साँप अंजली देशपांडे |
हिन्दी के दलित साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके रत्नकुमार सांभरिया हाशिए के समाज पर विरल उपन्यास लेकर आये हैं: ‘साँप’.
सपेरा-कालबेलिया के साथ बाजीगर, नट, मदारी, कलंदर, बहुरूपिया, पेरना और अन्य घुमंतू जातियों की जीवन-दशा, रहन-सहन, रीत-रिवाज की गहरी समझ से ओतप्रोत उपन्यास कहीं भी यह एहसास नहीं होने देता कि यह शोध पर आधारित है. खुद सांभरिया का कहना है कि उन्होंने घुमंतुओं इस बस्ती में महीनों बिताये, उनके जीवन में घुल-मिल गए और तब जाकर यह उपन्यास बना. यही कारण है कि घुमंतुओं के पात्रों में परकाया प्रवेश का इसमें कहीं अभाव नहीं खटकता. घुमन्तुओं की बोली तक को सांभरिया ने ऐसे आत्मसात किया है कि वह सहज रूप से उपन्यास में प्रवाहित होती हैं.
भाषाई करतब
खड़ी बोली के आदी पाठकों को इसकी भाषा कुछ दुरूह लग सकती है, लेकिन इधर-उधर अंग्रेज़ी के कुछ शब्दों से छुंकी हुई, हरियाणवी और राजस्थानी बोली-बानी का सुमधुर संगम उपन्यास के सबलतम पक्षों में एक है. लोकोक्तियों से जड़े कहन में कहीं कोई लोच नहीं. वाक्य छोटे और संवाद चुस्त हैं.
वे हरियाणा और राजस्थान की बोलियों से चुन-चुन कर ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं मिर्च की सिसकारी तो कहीं जंगली बेर की मिठास का स्वाद इसमें आ गया है. अच्छी बात यह है कि उपन्यास के अंत में उन्होंने इन कुछ शब्दों के हिन्दी में अर्थ की सूची भी बतौर एंडनोट दिए हैं, जिससे उपन्यास को समझने में काफी मदद मिलती है.
दलित सौन्दर्यशास्त्र
‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ में शरणकुमार लिम्बाले कहते हैं कि दलित जिन उपकरणों और औज़ारों का उपयोग करते हैं, तत्सम शब्दावली में उनके लिए शब्द हैं ही नहीं क्योंकि सवर्ण जीवन के अनुभव जगत से न केवल दलित बल्कि उनसे जुड़ी हर वस्तु बहिष्कृत है. इस परिष्कृत भाषा में दलित जीवनानुभव एकदम अवर्णित रह सकते हैं. क्योंकि उनके पेशे भी सवर्ण अनुभव जगत का अंग नहीं हैं, इसीलिए उनकी भाषा में इनके लिए कोई शब्द भी नहीं हैं. मोची के गांठे जूते आप पहनते हैं, लेकिन उसके औज़ार का नाम जानते हैं क्या?
‘साँप’ में दलित सौन्दर्यशास्त्र का सुन्दर प्रकटीकरण है. बस्ती की गंदी हालत का बयान करते हुए भी कहीं अगर घिन का भाव है तो उच्च वर्ण और वर्ग की निगाह से पेश किया गया है. इसमें गरीबी का महिमामंडन नहीं है.
“अम्बर अंगड़ाई ले रहा था
अवनि अरड़ा रही थी.
सरसता समीर बह रहा था…
कॉर्नर का प्लॉट था. प्लॉट सपना. सपना प्लॉट. दोनों एकमेक.”
इन शब्दों से सीधे एक सेठ परिवार की बढ़ती संपत्ति के जीवन दृश्य में खींच लेने वाला उपन्यास पाठक को फ़ौरन अपनी गिरफ़्त में ले लेता है. इसी प्लॉट पर सेठ मुकुंददास जेठ-जेठानी से परेशान अपनी पत्नी मिलन की मंशा के चलते अपने लिए अलग ह्वेली, अलग दुकान बनवाने जा रहे हैं. नई इमारत की नींव खुद रही है और इसी में साँप निकल आता है, वह भी कोबरा जिसकी दुम का एक हिस्सा फावड़े से शायद कट गया है. इसी नींव में तो नाग-नागिन का चाँदी का जोड़ा समर्पित करना था, जीवित नाग का अब क्या करें ? संपेरे को लाना होगा.
इस तरह शहर के पॉश इलाके में धनाढ्य सेठ के घर में पदार्पण होता है, लखीनाथ सपेरे का. गठे बदन का 22 वर्षीय युवा, धूल-धूसरित और जांबाज़. अकल्पनीय साहस से वह कोबरा को तो निकाल लेता है, मगर सेठानी मिलनदेवी को काम-पिपासा का सर्पदंश दे जाता है, जो उपन्यास की विषयवस्तु तो है ही उसके समानांतर घटनाक्रम को सूत्रबद्ध करता है.
एक प्रेम कहानी की उलझन
लीक से हट कर विषय चुन लेने मात्र से उपन्यास नई दुनिया की सैर कराने के बावजूद नए सत्य का उद्घाटन कर पाने में कितना अक्षम हो सकता है ‘सांप’ इसकी मिसाल है.
मिलन के अनोखे और सांकेतिक प्रणय निवेदन की झांकी शुरू में ही मिल जाती है. लखीनाथ के यौवन पर मोहित सेठानी मिलनदेवी अपने सर में साँप घुस जाने का अनोखा नाटक रचती है. वैद्य और डॉक्टर कुछ कर ही नहीं सकते और हार कर पति मुकुंददास लोहे को लोहे से कटवाने के लिए सपेरे को ही ले आते हैं. जेठ-जेठानी के आग्नेय दृष्टि की परवाह किए बिना, पति को भी कमरे से निकाल कर मिलनदेवी सपेरे से अपने शयनकक्ष में अकेली ही मिलती है. यह हवेली में विद्रोह की पहली गूँज है. वह अपने सर में घुसे साँप की पीड़ा बताती है.
