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समालोचन

Home » बंद कोठरी का दरवाजा: नीरज खरे

बंद कोठरी का दरवाजा: नीरज खरे

रश्मि शर्मा को वर्ष 2021 का छठा शैलप्रिया स्मृति सम्मान मिला है. कविता के साथ-साथ रश्मि कहानियां भी लिखती हैं. 2022 में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘बन्द कोठरी का दरवाजा’ सेतु प्रकाशन से आया है. इस संग्रह की शीर्षक कहानी समालोचन 2018 में छपी थी जिसकी विवेचना अपने लोकप्रिय स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ में कथा-आलोचक राकेश बिहारी ने की थी. इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं नीरज खरे.

by arun dev
June 7, 2022
in समीक्षा
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बंद कोठरी का दरवाजा: नीरज खरे
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बन्द कोठरी का दरवाजा

यथार्थ का वैविध्य
नीरज खरे

किसी कहानीकार की कहानियां पढ़ते हुए पहला विचार जो मन में आता है कि अपनी अच्छी-बुरी दुनिया को उन्होंने कैसे देखा है? ऐसी कौन सी ‘वस्तु’ हमारे जीवन और समय की है- जो अब तक हमारे संज्ञान, चिंता और संवेदना के दायरे में नहीं थी. कहानी बनकर जो अपने पाठक को उत्सुक कर रही है. कहानी के जरिए कथाकार के बनाए रास्ते हम एक नए अनुभव की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. वह अपने नजरिए से कहाँ और किस तरह ले गया, यह तो बाद में विचारने की बात है. अगर कहानी हमारे पूर्व अनुभव या ज्ञात रास्ते से कुछ अलग अनुभव नहीं देती;  तो उसकी परख भी कतिपय तयशुदा खाँचो में रखकर की जा सकती है. और, अगर कहानी इनसे अलग मुकाम पर ले गई है. अलग रास्ते से तो उसकी परख भी तय मानदंडों से अलग होना चाहिए. खासतौर से अस्मितामूलक विमर्शों के इस दौर में

एक अतिरिक्त अपेक्षा पहले ही मन में जगह बनाने लगती है कि लेखिका ने अपने वर्ग यानी स्त्री की दुनिया को कैसे देखा है? हो सकता है कि किसी विशेष परिस्थिति में इस तरह देखना ज़रूरी भी हो और कभी इस तरह का मूल्यांकन किसी कहानी और कहानीकार के लिए अपेक्षित भी हो! लेकिन स्त्री के लिखने को अलग अर्थ में रेखांकित करने या सिर्फ स्त्री जीवन और उसके विमर्शों के नजरिए से ही देखना उसके लिखे का अवमूल्यन भी हो सकता है.

इस तरह उसे सीमित करना भी होगा. कहानीकार रश्मि शर्मा के पहले कहानी-संग्रह ‘बंद कोठरी का दरवाजा’ की बारह कहानियां पढ़ते हुए सवाल मन में यही आया कि इन कहानियों की परख कैसे हो? जिनमें अपने समय, परिचित समाज, घर-परिवार, रिश्तों आदि से रू-ब-रू होते उनके अनुभवों से निकली ताजा आवाजें हैं. जैसे वे हमारे पूर्व कथा अनुभवों को सुनने के लिए अभ्यस्त कानों में पहुँच कर कहती हों कि हमें ‘कुछ अलग सुनों!’

