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Home » रूपम मिश्र की कविताएँ

रूपम मिश्र की कविताएँ

रूपम मिश्र का पहला कविता संग्रह ‘एक जीवन अलग से’ अभी प्रकाशित ही हुआ है. उनकी प्रेम कविताओं में भी समाज और उसकी अनीति पथरीली जमीन की तरह बिछी रहती है, चुभती है और बताती है कि प्रेम का भी यथार्थ होता है जिसे समकालीन यथार्थ से आँखें चुराकर न जिया जा सकता है न लिखा जा सकता है. उनकी कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
March 29, 2023
in कविता
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रूपम मिश्र की कविताएँ
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रूपम मिश्र की कविताएँ

1.
हँसी और देस

कितनी पीड़ाओं से निथर कर आती है एक अशरीरी हँसी
मैं जी भर पीना चाहती हूँ वह हँसी
जो किसी सधे ख्याल की तर्ज नहीं तीतर पक्षी की मध्यम टेर सी है
या किसी जलपाखी की अपने जोड़े के लिए झझक कर उठी पुकार है

किसी पर्वत से निःसृत होकर निकले जलप्रपात के नाद सी हँसी
जरूर इसे ही हमारे पुरखों ने गंगाजल या आबे ज़मज़म कहा होगा

पर थोड़े से छीटें मुझपर पड़े नहीं कि खो जाती है हँसी
मैं हँसी से कहती हूँ कभी खुलकर हँसो खूब हँसो
इतना कि मैं भीग जाऊँ उसमें

जब मुझे छूकर बहती रहती है वह हँसी
मैं चुपके से चुराती रहती हूँ उसे
और अंजुली भर-भर कर नहाती हूँ उससे
फिर सारी देह में लपेटकर ओढ़ लेती हूँ वह हँसी

वह हँसी तब हमारे गुस्से में नन्ही बच्ची की तरह दुबकी रहती है
जब घंटों की बहस के बाद परिणाम में भी बस गुस्सा बचता है
और तब अचानक बाँहों में समेट कर कहते हो तुम भाड़ में क्यों नहीं जाती मेरी जान!

मैं तुम्हारी हँसी से एक देश बसाना चाहती हूँ
देश नहीं देश में झगड़े हैं
एक गाँव पर गाँव भी नहीं गाँव में रिवाज और पंचायतें रहती हैं
अच्छा एक देश नहीं देस!
देस जहाँ झंडे नहीं अपने रहते हैं
एक घर, जहाँ की दीवारों पर तुम्हारी फिरोजी हँसी बिछलती होगी
जहाँ दिन में बच्चे खेलने आएंगे
रात में चाँद को चिढ़ा कर हम प्यार करेंगे

देस वह जहाँ प्रेमी कभी बिछड़ते न हों
देस जहाँ अखबार खेतों में आये
खेत जहाँ किसी मेड़ पर बैठकर चाय पीते हुए
तुम मुझे कम पढ़े गये कवियों की कविता सुनाना

देस जहाँ किसी बच्चे के जेहन में कोई घिनौनी और क्रूर स्मृति न हो
देस वह जहाँ कोई भूखा न रहे और नींद के लिए तरसते मन न हों
देस जहाँ किसी खेतिहर की जमीन छीनी न गयी हो
बंदूक लाठी और कचहरी के दम पर

जहाँ कोई परदेश न जाये और जाये भी तो अपनी माँ माटी और प्रेमिका को न भूले
देस वह जहाँ इंसानों से ज्यादा फूलों के नाम होते
और मैं हर बार किसी नए फूलों के नाम से तुम्हें पुकारती

देस जहाँ साथ चलने के सिवा कोई ख्वाहिश नहीं होती
जहाँ और पा लेने की अदम्य इच्छा और खुद के ही पाले गये सपनों का बोझ न हो
जहाँ किसी विमर्श में उलझकर हम दिन भर रूठे न रहते

देस जहाँ दो रूहों को प्रेम होना सबसे बड़ा मांगलिक कार्य माना जाता
जहाँ उत्सवों में धार्मिक नारों से दिल न दहलता
देस जहाँ सावन और चैत सबके लिए एक जैसा होता.