“मिलन ने एक आँख को करीने से बंक दी– ”लखीनाथ एक-एक डेरा छत तले हो जाएगा, तुम नाम पा जाओगे…. सेठानी की आँख बंक उसे काण लांघती लगी. सेठानी ! असत !
“आपा खो बैठा था वह. ‘सेठानी की बच्ची ! गली को जानवर समझ लियो है. इने इसो सबक सिखाऊं, पूरी जिंदगानी सर में साँप घुसन को कामन ना रचे.”
अब संपेरे से मिलन की चाह शहरी, सुशिक्षित और अनिंद्य सुंदरी मिलनदेवी को किसी न किसी बहाने उनकी बस्ती में ले जाती रहेगी कि वह किसी तरह एक बार ही सही उसका संसर्ग प्राप्त कर सके.
यहाँ से ही उपन्यास की दिशा तय सी हो जाती है. आगे चल कर लखीनाथ मिलन के मोहपाश में बंधता तो है, पर कभी भी आपा खो देने की हद तक नहीं. निस्संतान मिलन के दुःख से द्रवित लखीनाथ उसे संतान सुख देने के लिए संसर्ग को मान भी जाता है. मिलन उसके वचन के तौर पर उसकी मूँछ का बाल तक हासिल कर लेती है, जिसे अपने आभूषणों की मञ्जूषा में रत्न-सा सजा लेती है. पर हर बार लखीनाथ कदम पीछे हटा लेता है. यहाँ उपन्यासकार के ही चरित्र की अवधारणा आड़े आ जाती है.
उसके प्रेम में पड़ कर अपने एनजीओ, जन-मन समिति के सहारे पूरी बस्ती के अस्थाई निवासों को स्थाई निवासों में बदलने के मिलन के संकल्प और खुद खानाबदोशों द्वारा इस दिशा में सहयोग की धुरी पकड़ कर उपन्यास आगे बढ़ता है.
एक संवेदनशील स्त्री के मन में उनके लिए सम्मान और करुणा दोनों का मिला-जुला भाव जागने के बाद उसके हस्तक्षेप से उनके जीवन में परिवर्तन की जो लकीर खिंचती है, उसकी व्याख्या करता उपन्यास धीमी गति से आते परिवर्तन की पहचान भी करता चलता है.
समानांतर पात्र और कहानियाँ उभरने लगते हैं. बस्ती जीवंत हो उठती है. उनके आपसी रिश्ते, पारिवारिक ढाँचे, पंचायतों की पारिवारिक कलह सुलझाने में भूमिका, वर्दीधारियों के ज़ुल्म और सवर्ण समाज की उनके प्रति हिकारत एक-दूसरे से गुंथ कर एक सघन और बहुत हद तक विश्वसनीय उपन्यास को जन्म देते हैं.
पुरातन का महिमामंडन नहीं है
उपन्यास की ताकत यह है कि सांभरिया ने इस बस्ती की आबादी की कोई आदर्शवादी सुखी समुदाय की तस्वीर पेश नहीं की है. “झुग्गियाँ ! छतें तिरपाल. गार-मिटटी लिपी सरकंडों की दीवारों का लेब धुल गया था. सरकंडे ऐसे दिख रहे थे, जैसे मृत पशु की खाल उतरने पर उसकी हड्डियाँ दिखती हों. किवाड़ों की जगह फटी-पुरानी धोती झूल रही थीं.”
उनके समाज के शोषण के साथ ही आंतरिक कलह भी लेखक की दृष्टि में बराबर बने रहते हैं. जैसे सपरानाथ रमती को पाने के लिए ही उसके पति को धोखे से यह कह कर विषैला नाग पकड़ा देता है कि उसका विष निकाल चुका है और उसी साँप के काटे उसके पति की मौत हो जाती है.
बस्ती में घोर गरीबी में पल रहे आत्मसम्मानी घुमंतुओं के जीवन की कहानियाँ सहजता से उजागर होती जाती हैं. सांभरिया ने कहीं भी इन पात्रों को दयनीय नहीं बनाया न ही उन्होंने इनके जीवन और पात्रों का रूमानीकरण किया है. बस्ती में भालू भी हैं, खरगोश भी, बन्दर भी और कुत्ते भी और उनके साथ बस्ती के लोगों के आत्मीय संबंधों का चित्रण करते हुए भी उपन्यासकार जंगल से नन्हे जीवों को उनके माता-पिता से छीन लेने की निर्ममता को भी नज़र से ओझल नहीं करता.
उपन्यास खानाबदोशों की ज़िंदगी की गलीज परिस्थितियों का बेहिचक खुला वर्णन करता है. उनकी गरीबी के साथ वन पशुओं की धर-पकड़ में उनके बेमिसाल हुनर और इसमें निहित क्रूरता और उनको परिवार के सदस्य की तरह अपनाने की ममता का भी यह ईमानदार दस्तावेज है.
मज़बूत स्त्री पात्र
उपन्यास की जान हैं इसके स्त्री पात्र और उनकी खुद्दारी. वे अपने शराबी पतियों की मारपीट को सदैव झेलने को भी तैयार नहीं रहतीं, विरोध भी करती हैं, विद्रोह भी. अपनी बात कहने में उन्हें देर हो सकती है, मगर जब वे कुछ ठान लेती हैं तो डट कर सबका मुकाबला भी कर लेती हैं.