रश्मि की इन कहानियों में इस ‘अलग’ को सुनने का आशय यह नहीं है कि इनकी विषय वस्तु हमारे परिचित यानी वाह्य यथार्थ से नहीं आती! बेशक वह आती है, पर कहानी में घुलती है- कथाकार के अनुभवों के साथ घीरे-घीरे. और, घुलकर हर कथा का अपना रंग बनता है कि जैसे उसमें कुछ अवशिष्ट या अघुलनशील देख पाना भी मुश्किल हो! कुछ इस तरह भी कि पोटली में बँधकर यथार्थ कहानी के कंधे पर लटका हो कि बस! एक रंग की पोटली दिखायी पड़ती हो, अंदर क्या है? यह उसकी एक-एक तहें खोलकर ही पता चलेगा, बाहर से कुछ नहीं. इसका नायाब उदाहरण है- कहानी ‘महाश्मशान में राग-विराग’. जिसे मूलतः प्रेम कहानी कहा जाएगा, पर स्मृतियों से टकराकर वह सिर्फ प्रेम कहानी ही नहीं रह जाती है. वह कश्मीर और बनारस, गंगा और डल झील, इतिहास और मिथक तथा नॅरेटर लड़की के अतीत और वर्तमान को एक साथ लय में बांधकर चलती है. उसके जीवन में घटित दो प्रेमों की एक कारुणिक और विषाद भरी संवेदनात्मक गूँज अंत तक साथ-साथ चलती है. यहाँ तक कि अपने प्रेम की परिणति पाठक तक पहुँचाने से बेख़बर कि आखिर छूट चुके जावेद और अयन के प्रेम में घटित त्रास का ठीक-ठीक सबब क्या था? प्रेम वेदना भले दे, वह अप्राप्त भी हो पर प्रेमियों के मरुस्थल मन में उसका कोना सदा हरा-भरा रहता है- यही थीम कारुणिक और विषाद भरी संवेदनात्मक गूँज की तरह ही ‘मैंग्रोव वन’ में मौजूद है. प्रेमानुभवों की केंद्रीयता इसमें कही ज़्यादा है. ज़ाहिर है ऐसे अनुभवों की स्मृतिमूलक कथाओं के लिए प्रथम पुरुष में ‘आत्म’ को उद्घाटित करना मुफीद रास्ता है, कहानीकार जिसे अपनाते हुए जगह-जगह शे’रों के इस्तेमाल से उसे सौंदर्यप्रद बनाती हैं.

स्त्री जीवन को केंद्र में रखती कुछ उल्लेखनीय कहानियां संग्रह में मौजूद हैं- ‘हादसा’, ‘नैहर छूटल जाए’, ‘निर्वसन’, ‘मनिका का सच’ और ‘चार आने की खुशी’. ये कहानियां आज की चुनौतियों और स्त्री जीवन की समस्याओं से रू-ब-रू हैं. थीम के आधार पर कह सकते हैं कि इनमें बलात्कार जैसी स्त्री उत्पीड़न की घटना, पिता की संपत्ति में स्त्री हक, पितृसत्ता का स्त्री विरोध, अशिक्षा के चलते डायन-प्रथा जैसी स्त्री विरोधी सामाजिक रूढ़ि और वृद्धावस्था में विधवा स्त्री का दुख शामिल हैं. लेकिन इन कहानियों को सिर्फ मूल वस्तुगत स्तर पर पहचान लेना ही पर्याप्त नहीं है. मसलन ‘हादसा’ के भीतर हादसा का निहितार्थ इकहरा नहीं है. टेलीविजन पर हैदराबाद की डॉक्टर को रेप करके जलाकर मारने वाली घटना बार-बार फ्लैश हुई है. जिसे अपनी माँ के साथ नौ या दस साल की बच्ची नंदिनी ने भी देखा है. उसके बालमन पर इसका भयानक मनोवैज्ञानिक असर हुआ है. दरअसल हादसा तो कथावृत्त के बाहर है यानी वाह्य यथार्थ का दुष्प्रभाव एक दूसरे भयावह हादसे को जन्म दे रहा है, जिस पर यह कहानी केंद्रित है. ग़ौर करें कि उसे कहीं और ज़्यादा गहराया है घोर व्यावसायिक न्यूज चैनल ने उस खबर को बार-बार फ्लैश करके, जहाँ टी.आर.पी की स्पर्धा है- हर खबर बिकाऊ हैं, उनकी अत्यंत नाटकीय प्रस्तुति का बाज़ार है. हालांकि कहानी इस पहलू पर नहीं बढ़ती, केवल संकेत देती है.

रश्मि की कहानियों में ऐसे संकेत खास मायने रखते हैं. उनके यहाँ यह अनकहा पक्ष नजरंदाज नहीं किया जा सकता. ‘नैहर छूटल जाए’ भी कोयलिया द्वारा पिता की इच्छानुसार उनकी मौत के बाद;  अपने भाइयों से संपत्ति पर अपने हिस्से के लिए दावेदारी की कहानी ही नहीं है. हालांकि, उसका मुखर होकर विरोधी होना गाँव भर के लिए नज़ीर है. इसी जिक्र से कहानी शुरू हुई है. पर यहीं राज्य सरकार और औद्योगिक घराने की मिली भगत का ज़रूरी प्रसंग भी आता है. जिसकी गाज गाँव पर गिरी है- पुलिस और सरकार का दमन बनकर. उद्योग के लिए जमीन चाहिए, इसलिए बीस एकड़ भूमि अधिग्रहण का मसला एक दूसरा भयावह यथार्थ रच रहा है.