 

2.
बेसम्भार रूलाई

यह एकदम ठीक समय था धरती और मौसम दोनों पर हरे, गुलाबी रंग ढरक गये थे
सारे रंगों को लेकर मैं लिख सकती थी तुम्हारे प्रेम में कुछ चम्पई प्रेम कविताएँ
ऐन उसी वक्त पश्चिम से उठी रुलाई की कुछ बेसम्भार आवाज़ें
वे महज आवाज़ें नहीं थीं और न अपनी बिरादरी की आवाज़ें थीं
वह सम्पूर्ण मनुष्य रुदन की वेदना पर चढ़ा राग था
सांझ का वह पहर वहाँ की भूमि से उठे रक्तिम कणों से मड़ियाया था
मन एकदम थोर हो गया जैसे चहकते, बसेरे लौटते पक्षियों को शिकारी ने मार गिराया
देह और मन दोनों दुःख से लहज गये

रुलाई रोकने से गले में उठी पीड़ा सही नहीं जा रही थी कि तभी सत्ता का चरण दबाता निर्लज्ज अखबार और नौ मन मेअकप पोते एक एंकर ने आकर कहा किसानों का उपद्रव चार की जान गयी

मुझे टीवी में चमचमाते रंग भयावह लगने जैसे उस जमीन पर बिखरे खून का कहीं हरियर कहीं सूखा रोगन हो, मैं उठकर आँगन में आ गयी जहाँ कुछ अंधेरा था
अंधेरे से छन कर कुछ चेहरे वहाँ भी आये
जो हँसते तो उनके लाल दाँत दिखते

मैं सोचती रही कि अब कोई डायरों को उनके नाम से क्यों नहीं सम्बोधित करता
उन्होंने मुझपर तीखी हँसी फेंकी और कहा सप्तसूर्य जुते हमारे रथ के पहिये हत्या और झूठ को धरती पर लीपते चल रहे हैं
मुझे सच में दिखाई पड़ी एक रक्त से लिपी सड़क जो बढ़ती चली आ रही है

अब जब बल बर्बरता के लिए किसी ओट का आसरा नहीं ले रहा वह “जबरा मारे रोवई न देई , की हिटलरी थीम पर मचकते चल रहा है

तो तुम ही कहो हमारी आँख की ओद में पला वह कोमल प्रेम जिसने परदीठि नहीं सही
उसे घसीट कर यह कहाँ ले जायेंगे
इनके हाथ मनुष्य के गले पर हैं और उनमें असंख्य उँगलियाँ उगी हैं जिसे वे जनमन की आँख में धंसाते चल रहे हैं

हम साथ मिलकर एक जीवनगीत गा रहे थे पर अंतरे तक पहुँचे भी नहीं थे कि पार्श्व से यातना की रहन उठी और हम फफक कर रो पड़े.

 

3.
स्पार्टकस के लिए

एकदिन रोम देखना था
नहीं-नहीं स्पार्टकस का रोम देखना था
जहाँ तुम पैदा हुए स्पार्टकस
कैसे बहती होगी वहाँ हवा
क्या वहाँ सूर्य ज्यादा लाल उगता है

जहाँ देह में तुम जंजीर पहन कर चले
और फिर एक दिन उसे तोड़ आजादी को दोनों हाथों से मिट्टी में बोते चले

वारिनिया तुम्हारी ! तुम्हारी वारिनिया !
तुम्हारी साथी, दोस्त, प्रेमिका
एक प्रकाश का खंड, दहकते सूर्य से निकली आग, एक वस्त्रविहीन देह गरिमा अडिग सी खड़ी
तुम्हें हमेशा दुलारती, चूमती वह लड़की मुझे याद आती रहती है
और अब अक्सर मैं उससे पूछती हूँ
हम बिछड़ने पर क्या करेंगे
वह अब भी एक समझदार बच्ची की तरह सहज कहती है ‘तब हम मर जायेंगे’ मैं रो पड़ती हूँ उसके पवित्र भोलेपन पर
मैं झट से तुम्हारी जगह खड़ी होकर बोलती हूँ
नहीं हम बिछड़ कर भी जिंदा रहेंगे
हम सारी दुनिया के शोषितों के पास जायेंगे
उन्हें रोम और स्पार्टकस की कहानी सुनायेंगे.