शादी ब्याह में कुछ लचीलेपन के बाद भी उनका समाज है तो पुरुष प्रधान ही. इससे उनका अनवरत संघर्ष उपन्यास को तीखापन देता है. उनका आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता कथावस्तु और कहन में गूंथा हुआ मिलता है.
इस समाज का भी सच यही है कि स्त्री अपनी देह पर अधिकार को विवाह के सन्दर्भ में ही परिभाषित कर सकती है. पति की मौत के बाद रमती का विवाह अपने से चार साल छोटे देवर लखीनाथ के साथ हो जाना भी इसी व्यवस्था का अंग है. समुदाय में विवाहेतर यौन संबंधों के प्रति कुछ सहिष्णुता के चलते अनिच्छित विवाह के उत्पीड़न से मुक्त होने की संभावना है. फिर भी स्त्री को पुरुष की ही छत्रछाया में ही रहना चाहिए, यह भी इसका अनकहा सत्य है. लापरवाह या निष्ठुर पति से छुटकारे का मार्ग है, पर दूसरे पुरुष के सहारे ही मंजूर किया जाता है.
बस्ती के घुमंतू भली-भाँति जानते हैं कि बेकिवाड़ कच्चे डेरे उनको कितने ही आक्रमणों का निशाना बना सकती है. स्त्रियों पर यौन आक्रमण की आशंका भी है तो खुले में स्नान के समय खुद अपने ही समाज के पुरुषों की घूरती आँखों का उत्पीडन भी. इस जीवन के यथार्थ का कोई भी कोना उपन्यासकार की आँखों से बचा नहीं.
उपन्यास के स्त्री पात्र समाज से बाहर के सत्ताधारियों की भी सताई हुई हैं तो अपने ही परिवार के पुरुषों की भी.
सपरानाथ, जिसकी सगाई रमती बाई से उसके ही दुर्व्यवहार के कारण तोड़ दी गयी थी, के रह-रह कर रमती पर यौन आक्रमण की कोशिश और रमती का विरोध उपन्यास की प्रमुख पात्र रमतीबाई के जीवन का त्रास बना रहता है. यही लखीनाथ की पत्नी है और मिलन को संतान सुख के वादे के तौर पर दिए पति के मूँछ के बाल की लाज रखने के लिए अपना नवजात शिशु उसकी गोद में डाल देती है. रमती निर्विरोध ऐसा नहीं करती. पहले वह पति से पूछना नहीं भूलती कि उससे पूछे बिना उसकी कोख की संतान का सौदा कर कैसे लिया?
रमती मज़बूत और जटिल पात्र है. अन्य पुरुष के घर जाकर पति में भी ईर्ष्या जगाने की कोशिश करती पति को जतलाती है कि उसे भी चाहने वाले बहुत हैं. वही राख का टीका पति को लगा कर मिलन के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से रोकने का भी उपक्रम करती है.
ऐसी ही सबल स्त्री है सरकीबाई. मदारन सरकीबाई को अकेली पाकर थानेदार उससे बलात्कार कोशिश करता है. अपने पालतू कुत्ते, चीपू, के सहयोग से सरकीबाई का ज़ोरदार और सफल विरोध उपन्यास का महत्वपूर्ण प्रसंग है. सरकीबाई डरती भी है पर थानेदार के जोर-जबर का शिकार न बनने का उसका संकल्प उसे हिम्मत भी देता है. “उसने चाक़ू उठाया और अपनी मुट्ठी में दबा लिया. गुस्साए ओठ बुदबुदाये,
‘अब आ. तेरा दीदा काढ़ लूंगी. बदमाश, गुण्डा, हरामी, नीच. जेल जाणो मंजूर, नोह ना छू पावोगो, मेरो. चलो आयो नीच कहीं को, सेंतमेत की है, सरकी मदारन.”
घुमंतू समाज के रीति रिवाज
शराब पी कर औरतों के साथ मारपीट, दूसरी स्त्री के साथ घर बसाने के बाद पत्नी के पास डेरे पर महीने में एक बार आना और रुपया खसोट ले जाना, यह सब भी इस समाज का दैनंदिन का यथार्थ है. लेकिन इस समाज की स्त्रियाँ कुछ हद तक ही इसे बर्दाश्त करती हैं. ऐसे ही एक पति के खिलाफ पत्नी का खुला विद्रोह, देवर के साथ रहने के लिए पंचायत में उसका बयान, जहाँ विवाहेतर यौन संबंधों के प्रति उस समाज में प्रचलित कुछ सहिष्णुता का परिचय देता है, वहीं विवाहेतर संबंधों को विवाह में परिणत करवाने की उनकी रीत और रूढ़ को भी उजागर करता है.
देवर से सम्बन्ध को तभी तक पंचायत अवांछनीय मानती है, जब तक कि पत्नी पति के साथ है. उसे छोड़ कर वह देवर, या किसी भी पुरुष, के साथ गठबंधन के लिए स्वतंत्र है. केवल जुर्माना ही भरना होगा. संभ्रांत समाज के कड़े क़ानून और अदालती लड़ाई के मुकाबले यह लचीलापन अवश्य स्त्री को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता देता है. पंचायत में उसका बेबाकी से बोल पाना कथित संभ्रांत समाज में सराही जाने वाली स्त्री की चुप्पी की अपेक्षा घुमंतू समाज के उदार रिवाजों को रेखांकित करता है.
