रतन थियाम
|
१.
रतन थियाम की नज़रों में सौन्दर्यबोध क्या है ?
जिस तरह की चीज़ों को देखकर खुशियाँ मिलती हैं, ज़िन्दगी खिल उठती है, संवेदनाएं लहरों की तरह प्रवाहित होने लगती हैं, जिसकी खुशबू से आपका चेतन एवं अवचेतन दोनों सराबोर हो उठता है, ऐसी चीज़ों को मेरे हिसाब से सौन्दर्यबोध कहा जा सकता है.
२.
मानवीय संवेदना और संस्पर्श के विविध आयामों को आप कैसे व्याख्यायित करेंगे? आज के मशीनी और एक्सपेरिमेंटल थिएटर के युग में आपने अपने नाटकों में मानवीय संवेदना और संस्पर्श को न सिर्फ बचाकर रखा है वरन दर्शकों को आप उसे महसूस कराने में भी सिद्धहस्त हैं. यह कमाल आप कैसे करते आए हैं अबतक ?
मानवीय संवेदना और संस्पर्श जैसी चीज़ों को आप एक पीढी से दूसरी पीढी में स्थानांतरित तभी कर सकते हैं जब आप चाहत पर फोकस करें और जब उस चाहत की जब आप अवधारणात्मक रूप में व्याख्या करेंगे अर्थात जब उसे कॉनसेप्चुअलाईज़ करेंगे तो एक आकार बनता है और वह आकार होता है सौन्दर्यबोध से परिपूर्ण मानवीय संवेदना और संस्पर्श का. हालांकि जब यह आकार हमें मिल जाता है तो उस आकार का सत्य (रियलिज्म) के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है, सिर्फ़ एक धुआं, एक मेघ जैसा होता है और आप सब जानते ही हैं कि मेघ में सूरज की पतली सी प्रकाश रेखा की तरह सा जब कुछ रंग आ जाता है तो इन्द्रधनुष बनता है और उसे देखते हुए मन चंचल होता है. सर से पाँव तक विद्युत रेखा सी दौड़ जाती है और वह निरंतर चार्ज होती रहती है. शायद मैं जाने-अनजाने चाहत को कॉनसेप्चुअलाईज़ करना जानता हूँ और मेरी रचनाओं में आपको मेरी चाहत ही दिखती है. मैं एक अति भावुक और संवेदनशील व्यक्ति हूँ और नदी, पहाड़, झरने या यूँ कहें कि प्रकृति की हर शै से प्यार करता हूँ और बरसों से करता आया हूँ. मेरा यही प्यार आपको मेरी रचनाओं में दिखता आया है.
जीवन परिवर्तनशील है. हर पल बदलता रहता है. हर पल हम नए-नए अनुभवों से समृद्ध होते रहते हैं और अनुभव किसी भी प्रशिक्षण प्रक्रिया से ऊपर होता है. उदाहरण स्वरूप– एक तीर्थ स्थान पर जाते ही हमारे मन में अनायास उपासना और अध्यात्म के भाव आने लगते हैं. वैसे ही एक बगीचे में फूल को देखते हुए खुशबू, रंग, तितली को देखने लगे तो श्रृंगार के भाव मन में आते हैं. तो इस प्रकार अनुभव से अभिव्यक्ति समृद्ध होती है. और जब अपने अनुभवों से एक कलाकार समृद्ध होता है तो धीमे-धीमे, एक लम्बी यात्रा के बाद वो अपने अनुभवों को कॉनसेप्चुअलाइज़ कर अपनी कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त करने लगता है. तो जिस उम्र में वह होता है उसी से उसके मनोभाव तय होते हैं. जैसे एक व्यक्ति अपने बीसवें या तीसवें वसंत में उमंगों और आशाओं से भरा एक उत्तेजित युवा होता है पर बहुत लम्बा सफ़र तय करने के बाद वह धीर, गंभीर और शांत होने लगता है और अगर वह कलाकार है तो आप उसके युवावस्था के कार्य देखें तो उसमें आपको उसकी वही उत्तेजनाएं , आशाएं और उमंगें दिखाई देंगी जिनमें वह सराबोर रहता था और अगर आप उसी कलाकार के प्रौढावस्था और वृद्धावस्था के काम देखें तो आपको उसमें गम्भीरता दिखाई देगी. अस्सी बरस की उम्र में सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसमें समा जाता है. वह इशारों में बात करता है. अगर वह अभिनेता है तो उसका सौन्दर्य बोध उसके जीवनानुभवों के साथ जुड़कर एक संतुलित तरीके से काम करता है और दर्शकों के सामने आता है.
