संत पलटू
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सामान्यतः संतों के जन्म सम्बन्धी प्रामाणिक जानकारी नहीं होती. सामान्य घर परिवार में जन्म लेने वाले बालक के जन्म का इतिहास दर्ज करने या सुरक्षित रखने की कोई जरूरत होती नहीं है. आगे चलकर जब वे संत के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं तब उनकी शिष्य परम्परा (मंडली) जन्म, परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि की खोज में जुट जाती है. जाहिर है इस खोज के पीछे वैज्ञानिक या ऐतिहासिक नजरिया कम, श्रद्धा भाव अधिक होता है. शिष्यों में प्रतिस्पर्धी संत धाराओं के साथ जाने अनजाने प्रतिद्वन्द्विता का भाव भी होता है. वे अपने गुरु की जीवनगाथा रचते हुए कल्पना का सहारा लेकर कई तरह के चमत्कारिक प्रसंग भी डाल देते हैं. इसलिए संत कवियों के जन्म के बारे में सामान्य जानकारियां भी श्रद्धा, प्रतिद्विन्द्विता और चमत्कार कथाओं के बड़े संजाल में कहीं छुपी होती हैं.
दूसरी दिक्कत यह है कि संतों ने अपने जीवन के विवरण को प्रायः रहस्य ही रहने दिया है. अपने बारे में लिखना या चर्चा करना संत स्वभाव के विपरीत है, इसलिए भी संत कवि अपनी चर्चा नहीं करते या कम से कम करते हैं. पलटूदास इसके अपवाद नहीं हैं.
कहते हैं पलटूदास का नाम सिद्ध होने के पहले कुछ और था. पलटूदास का असली नाम क्या था यह पता नहीं चलता. पलटू नाम उनके गुरु गोविन्ददास का दिया हुआ है. ऐसा प्रसिद्ध है कि पलटूदास साधना में इस कदर लीन हुए कि सांसारिक मोह माया और इंद्रिय आसक्ति से इनका मन पलट गया. इस पर प्रसन्न होकर गुरु गोविन्ददास ने कहा–यह तो पलट गया.
यह पलटू है. तबसे पलटूदास नाम पड़ गया. पलटूदास की बानी भी इसकी पुष्टि करती है-
पल पल में पलटू रहे अजपा आठो याम
गुरु गोबिंद अस जानि के राखा पलटू नाम.
(भाग-3 साखी -?)
गुरु के दिए इस नाम को पलटू ने श्रद्धा और आदरपूर्वक धारण किया. अन्य संत कवियों की तरह पलटूदास ने भी अपनी कविता में इसी नाम की छाप दी और अपने मूल नाम को विस्मृति के गर्भ में खो जाने दिया. इतना ही नहीं गुरु के दिए इस नाम में पलटू ने साधनापरक अर्थ भी भर दिया है. संत साधना की पारिभाषिक शब्दावली में सहज बेहद महत्वपूर्ण शब्द है. एक दोहे में सहज की व्याख्या करते हुए कबीर कहते हैं-
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हे कोय
जे सहजे विषया तजै सहज कहीजे सोय.
अर्थात सहज का अर्थ है विषयों को सहज रूप से त्याग देना. जो विषयों को सहज रूप से त्याग देता है वही सहज है. लगभग इसी तर्ज पर पलटूदास कहते हैं–
पलटू पलटू क्या करे, मन को डारे धोय l
काम क्रोध को मारि के, सोई पलटू होय ll
(भाग -3 साखी -93 )
यहाँ पलटूदास पलटू को सहज के पर्याय के तौर पर पेश करते हैं. पलटू का अर्थ हुआ– सहज. पलटू का जीवन और उनकी साधना भी उन्हें सहज का पर्याय ही सिद्ध करती है. गुरु के दिए नाम को आत्मसात करना और उसमें साधनात्मक अर्थ भर देना पलटू के ही बस की बात थी.
असल में निर्गुण संत परंपरा में गुरु का स्थान बेहद महत्वपूर्ण है. यह परंपरा शास्त्र को प्रमाण नहीं मानती. बल्कि शास्त्र को ख़ारिज करती है, इसलिए इसमें गुरु ही प्रमाण होता है. निर्गुण परंपरा में गुरु महिमा का बखान एक अनिवार्य प्रसंग है. योग्य गुरु का मिल जाना ही मुश्किल है. एक बार योग्य और समर्थ गुरु मिल जाए तो आगे की राह आसान हो जाए. कबीर को गुरु की दीक्षा प्राप्त करने के लिए कितना पापड़ बेलना पड़ा था ? तरह-तरह की किम्वदंतियां /जनश्रुतियां बताती हैं कि पलटूदास को भी गुरु की तलाश में काफी भटकना पड़ा था. इस सम्बन्ध में जितनी जनश्रुतियां मिलती हैं वे सभी गोविन्ददास को पलटू का गुरु बताती हैं. गोविन्ददास पलटू के पुरोहित के परिवार से थे. आपस में मिलना जुलना था. दोनों सत्य की तलाश में भटक रहे थे. कभी साथ-साथ तो कभी अलग-अलग.
सत्य की तलाश में पलटू काशी की ओर गए तो गोविन्ददास जगन्नाथपुरी की ओर. कहते हैं रास्ते में ही गोविंददास की भेट भीखा साहेब से हो गयी और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गयी. पलटूदास अयोध्या चले गए और वहां अपना व्यवसाय करने लगे. कालांतर में उन्हें गोविन्द दास के सिद्ध होने का पता चला. वे गोविन्ददास के पास आये और उनके शिष्य हुए.
यानी पलटूदास के गुरु गोविन्ददास थे. गोविन्ददास का सम्बन्ध बावरी पंथ से था. पलटूदास ने अपनी बानी में बार-बार अपने गुरु गोविन्ददास का नाम लिया है. एक स्थान पर वे अपने को कबीर और गोविंद दास को रामानंद कहते हैं-
कबीर पलटि पलटू भये, गोविन्द रामानंद
तबकी में शक्कर रहा, अबकी भया मैं कंद ll
(पलटू साहेब की शब्दावली ,साखी -१४५ पृष्ठ२४७ )
कहने की जरूरत नहीं कि यहाँ पलटूदास गोविन्ददास को गुरु बताने के साथ-साथ स्वयं को कबीर की परंपरा में देखने का प्रस्ताव भी करते हैं. निर्गुण संत परंपरा भी पलटू को कबीर का अवतार मानती है. इसका निहितार्थ यही है कि अपने समय में पलटू ने कबीर जैसा साहस और प्रतिभा का प्रमाण दिया.
निर्गुण सन्तों की वाणी के मुद्रित पाठ का सबसे बड़ा स्रोत बेलवेडियर प्रेस से छपी किताबें हैं. बेलवेडियर प्रेस ने सन्त महात्माओं का जीवन चरित्र संग्रह भी प्रकाशित किया है. इसमें एक दो पृष्ठों में पलटूदास का सामान्य सा जीवन परिचय दिया गया है. बेलवेडियर प्रेस ने पलटूदास की बानी तीन खण्डों में प्रकाशित की है. इसमें भी पलटूदास का वही जीवन चरित हूबहू दे दिया गया है. कुल जमा डेढ़ पृष्ठों में प्रकाशित सामग्री से पलटूदास के जीवन के बारे में कुछ सामान्य जानकारियाँ इस प्रकार मिलती हैं-
- फैज़ाबाद और आजमगढ़ जनपद के नगजलालपुर गाँव में एक कांदू बनिया के घर पलटू ने जनम लिया था. (यद्यपि किताब में यह भी लिखा गया है फैज़ाबाद और आजमगढ़ में नगजलालपुर नामक कोई गाँव नहीं है)
- यहीं पर गोविन्ददास जी रहते थे. पलटूदास उनके साथ ज्ञान की तलाश में जगन्नाथ पुरी जा रहे थे. बीच में इनकी भेंट भीखा जी से हुई. भीखा की बात से दोनों को ज्ञान हुआ और दोनों ही लौट आये. गोविन्ददास को पलटू ने अपना गुरु धारण किया.
- पलटू साहब विक्रम के उन्नीसवें शतक में वर्तमान थे. अवध के नवाब शिराजुद्दौला और हिन्दुस्तान के बादशाह आलम इनके समकालीन थे.
