शब्द का आखेट पंकज चतुर्वेदी |
1924 में जनमे विजयदेवनारायण साही जब पहली बार 35 बरस की उम्र में 1959 में अज्ञेय के सम्पादन में ‘तीसरा सप्तक’ में एक कवि के तौर पर शामिल हुए, तो पहली ही कविता ‘मानव-राग’ की आरम्भिक पंक्तियों में ‘सरल धरती’ की कामना के बावजूद आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में उनका अकेलापन और जद्दोजेहद नज़र आती है और उन्हें अपने सपने डूबते मालूम होते हैं:
“मैं आज सरल धरती का अभिलाषी.
उठ रहा धुएँ-सा बल खाता शहरों का कोलाहल,
जिसकी ऐंठन में डूब रहे मेरे सपने झलमल,
हर शाम यहाँ मानव-लहरों से भर जातीं सड़कें
हर बूँद अकेली किन्तु, अकेला सबका रंग-महल”
ज़ाहिर है कि यह समूचे साधारण जन-समाज की व्यथा है, जिसमें उनका भी साझा है. उन्हें लगता है कि सहस्राब्दियों से गाँव चुपचाप संताप में जल रहे हैं और उनका अपना वजूद एक अग्नि को धारण किए हुए समय की राख ओढ़े सुलग रहा है. महानगरों में ‘फ़ैक्टरी की बन्द दाढ़ों से मधुर संगीत निकलता है’ और कोसों दूर गाँवों के भूमिहीन किसान बेटों को ‘स्वर्ग-स्वप्नों के कुटिल संकेत से’ अपने पास बुलाता है; जिससे दुल्हनें सहम जाती हैं कि उस दुश्चक्र में जाकर उनके पति ‘परदेसिया’ हो जाएँगे और वापस नहीं आएँगे. शुरुआत से ही साही को मौजूदा सभ्यता से छल का अंदेशा था और संकट की समझ, तकलीफ़ और बेचैनी उनके यहाँ बहुत सघन थी:
“सच मानो प्रिय,
इन आघातों से टूट-टूटकर रोने में कुछ शर्म नहीं,
कितने कमरों में बन्द हिमालय रोते हैं,
मेज़ों से लगकर सो जाते कितने पठार–
कितने सूरज गल रहे अँधेरे में छिपकर”
फिर भी उनके युवा मन में आशा थी कि सामूहिक दुख की बुनियाद पर अगर लोग सजग और एकजुट हों, तो उसका समाधान सम्भव है और जैसा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ग़ुलाम हिन्दुस्तान में आह्वान किया था: “रोवहु सब मिलि आवहु भारत भाई/हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई”; उन्होंने बीसवीं सदी के छठवें दशक में स्वाधीन भारत में पुकारा:
“इस सूने कमरे की सिसकन से क्या होगा?
बाहर आओ,
सब साथ-साथ मिलकर रोओ,
आँसू टकराकर अंगारे बन जाते हैं”
अगरचे साही का रचनात्मक सफ़र गवाह है कि उनकी यह उम्मीद पूरी नहीं हुई और ‘सरल धरती की अभिलाषा’ उन्हें निरन्तर एक बीहड़ रास्ते पर ले गई! नाउम्मीदी के आलम में–जबकि कोई सूरत नज़र न आती हो–मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं कि दूसरों से संवाद की क्या बात की जाए, अपने से ही नाता टूट जाता है: “हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी/कुछ हमारी ख़बर नहीं आती.” 5 नवम्बर, 1982 को साही के आकस्मिक निधन के बाद 1983 में प्रकाशित संग्रह ‘साखी’ में संकलित एक कविता इसी क़िस्म की भावभूमि पर एक नए और उदास अंदाज़ से हमें विचलित कर देती है:
“आश्चर्य है
मैंने बरसों से
अपनी आवाज़ नहीं सुनी.
सारा का सारा हेमन्त
इसी तरह बीत गया.”
अनचाही व्यवस्था के शिकंजे में कवि ख़ुद को ‘आख़िरी क़ैदी’ की तरह महसूस करता है, जहाँ सुविधा की तलाश में दूसरे रिहा होकर चले गए हैं, बारिकें सूनी पड़ी हैं और “उनसे हवा चलने पर/सींखचों पर पत्ते खड़खड़ाने की आवाज़ आती है.” आँखें अपनी भाषा भूल गई हैं और रौशनी न कोई राह दिखाती है, न राहत पहुँचाती है:
“कहाँ से आता है यह काला प्रकाश
जो अभी भी
तुम्हारी बेज़बान आँखों में
सन्निपात की तरह जल रहा है?”
पूरा समाज नतशिर है, उसमें अजब क़िस्म की चुप्पी और संवादहीनता है. ऐसे में मूल्यनिष्ठ रचनाकार अपने को अजनबी और ‘मिसफ़िट’ पाता है. कैसी विडम्बना है कि इस अन्तर्विरोध की शिकायत भी क़ुदरत, किसी अलौकिक शक्ति या विधाता से ही की जा सकती है, जिसकी बदौलत ‘फ़्रैगमेन्ट’ शीर्षक कविता समग्रता में बहुत मार्मिक और सशक्त बन पड़ी है:
“ओ मेरे ज़िद्दी मन के निर्मम निर्माता
तुमने मुझको किस अजब नगर में छोड़ दिया?
चौराहों पर
जो शीश झुकाए हुए मुसाफ़िर चलते हैं
ये कहाँ जा रहे हैं इनकी क्या मंज़िल है
कोई बतलाता नहीं मुझे
शायद इनमें बातें करने की रस्म नहीं
सारा का सारा नगर महज़ चुप है.
तुमने मुझको किस अजब नगर में छोड़ दिया?”
सवाल है कि विजयदेवनारायण साही अकेलेपन, मायूसी और तकलीफ़ के इस मक़ाम पर, अपने सूने रंगमहल में क्या उम्मीद की कोई खिड़की खोल सकते थे या खोलना चाहते थे? 21 जनवरी, 1948 को उन्होंने जो डायरी लिखी, उसमें प्यार के अभाव में एक यान्त्रिक, अविशिष्ट और निस्सार जीवन की तल्ख़ हक़ीक़त बयान की और इस संदर्भ में दुर्लभ ईमानदारी से अपनी चाहत का भी इज़हार किया है: “जीवन का पूरा आनन्द उठाने के लिए रोमांस ज़रूरी चीज़ है. रोमांस की अदम्य इच्छा लिये हम अपने शिथिल संसार में घूमते हैं. लेकिन रोमांस की अभिलाषा पूरी नहीं होती. हमको इस यथार्थ पर ही सर पटककर रह जाना पड़ता है. हद से हद हम व्यंग्यों और छींटों में ही नवीनता की कसर मिटाने की कोशिश करते हैं. इससे कुछ नहीं हो सकता. घटना चाहिए. असाधारण घटना. इसके बिना जीवन कितना नीरस, कितना शिथिल और सारहीन है.”
बाद के वर्षों में ‘तीसरा सप्तक’ में सम्मिलित उनकी कविताएँ गवाह हैं कि ऐसा कोई प्रिय उन्हें मिला ज़रूर, जिसकी बदौलत अँधेरी निशा में कुछ आभा नसीब हुई; मगर वह मिलन इतना संक्षिप्त था कि वसन्त से ज़्यादा पतझड़ का एहसास दे गया और सुख से अधिक उत्कंठा का. दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं:
“तुमने चूमे मेरे नयनों के स्वप्न कभी
अब तक इन बेबस आँखों में अरमान भरे.”
* * *
“मैं कभी देखता किसी कुसुम को चूम रही तितली
रो-रो उठता सुनसान हृदय बिखरे मधुमासों-सा
है नीड़ खोजती, मुक्त कल्पना
मेरी आकाशी!”
एक ओर कवि की कल्पना पूरे आसमान में जहाँ-तहाँ एक बसेरे की तलाश में भटकती है, दूसरी तरफ़ अपने अस्त-व्यस्त, उजड़े हुए-से घर में आगन्तुक के रूप में प्रिय के आगमन पर उसे भारी संकोच है:
“तुम सोच रही होगी, आख़िर
इस घर में क्या है जिसको कोई प्यार करे?”
