उस्ताद राशिद खान लागी तोसे नैन प्रीतम सुमीता ओझा |
लगभग 21 साल पहले की बात है. किसी ख़ुशगवार मौसम की एक ख़ुशनुमा शाम थी वह. विविधरंगी सुरों से सजा गोरेगांव (मुम्बई) स्थित स्टेडियम इन दिनों राग-रागिनियों की क्रीड़ा स्थली बना हुआ था. शास्त्रीय संगीत का राष्ट्रीय स्तर का जलसा चल रहा था. इसी जलसे में एक कलावंत गायक स्वर साध रहा था.
आलापचारी की मद्धिम आँच पर धीरे-धीरे रागदारी की सुवास फैलने लगी थी और गायक की सुरदार, ख़मदार आवाज़ फ़ज़ा में जिल्द बाँधने लगी थी. अनगिनत भावमुद्राओं में थिरक रही आवाज़ श्रोताओं को लगातार अचम्भित कर रही थी कि गायक ने एक मुर्की ली. थोड़ी-सी ढील देकर अचके में खींच लिया स्वर तार. खींच लिया ध्यान कि आकाश में स्निग्ध-शीतल चौदस का पुरनूर चाँद भी ध्यानस्थ हो गया. एक अविस्मरणीय अप्रतिम आनन्द का अन्तराल उपस्थित हो आया. यूँ लग रहा था जैसे यह संगीत आसमान से उतर रहा हो.
ऐसा सम्मोहन कि अस्तित्व सेमल की रुई हो गया था. समय के इस टुकड़े में ऐसा संगीत सम्भव हुआ था जो हर एक श्रोता की रूह के संगीत से सुसंगत था. स्मृति में हमेशा झिलमिलाते इस संगीत को सम्भव करने वाले यह गायक थे उस्ताद राशिद खान. जलसे में शिरकत करने आए दिग्गज संगीतकारों में युवतम. (उन्हें लाइव सुनने का मेरा यह पहला मौक़ा था. इससे पहले उन्हें बस कैसेट के माध्यम से ही सुना था. बाद में फिर कई मौक़े आए जिनमें आख़िरी था छह वर्ष पूर्व बनारस में संकट मोचन संगीत समारोह.) गायन में रूहानियत की यह तासीर पैदा हो जाना बहुत दुर्लभ है. इस दुर्लभता की कीमिया कभी पकड़ाई में नहीं आती. आ भी नहीं सकती. यह दुर्लभता हासिल होने का आधार पीढ़ियों का तप और कठिन रियाज़ की आँच पर सींझते चलना तो था ही, लेकिन साथ ही सरल चित्त से संगीत की साधना में इबादत की गहनता तक डूबा हुआ प्राण भी समाहित था. नहीं तो ऐसा क्योंकर होता कि एक बच्चा जिसे बस क्रिकेट खेलने में रुचि थी, जिसे पढ़ाई करना या संगीत का कठिन व बोझिल रियाज़ करना रास नहीं आता था, वह मौसिक़ी की दुनिया में एक आला मक़ाम पर पहुँचा हुआ उस्ताद राशिद खान होता!
ख़ुद राशिद के लिए भी उनका गायक बन जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं था. इसका पूरा श्रेय अल्लाह-ता’ला और पीर को, बुजुर्गों की दुआ और मेहनत को देते हुए हमेशा ही उनका सिर सजदे में झुका रहा. जिस किसी ने भी उनकी कुछ मदद की थी, चाहे वे परिवारजन हो, पत्नी- बच्चे हों, संगीतकार-संगतकार हों, उनके प्रति राशिद का मन हमेशा ही गहरी कृतज्ञता की भावना से भरा रहा. वे संगीत के लिए समर्पण के उस बिन्दु पर टिक गए थे जिसकी झलक जबतब उनके संगतकारों और श्रोताओं को मिला करती है. कई बार आसमान की ओर हाथ उठाकर वे इसे बता पाने की कोशिश करते,
“कभी-कभी ऐसा होता है कि जैसे (वहाँ ऊपर से) कोई सुर आपको खींच रहा हो और (बेबस) आप बस खिंचे चले जाते जाते हैं… कहीं डूब जाते हैं…”.
