‘आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे’
|
‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ (2022) हमारे समय की एक उल्लेखनीय स्त्री-कवि रंजना मिश्र का सद्यःप्रकाशित कविता संग्रह है, जिसमें उनकी छोटी-बड़ी छिहत्तर कविताएँ संगृहीत हैं. इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए अंतर्वस्तु एवं शिल्प का वैविध्य रचनाकार के अंत:करण के विस्तृत आयतन का सर्जनात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करता है.
रंजना जी के हृदय में कविता की विविध भंगिमाएं हैं, जो उनके रचना-संसार में घनीभूत राग का सृजन करती हैं. कुछ मायने में वे समसामयिक स्त्री-कविता के क्षेत्र में एक नई ज़मीन तोड़ने वाली कवि प्रतीत होती हैं. कथ्य के अनुरूप कविता की वैधानिक एवं भाषिक संरचना के समायोजन में उनको महारत हासिल है. उनका रचना-मानस एक अर्थ में फ्रायड द्वारा बहुविध विवेचित वह ‘मिस्टिक लेटरपैड’ है, जिसमें निरंतर बाह्य का अभिग्रहण होता चलता है. देरिदा का मानना है कि भाषा का पूर्ववर्ती रूप वाचन के बजाय लेखन है. बकौल बेनेदेत्तो क्रोचे, यह बाह्य का आभ्यंतरीकरण है,जिसके बाद कोई सर्जनात्मक मानस अपनी धुरी पर घूमता हुआ अपने अंतर का बाह्यीकरण करता है और श्रेष्ठ रचना जन्म लेती है. याद रहे कि ‘प्रतिभा’ के विवेचन के दौरान प्रस्तुत क्रोचे की इन अवधारणाओं को हम हिन्दी जगत में मुक्तिबोध की नितांत मौलिक स्थापना मानने के अभ्यस्त हो चुके हैं.
कहना यह है कि बाह्य का आभ्यतंरीकरण ही किसी सर्जनात्मक मस्तिष्क के ‘मिस्टिक लेटरपैड’ पर अंकित हो जाने वाला लेखन है. यह अंकन जब ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ की कविताओं के रूप में रंजना मिश्र के माध्यम से बाहर आता है तो संयत स्वर में रचित एक से बढ़कर एक कविताएँ सामने आती हैं.
ऊपर जिस ‘संयत स्वर’ की बात की गयी है, उसका उत्स कवयित्री का भारतीय शास्त्रीय संगीत में विधिवत दीक्षित और निष्णात होना है. शास्त्रीय संगीत की पारिभाषिक शब्दावली के सात शीर्षकों(षड्ज,ऋषभ,गंधार,मध्यम,पंचम,धैवत और निषाद) के अंतर्गत ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित कविताओं में इसकी एक बानगी दिखाई पड़ती है:
नहीं जानती आपका दुःख मुझे खींचता है
या उसके पार जाकर स्वरों में ढूँढना
उसका संधान
जानती हूँ तो बस इतना ही
—
जब तक रोशनी अपना सुरमंडल लिए
उज्ज्वल हो जाएगी यह धरती
सातों आसमान
और मेरा मन
मैं आश्वस्त हूँ
कि बार-बार लौटूंगी
घनीभूत पीड़ा के अंतहीन क्षणों से
तुम्हारे स्वरों तक
अपनी ही राख से
नया रूप धर कर.
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ. 61-62)
हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि हमारे अनेक रचनाकार शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ ही नहीं रखते,बल्कि खुद कभी-कभार गा या गुनगुना भी लेते हैं। किंतु,दुखद है कि हिंदी समाज का शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग सीमित है. हिंदी समाज में लोक संगीत के प्रचलन का अगर जायजा लें ‘हँसि हँसि पनवाँ खियौले बेइमनवा’ को ‘लॉलीपॉप लागेलु’ ने अब लगभग अपदस्थ कर दिया है. जाहिर है कि भक्तिकाल के कवियों ने शास्त्रीय राग रागिनियों में निबद्ध महान कविता रची है। हिंदी साहित्य में आधुनिकता के जनक कहे जानेवाले भारतेंदु हरिश्चंद्र न केवल शास्त्रीय संगीत, बल्कि लोक संगीत की भी गहरी जानकारी रखते थे जिसका प्रमाण उनकी रचनाओं में भी मौजूद है.
निराला के बारे में कहा गया है कि उन्होंने हारमोनियम पर धुन बनाकर अनेक गीत रचे हैं और काव्यपाठ के साथ ही गायन में उनको महारत हासिल थी. ‘गीतिका’ की भूमिका में उन्होंने जो बातें कही हैं उनको पढ़कर आज भी किसी सहृदय का दिल दहल जाएगा:
“मैं खड़ी बोली में जिस उच्चारण-संगीत के भीतर से जीवन की प्रतिष्ठा का स्वप्न देखता आया हूँ,वह ब्रजभाषा में नहीं है. ब्रजभाषा के पदों को गाने वाले उस्ताद, प्राचीन-उत्तरी-संगीत के कलावंत,जिन्हें खड़ी बोली का बहुत साधारण ज्ञान है,मेरे गीत नहीं गा सकेंगे, यह मैं जानता था और इस ज्ञान के आधार पर गीतों की स्वर-लिपि मैं स्वयं करना चाहता था,पर कुछ परिस्थिति मेरी रही कि सब तरफ से अभाव ही अभाव का सामना मुझे करना पड़ा. एक अच्छे हारमोनियम की गुंजाइश भी मेरे लिए नहीं हुई. मेरी सरस्वती संगीत से मुक्त रहना चाहती हैं,सोचकर मैं चुप रह गया. . . चूँकि मैं बाज़ार का नहीं बन सका,शायद इसीलिए सरस्वती ने मेरे स्वरों को बाज़ारू नहीं बनने दिया.”
गुरुवर आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री महापंडित होने के साथ ही शास्त्रीय संगीत में निष्णात बहुत अच्छे गायक भी थे। कवि सम्मेलनों में शास्त्री जी के दीक्षित कंठ से गीत सुनना एक अद्भुत अनुभव हुआ करता था। एक जमाने में मुजफ्फरपुर में बाबू उमाशंकर प्रसाद के दरबार में शास्त्री जी और सुप्रसिद्ध तबलावादक श्रीसीताराम हरि दांडेकर की जोड़ी विख्यात थी.
मुजफ्फरपुर में एक और बड़े विद्वान एवं हिंदी नवगीत के प्रवर्तक कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की शास्त्रीय एवं लोक संगीत पर पकड़ के साथ ही उनको मंच से गाते हुए सुनने पर रोमांच हो जाया करता था।उनकी ‘भरी सड़क पर’,‘रात आंख मूंद कर जगी’ तथा ‘गज़र आधी रात का’ संग्रह के नवगीतों एवं जनगीतों में इसकी शिनाख्त की जा सकती है.
हिंदी कवियों में अशोक वाजपेयी अपने शास्त्रीय संगीत-प्रेम के साथ ही अन्य कलारूपों के पारखी के तौर पर विख्यात हैं. ‘बहुरि अकेला: कुमार गन्धर्व पर कविताएँ और निबन्ध’ अशोक जी का विख्यात ग्रंथ है. कवि यतीन्द्र मिश्र की ‘गिरिजा’, ‘लता सुरगाथा’, के साथ ही बिस्मिल्ला खान पर रचित पुस्तक और उनकी अन्य कई पुस्तकें एवं कविताएं उनके शास्त्रीय संगीत के प्रति गहरे लगाव का परिचय देती हैं. हिन्दी में ऐसे और भी अनेक रचनाकार हैं.
रंजना मिश्र द्वारा ‘षड्ज’, ‘ऋषभ’, ‘गंधार’, ‘मध्यम’,‘पंचम’,‘धैवत’ और ‘निषाद’ शीर्षकों से ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित सात कविताओं को इसी परंपरा की एक नायाब कड़ी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। इनसे गुजरते हुए किसी भी संवेदनशील पाठक को शिद्दत के साथ यह महसूस होगा कि कवयित्री ने हमारे समय के एक महान गायक पंडित जसराज की गायकी की बारीकियों को आत्मसात करते हुए शास्त्रीय संगीत की अपनी गायन-क्षमता को उसमें घुला मिलाकर इन कविताओं का सृजन किया है। जाहिर है कि ऐसी रचनाएं कायदे से अपने अभिग्रहण के लिए हमसे एक खास तरह के सुर-सौंदर्यबोध की मांग करती हैं, जिनसे रहित व्यक्ति इनके आस्वादन की पात्रता से स्वभावतः वंचित रह जाने को अभिशप्त होगा। रंजना जी जब खुद गाती हैं तो गायन के लिए चयनित पाठ की शब्दावली की प्रकृति एवं पूरी रचना की अंतर्वस्तु की आंतरिक आकांक्षा का जैसा मूर्तन उनके स्वर में संभव हो पाता है, उसका अनुभव कर पाना उनकी गायकी से परिचित हुए बगैर संभव नहीं है. शास्त्रीय संगीत की प्रकृति की तरह ही इन कविताओं में कोई हड़बड़ी या लोकप्रिय नुस्खे का इस्तेमाल न तो संभव था और न ही किया गया है. याद आते हैं मार्क्स,जिन्होंने लिखा है कि
“सच्चा रचनाकार उसी तरह रचनारत होता है जैसे रेशम का कीड़ा स्वाभाविक रूप से रेशम पैदा करता है. “
अपने गीतों और गायकी के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बॉब डिलन के यहां पॉप संगीत के लयावर्त का इस्तेमाल करने के बावजूद एक गंभीरता है. ठीक उसी तरह, जैसे गद्य में परसाई और कविता में नागार्जुन के यहां हास्य को महज हास्य के बजाय ‘गंभीर हास्य’(लाफ्टर विथ ग्रेविटी) के रूप में रचा गया है. शास्त्रीय संगीत में निष्णात कलाकार जब लोकप्रिय गायन करते हैं तो वहां भी एक खास किस्म की गंभीरता होती है । लता मंगेशकर का गायन कैसे इसका एक बेहतर उदाहरण है, यह यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है.