नैहर सिर्फ कोयलिया का नहीं छूट रहा, किसानों की बहुफसलीय खेतिहर जमीनें भी छूट रही हैं; जिन पर उनकी जीविका निर्भर है. कोयलिया के हक की कहानी कहती वे बिना शोरगुल के आज की गाँव व्यथा भी कह जाती हैं. जबकि कहा यह जा रहा है कि गाँव और उनका यथार्थ हिंदी कहानियों से गायब हो रहे हैं! रश्मि की कहानियाँ कमोबेश इसका उत्तर देती हैं. गाँवों में खत्म हो रहे खेती और अन्य पारंपरिक रोजगारों के कारण ही मजदूरों का पलायन बढ़ा है. ठीक से कमाने-खाने और कुछ बचाकर पत्नी के लिए साड़ी-गहना-गुरिया खरीदने की चाह में ही ‘जैबो झरिया, लैबो सड़िया…’ कहानी के जीतन को दुर्घटना में अपना जीवन खोना पड़ा. अगर उसका सपना गाँव में रहते पूरा हो जाता तो पत्नी धनिया के साथ झरिया जाकर; कोयला खदान में मजदूरी का जोखिम ही क्यों उठाना पड़ता? रश्मि इस विडंबना को यहाँ भी इकहरे और घटनामूलक वृतांत में नहीं, जीतन-धनिया की दुखांतिक व्यथा में कहती हैं.

अब भी गाँव अशिक्षा और जागरूकता के अभाव में अंधविश्वासों और स्त्री विरोधी रूढ़ियों के गढ़ बने हैं. ‘मनिका का सच’ ग्रामीण स्त्री जीवन का बेहद संजीदा त्रास बयान करती है. मनिका का खुद डायन के रूढ़ अंधविश्वास को ओढ़ कर अपना सुरक्षा कवच बनाना कितना कारुणिक है, यह खुलासा तो उसकी मौत के बाद पता चलता है. तब स्त्री को देह या वस्तु मानने वाला पुरुषवाद भी बेनकाब होता है.

यहाँ स्त्री के ही वर्ग शत्रु अशिक्षित शकुन बुआ के रूप में है और शिक्षित नारी की तरह उसकी मुक्ति चाहने वाली शिक्षिका सुमिता भी हैं. कहानीकार की नज़र सिर्फ रूढ़ समस्या पर नहीं, उसे ध्वस्त करने के ज़रूरी विकल्प पर भी है.

कहानी कोई-न-कोई सच कहती है. सच कहना उसका स्वभाव है. उससे ज़्यादा लक्ष्य है. वह इसीलिए लिखी भी जाती है, पर उस सच को कहा कैसे गया? उस कहने से हर कथा ज्ञात सत्य को भी नया करती है. उसे लाने के निमित्त वह अपने प्रवाह में बहुत कुछ बहा लाती है और अनकहा छोड़ जाती है. बचपन में मिले बूढ़े आदमी या बूढ़ी औरतें हमारी स्मृतियों में अलहदा होती हैं. ‘चार आने की खुशी’ पढ़कर पहले तो खुद अपने गाँव-घर के कुछ ऐसे ही दिलचस्प और अनूठे लोग याद आए. यह कहानी नॅरेट करने वाली लड़की की स्मृतियों में दर्ज़ उसके पड़ौस में रहने वाली निःसंतान विधवा की कहानी है, जिन्हें सभी ‘बड़ा’ कहा करते थे. बड़ा अपनी देवर-देवरानी की आश्रिता हैं. वे उनकी जमीन की लालच में उन्हें दो वक्त की रोटी दे जाते हैं. बताया गया है कि वे कम बोलती थीं. कर्कशा थीं और बच्चों को डाटती-झिड़कती थीं. अपनी बकरियों को पालना और उनसे बतियाना ही उनकी दुनिया थी.