इसी डूब जाने ने उनके गायन को वह ख़ासियत नवाजी थी जिसकी वजह से दुनिया उनकी दीवानी थी. लेकिन संगीत को साध लेने की यह राह इतनी आसान भी नहीं थी. हर व्यक्ति की तरह राशिद खान की राह में भी संघर्षों और सफलताओं के दौर आए.
यह सच है कि संगीत उन्हें विरासत में मिला था. वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के रामपुर-सहसवान घराने से तअल्लुक रखते थे. इस घराने का सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के रामपुर और सहसवान शहरों से हैं. गायन की शैली में इस घराने का ग्वालियर और सेनिया घराने से क़रीबी रिश्ता है.
इस घराने की उत्पत्ति रामपुर राज्य (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले में) के शाही दरबार के प्रमुख ख्याल गायक मेहबूब खान से हुई थी जिनकी परम्परा का पालन करते हुए उनके बेटे उस्ताद इनायत हुसैन खान (1849-1919) ने इस घराने की संस्थापना की. इस घराने के मशहूर गायकों में हैदर खान (1857-1927), उस्ताद फ़िदा हुसैन खान और पद्मभूषण उस्ताद मुश्ताक हुसैन खान (1878-1964; पद्मभूषण पुरस्कार से नवाजे जाने वाले पहले संगीतकार) का नाम शुमार है.
इस घराने के प्रसिद्ध गायकों में निसार हुसैन खान, गुलाम मुस्तफा खान, गुलाम सादिक खान और राशिद खान जैसे बड़े नाम शामिल हैं.
राशिद खान इस घराने के संस्थापक उस्ताद इनायत हुसैन खान के परपोते हैं जिनका जन्म 1 जुलाई, 1968 को सहसवान में हुआ था जहाँ वे अपने नाना और गुरु उस्ताद निसार हुसैन खान के साथ 10 वर्ष की उम्र तक रहे थे. नाना उस्ताद निसार हुसैन खान अपनी अनुशासनप्रियता और कठोर रियाज़ करवाने के कारण बच्चे राशिद के लिए डर और संगीत के प्रति अरुचि का सबब थे.
अल्लसुबह अधकच्ची नींद से उठकर रियाज़ करना बच्चे राशिद को बेहद नागवार था. हालाँकि वह खेलते-कूदते या रस्ते में आते-जाते रागों, तानों या पलटों का सहज अभ्यास करता रहता. उम्र के 11वें वर्ष में अपने नाना के साथ यह बच्चा कलकत्ता (अब कोलकाता) एक कन्सर्ट में आया था. इस कन्सर्ट में देश के दिग्गज संगीतकारों की उपस्थिति में पण्डित रविशंकर के सितारवादन से पहले बच्चे राशिद ने राग प्रदीप में बंदिश ‘लागी तोसे नैन प्रीतम’ गाया था.
राशिद याद करते कि तब मेरी बड़ी अजीब मनःस्थिति थी, डर भी लग रहा था. लेकिन बाद में रविशंकर जी ने कंधे पर हाथ रखकर उनकी सराहना की, मेहनत से रियाज़ करते रहने की सीख दी.
इस कन्सर्ट में उनका गायन सुनने वालों में पण्डित भीमसेन जोशी जी भी थे. उन्हें इस बच्चे में वह बात नज़र आई थी कि वे हिन्दुस्तानी संगीत के भविष्य को लेकर आश्वस्त हुए थे. अली अकबर खान, अमजद अली खान, निखिल बनर्जी जैसे दिग्गज कलाकारों ने इस छोटे से गायक पर हमेशा ही ख़ूब स्नेह बरसाया, मार्गदर्शन किया. ऐसे जैसे किसी दीपक की लौ निष्कम्प रह सके इसके लिए बड़ी हथेलियों ने हर ओर से ओट दे रखी हो.