रंजना जी की ये कविताएं वस्तुतः एक ही साथ शास्त्रीय संगीत से पूर्णतः परिचित और परिचित होने को उत्सुक,दोनों प्रकार के पाठकों को सम्बोधित हैं. सच तो यह है कि इन कविताओं से गुजरने के बाद पाठक पंडित जसराज को ज़रूर सुनना चाहेगा. यह उनके शब्दकर्म की सफलता का सबूत है । दूसरे शब्दों में, इन कविताओं में हिंदी अंचल में लगातार पसरती जा रही सांस्कृतिक विपन्नता को दूर करने और संस्कृति-बोध के पुनर्वास के लिए एक बेचैन कवि का आर्तनाद सुनाई पड़ता है।जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि ‘संस्कृति सौन्दर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है।’ ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित इस संग्रह की कविताएँ शब्दकर्म के माध्यम से हिन्दी अंचल में ऊपर-कथित सुर-सौन्दर्यबोध को विकसित करने की चेष्टा का सुफल हैं. उनकी काव्यभाषा में गद्य की लय की उठान जब काव्यलय में पर्यवसित होती है तो वह संगीत के शिखर का स्पर्श करती है, जिसे नामवर सिंह ने हर कलाकार की चरम आकांक्षा के रूप में रेखांकित किया है. परिणामतः इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक की अंतरात्मा में संगीत का अनुनाद ध्वनित होने लगता है। सच तो यह है कि ये कविताएँ समझ में आने के पहले सुनाई पड़ती हैं। प्रभावान्विति की दृष्टि से ऐसी रचनाएं कबीर के ‘रस गगन गुफा से अजर झरै’ पद में निहित उदात्तता का एहसास कराती हैं. आज के राजनीति केंद्रित समय में ऐसी कविताएं मरुभूमि में जलाशय की तरह हैं.
इन कविताओं को यदि हम ‘समालोचन’ में बहुत पहले प्रकाशित रंजना जी के पंडित जसराज पर केंद्रित आलेख के साथ पढ़ें तो संभवतः पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त पूरा हो जाएगा। इस स्मृति-लेख में किसी भी सहृदय को रोमांचित कर देने वाली एक बात कही गयी है-“प्रेमिका के लिए ‘अमीर ख़ुसरो’ गानेवाले जसराज और जयदेव के ‘गीत गोविंद’ के पद गानेवाले जसराज जब -‘मेरो अल्लाह मेहरबान’ -गाते हैं तो कौन अभागा श्रोता समर्पण के स्वर को न समझने की भूल कर सकता है.”
अंतिम बात यह कि हिंदी में कवियों द्वारा अपने अग्रज कवियों की अभ्यर्थना के साथ ही मित्र कवियों की याद में रचित अनेक अच्छी या औसत दर्जे की कविताएं मिलती हैं,पर कालजयी संगीतकारों एवं गायकों पर जो गिनीचुनी कविताएं हैं, उनमें रंजना जी की ये कविताएं उल्लेखनीय हैं. भारतीय शास्त्रीय संगीत से आंतरिक जुड़ाव ने उनके सम्पूर्ण कवि-व्यक्तित्व को प्रभावित किया है जिसके प्रमाण उनकी बहुत सारी कविताओं में विद्यमान हैं.
उनमें प्रगीतात्मकता है. इस दृष्टि से ‘आवाज़ की झुर्रियाँ’ कविता भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है.
शास्त्रीय संगीत की पारिभाषिक शब्दावली के रचनात्मक इस्तेमाल से जहाँ एक ओर इन रचनाओं का वजन बढ़ता है, वहीं यह शास्त्रीय संगीत से अनभिज्ञ पाठक के लिए यह चुनौती बनकर भी खड़ा होता है।हालाँकि विवेच्य कविता संग्रह में कुछ पारिभाषिक शब्दावलियों को सीधी-सरल भाषा में समझाने का सराहनीय यत्न किया गया है.
इसी प्रकार उनकी कुछ रचनाओं में अनुस्यूत अंतर-पाठीयता (इंटर टेक्स्च्युअलिटी) भारतीय ही नहीं,यूनानी पुरागाथाओं से भी सम्बद्ध है. ऊपर उद्धृत काव्यांश में जिस सहजता के साथ यूनान एवं मिश्र की पुरागाथाओं में प्रचलित फिनिक्स या अनल पाखी की चर्चा किये बगैर ‘अपनी ही राख से नया रूप धरकर’ फिर से पैदा होने की बात की जा रही है,वह काबिल-ए-गौर है। ऐसी रचनाओं पर साधिकार वही पाठक टिप्पणी कर सकता है जो इन बारीकियों से सुपरिचित हो.
वस्तुत: पंडित जसराज का गायन औदात्य के जिस शिखर पर सहजता के साथ ले जाने में समर्थ है,उन पर रचित ये कविताएं उसका संस्पर्श कराती हैं,पर वहां आलोचना का पहुंचना शायद असंभव है। वजह यह कि संश्लेषण के बजाय धारदार विश्लेषण आलोचना की बुनियादी कसौटी है.
याद रहे कि एक जमाने मे निराला की रचना ‘ताक कमसिन वारि’ को शास्त्रीय संगीत के सम्यक ज्ञान के अभाव में कई लोगों ने उनकी मानसिक विक्षिप्तता से जोड़ कर देखा था।जबकि बाद में गुंदेचा बंधुओं के दीक्षित कंठ से वह गाया गया। कवयित्री का मानना है कि ‘ध्वनि कभी नहीं मरती, नाद एक बार आयु पाकर गूंजता ही रहता है अनादि अनन्त का हिस्सा होकर।’ कहना न होगा कि यह बात उनकी ‘पंडित जसराज के लिए’ रचित कविताओं के संदर्भ में भी किसी न किसी रूप में सच है.
‘उम्रदराज़ औरत’ विवेच्य कविता संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण रचना है:
‘जली हुई रोटी है
दूसरी तरफ़ कच्ची
उफन गई चाय है
बच रही थोड़ी-सी
भगोने में
बची हुई मुट्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम मेंबजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह
बार-बार पलट आती है
मुखड़े पर
पता नहीं कौन रोज़ दरवाज़े खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है
अपनी देह के बाहर छूट जाती है कभी
कभी उम्र से आगे निकल जाती है
मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है एक और नदी
पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
दिन ढलते ही
अपने पंख तहा रख देती है सिरहाने
और निहारती है देर तक
उन पंखों को. . . ‘
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ. 102)
जाहिर है कि हम ऐसे युग में हैं जिसमें पुराने केंद्र टूटते नज़र आ रहे हैं और विचार-विमर्श का नाभिकीय बिंदु परिवर्तित होता हुआ दिखायी दे रहा है.
दिनकर ने ‘अर्धनारीश्वर’ में संकलित जब ‘चालीस की उम्र’ निबन्ध लिखा था तो उसके केंद्र में पुरुष था,जो जवानी की दहलीज लांघ कर एक ऐसी मनःस्थिति में पहुंच जाता है जहां आवेग थिराने लगता है,पर उसकी ‘मनोकामनाएं’ थिराने का नाम नहीं लेतीं.
तब से लेकर अब तक दुनिया-भर के वैज्ञानिक विकास और चिकित्सा आदि के क्षेत्र में सुविधाओं के विस्तार की वजह से खुशहाल भारतीय मध्यवर्ग की औसत आयु में हुई बढोत्तरी के कारण कुछ लोगों का कहना यह भी है कि जीवन क़ायदे से चालीस-पचास के बाद शुरू होता है.
हमारे जमाने के रचनाकार जब उम्रदराज़ लोगों पर विचार करते हैं तो वहां केंद्र में केवल पुरुष के बजाय स्त्री भी है, जो अवकाशभोगी उच्चमध्यवर्ग ही नहीं, मध्यवर्ग,निम्न मध्यवर्ग या समाज के निचले तबके की भी हो सकती हैं।कहना यह भी है कि तथाकथित यौवन की दहलीज़ पार कर जाने के बाद आदमी की शारीरिक एवं मानसिक अवस्था समाज के हर तबके के लिए एक ही हो,यह ज़रूरी नहीं.
‘उम्रदराज़ औरत’ कविता में उस तबके की स्त्री को जगह मिली है जिसके लिए पहले की रचनाशीलता में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुत कम जगह थी। वजह यह कि पिछले दो-तीन दशकों में सामाजिक-आर्थिक -राजनीतिक विमर्श में आये बौद्धिक एवं संवेदनात्मक बदलाव ने कवियों और खासकर स्त्री-कवियों एवं विचारकों के दिल-ओ-दिमाग को झकझोर कर रख दिया है।
नौवें दशक में बीजिंग में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में संसार के विभिन्न कोने से आईं स्त्री अधिकारों के लिए अपने-अपने देशों में आवाज़ बुलंद करने वाली स्त्रियों के व्याख्यानों तथा उस सम्मेलन के अंत में पारित प्रस्ताव इस सन्दर्भ में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं, जिसमें ‘संयुक्त राष्ट्र’ से स्त्री के प्रति भेदभाव को नस्लीय भेदभाव के समकक्ष घोषित करने की मांग की गई थी.
विदित है कि मनुष्य के भीतर बदलाव प्रथमतः बौद्धिक स्तर पर ही घटित होता है और कालांतर में यह सजग रचनाकारों की संवेदना में परिवर्तन का माध्यम बनता है. स्पष्ट ही जो रचनाकार बौद्धिक परिवर्तन का आभ्यंतरीकरण कर पाते हैं, उन्हीं की चेतना जागृत हो पाती है. अन्यथा मन और मस्तिष्क के बीच फाँक बरकरार रह जाती है,जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य सोचता बहुत कुछ है,पर उसकी ‘अनुभूति की संरचना’ ज्यों की त्यों बनी रहती है।गांधी जी ने जब कहा था कि स्वाधीनता संग्राम के कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं,पर मेरे प्रिय कवि तुलसीदास -तो हमें उनके इस कथन में दिल और दिमाग के बीच एक खाई नज़र आती है.
विवेच्य कविता के मूलपाठ से गुजरते हुए जिन बिंबों से संवेदनशील पाठक रू-ब-रू होता है, वह उसे सोचने-विचारने और कुछेक मार्मिक स्थलों पर विचलित कर देने में सक्षम हैं.
कविता की पहली पंक्ति में कवि ने आम जीवन से एक ऐसी रोटी का बिम्ब उठाया है जो एक तरफ से जल गई है और दूसरी तरफ से कच्ची है।सवाल उठता है कि ‘उम्रदराज़ औरत’ कविता के संदर्भ में इस सामान्य से प्रतीत होने वाले बिम्ब से लेखक का तात्पर्य क्या है।
वस्तुतः यह एक ऐसी औरत की छवि है जिसके जीवन का एक पक्ष दिनानुदिन क्षीण होता जा रहा है और दूसरा अनुकूल स्थितियों के अभाव में यथायोग्य पल्लवित नहीं हो सका है। यह उसका मन भी हो सकता है और तन भी अथवा दोनों ही.