सौन्दर्यबोध को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. कम से कम मैं तो नहीं कर सकता. सौन्दर्यबोध कोई भोजन नहीं, कोई ठोस पदार्थ नहीं. मेरी एक पूरी यात्रा है सौन्दर्यबोध की. सौन्दर्यबोध के बारे में मैं सिर्फ यही कहूँगा –
“वाम से उतरती है हसीन दोशीज़ा
जिस्म की नज़ाकत को सीढियां समझती है.”
उदाहरणस्वरूप आप एक फूल को लें. हर रोज़ एक ही फूल एक जैसा नहीं खिलता. हर कली एक ही आकार नहीं लेती. न हर फूल का वजन एक जैसा होता है. अब जैसे आप राजस्थान को ही ले लें. राजस्थान मरुभूमि है, रेत है पर उनकी पगड़ियों और चुनरियों में जो रंग होते हैं और हजारों की तादाद में जब ये दिखते हैं तो मेरी नज़रों के सामने एक पूरा बगीचा खिल उठता है. आँखें ख़ुशी से भर उठती हैं.
गर्मी की चांदनी में अलग सौन्दर्य है, उसका अलग सौन्दर्य बोध है. बिखरती हुई चांदनी पूरे जिस्म को सिहरा देती है. उपकरण और तकनीक से आप सौन्दर्य का एक अंश पैदा कर सकते हैं, पूरा सौन्दर्यबोध नहीं.
सौन्दर्यबोध तो वो है जिसे आप महसूस करते हैं. जिस गहराई से आप महसूस करेंगे उसे व्याख्यायित करने के लिए आपको उपकरण (डिवाइस) मिल जाएगा. उपकरण अभिव्यक्तियों के प्रदर्शन के लिए एक गाड़ी की तरह है. आपको मेथड, डिवाइस और टेकनीक को नहीं बल्कि अनुभवों, संस्पर्शों और संवेदनाओं को तलाशना होगा और इस तलाशने के क्रम में सौन्दर्यबोध की अभिव्यक्ति के लिए भाषाओं को तलाशना आपके ऊपर बहुत बड़ा बोझ होता है. फिर भी बात यहीं ख़त्म नहीं होती. अब अभिव्यक्ति के लिए तलाशी गई भाषाओं के सहारे अपनी कल्पना को बिना किसी टूट-फूट के, पूरी कलात्मकता के साथ अपनी कलाकृति में फिट करना या प्रस्तुत करना होता है, डिलीवर करना होता है. यह डिलीवरी ऐसी होनी चाहिए कि दर्शकों के सामने आपका सौन्दर्यबोध बिलकुल वैसा ही डिलीवर हो जैसा कि वह है. और हम खुद को एकसाथ दो जगह डिलीवर (प्रस्तुत) करते हैं. पहला, मंच पर (स्टेज में या स्पेस में) और दूसरा, अपने और दर्शकों के मन में.
अतः सौन्दर्यबोध का कोई आकार नहीं, सौन्दर्य का कोई आकार नहीं. सौन्दर्य या सौन्दर्यबोध कोई पदार्थ या द्रव्य नहीं जिसको परिभाषित किया जा सके या व्याख्यायित किया जा सके.
३.
अपने विरासत और अपने सांस्कृतिक परिवेश से आप ऐसे किन तत्वों को लेते आए हैं अबतक जो उत्तरोत्तर आपको कलात्मक रूप से समृद्ध करते रहे हैं और आपमें सौन्दर्यबोध को न सिर्फ जिंदा रखे हुए है बल्कि उसमें इज़ाफ़ा भी कर रहे हैं अबतक ?