राशिद ने भी ताउम्र इस स्नेह और मार्गदर्शन का भरपूर मान रखा. वे वरिष्ठ और बुजुर्ग संगीतकारों को सुनने का, उनकी रिकॉर्डिंग में बैठने का कोई मौक़ा नहीं गँवाते थे. संगीत की बारीकियाँ सीखने के ये नायाब मौक़े थे. और ऐसी ही एक रिकॉर्डिंग में उनके साथ हुई एक बदसलूकी उनके जीवन में निर्णायक साबित हुई. हुआ यह था कि पण्डित भीमसेन जोशी जी की एक रिकॉर्डिंग होने वाली थी. राशिद रिकॉर्डिंग रूम के एक कोने में बस चुपचाप बैठे रहना चाहते थे लेकिन आयोजकों में से किसी व्यक्ति ने, जो उन्हें पहचानता भी था, बड़ी रुखाई से उन्हें वहाँ से निकल जाने को कहा. यह रुखाई राशिद के दिल को लग गई. ठीक उसी क्षण राशिद ने संकल्प लिया कि वह वे दिन ज़रूर लाएँगे जब यही आयोजक उनकी रिकॉर्डिंग के लिए ख़ुशामदें करेगा.
राशिद का यह संकल्प फलीभूत हुआ और वे दिन आए भी, ख़ूब-ख़ूब आए. लेकिन यह कुछ बाद की बात है.
कोलकाता के पहले कन्सर्ट के बाद वर्ष 1978 में आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी द्वारा दिल्ली में आयोजित कन्सर्ट में भी राशिद ने गायन की प्रस्तुति दी और बहुत सराहे गए. कुछ समय वे अपने मामू गुलाम मुस्तफा खान के साथ मुम्बई में भी रहे. मामू को उनकी प्रतिभा की बख़ूबी पहचान थी. मामू ने एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में उनका दाखिला करवा दिया और साथ ही तबले का भी रियाज़ करवाया. लेकिन राशिद का मन पढ़ाई-लिखाई में तनिक न रमा और वे वापस अपने नाना के पास लौट आए. अप्रैल 1980 में, जब नाना निसार हुसैन खान आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी (एसआरए), कोलकाता में बतौर गुरु पदस्थ हुए तो राशिद खान भी कई साक्षात्कारों के बाद स्कालरशिप प्राप्त प्रशिक्षु के तौर पर अकादमी में शामिल हो गए.
नाना व गुरु निसार हुसैन खान के वे गण्डाधारी शिष्य थे. उनके संरक्षण और कड़े अनुशासन ने धीरे-धीरे उन्हें संगीत और गायन के प्रति गहरे मुहब्बत से भर दिया. 1994 तक उन्हें अकादमी में एक संगीतकार के रूप में स्वीकार किया गया. राशिद को संगीत रिसर्च अकादमी में सभी घरानों के संगीतकारों से मिलने-जुलने और सीखने का लगातार सुअवसर मिलता रहा. वे कई संगीतकारों से बेहद प्रभावित भी हुए जिनमें ठुमरी सम्राज्ञी अप्पाजी गिरिजा देवी अन्यतम थीं. उनकी ठुमरी की मिठास ने राशिद को संगीत के एक नए जादुई एहसास से परिचित करवाया था. क्या जाने उन्होंने मुँह में पान रखकर गाने का अंदाज़ भी गिरिजा देवी से ही लिया हो?
धीरे-धीरे रामपुर-सहसवान घराने की गायकी की शैली में वे निष्णात होते गए. इस शैली में मध्यम-धीमी गति, पूर्ण गले की आवाज और जटिल लयबद्ध वादन शामिल थे. राशिद खान ने नाना की तरह अपने विलम्बित ख्यालों में धीमी गति से विस्तार शामिल किया और सरगम व सरगम तानकारी (पैमाने पर खेल) के उपयोग में असाधारण विशेषज्ञता भी विकसित की.
अपने गुरु की तरह राशिद भी तराना के उस्ताद थे, लेकिन उन्हें अपने तरीक़े से गाते थे. वे वाद्य स्ट्रोक आधारित शैली की बजाय ख्याल शैली को प्राथमिकता देते थे यानी तराना गायन में वे वाद्य स्वर की नकल नहीं करते थे. राशिद के गायन में तकनीक के कुशल निष्पादन की तुलना में भावों का मधुर विस्तार मंत्रमुग्ध करता था.
यही वह पक्ष था जो उनके गायन को नवीनता और आधुनिकता प्रदान करता था. वे कहा करते थे कि जीवन के जो भी दुःख-दर्द थे, मैंने उन्हीं को अपने संगीत में उड़ेल दिया. उनका कहना था, “भावनात्मक सामग्री अलाप में हो सकती है, कभी-कभी बंदिश गाते समय या गीत के अर्थ को अभिव्यक्ति देते समय.” यह उनकी शैली की विशिष्टता थी.