एक निःसंतान स्त्री के कुंठाग्रस्त विस्थापन का कारण हमारी सामाजिक व्यवस्था से बाहर नहीं है, जिसके वर्गशत्रु घर और बाहर हर जगह मौजूद हैं. हालांकि कहानी स्त्री की इस मनोदशा को तलाशने नहीं लिखी गई है. संस्मरण और रेखाचित्र के शिल्प में लिखी इस कहानी में यह संभावना ज़रूर हो सकती थी. बहरहाल, यहाँ दिलचस्पी  का केंद्र बड़ा की पसंद है- बिना दूध की चाह (चाय), जिसे वे बड़े चाव से सुड़क-सुड़क पिया करती थीं. इसी चाह के लिए शक्कर-पत्ती के इंतजाम की खातिर, वे चोरी से बगीचे के सीताफल बच्चों को चार आने में बेचा करती थीं. यह राज तो नॅरेटर को उनके न रहने के बाद पता चला, जब वह भी कॉलेज की पढ़ाई करके अपनी माँ के पास लौटती है.

वारिसों द्वारा संपत्ति मिलने के बाद बुजुर्गों को उनके जीते-जी दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल देना या फिर मिल्कियत के लिए उनके मरने का इंतज़ार करना- इस थीम पर तो पहले भी कहानियां लिखी गई हैं. बड़ा की कहानी में यही थीम अलग हुई है तो इसीलिए कि जमीन-दौलत की चाह मूल्यगत गिरावट को कहाँ ले जा रही है? अब हर जगहों की अस्मिता छीन कर नवपूँजीवादी विकास गाँव-बस्तियों तक अपने पैर पसार रहा है. जिनकी तिरछी नज़रें उनके इरादों के लिए मौके पर मौजूद बाग-बगीचों और खेतिहर जमीनों पर हैं. आम और सीताफल उपजाने वाली बड़ा की जमीन तो उनके देवर-देवरानी को मिल ही गई थी, पर उन्होंने ज़्यादा मुनाफे के लिए किसी मोबाइल कंपनी को टावर लगाने दे दी. अब उस जमीन का वजूद ही बदल गया है. यह ग़ौरतलब यथार्थ अंत में एक ज़रूरी नोट की तरह नत्थी है.

मिथकों के आधुनिक रूपांतरण हर विधा में प्रकारांतर से होते रहे हैं. आज भी हो रहे हैं. रश्मि ने भी ‘निर्वसन’ में किया है. मिथकों को लेकर चल रही समकालीन बहसों के बीच इस कहानी को पढ़ा जाना खास दिलचस्प है. कथा में मिथकों के प्रयोग कहन का आसान रास्ता दे सकते हैं और जोखिम भरा भी. लेकिन, रश्मि ने भरसक संतुलन बरता है. फाल्गू नदी के किनारे सीता द्वारा राजा दशरथ का पिंडदान करने की मिथकीय कथा में कुछ  बदलाव किए हैं. खासतौर से सीता की व्यग्रता और संवादों में ही कथा आधुनिक होकर हमारे समकाल की हुई है. कथाकार ने अपनी कथा के लिए ग्राह्य प्रसंगों को रखा है और बाधक को छोड़ दिया है. इस क्रम में स्त्री लिंगी नदी, गाय और केतकी के बहाने स्त्री के सामाजिक वर्गशत्रुओं का चरित्र उद्घाटित होता है और महाबली गंगा के रूप में वर्गमित्र का भी.

वट वृक्ष पुरुषवाची होने के कारण पुरुष वर्ग का प्रतीक है और सीता (स्त्री) के पक्ष में उम्मीद की कड़ी केवल वही है. मूल मिथक कथा के अनुसार वट ने सीता का साथ दिया, सीता द्वारा वट को मिले वरदान से वह पूजनीय बना. इसीलिए लोक में वट का पूजन सुहागिन स्त्रियों द्वारा अपने पति की कुशलता के निमित्त किया जाता है. व्रत रखकर स्त्रियाँ वट से अपने पति के लिए उसके ही समान दीर्घ आयु की कामना करती हैं. इस त्यौहार को लोक में वट सावित्री व्रत के नाम से जाना जाता है और उसकी अलग कथा भी बहुप्रचलित है. दरअसल रश्मि की ध्येय कथा मिथकीय कथा से बाहर है. कथाकार के कौशल से वह मिथकीय वृत्त से बाहर आने का सफल जतन भी करती है. पर इसी वाह्य कथा में आकर वट (पुरुष) का प्रतीक बाधक बन सकता था! इसलिए कथाकार ने वट-वरदान प्रसंग को छोड़ दिया है. इसका कारण जान लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा. अगर इस कथा संदर्भ के लिए वृक्षों के पर्यावरणीय महत्व को थोड़ा अलग रखकर विचारें, तो लोक में स्त्रियों की गहन आस्था के चलते अंततः पति के लिए वट-पूजन-व्रत पितृसत्तात्मक मानस का ही समर्थन है. अलग बात है कि इसमें पत्नी का पति से भावनात्मक राग भी मौजूद है. बहरहाल, राम और सीता अपना मिथकीय रूप छोड़कर आधुनिक पुरुषत्व और नारीत्व के प्रतीक बन जाते हैं.