 

4.
सदियों की पीड़ा

जब भी मुझे सदियों की पीड़ा को
परिभाषित करना पड़ा
तो स्त्री और किन्नर ही पहली पंक्ति में आये!

दर्द के नाते से तो हम एक ही जाति के हुए
आखिर आह ही तो हम दोनों नस्लों की पहचान है
और उस संबंध से तो हम सगे हैं

तो ऐ ग़म-आशना ! कभी आओ ना मिलकर रोयेंगे
तुम्हें ही बताना है कि
कब , कहाँ और कैसी तल्खियां चिपकी हैं मन पर

बचपन में तुम्हें देखते ही डर जाना
बड़े होने पर इंतिहा तक नफ़रत की
बसों में ट्रेन में, बाज़ार, मेले में तुम मिल जाते थे
घृणा से मुँह फेर लेती थी
सब के लिए माफी मांगनी है

मुझे लगता कि यह अश्लीलता तुम्हारी फ़ितरत है
घिन आती मुझे तुम्हारी भाषा से
अब जाना तुम्हारा कोई कसूर नहीं
पुरुष लिप्सा की लिजलिजी दुनिया में
पेट भरने के लिए
तुम्हें यही आसान लगा

वह तुम्हारे गंदे इशारों और भद्दी गलियों
पर बेहयाई से हँसकर पैसे निकालते हैं
आखिर स्त्रियों का सुहाग और संतान असीसते
कहाँ पेट भरता तुम्हारा !

अब तुम्हें देखते ही मन करुणा से भर जाता है
तुम्हें भी उसी ईश्वर ने बनाया
जिसने हमें बनाया
तुम्हें भी चोट लगने पर पीड़ा होती है
तुम्हें भी प्यार करना भाता है
तुम भी हमारी तरह जन्म लेने पर रोये थे
तुमने भी पहली बार माँ शब्द ही कहा होगा

हमारे आँसुओं का स्वाद निश्चित एक ही होगा
और भाषा की शायद जरूरत ही न पड़े हमें

घर में देवर की शादी थी, नाचते हुए एक बार तुमने
नेग के लिए एक नई दुल्हन की ठोढ़ी
दुलार से छू लिया था !
भय और घृणा से काँपने वाली वह जाहिल मैं ही थी !
लगा था कि किसी ग़लीज़ जानवर ने छू लिया !

अब सोचकर लज्जित होती हूँ कि
कितनी अमानवीयता थी मुझमें
एक अनगढ़ प्रेम ने मुझे सबसे प्रेम करना सिखाया.

 

5.
शालू सिंह

तुम बबुवाने से पढ़ने आती थीं शालू सिंह

तुम लड़की थीं और स्कूल जाती थीं,
और तुम साइकिल से स्कूल जाती थीं

तुम हमारे जमाने की पहली लड़की थीं जो इंटर कॉलेज जाती थीं

शालू सिंह तुम्हारी आँखों में चश्मा फबता था पर सारे शुकुलाने, तिऊराने, दुबाने, पड़ाने और तो और बबुवाने के लड़कों की आँखों में चुभता था तुम्हारा चश्मा

तुम्हें देखते ही वे टेपरिकार्डर की तरह बजने लगते थे गोरे गोरे मुखड़े पर काला काला चश्मा