- पलटूदास गृहस्थ आश्रम में रहे.
- पलटूदास ने अयोध्या में अपना निवास बनाया और प्रसिद्ध हुए.
- उनकी प्रसिद्धि से अयोध्या के साधु इतने कुपित हुए कि इन्हें ज़िन्दा जला दिया.
- किन्तु पलटू बाद में जगन्नाथपुरी में जीवित दिखाई पड़े.
पलटूदास के जीवन के सम्बन्ध में जहाँ कहीं भी उल्लेख मिलता है, प्रायः यही बातें थोड़े हेर फेर के साथ दुहरायी गयी हैं. पलटू के जीवन से सम्बन्धित कुछ पद और दोहे मिलते हैं, जिनमें पलटूदास के शिष्यों-पलटू परसाद और हुलासदास की रचनाएँ प्रमुख हैं. पलटूदास के जीवन के बारे में इससे काफी कुछ पता चलता है. पलटू परसाद ने पलटू के जनम स्थान के बारे में लिखा है–
नग जलाल पुर जनम भयो है, बसे अवध की खोरl
कहै पलटू प्रसाद हो, भयो जगत में सोर ll
(पलटू परसाद की भजनावली, (अप्रकाशित)से संत पलटूदास और पलटू पंथ, डॉ राधा कृष्ण सिंह पृष्ठ ३० पर उद्धृत )
इससे पलटूदास के नगजलालपुर में जन्म और अयोध्या में रहने तथा प्रसिद्ध होने की पुष्टि होती है. हुलासदास का एक ऐसा पद मिलता है जिसमें पलटूदास की जन्मतिथि का भी निर्देश मिलता है- नौमी तिथि का जन्म रोज इतवार है. माघ महीना मकर पक्ष उजियार है. सदगुरु पलटू हमार सन्त अवतार है. हरिहाँ हुलास को दिया नाम आधार है. केतिक अधम वृहत उन किया पार है. मैं सब से वह पापी के सरदार मोहूं को तार है. संवत १८२६ गुरु शब्द जनम पत्र है. हरिहाँ हुलास को दिया सिंहासन अटल सिर छत्र है.
(ब्रह्मविलास पृष्ठ ५०, संत पलटूदास और पलटू पंथ, डॉ राधा कृष्ण सिंह पृष्ठ ३७ पर उद्धृत)
यह पद पलटू से ज्यादा हुलासदास के जीवन का परिचय देता है. इससे इतनी सूचना जरूर मिलाती है कि संवत १८२६ में पलटूदास मौजूद थे और वे पूरी तरह सिद्ध संत के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे. इन्हीं सूचनाओं के आधार पर ‘भुडकुड़ा की सन्त परम्परा’ पुस्तक के लेखक इन्द्रदेव सिंह ने पलटू की जन्मतिथि की गणना की है और 1780 विक्रमाब्द, माघ मास, शुक्ल पक्ष, नौमी, रविवार, (मकर राशि) को पलटू का जन्म बताया है.
लेकिन तिथियों का यह विवरण पलटू का नहीं बल्कि स्वयं हुलासदास का ही जान पड़ता है. एक अनुमान के मुताबिक पलटू का जन्म गोविन्ददास के जन्म के आसपास संवत १७७२ के बाद कभी हुआ होगा.
(1 संत पलटूदास और पलटू पंथ, डॉ राधा कृष्ण सिंह पृष्ठ ३७ )
इस आधार पर संवत १७८० को उनका जन्म वर्ष माना जा सकता है. हुलासदास के ब्रह्मविलास में पलटू की मृत्यु की सूचना देने वाला एक पद मिलता है—
आश्विन सुदी द्वादशी तिथि, सोमवार घरी चार l
पलटू त्यागा देह को विनती बारम्बार ll
(संत पलटूदास और पलटू पंथ, डॉ राधा कृष्ण सिंह पृष्ठ ३७ )-
इस पद में भी संवत का उल्लेख नहीं है. सिर्फ यही जानकारी मिलती है कि पलटू की मृत्यु आश्विन मास,शुक्ल पक्ष, द्वादशी तिथि, सोमवार को हुयी होगी.परंपरा से यह पता चलता है कि पलटू की मृत्यु उनके गुरु गोविन्ददास की मृत्यु से पहले ही हो गयी थी. गोविन्ददास की मृत्यु संवत १८७९ में मानी जाती है. इसी आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि पलटूदास की मृत्यु संवत १८६० के आस-पास हुई होगी (संत पलटूदास और पलटू पंथ ,डॉ राधा कृष्ण सिंह पृष्ठ ३७ )
इसलिए पलटूदास के जीवन और खास तौर से जन्म तिथि और मृत्यु तिथि के बारे में अनुमान प्रमाण पर ही निर्भर होना पड़ेगा.
इसलिए तिथियों की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता जांचने के बजाय पलटूदास की बानियों में उनके जीवन के बारे में मौजूद संकेतों के आधार पर उनके जीवन की छवि बनायी जा सकती है. पलटूदास की बानियों में उनके जन्म, अवध में निवास, जाति और व्यवसाय आदि की जानकारी मिलती है. पलटूदास की रचनाओं से उनके जीवन के बारे में जो जानकारी मिलती है और व्यक्तित्व उभरता है उससे आभास होता है कि वे कबीर की तरह तेजस्वी थे.
पलटूदास के अंत: साक्ष्य से इनके जीवन के बारे में जो बातें पता चलती हैं उनका सार इस प्रकार है-
जलालपुर में जन्म हुआ और बचपन बीता. अवध में उन्हें सिद्धि मिली. वे जाति और व्यवसाय से बनिया थे.. उनकी बानियों में बनिक व्यवसाय से जुड़े प्रतीक बताते हैं कि वे सिद्धि के पहले अयोध्या में ही कोई दुकान चलाते थे. उनकी बानियाँ यह भी बताती हैं कि वे सामान्य रूप से शिक्षित थे. यानी अपने व्यवसाय का हिसाब किताब रखने भर की शिक्षा उनके पास थी. ज्ञान की तलाश में उन्होंने यात्राएँ भी खूब की थी. जगन्नाथपुरी से लेकर काशी और भुडकुडा की यात्रा के प्रसंग मिलते हैं. इनके दो शिष्य थे, पलटूपरसाद और हुलासदास. पलटू परसाद के बारे में कहा जाता है कि वे इनके छोटे भाई थे, जो आगे चलकर पलटू के शिष्य हुए. पलटू के बाद यही पलटू परसाद उनके अयोध्या स्थित मठ के उत्तराधिकारी हुए. दूसरे शिष्य हुलासदास बरौली जिला बाराबंकी चले गए और वहीं पर मठ बनाकर रहने लगे. दोनों शिष्यों की रचनाएँ भी मिलती हैं.
गृहस्थाश्रम में रहते हुए पलटूदास काफी अभाव में थे लेकिन सिद्धि मिलने के बाद सभी अभाव जाते रहे. उनके नाम का ऐसा डंका बजा कि अमीर लोग तरह-तरह की भेट लेकर सेवा में उपस्थित होने लगे. राजा से लेकर प्रजा सब उनके आगे नाक रगड़ने लगे. भक्ति की शक्ति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि चारों वर्णों के लोग छोटी जाति के पलटूदास का चरण धोकर चरणामृत लेने लगे. ठीक उसी तरह जैसे ब्राह्मण लोग रैदास का दंडवत करने लगे थे.
शुरू में रैदास को भी ऊँची जाति के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि वे जाति के चमार थे. कांदू बनिया जाति के पलटूदास को भी तथाकथित उच्चवर्णीय लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा. कल का बनिया आज पूजा जा रहा है जबकि बड़े-बड़े महन्तों को कोई पूछ नहीं रहा है, यह बात अयोध्या के उच्च वर्णीय वैरागियों को रास नहीं आई. अयोध्या के वैरागियों ने मिलकर पलटू को अजात घोषित कर दिया था. पलटूदास की लोकप्रियता और सम्मान पर इस निंदा और भर्त्सना का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वे संतों के सिरमौर बने रहे. आखिर में ईर्ष्या ग्रस्त लोगों ने पलटू को ज़िन्दा जला दिया.