घुमंतुओं के जीवट का चित्रांकन
यह कहानी सिर्फ उत्पीड़न की नहीं बल्कि उससे लोहा लेने के जीवट की है. घुमंतू जातियों पर यह हिन्दी का पहला उपन्यास तो नहीं है, पर अनेक मायनों में अलग है. इसमें रीति-रिवाज या पुरानी मान्यताओं से बंधे घुमंतुओं के अपनी जीवन- शैली और जीवन-दर्शन को बदलने से इनकार की जगह शहरी सभ्यता से निरंतर संपर्क के चलते कुछ हद तक जीवनदशा को बदलने की इच्छा और उस दिशा में कदम उठाने की तैयारी का रेखांकन बड़ी स्वाभाविकता से हुआ है.
अंग्रेजों द्वारा बनाए क़ानून में जिन्हें जरायमपेशा या आपराधिक जनजातियाँ माना जाता था, उस क़ानून के निरस्त होने के बाद भी उनकी स्थिति और उनके प्रति पूर्वाग्रह लगभग जस के तस बने हुए हैं. उनके जीवन में परिवर्तन की सुस्त धारा उपन्यास का विषय है. इसी तरह भालू, बन्दर के नाच दिखाने वालों के पेशे को गैरकानूनी करार दिए जाने के बाद उनके पुश्तैनी पेशों के अधिकार की रक्षा के आग्रह से उपन्यास मुक्त है. उनके अन्य पेशों में प्रवेश की संभावनाओं को अनदेखा नहीं करता. क़ानून की गिरफ्त में आने की आशंका और उससे बचने के उपायों को भी जगह मिली है, जो उपन्यासकार को वन्यजीवों के भी अधिकारों के पक्ष में खड़ा करता है. कई मायनों में उपन्यास बदली आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए उसे आज के समय में स्थापित करता है.
वन पशुओं का पक्ष
सांभरिया अपनी संवेदना सिर्फ मानवों के लिए बचा कर नहीं रखते पशुओं को भी उसमें भरपूर हिस्सा देते हैं. एक बार जंगल से मानव आबादी में आ जाने के बाद इंसानों पर निर्भरता और उनसे पनपे रिश्तों को भी वे अनदेखा नहीं करते.
रीछनी से उसका चार-पाँच दिन का नन्हा बच्चा छीनने का सीका और समोतर का कारनामा क्रूरता की पराकाष्ठा है. “सीका ! बिलाव दांव ! गड्ढे के किनारे तक पहुँच उसने अपने कंधे से कम्बल उतारा और फैला कर पानी पीती रीछनी पर फेंक दिया. वह पूरी की पूरी कम्बल से ढँक गयी और छटपटाती-छटपटाती उलझ कर पानी में गिर गयी. पास खड़े समोतर ने बच्चे को कम्बल में लपेटा. दोनों ने उसे उठाया और भागते-भागते सड़क पर आ गए थे. दोनों की साँसें लौट आईं और मौत के कुएँ से निकल आने का सुखद अहसास हुआ.”
मदारी मीघा और घीघा जिस तरह बन्दर के सात-आठ दिन के दो बच्चों को पकड़ते हैं, इसका भी संक्षिप्त लेकिन दिल हिलाने वाला वर्णन है.
“फंदे में बंदरिया. जाल में मछली. एक बच्चा मीघा ने उठाया. दूसरा घीघा ने बाहों भरा. बंदरिया रस्सी को दाँतों से काट कर उनके पीछे दौड़ी. उन्होंने दोनों बच्चों को टाबरों की भाँति लत्तों में लपेट लिया और दुबका कर टेम्पो में बैठ गए. शोकाकुल बंदरिया दूर तक टेम्पो के साथ दौड़ती रही. फिर दम हार बैठी…. सात-आठ दिन के ये बच्चे फाहे से मुलायम… एकदम हताश, निराश, खोये-खोये, बिन माँ रोये-रोये. बच्चे न कुछ खा रहे थे, न कुछ पी रहे थे.”
इसके बाद मीघा की घरवाली उनको स्तनपान कराती है. रोज़ी-रोटी के लिए क्रूरता के साथ-साथ ऐसा ममत्व का मेल ! इस जीवन की यही सच्चाई है.
इसी तरह भालू को परिवार से पहले ही खिला देने की दयालुता के वर्णन में भालू के मनोभावों को भी खूब बयाँ किया है, लेखक ने.
“भालू भूख से बेहाल था. वह मुँह से धरती सूँघता था. आँखें काढ़े चूल्हे में सिंक रही रोटी घूरे जाता था. मेरी कमाई, रखूँ समायी ? भालू की घूर को महिला समझ गयी थी. उसने चूल्हा निकली रोटी चिमटा से पकड़ ली… भालू के सामने रखी झाबड़ी में रोटी रख, वह फिर चूल्हे के सामने आ बैठी.”
रीछ को संटी लेकर जो खेल सिखाया जाता है, उसका ज़िक्र भर है पर लेखक उसकी बारीकियाँ नहीं बताते जिसमें उनको तरह-तरह से दुःख देकर, चोट पहुँचा कर ही नाचने के लिए बाध्य किया जाता है. वरना दो पैरों पर खड़े होकर नाचना रीछ के लिए स्वाभाविक नहीं होता.
बाद में इस तरह के खेल-तमाशों में पशुओं के इस्तेमाल को गैरकानूनी घोषित कर दिए जाने पर इन्हीं जानवरों को यह घुमंतू जंगल में छोड़ आते हैं.
“रीछ और भालू जंगल में छोड़ कर सीका और समोतर ने खुद की ओर आती आँच (क़ानून के तहत दंड की आँच) तो बुझा ली, लेकिन उनको जंगल की मुसीबत को सौंप दिया. जंगल उनके लिए विचित्र था. वे जंगल के लिए अजीब थे. बियाबान उनके लिए आफत था.”
