रतन थियाम का ऋतुसंहार
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यह वह दौर था जब हम ९० के आखिरी दशक और नई सदी के प्रवेश द्वार थे. नई सदी के साथ हमारी उम्र भी करवट ले रही थी. हम वयः संधि से युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे और ऐसे ही एक लम्हे में मेरा तआर्रुफ़ हुआ नाटक ऋतुसंहार से, नाट्य निर्देशक रतन थियाम से. यह पहला मौक़ा था जब पहली बार विधिवत रूप से किए गए किसी नाटक से मेरा परिचय हुआ था और नाटक भी मैंने देखा किसका!
भारतीय रंगमंच के बादशाह रतन थियाम का और वह नाटक था ‘ऋतुसंहार’ . यह वही लम्हा था जब रतन थियाम से, उनके सौंदर्यबोध से मुझे इश्क हो गया और उस लम्हे के बाद से आजतक मैं यह सोचती हूँ कि दुनिया रतन थियाम के नाटकों जितनी ही सुन्दर क्यों नहीं है या फिर ये कि दुनिया को रतन थियाम के नाटकों जितंना ही सुन्दर होना चाहिए.
ऋतुसंहार और रतन थियाम के अन्य कई नाटकों को देखने के बाद आजतक मैं यही सोचती हूँ कि दुनिया से वो कोमल अनुभूतियाँ और नाज़ुक मानवीय संस्पर्श कहाँ गायब होता जा रहा है जिसकी बात रतन थियाम सदा करते हैं और जो उनके नाटकों में मौजूद है. मैं यह सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि हम इतने यांत्रिक क्यों हो गए हैं. ऋतुसंहार देखने के बाद मुझे लगा था कि यदि मुझे इतनी ही कोमलता और इतनी ही सुंदरता अपने जीवन में चाहिए तो मुझे भी कुछ ऐसा ही काम करना होगा. पर तब नहीं पता था कि मैं ऐसा काम कर भी पाऊंगी या नहीं?
काम तो अबतक वैसा कर नहीं पाई हूँ पर जिस कोमलता, जिस सुंदरता को रतन थियाम के ऋतुसंहार को देखने के बाद मैंने महसूस किया था उस कोमलता, उस सुंदरता, उस नज़ाक़त को अपने जीवन में इस यांत्रिक युग में भी मैंने बचा रखा है. तब यह भी नहीं पता था कि लगभग २५ सालों बाद मुझे रतन थियाम के नाटकों के सौंदर्यबोध पर काम करने का मौक़ा मिलेगा और मैं उन्हें और उनके नाटकों को और करीब से जान पाऊंगी.
जब मुझे यह मौक़ा मिला तो रतन थियाम साहब से उनके तमाम नाटकों पर तो बात हुई ही लेकिन विस्तार से उस नाटक पर भी बात हुई जिसे देखकर मैं उनकी दीवानी हो गई थी और वह नाटक था ऋतुसंहार.
ऋतुसंहार पर यह आलेख इसलिए भी क्योंकि यह ऋतु परिवर्तन का मौसम है और प्रदर्श कलाओं में यह समय वसंतोत्सव/मदनोत्सव का है और इस समय सबसे ज़्यादा प्रस्तुतियां ऋतुसंहार की होती है.
नृत्य विधा में विशेष रूप से कथक में बरसों से ऋतुसंहार की प्रस्तुतियां होती रही हैं लेकिन नाटक की विधा में रतन थियाम से पहले या उनके बाद अबतक शायद ही किसी ने ऋतुसंहार की प्रस्तुति के बारे में सोचा था.
ऋतुसंहार मूलतः कविता है जिसमें महाकवि कालिदास ने छह ऋतुओं का वर्णन किया है पर उसमें नाटक की भी सम्भावना है यह रतन थियाम के नाटक को देखने के पहले सोचा भी नहीं जा सकता था.
ऋतुसंहार वर्णनात्मक है पर रतन थियाम ने उसमें नाट्य तत्व को ढूंढ निकाला और बड़ी ही कुशलता से मंच पर ऋतुसंहार को उतार दिया. उनके पहले या उनके बाद के किसी भी निर्देशक ने अबतक ऋतुसंहार पर नाटक करने का साहस नहीं किया है.
महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार को लिखते समय जो सोचा होगा उसे रतन थियाम ने पहले मंच पर खुद देखा और फिर हम दर्शकों को दिखाया. रतन थियम ने कालिदास के वर्णनात्मक ऋतुसंहार को विजुअल्स के रूप में दर्शकों के सामने अद्भुत तरीके से प्रस्तुत किया, जिसने रतन थियाम का ऋतुसंहार देख लिया उसे कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ने पर और ज़्यादा आनंद आएगा. उसे यह लगेगा कि वह कालिदास का लिखा देख रहा है या देख चुका है. विजुअल्स उसकी आँखों के सामने होंगे.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि आपने रतन थियाम का ऋतुसंहार देख लिया है तो आपको कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं.

रतन थियाम के इस प्रदर्शन में रंगों की अद्भुत भूमिका और भागीदारी है. आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि रंग इस नाटक के पात्र के रूप में उभरकर आये हैं. रतन थियम की यह कलाकृति कभी-कभी और कहीं-कहीं मिनिएचर चित्रों सा आभास भी देती है. जैसे श्री थियाम ने नाटक के एक दृश्य में कमल के फूल को मंच के प्लेटफार्म से ऊपर उठा दिया है और उसके नीचे रासलीला सा कोई नृत्य-संगीत चलता रहता है. इससे मिनिएचर चित्रों के दृश्य संयोजन का सा आभास उत्पन्न होता है. इस नाटक पर बात करते हुए थियाम बताते हैं कि-
“मुझे अपने मन में कालिदास से यह सवाल पूछते रहना अच्छा लगता है कि आप तो सशक्त कल्पनासम्पन्न हैं पर क्या मैं उसके आसपास भी भटक सका हूँ.”
रतन थियाम ने इस नाटक में स्थानीय और देशज रंगों को अंतर्राष्ट्रीय रंगों के साथ मिलाकर एक ऐसा मुहावरा गढ़ा है कि रतन थियाम का ऋतुसंहार लोकल से ग्लोबल हो गया है, स्थानीय और देशज से वैश्विक हो गया है.
रतन थियाम का यह नाटक ऋतुसंहार सूत्रधार द्वारा कालिदास के ऋतुसंहार परिचय देने और नीली रौशनी में ढंकी मूर्तियों सी खड़ी नायिकाओं के अनावृत होने से ओपन होता है.
मंच के निचले हिस्से में एक ओर सूत्रधार ऋतुसंहार को व्याख्यायित कर रहा है और दूसरी ओर मंच से ऊपर उठे प्लेटफार्म पर नीली रौशनी में दुपट्टे से ढंकी नायिकाएं खड़ी हैं. ऋतुसंहार की कथा बांचते-बांचते सूत्रधार उन नायिकाओं के सिर से दुपट्टा हटाता है और पहली ऋतु हमारे समक्ष जीवंत हो उठती है. थोड़ी ही देर में मंच से सूत्रधार वापस जाता है और फोकस नीली रौशनी में मूर्तियों सी खड़ी नायिकाओं पर जाता है.
नायिकाओं का नृत्य, नायिकाओं के वस्त्र, नायिकाओं के आभूषण, नायिकाओं की केश-सज्जा सब ऋतुओं के हिसाब से डिज़ाइन किए हैं श्री थियाम ने, यहाँ तक कि नायिकाओं के केश में पुष्प भी ऋतुओं के हिसाब से लगे हैं.
यह डिटेलिंग सिर्फ़ और सिर्फ़ रतन थियाम के नाटकों में ही मिल सकती है. ग्रीष्म को दिखाते समय नायिकाओं के वस्त्र सफ़ेद, नीले और लाल के रंग संयोजन लिए हुए हैं और उनके जूड़े में सफ़ेद फूलों की वेणी लगी है और कानों के पास लाल फूल लगे हैं. पहले दृश्य में एक नायिका चांदनी रात में नदी किनारे मणिपुरी नृत्य कर रही है और बाकी नायिकाएं जल के छींटे उसपर उड़ाकर जल-क्रीड़ा और अठखेलियां कर रही हैं. फिर बाकी नायिकाएं भी उस नायिका के साथ नृत्य में और उस मौसम विशेष के काव्यात्मक गुणगान में शामिल हो जाती हैं.