पलटू को ज़िन्दा जलाने का प्रसंग समूचे भक्ति आन्दोलन में अनूठा है. इसकी तुलना सिर्फ मीराबाई को दी गयी प्रताड़ना से की जा सकती है. मीराबाई को जहर दिया गया था, पर यह सामंती दायरे और सामन्ती मर्यादा का उल्लंघन का नतीजा था. एक स्त्री ने सामंती नैतिकता को चुनौती दी थी, उसे सजा दी गयी. निम्न जातियों से आये और भी संतों को प्रताड़ना सहनी पड़ी थी. कबीर और रैदास के बारे में भी इस तरह के किस्से प्रचलित हैं. लेकिन पलटू को ज़िन्दा जलाने की घटना सबसे अलग है. इन्हें प्रतिद्वंदी साधु समाज के कोप का शिकार बनना पड़ा.
क्या इसे सगुन निर्गुण के बीच होने वाले तीखे संघर्ष के रूप में देखा जाए? या फिर सवर्ण और अवर्ण के बीच के संघर्ष के रूप में देखा जाये. पलटू को जब जलाया गया तब वे प्रसिद्धि के शिखर पर थे. अपने जीवन के आखिरी वर्षों में कबीर को बनारस छोड़कर मगहर जाना पड़ा. कबीर हिंदी क्षेत्र में निर्गुण भक्ति के पहले उन्नायक थे.
उनके साथ ही सगुण निर्गुण विवाद शुरू हुआ. इस विवाद की काव्यात्मक अभिव्यक्ति होती रही है. सूरदास का भ्रमरगीत इसका श्रेष्ठ उदाहरण है. इस विवाद का अत्यंत तीखा रूप तुलसीदास के यहाँ दिखाई देता है. तुलसीदास के सर्वव्यापी प्रभाव में निर्गुण धारा क्षीण होती चली गयी. पलटूदास ने एक बार फिर निर्गुण भक्ति का प्रभाव कायम किया और वह भी ऐन तुलसीदास के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में.
अद्वैत की दार्शनिक स्थिति को स्वीकार करना एक बात है, उसे व्यवहार में उतारना बिलकुल दूसरी बात है. ज्यों ही अद्वैत को व्यावहारिक रूप देते हैं जाति और वर्ण की धारणा आ खड़ी होती है. पलटूदास ने अद्वैत की धारणा के मुताबिक सामाजिक समानता की शिक्षा दी जो वर्ण और जाति के आग्रही लोगों को स्वीकार नहीं हुआ. जिसकी परिणति पलटू को ज़िन्दा जला देने में हुई. पलटू के मृत्यु की कथा दरअसल भारतीय समाज में मौजूद जातीय और वर्ण आधारित घृणा का दिल दहला देने वाला एक और प्रमाण है .
पलटूदास की रचनाएँ
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कबीर आदि संतों की तरह पलटूदास भी शब्द साधक थे. संतों की साधना में शब्द ही उपाय है. कबीर का फकीरवा उन्हें शब्दों की मार से ही जगाता है. सद्गुरु सच्चा शूर है, वह ऐसा एक ही शब्द मारता है कि करेजे में छेक पड़ जाता है. पलटू के यहाँ भी उसी शब्द का खेल है. शब्द कहीं जाकर धंस गया है, तब से उदासी छाई है. विकलता छाई है. तलाश चल रही है. गिरि, कानन से लेकर मथुरा काशी तक सब खोज लिया है, वह कहीं मिल नहीं रहा है. पूछने पर कोई कुछ बता नहीं रहा है, उलटे सब मजाक उड़ा रहे हैं, लेकिन शब्द का कमाल देखिये कि पलटूदास ने अंततः उसे खोज लिया है. खासमखास वैरागिन होकर उसे खोज निकाला है. यह पलटू की शब्द साधना है.
संतों की बानी कविता है या नहीं इस पर कुछ ज्यादा ही बहस होती है. कुछ लोग उसे किसी भी तरह कविता मानने को तैयार नहीं हैं, तो कुछ लोग उसमें कविता का मोती खोजने का दावा करते हुए निकलते हैं और खर सेवार लेकर सामने आते हैं. असल में संतों की कविता के पास पहुंचने की हमारी पात्रता में ही कहीं कोई खोट है. संतों की बानी में शब्दों के प्रति जो आस्था दिखाई पड़ती है और जिस तरह वे शब्द के सामर्थ्य पर भरोसा करते हैं उसे अगर समझ लिया जाये तो अलग से कविता है या नहीं जैसी बहस की गुंजाइश ही नहीं रह जाती. सीधी सी बात यह है कि कवि का पहला और अंतिम सहारा शब्द ही हैं. संतों के यहाँ भी यही सच है. इसीलिए उनकी बानी को सबद या शब्द ही कहा जाता है. कबीर जब कहते हैं –
कबिरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं
सीस उतारे भुइं धरे तब पइसे घर माहिं
तब वे एक तरह से कविता के घर में प्रवेश करने का उपाय ही बता रहे हैं. कविता के घर में सीधे पहुंचने में हमें कठिनाई होती है. सीस को उतारना और परे रखना तो दूर की बात है, हम बहुत से नकली सिर लगाकर वहां जाते हैं. संतों की कविता समाज की यथास्थिति से टकराती है और उसे बदलने का उपाय भी करती है. संतों की कविता को कविता मानने और उसे समझने में सबसे बड़ी बाधा इसी से पैदा होती है.
कविता की पसंदगी और समझ का सम्बन्ध हमारी स्वीकार्यता से भी होता है. वर्ण और जाति पर केन्द्रित सामाजिक यथास्थिति कुछ ख़ास तबके को विशेषाधिकार देती है. यथास्थिति में बदलाव का प्रस्ताव उन्हें कई तरह के विशेषाधिकारों से वंचित कर देता है. सामाजिक यथास्थिति को बदलने का अर्थ प्रचलित श्रेष्ठता क्रम को बदलने की मांग करता है. इसीलिए हम यथास्थिति से टकराने वाली कविता को कविता न मानने की हिकमत निकाल लेते है या फिर उस पर दुरूह होने का ठप्पा लगा देते हैं. वरना क्या कारण है कि जो कविता बिना किसी सिफारिश के बिना किसी भौतिक प्रलोभन के पीढ़ी दर पीढ़ी व्यापक जन समूह की स्मृति में बसी रहती है और उसे आसूदगी प्रदान करती है, उसे कविता होने और न होने की परीक्षा से गुजरना पड़ता है. इसलिए जैसा कबीर कहते हैं– संतों की कविता के निकट जाने के पहले हमें वर्ण और जाति के, पद और प्रतिष्ठा के, सामाजिक हैसियत के, विद्वता और पांडित्य के ‘सिरों” को जमीं पर रख कर जाना होगा. लेकिन हम इन सिरों के बगैर कविता तक पहुंच ही नहीं पाते. शायद इसीलिए केदारनाथ सिंह अपनी कविता में एक जगह कहते हैं कि मैं शब्द और आदमी के बीच टक्कर से होने वाले धमाके को सुनना चाहता हूँ. मुझे लगता है कि इस कल्पना का सम्बन्ध संतों की बानी से है. संतों की कविता शब्द और आदमी के बीच सीधी टक्कर ही तो है. पलटूदास की कविता भी शब्द और आदमी की सीधी टक्कर है.
संत कवि इस टक्कर पर इतना भरोसा करते हैं की अपनी बानियों को उनके भरोसे छोड़ देते हैं जिनसे ये बानियाँ टकराती हैं. इनकी बानियाँ उस आदमी के हवाले हो जातीं हैं. इसीलिए संतों की बानी का प्रामाणिक पाठ मिलना मुश्किल हो जाता है. मूल पाठ में अभिग्रहण किये गए कई सारे पाठ घुलमिल जाते है.
पलटूदास की बानी का भी यही हाल है. पलटू पंथी मठों और साधुओं की जमात में पलटू की रचनाएँ विपुल मात्रा में मौजूद हैं. नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट में पलटूदास के जिन पांच संग्रहों की चर्चा है, वे इस प्रकार हैं-
1-आत्मकर्म
2-कुण्डलिया
3-पलटूदास की बानी
4-राम कुण्डलिया तथा
5-ककहरा अरिल्ल.