यदि हम अपने आसपास की मध्यवर्गीय, निम्नमध्यवर्गीय,निम्नवर्गीय औरतों को गौर से देखें तो ऐसी अनेक औरतें मिल जाएंगी जो कई बच्चों की माँ बनकर असमय परिपक्व और वृद्ध तो हो जाती हैं,पर उनकी चेतना प्रेम के कोमल एहसास और शिक्षा से प्राप्त व्यक्तित्व के समुचित विकास से वंचित रह जाती है. दूसरे शब्दों में,उन्हें परिवार और समाज में जो प्यार और सम्मान की ज़िंदगी मिलनी चाहिए थी,वह उपलब्ध नहीं हो पाती. बावजूद इसके,उनका लहज़ा हरदम शिकायती नहीं होता. याद आ सकते हैं निर्मल वर्मा,जिन्होंने चेखव के हवाले से लिखा है कि
“कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं –ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते,क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है.”
(रेणु रचित ‘ऋणजल धनजल’ की भूमिका)
निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में चित्रित मजदूर स्त्री की तरह बड़ी संख्या में कामगार औरतें आज भी दिखाई देती हैं जो ‘श्याम तन भर बंधा यौवन’ का भार ढोती हुई असमय मुरझा जाती हैं और कड़ी मिहनत से जीवनयापन करती हुई हरदम अपना दुखड़ा बयान नहीं करतीं । महाप्राण निराला के शब्दों में :
‘देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं.’
‘उम्रदराज़ औरत’ कविता के रचनाकार के शब्दों में इन औरतों का यौवन उस ‘भगौने में बच रही थोड़ी-सी’ चाय की तरह बिल्कुल थोड़ा बचा रह जाता है और अधिकांश हिस्सा विपरीत स्थितियों से जूझते हुए असमय उफ़न कर नष्ट हो जाता है. ऐसी जूझारू औरत के भीतर मौजूद जीवट के लिए ‘बची हुई मुट्ठी भर धूप’ का प्रयोग रचनाकार के सूक्ष्म सौदर्यबोध का साक्ष्य है. कविता में ‘उतरती गहराती शाम’ जहां जीवन की उदास संध्यावेला की ओर इंगित करता हुआ चित्र है,वहीं कविता में आई उम्रदराज़ औरत के ‘ठुमरी की तिहाई की तरह बजने’ और ‘बार-बार मुखड़े पर लौट आने’ का उत्स रचनाकार के संगीत प्रेम और शास्त्रीय संगीत के बारे में उसके ठोस ज्ञान में निहित है.
कविता में बार-बार मुखड़े पर लौटने का मतलब संभवत: यह है कि ज़िंदगी की जद्दोजहद से रोज-ब-रोज दो-चार होती औरत सारी उधेड़बुन के बावजूद अंततः उस मुख्य मुद्दे पर बात करने के लिए बेचैन रहती है जिसका सम्बन्ध उसकी मुक्ति से है,जिस पहलू को तथाकथित सभ्य और संभ्रांत लोग प्रायः नज़रंदाज़ कर देने के आदी होते हैं.
कविता की आगे की पंक्तियों में किसी का रोज़ दरवाज़ा खटखटाना और आंखों से नमक झड़ना वस्तुतः एकांत में स्त्री के हृदय के तार झंकृत होने या दिल के दरवाजे पर दस्तक की वजह से उसके रुदन को द्योतित करने वाले अछूते एवं विलक्षण बिम्ब हैं.
प्रसंगवश अनामिका की ‘नमक’ कविता की याद न आए,यह मुमकिन नहीं:
‘नमक दुःख है धरती का और उसका स्वाद भी
पृथ्वी का तीन भाग नमकीन पानी है
और आदमी का दिल नमक का पहाड़
कमज़ोर है दिल नमक का
कितनी जल्दी पसीज जाता है!. . .
जिनके चेहरे पर नमक है
पूछिए उन औरतों से –
कितना भारी पड़ता है उनको
उनके चेहरे का नमक!’
याद रहे कि दुनियादार लोगों को ऐसी औरतों का शरीर भले आकर्षक प्रतीत हो, पर उस स्त्री-शरीर को धारण करने वाली उम्रदराज़ औरत लगभग विदेह की मनःस्थिति में पहुंचकर जीवन के उस पड़ाव को पार करती चली जा रही है जिसके बाद देह के आकर्षण का लगभग कोई अर्थ नहीं रह जाता.
विवेच्य कविता के अगले हिस्से में ‘मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है एक और नदी/पत्थर का ताप अपने भीतर थामे’ को कोई भी सुधी पाठक हिंदी कविता में एक अनूठे प्रयोग के तौर पर लक्षित करेग ,जिसके माध्यम से कवि ने उम्र की ढलान पर फिसलन से बचने के लिए सावधानी के साथ उतरती स्त्री के भीतर आवेगों की अंत:सलिला और उस पर हर हालत में नियंत्रण रखने की उसके संकल्प को चित्रित करते हुए उसके संयमी स्वभाव को रेखांकित किया है.
अरस्तू ने लक्षणा की प्रशंसा करते हुए कहा है कि “यही एक ऐसा गुण है जिसका उपार्जन नहीं हो सकता,यह तो प्रतिभा का लक्षण है. ”
इस कविता के अंतिम टुकड़े में उम्रदराज़ औरत का अपने पंख को तहाकर सिरहाने रख देना एक अनोखा लाक्षणिक प्रयोग और किसी संभावित परवाज़ की तमन्ना पर काबू कर सकने की सक्षमता का द्योतक है. इसी प्रकार ‘निहारती है देर तक उन पंखों को’ काव्यपंक्ति वस्तुत: तमाम दुनियावी मनोदैहिक आकर्षणों एवं आवेग से भरेपुरे अपने अतीत के सुखद क्षणों को उनसे दूरी बनाकर याद करना ब्रेख्त की शब्दावली में ‘अलगाव प्रभाव’(एलियेनेशन इफेक्ट) का सर्जनात्मक साक्ष्य है, जिसके माध्यम से विडम्बनापूर्ण स्त्री-जीवन का मर्म बिम्बित हुआ है। इस मर्मान्तक भावबोध की अनुभूति बरबस ग़ालिब की याद दिलाती है:
मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है
आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे.
इतिहास को प्राक्-भविष्य(प्री-फ्यूचर) के रूप में आकलित करते हुए मार्क्स समेत दुनिया के अनेकानेक विचारकों एवं समाजवैज्ञानिकों ने किसी जाति के वर्तमान और भविष्य को संवारने में इतिहास की स्मृति पर बल दिया है. किन्तु,कवि-कलाकार के लिए केवल इतिहास की स्मृति के बजाय ‘स्मृतियों का इतिहास’ भी महत्त्वपूर्ण होता है. श्रेष्ठ रचनाओं में जातीय स्मृति के साथ ही वैयक्तिक स्मृति के इतिहास को भी पुनर्रचित किया जाता रहा है,जो वैयक्तिक होने के बावजूद अपने सामाजिक समूह के सामूहिक अवचेतन को वाणी देती है:
स्मृतियों का अपना इतिहास होता है
अल्लसुबह नींद भरी आँखों में उतरती भोर सी
वे धीमें-धीमे रिसती रहती हैं भीतर
उन खाली तहखानों के सन्नाटे को भेदती
जो न मालूम कब से इंतज़ार में हैं.
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ. 68)
उल्लेखनीय है कि विवेच्य रचना साहित्य-जगत में आम तौर बनी-बनाई उस धारणा का प्रत्याख्यान करती प्रतीत होती है जिसके तहत यह मान लिया जाता है कि किसी ठोस वस्तु के माध्यम से मनुष्य की सूक्ष्म संवेदना का अंकन संभव नहीं है. सच तो यह है कि जिस प्रकार सूक्ष्म प्रतीत होने वाले बिंबों के माध्यम से कविता में स्थूल जीवनस्थितियों को चित्रित किया जाता रहा है,उसी प्रकार स्थूल या ठोस चीजों के माध्यम से भी सूक्ष्मतम मनोभावों की सहज एवं प्रभावकारी अभिव्यक्ति तथा उनका सार्थक मूर्तन असंभव नहीं है.
कुल मिलाकर ‘उम्रदराज़ औरत’ कविता निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ में चित्रित स्त्री की विसंगतिपूर्ण जूझारू जीवनस्थतियों के मार्मिक चित्रण की परंपरा को अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाती हुई ‘सबाल्टर्न भावबोध’ की रचना प्रतीत होती है,क्योंकि यह तथाकथित मुख्यधारा के बजाय हाशिए पर रहने को बाध्य सामाजिक संवर्ग के दिल-ओ-दिमाग़ की हलचलों का हमें एहसास कराती है.
इस कविता के सन्दर्भ में अंतिम बात यह कि विवेच्य कविता में हर जगह केवल और केवल ‘औरत’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है — ‘नारी’, ‘स्त्री’ या ‘महिला’ जैसे शब्दों का नहीं। वजह यह कि ‘नारी’ शब्द के ध्वन्यार्थ में जो अबलापन, ‘स्त्री’ शब्द में जो शक्ति और ‘महिला’ शब्द के निहितार्थ में जो संभ्रांत होने का भाव मौजूद है वह इस कविता में चित्रित ‘औरत’ की जीवनस्थितियों एवं मनोभावों के अनुकूल नहीं है.
जार्ज लुकाच ने ‘लेखक और आलोचक’(‘राइटर एंड क्रिटिक’) पुस्तक में लिखा है कि ‘सच्ची कला जीवन की सर्वग्राही समग्रता को आत्मसात करके ही अपनी अधिकतम गहनता और समझ को प्राप्त करती है और उसके प्रतिभास(अपियरेंस) और प्रतिभास के विरोधी प्रत्यय से काटकर उसे प्रस्तुत नहीं करती,अपितु उस गतिशील द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया को प्रस्तुत करती है जिसमें यथार्थ प्रतीति में रूपांतरित होता है. . . . ‘ कहने की ज़रूरत नहीं कि कविता या किसी भी कलारूप में यथार्थ कल्पना के माध्यम से ही प्रतीति में रूपांतरित होता है.
प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने साहित्य और समाज के बीच बहुस्तरीय सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए लिखा है कि शब्द का अर्थ से,अर्थ का अनुभूति से,अनुभूति का सम्वेदना से,सम्वेदना का विचार से,विचार का यथार्थ से और यथार्थ का इतिहास से सम्बन्ध की पहचान करते हुए ही हम किसी रचना के मर्म तक पहुँच सकते हैं.
वस्तुतः यथार्थ से रचनाकार का रिश्ता द्वंद्वात्मक हुआ करता है. वह अपने परिवेश से यथार्थ को ग्रहण करता है और उसे पुनर्रचित करके संभावित यथार्थ की दृष्टि करता है. आचार्य शुक्ल ने ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ पर विचार करते हुए इस द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का निरूपण किया है और बतलाया है कि इस मानसिक रूप-विधान का नाम ही कल्पना है.