बहुत आसान सा सवाल है यह. इसका जवाब मैं कुछ यूँ देना चाहूँगा कि आँखें बंद करते ही बहुत सी चीज़ें सामने होती हैं पर जैसे ही हमारी आँखें खुलती हैं हमारा वास्ता हकीकत से पड़ता है. कल्पना में व्यक्ति बहुत आरामतलब होता है, बहुत आराम और बहुत सारी चीज़ें पाना चाहता है. इन चीज़ों को पाने और चाहने की कोई सीमा नहीं है, कोई लिमिट नहीं है. पाने के लिए वह स्वार्थी बन जाता है, हिंसात्मक हो जाता है. सबसे बड़ी बात पाने के इस क्रम में वह मानवीय संबंधों को दरकिनार करता चला जाता है और एक दिन ऐसा आता है जब उसके सम्बन्ध सबसे बहुत ख़राब हो चुके होते हैं. मानवीय संबंधों को ख़राब करने का काम आजकल का मशीनी युग भी कर रहा है. नए आविष्कार, नई खोज और नई तकनीकों ने मानवीय संबंधों पर बहुत बुरा असर डाला है. जैसे-जैसे हम खुद को सभ्य और आधुनिक मानते चले गये वैसे-वैसे हमारे मन के अन्दर से धीरे-धीरे इंसानियत नामक चीज़ बदलने लगी और अब लगभग विलुप्त होने के कगार पर पहुँच चुकी है. जो थोड़ी-बहुत बची-खुची इंसानियत है वह कला और संस्कृति की देन है क्योंकि कला संस्कृति मानवीय उत्थान और विकास के लिए प्रतिबद्ध होकर काम करती है और यदि हम कलाकार हैं तो हमारा यह दायित्व है कि अपनी रचनाओं में हम मानवीय सभ्यता और संस्कृति का संस्पर्श बचाकर रखें ताकि हम अपनी आनेवाली पीढ़ियों को एक उन्नत सोच-विचार दे सकें और हमारे साथ चल रहे लोगों को भी इसका स्पर्श करवाना ज़रूरी है. इंसानियत का स्पर्श बहुत प्यारा-सा, बहुत मुलायम-सा होता है तभी वह कलाकृति देखनेवालों की नज़र में जीवंत होती है. इस वज़ह से, इस संस्पर्श से ही देखनेवालों और मेरे बीच एक पुल बनता है. जैसे, पुजारी ईश्वर और भक्त के बीच पुल का काम करता है.
अब जैसे आपको बताऊँ तो मणिपुर की पारंपरिक कला शैलियों में आधुनिक और जनजातीय तत्वों का सम्मिश्रण है. मणिपुर में तकरीबन 40-45 जनजातीय समुदाय पाए जाते हैं. यहाँ दो तरह के धर्मों को मानने वाले लोग हैं. वास्तविक रूप से मैतेई और दूसरा हिन्दू धर्म. इसी वजह से एक ही उत्सव के लिए यहाँ के रीति-रिवाज और संस्कारों में बहुत भिन्नता है. यहाँ अलग-अलग गुरुओं से सीखते हुए हम अलग-अलग तरह की परम्पराओं से खुद को समृद्ध करते हैं. कोई भी संस्कृति हमें यही सिखाती है कि एक आधुनिक व्यक्ति की सोच यह होनी चाहिए कि वह जितना आगे बढ़े परम्पराओं को साथ लेकर बढ़ें.
मेरे लिए परम्पराएं एक जलप्रपात की तरह हैं जिसमें हज़ारों सालों से पानी आ रहा है. वह ऊपर से नीचे की और प्रवहमान है अर्थात एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता चला आ रहा है. उसका एक इतिहास है, गौरवशाली इतिहास. उसके गौरव को नष्ट करने बीच-बीच में बड़े-बड़े पत्थर भी आ जाते हैं जिससे हमारी ये परम्पराएँ टकराती रहती हैं और उन पत्थरों का नाम है– सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक तत्व. इस टकराहट के बावजूद वह बहता रहता है. जैसे पहली- दूसरी शताब्दी से टकराते-टकराते वह आज इक्कीसवीं शताब्दी तक आ गया है. आज भी निरंतर टकरा रहा है पर चलता जा रहा है, निरंतर प्रवहमान है और आदमी से यह सवाल पूछ रहा है कि आपकी पहचान क्या है, आपका परिचय क्या है. आदमी को इसका उत्तर मिलता नहीं पर वह जो पहचान है न, वह जो परिचय है न वही हमारी परम्पराएँ हैं, वही हमारी संस्कृति है. जब हम किसी से मिलते हैं तो अपने वजूद में अपनी पूरी परंपरा और पूरी आधुनिकता को साथ समेट कर मिलते हैं, अपनी पूरी संस्कृति के प्रतिनिधि बनकर सामनेवाले से मुख़ातिब होते हैं.