‘आत्मकर्म’ हस्तलिखित रूप में किन्हीं जय मंगल शास्त्री के यहाँ से प्राप्त हुई थी. यह नगरी लिपि में है तथा संवत १९३० में प्रतिलिपि हुई है. इसके १२८ पदों में योग, ब्रह्म तथा जीव, भक्ति,ध्यान, अलख दर्शन, की चर्चा है तथा ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय भी बताया गया है. राम कुण्डलिया पलटूदास के अयोध्या अखाड़े से प्राप्त हुई है. यह भी देवनागरी लिपि में है इसके ७९ कुंडलियों में ज्ञान और भक्ति की चर्चा की गयी है. तीसरी पोथी पलटू दास की बानी है, जो किन्हीं ठाकुर लक्ष्मण सिंह ग्राम छाता जिला मथुरा के यहाँ से प्राप्त हुई है. यह खंडित प्रति है. इसमें कुण्डलिया, अरिल्ल, ककहरा तथा झूलना आदि छंद संगृहीत हैं. इसकी विषयवस्तु मुख्य रूप से ब्रह्मचर्चा ही है. बन के नांव जिला सुल्तानपुर के महंत जगन्नाथ जी के यहाँ से ककहरा तथा अरिल्ल का संग्रह भी मिला है जिसमें योगाभ्यास और ज्ञानोपदेश का वर्णन है. अयोध्या अखाड़े से पलटूदास की बानी की प्रति भी मिली है जो अपूर्ण जान पड़ती है. खेद जनक है की अभी तक कोई ऐसी प्रति नहीं मिली है जो स्वयं पलटूदास द्वारा या उनकी निगरानी में तैयार हुयी हो.
पलटूदास की रचनाएँ सबसे पहले बेलबेडियर प्रेस से ‘पलटू साहिब की बानी’ शीर्षक से तीन भागों में प्रकाशित हुई है. बेलवेडियर प्रेस ने शुरू में पलटू साहब की कुंडलियाँ और कुछ अरिल्ल छंद के साथ 1907 में एक संकलन प्रकाशित किया था. फिर प्रेस के संतवाणी संकलन कर्ता को कुछ रेख्ते झूलने और अरिल्ल मिले जिसे एक छोटी पुस्तक के रूप में 1908 में प्रकाशित किया गया. बाद में पुराना कोपा जिला आजमगढ़ के पलटूपंथी महन्त सरजूदास से पलटूबानी की हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई. उससे मिलान करके अशुद्धियों को दूर किया गया और कुछ और छंद चुनकर 1927 में पलटूसाहब की बानी के तीनों भाग प्रकाशित हुए.
पलटू साहब की बानी भाग-एक इसमें पलटूदास की 268 कुन्डलियाँ संकलित की गई हैं. कुंडलियों का विषयवस्तु के अनुरूप वर्गीकरण किया गया है.
गुरुदेव,
नाम महिमा (सामर्थ्य),
संत और साध,
भक्त जन,
पाखंडी,
चेतावनी,
भक्ति,
प्रेम विश्वास,
सत्संग,
ध्यान,
सूरमा,
पतिव्रता,
उपदेश,
ज्ञान,|
विनायमान,
भेद,
अद्वैत,
उलटवांसी,
दुष्ट,
जीव हिंसा तथा जातिभेद का वर्णन है.
इसके अलावा कुछ पद ऐसे भी हैं जिनकी विषयवस्तु मिली जुली है.
पलटू बानी भाग दो- इसमें पलटू के 99 रेख्ते, 68 झूलने, 147 अरिल्ल, 33 ककहरा, 7 कवित्त और 2 सवैये संकलित हैं. इनका वर्ण्य विषय भी प्राय: वही है जो भाग एक में है. प्राय: उसी विषयवस्तु को अलग–अलग छंदों में कहा गया है. पाठक की सुविधा के लिए इसमें छंदों के उल्लेख के साथ विषयवस्तु का भी उल्लेख है.
पलटू बानी भाग तीन- इसमें सबद और साखियाँ हैं. 157 सबद और 165 साखियाँ संकलित हैं. तीसरे भाग में भी पहले दोनों भागों की तरह बानियों को उनके कथ्य और छंदरूप के अनुसार वर्गीकरण कर के प्रकाशित किया गया है.
बेलवेडियर प्रेस से प्रकाशित पलटूदास की बानियों का यह संग्रह प्रतिनिधि चयन ही है, लेकिन अभी तक प्रकाशित सभी संकलनों में सबसे प्रामाणिक भी यही है. वियोगी हरि के ‘संत सुधा सार’, जगजीवन राम की प्रेरणा से काका कालेलकर के संपादन में शोभीराम संत साहित्य संस्थान से प्रकाशित ‘हिंदी के जनपद संत’ तथा राधा स्वामी सत्संग न्यास से प्रकाशित ‘संत पलटू’ में संकलित बानियाँ इसी संग्रह से ली गयी हैं.
महंत जगन्नाथ दास के जिस अधूरे संग्रह की चर्चा पीछे की गयी है उसको आगे चलकर उनके शिष्य सत्यराम दास शास्त्री ने श्री पलटू साहेब कृत शब्दावली शीर्षक से प्रकाशित किया है. यह पलटू साहेब के अयोध्या स्थित अखाड़े से प्रकाशित है. इसमें पाठ शोधन का प्रयत्न भी दिखाई पड़ता है. अकारादि क्रम से पद्यानुक्रमणिका भी दी गयी है. इसकी भूमिका में पलटूदास का जीवन परिचय भी दिया गया है, जो बेलवेडियर प्रेस वाले जीवन परिचय से विस्तृत है. ‘श्रीमद योगिराज पलटू यतीन्द्र चरितं’ शीर्षक से संस्कृत श्लोकों में पलटू महिमा तथा गुरु प्रणाली भी दी गयी है.
अयोध्या के निकट मोकलपुर में ही पलटू साहब का अखाड़ा है. वहाँ से श्री प्रकाशदास फलाहारी बाबा ने भी श्री पलटू साहेब कृत शब्दावली शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की है. इस पुस्तक में प्रायः वे ही छंद हैं जो अयोध्या अखाड़े से प्रकाशित संकलन में हैं. इस पुस्तक में दिये गये सबद और विविध छंदों की 846 रचनाएँ और 164 साखियाँ संकलित हैं. इसमें किसी तरह की भूमिका या जीवन परिचय नहीं दिया गया है. इन दोनों ही शब्दावलियों और बानी की भाषा की तुलना करने पर एक दिलचस्प तथ्य सामने आता है. मठों से प्रकाशित पुस्तकों में यथासंभव भाषा को तत्सम बनाने की कोशिश की गयी है.
पलटू साहेब की बानी के तीनों भाग मिलाकर कुल ९४५ छंद हैं जबकि शब्दावली में १०१० छंद हैं. इनमें १३३ छंद ऐसे हैं जो दोनों में शामिल हैं. इस तरह पलटू के छपे हुए छंदों की संख्या १८२२ हुई.
पलटूदास की वाणी प्रायः गेय पदों में है. पद अनेक रागों में लिखे गये है. राग विलावल, सोरठा, परस्तो, हिण्डोला, भैरव, बंगला, गौरी, कहरा, जैजयवंती आदि राग मिलते हैं. सामाजिक उत्सवों में गाये जाने वाले मंगल बिआहू, बसंत, झूमक आदि के साथ शादी व्याह के अवसर पर गायी जाने वाली गालियों के राग का भी प्रयोग मिलता है. कुण्डलिया, रेखता, झूलना, अरिल्ल, ककहरा, कावित्त तथा सवैया जैसे लोक प्रचलित छंदों का भी प्रयोग किया है. पलटूदास की बानी के कुछ छंद आसानी से याद होने और गाये जाने लायक हैं. इसीलिए पलटू की बानी लोक स्मृति में अंकित है.