देखने की बात यह है कि हमारे समय-समाज में लोकतांत्रिक पद्धति के लिए ज़रूरी चुनावी राजनीति के तहत जातिवाद और साम्प्रदायिक उन्माद भरे माहौल के साथ ही ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ और बाजारवाद से ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ की रचयिता कैसे मुठभेड़ करती हैं. प्रसंगवश ‘अंजुम के लिए’ शीर्षक कविता का एक अंश देखा जा सकता है:
“कितने दिनों से याद नहीं आया
गली के मोड़ पर खड़ा वह शोहदा
सायकिल पर टिककर
जो मुझे देख गाने गाया करता था
कुढ़ जाती थी मैं उसे देखते ही
हांलाकि आगे जाकर मुस्कुरा दिया करती
उसकी नज़र से परे. . . . . . . .तुम लौट जाओ अंजुम, मेरे युवा प्रेमी,
अपनी सायकिल के साथ
तुम मुक़ाबला नहीं कर पाओगे उनका
जो बाइक पर आएँगे
और तुम्हें बताएंगे अब अच्छे दिन हैं . . . ”
जिस समय सत्ताधारी दल तथा वर्ग और उनके समर्थक तथाकथित संत-महंतों के बगलबच्चा बन चुके ज़्यादातर इलेक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया संस्थान ‘राष्ट्रवाद’ तथा ‘लव ज़िहाद’ के नाम पर देश में सामाजिक सौमनस्य की धज्जियां उड़ा रहे हों,उसमें ऐसी कविता का सृजन करने के लिए जबरदस्त नैतिक साहस की दरकार है. याद रहे कि पंथनिरपेक्षता भारत जैसे बहुभाषी,बहुधार्मिक एवं बहुजातीय समाज के ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन-स्टेट) के रूप में क़ायम रहने हेतु विकल्प के बजाय एक बाध्यता है और चार खंडों में रचित इस कविता का यही मूल संदेश है.
याद आ सकते हैं प्रेमचन्द,जिन्होंने भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए वर्ण व्यवस्था और ऊँच-नीच की जड़ खोदने को सबसे बड़ी ज़रूरत बताया है. इतना ही नहीं, ‘अंजुम के लिए’ कविता ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में दिनकर द्वारा बहुविध विवेचित ‘सामासिक संस्कृति’ (कंपोजिट कल्चर) की अवधारणा का काव्यात्मक उन्मेष प्रतीत होती है, जिसे सर्वप्रथम गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने रचा था:
“हेथाय आर्य! हेथा अनार्य ! हेथाय द्रविड़ चीन
शक हूण दल पाठान मोगल एक देहो होलो लीन. “
इस कविता में बात बहुत नरम ढंग से कही गयी है,पर उसके तेवर में जो तनाव है ,उसकी तासीर बहुत गहरी है।यह प्रेम कविता के शिल्प में रचित एक गहरी जीवनधर्मी राजनीतिक कविता है :
“जैसे ही उस पार्क के एकांत में तुम थामोगे अपनी प्रिया का हाथ
सेंसेक्स धड़ से नीचे आएगा मुद्रास्फीती की दर बढ़ जाएगी
—
देश को सबसे बड़ा ख़तरा तुम्हारे प्रेम से है
तुम्हें देना ही चाहिए राष्ट्रहित में
एक चुम्बन का बलिदान
इसलिए ज़रूरी है पार्क के एकांत से
तुम अपने घरों में लौट जाओ .“
कला-साहित्य के क्षेत्र में यूरोपीय नवोत्थानवाद पर केन्द्रित अपने ग्रंथ ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ द मायर’ में आक्टोवियो पॉज़ ने अपने जमाने की कविता के बदलते आयामों पर जो उल्लेखनीय स्थापनाएँ दी हैं,वे आज भी श्रेष्ठ कविता को समझने में हमें मदद कर सकती हैं . इस क्रम में उनमें जिन तीन महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों की ओर उन्होंने ध्यान खींचा है वे हैं-छंदक्रान्ति, नई संवेदनशीलता और स्त्री की केन्द्रीय स्थिति.
कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे समय के अधिकांश रचनाकारों की तरह रंजना मिश्र ने भी मुक्त छंद में ही इस संग्रह की सारी कविताएँ रची हैं . किन्तु, उनकी कविताओं में हिन्दी गद्य की एक सहज-स्वाभाविक लय विद्यमान है,जो यथास्थान काव्यलय का संस्पर्श करती रहती है ।इसलिए उसमें एकाध अपवादों को छोड़कर नीरसता या ऊब की कोई स्थिति कत्तई नहीं है. शहरी मध्यवर्ग से रचनाकार की सम्बद्धता की वजह से उनकी कविताओं की भाषिक संरचना परिष्कृत होने के बावजूद अंग्रेज़ियत से मुक्त है, जो कि आज एक बड़ी बात है. यदि कोई इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद करे तो यह बात साफ़ समझ में आ सकती है।जिस समय अंग्रेज़ी और विदेशी भाषाओं में रचित कविता पढ़कर अपनी भाषा में उसे अच्छे-बुरे ढंग से लिखने वाले कवियों की भरमार हो उसमें ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ की कविताएँ हिन्दी जाति एवं हिन्दी के शब्द-चेतन समुदाय के लिए एक रचनात्मक आश्वासन की तरह हैं.
विवेच्य संग्रह की कविताएँ हिन्दी समाज में क्षयिष्णु(डीकेडेंट) शक्तियों का निषेध और उदीयमान (इमरजेंट) सामाजिक शक्तियों की नवीन संवेदना की पुनर्रचना हैं, जिन्हें कविताओं के रचना-विधान के साथ ही उनकी भाषा तक में लक्षित किया जा सकता है:
ईश्वर को
हमने ठीक उसी समय सूली पर चढाया
जब उसके साथ चहलक़दमी करते,बतियाते
हमें गढ़ने थे शब्दों के नए अर्थसुकरात को ज़हर का प्याला
ठीक उसी समय भेंट किया
जब ईश्वर के साथ हुई अधूरी चर्चा
हमें आगे बढ़ानी थी
इतिहास के प्याले को भविष्य की शराब से भरकर . . .हमने
प्रेम और शब्दों के अर्थ
अपनी लालसा और भय की भेंट चढ़ाई
और अपनी आत्मा की
कालिख़ भरी सीढियाँ
उतरते चले गए. . .हमने इंसान शब्द के अर्थ को
ठीक उसी वक्त अपशब्द में बदला
जब सूली पर चढ़े ईश्वर ने
अपनी आख़िरी सात पंक्तियों में से
पाँचवीं पंक्ति में कहा
‘मैं प्यासा हूँ’और छठी पंक्ति में ईश्वर ने विलाप किया
‘यह ख़त्म हुआ’
ईश्वर की मृत्यु को तीन दिन बीत चुके हैंअब हम निर्द्वन्द्व है.
मार्क्स ने अपने लेखन में धर्म की आलोचना को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है. विदित है कि धर्म को अफ़ीम घोषित करने के साथ ही उन्होंने उसे ‘पीड़ित प्राणियों की आह’ और ‘हृदयहीन दुनिया का हृदय’ भी कहा है. किन्तु,इतिहास गवाह है कि समाजशास्त्रीय अर्थों में एक संस्थान के रूप में धर्म के उदय ने कालन्तर में उसके सत्त्व-अध्यात्म- को अपदस्थ करके पूरी दुनिया में अफ़रा-तरफी का माहौल पैदा किया है. इस कविता में ‘ईश्वर की मृत्यु’ प्रकारांतर से मानव इतिहास में धर्म एवं उसके नाम पर विभिन्न धर्मों के ‘निर्द्वंद्व’ धर्माधिकारियों द्वारा अपने निहित स्वार्थ के लिए धर्मप्राण जनता की आस्था का दोहन करने के इरादे से धर्म के सत्व को बरतरफ़ कर देने का प्रतिपक्ष रचा गया है. जो बात यहाँ लक्षणा में रचित है वह विवेच्य संग्रह की ‘हे राम’ कविता में कुछ और स्पष्ट स्वर में कही गयी है:
राम इन दिनों आस्था की पगडंडियों से निकल
राजमार्गों की ओर जा निकले हैं
उस वनवास में पिता की कोई आवाज़ उन तक नहीं पहुँचती
कुछ रिश्तेदारों के बच्चे अब भी बेरोज़गार हैं
आस्था का प्रश्न उनके लिए बेमानी है. . .इस बार वनवास से कब लौटोगे राम ?
या शापित ही हो
राज द्वारा वनवास भोगने के लिए.
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृ. 27)
इस सन्दर्भ में कैफ़ी आज़मी की सुप्रसिद्ध नज़्म के एक टुकड़े की याद न आए, यह मुमकिन नहीं:
‘पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे. ’
विवेच्य संग्रह में आक्टोवियो पॉज़ द्वारा कथित ‘नई संवेदनशीलता’ के आख्यान भरे पड़े हैं, जो वस्तुतः बीसवीं सदी के अंतिम चरण में भूमंडलीकरण के दौरान इस धरा-धाम पर जन्में स्त्री-पुरुष के दिल-ओ-दिमाग़ के साथ ही उनकी अनुभूति की संरचना को रूपायित करते हैं. कवि के शब्दों में यह ‘पत्थर समय’ है, जिसमें जाहिरा तौर पर उत्तर-आधुनिक कहा जानेवाला मनुष्य जाने-अनजाने तरह-तरह की तथाकथित सफलता पाने के लिए घुड़दौड़ में शामिल होकर भीतर से खालीपन या खोखलेपन का शिकार और ‘अलगाव’(एलियेनेशन) से ग्रस्त है. नतीजतन उसकी संवेदना लगातार छीजती जा रही है जिसकी चरम परिणति ‘अमानवीकरण’ है. ऐसे विचित्र माहौल में ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ कविता मानवीय संवेदना का वह अध्यात्म रचती है जिसे कभी कोलरिज़ ने कविता को धर्म से उपजी संवेदना के विकल्प के रूप में पेश किया था:
तुम्हारी अनुपस्थिति का एक हिस्सा थाम
उस पत्थर समय की कई सीढियाँ उतरती हूँ
जिनके पार-
समय की टहनी से टूटकर गिरा
एक लम्हा
अब भी थरथराता है. . .सच कहूँ तो तुम्हारी अनुपस्थिति की लम्बी आवाजाही में
मैंने मौन को अधिक साकार पाया है
इसी मौन में साकार होते हो
तुम भीसुनो, इन दिनों मेरी प्रतीक्षा पककर थकती नहीं
सिर्फ रंग बदलती जाती है
वसंत का चटकीला रंग
पत्तों में ढलकर बहता है जैसे
बस यह सोचकर
क्या पता तुम आओ
और इन हथेलियों में
अपने मिलने की
तारीख लिख जाओ.