इस तरह के विषम प्रेम की परिणति आख़िर क्या हो सकती थी? साही के व्यंजनापूर्ण शब्दों में वह एक “विस्मृत विषाद-ग्रन्थि” होकर रह जाता है और उनके जीवन में आकर भी कोई फ़ैसलाकुन फेरबदल नहीं कर पाता. ‘तीसरा सप्तक’ के सात साल बाद प्रकाशित कविता-संग्रह ‘मछलीघर’ की पचास में-से महज़ चार कविताओं में उसके अवशेष मिलते हैं और बाक़ी काव्य-संसार में नैसर्गिक सुषमा के अवलोकन में एकाधिक जगहों पर उसकी झलक दिख जाए तो दिख जाए; अन्यथा उनके यहाँ ऐसी आश्वस्ति और कोमलता का नामोनिशान नहीं मिलता. कभी-कभी कवि सुनता है कि “तुमने किसी उड़ते संदर्भ में/नाम मेरा लिया था/क्षण भर को.” बेशक, एक डूबा हुआ प्रश्न उभरता है, मगर फिर ओझल हो जाता है. जितनी आसानी से यह विच्छिन्नता बयान की गई है, साही के लिए उसे बर्दाश्त करना उतना ही मुश्किल रहा होगा. वह जानते थे कि यह अन्त नहीं, एक लम्बी रात की शुरुआत है:
“यह निरर्थक शून्य, झूठा दर्द, हलकी प्यास
टूटते, तीखे नशे-सी याद!
आँगन में खड़ी चुपचाप
ताकती अपलक, करुण, असहाय,
किसी लम्बी कथा के आभास-सी यह रात.
आज मैंने फिर तुम्हारा नाम लिखकर
ख़त्म कर दी बात.”
प्यार को मनुष्यता के बचपन से ही रौशनी का बुनियादी स्रोत मानने के चलते साही उसे “आदिम प्रकाश-पुंज” कहते हैं, मगर जब उन्हीं के शब्दों में वह “कटुता से, संशय से, आतुर हताशा से” मद्धिम पड़ गया; तो उन्होंने विकल्प के तौर पर उसे प्रकृति में खोजा और पाया कि उसके संसर्ग में मृत्यु के बरअक्स जीवन-रस उसी तरह अर्जित किया जा सकता है, जैसे कि पतझड़ की कोख से वसन्त फूटता है. इस विस्मयजनक अन्तर्विरोध का जितना ख़ूबसूरत और ऐन्द्रिय चित्रण उन्होंने किया है, समकालीन कविता में उसकी मिसाल कम ही मिलेगी:
“ऊपर से बहती है सूखी मँडराती हवा
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फटे से हैं सीठे अधजगे होंठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है
बीच का बसन्त यह
वैभव है अद्वितीय
डूब डूब जीना इसे
मन में सँजोना
यहीं लौट लौट आना, बह जाना, सींच देना प्राण
इतना कि रग रग में ममता-सा बस जाय.”
सावन की दोपहर में हरी-भरी पृथ्वी को देखकर भी उनका मन किसी सौन्दर्य की स्मृति से सजल हो उठता है:
“मद भरी श्यामल धरा
यौवनमयी, चिर उर्वरा
वक्ष पर फैला हुआ यह अधखुला आँचल हरा.”
साही की कविता में विरल ही सही, पर मनुष्येतर जीव भी हैं, जो मनुष्य-केन्द्रित सभ्यता के हाशिए पर सहमे हुए साँस लेते हैं और उन्हें जिस ममता एवं कोमलता से उन्होंने देखा है, उसकी बदौलत उनके सह-अस्तित्व का सौन्दर्य देखते बनता है:
“अमरूद की शाख से
झाँकती है गिलहरी
कभी मुझको, कभी घास को, कभी क्यारी को.
डाल के बाहर की दुनिया से
डरी हुई जीती है
चुपके से उतरकर
अकेले में
क्यारियों में बहते हुए पानी को
पीती है.”
ये कुछ उदाहरण अपवाद ज़रूर हैं, अन्यथा प्रकृति और मनुष्येतर जीव-सृष्टि के साहचर्य से अर्जित जीवन-रस विजयदेवनारायण साही के संतप्त मन को देर तक सान्त्वना न दे सका. कारण यह कि भारतीय समाज में परिवर्तन और प्रगति उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी; मगर लोगों की फ़ितरत के मद्देनज़र धीरे-धीरे यह लक्ष्य उन्हें असम्भव लगने लगा. उन्होंने पाया कि तमाम ‘रुद्ध अवस्थाओं’ ने आम आदमी को निरीह और निःशब्द बना रखा है. इस चमत्कार की कोई उम्मीद नहीं है कि सहस्राब्दियों से बहती हुई किसी उदास नदी के जल को अँजुरी में भरकर मुक्ति हासिल की जा सके. रात गए कोई हताशा में पुकारता और दस्तक देता है, मगर न जाने कब से यह प्रथा चल पड़ी है कि लोगों ने दरवाज़े बन्द कर लिये हैं. सत्ता ने उन्हें विद्रोही घोषित कर रखा है, जिनसे उसकी दुरभिसन्धि है; लिहाज़ा सच्चे विद्रोही साज़िश के ख़ौफ़ से पलायन कर गए हैं. गोया एक अँधेरे मुसाफ़िरख़ाने में लोग तमतमाए हुए गाड़ी का इंतिज़ार कर रहे हैं, लेकिन वे अपनी आदिम पीड़ाओं और आदिम वैराग्य में मौक़ापरस्त अदलाबदली के आदी हैं. इसलिए वे गाड़ी आने के बाद ‘सपाट, मुर्दा शक्लें लिये…निढाल, गुमसुम सफ़र के लिए’ बैठ जाते हैं. इस रूपक से साही के प्रिय कवि कबीर की ही याद आती है: “साधो, ये मुरदों का गाँव.” वह एक और मार्मिक रूपक गढ़ते हैं:
“कुएँ में कोई गिर गया है.
पता नहीं लगता
आदमी है, या मवेशी है
या कोई बच्चा, या कोई औरत.”
परिस्थिति का व्यंग्य यह कि पूरे दयार में एक भी गोताख़ोर नहीं रह गया. लिहाज़ा कुएँ में उतरने को कोई तैयार नहीं होता. वे सिर्फ़ समतल पगडंडियों पर चलते हैं, वारदात का जायज़ा लेते हैं, उस पर चर्चा करते हैं और अटकलें लगाते हैं, जब तक कि कोई दूसरी वारदात न हो जाए. जब तूफ़ान किसी पेड़ को झकझोरता है, तो बाक़ी पेड़ गुमसुम देखते रहते हैं, उनमें कोई हरकत नहीं होती. लोगों की प्रतिक्रिया के दो छोर हैं: या तो वे पागलों की तरह उत्तेजित होते हैं या दुबककर गुमसुम हो जाते हैं. कैसी विडम्बना है कि अवसाद में वे अकेले होते हैं, पर उत्तेजना उन्हें और भी अकेला कर देती है. साही की कविता का एक बड़ा हिस्सा उनका यह एहसास घेरता है कि भारतीय समाज यथास्थिति की भयावह गिरफ़्त में है और हमारी ज़िन्दगी बीत जाएगी, मगर हालात में कोई सार्थक बदलाव नहीं होगा. चूँकि भविष्य के सुखद होने की सम्भावना नहीं, इसलिए वर्तमान भी सुन्दर नहीं है. इस मानी में प्यार और सामाजिक परिवर्तन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं:
“…मैंने आज तक उस क्षण को देखा नहीं
जब हसीन चेहरे
और भटके हुए मुसाफ़िर का साक्षात्कार होता है”
साही अपने को उस बिन्दु पर पाते हैं, ‘जहाँ इन्तज़ार और अस्तित्व दो चीज़ें नहीं हैं.’ इस अनुभूति को उन्होंने अनूठी सान्द्रता और तीखेपन से व्यक्त किया है: “…यहाँ से वहाँ तक/अटूट अँधेरा है/जो माँद में मरते हुए जानवर की तरह/साँस लेता है.” ग़ौरतलब है कि वस्तु-संसार के निरीक्षण की दो निष्पत्तियों में उनका अपने दो समकालीन कवियों से साझा है: केदारनाथ सिंह, जो कहते हैं:
“पर सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता
तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’
वहाँ लिख दो ‘सड़क’
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहाविरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता”
और रघुवीर सहाय, जिनके यहाँ रामदास अकेला और अरक्षित होने के लिए अभिशप्त है और लोग सरेआम होने वाली उसकी हत्या को न सिर्फ़ पहले से जानते हैं, बल्कि मूक तमाशबीन रहकर उसे होने भी देते हैं. महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं कि साही की कविता में भी कार से कुचले हुए एक बच्चे का शव सड़क के बीचोबीच ‘लाल चिथड़े’ की तरह पड़ा है और वह इस दृश्य की निर्ममता पर बहुत वेदना के साथ लिखते हैं:
“वहाँ कोई नहीं पहुँचा था:
इन्तज़ार करते हुए गिद्ध भी नहीं.”