पलटूदास के पद |
1
फूटि गया आसमान सबद की धमक में।
लागी गगन में आग सुरति की चमक में।।
सेसनाग और कमठ लगे सब कांपने।
अरे हाँ पलटू सहज समाधि कि दसा खबर नहीं आपने।।
2
जो कोइ चाहै नाम तो अनाम है।
लिखन पढ़न में नहिं निश्रच्छर काम है।।
रूप कहौ अनरूप पवन अनरेख ते।
अरे हाँ पलटू गैव दृष्टि से संत नाम वह देखते।।
3
खेलु सिताबी फाग तू बीती जात बहार।
बीती जात बहार संबत लगने पर आया।।
लीजै डफ़् फ बजाय सुभग मानुष तन पाया।
खेलो घूँघट खोलि लाज फागुन में नाहीं।।
जे कोइ करिहै लाज काज का सुपनेहुँ माहीं।
प्रेम की माट भराय सरति की करु पिचकारी।।
ज्ञान अबीर बनाय नाम की दीजै गारी।
पलटू रहना है नहीं सुपना यह संसार।।
खेलु सिताबी फाग तू बीती जात बहार।
4
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान।।
सो ध्यानी परमान सुरत से अंडा सेवैं।।
आपु रहै जल माहिं सूखे में अंडा देवै।।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै।
कर छोड़े मुख बचन चित्त कलसा में लावै।।
फनि मनि धरै उतरि आप चरने को जावै।।
वह गाफिल ना पड़ै सुरत मनि माहिं रहावै।
पलटू सब कारज करै सुरत रहै अलगान।।
कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान।।
माया की चक्की चलै पीसि गया संसार।
पीसि गया संसार बचै ना लाख बचावै।।
दाऊ पट के बीच कोऊ ना साबित जावै।
काम क्रोध मद लोभ चक्की के पीसनहारे।
तिरगुन डारै झीक पकरि के सबै निकारे।।
दुरमति बड़ी सयानी सानी कै रोटी पोबै।
करम तवा में धारि सेंकि कै साबित होबै।।
तृस्ना बड़ी छिनारि जाइ उन सब घर घाला।
काल बड़ा बरियार किया उन एक निवाला।।
पलटू हरि के भजन बिनु कोउ न उतरै पार।
माया की चक्की चलै पीसि गया संसार।।
५
क्या सोबै तू बावरी चाला जात बसंत।
चाला जात बसंत कंत ना घर में आए।।
धृग जीवन है तोर कंत बिन दिवस गंवाये।
गर्व गुमानी नारि फिरै जोवन की माती।।
खसम रहा है रूठ नहीं तू पठवै पाती।
लगै न तेरो चित्त कंत को नाहिं मनावै।।
का पर करै शिंगार फूल की सेज बिछावै।।
पलटू ऋतु भरि खेलि ले फिर पछितैहै अंत।
क्या सोवैं तू बावरी चाला जात बसंत।।
6
प्रेम बान जोगी मारल हो कसकै हिया मोर।
जोगिया कै लालि लालि अंखिया हो जस कंवल कै फूल।।
हमरी सुरुख चुनरिया हो दूनों भये तूल।
जोगिया कै लेउ मिर्गछलवा हो आपन पट चीर।।
दूनौं कै सियब गुदरिया हो होइ जावै फकीर।
गगना में सिंगिया बजाइन्हि हो ताकिन्हि मोरि ओर।।
चितवन में मन हरि लियो है, जोगिया बड़ चोर।
गंग जमुन के बिचवां छे, बहै झिरहिर नीर।।
तेहिं ठैयां जोरल सनेहिया हो, हरि लै गयो पीर।
जोगिया अमर मरै नहिं हो पुजवल मोरी आस।।
कर लिखा बर पावल हो, गाबै पलटूदास।।
7
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखियो जो।
समरथ स्वामी की जब पाया,
जगत से दीन न भाखिये जी।।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात की अतै आखिये जी।
पलटू जो दुख सुख लाख परै,
वहि नाम सुधा रस चाखिये जी।।
चितवनि चलनि मुसकानि नवनि,
नहिं राग द्वेष हार जीत है जी।
पलटू छिमा संतोष सरल,
तिनकौ गावै स्रुति नीति है जी।।
8
पूरब पुन्न भये प्रगट सतसंगति के बीच परी।
आनंद भये जब संत मिलै वही सुभ दिन वहि सुभ घरी।।
दरसन करत त्रय ताप मिटे बिन कौड़ी दाम मैं जाय तरी।
पलटू आवागमन छूटा, चरनन की रज सीस धरी।।
9
बिना सतसंग न कथा हरिनाम की,
बिना हरिनाम ना मोह भागै।
मोह भागे बिना मुक्ति ना मिलेगी,
मुक्ति बिनु नहिं अनुराग लागै।।
बिना अनुराग के भक्ति न होयगी,
भक्ति बिनु प्रेम उर नहिं जागै।
प्रेम बिनु राम ना राम बिनु संत ना,
पलटू सतसंत वरदान माँगे।।
10
जिन दिन पाया वस्तु को तिन तिन चले छिपाय।।
तिन तिन चले छिपाय प्रगट में हो हरक्कत।
भीड़-भाड़ में डरै भीड़ में नहीं बरक्कत।।
धनी भया जब आप मिली हीरा की खानी।
ठग है सब संसार जुगत से चलै अपानी।।
जे ह्वै रहते गुप्त सदा वह मुक्ति में रहते।
उन पर आवै खेद प्रगट जो सब से कहते।।
पलटू कहिये उसी से जो तन मन दै लै जाय।
जिन जिन पाया वस्तु को तिन तिन चले छिपाय।।
११
काम क्रोध बसि कीहा नींद औ भूख को।
लोभ मोह बसि कीहा दुक्ख और सुक्ख को।।
पल मे कीस हजार जाय यह डोलता।
अरे हाँ पलटू वह ना लागा हाथ जौन यह बोलता।।
12
आठ पहर की मार बिना तरवार की ।
चूके सो नहिं ठांव लड़ाई धार की ।।
उस ही से यह बनै सिपाही लाग की।
अरे हाँ पलटू पड़ै दाग पर दाग पंथ बैराग का।।
13
काजर दिये से का भया ताकन को ढ़ब नाहिं।
ताकन को ढ़ब नाहिं ताकन की गति है न्यारी।।
इकटक लेवै ताकि सोई है पिय की प्यारी।
ताके नैन मिरोरि नहिं चित अंतै टारै।।
बिन ताके केहि काम लाख कोउ नैन संवारै।
ताके में है फेर फेर काजर में नाहिं।।
भंगि मिली जो नाहिं नफा क्या जोग के माहीं।
पलटू सनकारत रहा पिया को खिन खिन माहिं।।
काजर दिये से का भया ताकन को ढ़ब नाहिं।
14
नाचना नाचु तो खोलि घूंघट कहै।
खोलि कै नाचु तो खोलि घूंघट कहै।
खोलि कै रिझाव तो ओट को छोड़ि दे।
भर्म संसार कौ दूरि फेंकै।।
लाज किसकी करै खसम से काम है।
नाचु भरि पेट फिर कौन छेंकै।।
दास पलटू कहै तुहीं सुहागिनी।
सोव सुख सेज तू खसम एकै।
15
सुन्दरी पिया की पिया को खोजती।
भई बेहोस तू पिया के कै।।
बहुत सी पदमिनी खोजती मरि गईं।
रटत ही पिया पिया एक एकै।।
सती सब होत हैं जरत बिनु आगि से।
कठिन कठोर वह नाहिं झाँकैं।।
दास पलटू कहै सीस उतारि के।
सीस परनाचु जो पिया ताकै।।
16
केतिक जुग गये बीति माला के फेरते।
छाला परि गये जीभि राम के टेरते।।
माला दीजै डारि मनै को फेरना।
अरे हाँ पलटू संग लगे भगवान संत से वे डेरैं।।
१७
दूसरा पलटू इक रहा भक्ति दई तेहि जात।
भक्ति देई तेहि जान नाम पर पकर्यो मोकहँ।।
गिरा परा धन पाय छिपायौं मैं ले ओकहँ।
