख-स्वाद है, वह भला कैसे होता, अगर चाकू न होता. इसी तरह चम्मच को एक खास अर्थ में प्रयोग करते हुए हम उसे कितना छोटा, कितना उपेक्षित और कई बार तो हास्यास्पद वस्तु बना देते हैं. पर रामदरश जी चम्मच को उठाते हैं और उस पर एक आश्वस्त निगाह डालकर कहते हैं कि मैं तुम्हें तुम्हारी गरिमा और गौरव लौटाऊँगा. और वे सचमुच ऐसा करते भी हैं.
ऐसे ही कुछ अरसा पहले माँ पर लिखी गई रामदरश जी की कविता बड़ी मार्मिक और पुरअसर है, जिसमें बचपन की बहुत सी मीठी-तीती स्मृतियाँ जुड़ गई हैं. जीवनसंगिनी सरस्वती जी पर लिखी गई कविता भी एक रम्य किस्म के घरेलूपन की गंध लिए है. यहाँ तक कि तीसरी पीढ़ी के बच्चों पर लिखी गई रामदरश जी की कविताओं में भी बड़ा रस, आनंद और खुलापन है. खासकर एक छोटे बच्चे उत्तू पर लिखी गई रामदरश जी की कविता तो मैं भुला ही नहीं पाता. हो सकता है, उत्तू अब बड़ा हो गया हो, पर उनकी कविता का उत्तू तो अब भी उसी तरह छोटा और नटखट ही हैं, जो अपनी हँसी और विविध कौतुकपूर्ण छवियों से हमें लुभा लेता है.
रामदरश जी की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे अपनी कविता की जमीन तथा अपने कवि की ‘प्राणशक्ति’ और निजीपन की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपने आँगन का एक कोना कच्चा छोड़ दिया है, इसलिए न वे बनावटी हुए और न जमीन से उनका रिश्ता ही खत्म हुआ! रामदरश जी की कविताओं में यह कविता सबसे अलग और खास मुझे इसलिए लगती है, क्योंकि यह अकेली कविता रामदरश जी के कवि का ‘सही और संपूर्ण परिचय’ भी है!
और मुझे तो रामदरश जी की कविता की असली शक्ति यही लगती है कि दिल्ली में इतने बरस रहते हो गए, पर न वे कभी अपनी जमीन को भूले और न मिट्टी और पानी की गंध उनके साहित्य में कमतर हुई. इसीलिए आज के तमाम कवि-लेखक जब देखते ही देखते बासी और पुराने होते जा रहे हैं, रामदरश जी उन लेखकों में से हैं जो आने वाली शताब्दियों में भी मानवता के साथ रहेंगे और उसे सही रास्ते तक पहुँचाते में मदद देते रहेंगे.
हालाँकि अपनी लेखकीय उपलब्धियों को हासिल करने में लिए उन्होंने न कभी उतावली दिखाई और न औरों की तरह बढ़-चढ़कर हाथ मारे. उनकी एक बढ़िया और बहुचर्चित गजल के शेर चंद अल्फाज में उनके संघर्ष की पूरी कहानी कह डालते हैं-
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे.
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफर धीरे-धीरे.
जहाँ आप पहुँचे छ्लाँगें लगाकर,
वहाँ मैं भी आया, मगर धीरे-धीरे….
ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे.
मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे.
जहाँ छलाँगें लगाने वाले लोगों का ही बोलबाला हो, वहाँ अब भी रास्ते पर धीरे-धीरे मगर दृढ़ता से चलता एक ईमानदार आदमी मिल जाए, यह चीज खुद में कम आस्था देने वाली नहीं है. क्या यही वजह नहीं है कि रामदरश जी का पूरा साहित्य आदमी पर विश्वास और आस्था का साहित्य है और उन्हें पढ़ना अपने आपसे मिलने जैसा है!
प्रकाश मनु 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल – prakashmanu333@gmail.com |
अच्छा भावपूर्ण और भावुक कर देने वाला आलेख।
एक ही बिंदु को इतने विस्तार से बार बार मथने वाला प्रकाश मनु जैसा लेखक हिंदी में कोई दूसरा नहीं। इसलिए उनकी पुनरावृत्तियां भी मोहक लगती हैं।
हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसे साहित्यकार भी हुए हैं जिन्होंने
बिना किसी तामझाम और दिखावे के एक इबादत की तरह
साहित्य साधना की है।उन्हीं में से एक रामदरश मिश्र भी हैं।
उन्हें साधुवाद ! प्रकाश मनु का यह संस्मरण काफी रोचक और आत्मीय है, बल्कि एक दृष्टि से उनका मूल्यांकन भी
करते गया है।
प्रिय भाई अरुण जी,
‘समालोचन’ के जरिए संस्मरण को इतने सहृदय पाठकों तक पहुँचाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार!
सुबह से ही बहुत पाठकों और लेखकों के फोन आ रहे हैं। अभी कुछ देर पहले भाई त्रिनेत्र जोशी का फोन आया। उन्होंने कहा, मनु जी, आपने बहुत विस्तार से रामदरश जी के बारे में लिखा है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। रामदरश जी मेरे भी गुरु रहे हैं। उन्होंने मुझे पढ़ाया है। बहुत स्मृतियाँ हैं उनकी मन में। आपका संस्मरण पढ़कर बहुत कुछ याद आ गया। हम कहाँ से चलकर आए, यहाँ किस-किस का सहारा मिला, सब कुछ याद आता चला गया। आपका बहुत आभारी हूँ मैं। कभी रामदरश जी से बात हो तो उन्हें मेरी ओर से ‘तस्मै गुरु देवाय नमः’ जरूर कहें!
इतने लेखकों, पाठकों का रामदरश जी के प्रति यह आदर भाव देकर अभिभूत हूँ।
आज के त्वरा भरे साहित्यिक माहौल में चुपचाप अपनी राह पर चल रहे सीधे, सरल रामदरश जी के प्रति लोगों का इतना प्यार मन में आस्था पैदा करता है। लगता है, मेरा श्रम अकारथ नहीं गया।
एक बार फिर से आपका और ‘समालोचन’ का आभार।
स्नेह,
प्रकाश मनु
वाह! इतना सुंदर संस्मरण, इतना सुंदर विस्तार तबीयत खुश हो गई बहुत दिनों के बाद ऐसा रसीला संस्मरण पढ़ा है। वास्तव में यह विस्तार नहीं बल्कि अपने गुरु के जीवन की तहों को खोलने का सार्थक प्रयास है। और मनु जी इसमें पूर्णतः सफल हुए हैं। बहुत निजी और गहन अध्येता ही इतने विस्तार से ऐसा लिख सकता है। ‘राख में छिपे सुनहले अक्षर’ बहुत सुंदर कहानी, इनके जीवन पर आधारित कहानी मनु जी ने लिखी है। इतने बड़े शहर में रहते हुए भी सरल और सादा जीवन जीना हमारी आर्ष परंपरा को समृद्ध करता है। मिश्र जी का जीवन, वैचारिक चिंतन सरल है, उतना ही अनुकरणीय और सराहनीय भी। इतना सुंदर संस्मरण केवल और केवल मनु जी ही लिख सकते हैं।। वास्तव में आप दोनों ही आदर्श साहित्य और जीवन का पर्याय हैं आप दोनों के श्री चरणों में सादर नमन। ईश्वर आप दोनों को हमेशा अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायु प्रदान करें।
डॉ.अशोक बैरागी