ऐसे हालात से घिरकर कवि को महसूस होता है, गोया लगातार एक नीरस बारिश हो रही है, जिसकी आवाज़ को वह आजीवन सुनता रहेगा, “और इसमें कभी कोई फ़र्क़ नहीं पैदा होगा.” नतीजा यह है कि ‘उसके पास सोचने को बहुत है, करने को कुछ भी नहीं.’ यहाँ मार्क्स का मशहूर कथन याद आता है: “दार्शनिकों ने सिर्फ़ तमाम तरीक़ों से दुनिया की व्याख्याएँ की हैं, लेकिन सवाल इसे बदलने का है.” मार्क्स ने चूँकि यह लिखा था कि अगर अंग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान को नृशंसता से कुचला और तबाह न किया होता, तो यह देश कभी प्रगति न कर पाता; इसलिए विजयदेवनारायण साही उनसे नाराज़ी की हद तक असहमत थे. लेकिन हिन्दुस्तानी मार्क्सवादियों के प्रति वह नरम थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनमें ‘एंग्विश’ है. उनके शब्दों में: “शायद यह ‘एंग्विश’ जिसको कहा, दिल के अन्दर एक चुभन-सी, वह भी चुभन शायद तभी तक है, जब तक कि हिन्दुस्तान का मार्क्सवादी सौ फ़ीसदी वर्तमान को भविष्य पर न्योछावर करने के लिए तैयार नहीं होता. कुछ थोड़ा दिल दुखता है उसका. मार्क्स का दिल नहीं दुखा था. हिन्दुस्तान के मार्क्सवादी का दिल दुखता है, इसीलिए ज़रा मैं मुलायम हो जाता हूँ.”
उनकी इसी समानुभूति की बुनियाद पर हम कह सकते हैं कि सशस्त्र हिंसा के विकल्प से यथासम्भव परहेज़ करते हुए दुनिया को बदलने की मार्क्सवादी प्रतिश्रुति से उन्हें एतिराज़ न था. इसलिए जब वह पाते हैं कि उन्हें बदलाव करने नहीं दिया जा रहा, तो इतिहास से अपने को बहिष्कृत महसूस करते हैं; मानो व्यवहार से महरूम कर दिए गए विचारों की सूखी और नाज़ुक पत्तियों की रगों पर ‘इतिहास के बाहर से’ सुनहरी रोशनी के कण गिरते हैं. इस मक़ाम पर सचाई, ईमानदारी, इनसानियत और इन्क़लाब सरीखे उदात्त शब्द ज़रूर हैं, मगर कर्म के अभाव में दृश्य इतना धूसर है कि उसके आर-पार कुछ देखा जा नहीं सकता, न अपना होना ही सत्यापित होता है:
“नहीं, न तुम हो, न मैं हूँ
सिर्फ़ हम बातें करते जा रहे हैं
साहित्य की, समाज की, भ्रष्टाचार की,
इन्कलाब की…
कोई तरीक़ा नहीं है
इस बेहूदा शोर को तोड़कर
ऐसे सन्नाटे को प्राप्त करने का
जिसमें से कुछ सुनाई पड़ सके.”
अन्ततः जनता और उसके कवि में क्या अन्तर रह जाता है: जनता, जो इतिहास के प्रवाह में शामिल होकर भी उसके ऐश्वर्य से अछूती और गुमनाम है और कवि, जो इतिहास के बाहर खड़ा है. उसकी इस तल्ख़ आत्म-स्वीकृति पर अफ़सोस भले हो, हैरत नहीं होनी चाहिए: “हाँ, हमने माना कि एक ज़िन्दगी हमने/ग़लत परिणामों को सिद्ध करने में गुज़ार दी.” इस बिना पर अगर वह लोगों से कहता है कि “तुम हमारा ज़िक्र इतिहासों में/नहीं पाओगे”, तो किसी उच्चतर नैतिक धरातल से नहीं; बल्कि इसलिए कि वह भी उनकी ही तरह अनाम, उपेक्षित और प्रताड़ित था:
“…हमने अपने को
इतिहासों के विरुद्ध दे दिया है:
लेकिन जहाँ तुम्हें इतिहासों में
छूटी हुई जगहें दिखें
और दबी हुई चीख़ का एहसास हो
समझना हम वहाँ मौजूद थे.”
एक अद्भुत कविता में साही अनुभूति की आभ्यन्तरिक विडम्बना उजागर करते हुए दरअसल उस जीवन को केन्द्र में लाते हैं, जिससे जीवन की अन्तर्वस्तु ही रीत गई है. यह उस सपने के टूट जाने का दंश है, जिसे नज़र में रखकर उन्होंने अपना सफ़र शुरू किया था:
“प्यास को बुझाते समय
हो सकता है कि किसी घूँट पर तुम्हें लगे
कि तुम प्यासे हो, तुम्हें पानी चाहिए
फिर तुम्हें याद आए
कि तुम पानी ही तो पी रहे हो
और तुम कुछ भी कह न सको.
प्यास के भीतर प्यास
लेकिन पानी के भीतर पानी नहीं.”
यहाँ ऐन्द्रिय अनुभवों से नाता टूट रहा है और साही यह कहने को विवश हैं: “…इस अपर्याप्त शरीर में/सिर्फ़ दिमाग़ बनकर/उम्र गुज़ारता रहा हूँ.” जहाँ ‘मछलीघर’ में उनका मन्तव्य था कि यह पीढ़ियों से चली आती हुई “एक अफ़वाह है/कि यातना भरी मृत्यु के अलावा भी/एक विकल्प है”, वहीं ‘साखी’ में इसकी तार्किक परिणति के रूप में वह इस प्रश्न पर आकर टिक जाते हैं: “क्यों ज़िन्दगी चलते चलते/यकायक मौत की तरह लगने लगती है?” बेशक, वह मौत हो, मगर उस अप्रत्याशित से साक्षात्कार के क्षण में ही, बक़ौल साही:
“तुम्हारे भीतर से उसका जन्म होगा
जो तुम्हारी ओर से
बिना तुम्हारी अनुमति के बोलता है
वही तुम्हारी रक्षा करता है”
समझना मुश्किल नहीं, क्यों उन्होंने एक दूसरी कविता में लिखा है: “मैंने सृजन को…मृत्यु की तरह पहचाना है/वह हत्या से उपजता है/और आत्महत्या की ओर बढ़ता है.” साही के एक बेहद मानीख़ेज़ और मार्मिक रूपक का सहारा लेकर कहें, तो कवि ‘साँप काटे हुए भाई’ की तरह है, जिसे वह पुकारते हैं–अपार वेदना सहकर भी जागते रहने के लिए, ताकि उसे ज़हरीली नींद न आ जाए:
“अगर भरोसा है तो सिर्फ़ तुम्हारे
बहते हुए ख़ून
और जागती हुई आँखों का भरोसा है–
इस ख़ून को जारी रखने के लिए
सोना मत.
ओ मेरे भाई सोना मत.”