हम दुपट्टे और बालों को कसकर बांधने वाली लड़कियां तुम्हें हसरत से देखतीं थीं
साध को मन में दबाकर बतियाते कि शालू सिंह यह कहती हैं वह पढ़ती हैं शालू सिंह दुपट्टे को गले में लपेटतीं हैं

और वहीं हमारे घर के लड़के हिक़ारत से कहते ज्यादा शालू सिंह न बनो

तुम्हारे कटे बाल जब हवा में लहराते तो हम दो चोटी वाली लड़कियों को बहुत अच्छे लगते थे
पर उन्हीं सलीके से कटे बालों को वे लौंडा कट कह कर चिढ़ाते

उन दिनों स्कूल के डीह जैसे लड़कों के गोल में चर्चा का एक ही विषय होता शालू सिंह
जिसमें गल्प को सच साबित करने के लिए विद्या कसम बार बार खाया जाता

अब जबकि दुनिया तेजी से भयावह लगने लगी है तो एकाएक तुम याद आ जाती हो शालू सिंह

तुम्हें बहुत बार साइकिल से धक्का देकर गिराया गया
पर तुम मरी नहीं शालू सिंह
जिंदा रहीं और स्कूल भी आतीं थीं

उस चलन की पुरनकी लड़ाई अब भी लड़ी जा रही है
अब भी हमारे पूर्ण मनुष्य होने पर प्रश्न चिन्ह रखे जाते हैं शालू सिंह !

 

6.
सम्भ्रांत हिंसा

ये वही पानीदार दिन थे जिनका धूप से वादा था!

जेठ के घटते दिनों में जिस दिन बादलों का मन मलिन हुआ और रात सुहानी हुई हम विरात तक जागते
करते रहे हँसखेल
जैसे गीली धरती पर हम हेराये फूलों के बीज बो रहे थे

तभी तुमने मुझे औचक चूमकर कहा तुमसे प्रेम है
तब तक मेरे पास प्रेम के कई अर्थ और भाषा में उनके संदर्भ पर संदेह आ गये थे
पर तुमने सारे आधुनिक घटकों को दरकिनार करते हुए चुना प्रेम का वही आदिम अर्थ
आदमी-औरत के सम्बन्ध-कर्मठ में सदियों पीछे खड़े थे तुम

जबकि हमें तभी तय कर लेना चाहिए था बहुत जीर्ण हो चुकी है वह भाषा
बहुत पक्षपाती थे उस चलन के कायदे

मेरी इच्छाओं को महज़ अनुमान तक जानने वाले तुम
मुझे आलिंगित करने से पहले तुम्हें जानना चाहिए था मेरी अनिच्छाएँ भी

पर तुमने जरूरी नहीं समझा
बताते रहे अपनी इच्छाएं ,सुनाते रहे प्रणय के बस वह गीत जिसमें तुम थे अपनी इच्छा और अधीरता के साथ
जिसमें इस नयी दुनिया की स्त्री को उतना ही रखा जाता कि जितने में वह तुम्हारी जगह न घेरे

बाकी लड़ाई चलती रहे कोई बात नहीं
बस ये हो कि लड़ाई की जगह तुम्हारी ही बाँहों का घेरा हो
लड़ाई भी तुम्हीं से हो
हाथ नाजुक ही हों और उससे हल्की और मीठी चोटें तुम्हें लगतीं रहे

हाँ ध्यान रहे इतना कि कोई भी वार कठोर न हो
नहीं तो तुम्हारे अंदर का अभिजात आदमी जाग सकता है
जो इतना तो हिंसक बचा ही है कि स्त्री को चरित्रहीन होने की बात अपनी अकादमिक भाषा में गाली देकर एक सम्भ्रांत हिंसा करते हुए अहिंसक होने की पूर्ण भूमिका भी निभा ही लेगा.