प्लेटफार्म जिसपर नायिकाएं नृत्य, ठिठोली और अठखेलियां कर रही हैं वह मंच से ऊपर उठा है और निचले हिस्से में नदी और कमल के फूल दिखाए है श्री थियाम ने.

नायिकाएं विरह गीत गाती हैं जो मणिपुरी और संस्कृत मिश्रित है. नायिकाएं विरह गीत गा ही रही हैं कि मंच पर कोट-पैंट पहने, गले में मफलर डाले, हाथ में ट्रॉली लिए एक पथिक अवतरित होता है और सिगरेट जलाता है और उसके सिगरेट के पहले कश के साथ ही मौसम बदल जाता है.
यही वह क्षण है जब रतन थियाम का यह नाटक ओपन होते ही आपको वैश्विक और समकालीन होने का आभास देता है.
दरअसल रतन थियम ने यह सारा नाटक उस पथिक के इर्द-गिर्द बुना है. उनका कहना है कि-
“पूरा का पूरा ऋतुसंहार एक श्लोक पर टिका हुआ है और यह श्लोक एक पथिक की पीड़ा और विरह की बात करता है. उस पीड़ा और विरह से ही ऋतुसंहार का यह पूरा वर्णन उत्पन्न हुआ है.”
रतन थियाम जज़्बाती होते हुए बताते हैं कि –
“मुझे लगा कि यह पथिक मैं खुद हूँ. यह सिर्फ उन पुराने दिनों का पथिक नहीं है इसकी पीड़ा और इसका विरह तो किसी भी समय के पथिक का हो सकता है. मैंने यह तय किया कि इस पथिक को समकालीन और आज के सन्दर्भों में प्रासंगिक बनाया जाना चाहिए. मैंने उसे ‘हैट’ पहना दिया, ट्राली वाला बैग दे दिया और यह कल्पना की कि समूचा नाटक इसी के चारों तरफ बुना जाये. हर ऋतु के अंत में पथिक हैट लगाए और ट्राली लिए मंच पर आता है और उसके मंच से जाते ही ऋतु परिवर्तन हो जाता है.”

यह इस नाटक का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है. पथिक के प्रति रतन थियाम की इस दृष्टि में यह विशेष है कि वह तमाम ऋतुओं से होकर गुज़र रहा है और श्री थियाम ने अपने नाटक में तमाम दृश्य इस तरह रचे हैं कि मानो वे उस पथिक की कल्पना हों जो उन ऋतुओं से अलगाव भोग रहा है. यह सभी दृश्य विप्रलम्भ के वर्णन हैं, विप्रलम्भ के दर्शन हैं पर वह अपने विरह को भूलकर अन्यान्य ऋतुओं का आनंद लेता है. वह अलग परिवेश से आकर कभी कभी उसमें शामिल भी हो जाता है. वह खुद को इस बदले हुए परिवेश में देखता भी रहता है क्योंकि वह दृष्टा है, साक्षी है लेकिन वह एक ऐसा व्यक्ति भी है जो अपने विप्रलम्भ के भार को उठाये हुए है. जब वह खुद को अकेले में पाता है और वायलिन बजाता है पूरा दृश्य समकालीन हो उठता है. रतन थियाम कहते हैं-
“मैंने इस प्रदर्शन में प्रकृति से गहरा सम्बन्ध बनाकर खुद को ऊर्जस्वित करने का प्रयास किया है.”