ऐसी अनेक अभिव्यक्तियाँ उनके यहाँ मिलती हैं, मसलन: “हम अपने भस्मावशेषों से जन्म लेते हैं.” ग़ौरतलब है कि मुक्तिबोध का असामयिक निधन 1964 में हुआ था और साही के पहले कविता-संग्रह ‘मछलीघर’ का प्रकाशन 1966 में. आकस्मिक नहीं कि इसकी एक कविता में रचनाकारों के प्रसंग में वह उन सिरफिरों का ज़िक्र करते हैं, जो आबेहयात की तलाश में अँधेरी सुरंगों में चले गए; जिनकी बाबत हममें-से ज़्यादातर यही मानते थे कि एक तो ‘आबेहयात जैसी कोई चीज़ नहीं है’; दूसरे, उन सुरंगों में ‘ज़हरीली गैस है, जिसमें मशालें बुझ जाती हैं.’ लिहाज़ा उनमें सदियों से कोई गया नहीं था और गया भी, तो वापस नहीं लौटा. मुमकिन है, कविता का मेरा यह पाठ मुनासिब न हो, मगर न जाने क्यों इसके कुछ बिम्ब मुक्तिबोध की विदाई के बाद बहुत-से साहित्यकारों के आचरण की याद दिलाते हैं:
“बेशक हमने उनके वापस आने का इन्तज़ार किए बग़ैर
उस रास्ते के मुहाने पर
ईंटें चुनवा दीं
कि फिर इस तरह की दुर्घटना न हो जाय
और अब इस पुरानी इमारत के चारों ओर
ख़ुशनुमा बाग़ लगा दिए गए हैं
जहाँ लोग उद्यान-गोष्ठियाँ करते हैं
एक-दूसरे की तस्वीरें खींचते हैं
और क़हक़हे लगाते हैं.
जब कभी तुम यहाँ आओगे
तो देखोगे
कि ज़माना सचमुच कितना बदल गया है.”
विजयदेवनारायण साही बर्बरता के बरअक्स कविता का एक प्रति-संसार रचते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि बर्बर इस पृथिवी पर क़ाबिज़ हैं और “सनातन हैं नगर के बाहर/बर्बरों के स्कन्धावार भी”; लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि “हम जिस अगाध की तलाश में हैं, बर्बरों का उससे कोई सरोकार नहीं है.” वे कभी नहीं समझ पाएँगे “कि हम होड़ में न पड़ने वाले लोग/सचमुच कितने ख़तरनाक हैं.” साही के शब्दों में, निश्चय ही कवि ‘निरस्त्र और निस्सहाय हैं और उनके पास सिवाय एक करुणा के कुछ भी नहीं’, मगर उसमें अन्तर्निहित आक्रोश की अग्नि के प्रति उनकी आस्था है कि वह सम्पर्क में आने पर बर्बरों को जलाकर राख कर देगी:
“लेकिन मैं तुम्हें बतलाता हूँ
कि वह तुम्हें जला देगी
और उसे छूते हुए
तुम चीख़ोगे और बदहवास दौड़ोगे
क्योंकि वह तुम्हारे पास मृत्यु की शक्ल में आएगी.”
कविता अगर आततायी शक्तियों को जलाकर भस्म कर सकती है, तो उसकी शर्त या क़ीमत यह है कि कवि को स्वयं उस अग्नि में होम होना पड़ेगा और विजयदेवनारायण साही के रचना-कर्म की यह प्रमुख निष्पत्ति है. जब वह कवि की आत्म-छवि निर्मित करते हैं, तो ‘रश्मि-व्यूह से आवृत अग्नि-पुरुष’ के रूप में उसकी कल्पना का यही सुचिन्तित आधार है. यों वह अपने को किसी दिव्य आभा से मंडित नहीं करते, बल्कि कवि के रूप में उनकी जो भूमिका रही है, उसे इस आत्माहुति की वजह मानते हैं:
“मैंने सत्य के मुख पर ढके हुए
हिरण्मय पात्र को उघाड़ दिया है.”
यह रूपक सीधे ‘ईशावास्योपनिषद्’ के एक श्लोक से आ रहा है, जिसकी पहली पंक्ति का आशय है कि सत्य का मुख स्वर्ण के पात्र से ढका हुआ है और दूसरी पंक्ति में इस परिस्थिति से निजात पाने के लिए प्रार्थना की गई है: हे सबका पोषण करने वाले सूर्यदेव! उस आवरण को हटा लीजिए, जिससे मैं सत्यधर्म को देख सकूँ:
“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्.
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये..”
उपनिषद् और साही की कविता में फ़र्क़ यह है कि वह सचाई पर पूँजी के वर्चस्व की विडम्बना की पहचान का किसी प्रार्थना में पर्यवसान नहीं करते; बल्कि एक ही कविता में वेदान्त और ‘धम्मपद’ के दो छोरों को परस्पर मिलाकर उन्हें नया और वृहत्तर आयाम देते हैं:
“जो है
धधक धधक कर जल रहा है
और जो नहीं है
वह भी धधक धधक कर जल रहा है
देखो
इस असीम यातना के क्षण में
तुम्हारे लिए कहीं भी शरण नहीं है.”
यहाँ गौतम बुद्ध का कथन सहज ही स्मरण आता है: ”को नु हासो किमानन्दो, निच्चं पज्जलिते सति”–यानी कैसी हँसी, कैसा आनन्द, सब कुछ निरन्तर जल रहा है. तथागत ने यह ज्ञान प्राप्त किया कि ‘दुख सत्य है’ और उसके कारण तृष्णा की रोकथाम के लिए अष्टांगिक मध्यमार्ग सुझाया; मगर साही के कवि के पास वेदना से निष्कृति का यह आश्वासन नहीं है. वह न आत्म-दमन और अन्यथाकरण से अपनी बेचैनी की धार कुन्द करना चाहते हैं, न आत्म-विस्मरण और छद्म सान्त्वना के जल में अपने संताप को डुबोना:
“मैं नहीं तुम्हें समझाऊँगा क़िस्से कहकर,
मैं नहीं तुम्हारे प्यारे आँसू पोंछूँगा,
मैं नहीं घटाऊँगा इस संकट का महत्त्व–
मैं नहीं कहूँगा दर्द घूँट में पीने को.”
साही इस नतीजे पर पहुँच गए हैं कि अपने को होम कर देने का कोई विकल्प नहीं. बेशक, यह आत्म-विनाश है, पर रौशनी का स्रोत भी यही है. इस बिन्दु पर परम्परा और क्रान्ति, मृत्यु और अमरता में कोई अन्तर्विरोध नहीं:
“यही परम्परा है, यही क्रान्ति है
यही जिजीविषा है
यही आयु है, यही नैरन्तर्य है.
इस निष्कलंक सर्वनाश के अतिरिक्त
कोई नैरन्तर्य नहीं है.
तुम्हीं हो
जो इसके द्वारा
अपनी विह्वल शताब्दियों को
धारण करते हो
और तुम्हीं हो
जो विनाश को प्राप्त होकर
इस तरह लय-युक्त जल रहे हो.”
दो
विजयदेवनारायण साही ने अपने काव्य-संसार में जिन मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी, वे हैं: सचाई, संवेदनशीलता और स्वाभिमान. इसे वह अपनी रौशन विरासत मानते हैं और इसकी बदौलत उन्होंने विपत्तियों के बरअक्स अविचलित रहना, शक्ति-संरचनाओं से निर्भय मुठभेड़ करना और दुनियादारी के बजाय जोखिम उठाना सीखा. उनके इस कवि-स्वभाव को देखकर मुक्तिबोध का कथन याद आता है: “…सत्य ज़रा युयुत्सु बने, वीर बने, तभी वह धधक सकता है, चल सकता है, बिक सकता है” और यह भी कि वह गेटे के वाक्य ‘बोल्डनेस हैज़ जीनियस’ (औद्धत्य की अपनी प्रतिभा है) को उलटकर पढ़ना पसन्द करते थे, यानी: “प्रतिभा का अपना औद्धत्य होता है.”