 

7.
दुःख और पीड़ा की बात

जब प्रेम में दिन-रात याद नहीं रहे
याद नहीं रहे अपने और उनके डर
सपने भी हम लगभग भूल गये थे
याद रही तब भी दुःख और पीड़ा की बात

बात जिसे कहते – सुनते हम कई बार अनायास रूठे और मान भी जाते
कितनी बार ये भी हुआ कि मैं अकेली नाराज रही और मिलने पर तुम कभी जान न पाये
फिर भी कह पाने के सुख से ही ओधे-बिधे रहे हमारे मन

जीवन से जूझते हुए प्रेम करने और मनसायन के प्रेम में बड़ा फ़र्क होता है दोस्त
हमें अहमक कह हँसती रही वह डकारती संस्कृति जिनके “अपने सुखे सुख अपने दुखे दुःख थे

मैं तो कहती हूँ ले चलो कहीं जहाँ जाकर कुछ याद न रहे
याद न रहे हरपल उजड़ती धरती
सच कहते अकेले पड़ते विक्लांत करुण मन
बहुरते दुःखों से मनमारे चेहरे
जिनकी बेबस आँखों में जाने कैसे एक कमजोर सी आस अब भी झिलमिलाती है
जरा सी खुशी पर खिलखिलाती प्रार्थना सी हँसी

आह और आशीषों की वह दुनिया जहाँ की अनवरत वेदना पर आत्मा थकी सी बैठी है.

 

8.
अपने -अपने सुख

जिसको जहाँ जाना था वह वहाँ गया
हम भी वहीं गये जहाँ हमें जाना था
अपने सुख चुनने का था सब को अधिकार
हमने भी अपना ही सुख चुना
तुम तो जानते हो सुख के कितने अर्थ होते हैं

कितने तो दिन-रात आते हैं धरती पर
हमें एक भी न मिलें कि सब भूलकर जौनपुर से बनारस जाती सड़क से दिखते गेंदे के फूलों से भरे खेत के किसी मेड़ पर कंधे जोड़कर बैठते
ढलती साँझ देखते , उस वासंती पहर को जी भर जीते

लेकिन क्या जिया हमने
एक ही जीवन में कई जीवन जीने का संताप

देह-घृणा शीश पर धारे देश-जवार में
प्रेम में होना जलती रात का जनम होता है
जुड़ावन जीवन साध ही रहा
पर अबकी वसंत सहा नहीं जाता
किसी संयोग पर पतियाया नहीं जाता

तुम तो जानते हो ना सुदिनों का सही अर्थ
तुम्हें याद है ना पीले कनेर की महक
तुम मेरे कच्चे मन का मान न करना
ढांक के फूलों के खिलने पर चले आना
घाम और अंजोरिया के कैलेंडर से दिन-तारीख तय करना
अबकी हाथ पकड़कर चूड़ियों की गली में चलना
और खनकती लाल चूड़ियाँ उसी मुस्कियाती मनिहारिन से पहनूँगी
जो हमें हमारे सम्बन्ध से जानती है
अगर अब भूल भी गयी हो तो क्या

हम लाल रंग तो चीन्हते हैं ना!

 

9.
पीड़ा और राजनीति

हमने लिखा प्रेम वह खुश हुए हमें धरती कह खुद को सूरज, चाँद, आसमान, ग्रह, नक्षत्र सब मान बैठे

विरह लिखा तो तड़प उठे और साथ खड़े होकर वेदना में स्वर मिला दिये
प्रणय लिखा मान्यवर मगन रहे
हमें ही प्रेम का आदि और अंत सब कहा
और अपनी लफ़्फ़ाज़ी से बनाये ताज को हमारे सिर धर कर हमें अनुगृहीत किया

लिखा हमने मात्र स्त्री दुःख वह दुःखी हुए और साथ आकर हमसे भी तेज रोने लगे

इस तरह हमारा मन बढ़ गया एक दिन हमने लिखा भूख, सारे शोषितों की आह, उनकी सुविधाओं की परत, जंगल, पेड़ और नदियों का दुःख

उन्हें तब अच्छा नहीं लगा
वे कहने लगे बहुत राजनीति कर रही हो

बहुत बेस्वाद जायका था हमारी उस कहन का
उन्हें बार-बार उबकाई आयी
और अपने चौतरफ़ा, चमचमाते बुकशेल्फ की ओर देखते हुए कहा बहुत आगे बढ़- बढ़कर कहना अच्छा नहीं होता.