आखिर एक खेत में घुस जाने पर यह दोनों लट्ठ लेकर पीछे दौड़ते किसानों से बचते हुए वापस सीका समोतर के डेरे पर लौट आते हैं. बाद में इन्हें थाने ले जाकर वन अधिकारी को सौंप दिया जाता है. इनके साथ रोज़ खेलने वालों की जगह पुलिस का और वन अधिकारी का इन जानवरों से डरना उनकी हास्यास्पद स्थिति का वर्णन है.
एक कमज़ोर पात्र
सबसे कमज़ोर पात्र इसमें मिलन के पति सेठ मुकुंददास का ही है. इससे उपन्यास में तनाव और टकराव की जो संभावना बनती है वह अपने वादे को निभा नहीं पाती.
शुरुआती हिस्से के बाद से मुकुंददास एक छाया की तरह रह जाते हैं. पत्नी को वे ही सुझाते हैं कि बस्ती का सर्वे करें और इन घुमंतुओं का जीवन सँवारे. इस तरह लखीनाथ से लगातार मिलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं, जो सपेरे के साथ उनकी तनातनी के सन्दर्भ में अस्वाभाविक लगता है. सपेरे से उन्हें ईर्ष्या है तो उपन्यास में तो नहीं है. मुकुंददास की संतानोत्पत्ति की अक्षमता उन्हें इतना शर्मिंदा रखती है कि वे अब पत्नी के क्रियाकलापों के प्रति तटस्थ हो चुके हैं, ऐसा भी कुछ उपन्यास नहीं जतलाता.
“पतिव्रता पति से संतान सुख पाती है. सूखा की पीड़ा झेलती अवनि, औलाद के आलिंगन उर्वर हो हरियाली राग-मल्हार गाती है. यहाँ हर माह ऋतुमति होकर भी शाश्वत नाउम्मीदी है. देह, खामोश चीख !”
देह खामोश चीख? संतानहीन स्त्री माने ‘सूखा की पीड़ा’! साम्भारिया के यह विचार ही लीक से हटे उपन्यास वस्तु को संकरी पगडंडी पर बनाये रखते हैं. संतान सुख की स्त्री पुरुष की इच्छा की सच्चाई से इनकार किये बिना भी क्या स्त्री जीवन का कोई और लक्ष्य नहीं ?
इस वर्णन में ‘पतिव्रता’ शब्द स्त्री से लेखकीय अपेक्षाओं की खुली उद्घोषणा है. उनके सांस्कृतिक सीमाओं का रेखांकन है. क्या संतान सुख का अभाव ही अन्य पुरुष की ओर आकृष्ट होने की शर्त है ? वे मिलन के उद्दाम प्रेम को इसी तरह जायज़ ठहराने की कोशिश में लगे हैं. यही कारण है कि दोनों प्रमुख पात्रों के विवाहित होते हुए भी परस्पर आकर्षण को उसकी परिणति तक पहुँचाने का साहस वे नहीं जुटा पाते.
इस तरह वे उपन्यास को एक घुमंतू के बच्चे को पंचायत के सामने गोद ले लेने के अविश्वसनीय अंत तक पहुँचाते हैं. अभी तक तय था कि यह सब गुप्त रहेगा और मिलन गर्भवती होने का नाटक भी कर ही रही थी. फिर अचानक आया यह मोड़ अविश्वसनीय हो जाता है.
तनाव और संकट निवारण
मिलनदेवी के एनजीओ के दखल के ज़रिये खानाबदोशों की जीवन दशा में परिवर्तन की कोशिश भी कई डगर पार करती हुई नौकरशाही के पूर्वाग्रहों और टाल-मटोल के तरीकों को सामने लाती है. क़ानून की बारीकियों पर उपन्यासकार की गहरी पकड़ है. पुलिसिया ज़ुल्म के वर्णन न अतिरंजित हैं, न ही उसका विरोध अतिरंजित है. यथार्थ की संभावनाओं के भीतर दैनंदिन जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराता उपन्यास कई मायनों में नए शिल्प, नई भाषा और नए मुहावरों के सहारे रोचक बन पड़ा है.
इन तमाम खूबियों के बावजूद कुछ तो है, जो उपन्यास की मुख्यधारा को कमज़ोर सा बनाता है. इस पर अंगुलि रखना कठिन है, मगर असंतोष का भाव धीरे-धीरे घर करता जाता है. उपन्यास में अनेक संकट आते हैं. एक बार तो लखीनाथ सहित कुछ औरों को पुलिस एक लूट के मामले में फंसाने की कोशिश करती है. लखीनाथ के पास चाँदी का वह सिक्का भी मिल जाता है, जो मिलनदेवी ने ही उसे पहले दिन नींव में से साँप पकड़ने के एवज़ में बतौर इनाम दिया था.
लगता है कि अब उपन्यास वह मोड़ लेगा जो कभी अखबार की सुर्खियाँ नहीं बनते. लेकिन उपन्यास मिलनदेवी के दौलत, सौन्दर्य और रसूखदार लोगों से निजी दोस्ती के सहारे हर संकट से घुमंतुओं को बचा ले जाता है. इसी तरह घुमंतुओं के आवास की समस्या भी मिलन की दौलत और सरकारी अमले में जान-पहचान के ज़रिये आती हर अड़चन को लाँघ जाती है. लखीनाथ के प्रति मिलन का प्रेम और आकर्षण जगज़ाहिर है. इसके बारे में उपन्यास के पात्रों को भी भान है, शंका है लेकिन उसे कभी भी बड़ा संकट बनने नहीं दिया गया है. न यह मिलनदेवी और उनके पति के बीच ही विवाद या मन-मुटाव का करण बनता है न ही अन्य पात्रों में कोई इसे मिलनदेवी को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल करता है.