लिखा रहा कुछ आन कर्म से दीन्हा आनै।
जानौ महीं अकेल कोऊ दूसर नाहिं जानै।
पाछे भा फिर चेत देय पर नाहीं लीन्हा।।
आखिर बड़े की चूक जोई निकसा सोइ किन्हा।
पलटू मैं पापी बड़ा भूल गया भगवान।।
दूसर पलटू इक रहा भक्ति देई तेहि जान।
१८
माता बालक कहैं राखती प्रान है।
फनि मनि धरै उतारि ओहि पर ध्यान है।।
माली रच्छा करै सींचता पेड़ जयों।
अरे हाँ पलटू भक्त संग भगवान गऊ औ बच्छ त्यौं।।
19
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय।
चादर लीजै धोय मैल है बहुत समानी।।
चल सतगुरु के घाट भरा जहँ निर्मल पानी।
चादर भई पुरानि दिनों दिन बार न कीजै।।
सतसंगत में सौद ज्ञान का साबुन दीजै।
छूटै कलमल दाग नाम का कलप लगावै।।
चलिये चादर ओढ़ि बहुर नहिं भव जल आवै।
पलटू ऐसा कीजिये मन नाहिं मैला होय।
धुबिया फिर मर जायगा चादर लीजै आवै।।
20
मीठ बहुत सतनाम है पियत निकारै जान।
पियत निकारै जान मरै की करै तयारी।।
सो वह प्याला पियै सीस के धरै उतारी।
आँख मूंदि कै पियै जियन की आसा त्यागै।।
21
फिर वह होवै अमर मुये पर उछि कै जागै।
हरि से वे हैं बड़े पियो जनि हरि रस जाई।।
ब्रह्मा बिस्नु महेस पियत कै रहे डेराई।
पलटू मेरे वचन को ले जिज्ञासू मान।।
मीठ बहुत सतनाम है पियत निकारै जान।
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार।।
महल भया उजिया रनाम क तेज बिराजा।
सब्द किया परकास मानसर ऊपर छाजा।।
दसो दिसा भई सुद्ध बुद्ध भई निर्मल साची।
घुटी कुमति की गाँठि सुमति परगट होय नाचै।।
होत छतीसे राग दाग तिर्गन का छूटा।
पूरा प्रगटे भग करम का कलसा फूटा।।
पलटू अँधियारी मिटी बाती दीन्हीं टार।
दीपक बारा नाम का महल भया उजियार।।
हाथ जोरि आगे मिलै लै लै भेंट अमीर।
लै लै भेंट अमीर नाम का तेज बिराजा।।
सब कोउ रगरै नाक आइ कै परजा राजा।
सकलदार मैं नहीं नीच फिर जाति हमारी।।
गोड़ धोय षट करम बरन पावै लै चारी।
बिन लसकर बिन फौज मुलुक में फिरी दुहाई।।
जन महिमा सतनाम आपु में सरस बड़ाई।
सतनाम के लिहे से पलटू भया गँर।।
हाथ जोरि आगे मिलै लै लै भेंट अमीर।
सीतल चंदन चंद्रमा तैसे सीतल संत।।
तैसे सीतल संत जगत की ताप बुझावें।
जो कोई आवै जरत मधुर मुख बचन सुनावें।।
धीरज सील सुभाव छिमा ना जात बखानी।
केमल अति मृदु बैन बज्र को करते पानी।।
रहत चलन मुसकान ज्ञान को सुगँध लगावैं।
तीन ताप मिट जाय संत के दरसन पावैं।।
पलटू ज्वाला उदर की रहैंन मिटै तुरंत।
सीतल चंदन चंद्रमा तैसे सीतल संत।।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय।
जन की सही न जाय दुर्बासा की क्य गत कीन्हा।।
भुवन चतुर्दस फिरै सबै दुरियाय जो दिन्हा।
पाहि पाहि कर परै जबै हरि चरनन जाई।।
तब हरि दीन्ह जवाब मोर बस नाहिं गुसाई।
मोर द्रोह करि बचै करों जन द्रोहक नासा।
माफ करै अँबरीक बचोगे तब दुर्बासा।।
पलटू द्रोही संत कर इन्हें सुदर्सन चाय।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय।।
२२
पिसना पीसै रांड री पिउ पिउ करै पुकार।
पिउ पिउ करै पुकार जगत को प्रेम दिखावै।।
कहवै कथा पुरान पिया को तनिक न भावै।
खिन रोवै खिन हँसै ज्ञान की बात बतावै।।
आप न रीझै भाँड़ और को बैठि रिझावै।
सुनै न वा की बात तनिक जो अंतर ज्ञानी।।
चाहै मेटा वीव चलै ना सुपथ रहानी।
पलटू ऊपर से कहै भीतर भरा विकार।।
पिसना पीसै राँड री पिउ पिउ करै पुकार।
23
पर दुख कारन दुख सहै सन असंत है एक।
सन असंत है एक काट के जल में सारै।
कूंचै खैंचै खाल ऊपर से मुंगरा मारै।।
तेकर वटि के भाँज भाँजि कै बरता रसरा।
नर की बाँधै मुसुक बाँधते थउ और बछरा।।
अमरजाल फिर होय बझावै जलधर जाई।
खग मृग जीवा जंतु तेही में बहुत बझाई।
जिउ दै जिउ संतावते पलटू उनकी टेक।।
पर दुख कारन दुख सहै सन असंत है एक।
बिसवा किये सिंगार है बैठी बीच बजार।।
बैठी बीच बजार नजरा सब से मारै।
बातें मीठी करै सबन की गाँठ निहारै।।
चोवा चंदन लाइ पहिरि के मलमल खासा।
पँचभतरी भई करै औरन की आसा।।
लेइ खसम को नाँव खसम से परिचै नाहिं।
केचि पड़न को नाँव सभन को ठगि ठगि खाही।।
पलटू तेकर बात है जेकरे एक भतार।
बिस्वा किये सिंगार है बैठी बीच बजार।।
24
हवा हरिस पलटू लगी नाइक भये फाकीर।
नाइक भये फकीर पीर की सेजा नहीं।।
अपने मुंह से बडे कहावें सब से जाहीं।
धमधूसर होइ रहै बात में सब से लडते।।
लाभ काफ वो कहै इमान को नाहीं डराते।
हमहीं हैं दुरबेस और ना दूसर कोई।।
सब को देंहि मुराद यकीन से ओकरे होई
मन मुरीद होवै नहीं आप कहावैं पीर।।
हवा हिरिस पलटू लगी नाहक भये फकीर।
25
जौं लगि फाटै फिकिर न गई फकीरी खोय।
गई फकीरी खोय लगी है मान बड़ाई।।
मोर तोर मे परा नाहिं छूटी दुचिताई।
दुख सुख संपति बिपति सोच दोऊ की लागी।।
जीवन की है चाह मरन की डेर नहिं त्यागी।
कौड़ी जिव के संग रैन दिन करै अल्पना।।
दुष्ट कहै दुख देइ मित्र को जानै अपना।
पलटू चिता लगी है जनम गँवाये रोय।।
जौं लगि फाटै फिकिर ना गई फकीरी खोय।
26
धूआँ का धौरेहरा जयों बालू की भीत।।
ज्यों बालू की भीत ताहि को कौन भरोसा।।
ज्यों पक्का फल डारि गिरत से लगै न दोसा।
कच्चे घले ज्यों नीर पानी के बीच बतासा।।
दारू भीतर अगिनि जिवन की ऐसी आसा।।
पलटू नर तन जात है घास के ऊपर सीत।।
धूआँ धौरेहरा ज्यों बालू की भीत।
27
यही दिदारी दार है सुनहु सुनहु मुसाफिर लोग।।
सुनहु मुसाफिर लाग भेंट फिर बहुरि न होना।
को तुम के हम आय मिले सपने में सोना।।
हिल मिल दिन दस रहे ताहि को सोच न कीजै।
कोऊ है थिर नाहिं दोस ना हमको दीजै।।
अहिर बाँधि के गाय एक लेहडे में आनी।
कूवाँ की पानिहारि गई ले घर घर पानी।
पलटू मछरी आम ज्यों नदी नाँव संजोग।
यही दिदारी दार है सुनहु मुसाफिर लोग।।
28
आग लगी लंका दहै उनचासौं बही बयार।
उनचासौं बही बयार ताहि को कौन बचावै।