यही प्रकृति रतन थियाम के नाटकों के सौंदर्यबोध का स्रोत है. इस नाटक की पूरी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए श्री थियाम बताते हैं कि-
“मैं उन दिनों बहुत थका हुआ था. एक के बाद एक प्रदर्शन कर रहा था. मैं इसीलिए बहुत यात्राएं कर रहा था. कह सकते हैं कि उन दिनों मुझमें ऊर्जा का स्तर बहुत कम हो गया था. मैंने सोचा कि मुझे यह क्या हो गया है. तभी अचानक मुझे यह समझ आया कि कई बरस बीत गए मैं फूलों के पास नहीं गया, मैंने फूलों को अच्छी तरह नहीं देखा, मैं बारिश में भींगा नहीं हूँ, मैंने सोचा. पत्तों से बतियाया नहीं हूँ, उनको आँख भरकर देखा नहीं है, पेड़ों को नहीं देखा है, पक्षियों की आवाज़ को नहीं सुना है. यह मुझसे क्या हो गया ? चार साल हो गए मैंने यह सब नहीं किया। इसके बगैर मुझमें शक्ति और ऊर्जा कहाँ से आएगी? जिनके साथ मेरी जान-पहचान है उनके पास मैं नहीं जा सका. मेरी शक्ति के जो स्रोत हैं मैं उनसे दूर हो गया हूँ. आधुनिक व्यस्त जीवन के कारण मेरा मिट्टी और पानी से लगाव काम होता जा रहा है, ऐसा मैंने सोचा. मैंने विचार किया कि मुझे अपने स्रोतों के पास फिर से जाना होगा. मैंने सोचा कि मैं प्रकृति के सौंदर्य के निकट जाऊंगा और कहूंगा कि मुझे अपनी गोद में थोड़ा आराम करने दो, मुझे वहां सर रखकर थोड़ी देर सोने दो. ऐसे में मुझे यह याद आया कि एक-एक ऋतु के साथ मेरा सम्बन्ध कम हो गया है. उस समय मैं ब्राजील जा रहा था. वह बहुत दूर है. मेरे पास कालिदास की कृतियों का संकलन था. वहां हर शाम प्रदर्शन होते रहते. रात में होटल के कमरे में लौटकर मुझे यह लगता कि मुझे ऋतुओं के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए ‘ऋतुसंहार’ पढ़ना चाहिए. एक रात करीब ग्यारह बजे मैंने ‘ऋतुसंहार’ खोला. उसका पहला अध्याय ‘ग्रीष्म वर्णन’ पढ़ा. इसके अलावा कुछ नहीं पढ़ा. मैंने तुरंत अपनी नोटबुक निकाली और उसमें इस अध्याय का मणिपुरी में अनुवाद कर लिया. यह करने में मुझे बहुत ख़ुशी हुई और इसमें मुझे करीब दो घंटे लगे. मैंने यह अनुवाद बहुत जल्दी कर लिया था.
रात के करीब एक बजे अनुवाद कर चुकने के बाद मुझे यह लगा कि मुझे इसे किसी को सुनाना चाहिए. मेरे साथ वहां मणिपुर के नृत्य संयोजक ईबो चोब सिंह थे. वे मेरी ही उम्र के हैं. मैंने उनके कमरे में जाकर उन्हें जगाया. वे उठकर बोले क्या बात है ? मैंने कहा- ‘मैंने कालिदास के ऋतुसंहार के पहले अध्याय का अनुवाद किया है, क्या तुम सुनोगे? वे सुनने को हमेशा ही उत्सुक रहा करते थे. हम मेरे कमरे में आ गए. मैंने फ्रिज से स्कॉच की बोतल निकाली और उसे गिलास में डालकर हम दोनों बैठ गए. मैं उन्हें अनुवाद सुनाने लगा. मैंने उसे बार-बार पढ़ा. उन्हें वह बहुत अच्छा लग रहा था. फ्रिज का मिनी बार खाली हो गया. सुबह के छह बज गए थे. वहां सुबह का नाश्ता छह बजे शुरू हो जाता था. हमने सोचा कि चलो नाश्ता करते हैं. नाश्ते के बाद हम फिर सुनते-सुनाते और पीते-पिलाते रहे. मैं थोड़ा-थोड़ा सा अनुवाद करता रहा. अनुवाद करने की गति धीमी हो गई, क्योंकि मैं सोच रहा था कि इसपर कैसे नाटक किया जाए. मैं यह सोचने लगा कि इस नाटक की थीम क्या है? मैं लिखता रहा और पढता रहा. उन दिनों ब्राजील में हमें तीन-चार दिन का अवकाश मिल गया था. उस दौरान मैं यह बड़ा काम कर गया. मैं बहुत सुबह से सोचना शुरू कर देता था और अनुवाद करता था और पीता था और सुनाता था.”
पथिक के मंच पर से वापस जाते ही हर बार ऋतु परिवर्तन हो जाता है. जैसे एक दृश्य जिसमें गिद्ध मांस भक्षण कर रहे हैं. एक नायिका गिद्ध बनी हुई है और दूसरी नायिका उसके मांस भक्षण सा दृश्य उत्पन्न कर रही है. इस दृश्य से गुज़रते हुए कहीं से भी आपको मंच पर नायिका नहीं दिखती सिर्फ मांस भक्षण करता हुआ गिद्ध याद रह जाता है. वैसे ही कुलांचे भरते हिरन याद रह जाते हैं दर्शकों को.