लेखकीय हस्तक्षेप और साहस
गाँव-अच्छा-शहर-बुरा की अवधारणा से अभी तक शहरी सांभरिया भी मुक्त नहीं हैं, जो दलित सच्चाई से वाकिफ लेखक में आश्चर्यजनक लगता है. मिलनदेवी जब गंवई देहात की सी होकर, चाँदी के जेवरों से लदी-फंदी, घाघरा-चोली में गाँव की और निकलती है तो उसके मनोभाव यह हैं-”वह गंवई गंध से सराबोर थी”. मन-मन बुदबुदाई- ‘सच, ख़ूबसूरत है गाँव. शालीन और सौम्य. शहर, चमक धमक भड़कीला. बनावटी’. उसे देख कर रमती सपेरण भले नाक-भौं चढ़ाए, लखीनाथ की आँखें हटाये नहीं हटेंगीं”. (पृष्ठ 188)
लेखकीय साहस तब डगमगा जाता है, जब वे खुद इसी अवधारणा से मुक्त नहीं हो पाते कि वैवाहिक बंधन को हर कीमत पर निभाना चाहिए या उससे बाहर संबंध को विवाह की दिशा में ही बढ़ना चाहिए.
यह उनके मुख्य पात्रों, मिलन और लखीनाथ, के संबंधों की व्याख्या में मिलता है. खुद लखीनाथ मिलन के प्रति बाद में आकर्षित होने के बावजूद उससे शारीरिक संबंध सिर्फ इसलिए स्थापित नहीं करता, क्योंकि वह अपनी उस पत्नी से दगा नहीं करना चाहता, जिससे प्यार होने की बात कहीं भी उपन्यास में नहीं है.
रमतीबाई उससे चार साल बड़ी है, जो उसके बड़े भाई की विधवा थी और उसके बच्चों की माँ भी थी. यह एक पत्नीत्व का ऐसा आदर्श है, जिसे वे तोड़ नहीं पाते. यही नहीं, वे इसे ही चरित्र का अभिन्न अंग बनाते हैं. ऐसा आग्रह मिलन की तरफ से नहीं है, वह पति के साथ रहती हुई भी अन्य पुरुष के प्रति अपने आकर्षण और उस आकर्षण के प्रेम में तबदीली को सहजता से स्वीकार करती हुई लगातार अपने प्रेमी को हासिल करने की चाहत पाले रहती है.
उपन्यासकार की दृष्टि की सीमा
सांभरिया की दृष्टि की सीमाओं ने ही इस उपन्यास को लीक से हटाने का मौका उनसे छीन लिया. वे रूढ़ से हाथ छुड़ा नहीं पाए. उनका नायक अगर धीरोदात्त नहीं है तो पूरी तरह उसका विलोम भी नहीं बनता. मिलन का नख शिख वर्णन और उसके अनिंद्य सुन्दरी होने का लोभ अगर संवरण कर लिया गया होता तो उपन्यास इस खीझ को कुछ घटा सकता था कि उनकी नायिका हर तरह से संपन्न है.
शुरू में मिलन के प्रस्ताव को खरीद फरोख्त मान लेने वाले लखीनाथ उसके प्रति आकर्षित होकर भी उसकी बात ऐसे मानता है, मानो उस पर एहसान करने जा रहा हो. दो बार होटल में उसके साथ संसर्ग के लिए कमरा बुक करके भी खाली हाथ लौट आने वाली मिलन की निराशा या क्रोध का भी कोई ज़िक्र नहीं है. वह चुपचाप इस अस्वीकार को सर माथे ले लेती है.
यह पितृसत्ता की उस समझ का परिचायक है, जिसमें पुरुष वांछनीय और स्त्री याचिका के रूप में ठगी खड़ी रहती है.
हालाँकि उपन्यासकार की सहानुभूति मिलन के साथ बनी रहती है, पर पूरे उपन्यास का यह सब-टेक्स्ट उसे कमज़ोर ही करता है कि प्यार को भी कुछ सीमारेखाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए.
वह प्रचुर सौन्दर्य के बावजूद लखीनाथ को हासिल नहीं कर पाई इसे अगर सवर्ण संपन्न जीवन का एक घुमंतू दलित द्वारा अस्वीकार का प्रतीक ही बनाना था तो यह मकसद असफल है. प्रेमी को पाने में मिलन की नाकामी लखीनाथ सपेरे के ‘चरित्र’ का प्रमाण-पत्र बन जाता है.
एनजीओ का हस्तक्षेप
‘साँप’ गहरे अर्थों में राजनीतिक उपन्यास है. जन आंदोलन के बजाय एनजीओ के धन और सरकारी योजनाओं का लाभ पाने में अक्षम घुमंतुओं की जानकारी के अभाव और कमज़ोर स्थिति के बीच एनजीओ की मध्यस्थता तो ठीक लेकिन एनजीओ को ही नेतृत्व थमा देने से सत्ता से टकराहट का कुछ ज़्यादा ही सरलीकरण हो गया है. हर संकट का ऐसा तुरत फुरत समाधान करवा लिया गया है कि यथार्थ पर से अंत तक आते आते उपन्यासकार की पकड़ ढीली हो जाती है. इन घुमंतुओं को अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए प्रदर्शन के लिए तैयार भी एनजीओ ही करता है. उनके अन्दर से ऐसी कोई आवाज़ नहीं उठती.