नदी, गाय और केतकी भी आज की स्त्री के वर्गशत्रु और गंगा वर्गमित्र की तरह चिह्नित हो जाते हैं. इनके संकेत भी कहानी में बराबर आए हैं. पर आज की नारी के प्रति पति सहित अन्य पुरुष वर्ग की सहमति या सोच के चलते वट का प्रतीक बहुत दूर तक साथ नहीं देता. इसे छोड़ देने से वाह्य कथा ज्यादा बेधक बनी है. ज़ाहिर है कथाकार ने सीता के आधुनिक नारीत्व द्वारा अपने राम के पितृसत्ता समर्थक पुरुषत्व से पर्दा उठाते हुए समूची पितृसत्ता को निर्वसन किया है- जो नारी अस्मिता और उसके हक को अस्वीकार करती है. ज़ाहिर है वह हक पिंडदान करने का ही नहीं, दूसरे अन्य सामाजिक हक भी हैं जिसके अधिकारी पुरुष ही माने जाते हैं. कथा का मिथकीय पात्रों के इर्दगिर्द चलना, अलग होना और संभाव्य को परिकल्पित करना- इसकी ख़ासियत भी है. पुरुष वर्चस्व के खिलाफ स्त्री अस्मिता के प्रश्न अनेक हैं- वे सारे जैसे यहाँ अंतर्भुक्त हैं. जैसे कहन में बिना कहे, इसीलिए रश्मि का कलात्मक संयम यहाँ ज़्यादा मुकम्मल नज़र आता है.

प्रेम का सत्य व्यक्ति के भीतर से शुरू होता है, आधुनिक मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों में यौवन में उद्भासित यौन भावना की व्याख्याएं मौजूद हैं. मनोजगत का यह मसला हमेशा वर्जनाओं से घिरा रहा. छिपकर रहना, गोपन होना जैसे उसकी नियति है. प्रेम कहानियों के लिए कोई भी तार्किक विषय त्याज्य नहीं है. समलैंगिकता भी प्रेम की एक अलग प्रवृत्ति और अनुभूति है. इन प्रेम संबंधों को कानूनी मान्यता तो अभी मिली है, यह तो अँधेरों में छिपा चिरपरिचित राज है. अपने इसी कथानक के कारण शीर्षक कहानी ‘बंद कोठरी का दरवाजा’ चर्चा में रही है. कहानी पढ़ते हुए आखिरी मुकाम पर पता चलता है कि यह पुरुष समलैंगिकता की कहानी है, जिसे स्त्री नसरीन की ओर से लिखा गया है. उसके पति रेहान के सज्जाद से समलैंगिक रिश्ते का तनाव, बाद में उस संबंध के समर्थन में बदलता है- जिसके लिए कथाकार ने धारा 377 में बदलाव संबंधी सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को मानवीय धरातल बनाया है. ज़ाहिर है समलैंगिक प्रेम संबंधों को समाज में सम्मानजनक दर्जा नहीं है. इनके पक्ष में उन्हें गैर-आपराधिक घोषित कर कानूनी फैसला रास्ता आसान करता है. इस कथ्य के लिए बुनी गई इस कहानी में मुस्लिम परिवार की बदलती स्त्री के रूप में नसरीन को भी ग़ौर करना चाहिए. अपने स्कूल टीचर बनने के सपने को लेकर उसने संस्कृत में बी.ए. किया है. वह अपने कुटुंब की पिछली औरतों की तरह चूल्हा फूंकते जीना नहीं चाहती. उसकी शिक्षित सोच ही परिस्थितिजन्य निर्णय लेती है और दांपत्य की पारंपरिकता के अंतर्द्वद्व से मुक्त होकर खुद को टूटने से बचाती भी है.

‘बन्द कोठरी का दरवाजा’ कहानी यहाँ पढ़ें.