एक दृश्य में लाल फूलों से लदे पेड़ के नीचे खड़ी अभिसारिका नायिका याद रह जाती है दर्शकों को जिसके वस्त्र मौसम के हिसाब से लाल हैं और दुपट्टा सफ़ेद.

चपल हिरणी सी यह नायिका कुलांचे भर ही रही होती है कि एक संकीर्तन समूह मंच पर अवतरित होता है. सफ़ेद लिबास और नीली रौशनी में बांसुरी की मधुर धुन और करताल के साथ अत्यंत धीमी गति में नायिकाओं की जो संगीतमय देह-भंगिमा हमारे सामने उभरकर आती है उस क्षण दर्शक किसी और दुनिया में पहुँच जाते हैं. रतन थियाम के इस नाटक में संगीत के साथ-साथ आंगिक अभिनय और गतियों का सामंजस्य कमाल का है.
एक और दृश्य है जहाँ नायिकाएं दरवाज़े पर दस्तक देती हैं और नायक अपनी भंगिमाओं से द्वार खोलने का अभिनय करते हैं दरअसल यह नवऋतु के दस्तक और नायक द्वारा उसका स्वागत है.
किसी किसी दृश्य में एक नायक को कालिदास बनाकर मंच पर लिखते हुए भी दिखाया गया है. एक दृश्य में एक किसान पति-पत्नी खेत में जा रहे हैं और किसान की पत्नी चिड़ियों को चुग्गा डाल रही है और नायकों का समूह चिड़िया बनकर दाना चुग रहा है. यह अद्भुत दृश्य है जिसे देखकर दर्शकों को मंच पर सिर्फ चिड़ियों का आभास होता है. बैकग्राउंड से चिड़ियों की चहचहाहट का संगीत है इस दृश्य में.
वर्षा ऋतु के दृश्य में नीली रौशनी में मंच पर कोट पैंट में छतरी लगाए नायकों का एक समूह नज़र आता है और यह दृश्य-संयोजन ऐसा है कि यह नाटक आपको अंतर्राष्ट्रीय और समकालीन होने का आभास देता है या अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खड़ा सा प्रतीत होता है.
वर्षा ऋतु के ही एक दृश्य में चाँद की नीली रौशनी में नायिकाओं का विरह गीत मणिपुरी नृत्य के साथ मंच पर चल रहा होता है और वह विरह दर्शक खुद में उतरता सा महसूस करते हैं.
नाटक का अंतिम दृश्य जब वसंत का आगमन हो चुका है वह तो कमाल है. वसंत के आगमन से पहले सभी ऋतुओं की नायिकाएं साथ में बैठकर माला गूंथ रही हैं और एक-एक करके वो रैंप पर मॉडल के रूप में आती हैं पर वे अपने वस्त्रों को नहीं ऋतुओं को प्रदर्शित कर रही हैं वस्त्रों के माध्यम से. इनमें से एक नायिका रैंप पर केसरिया, सफ़ेद और हरे वस्त्र में आती है और वह इस शो की शो स्टॉपर के रूप में खुद को प्रदर्शित करती है. यह दृश्य दर्शकों को दिल थामने को मजबूर कर देता है क्योंकि एक तो इस दृश्य में वस्त्रों के हिसाब से ऋतु को प्रदर्शित किया गया है साथ ही भारतीयता को भी, भारत के राष्ट्रध्वज को भी.
वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही नाटक अपने अंत की ओर बढ़ता है. मंच पर सूत्रधार पुनः प्रकट होता है इस बार वह हिंदी में बोलता है कि आम पर बौर आ गए हैं, टेसू फूल गए हैं, कोयल कूक रही है, ऋतुराज वसंत का आगमन हो गया है और इस ऋतु के देव जो हम सबके भीतर विद्यमान रहते हैं, कामदेव आप सबका कल्याण करें. नायिका भी कामदेव का वर्णन करती है. मंच पर संकीर्तन समूह के साथ होली गाई जाती है और नाटक संपन्न होता है.