ख़ासकर ख्याल गायकी के लिए प्रसिद्ध उनके अपने घराने में भी संगीत की सभी विधाएँ मौजूद तो थीं, लेकिन यह भी सच है कि अन्य सभी दिग्गज संगीतकारों को सुनने-गुनने ने राशिद के संगीत को नवीन कल्पनाओं का बड़ा वितान दिया, नए प्रयोग करने के लिए बड़ा आकाश मुहैया किया.
वे उस्ताद आमिर खान (इंदौर घराना) और पण्डित भीमसेन जोशी (किराना घराना) की शैली से भी प्रभावित नजर आते थे. पण्डित भीमसेन जोशी का उनपर विशेष स्नेह था. पुणे में पण्डित जी का आवास था. वहाँ होने वाले संगीत के छोटे-बड़े आयोजनों में वे यथासम्भव राशिद खान को बुलवाते और ध्यान से सुनते. ऐसे ही एक घरेलू बैठक की याद करते हुए राशिद यह ख़ुशगवार क़िस्सा सुनाया करते,
“मेरे गायन के समय पण्डित जी ने अपने बेटे से वह तानपूरा मंगवाया जिसपर वे ख़ुद रियाज़ करते थे और उनसे मेरे साथ संगत करने को कहा. यह असाधारण और अद्भुत बात थी. उन्होंने बड़े ध्यान से गायन सुना, बहुत आशीष दिया और फिर कार्यक्रम की समाप्ति के बाद खानपान के उपरान्त पण्डित जी ने बेटे से मँगवाकर मुझे दस हज़ार रुपये दिए. बेहद संकोच से मैंने रुपये लेने से मना किया तो उन्होंने बड़ी गम्भीरता से समझाया था कि फ्री में किसी के लिए भी नहीं गाना.”
राशिद ने शुद्ध हिन्दुस्तानी संगीत को सुगम संगीत शैलियों के साथ मिलाने का भी प्रयोग किया, उदाहरण के लिए सूफी फ्यूजन रिकॉर्डिंग ‘नैना पिया से’ (अमीर खुसरो के गाने), या पश्चिमी वाद्ययंत्र वादक लुइस बैंक्स के साथ प्रयोगात्मक संगीत कार्यक्रम में. उन्होंने सितारवादक शाहिद परवेज़, गायक हरिहरन, शंकर महादेवन, राहत फ़तेह अली खान, रेखा भरद्वाज व अन्य गायकों-वादकों के साथ जुगलबंदी भी की. साथ ही उन्होंने ग़ज़ल गायन और सूफी संगीत में भी हाथ आजमाया और सफल रहे. सोशल मिडिया, विशेषकर इन्स्टाग्राम पर भी वे सक्रिय थे और इस माध्यम का उपयोग वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में कर रहे थे.
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महारथी के तौर पर दुनिया भर में मशहूर होने के बाद उनकी लोकप्रियता में बहुगुणित इजाफ़ा तब हुआ जब उन्होंने ‘जब वी मेट’ फिल्म का ‘आओगे जब तुम ओ साजना, अँगना फूल खिलेंगे’ और ‘अलबेला सजन आयो री’ गीत गाया. इन गानों ने भारतीय युवाओं के दिलों में उनकी पैठ जमा दी. हालाँकि फिल्मों के लिए वे गाना नहीं चाहते थे लेकिन बाद में उन्हें यह एहसास हुआ कि यह बेहतर माध्यम है यदि इसी बहाने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बहुसंख्य श्रोताओं की दिलचस्पी जगती हो. फिर तो लोकप्रियता का यह आलम आया कि उन्हें अपना आदर्श मानने वाले हिन्दुस्तानी संगीत के नए प्रशिक्षु उनकी भाव-भंगिमाओं और मुद्राओं तक की नकल करते पाए जाने लगे, अब वे जहाँ कहीं भी संगीत के कन्सर्ट में जाते, युवा जनों की भीड़ ‘जब वी मेट’ के गानों की फरमाइश लिए उमड़ पड़ती.