जहाँ पुलिस की प्रक्रियाओं की बारीक समझ है, वहीं एनजीओ की उपकारी दृष्टि और धन के स्रोतों पर उपन्यासकार की निगाह पड़ती ही नहीं. लगता है, जैसे मिलन की निजी संपदा और धन-दौलत के ही सहारे यह एनजीओ चल रहा है, इसलिए इसके धन के किसी भी दिशा में उपयोग को कभी भी प्रश्नांकित नहीं किया गया है.
“जो घुमंतू वहाँ पहले से मौजूद थे और डेरे नहीं गए थे, उन्होंने अपने जीव-जिनावर एक और पेड़ों की जड़ों से बाँध दिए. डेरों के बीच मिलन का मान बढ़ रहा था. रहनुमा हो गयी है, वह.” (पृष्ठ 241)
इस पर विवाद हो सकता है कि उत्पीड़ित खुद अपनी रहनुमाई करने में सक्षम होते हैं या नहीं. शिक्षा के अलावा, जानकारी, मंत्रालयों तक पहुँच और ऐसे कितने ही कामों में सुविधा संपन्न मध्यम वर्ग ही अक्सर नेतृत्व में रहता है. यहाँ अत्यधिक धन-दौलत की स्वामिनी और अपने परिवार की राजनीतिक नेताओं से नज़दीकियों के कारण मिलन का स्वाभाविक रूप से नेतृत्व प्राप्त कर लेना इसके बावजूद इसलिए अखरता है कि यहाँ तक आकर जीवंत पात्र कठपुतली रह जाते हैं. इस समुदाय में रोष और एकजुट होकर प्रतिरोध की इच्छा का अभाव है.
लखीनाथ को छोड़ कर डेरे के अन्य सभी कुछ हद तक निष्क्रिय रहते हैं. खुद लखीनाथ अपने प्रति मिलन के आकर्षण की बात जानता है, लेकिन डेरे में उसकी पत्नी रमतीबाई के अलावा किसी को इसका या तो भान न हो या कोई आपत्ति न हो, बहुत हद तक लेखक के दोनों वर्गों के बीच सेतु बाँधने की या उपन्यास की कथा को और भी उलझाने से बचाने की इच्छा से पैदा हुई लगता है. रमती की मिलन से दूरी भी डाह की पैदाइश है. उसका विरोध उसे कुछ अधिक चेतना संपन्न बना सकता था. अपने समाज में मिलन के विरोध को जगाने को उत्प्रेरित कर सकता था. लेकिन वह सिर्फ पति को खो देने की चिंता और उसे बांधे रखने के उपायों तक ही सीमित रह जाता है.
बस्ती के लोग मिलन को निर्विरोध अपनी रहनुमा मान लेते हैं. प्रदर्शन के दिन मिलन डेरे में पहुँचती है. “वह गाड़ी से नीचे उतरी और उनके बीच आई. उसने उपस्थित खानाबदोशों को नारे याद दिलाया. दोहराया. एकता की महत्ता समझाई. डंडे बरसने या गोलियाँ चलने पर भी साहस से डटे रहने की सलाह दी– ‘लिखा पृष्ठ आगे की और रहे तथा हाथ उठा कर नारे लगाते रहें.’ और “मिलनदेवी, लखीनाथ सपेरा, धूनाराम बंजारा और सरकीबाई मदारिन और सहादीन बहुरुपिया के नेतृत्व में खानाबदोशों का का बेड़ा उनके जीव-जिनावरों के साथ प्रदेश की राजधानी की और रवाना हुआ.” (पृष्ठ 247)
इस हद तक उस पर निर्भरता कि इसमें कोई संवाद तक नहीं. यह घुमंतू जो पुलिस की बूटों तले दबे और उनसे लड़ना भी जानते हैं, उनको एक सम्पन्न शहरी स्त्री गोलियों से भी नहीं डरने की सलाह दे रही है ! क्या खुद वह गोलियाँ चलने पर नहीं डरेगी ? कोई उससे पूछता भी नहीं.
विरोध का इतना सरलीकरण एनजीओ के उस संस्कार के कारण ही हो सकता है, जिसमें जान-पहचान, प्रार्थना-पत्र और याचिकाओं के ज़रिए कुछ राहतें हासिल करने के उपाय अपनाए जाते हैं. इसमें हर्ज़ कोई नहीं है, लेकिन यही मूल अवधारणा में उपन्यास को संघर्ष की वास्तविकता से काट देता है.
एक यथार्थवादी उपन्यास से यथार्थ से उखड़ जाने की अपेक्षा नहीं होती, लेकिन मिलन का इस तरह सबके द्वारा स्वीकारा जाना ही यथार्थ बोध को आहत करता है.
कहीं-कहीं खुद लेखक जिन रूपकों का इस्तेमाल करते हैं, वे खटकने लगते हैं. जैसे घुमंतू आखिर जब अपने आवास के अधिकार के लिए प्रदर्शन के लिए प्रदेश की राजधानी पहुँचते हैं तो उनके साथ उनके पशु-पक्षी भी हैं. “धरती के कीड़े-मकोड़ों जैसे गंदे-सन्दे लोगों, साँप-कोबरा जैसे ज़हरीले जीवों, रीछ-भालू जैसे जंगली जानवरों, बन्दर-बंदरिया जैसे डरावने प्राणियों, गर्दभ जैसे ढीठ पशु, बाज़ जैसे आतंकी पखेरू, कबूतर और तोता जैसे निरीह पक्षियों का कारवाँ दोपहर बाद प्रदेश की राजधानी की कोलतार सड़कों पर ऐसे उतरा मानो मखमल पर टाट सरक रहा हो.” शुरू में जो उपन्यास इनके प्रति सम्मान में कहीं कमी नहीं आने देता वह यहाँ आकर फिसल सा जाता है.