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृष्ठ. 48-49)
जहाँ तक कविता में ‘नई संवेदनशीलता’ के साथ-साथ ‘स्त्री की केन्द्रीय स्थिति’ का प्रश्न है,यह पुरुष रचनाकारों की अनेक काव्यकृतियों से भी स्वयंसिद्ध है. हिन्दी में कवि पवन करण का ‘स्त्री मेरे भीतर’ कविता संग्रह इसका अन्यतम उदाहरण है. ध्यान देने की बात है कि हाल के कुछ दशकों में भारत समेत दुनिया के विकसित ही नहीं,बल्कि विकासशील देशों में भी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी में इज़ाफा हुआ है.
हिन्दी कविता के क्षेत्र में इस नई संवेदनशीलता की वाहक कवयित्रियों में अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के बावजूद कात्यायनी अन्यतम हैं. मात्राभेद और गुणभेद से रचित अनामिका समेत उनकी समकालीन अनेकानेक स्त्री-कवियों की रचनाएँ भी हिन्दी काव्य-क्षेत्र में ‘स्त्री की केन्द्रीय स्थिति’ का एहसास कराती हैं.
विचारधारा के नज़रिए से रंजना मिश्र की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालते हुए विद्वान कवि-आलोचक प्रोफ़ेसर अरुण कमल ने विवेच्य कविता संग्रह के ब्लर्ब में लिखा है कि
“रंजना मिश्र का कविता संग्रह ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना है. यह सबसे भिन्न और विलक्षण कृति है जहाँ अनुभव अपनी निजता को अक्षुण्ण रखते हुए सार्वजनीन अर्थवत्ता ग्रहण करते हैं. सर्वथा नवीन बिम्बों, लय-संरचना और स्थापत्य से विभूषित ये कविताएँ हमें जीवन को नयी दृष्टि देखना और समझना सिखलाती हैं. . . यह स्त्रीवादी कविता नहीं है. यह बस एक स्त्री की नज़र से देखी हुई दुनिया है, सुख-दुःख,त्रास और विश्वास के साथ.”
आज स्त्रीवाद ज्ञान के एक स्वतंत्र अनुशासन की हैसियत पा चुका है और समाज की बेहतरी के लिए सक्रिय अन्य विचारधाराओं से जुड़े चिंतकों के बीच उसके स्वत्रन्त्र महत्त्व(‘अ रूम ऑफ़ वन्स ओन’) को बड़ा से बड़ा कवि या विचारक नज़रंदाज़ नहीं करता. कारण यह कि स्त्रीवादी नज़रिए से महान कही जाने वाली दुनिया की क्लासिक कृतियों से गुजरने पर पारंपरिक एवं प्रचलित सौन्दर्यशास्त्रीय मानदण्ड अधूरे प्रतीत होने लगते हैं:
बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग-ए-महफ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला वो परीशां निकला.
ग़ालिब
निवेदन यह है कि घोषित तौर पर स्त्रीवाद का झंडाबरदार बने बगैर भी कविता और समाज में स्त्री के लिए यथोचित जगह बनाने या उसकी केन्द्रीय स्थिति के लिए ‘मुनासिब कार्रवाई’ की जा सकती है. ‘दुनिया में औरतें’ कविता में स्त्री विमर्श का ढोंग करनेवालों की ख़बर लेती हुई कवयित्री ने लिखा है:
स्त्री विमर्श करते
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं
मेरे वक्ष और नितम्बमेरी आँखें
तुम्हारे चौड़े ललाट
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री विमर्श का खोखलापन
भाँप लेती हैंमुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर
लड़कियों के बगल बैठने की जगह ढूँढ़ा करता था.
इसी प्रकार आक्रोश के बजाय सलाह की मुद्रा में रचित ‘तुम पुरुष’ मर्दों को सम्बोधित एक सकारात्मक भावबोध की रचना है:
अगर प्यार है
तो पढ़ो हमें नई सीखी ज़ुबान की तरह
अपनी यादाश्त का कुछ करो
अपने इतिहास, अपनी परिभाषाओं, आदतों
और अपनी रसोई का कुछ करो
तुम नहीं जानते हम बदल रही हैं बदल गयी हैं
तुम किसी पुरानी सभ्यता के अवशेष न बन जाना
या खेत में खड़े बिजूके
सुनो,तुम भी इंसान हो
हमारी आदतें बदल रही हैं
तुम न बदले तो कहाँ जाओगे ?
बावजूद इसके,अपनी शक्ति और सीमा में स्त्रीवादी विचारधारात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह रंजना जी ने किया है. कात्यायनी की सुप्रसिद्ध ‘हॉकी खेलती लडकियाँ’ कविता की परम्परा को आगे बढाती हुई रचित उनकी ‘आवारागर्द लडकियाँ’ कविता से गुज़रते हुए इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है:
“मुझे पसंद हैं
बेबात कहकहे लगाती लड़कियाँ. . .हमउम्र लड़कों के साथ छिपकर
सिगरेट के कश आजमाती लडकियाँ
लड़कों की हमराज़ बन
उनके ख़त पहुँचाती लडकियाँ
या फिर,
उनके इश्क़ के जख्मों पर
फाहे लगाती लडकियाँ –मुझे पसंद हैं
अबे तबे करने वाली
और दुपट्टे को
कहीं रखकर भूल जाने वाली लड़कियाँमुझे और भी पसंद हैं. . .
अद्धा या पौव्वा चढ़ाकर
हॉस्टल के कमरे में
ठुमके लगाती लडकियाँ
और फिर-
किसी पुराने इश्क़ की याद में,
ज़ारोज़ार आँसू बहाती लड़कियाँ. . .दुनिया के मनहूस बगीचे में खिली
जंगली फूलों और डूब की तरह बिछी लडकियाँ
जो मौसम की हर मार और अंधड़
झेलकर ज़िंदा रहती हैं. . .
मुझे प्यार है इनसे
क्योंकि ये चुनना जानती हैं
अपनी मर्ज़ी-
अपनी आवारागार्दियाँ. . . ”
(पत्थर समय की सीढ़ियाँ, पृ. 111)
याद रहे कि इस कविता का तेवर अनामिका की ‘ऐसे पढ़ी जाऊं जैसे तुकाराम का अधूरा अभंग’ से न केवल भिन्न,बल्कि विशिष्ट है. इसी संग्रह में पृष्ठ संख्या एक सौ सात पर छपी ‘सुसंस्कृत लडकियाँ’ कविता के साथ ‘आवारागर्द लडकियाँ’ को पढ़ने पर कविता में क्षयिष्णु और उदीयमान प्रवृत्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि की समझ पैदा होने के साथ ही पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त भी पूरा होता है,क्योंकि दोनों रचनाएँ परस्पर ‘ जकस्टापोजिशन’ में रचित हैं.
किन्तु, इस संग्रह में संभवत: ऐसी रचनाएँ शामिल नहीं है जिसमें राजेन्द्र यादव की शब्दावली उधार लेकर कहें तो ‘स्वतंत्रता के खतरे’ उठाने के बजाय ‘गुलामी का आनन्द’ भोगती पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रस्त स्त्री-देहधारी संभ्रांत महिलाओं को प्रश्नांकित किया गया हो. संभवतः यह एक विधा के रूप में कविता की सीमा भी है. कथासाहित्य में ऐसे पात्र भरे पड़े है.
भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्याशास्त्रियों और सौन्दर्यशात्रियों के अलावा कुछ बड़े कवि-आलोचकों ने भी साहित्य में कल्पना के विभिन्न आयामों की विस्तार से चर्चा की है. कोलरिज का कल्पना-विमर्श तथा हिन्दी कवि प्रोफेसर केदारनाथ सिंह की पुस्तक ‘कल्पना और छायावाद’ लिखने-पढने वालों के मानसिक क्षितिज के विस्तार करती है. उल्लेखनीय है कि इस कल्पना-विमर्श में ‘शिशु-कल्पना’ को बहुत सुन्दर और संभावनापूर्ण माना गया है, जिस पर वर्ड्सवर्थ की रचनाओं के सन्दर्भ में विचार करते हुए पॉज़ ने लिखा है कि शिशु-कल्पना प्रकृति के साथ ही वस्तुजगत से मनुष्य के सम्बन्ध के प्रथम स्पन्दन का एहसास कराती है. कविकुलगुरु कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ में संतान प्राप्ति के पश्चात दशरथ की माता इंदुमती को शैशव की पुलक के संस्पर्श से प्राप्त आनंदानुभूति को ‘चेतना का प्रसार’ कहा है: ‘पाश्चिमात यामिनी यामात प्रसादमिव चेतना’.
गहरे मातृत्व-भाव से ओतप्रोत ’पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ की संवेदनशील रचनाकार के अंत:करण में जब शिशु-कल्पना उद्दीप्त होती है तो जहाँ एक ओर वे अपने बचपन का स्मरण करती हुई माता और पिता को कविता का विषय बनाती हैं, वहीं दूसरी ओर ‘तुम — मेरे बेटे’ जैसी मार्मिक कविता का सृजन संभव होता है:
आँखों का काजल रखा है कजरौटे में
सुन्दर बिल्लौरी झुमके कब से राह देख रहे हैं
कंगन अब चुभते हैं.
भूल चली हूँ सुन्दरता की परिभाषा
और देह के सारे मापगोर्की और सिमोन द बोउआर
अपनी जगह से निष्कासित हैं. . .
किताबों का शेल्फ अब
नन्हीं ज़ुराबों का नया घर हैगहरी साँझ यमन और
उजली सुबह भैरव गूंजते हैं मेरे भीतर
लोरी की लय में
और बगल में सोए पड़े
तुम- मेरे नन्हें बेटे
तुमारी साँसे बजती हैं
सृष्टि के मधुरतम संगीत की तरहमेरे कंधों पर नन्हें हाथ हैं
और उनका कोमल दबाव
नन्हें क़दमों से चलती-गिरती मैं
रोज ज़िंदगी के नए सफ़र पर निकल जाती हूँ.