घरे के प्रानी रहे सोऊ आगी गुहरावैं।।
फूटी घर की नारि सगा भाई अलगाना।।
बड़े मित्र जो रहे भये सब सत्रु समानौ
कंचन को सब नगर रती को रावन तरसै।
दिया सिंधु ने थाह ऊपर से परबत बरसै।
लपटू जेहि ओर राम हैं तेहि ओर सब संसार।।
आग लगी लंका दहै उनचासौं बही बयार।
२९
ज्यों ज्यों सूखे ताल हैं त्यों त्यों मीन मलीन।
त्यों त्यों मीन मलीन जेठ में सूख्यो पानी।।
तीनों पन गये बीति भजन का भरम न जानी।
कँवल गये कुम्हिलाय हमने किया पयाना।।
मीन लिया कोउ मारि ठांव ढेला चिटराना।
ऐसी मानुष देह वृथा में जात अनारी।
भूला कौल करार आप से काम बिगारी।।
पलटू बरस औ मास दिन पहर घड़ी पल छीन।
ज्यों ज्यों सूखै ताल है त्यों त्यों मीन मलीन।।
३०
की तौ इक डौरै रहै की दुइ में इक मर जाय।
दुइ में इक मर जाय रहत है दुविधा लागी।।
सुचित नहीं दिन रात उठत बिरहा की आगी।
तुम जीवो भगवान मरन है मेरो नीका।।
तुम बिन जीवन धिक्क लगै कारिख की टीका।
की तुम आवो लेव इहाँ की प्रान अपना।।
दोऊ को दुख होय कंस जोड़ी अलगाना।
कह पलटू स्वामी सुनो चिन्ता सही न जाय।।
कौ तौ इक ठौरु रहै की दुइ में इक मर जाय।
३१
आसिक का घर दूर है पहुँचे बिरला कोय।
पहुँचे बिरला कोय होय जो पूरा जोगी।।
बिंद करै जो छार नाद के घर में भोगी।
जीते जी मरि जाय मुए पर फिर उठि जागै।।
ऐसा जो कोइ होइ सोई इन बातन लागै।
पुरजे पुरजे उड़ै अन्न बिनु बस्तर पानी।।
ऐसे पर ठहराय सोई महबूब बखानी।
पलटू आप लुटावही काला मुंह जब होय।।
आसिक का घर दूर है बिरला पहुंचे कोय।
३2
जहाँ तनिक जल बीछुड़ै छोड़ि देतु है प्रान।
छोड़ि देतु है प्रान जहाँ जल से बिलगावै।।
छेइ दूध में डारि रहै ना प्रान गँवावै।
जा को वही अहार ताहि को का लै दीजै।।
रहै न कोटि उपाय और सुख नाना कीजै।
यह लीजै दृष्टांत सकै सो लेइ बिचारी।।
ऐसो करै सनेह ताहि को मैं बलहारी।
पलटू ऐसी प्रीति करु जल और मीन समान।।
जहाँ तनिक जल बीछुड़ै छोड़ि देतु है प्रान।
33
जैसे कामिनि के विषय कामी लावै ध्यान।
कामी लावै ध्यान रैन दिन चित्त न टारै।
तनम न धन मर्जाद कामिनि के ऊपर वारै।।
लाख कोऊ जो कहै कहा ना अन्निक मानै।
बिन देखे ना रहै वाहि को सरबस जानै।।
लेय वाहि को नाम वाहि की करै बड़ाई।।
तनकि बिसारै नाहि कनक ज्यों किरपिन पाई।
ऐसी प्रीति अब दीजिए पलटू की भगवान।
जैसे कामिनि से बिषय कामी लावै ध्यान।।
34
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास।
साहिब तेरे पास याद करु होवै हाजिर।।
अंदर धसि कै देखु मिलेगा साहिब नादिर।
मान मनी हो धना नूर तब नजर में आवै।
बुरका डारै टारि दुखा बाखुदा दिखरावै।।
रूह करै मेराज कुफ़र का खोलि कराबा।
तासौ राज रहै अंदर मे सात रिकाबा।।
लाभकान मैं खूब को पावै पलटूदास।
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास।।
खोजत खोजत मरि गये घर ही लागा रंग।
घरही लागा रंग कीन्ह जब संतन दाया।।
मन में भा विस्वास छूटि गइ सहजै माया।।
वस्तु जो रही हिरान ताहि का लागा ठिकाना।
अब चित चलै न इन उत आपु में आपु समाना।।
उठती लहर तरंग हृदय में सीतल लागे।
मरम गई है सोय बैठि के चेतन जागे।।
पलटू खातिर जमा भइ सतगुरु के परसंग।
खोजत खोजत मरि गये घर ही लाला रंग।।
संत चढ़े मैदान पर तरकस बाँधे ग्यान।।
तरकस बाँधे मोह ज्ञान दल मारि हटाई।
मारि पाँच पच्चीस दिहा गढ़ आगि लगाई।।
काम क्रोध को मारि कैद मैं मन को कीन्हा।
नव दरवाजे छोड़ि सुरत दसएँ पर दीन्हा।।
अनहद बाजै दूर अटल सिंहासन पाया।
जीव भया संतोष आय गुरु नाम लखया।।
पलटू कप्फन बांधि कै खेंचो सुरति कमान।
संत चढ़े मैदान पर तरकस बाँधे ग्यान।।
35
लागी गांसी सबद की पलटू मुआ तुरंत।।
पलटू मुआ तुरंत खेत s ऊपर जाई।
सिर पहिले उड़ि रुंड से करै लड़ाई।।
सतगंरु मारा तीर बीच छाती में मेरी।
तीर चला होइ पवन निकरि गा तारू फोरी।।
कहने वाले बहुत हैं कथनी कथै बेअंत।
लागी गांसी सबद की पलटू मुआ तुरंत।।
36
पतिबरता को लच्छन सबसे रहे अधीन।
सब से रहे अधीन टहल वह सब की करती।
सास ससुर और भसुर ननद देवर से डरती।।
सब का पोषन करै सभन की सेज बिछावै।
सब को लेय सुताय पास तब पिय के जावै।।
सूतै पिय के पास सभन को राखै राजी।
ऐसा भक्त जो होय ताहि की जीती बाजी।।
पलटू बोलै मीठे बचन भजन में है लौलीन।
पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीन।।
३7
सोई सती सराहिये जरै पिया के साथ।
जरै पिया के साथ सोइ है नारि सयानी।।
रहै चरन चित लाय एक से और न जानी।।
जगत करै उपहास पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै।।
ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग बिलासा।
मारै भूख पियास आदि संग चलति स्वासा।।
रैन दिवस बेहोस पिया के रंग मे राती।
तन की सुधि है नहीं पिया संग बोलत जाती।।
पलटू गुरु परसाद से किया पिया को हाथ।
सोई सती सराहिये जरै पिया के साथ।।
38
जाकी रही भावना तासे मन व्यौहार।
तासे मन व्यौहार परसपर दूनौं तारी।।
जो जेहि लाइक होय सोई तस ज्ञान बिचारी।
जो कोइ डारै फूल ताहि को फूल तयारी।।
जो कोइ गारी देत ताहि को हाजिर गारी।
जो कोइ अस्तुति करै आपनी अस्तुति पावै।।
जो कोइ निंदा करै ताहिके आगे आवै।।
पलटू जस में पीव का वैसे पीव हमार।।
जाकी जैसी भावना तासे तस व्योहार
39
तो कहं कोई कछु कहै कीजै अपनो काम।
कीजै अपनो काम जगत को भूकन दीजै।।
जाति बरन कुल खोय संतन को मारग लीजै।
लोक वेद के छोड़ि करै कोउ कितनौं हांसी।।
पाप पुन्न दोऊ तजौ यही दोउगर की फांसी।
करम न करिहौ एक मरम कोउ लाख दिखावै।।
टरै न तेरी टेक कोटि ब्रह्मा समुझावै।
पलटू तनिक न छोड़िहौ जिउ कै संगै नाम।।
तो कहँ कोऊ कछु कहै कीजै अपनो काम।
40
मन की मौज से मौज है और मौज किहि काम।
और मौज किहि काम मौज जौ ऐसी आवै।।