कुल मिलाकर यह नाटक महसूस किया जानेवाला, जिया जानेवाला है. अगर आप कालिदास के ऋतुसंहार को जीवंत देखना चाहते हैं तो रतन थियाम का ऋतुसंहार देखिये. कालिदास ने जो वर्णन किया है वह आपको नज़र के सामने घटता हुआ दिखाई देगा.
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आभार

१. श्री रतन थियाम
२. श्री थवाई थियाम
३, श्री रागेश पांडेय, संगीत नाटक अकादेमी (वीडियो सहयोग)
४. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (तस्वीर सहयोग)
५. श्री गोपाल कृष्णन (अनवरत सहयोग)
सन्दर्भ:
१. रतन थियाम से भेंट, लेखक- श्री उदयन वाजपेयी, प्रकाशक- संस्कृति संचालनालय, भोपाल
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
शुभकामनाएं। अद्भुत है ॠतुसंहार। अद्भुत हैं रंगकर्मी मित्र रतन जी।
बधाई मंजरी।बहुत सुंदर। शुभकामनाएं रतन जी को।
सुखद संयोग ही था कि जब यह नाटक तैयार हो रहा था तो मै रतन जी के पास हफ्ते भर के लिए कोरस रेपरटरी,इंफाल मे ही था।एक दिन रतन जी ने छतरियां मंगायी तो मैने मान लिया था कि वे कोरस के सदस्यों के लिए हैं,दैनिक उपयोग के लिए। नाटक देखा तो चकित हुआ उनकी भूमिका पर।तुम्हारा आलेख बहुत सुन्दर है।
उन दिनो उनकी मेज पर तीन–चार भाषाओं मे कालिदास साहित्य रहा करता था।बांग्ला मे कालिदास ग्रंथावली भी रहती थी।रतन जी के साथ काफी पीते हुए मै उसके दो –एक पृष्ठ पलट लेता था।
तुम्हारे आलेख ने न जाने कितनी स्मृतियां जगा दी।
अद्भुत हैं रतन जी।अद्भुत है ऋतुसंहार और उनके अन्य नाटक।
सभी देखे हैं।
उन्हे ढेरों शुभकामनाएँ।
मैंने रतन थियाम के नाटक देखा है। इतना अद्भुत मंचन और इतना लयात्मक हाव-भाव होता है कि भाषा आड़े नहीं आती। मैं उनका जबरा फैन हूँ ।
मंजरी जी ने रतन जी के ऋतुसंहार के एक एक दृश्य का ऐसा सजीव वर्णन किया है कि वे पढ़ते हुए, आंखों के आगे उपस्थित हो गए☘️ यह रतन जी के ही विलक्षण सौंदर्य बोध का माद्दा है कि कालिदास की कविता को मंच पर साकार करने का उपक्रम करें☘️
रतन जी की इस नाट्य प्रस्तुति को देखते हुए मिनिएचर चित्रों का आभास होने वाली बात भी बहुत सुंदर है☘️ मैं भी रतन जी के नाट्य कर्म की कुछ ऐसी ही मुरीद हूं, उन्हें जन्मदिन की उतनी ही शुभकामनाएं कि जितने इस जहां में फूल– पत्ते हैं☘️ मंजरी जी, आपका खूब आभार, आपने प्रस्तुति में गहरे उतर कर लिखा है यह आलेख☘️☘️☘️
रतन थियम के नाटक देखना इस दुनिया के लिए उतने ही ज़रूरी हैं जितना कई लेखकों की पुस्तकें पढ़ना या दुनिया का सिनेमा देखना. मैं कविता में केदारनाथ जी की पंक्ति ‘दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए’ को हमेशा सोचता हूँ. इसमें अब यह भी जोड़ूँगा कि दुनिया को रतन थियाम के नाटकों जितंना ही सुन्दर होना चाहिए – यह वाक़ई इस आलेख का सार है. वाह मंजरी. बधाई ख़ूब.