जिस तरह निराला ने कहा था: “सोचा न कभी–अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी”; साही ने अपनी कविता की आस्था का एक शील यह निश्चित किया: “नितान्त अव्यावहारिक होना नितान्त ईमानदारी और अक़्लमन्दी का लक्षण है. समाज में सब तो नहीं, पर काफ़ी लोग ऐसे होने चाहिए. जिस समाज में नितान्त अव्यावहारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है.” यही मन्तव्य उस साहस की बुनियाद है, जो उनकी कविता की सिफ़त है और जिसकी बानगी उनकी एक ग़ज़ल के इन अश’आर में मिलती है:
“पहले के बुज़ुर्गों ने हमको एक मिशअले-ख़ुद्दारी दी थी
इस लौ को लिये आगे बढ़ना, ये राह तुम्हें दिखलाएगी
इस बादे-हवादस में हमने रक्खे हैं क़दम सच्चाई के
घिर जाओगे जब तूफ़ानों से, साबित-क़दमी याद आएगी
ठोकर में रहेगा मुस्तक़बिल और साथ रहेगी शफ़क़ते-दिल
जो धूल उड़ेगी पैरों से, परचम की तरह लहराएगी”
साही विचारहीन समर्पण के क़ाइल नहीं, जिसका स्रोत धर्मभीरुता है और इस स्थिति पर क्षोभ व्यक्त करते हैं: “आख़िरकार कायरता ही/बची रहती है/चुप रहो/अपनी प्रार्थनाओं को लेकर चुप रहो.” उनके लेखे, अगर हम झुक जाएँगे, तो पूर्वजों की जद्दोजेहद का अपमान होगा. तभी महाप्रलय के बाद उगते नए शिखरों से वह मार्मिक अपील करते हैं: “है तुम्हें क़सम इन ध्वस्त विन्ध्यमालाओं की/मत शीश झुकाना तुम अपना!” कोई अचरज नहीं कि अपने अकेलेपन और हिम्मत को न्योछावर किए बिना वह प्रतिकूल परिस्थिति और पराएपन के धुँधलके में सन्ध्या से, फ़क़ीर चिड़िया से, रुकी हुई हवा से, तर होती हुई जाड़े की नर्मी से और आसपास झाड़ों-झंखाड़ों पर बैठ रही आत्मीयता से अमृत की एक बूँद या कहें कि उदात्त जीवन-विवेक माँगते हैं:
“कैसे? इस धूसर परीक्षण में पंख खोल
कैसे जिया जाता है?
कैसे सब हार त्याग
बार बार जीवन से स्वत्व लिया जाता है?
कैसे, किस अमृत से
सूखते कपाटों को चीर चीर
मन को निर्बन्ध किया जाता है?
दे दे इस साहसी अकेले को.”
रघुवीर सहाय ने यह चिन्ता ज़ाहिर की थी कि हमारे राजनीतिक दल धर्म के नाम पर होने वाले दंगों के विरुद्ध बयान देते हैं, मगर धर्म को लेकर चुप रहते हैं, उस पर कोई सार्थक बहस नहीं चलाते. नतीजतन धार्मिक जन-मानस ज्यों-का-त्यों बना रहता है और उसके चलते धर्मान्धता से बचा नहीं जा सकेगा. उनके शब्दों में: “इस तरह के यथास्थिति-मानस के भविष्य को न समझा जा सकता है, न सँभाला जा सकता है.” सुखद है कि इसी यथास्थिति को विचलित करने के प्रयोजन से विजयदेवनारायण साही वैदिक एवं औपनिषदिक काल से चली आ रही भारत की दार्शनिक-बौद्धिक परम्परा, रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों में विन्यस्त मिथकीय आख्यानों और अमीर ख़ुसरो, जायसी, कबीर एवं तुलसी द्वारा रचे गए भक्ति-काव्य से गहन संवाद और मुठभेड़ करते हैं और मुझे यह कहने में असमंजस नहीं कि उनकी सर्वश्रेष्ठ कविताएँ इसी प्रक्रिया में सम्भव हुई हैं. सप्तक-शृंखला के समस्त कवियों में यह कोशिश अज्ञेय, शमशेर, धर्मवीर भारती, श्रीनरेश मेहता, कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह के यहाँ भी बराबर मिलती है; मगर परम्परा से सघन एवं तीखे साक्षात्कार की प्रकृति और युयुत्सु तेवर के मद्देनज़र साही जिस कवि-विचारक के सबसे नज़दीक हैं, वह निस्सन्देह मुक्तिबोध हैं.
‘महाभारत’ के ‘वनपर्व’ में लिखा है: “अहिंसा परमो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठित:”, यानी: अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और वह सत्य पर टिका है. शायद इसे मंज़ूर करते हुए भी साही मानते थे कि सत्य की अभिव्यक्ति के लिए असहमति का साहस चाहिए. इसलिए उन्होंने अपनी कविता का पचीसवाँ शील तय किया: ‘अवज्ञा परमो धर्मः.’ उनकी दूसरी बड़ी विशेषता यह है कि अपने संवेदन-तंत्र पर आसन्न समय के गहरे असर के चलते वह अतीत में ठहरे हुए नहीं, बल्कि बेहद समकालीन कवि हैं. अकारण नहीं कि उनके यहाँ ‘अचूक गृद्धों की तरह कल्पवृक्ष की पत्तियाँ चबाती हुई’ बाँझ कामधेनुओं से घिरकर कवि प्रसन्न नहीं, बल्कि रिहाई का तलबगार है:
“बाँझ कामधेनुएँ
रँभाती हुई आईं
और मेरे चारों ओर आकर ठहर गईं
इस उम्मीद में कि मैं उनसे कुछ माँगूँगा:
मुझे सिर्फ़ घिर जाने की तकलीफ़ हुई
और मैं उनकी आँखों से आँखें मिलाए
घूरता रहा.”
महाभारत काल में कौरवों ने छल-बल और माया से लाक्षागृह की कूट-रचना की; मगर ज्ञानी, धर्मात्मा एवं सत्यान्वेषी विदुर के सत्परामर्श और कृष्ण के अनुग्रह से पांडव उस अग्निकांड में भस्म होने से बच गए. साही के शब्दों में ‘जो सच था, शिव था, सुन्दर था’, उसकी जय हुई; उनकी नहीं, जो ‘मदोन्मत्त कुछ जली अस्थियों के भ्रम में’ क्षणिक उत्सव मना रहे थे, क्योंकि वे असत्य थे. ग़ौरतलब है कि कवि इस प्रसंग में दूसरों की तरह ‘सत्य की जय’ के प्रचलित आख्यान से आश्वस्त होकर नहीं रह जाता, बल्कि पांडवों के बदले होम हुए वंचित जनों की याद दिलाकर समूचे प्रभु-वर्ग को कटघरे में खड़ा कर देता है:
“लेकिन राजन्
कल लाक्षागृह के भीतर जो शव पड़े मिले
वे किसके थे?”
यही साही की समकालीनता है. मिथकीय अतीत हो या मौजूदा यथार्थ, वह हाशिए पर पड़े हुए उपेक्षित, विपन्न और उत्पीड़न के शिकार जन-समुदायों को विमर्श के केन्द्र में ले आते हैं. जातिगत विषमता और अन्याय के जिस प्रश्न को आज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में मक़बूलियत हासिल है, उसका सामना वह अपने समय में ही कर रहे थे. मुझे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने बताया कि साही जी ने 1970 के आसपास इस विसंगति की ओर ध्यान आकृष्ट किया था कि ‘कल्पना’ जैसी प्रमुख साहित्यिक पत्रिका के सौ अंकों में एक भी दलित रचनाकार प्रकाशित नहीं किया गया. उनकी एक दिलचस्प कविता है ‘बहस के बाद’. इसमें जो 27 सवाल उठाए गए हैं, उनमें-से नौ का चयन मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ; क्योंकि आधी सदी गुज़र जाने के बावजूद उनकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई, बल्कि आलम यह है कि वह कुछ बढ़ी हुई मालूम होती है:
“असली सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन होगा?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले?…
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि ग़फ़ूर का पत्ता कैसे कटा?…
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि पण्डित जी का अब क्या होगा?…
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि मैं किसको पुकारूँ?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि क्या यादवों में फूट पड़ेगी?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि शहर के ग्यारह अफ़सर
भूमिहार क्यों हो गए?…
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि दुश्मन नम्बर एक कौन है?…
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि मेरे बच्चे चुप क्यों हो गए?”
यहाँ आख़िरी सवाल में जो दहशत है, वही मुक्तिबोध को ‘अँधेरे में’ कविता में मार्शल लॉ की मुख़ालिफ़त न कर पाने की वजह के तौर पर महसूस हुई थी और उन्होंने लिखा: ‘विचारों की रक्तिम अग्नि की मणियों’ को ‘हाय, हाय! मैंने गुहा-वास दे दिया’, क्योंकि “वे ख़तरनाक थे/ (बच्चे भीख माँगते).”