वैश्वीकरण के साथ छोटे-छोटे समुदायों की सारी परम्पराएँ, सारी संस्कृति गायब हो रही है. बहुत सारे समुदाय या तो विलुप्त हो चुके या विलुप्त होने के कगार पर हैं. वैसे ही कई नए समुदायों के नाम हमारे सामने आ रहे हैं, जैसे रोहिंग्या मुसलामानों को ही ले लीजिये. अभी से कुछ समय पहले तक कौन जानता था इस प्रजाति, इस समुदाय या इस जनजाति के बारे में ? तो यह वैश्वीकरण एक मायने में अगर बहुत अच्छा है तो दूसरे मायनों में इसने बहुत-सी गड़बड़ियाँ भी पैदा की हैं, हमारी सारी परम्पराओं का घालमेल और उनको गड्डमड्ड किया है और हर व्यक्ति इतना सूक्षमदर्शी और छिद्रान्वेषी नहीं है कि इस घालमेल और गड्डमड्ड से छानकर बेहतरीन चीज़ें निकाल सके. तो मेरा तो यही मानना है कि अगर हम अपनी परम्पराओं का अनुकरण करेंगे तभी अपना अस्तित्व बचाकर रख पाएंगे या इसी को दूसरे शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि अगर आपको अपनी संस्कृति को बचाकर रखना है तो अपनी परम्पराओं को अक्षुण्ण रखना ही होगा.
हमारी संस्कृति हमारे लिए एक खजाने की तरह है जिससे हम खुद को भाषाई रूप से, कलात्मक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करते हैं और विशेष लक्षणों से युक्त बनाते हैं. हमारे संस्कृति हमारे लिए बहुत सारी चीज़ों का संचित कोष है.
आधुनिक जीवन में इन परम्पराओं को समुचित तरीके से लाकर रखना चाहिए. परम्पराओं को अधिक समकालीन तरीके से सुरक्षित और संरक्षित करना चाहिए. अगर इंसान को अपना परिचय और अस्तित्व बचाकर रखना है तो उसे परम्पराओं को साथ में लेकर चलना पड़ेगा. इसीलिए परम्पराओं को मैंने अपना प्रेरणास्रोत बनाकर रखा है और उसे कई कोणों और आयामों से देखने की कोशिश की है. परम्पराओं में समकालीन मूल्यों को खोजने की कोशिश की है.
-
निर्देशक रतन, चित्रकार रतन, कवि रतन और एक आम मणिपुरी रतन में आप क्या फर्क पाते हैं ? एक आम मणिपुरी रतन, कवि, चित्रकार और निर्देशक रतन को कैसे प्रभावित और समृद्ध करता है और वैसे ही एक कवि, चित्रकार और निर्देशक रतन कैसे एक आम मणिपुरी रतन को प्रभावित और समृद्ध करता रहता है ?
ये रतन थियाम भी सोचता रहता है कि एक आम या सामान्य आदमी बनना सबसे बड़ी बात होती है. फिर अगर वह एक पेंटर बनना चाहता है तो वह दुनिया की हर चीज़ को अपने कैनवास पर उतरना चाहता है और वही कैनवास स्पेस और स्टेज (मंच) बनकर उसके सामने आ जाता है, जब वह निर्देशक बनता है और इन दोनों के बीच से जब पोएट या कवि रतन निकलता है तो उसकी सारी कल्पनाशीलता, रंग, शब्द और लयात्मकता या यूँ कहें कि उसकी सारी चीज़ों में एक संगीत उत्पन्न हो जाता है तब कहीं जाकर वह एक मुकम्मल रतन थियाम बनता है.