2018 में बनारस के संकट मोचन संगीत समारोह में भी यही दृश्य था. उनके मंच पर पधारते ही युवा श्रोता एक स्वर में इन गानों की फरमाइश करने लगे. उस्ताद राशिद खान ने संकट मोचन हनुमान जी को समर्पित करते हुए अपने गायन के बाद युवा श्रोताओं की फरमाइश पूरी की. देश और दुनियाभर में ख्याति के साथ ही उन्हें अनेक पुरस्कार मिले. 2006 में भारत सरकार द्वारा उम्हें पद्मश्री पुरस्कार प्रदान किया गया. कई पुरस्कारों और सम्मानों के साथ ही उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया. 2022 में उन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.
संगीत की विशेष प्रतिभा के धनी राशिद हमारी दुनिया में एक बेहद सौभाग्यशाली बच्चे के रूप में जन्मे थे. वे एक नायाब संगीतकार और सरल चित्त व्यक्ति थे. उन्हें लाइव गाते देखना और सुनना भी कम सौभाग्य की बात नहीं थी लेकिन उनके गायन के मुरीद निश्चित ही कमनसीब रहे कि महज़ 55 साल की उम्र के राशिद को ऊपरवाले ने इसी 9 जनवरी को अपने अंगना में सुरों के फूल खिलाने को बुला लिया. अभी तो उनके संगीत को और परवान चढ़ना था. अभी तो हम श्रोताओं को उनके द्वारा संगीत के कितने ही अनजाने, जादूभरे सौन्दर्य का इस्तिक़बाल करना था. पर यह मुमकिन न हुआ.
यह जानते हुए कि राशिद खान का मुमकिन होना विरले ही होता है, हम डबडबाई आँखों से उन्हें शब्दों के फूल ही अर्पित कर सकते हैं.
सुमीता पता: बड़का सिंहनपुरा, सिमरी (बक्सर). बिहार, पिन: 802120 |
सुंदर, एक बार में ही पूरा पढ़ गया। राशिद ख़ाँ साहब एक हीरा थे या शायद उससे भी अनमोल। ऐसे गायक का इस तरह चले जाना हमारी पीढ़ी के संगीतप्रेमियों के लिए बेहद दुःखद है क्योंकि उनके जैसा कोई दूर दूर तक नज़र नहीं आता। जगजीत को श्रद्धांजलि के कार्यक्रम में उन्होंने उनकी याद में ऐसी बंदिश गायी की बड़े बड़े फ़नकार अवाक रह गए। निःसंदेह उनका जाना संगीत के लिए अपूरणीय क्षति है। शत शत नमन 🙏🙏
मैं सिर्फ़” वी मेट” के बस उसी गाने के कारण राशिद खां को जानती थी। बहुत विस्तार से इस गायक के बारे में आज मित्र सुमीता के इस आलेख से ही जान पायी।
बहुत शुक्रिया इस आलेख को लिखने के लिए। ऐसे संगीत साधक का कम उम्र में जाना वेदना दे जाता है। लेकिन जो उन्होंने अपनी उम्र में संगीत साधना से हासिल किया वह वाकई अद्भुत है।
बहुत अच्छा लिखा, ऐसा जैसे लिखे में ही रागदारी उतर आई हो। खूब सलाम।🎼
संगीत पर लिखना सहज नहीं है पर सुमीता जी इसमें डूब कर लिखती हैं
उस्ताद राशिद खान के नाना सितारवादक इनायत हुसैन खान को शांतिनिकेतन में सुनने के बाद श्रोताओं की माँग पर रवीन्द्रनाथ ने सितंबर 1909 के एक दिन जो गीत गाया था, वह इस प्रकार था — जिसका हिंदी तर्जुमा कुछ इस प्रकार हो सकता है — तुम कैसे गा रहे हो गुणी मैं अवाक् सुनता हूँ, केवल सुनूँ सुर की रोशनी पृथ्वी पर छाई सुरों का पवन गगन में बहता जाए व्याकुल गति से पत्थर टूट रहे हैं बची हुई है सुरों की सुर-ध्वनि ॥ मन करता है ऐसे ही सुर में गाऊँ कंठ में मेरे यह सुर मिलता नहीं । कहना चाहूं, कह नहीं पाऊँ हार कर मन रोता है तुमने कैसे जाल में फँसा दिया है मुझे मैं चहुंओर अपने ही सुरों का जाल बुनता हूँ।