विजयदेवनारायण साही समाजवादी प्रतिश्रुति के दृष्टि-बिन्दु से राजसत्ता, धर्मसत्ता और पितृसत्ता–सत्ता के इन सभी रूपों का प्रतिवाद करते हैं. अपने वक़्त में तानाशाही के एक दौर के वह गवाह रहे, लिहाज़ा क़ानून, कूटनीति, पूँजी और पुलिस के बल पर आधिपत्य क़ायम करने वाले अधिनायक की छवि उनकी कविता में उभरती है, जिससे रूबरू होकर वह कहते हैं: “चारों ओर तुम्हारे अचूक शिकंजे की/जयजयकार हो रही है.” उसे अवाम से गहरी नफ़रत है, मगर कैसी विडम्बना कि इस नफ़रत से सम्मोहन, सम्मोहन से दहशत और दहशत से सन्नाटा पैदा हो रहा है. नतीजतन शरीफ़ लोगों की शख़्सियत काफ़ूर हो गई है और अब जो उनका आत्म है, वह नहीं है जो इस निज़ाम के पहले था. एक कविता के मुताबिक़ विभिन्न क़बीले और सम्प्रदाय निजी वर्चस्व के ग़ुरूर, आपसी कलह, विश्वासघात और लूटपाट में मुब्तला हैं. इसलिए पूरी पृथ्वी पर बर्बरों का साम्राज्य स्थापित हो गया है:
“सुनो भाई साधो
सब जग अन्धा हो गया है
मैं किसको समझाऊँ?”
क्या इन प्रसंगों से नहीं लगता कि साही अपने ही नहीं, हमारे वक़्त की भी तस्वीरकशी कर रहे थे और यह विशेषता मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के साथ-साथ उन्हें भी एक अचूक भविष्य-दृष्टि या ‘प्रोफ़ेटिक विज़न’ का कवि साबित करती है? दरअसल, काल को वह थोड़े-बहुत विचलनों के बावजूद अखण्ड इकाई की तरह, निरन्तरता में देखते हैं और इसमें उन्हें ऐसी महारत हासिल है कि जब वह मध्यकाल में सामन्ती राजदरबार के रंग-ढंग का भी मुआइना करते हैं, तो जैसे आधुनिक लोकतंत्र की ही हक़ीक़त बयान कर रहे होते हैं:
“बीरबल झूठा है, मसख़रा है
बादशाह, तुम तो जानते ही हो
इन दरबारियों का कोई भरोसा नहीं
चाहे वे नौरतन हों चाहे बेरतन हों
वे सब तो तुम्हारे ही प्रताप से चमकते हैं
जब तुम मुक़र्रर करते हो नौरतन हो जाते हैं
जब तुम बरख़ास्त करते हो तो बेरतन हो जाते हैं
इन दरबारियों की ज़बान का क्या महत्त्व?…
बादशाह, सत्य तुम्हीं हो
बीरबल झूठा है, मसख़री करता है.”
पितृसत्ता के दमनकारी चरित्र के बरअक्स स्त्री की आधुनिक आत्मवत्ता पर इसरार करती साही की सशक्त कविता है ‘सत की परीक्षा’. इसमें एक स्त्री की छाती पर जड़ाऊ हार है, जिसके कारण उस पर लांछन लगाया गया है कि वह ‘पराये का दिया है.’ बड़ी-बड़ी पाग बाँधे, मूँछें मरोड़ते उसकी ससुराल के लोगों की पंचायत बैठी है, जिसके समक्ष उसे अपनी निष्कलंकता प्रमाणित करनी है. मगर उसका मन सीता की तरह धरती से फट जाने की प्रार्थना करने या किसी और पौराणिक स्त्री के मानिन्द आकाश-मार्ग से अलोप हो जाने की गवाही नहीं देता, क्योंकि “साधो, ये सारे साहस/आज ओछे पड़ गए हैं.” दरअसल, इस रचना की मा’रिफ़त साही एक रैडिकल एलान करते हैं कि रास्ता कोई और नहीं, बल्कि यह है कि एक स्त्री का प्रेम अगर सच्चा है, तो वही उसकी पवित्रता है, उसका सत है. इसे जिस ख़ूबसूरत और प्रभावशाली रूपक के ज़रिए उन्होंने चरितार्थ किया है, वह आधुनिक हिन्दी कविता में बेमिसाल है:
“सुनो भाई साधो सुनो
और कोई रास्ता नहीं है
मुझे अपने दोनों हाथ
इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं
यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता
आन्दोलित प्रकाश
सचमुच मेरे हृदय का वासी हो
तो यह खौलता हुआ कड़ाह
हाथ डालने पर
गंगाजल की तरह ठण्डा हो जाय.
ऐसे ही, साधो, ऐसे ही.”
विजयदेवनारायण साही ने कई कविताओं में पाठकों को ‘सन्तो’ और ‘साधो’ कहकर संबोधित किया है. संवाद की यह शैली कबीर से उनकी एकात्मता की निशानी है. एक यादगार कविता में वह कबीरदास को अपना गुरु स्वीकार करते हैं. भक्ति-काव्य से उनकी संसक्ति गहन है और तुलसी को भी वह श्रेष्ठ मानते हैं; मगर शायद अपने सामाजिक सरोकारों के चलते कबीर, जायसी, सूरदास और अमीर ख़ुसरो के ज़्यादा नज़दीक हैं. साही को महान कविता की पहचान थी, इसलिए जिन कृतियों से उनकी तीखी असहमति है, नेताओं की तरह सार्वजनिक रूप से उन्हें जला देने के वह हिमायती नहीं. उन्होंने कहा था कि ‘वही जाति ज़िन्दा रहेगी, जो आधुनिक होगी.’ इस रौशनी में तुलसी और नीत्शे के बारे में उनका यह बयान प्रासंगिक है:
“बाबा तुलसीदास महान् सन्त कवि थे, लेकिन वह संसद् के चुनाव में खड़े हों, तो उन्हें वोट नहीं दूँगा. नीत्शे का ‘ज़रथुस्त्र उवाच’ सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक़ है, पर कविता की दृष्टि से महान् कृतियों में से एक है. उसकी एक प्रति पास रखता हूँ और आपसे भी सिफ़ारिश करता हूँ.”
तीन)
मरणोपरान्त प्रकाशित साही के कविता-संग्रह का नाम ‘साखी’ बहुत सार्थक है, मगर यह ध्यान रखना होगा कि उन्होंने कबीर को हू-ब-हू नहीं दोहराया, बल्कि अपने समय में उनका पुनराविष्कार किया. उन्हें यह तकलीफ़ थी कि छह शताब्दियों के काल-विस्तार में जातिप्रथागत ग़ैर-बराबरी के विरुद्ध भक्त कवियों ने जो आंदोलन चलाया, उसके निश्चित परिणाम सामने नहीं आ सके और ‘अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी तक जातिप्रथा हिन्दुस्तान में और भी सख़्त, और भी रूढ़ हो गई.’ उनके मुताबिक़ उसका एक कारण यह रहा कि जल्द ही इन सन्त कवियों के व्यक्तित्व के चारों ओर किंवदन्तियों और चमत्कारों का एक प्रभा-मण्डल स्थापित कर दिया गया, जो कि कालान्तर में एक संस्थान में बदल गया. यह जातिप्रथा से एक क़िस्म का समझौता ही था. मसलन कबीरपन्थी मठों की अपने ख़ास दायरे में सक्रियता वैसी ही है, जैसे एक कर्मकाण्ड की जगह दूसरा कर्मकाण्ड आ जाए. क्रान्तिकारी विचारों का नए सम्प्रदायों में ढलना या ‘रिड्यूस’ हो जाना हिन्दू धर्म की यथास्थितिवादी रणनीति के लिए बेहद सुविधाजनक था. बक़ौल साही:
“वैसा करने का अधिकार हिन्दू धर्म आपको दे सकता है, क्योंकि सम्प्रदाय समझौते की एक विशेष अवस्था में क्रियाशील होता है, वह तनाव की अवस्था में क्रियाशील नहीं हो पाता- वह क्रान्ति नहीं होता, वह सिर्फ़ अलगाव होता है.”