(पत्थर समय की सीढियाँ, पृ. 123-124)
जीवन और वस्तुजगत से लेकर काव्यजगत तक में साम्य या सादृश्य का अनुभव करने की प्रक्रिया के अनेकानेक उदाहरण वैदिक साहित्य से लेकर हमारे समय तक के साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं. साम्य-भाव की विस्तार से चर्चा करते हुए ओक्टोवियो पॉज़ कहते हैं कि
“सादृश्य अनुरुपताओं का विज्ञान है. यह ऐसा विज्ञान है जो भिन्नताओं के कारण ही अवस्थित है. चूँकि यह वह नहीं है,तो यह संभव है कि ‘यह और वह’ के बीच एक सेतु निर्मित कर दिया जाय. ”
(Analogy is the science of correspondences. It is, however, a science which exists only by virtue of differences. Preceisely because this is not that, it is possible to extend a bridge between this and that.” Childern of the Mire, Page. 72)
एक अन्य स्थान पर पॉज़ ने लिखा है कि ‘सादृश्य वह रूपक है जिसमें अन्यत्व खुद को एकत्व के रूप में देखता है और भिन्नता स्वयं को तादात्म्य के रूप में प्रक्षेपित करती है’. विद्वान मित्रों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि पॉज़ से बहुत पहले आचार्य शुक्ल ने भी हिन्दी कविता के संदर्भ इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया है. दीगर बात यह कि कोलरिज़ ने कविता में जिस ‘रिकोन्शिलिएशन ऑफ़ ओपोजिट्स’ में सौन्दर्य की सत्ता देखते हैं वही आचार्य शुक्ल के यहाँ ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ है, जिसके एक से बढ़कर एक उदाहरण समकालीन हिन्दी कविता में भी मौजूद हैं.
विवेच्य कविता संग्रह में ‘सादृश्य’ एवं ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ के ऐसे नायाब उदाहरण मौजूद हैं जिन्हें विभिन्न कविताओं से एकाध अंश लेकर यहाँ गिनवाना यांत्रिक प्रतीत हो सकता है. इसलिए मूल पुस्तक में ही इन्हें पढ़ना बेहतर होगा. इस दृष्टि से ‘नींद और रात’,’बारिश और नाउम्मीदी से ठीक पहले की दुनिया’,’पन्हाला की एक शाम’, ‘माँ का स्मार्ट फ़ोन’, ‘माँ और नींद’, ‘लौटते हुए जीवन की ओर’, ‘क़ैद’, ‘पुल पर औरत’, ‘नामकरण’, ‘तपस्या’, ‘दुनिया में औरतें’, ‘प्रतिध्वनियाँ’, ‘मृत्यु’, ‘प्रतीकों की आड़ में’, ‘पेड़’, ‘घड़ियाँ और समय’ आदि कविताएँ ख़ास तौर से पठनीय हैं.
‘क़ैद’ कविता पढ़ते हुए शिद्दत से याद आती हैं बोउआर, जिन्होंने लिखा है कि जो व्यक्ति दूसरों की यातना के प्रति हृदयहीन होता है वह अपने लिए बहुत पहले संवेदनहीन हो चुका होता है. इसलिए जहाँ कहीं भी ऐसी स्थिति दिखाई पड़े वहाँ उत्तेजना के बजाय संवेदनहीनता का रेखांकन और उसके कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए, ताकि, उससे ज़ल्द से ज़ल्द निजात मिल सके:
सुनो
अपने साथ मैं तुम्हें भी आज़ाद करती हूँ
तुम नहीं जानते
क़ैदी हो तुम भी उस छल के
जो तुम समझते हो सिर्फ़ मेरा है
जो ज़ंजीरें बाँधती हैं मुझे,
तुमें कहाँ आज़ाद करती हैं
जिसे समझते हो तुम मेरा पिंजरा
दरअसल वह तुम्हारा है
बस उस पिंजरे में आइना नहीं है.
‘घड़ियाँ और समय’ एक अर्थ में जटिल कविता है. तुलसीदास के शब्दों में -‘जिमि मुँह मुकुर मुकुर निज पानी, गहि न जाई अस अद्भुत बानी’. जिस आइने में चेहरा है वह हाथ में है,पर चेहरा हाथ की पहुँच से बाहर है. इस कविता को क़ायदे से हृदयंगम करने के लिए संभव है कि अज्ञेय का ‘काल का डमरूनाद’ निबन्ध और एलियट रचित ‘फोर क्वार्टेटस’ के ‘बर्न्ट नॉर्टन’ कविता की आरंभिक पंक्तियाँ भी सहायक हों:
‘Time present and time past
Are both perhaps present in time future,
And time future contained in time past.
If all time is eternally present
All time is unredeemable.”
‘कवि का चेहरा’ कविता में रचनाकार ने कवि होने के लिए बड़बोलापन के बजाय विनम्रता और लोगों को अपनी ‘उपस्थिति का कम से कम एह्साह कराने’ को मूलभूत अर्हता माना है:
कवि के चेहरे पर कितनी विनम्रता
आँखें कितनी सुलझी
जैसे देख रखे हों उन्होंने तमाम दुःख . . .क्या कवि ने सदियाँ गुजारी हैं
अपने भीतर इंसान होकर
कवि होने से पहले ?
यह अलग बात है कि वांक्षा और अपेक्षा से विलग वास्तविकता को अगर कसौटी मानें तो इस पर वाल्मीकि,व्यास,कालिदास से लेकर आज की कात्यायनी या स्वयं रंजना मिश्र तक, कितने रचनाकार खरे उतर पाएँगे,यह कहना मुश्किल है. अभी हाल में कात्यायनी ने भी लिखा है कि “निष्कपटता और सादगी का अपना विरल और दुर्दान्त सौन्दर्य होता है. जीवन में भी और कविता में भी! स्वार्थ, दुष्टता और क्रूरता को लोगों को छलने और लुभाने के लिए शब्दों और बिम्बों से धुंध और रहस्य भरा जादुई संसार – एक मायालोक रचना पड़ता है. ”
‘मिट्टी की ओर’ पुस्तक के ‘हिन्दी कविता और छंद’ निबन्ध में दिनकर मानते हैं कि-
“प्रत्येक कवि जीवन-भर एक ही कविता लिखता है, अर्थात प्रत्येक कवि की सारी रचनाओं के भीतर कोई एक ही सूत्र व्याप्त रहता है तथा उसकी सभी कविताओं के पीछे एक ही तरह की मनोदशा उपस्थित रहती है. ”
यह ‘एक ही तरह की मनोदशा’ किसी कवि की कविताओं में जिन कुछ विशेष शब्दों के माध्यम से व्यक्त होती है उसे रेमंड विलियम्स ‘बीज शब्द’ (‘की वर्ड्स’) कहते हैं. ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ की कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें ‘बीज शब्द’ है- ‘दुःख’, जो रोजी-रोटी या दैनंदिन आवश्यकताओं के अभाव के बजाए रचनाकार के अस्तित्त्वमूलक भावबोध एवं चिंतन की उपज है. इस दृष्टि से विवेच्य संग्रह की ‘अपना होना’ एक अन्यतम रचना है:
एक दुःख
मेरे भीतर बैठा है
एक ख़ामोशी
उसे स्वर देती है
मैं
इनके बीच
अपना होना तलाशती हूँ.
(पत्थर समय की सीढियाँ, पृ. 151)
अज्ञेय की ‘वेदना में एक शक्ति है,जो दृष्टि देती है. जो यातना में है वह द्रष्टा हो सकता है’(शेखर:एक जीवनी) के साथ ही ‘दुःख सबको मांजता है’ कविता-पंक्ति का स्मरण करते हुए देरिदा की शब्दावली में कहें तो ‘पत्थर समय की सीढ़ियाँ’ कविता संग्रह की अनेकानेक कविताओं में दुःख का जो स्वरूप विनिर्मित (डिकंसट्रक्ट) हुआ है, उसका सम्बन्ध उस ‘विषाद-दृष्टि’ (‘ट्रेजिक विज़न’) से है, जिसे रचनाकार-विशेष के सामाजिक समूह (वर्ग नहीं) से जोड़कर ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ के क्षेत्र में नवीन व्याख्या-विश्लेषण के उद्गाता लुसिएँ गोल्डमान(1913-1970) ने अपने ग्रंथ ‘प्रच्छन्न ईश्वर’ (‘द हिडन गॉड’1964. ) में रासीन (Racine) और पास्काल (Pascal) की रचनाओं का विवेचन किया है.
स्पष्ट ही, यह एक स्वतंत्र विनिबंध का विषय है. इत्यलम.
रंजना मिश्र: ‘पत्थर समय की सीढियाँ’ कविता संग्रह, लिटिल बर्ड पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, कुल पृष्ठ 151, मूल्य: 250 रूपये.
रवि रंजन ई. मेल: raviranjan@uohyd. ac. in mobile. 9000606742 |
बहुत ही सुचिंतित व्यवस्थित और पठनीय लेख।
रवि रंजन जी ने रंजना मिश्रा के कविता संग्रह पर टिप्पणी लिखकर मानो प्राण फूँक दिये हैं । रवि रंजन सजग पाठक, आलोचक और लेखक हैं । इनके अध्ययन का फलक व्मेया है । मेरी धारण है कि बाह्य जगत में घटित घटनाएँ देखकर हमारे मानस पर चित्र अंकित होता है । उसका प्रस्फुटन विद्वान और विदुषी क़लम से काग़ज़ पर उकेरा जाता है । रंजना मिश्रा स्वयं शास्त्रीय संगीत की जानकार हैं । पंडित जसराज इनके प्रिय गायक हैं । अपनी एक कविता पंडित जसराज को समर्पित है । रंजना जी कविताओं में गेयता है । दोनों को साधुवाद ।
लेख पढ़कर कविता संग्रह को जल्द पढ़ने की उत्सुकता हो रही है।कविता में संगीत की अनुभूति इसे और रोचक बना रही है।हिंदी में इस तरह की कविताएँ हमने कम पढ़ी है। यह लेख पढ़ते हुए पंकज चतुर्वेदी सर द्वारा एक लेख में किसी विद्वान का दिया उद्धरण याद आ रहा है कि प्रत्येक कला अपने अंतिम परिणति में संगीत हो जाना चाहती है।यहाँ ‘बची हुई मुट्ठी भर धूप’ जैसे बिम्ब शमशेर की याद दिला रहे हैं।
वहीं ‘अंजुम के लिए’ कविता में यह दिखता है कि समकालीन समय में प्रेम के लिए हमने कितनी कम जगह छोड़ी है । हमारे समय मे सोशल हॉर्मोमी और सहभाव को कितना नुकसान पहुँचा है, किस प्रकार कुछ चुनिंदा लोग आस्था का व्यापार कर रहे यह सब ‘हे राम’ कविता में दिखता है।
जल्द ही इनकी कविताएं पढ़ता हूँ।👏🏼👏🏼👏🏼
प्रत्येक कला अपनी अंतिम परिणति में संगीत हो जाना चाहती है -यह कथन मूलतः: फीलिंग एंड फॉर्म पुस्तक की लेखिका सुसेन लेंगर का है, जिसे नामवर सिंह ने यथास्थान फेरबदल करके प्रस्तुत किया है। इसका उल्लेख इस आलेख में है।
रंजना मिश्र का काव्य संग्रह तो नहीं, आपका नोट्स जरूर पढ़ लिया है जिस कारण काव्य संग्रह पढ़ने का मन हो रहा है। संग्रह समय के अंदर छिपे समय को अपनी संपूर्णता में पकड़ना चाहता है जिसमें मनुष्य की पीड़ा ऐतिहासिक रूप में दर्ज है। विद्वानों के नामों पर न जाएँ, कविताएं उनकी मनीषा की चौहद्दी पार करती लगती हैं। उनमें एक संगीत है जो आदिम राग की तरह सब तरफ़ व्याप्त है। समय की शिला इंसान है जिसमें कविताएं ट्रांसेंड कर रही हैं। फिलहाल इतना ही—-हरि भटनागर
रंजना मिश्र के नये काव्य संग्रह पर रवि रंजन जी की यह समीक्षा सधी हुई है।उन कविताओ की अच्छी मीमांसा की गयी है ।उन्हें और रंजना जी को बधाई !