रूपम मिश्र
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

‘एक जीवन अलग से’ कविता संग्रह प्रकाशित
मनीषा त्रिपाठी स्मृति अनहद कोलकाता  सम्मान (2022) से सम्मानित

rupammishra244@gmail.com

 

Tags: 20232023 कवितानयी सदी की हिंदी कवितारूपम मिश्र
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Comments 12

  1. Anonymous says:
    2 years ago

    बेहद शानदार कविताएँ

    Reply
  2. डॉ. सुमीता says:
    2 years ago

    विडम्बनाओं और पीड़ाओं की व्यथा के साथ टटकेपन की सहज सुवास है रूपम जी की कविताओं में। सभी कविताएँ सुन्दर हैं।

    Reply
  3. मोहन कुमार डहेरिया says:
    2 years ago

    वेहद शानदार कविताएं। वहुत वधाई रूपम मिश्रजी को।
    मोहन कुमार डहेरिया

    Reply
  4. मनोज पांडेय says:
    2 years ago

    प्रेम रूपम मिश्र की कविताओं की प्राण वायु है पर उनके यहाँ प्रेम और प्रतिरोध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए उनके इस समाज में स्वीकृत अर्थों में जो प्रेम की दुनिया है उस पर बार-बार संदेह है, उसकी मीमांसा और चीर-फाड़ है। जिसके बाद प्रेम की पितृसत्तात्मक राजनीति इस कदर खुलती है कि अब तक प्रेम की तारीफ करने वाले लोग भी बरबस कह उठते हैं कि बहुत ‘राजनीति कर रही हो।‘ पर इस उलाहने से बेपरवाह रूपम मिश्र की कविताओं में प्रेम की परिधि इस कदर अपरिमित है कि उसमें किसान हैं, दूसरे जेंडर के लोग हैं, भूख है, सारे शोषितों की आह है, जंगल, पेड़ और नदियों के दुख हैं रुलाइयाँ हैं और साथ में एक ऐसे देस का सपना भी कि – ‘देस जहाँ दो रूहों को प्रेम होना सबसे बड़ा मांगलिक कार्य माना जाता/ जहाँ उत्सवों में धार्मिक नारों से दिल न दहलता/ देस जहाँ सावन और चैत सबके लिए एक जैसा होता।‘

    Reply
  5. तेजी ग्रोवर says:
    2 years ago

    नए अहसास हैं इस कविता में। भाषा भी इन एहसासात के साथ फड़कती हुई, जानदार।।

    कहीं कहीं ज़रा कसाव की ज़रूरत लगी मुझे। पहली नज़र में।

    Reply
  6. Savita Pathak says:
    2 years ago

    तुम ही कहो हमारी आँख की ओद में पला वह कोमल प्रेम जिसने परदीठि नहीं सही
    उसे घसीट कर यह कहाँ ले जायेंगे
    इनके हाथ मनुष्य के गले पर हैं और उनमें असंख्य उँगलियाँ उगी हैं जिसे वे जनमन की आँख में धंसाते चल रहे हैं..रूपम की प्रेम कविताओं में एक एंटीडिस्टोपिया है। वह प्रेम को प्रतिरोध से अलग नहीं करतीं उसके साथ चलती हैं। एक पुरानी बोली तकरीबन तिरस्कृत बोली में एकदम आधुनिक मिजाज़ है इन कविताओं का।