उपन्यास की सीमाएँ
उपन्यास की सीमा आज के राजनीतिक संघर्षों के बदले स्वरूप की सीमा है. इसमें जनांदोलनों तक में अनदेखे इन तबकों के एनजीओ के ही सहारे रह जाने के यथार्थ को बिना इस रूप में चिह्नित किये भी खोल कर रख दिया गया है. खानाबदोशों के सामने अनेक समस्याएँ हैं. सिर्फ घुमंतू होने से ज़मीन पर अधिकार से वंचित होने की ही नहीं, कानूनन अपराधी माने गए उस कलंक से मुक्त होने के बाद भी सबकी नज़र में वे अभी भी अवांछित ही हैं. वे खुद वृहत समाज का समान अधिकार संपन्न अंग बन न पाने के अपने प्रारब्ध को स्वीकार करते से लगते हैं. इनमें एक भी पात्र न मिलन की मंशा पर सवाल उठाता है न उससे कुछ दूरी रखना चाहता है.
लखीनाथ एकमात्र पात्र है, जो मिलन से रिश्ते के इस आयाम को स्वर दे सकता था. उनके बीच तनाव भी केवल दैहिक संबंध हों या न हों की दुविधा तक सीमित रह जाता है. लेखक भी इसे वोट की राजनीति से या एनजीओ के हस्तक्षेप से बाहर नहीं निकाल पाते. वे ऐसा कर पाते तो यह उपन्यास सचमुच गहन राजनीतिक पड़ताल की कहानी बन सकता था.
ऐतिहासिक महत्त्व का उपन्यास
दलित साहित्य में भी दलितों का जो हिस्सा अभी तक आँखों से ओझल रहा है, उनमें कुछ पर ध्यान केन्द्रित करके सांभरिया ने सचमुच ऐतिहासिक महत्त्व का उपन्यास लिखा है. एक अनदेखी दुनिया के विचरण कराते हुए वे सर्वहारा घुमंतू जातियों की दुनिया में प्रवेश के बाद शहरी सभ्यता के साथ उसके टकराव और सामंजस्य, बदलती परिस्थितियों के साथ जीवन-शैली को बदलने की विवशता और इच्छा दोनों को दर्ज करते हैं.
घुमंतू जातियों की एक बस्ती का बारीक मुआयना, उनकी पूरी दुनिया और विश्वदृष्टि का सूक्ष्म दर्शन कराते हुए बदलते समय के साथ धीमी गति से ही सही बदलने की विवशता और इच्छा दोनों को बारीकी से प्रस्तुत करता है.
_______
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.
अंजली देशपांडे पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं. हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. इनके दो उपन्यास और एक कहानी संकलन प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में मारुति फैक्ट्री में मज़दूर संघर्ष पर नंदिता हक्सर के साथ इनकी हिंदी और अँग्रेज़ी में पुस्तक, ‘फैक्ट्री जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’, प्रकाशित हुई है. anjalides@gmail.com |
मैं यह इंकारी वक्तव्य शुरू में ही दे देता हूं : अगर केवल समीक्षा के आधार पर किसी किताब के बारे में बात करना अनुचित है तो मेरी राय को क़तई गंभीरता से न लिया जाए।
• अंजली जी की समीक्षा से कई जगह ध्वनित हुआ है कि उपन्यास का कथा-विन्यास सहज नहीं है। समीक्षा में लखीनाथ और मिलन का संबंध जिस तरह उभरता है, वह इतना असहज लगता है कि गले नहीं उतरता। दो जिंदा लोगों के बीच ऐसा कोई संबंध नहीं हो सकता। अंजली जी ने पात्रों के ‘कठपुतली’ बन कर जाने की बात भी दर्ज की है। उन्होंने यह भी इंगित किया है कि यहां शायद ख़ुद उपन्यासकार ही स्त्री-पुरुष संबंधों के किसी आदरणीय और पूर्व-निर्धारित सांचे का अतिक्रमण नहीं कर पाया। अंजली जी के शब्दों में ‘यह पितृसत्ता की उस समझ का परिचायक है जिसमें पुरुष वांछनीय और स्त्री याचिका के रूप में ठगी खड़ी रहती है.’
वे लेखक की राजनीतिक समझ को भी प्रश्नांकित करते हुए कहती हैं कि यहां एनजीओ के ज़रिए ‘हर संकट का ऐसा तुरत फुरत समाधान करवा लिया गया है कि यथार्थ पर से अंत तक आते आते उपन्यासकार की पकड़ ढीली हो जाती है’. उनके शब्दों में यह केवल एनजीओ की ‘मध्यस्थता’ का मामला भर नहीं है बल्कि ऐसा लगता है जैसे पूरा ‘नेतृत्व’ ही उसे सौंप दिया गया है।
ख़ैर, पाठक के तौर पर मेरा संकट यहां से शुरू होता है कि जब अंजली जी इस उपन्यास की दो बड़ी सीमाओं को उजागर कर चुकी हैं तो यह ‘ऐतिहासिक महत्त्व’ का कैसे हो जाता है ?
सपेरे जैसे घुमन्तु जातियों के रोजमर्रा जीवन को लेकर सांभरिया के चर्चित और पुरस्कृत उपन्यास ‘साँप’ पर अंजली देशपांडये की यह टिप्पणी जहाँ उसके वैशिष्ट को उजागर करती है, वहीं उसकी सीमाओं को भी रेखांकित करती है।एक सुधी समीक्षक के लिए इस तरह का संतुलन एक आवश्यक शर्त होता है।