आज जब संयुक्त परिवार टूट चुके हैं और बड़ी तेजी से उनमें बदलाव आ रहे हैं. सामयिक परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नहीं हैं. रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं. रश्मि की कहानियां पारिवारिक ऊष्मा को सहेजने और रिश्तों के संवेदनात्मक आवेग महसूस करने का यत्न करती हैं. वैसे तो परिवार कई कहानियों में मौजूद है, पर संयुक्त परिवार के रिश्तों की तलाश ‘उसका जाना’, ‘घनिष्ठ-अपरिचित’ और ‘लाली’ कहानियों में ग़ौर करना चाहिए. वे ‘उसका जाना’ में केंसर ग्रस्त माँ के उपचार और उनके अवसान के वक्त आवेगों को बेटे के मार्फत दर्ज़ करती हैं. ‘घनिष्ठ-अपरिचित’ में पार्किंसन के कारण अत्यधिक भूलने और भ्रम की बीमारी के शिकार एक रिटायर्ड पिता हैं- उनकी इस तरह उपस्थिति परिवार में असामान्य परिस्थितियाँ पैदा करती है. जिसका आपा खोए बगैर बेटा-बहू अपनत्व से सामना करते हैं. खासतौर से स्त्री के नाते बहू सोनम की परेशानियों को उसके पति ने दर्ज़ किया है.

‘लाली’ में एक अलग ही प्रसंग है और बिन माँ की बच्ची को संयुक्त परिवार में ख़ासतौर से उसके चाचा ने बेहद प्यार से पाला है. उसे कभी कुछ पराया एहसास ही नहीं हुआ. बाद में जाकर लाली और असमय मौत का शिकार जनक दीदी की पारस्परिक युति के तार सौम्या से जुड़ते हैं. लगता है कहानी पुनर्जन्म की बात कहना चाहती है, पर इसके समर्थन या विरोध में जाए बिना सिर्फ संकेतों में छोड़ दिया है.

रश्मि की परिवार केंद्रित कहानियों में बच्चों की मौजूदगी पर आज अलग विचारने की ज़रूरत है. बेशक रश्मि की कहानियों में वस्तुगत परतें और उनके कहन का वैविध्य है. उन्होंने पहले ही संग्रह में संभावनाओं की स्वागत योग्य दस्तक दी है.

 

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.

नीरज खरे
प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी – 221 005

ई-मेल : neerajkharebhu@gmail.com/मो. : 9450252498  

Tags: 20222022 समीक्षानीरज खरेबन्द कोठरी का दरवाजारश्मि शर्मा
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Comments 4

  1. Sujata kumari says:
    3 years ago

    गहन दृष्टि से लिखी गई समीक्षा।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 years ago

    ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ रश्मि शर्मा का पहला कहानी संग्रह है । इसकी समीक्षा नीरज खरे ने बख़ूबी की है । संग्रह का शीर्षक कहानियों की विषयवस्तु का वर्णन करने वाला है । समलैंगिक पुरुषों की कहानी में प्रेम मुख्य विषय है । प्रेम स्त्री का पर्याय है । यह भी सत्य है कि प्रेम ही ठगा हुआ महसूस होता है ।
    यह जीवन का यथार्थ है । आज भी माहौल में थोड़ी भूमि में खेती करके आजीविका कमाना मुश्किल है । इसलिये पत्नी और पति मिलकर शहर में मज़दूरी करने चले जाते हैं । नव पूँजीवाद का यह भयावह दौर है । एक कहानी में विधवा औरत का अपने देवर और देवरानी के घर आकर रहना कम कठिन नहीं है । पिता की संपदा में पुत्री के हिस्से की ख़ूब चर्चा होती है । जनसत्ता अख़बार के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी ने लिखा था कि आख़िर पुत्री को अपने ससुराल की संपत्ति और संपदा में हिस्सा क्यों नहीं मिलना चाहिये । नीरज खरे ने कहानियों से रू-ब-रू कराया । समालोचन के संपादक प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, और नीरज खरे का धन्यवाद कि उन्होंने रश्मि शर्मा के कहानी संग्रह से परिचित कराया ।

    Reply
  3. मिथलेश शरण चौबे says:
    3 years ago

    बेहतर समीक्षा ।

    Reply
  4. विनय सौरभ says:
    2 years ago

    मैंने रश्मि जी की कोई कहानी अब तक नहीं पढ़ी है लेकिन यह लेख उनके लिखे के प्रति उत्सुकता जगाने वाला है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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