एक कवि के रूप में साही हमारे समय में उन मूल्यों की विडम्बनापूर्ण स्थिति को उजागर करते हैं, जिन्हें कबीर ने महनीय और स्पृहणीय माना था. कबीर ने कहा था कि जो देहरी पर अपना शीश उतारकर रख दे, वही नैतिक रूप से प्रेम के घर में प्रवेश करने का अधिकारी है; मगर मौजूदा दौर में तो वह अपना हश्र देखकर स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हैं:
“मैंने जो प्रेम का घर बसाया था
ठीक उसके सामने
उन्होंने मेरा सर उतारा
और भूमि पर रख दिया
फिर मेरे घर में पैठ गए
जैसे यह उनकी ख़ाला का घर हो.
अब?”
ग़रीबों के घर जलाए जा रहे हैं. वे शोषण के लिए अभिशप्त हैं. स्त्रियाँ प्रताड़ित हैं. चारों ओर हाहाकार मचा है. साही कबीर से पूछते हैं: तुमने तो कहा था: “सबसे भली यह चक्की है/जिसके द्वारा/संसार पीस खाता है/क्या सचमुच सबसे भली यह चक्की है/जिसके दो पाटों के बीच/कोई साबुत नहीं बचता?”
अकारण नहीं कि परम्परा से चले आ रहे मिथकीय चमत्कार, महानता के प्रतिमान और मानवीय आश्वासन आधुनिक समय में जनसाधारण के रोज़मर्रा के संग्राम में ध्वस्त हो गए हैं. कालिदास ने ‘कुमारसम्भव’ में लिखा है कि ‘(भारतवर्ष की) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा पर्वतराज हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों में प्रविष्ट होकर पृथ्वी के मानदण्ड के समान स्थित है.’ कबीर कहते हैं कि वह “पास पहुँचने पर/बजाज की दुकान का गज निकला.” इसलिए उनका सवाल है: “कालिदास भाई/अब मैं क्या करूँ?” इसी तरह दूर से देखने पर महाभारत काल के जो योद्धा महान लगते थे, “पास पहुँचने पर/भाई भतीजे लड़के दामाद निकले.” इसलिए उनका प्रश्न है: “वेदव्यास भाई/अब मैं क्या करूँ?” अन्ततः रामायण काल के हनुमान, जो “रघुवीर के अमोघ बाण की तरह/समुद्र को फलाँगते/आकाशमार्ग से दहाड़ते हुए/जाते दिखते थे”, वे ‘अति लघु रूप होकर सुरसा के मुँह में’ समा गए, “फिर बाहर नहीं आए.” इसलिए: “दास कबीर कहता है/भाई तुलसीदास/अब मैं क्या करूँ?” ज़ाहिर है कि हमारा समय भयावह है और इसकी चुनौतियाँ भी. उसी के अनुरूप यह साही की कविता में कबीर का नया जन्म है, जहाँ समाधि का अभिप्राय बदला हुआ है और अनहद नाद का भी:
“साधो भाई
इस अस्पताल में
सब सो रहे हैं
सहज समाधि की तरह
सब कराह रहे हैं
अनाहत नाद की तरह.”
यही वह परिदृश्य है, जिसमें साही खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम कवि से मित्रवत् अनुरोध करते हैं:
“धीरे धीरे तल्ख़ अँधेरा फैल गया, ख़ामोशी है
आओ ख़ुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई.”
निजी और सार्वजनीन, दोनों क़िस्म की विफलताओं के बरअक्स विजयदेव नारायण साही कबीर के समान पक्षपात के बजाय सत्यनिष्ठा को आदर्श मानते हुए सन्धि-बिन्दु पर खड़े हैं और सबके हित की कामना करते हैं. कबीर ने कहा था:
“कबीर आप ठगाइए, और न ठगिए कोइ.
आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होइ..”
उन्हीं की तरह साही किसी व्यूह-रचना में सुरक्षा खोजने की बनिस्बत निर्भय सच कहने का हौसला रखते हैं. भक्त कवियों में कबीर उनकी नज़र में सर्वाधिक ‘उन्मुक्त (Volatile)’ हैं, इसलिए सबसे प्रिय. किसी भी मतवाद से तटस्थ, सर्वथा निश्छल और वेध्य रहकर दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक कट्टरता पर आक्रमण की उनकी रणनीति से वह अभिभूत हैं:
“जब आप कबीरदास को देखते हैं, तो यह तय करना मुश्किल होता है कि जहाँ वे ब्राह्मणों पर प्रहार करते हैं, वहाँ वे जातिवाद पर प्रहार कर रहे हैं या हिन्दू-मुस्लिम- दोनों के कट्टर धार्मिक ढाँचों पर प्रहार कर रहे हैं; क्योंकि वे शत-प्रतिशत एक कूटनीतिज्ञ की तरह बराबर की दूरी दोनों से बनाए रखते हैं. जब वे ब्राह्मण की ओर संकेत करते हैं, तो मुल्ला की ओर भी करते हैं, मंदिर की बात कहते हैं, तो तुरन्त ही मस्जिद के बारे में कह देते हैं, ताकि कोई यह आक्षेप उन पर न लगा सके कि वे इस धर्म या उस धर्म में से किसी विशेष के विरोधी थे….अतः उनकी विशेष चिन्ता एक तरह के सार को खोजने की थी, जहाँ हिन्दू-मुसलमान दोनों को आदमी बनाया जा सके.”
महज़ संयोग नहीं कि साही, जायसी को भी सूफ़ी मतवाद का आग्रही नहीं, बल्कि ‘कुजात सूफ़ी’ कहते हैं और उनकी सबसे बड़ी विशेषताओं के रूप में ‘स्वाधीन चिन्तन’ एवं ‘प्रखर बौद्धिक चेतना’ को रेखांकित करते हैं. जिस तरह उन्होंने साबित किया कि ‘पद्मावत’ के केन्द्र में अनुभूति है, कोई मतवाद या दार्शनिक सिद्धान्त नहीं और यह कि जायसी की “चिन्तनशीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद-दृष्टि (ट्रैजिक विज़न) का सृजन करती है”; वैसे ही स्वयं अपनी कविता को किसी विचारधारा से अतिक्रान्त नहीं होने दिया और विवेक से उसके कैनवस को प्रशस्त बनाया. नतीजतन उनकी कविता आधुनिक मनुष्यता की विडम्बना और पीड़ा का विशद आख्यान है और उसकी कारक शक्तियों के विरुद्ध एक सशक्त और मार्मिक सत्याग्रह.
साही जन्मशती पर आयोजित परिसंवाद ‘समय और साखी’ के लिए जब ‘शब्द का आखेट: साही की कविता’ विषय पर लिखने के लिए मुझे अशोक वाजपेयी जी का पत्र मिला, तो पहले पहल मैं समझ नहीं पाया कि इसका संदर्भ, आशय और प्रयोजन क्या है? मित्र अनिल त्रिपाठी के सौजन्य से विजयदेव नारायण साही के चारों अनुपलब्ध कविता-संग्रहों को जुटाकर पढ़ने के सिलसिले में उनकी एक दुर्लभ कविता नसीब हुई: ‘शब्द का आखेट आज हमने फिर किया है’, तो यह गुत्थी सुलझी.
दरअसल, इस एक कविता में न सिर्फ़ साही के कवि-व्यक्तित्व के समस्त गुण-संशय, बेचैनी, प्रश्नाकुलता, अपरिग्रह, अवज्ञा, विद्रोह और प्रतिकार संघनित होकर अभिव्यक्त हुए हैं; बल्कि हमारे देश के बुनियादी तौर पर जड़, पुरातनपंथी, असहिष्णु और निर्मम चरित्र की पहचान भी की गई है. यहाँ ‘शब्द का आखेट’ जो भी करता है, उसे शक्ति-संरचनाएँ अपने लिए ख़तरा मानती हैं और उसको निष्प्रभ करने की साज़िश रचती हैं, बेशक यह अभिनय करते हुए कि अन्याय उन्हीं के साथ हो रहा है. किसी भी आलोचना के सम्मुख प्रतिगामी सत्ता-प्रतिष्ठान का यह स्पर्श-कातर और पाखंडी रवैया विगत की ही नहीं, ऐन हमारे समय की भी केन्द्रीय समस्या है:
“जहाँ मैंने सिर उठाया कहा मैं भी हूँ
व्यवस्था टूटती सी दिखी
जहाँ मैंने कहा मेरा नहीं झुकता माथ
आहत हो गया समुदाय:
हाय रे यह मोम जैसे लोग
हाय रे यह निपट कच्चे काँच के गुम्बद सरीखा राष्ट्र.”