    Reply
  7. आमिर हमज़ा says:
    2 years ago

    इसके पहले भी रूपम मिश्र के लिखे को दीगर माध्यमों से पढ़ता रहा हूँ। कुछ ही दिन बीते रूपम मिश्र की कविता-किताब ‘एक जीवन अलग से’ भी पढ़ी। यह कहने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं है मुझे कि इधर की कवयित्रियों में रूपम मिश्र बाकायदा कवि हैं। हमारे यहाँ प्रेम पर ख़ूब कहा गया है। इधर भी प्रेम पर मानो बाढ़ सी आई हुई है। हर दूसरा कवि प्रेम को एक बार ज़रूर कह देने की इच्छा से भरा हुआ है। लेकिन, हम जिस मुआशरे का हिस्सा हैं वहाँ अक्सर लोग यह कहते पाए जाते हैं कि ‘मैं, वह’ उससे (फलां से) प्रेम करता/करती हूँ। बहुत से कवि भी इस गिरफ्त से ख़ुद को बचा नहीं पाते। जबकि ‘प्रेम करना’ और ‘प्रेम में होना’ दो बिलकुल अलहदा बातें हैं। इसकी समझ के लिए ‘नज़र’ का होना पहली शर्त है। यह कुछ ऐसा है कि जैसे स्पर्श को स्पर्श की ख़बर तक न हो और स्पर्श कर लिया जाए…रूपम मिश्र के यहाँ यह नज़र, यह स्पर्श बखूबी दिखलाई पड़ता है। कवयित्री को पहली कविता-किताब के लिए ख़ूब बधाई और शुभकामनाएं!

    Reply
  8. Daya Shanker Sharan says:
    2 years ago

    एक स्त्री का भोगा हुआ यथार्थ ठीक वही नहीं होता जो एक पुरूष का होता है।इन कविताओ में एक स्त्री की आँख है।उस आँख से
    चीजों को देखना और महसूसना एक अलग अनुभव है।इनमें प्रतिरोध
    के स्वर काफी तीखे और आक्रामक हैं जो रूपम मिश्र की काव्य-यात्रा
    को एक अलग दिशा और ऊँचाई प्रदान करते हैं।

    Reply
  9. Anil Karmele says:
    2 years ago

    रूपम की कविताओं में प्रेम, बेचैनी और प्रतिरोध एक साथ देखे जा सकते हैं। यह विचार की समझ मनुष्य के असली दुश्मन को पहचान लेने से बनी है।
    रूपम को शुभकामनाएं

    Reply
  10. कैलाश मनहर says:
    2 years ago

    रूपम मिश्र की ये कवितायें प्रेम के अनचीन्हें वातायनों को खोलती हैं और हमारी समाज व्यवस्था की जर्जर दीवारों को तोड़ने का प्रयत्न भी करती हैं | इन कविताओं का एक अलहदा मुहावरा बनना चाहिये | प्रेम और प्रतिरोध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यह बात इन कविताओं को पढ़ते हुये बार बार कौंधती रहीं | इतनी अच्छी कवितायें पढ़वाने के लिये समालोचन को साधुवाद |

    Reply
  11. बजरंगबिहारी says:
    2 years ago

    रूपम की कविताएं विचलित करती हैं, दृष्टि देती हैं, प्रेमाकुल-प्रश्नाकुल बनाती हैं। उनकी एक आख्यानमूलक कविता ‘शालू सिंह’ मुझे सर्वाधिक अच्छी लगी।

    Reply
  12. सुशील मानव says:
    2 years ago

    रूपम मिश्रा की कविताएं देश, समाज, सत्ता, पितृसत्ता व प्रेम की लैंगिक राजनीति को बहुत करीने से उघाड़ती हैं। उनकी सघन स्मृतियां और देशज़ भाषा तथा संवाद की शैली सब मिल कर उनकी कविताओं को एक नयी ज़मीन तैयार करती हैं। उनकी कविताएं परम्परा में बहुत कुछ तोड़ फोड़ मचाती हैं बावजूद इसके परम्परा का ही सिरा पकड़
    आगे बढ़ती हैं। लेकिन जब वो अपने दायरे से बाहर निकलती हैं जहाँ स्मृति नहीं विचार की ज़मीन पर वो कविता का वितान रचती हैं वहां कविता डांवाडोल होने लगती है।

    Reply

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