समीक्षा इसी तरह से लिखी जाती है जिससे कवि की कविताओं को पढ़ने में मदद मिले ।कवियित्री और रवि जी दोनों को बधाई
बहुत समृद्ध आलेख .इस लेख के माध्यम से रंजना जी की कविताओं को समझने का वातायन मिला .स्वप्निल जी की बात से सहमति जताते हुए कहूँगी कि ऐसे आलेख दरअसल कवि और कविता को बेहतर ढंग से समझने के लिए मददगार होते हैं .लेकिन रंजना जी की कविताओं में स्त्री को समझने के जो सूत्र मिलते हैं उनपर और विस्तार से बात की जानी चाहिए थी .कवि और आलोचक को बधाई
सर!
आपकी यह समीक्षा कविता के अध्येता के समक्ष “समीक्षा/ आलोचना क्या होती है? कैसे की जाती है?” इसका आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती है ।
निस्संदेह बदलते समय के साथ कविता के पाठक (अथवा श्रोता) की रुचियाँ भी बदली हैं, बदलती रुचियों को केंद्र में रख कवि को भी युगानुकूल अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करना होता है । आचार्य शुक्ल ने कहा था- “ज्यों- ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों- त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा ।” इस कवि कर्म को मानवीय संवेदना से कैसे जोड़ा जा सकता है? इस संवेदना का उत्स आज की सामाजिक जरूरतों से किस प्रकार जुड़ा हुआ हो सकता है? इन जरूरतों की अभिव्यक्ति के लिए किस प्रकार के शिल्प की आज की कविता को तलाश है? ऐसे कविता-संग्रह इन कसौटियों पर किस प्रकार खरे उतरते हैं? वगैरह कितने ही प्रश्नों के उत्तर कविता-संग्रह की आपकी इस समीक्षा के माध्यम से मिलते चले जा रहे हैं ।
जहाँ कविता के समझदार अध्येता के लिए इस समीक्षा का महत्व कविताओं के मर्म को प्रकट करने की दिशा में समीक्षक की ओर से दिया जा रहा अनूठा योग है, वहीं हम जैसे साहित्य के सामान्य अध्येताओं के लिए ऐसी समीक्षाएँ आदर्श स्थापन तथा दिशानिर्देश का भी काम करती हैं ।
इस उत्तम कविता-संग्रह के लिए आदरणीय रंजना मिश्र मैडम को तथा समीक्षक आदरणीय रवि रंजन सर को भी बहुत बधाई!
संगीत एवं साहित्य की रचना प्रक्रिया के साथ इस रचना (पत्थर समय की सीढ़ियां) का विवेचन काव्य संग्रह को मूल्यवान बना रहा है। कविता की ऐसी सूक्ष्म व्याख्या, आज के समय में कम ही देखने को मिलती है। मैंने भी यह काव्य संग्रह नही पढ़ा है लेकिन आपकी समीक्षा को पढ़कर, इन कविताओं को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गयी है। सर, ऐसी समीक्षा एवं ऐसी रचना से साक्षात्कार कराने के लिए आपको बहुत बहुत आभार एवं बधाई।
कविता संग्रह पर प्रो. रविरंजन जी का यह लेख इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि, इसमें कविता के वस्तु-तत्त्व पर बात करते हुए कविता के रूप-तत्त्व को बिसराया नहीं गया है. कविता में कला की आपसदारी, कविता को जो उंचाई देती है, उसकी ठीक पहचान रविरंजन जी के इस लेख में है. नारी,स्त्री और महिला शब्द के अर्थ-समबन्ध से कविता के तहों की ज़रूरी ख़ोज के रास्ते कविता में स्त्री स्वर की पहचान इस लेख की काया में शामिल है, कविता अपनी परम्परा से कैसे संवाद कर आगे बढ़ती है, के रास्ते निराला, कात्यायनी, अनामिका जी की कविताओं का संदर्भ इस लेख को महत्त्वपूर्ण बना देता है. कविता केंद्रित इस लेख के लालित्य में सिद्धांतों की चर्चा ज़रूरी है. रविरंजन जी ने गंभीरता से इसकी चर्चा की है. इस महत्त्वपूर्ण लेख के लिए उन्हें बधाई और भाई अरुण देव जी का आभार इस लेख तक पहुँचाने के लिए .
रवि रंजन जी ने संग्रह की अच्छी समीक्षा की है। रंजना मिश्र की कविताएँ भिन्न तेवर की कविताएँ हैं – अंतर्वस्तु और भाषा-विन्यास दोनों ही दृष्टि से। इनमें न तो विमर्श की शास्त्रीय शुष्कता दिखती है, और न कोई गलदश्रुपन अथवा भावुकतापूर्ण अतिरेक ही। उनकी काव्यभाषा बेहद सधी हुई और दृढ़ है, और इसके बावजूद कृत्रिम अथवा आयातित नहीं है। यह विशुद्ध अर्बनाइज्ड मिडिल क्लास की भाषा और मुहावरे हैं, और मेरी दृष्टि में बिल्कुल तर्कसम्मत भी हैं। भाषा और कथ्य को कवि और कविता के आंतरिक र्द्वंद्व का कारण बनने से बचना भी चाहिए। इसलिए रंजना जी का व्यक्ति और उनका कवि – दोनों ही मुझे बहुत सहज लगते हैं।
अलबत्ता समीक्षा थोड़ी बौद्धिक निर्लिप्तता के साथ लिखी गई है, और इस वजह से कहीं-कहीं बोझिल और एकांगी भी हो गई है। सन्दर्भों के आग्रहपूर्ण प्रयोगों से विषय वैविध्य पर अपेक्षित बातचीत होती नहीं दिखती, जबकि यह पर्याप्त लंबी और स्पेस के दबाव से मुक्त समीक्षा है। अग्रज नीलकमल जी ने इस तरफ़ साफ़-साफ़ संकेत भी किया है। इसके बाद भी कहूँगा कि इसे काफ़ी बौद्धिक श्रम में साथ लिखा गया है, और थोड़े धैर्य के साथ पढ़ कर इससे भाषा और दृष्टि की व्यापकता तो अर्जित की ही जा सकती है। एक बात और कि समीक्षा स्वयं में कोई स्वतंत्र रचना नहीं है, लेकिन इस सत्य से परे मैं समालोचन में छपी किसी समीक्षा को भी एक रचना की तरह ही पढ़ता हूँ। यह टिप्पणी भी इसी दृष्टिकोण का परिणाम है।
Prabhat Milind .आपने पढ़ने का कष्ट उठाया,यह बड़ी बात है। धन्यवाद।
विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि स्पेंगलर समेत दुनिया के अनेक बड़े विचारकों ने समीक्षा या आलोचना को कविता,कहानी,उपन्यास के समानांतर एक स्वतंत्र विधा माना है।किंतु,उसकी प्रक्रिया भिन्न है।रचना में जहां लेखक के जीवनानुभवों और जनानुभवों का संश्लेषण तरल रूप में अवबोध के तौर पर अभिव्यक्त होता है,वहां आलोचना संश्लिष्ट अनुभवों के वैचारिक विश्लेषण की मांग करती है।यह लेखक और आलोचक की क्षमता पर निर्भर है कि वह इसमें किस हद तक सफल हो पाता है।अपनी सीमा का मुझे खुद अंदाज़ा है।
आलोचना में और खास तौर पर अकादमिक आलोचना में निर्लिप्तता दोष के बजाय गुण मानी जाती है,क्योंकि केंद्र में पाठ या टेक्स्ट होता है जिसे परिवेश के मद्देनजर डिकोड करने की चेष्टा की जाती है।इसके लिए लेखक से दूरी और मूलपाठ से नज़दीकी तथा ‘दुराग्रह से मुक्ति’ बुनियादी शर्त है।
रचनाकार से दूरी इसलिए कि उसके संभावित अच्छे या बुरे व्यवहार के कारण आलोचना में अनावश्यक स्तुति या निंदा से बचा जा सके।
आलोचक को भी गंभीर अकादमिक लेखन में ‘मैं’,’मेरी मान्यता है,’मेरा मन्तव्य है’ आदि सस्ते व चालू मुहावरे से बचना पड़ता है।संभवत: इसआलेख में इसका कड़ाई से अनुपालन किया गया है।
अंतिम बात यह कि आए दिनों अखबारों में या ब्लॉग पर तथाकथित ‘पुस्तक समीक्षा’ के नाम पर छपने वाले ‘आत्मीय’ ढंग से या कई बार आशीर्वादी मुद्रा में लिखित ‘पुस्तक परिचय’ की तरह के लोकप्रिय लेखन या ब्लॉग लेखन (जिसका अपना अलग महत्त्व है ) से भिन्न यह एक गंभीर अकादमिक लेखन का प्रयास है, जिसमें रचना या आलोचना लिखने वाले के मुकाबले वे मुद्दे महत्त्वपूर्ण होते हैं जिन पर रचना के संदर्भ में भी और उसके बगैर भी विचार किया जा सकता है।यहां मुद्दा स्त्री-मुक्ति है और स्पष्ट ही काव्यालोचन होने के कारण सन्दर्भ विवेच्य कविता संग्रह ‘पत्थर समय की सीढियां’ है।
उदाहरण के लिए जार्ज लुकाच की ‘राइटर एंड क्रिटिक’ या ‘हिस्ट्री एंड क्लास कॉन्सियसनेस’, हिंदी में रामविलास शर्मा की ‘आस्था और सौदर्य’, मैनेजर पांडेय की ‘उपन्यास और लोकतंत्र’, नामवर सिंह की ‘वाद विवाद संवाद’ आदि पुस्तकें किसी खास साहित्यिक कृति के बारे में नहीं हैं,पर बारम्बार पठनीय हैं। यथास्थान श्रेष्ठतम रचनाओं के जगमगाते अंशों से समृद्ध इन आलोचनात्मक पुस्तकों का गद्य भी कम ‘गरिष्ठ’ नहीं है।वजह यह कि ये आम लोगों के बजाय विषय-विशेष में गहरी रुचि रखने वालों के लिए लिखी गयी हैं।’वाद विवाद संवाद’ का पहला निबन्ध मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ की पुस्तक समीक्षा के रूप में लिखा गया था जिसके प्रकाशन के पूर्व ही मुक्तिबोध का निधन हो गया और उसका इलाहाबाद में बालकृष्ण राव द्वारा संचालित ‘विवेचना’ की गोष्ठी में वाचन किया गया था,पर वह ‘पुस्तक समीक्षा’ मुक्तिबोध पर रचित किसी आलोचना पुस्तक से कम महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जाती।