आज भारतीय रंग जगत के अप्रतिम रंगशिल्पी श्री रतन थियाम का जन्मदिन है। उन्होंने अपनी विशिष्ट और विलक्षण रंग भाषा के ज़रिए पूरे विश्व से संवाद किया है, उसे सम्मोहित किया है। उनके नाटक देखने के बाद दर्शक जीवन भर उस दृश्यानुभव को भूल नहीं पाते। वे जितने अतुलनीय परिकल्पक और निर्देशक हैं उतने ही उत्कृष्ट अनुवादक, नाटककार, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार और कवि हैं।
मैंने कालिदास की रचना ऋतुसंहार पर आधारित उनका नाटक उज्जैन में कालिदास समारोह में वर्षों पहले देखा था। तब से अब तक उसकी अमिट छाप मन पर अंकित है।
प्रसिद्ध कला समीक्षक मंजरी श्रीवास्तव ने रतन थियाम जी द्वारा निर्देशित ऋतु संहार पर मनोयोग से लिखा है। साधुवाद उनको।
भारतीय नाट्य परंपरा को दुनिया में पहचान दिलाने वाले नाट्य ऋषि को जन्मदिन पर अनंत शुभ कामनाएं कि वे स्वस्थ सानंद रहें और नाटकों का सृजन करते रहें।
पढ़ना शुरू किया तो रुक नहीं पाए,नाटक साक्षात सा हो गया , लालित्य और ऊर्जा से भरी समीक्षा ने मन को आल्हादित कर दिया।अब लग रहा काश इस नाटक को देख पाते।एक एक दृश्य को जिस तरह शब्दों में उतारा है मंजरी जी ने, वो रोमांचक है।एक सुंदर नाटक की स्पृहनीय समीक्षा। अरुण जी इनसे मिलवाने के लिए शुक्रिया🌹🌹
दृश्य साक्षात स्थापित होते हैं. मंच काव्य अक्षरों के सहारे छवियों को साकार करता हुआ जान पड़ता है. बीच बीच में महान कालिदास और रतन थियाम के मध्य विमर्श को बहुत सरल रुप में प्रस्तुत करती मंजरी अपने दृष्टिकोण के साथ नाटक के बिंब और उपजे भाव और रस की धार को महसूस कराने में इस आलेख में सफलतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करती नज़र आती हैं.
रतन थियाम जी के बेहद कठिन काम को सरल और सहज करते हुए ये समीक्षा बहु आयामों की तहें खोलती हैं.
क्या ही अच्छा हो कि श्री रतन थियाम पर आपकी रिसर्च पढ़ने को मिल जाए.
मंजरी जी आपकी पैनी दृष्टि और नाटकों के प्रति आपके समर्पण को प्रणाम.
आदरणीय रतन थियाम जो हमारे समय में रंगकर्म के वृहद हस्ताक्षर हैं या कहैं विश्वविद्यालय हैं . उन्हें जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं. चरण वंदन.
मंजरी श्रीवास्तव की रतन थियम निर्दर्शित नाटक ‘ऋतुसंहार’ की नाट्य समीक्षा अपने आप में एक पठनीय नाटक बन गयी है। बहुत करीब से इन्होंने नाटक को देखा है, और हम पाठकों को ‘दिखलाया’ भी है। रतन थियम अतुलनीय निर्देशक हैं। विद्यार्थी दिनों में ‘चक्रव्यूह’ देखा था। बगैर पलक झपकाये। चमत्कारिक प्रकाश संयोजन से उन्होंने गर्भस्थ अभिमन्यु को दिखलाया था । हॉल में तालियाँ रुक ही नहीं रही थी। बहुत अच्छी और सहज समीक्षा। आंखों देखी समीक्षा।
हमने लगभग डेढ़ दशक पहले ‘चक्रव्यूह’ इलाहाबाद में माघ मेला में चलो मन गंगा यमुना तीर के मंच पर देखा था और तबसे आज तक उसके प्रभाव में हूँ। ऐसा रंग संयोजन, ऐसा संगीत और कलाकारों की मंच पर ऊर्जा फिल्मों के अनुभव को मात देने की सामर्थ्य रखते हैं
निस्संदेह रतन थियाम साहब के नाटक के आगे कोई फ़िल्म नहीं टिकेगी। जितना रिसर्च, जितनी मेहनत, जितनी डिटेलिंग उनके नाटकों में होती है उतना रिसर्च शायद ही कोई करता हो, उतनी मेहनत, उतनी डिटेलिंग रतन सर के अलावा किसी और के बस की बात नहीं। जल्दी ही चक्रव्यूह पर भी लिखूँगी राहुल जी।
सादर
मंजरी।