दूसरी बात यह भी है कि जब उसे मंच सज्जा करनी होती है, डिज़ाइन करना होता है तो पेंटिंग उस रतन के काम आती है, पेंटिंग में इस्तेमाल किये जाने वाले रंग उसके काम आते हैं और इस पेंटिंग को जब कविता के रूप में थोडा ढालने की कोशिश जब वह रतन करता है तो उसमें उसकी लयात्मकता के बहुलांश का समावेश हो जाता है और संगीतात्मकता अपने उच्च स्तर पर होती है. जब यही रतन निर्देशक के रूप में काम करता है तो वह पेंटिंग के उस कैनवास को और कविता की उस संगीतात्मकता को स्पेस की स्थिति और स्पेस में उसके समावेश पर अपनी पूरी रचनात्मकता के साथ ध्यान देता है या अपनी सारी रचनात्मकता उसमें उडेल देता है.
अगर कलाकार होना है तो इंसान होना बहुत ज़रूरी है. कलाकार वह नागरिक होता है जो अपन आसपास के लोगों के बारे में विचार करता है. इसीलिए यह जो रतन थियाम है न, यह सबसे पहले इंसान है, एक आम नागरिक है. एक आम नागरिक जो करता है वह सबकुछ करता है यह रतन थियाम, और अपने सारे कलात्मक प्रयासों को स्वयं में स्थानांतरित करता रहता है और खुद को समृद्ध करता रहता है.
नाटकों पर नियमित लेखन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़ाव, प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य. सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख आदि प्रकाशित.
|
रतन थियम पर इतनी सुंदर सामग्री देखकर और पढ़कर अभिभूत हूं। यह समालोचन ही संभव कर सकता था । रतन थियम भारतीय रंगमंच के सर्वोच्च प्रतिमान हैं । उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली और सौंदर्यबोध से भारतीय रंगकर्म को एक नई ऊंचाई प्रदान की है । उनका समूचा रंगकर्म विलक्षण और चकित करता है ।मेरा यह सौभाग्य है कि मैने उनके रंगकर्म को भारत भवन भोपाल में बहुत निकट से देखा, समझा और जाना है । के. मंजरी श्रीवास्तव और समालोचन के लिए क्या कहूं । इस अद्वितीय गद्य के लिए जो भारतीय रंगमंच के शिखर पुरुष रत्न थियम पर केंद्रित है गरिमा जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं। बधाई
रंगमंच पर जादू देखना हो तो थियाम सर के नाटक से बेहतर और क्या! मंजरी तुम तो ख़ैर कितने सारे गुलदस्ते सजा सकती हो थियाम सर की बातों के। वाह .. समालोचन पर पढ़ना सुखद है।
थियम सर का रंगकर्म हमें सम्मोहन की अवस्था तक ले जाता है… यह समालोचन नई परतों को खोलता है जिससे हम थियेटर के नए आयामों से रूबरू हुए….धन्यवाद
बहुत दिनों बाद मंजरी को पढ़ा और उनके द्वारा एक व्यक्ति के विभिन्न आयाम जानने का अवसर मिला. साझा करने के लिए समालोचना का आभार.
रतन.थियम अपनी हीरक जयंती के साल मेंं दाखिल हो गये हैं। ऐसे कलाकार बहुत कम पैदा होते हैं। हमें उन्हें सेलेबरेट करना चाहिए। रतन थियम ने हर कला को थियेटर मेंं इस तरह.समायोजित किया है कि रतन थियम.को पाकर खुद थियेटर कुछ और बड़ा हो गया है।
रोज़ एक ही फूल एक जैसा नहीं खिलता.
मेरे लिए परम्पराएं एक जलप्रपात की तरह हैं जिसमें हज़ारों सालों से पानी आ रहा है. वह ऊपर से नीचे की और प्रवहमान है।
कितने जरूरी सवाल और उसके जीवन दर्शन भरे उत्तर
निर्देशक रतन, चित्रकार रतन, कवि रतन और एक आम मणिपुरी रतन कितने रूपों से मिलें हम और सबके बीच एक कड़ी अगर कलाकार होना है तो इंसान होना बहुत ज़रूरी है.