यहाँ ‘हर नयी आवाज़ को वनवास’ दिया जाता है और मूक आज्ञाकारिता, उदासीनता एवं तीर्थ-संचय के लिए अभिशप्त करके उन्हें फिर उसी अंदाज़ में भावी पीढ़ियों पर अत्याचार के लिए तैयार किया जाता है. राम का व्यवहार इस तथाकथित भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि उदाहरण है:
“आज तक जिसने तुम्हारे शाप के वश
बिना हर्ष विषाद
काटे गहन चौदह वर्ष
उसने लौटकर
अपनी नयी सन्तान को फिर
उसी मन से बिना हर्ष विषाद
गर्भ में ही दे दिया वनवास!”
मर्यादा के आवरण में लिपटी क्रूरता को उजागर करके साही ने राम की मिथकीय महानता को तार-तार कर दिया, मगर उन्हें भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का ‘विक्टिम’ बताते हुए सवाल उठाया है:
“कब तलक यह पूर्वजों से मिली प्रतिहिंसा
अजन्मी पीढ़ियों पर?”
साही का मानस मिथकों की प्रतिमाएँ ढहाने पर ही एकाग्र नहीं है, बल्कि वह उदार मन से उन्हें परखते और उनके नए मानवीय अर्थ का अन्वेषण भी करते हैं. ‘युद्ध-कविता’ शीर्षक उनकी एक रचना इसकी अनूठी मिसाल है, जिसके प्रसंग में टेरी ईगलटन का बयान याद आता है कि कोई भी चीज़ इस्तेमाल के लिए ही बनाई जाती है, संग्रहालयों में सुसज्जित रखने के लिए नहीं. दुनिया की महाशक्तियों ने जो परमाणु बम बनाए हैं, उन्हें वे कभी भी किसी भी देश पर गिरा सकती हैं, भले विश्व-शान्ति की अपनी चाहत का दिखावा करती रहें.
साही कहते हैं कि एक ओर वे ख़तरनाक हथियारों से लैस हैं, दूसरी तरफ़ साधारण मनुष्य अकेला और निहत्था ‘सामना करता है भविष्य का.’ महाभारत काल में अभिमन्यु और उत्तरा के गर्भस्थ शिशु पर अश्वत्थामा ने जब ब्रह्मास्त्र चलाया, तो कृष्ण ने सूक्ष्म रूप धारण कर उत्तरा के गर्भ में पहुँचकर उसे अपनी अलौकिक शक्ति से बचा लिया. वैसे यह निरा चमत्कार है, असम्भव और अविश्वसनीय; लेकिन यह घटना सृष्टि के विनाश पर आमादा ताक़तों के अंधेपन के विरुद्ध सक्रिय मानवीय चेतना के प्रकाश की प्रतीक है. कोई इसे ‘दिव्य’ कहकर ख़ारिज कर सकता है, मगर साही के प्रिय कवि जायसी का स्मरण करें, तो मनुष्य से मनुष्य का जो प्रेम है, वही उसे स्वर्ग के योग्य बनाता है, नहीं तो वह क्या है, एक मुट्ठी राख ही तो है:
“मानुस पेम भएउ बैकुंठी. नाहिं त काह छार एक मूँठी..”
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रेम की यह अलौकिक शक्ति ही साही के ज़ेहन में रही होगी, जब उन्होंने ‘युद्ध-कविता’ लिखी, जो विश्व मानवता के संदर्भ में हमेशा प्रासंगिक रहेगी:
“ओ भविष्य, ओ परीक्षित, ओ हिरण्यगर्भ
अब भी मैं तुम्हारे चारों ओर
प्रकाश की तरह लिपटा हुआ हूँ:
वहाँ–
जहाँ निहत्थे सारथी
और लोलुप ब्रह्मास्त्र के बीच
आख़िरी घटना घटेगी
चुपचाप.”
अन्त में, विजयदेवनारायण साही की किसी एक कविता को चुनने की मजबूरी हो, तो मैं ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ का नाम लेना पसन्द करूँगा. इसे आधा-अधूरा उद्धृत करना कविता से नाइंसाफ़ी होगी और वैसे भी यह प्रार्थना है, तो समग्रता में इसके साथ अपने वक्तव्य का समापन करता हूँ:
“परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अन्तहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अन्तहीन सहानुभूति
पाखण्ड न लगे.
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्त्वाकांक्षा और भूख की
गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा.
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ.”
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साही की जन्मशती पर रज़ा फ़ाउण्डेशन द्वारा आयोजित ‘साही और साखी’ संगोष्ठी में इसके कुछ हिस्से पढ़े गए हैं.
पंकज चतुर्वेदी प्रकाशित कृतियाँ: ‘एक संपूर्णता के लिए’ (1998), ‘एक ही चेहरा’ (2006), ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’ (2015), ‘आकाश में अर्द्धचन्द्र’ (2022) (कविता-संग्रह); ‘आत्मकथा की संस्कृति’ (2003), ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ (2013), ‘रघुवीर सहाय’ (2014, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के लिए विनिबन्ध), ‘जीने का उदात्त आशय’ (2015) (आलोचना); ‘यही तुम थे’ (2016, वीरेन डंगवाल पर एकाग्र आलोचनात्मक संस्मरण); ‘प्रतिनिधि कविताएँ: मंगलेश डबराल’ (2017, सम्पादन), ‘प्रतिनिधि कविताएँ: वीरेन डंगवाल’ (2022, सम्पादन). इसके अतिरिक्त भर्तृहरि के इक्यावन श्लोकों की हिन्दी अनुरचनाएँ प्रकाशित. पुरस्कार: कविता के लिए वर्ष 1994 के भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और आलोचना के लिए 2003 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित. 2019 में इन्हें रज़ा फ़ेलोशिप प्रदान की गयी है. प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर (उ.प्र.). |
पढ़ गया बहुत अच्छा लेख है l पंकज जी ने उनके कवि के विभिन्न पक्ष को बड़े जतन से पकड़ा है l उन्हें बधाई l
विजयदेव नारायण साही का आलोचक इस कदर हावी रहा कि उनके कवि पक्ष पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया।यहाँ तक कि fb पर एक स्वनाम धन्य कवि कथाकार यह कहने की हद तक गए कि ‘माफ़ करें उनकी कविताओं में वह बात नहीं है।आपने साही जी के सम्पूर्ण काव्य वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करते हुए एक मुकम्मल तस्वीर पेश की है।यहाँ यह देखना भी दिलचस्प होगा कि जायसी जैसे कवि के महात्यम को रेखांकित वाले साही की अपनी कविता को लेकर बनी समझ कमतर कैसे होगी?आपने सही लिखा कि साही कबीर की परंपरा से शुरु कर इस युग के सबसे संवेदनशील कवि मुक्तिबोध तक के काव्यानुभव तक आते हैं।वे अजस्र मानवता और संवेदनशीलता के दुर्लभ कवि हैं।1924 में जन्मे साही जी के सहस्राब्दी वर्ष पर यह ‘समालोचन’ की यह विनम्र श्रद्धांजलि है!
साही का कवि-व्यक्तित्व समग्रता में प्रस्तुत करता बेहतरीन निबंध।
हँसी से ज़्यादा संक्रामक है रोना। रोने को आज ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया है। इस अमृतकाल में कबीर-भारतेन्दु से लेकर मुक्तिबोध-साही का रुलाई संदर्भित स्मरण बहुत ज़रूरी है। जिस देश में कविता का जन्म ही (क्रौञ्ची की) रुलाई से हुआ हो वहाँ एक सजग-सतर्क कवि अपने पुरखे कवियों को इस संलग्नता से याद करे, यह सर्वथा उचित है। पंकज चतुर्वेदी को अशेष साधुवाद।