अपनी रुचि के विषय साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की प्रविधि से विचार-सूत्र लेकर लिखित यह निबन्ध इस कविता संग्रह का कोई अंतिम मूल्यांकन नहीं है।
उम्मीद है कि नीलकमल और आप समेत कुछ और विद्वान -सहृदय मित्र इस श्रेष्ठ कृति पर विस्तार से ज़रूर प्रकाश डालेंगे,ताकि, मेरे लिखे में जो छूट गया है वह हिंदी कविता के हित में सामने आ सके।
ऐसे,अगर मैं खुद इसे दुबारा लिखूँ तो संभवतः ज़्यादातर निष्कर्ष भले न बदलें,पर आलेख का रूप कुछ और होगा।
कुछ विद्वान मित्र यदि समय निकालकर सारस्वत श्रम करें तो सौंदर्यशास्त्र, भाषाशास्त्र, शैलीविज्ञान,विनिर्मितिवाद या विखंडनवाद(डिकॉन्सट्रक्शन ), स्त्रीवाद आदि से विचार-सूत्र लेकर इस संग्रह की कविताओं की अनेक व्याख्याएं संभव हैं।इससे ज्ञान का विकास होगा और हमसब समृद्ध होंगे।
नील कमल नामक किन्हीं कवि या आलोचक को ‘पत्थर समय की सीढ़ियां’ कविता संग्रह पर केंद्रित इस आलेख में कुछ विश्वविख्यात चिंतकों के नाम देखकर इतनी दहशत हुई कि उनसे दो अनुच्छेद से आगे बढ़ा न गया। साफगोई के लिए उनको धन्यवाद।उन्होंने अपनी टिप्पणी को समालोचन के फेसबुक पृष्ठ के साथ यहां दर्ज करने की ज़रूरत नहीं समझी।
देरिदा की ‘स्पेक्टर ऑफ मार्क्स’ किताब याद आ रही है।
निवेदन है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के यशस्वी प्रोफेसर, डॉ.लोहिया के व्यक्तिगत मित्रों में एक सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक तथा हिंदी के कृती कवि एवं आलोचक विजयदेव नारायण साही ने लिखा है और सही लिखा है कि ‘आलोचना साहित्य का दर्शनशास्त्र है।’
भारतीय काव्यशास्त्र में भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से लेकर पंडितराज विश्वनाथ के ‘साहित्यदर्पण’ पर किसी न किसी रूप में वेदांत दर्शन का प्रभाव है, जिसके तहत वहाँ काव्यानंद को ‘ब्रह्मास्वाद सहोदर’ बताया गया है।
ठीक इसी प्रकार आधुनिक काल का साहित्य अपने जमाने के वर्चस्वशाली दार्शनिक सम्प्रदायों एवं निकायों से प्रभावित रहा है। भारतीय महाआख्यानों (Grand Narrations) में जगह-जगह दार्शनिक सूत्र पिरोए हुए हैं, जिनमें वेदांत सर्वप्रमुख है।वजह यह कि हजारों सालों तक यह भारत की ‘नॉर्मेटिव आइडियोलॉजी’ रहा है।
निराला की सुप्रसिद्ध ‘तुम और मैं’ कविता का वैचारिक मेरुदण्ड ‘शांकर अद्वैत वेदांत’ नहीं है तो और क्या है।इसलिए उस पर आलोचना लिखते समय भगवत्पाद शंकराचार्य के गीता, ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषद पर लिखे भाष्यों में से आवश्यकतानुसार कुछ का यथास्थान उल्लेख स्वाभाविक और ज़रूरी है।
विनोद कुमार शुक्ल ने उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में कथानायक रघुवर प्रसाद के बारे में उपन्यासकार ने बार-बार उसके ‘खुद से ओझल हो जाने’ का उल्लेख किया है।यह शंकराचार्य द्वारा बृहदारण्यक उपनिषद पर लिखे भाष्य में बहुविध विवेचित ‘स्वयं के प्रति अनभिज्ञता’ है। सापेक्ष पत्रिका के विशेषांक में निबन्ध प्रकाशित हो जाने के बाद विनोद जी से जब मैंने इस बाबत सवाल किया था तो उन्होंने सहमति जतलाई थी।
दामोदर धर्मानन्द कोसंबी समेत अनेक विचारकों ने उदाहरण देकर समझाया है कि भवभूति के उत्तररामचरितम में कहाँ-कहाँ बौद्ध दर्शन के सूत्र काव्य में अनुस्यूत हैं।दिनकर ने तो उदाहरण देते हुए यहां तक लिखा है कि यदि वाल्मीकि और भवभूति के बीच महात्मा बुद्ध का प्रादुर्भाव न हुआ होता तो भवभूति के लेखन में करुण रस की इतनी महिमा संभव न होती।
विदित हो कि संसार-भर के आधुनिक साहित्य को मार्क्सवाद,अस्तित्ववाद,मनोविश्लेषणवाद, गांधीवाद,स्त्रीवाद, अम्बेडकरवाद आदि अनेक विचारधाराओं ने कमोबेश प्रभावित किया है, जिनसे जुड़े दसियों बड़े विचारक-आलोचक हैं।
सार्त्र, जॉक देरिदा,मिशेल फूको, फ्रांसिस फ़ैनन,नोम चॉम्स्की आदि ने भी रचनाकारों को प्रभावित किया है।इनमें अनेक चिंतक विश्व के क्लासिकी साहित्य के पाठक भी रहे हैं।मार्क्स के ‘पूंजी’ ग्रन्थ के आरम्भ में ही दांते की मार्मिक पंक्तियों का उल्लेख इसका एक प्रमाण है।
‘पत्थर समय की सीढ़ियां’ की कविताओं में जाने-अनजाने रेडिकल फेमिनिज्म से लेकर इंटीग्रेटेड फेमिनिज्म तक की सिद्धांतिकी का जगह-जगह काव्यात्मक उन्मेष दिखाई पड़ता है और कोई चाहे तो केवल “स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में ‘पत्थर समय की सीढ़ियां” में संकलित कविताओं पर स्वतंत्र रूप से विचार कर सकता है।
विदित है कि आलोचना में भी रचनाओं की तरह प्रच्छन्न अन्तरपाठीयता होती है ।
रचनाकार दार्शनिक सूत्रों का अपने जीवनानुभव के साथ घुलावटी रसायन तैयार करके अवधारणा (conception) को अवबोध (perception) में तत्त्व-अन्तरित कर कविता रच सकता है,पर आलोचना लिखते समय अवबोध से अवधारणा की ओर उन्मुख होते हुए बड़े चिंतकों का नाम लिए बगैर उनके विचारों, पदबंधों,पारिभाषिक शब्दावलियों का उपयोग करना अकादमिक कृतघ्नता है।यदि कोई ऐसा करता है तो वह ‘धन्य’ है।
इसलिए बड़े विचारकों का नामोल्लेख करना अपनी अकादमिक सत्यनिष्ठा को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है।इससे घबराने के बजाय इन्हें यथासंभव पढ़ने-जानने की ज़रूरत है।
एक बात और कि पूरी ज्ञान परंपरा से विच्छिन्न होकर केवल अपनी ‘अंतर्दृष्टि’ से श्रेष्ठ रचनाओं का विवेचन-विश्लेषण कोई ‘ब्रह्मज्ञानी’ ही कर सकता है,सहृदय आलोचक नहीं।
सुदीर्घ और अन्वितिपूर्ण आलेख लगा। आप किसी विषय या काव्यपंक्ति को, तमाम संदर्भों से जोड़ते हैं, जिससे एक बड़ी दुनिया खुलती जाती है। मेरी समझ से इस लेख को समीक्षा से कुछ ज्यादा कहना चाहिए।
रंजना जी की किताब पर आपका गंभीर विश्लेषणात्मक लेख बहुत महत्वपूर्ण है।रंजना जी के महत्व को रेखांकित करते हुए यह निबंध अनेक दिशाओं में रास्ते प्रशस्त करता है।स्त्री प्रश्न को भी नये तरीक़े से देखा गया है।मैं विद्वान रवि जी का अभिनंदन करते हुए रंजना जी का भी अभिनंदन करता हूँ ।अस्तु
अभी यह आलोचना खंड पढकर समाप्त किया। रंजना मिश्र की कविता के साथ तुलनीय गद्य पद्य संयोग से मैंने पढ रखा है सो बहुत अच्छा लगा। आपकी आलोचकीय दृष्टि और वितान बहुत समृद्ध करता है। विशेषकर हमारी तरह के मात्र साहित्य के पाठक न कि ज्ञाता को ।
बहुत बधाई
रंजना मिश्रा की अद्भुत कविताओं पर इतनी व्यापक, गहन समालोचकीय दृष्टि का कायल हूँ!एक साथ कार्ल मार्क्स, लुकाच,अरस्तु,पाज,कालिदास, अज्ञेय,दिनकर जैसे अनेकानेक धुरंधर कवियों,विचारकों को उद्धृत करते हुए रचनाओं के मर्म तक पहुँचने की इस सुचिंतित, सुबुद्ध,श्रमसाध्य और सतेज दृष्टि को मैं नमन करता हूँ!स्त्री विमर्श के इस दौर में स्त्री अस्मिता के प्रश्नों को बिना लाउड हुए कलात्मक सूझ बूझ और तीक्ष्णता के साथ पाठकों के सम्मुख जाहिर करने का रचनात्मक कौशल अद्वितीय है!आपने जिस तरह उम्रदराज औरतों का ठुमरी के मुखड़े पर वापस आने के संदर्भ को आलोचकीय विवेक से जोड़ा है और उनके अस्तित्व को बड़ा कैनवास दिया है,निश्चय ही उल्लेखनीय और स्पृहणीय है।रचनाओं के संदर्भों को अर्वाचीन और प्राचीन ,पाश्चात्य और पौर्वात्य चिंतनधाराओं से जोड़ते हुए जो समग्र बौद्धिक प्रयास किया है उसके लिए आपका अभिनंदन!
रवि सर और रंजना मैम को बहुत बधाई। समन्वित आलोचनात्मक दृष्टि एवं विश्लेषणात्मक लेख।