आठौ पहर अनन्द भजन मे दिवस बितावै।
ज्ञान समुद्र के बीच उठत है लहर तरंगा।।
तिरबेनी के तीर सुरसती जमना गंगा।
संत सभा के मध्य शब्द की फड़ जब लागै।।
पुलकि पुलकि गलतान प्रेम में मन को पागै।
पलटू रहै बिवेक से छूटै नहिं सतनाम।।
मन की मौज से मौज है और मौज किहि काम।
41
ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों गरुई होय।
त्यों त्यों गरुई होय सुनै संतन की बानी।।
ठोप ठोप अघाय ज्ञान के सागर पानी।
रस रस बाढ़े प्रीति दिनों दिन लागन लागो।।
लगत लगत लगि जाय भरम आपुइ से भागी।
रस रस सो चलै जाय गिरौ जो आतुर धावै।।
तिल तिल लागै रंग भंगि तब सहजै आवै।
भक्ति पीढ़ पलटू करै धीरज धरै जो कोय।।
ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों गरुई होय।
42
हस्ती बिनु मारै मरै करै सिंघ को संग।
करै सिंघ को संग सिंघ की रहनी रहना।।
अपनो मारा खाय नहीं मुरदा गहना।।
नहिं भोजन नहिं आस नहीं इंद्री को तिष्टा।
आठ सिद्धि नौ निद्धि ताहि को देखत बिष्टा।।
दुष्ट मित्र सब एक लगै ना गरमी पाला।
अस्तुति निंदा त्यागि चलत है अपना चाला।।
पलटू भलूठा ना टिकै जब लगि लगै न रंग।
हस्ती बिनु मारै मरै करै सिंघ को संग।।
43
पलटू सरबस दीजिये मित्र न कीजै कोय।
मित्र न कीजै कोय चित दै बैर बिसाहै।।
निस दिन होय बिनास ओर वह नाहिं निबाहै।
चिंता बाढ़ै रोग लगा छिन छिन तन छीजै।।
कम्भर गरुआ होय ज्यों ज्यों पानी से भीजै।
जोग जुगत की हानि जहां चित अंतै जावै।।
भक्ति आपनी जाय एक मन कहूँ लगावै।
राम मिताई ना चलै और मित्र जो होय।।
पलटू सरबस दीजिये मित्र न कीजै कोय।
44
उलटा कूवा गगन में तिस में जरै चिराग।
तिस में जरै चिराग बिना रोगन बिन बाती।।
छः रितु बारह मास रहत जरतै दिन राती।
सतगुरु मिला जो होय ताहि की नजर में आवै।।
बिन सतगुरु कोउ होय नहीं वाको दरसावै।
निकसै एक अवाज चिराग की जोतिहि माहीं।।
ज्ञान समाधी सुनै और कोउ सुनता नाहीं।
पलटू जो कोइ सुनै ताके पूरे भाग।।
उलटा कूवा गगन में तिसमें जरै चिराग।
45
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर।।
मगन भया मन मोर महल अठवें पर बैठा।।
जहं उठै सोहंगम शब्द शब्द के भीतर पैठा।।
नाना उठै तरंग रंग बुछा वहा न जाई।
चाँद सुरज छिप गये सुषमना सेज बिछाई।।
छूटि गया तन येह नेह उनहीं से लागी।
दसवाँ द्वार फोड़ि जोति बाहर हैं जागी।।
पलटू धारा तेल की मेलत ह्वै गया भोर।
बंसी बाजी गगन में मगन भया मन मोर।।
चढ़े चौमहले महल पर कुंजी आवे हाथ।
कुंजी आवे हाथ शब्द का खोलै ताला।।
सात महल के बाद मिलै अठएं उजियाला।
बिनु कर बाजै तार नाद बिनु रसना गावै।।
महा दीप इक बरै दीप मे जाय समावे।
दिन दिन लागै रंग सफाई दिल की अपने।।
रस रस मतलब करै सिताबी करै न सपने।
पलटू मालिक तुही है कोई न दूजा साथ।।
चढ़े चौमहले महल पर कुंजी आवे हाथ।
46
चांद सुरज पानी पवन नहीं दिवस नहिं रात।
नहीं दिवस नहिं रात नाहिं उतपति संसारा।।
ब्रह्मा बिस्नु महेस नाहिं तब किया पसारा।
आदि ज्योति बैकुंठ सुन्य नाहीं कैलासा।।
सेस कमठ दिगपाल नाहिं धरती आकासा।।
लोक बेद पलटू नहीं कहौं मैं तबकी बात।।
चाँद सुरज पानी पवन नहीं दिवस नहिं रात।
47
झंडा गड़ा है जाय के हद बेहद के पार।
हद बेहद के पार तूर जहँ अनहद बाजैं।।
जगमग जोति जड़ाव सीस पर छत्र बिराजै।
मन बुधि चित रहे हार नहीं कोउ वह घर पावैं।।
सुरत शब्द रहै पार बीच से सब फिरि आवैं।
बेद पुरान की गम्म सबै ना उहवां जाई।।
तीन लोक के पार तहां रोसन रोसनाई।
पलटू ज्ञान के परे है तकिया तहाँ हमार।।
झंडा गड़ा है जाय के हद बेहद के पार।।
48
जगत में एक सूपना मोहिं पड़ा है देख।
मोहिं पड़ा है देखि नदी इक बड़ी है गहिरी।।
ता में धारा तीन बीच में सहर बिलौरी।
महल एक अंधियार बरै तहं गैब की बाती।।
पुरुष एक तहँ रहै देखि छबि बाकी माती।
पुरुष अलापै तान सूना मैं एक ठो जाई।।
वाहि तान के सुनत तान में गई समाई।
पलटू पुरुष परान वह रंग रूप नहिं रेख।।
जागत में एक सूपना मोहिं पडा है देख।
जल से उठत तरंग है जल ही माहि समाय।
जल ही माहि समाय साई हरि सोइ माया।।
अरुझा बेद पुरान नंिहं काहू सुरझाया।
फूल मंहै ज्यों बास काठ में आग छिपानी।।
दूध महैं घिउ रहै नीर घट माहिं लुकानी।
जो निर्गुन से सर्गुन और न दूजा कोई।।
दूजा जो कोइ कहै ताहि को पातक होई।
पलटू जीव और ब्रह्म से भेद नहीं अलगाया।।
जल से उठत तरंग है जल ही माहिं समाया।
गंगा पाछे को बही मछरी बही पहार।
मछरी बही पहार चूल्ह में फंदा लाया।।
पुखरा भीटै बाँधि नीर में आग छिपाया।
अहिरिनि फेकैं जाल कुहारिन भैंस चरावे।
तेली के मरिगा बैल बैठि के धुबइनि गावै।।
महुवा में लागा दाख भांग में भया लुबाना।।
सांप के बिल के बीच जाय के मूस लुकाना।
पलटू संत बिबेकी बुझिहैं सब्द सम्हार।।
गंगा पाछे को बही मछरी चढ़ी पहार।
49
खसम मुवा तो भल भया सिर की गई बलाय।
सिर की गई बलाय बहुत सुख हमने माना।।
लागे मंगल होन जून लागे सदियाना।
दीपक बरै अकास महल पर सेज बिछाया।।
सूतौं महीं अकेल खबर जब मुए की पाया।
सूतौं पांव पसारि भरम की डोरी टूटी।।
मने कौन अब करै खसम बिनु दुबिधा छूटी।
पलटू सोई सुहागिनी जियतै पिय को खाय।
खसम मुवा तो भल भया सिर की गई बलाय।।
50
नागिनि पैदा करत है आपुइ नागिनि खाय।
आपुइ नागिनि खाय नागिन से कोऊ न बांचै।।
नेजा धारी संभु नागिन के आगे नाचे।
सिंगी ऋषि को जाय नागिनि ने बन में खाई।।
नारद आगे पड़े लहर उनहूँ को आई।
सुर नर मुनि गनदेव सभन की नागिन लीलै।।
जोगी जती औ तपी नहीं काहू को ढीलै।
संत बिबेकी गरुड़ हैं पलटू देखि डेराय।।
नागिनि पैदा करत है आपुइ नागिनि खाय।
51
कुसल कहां से पाइवे नागिनि के परसंग।
नागिनि के परसंग जीव के भच्छक सोई।।
पहरू की जै चोर कुसल कहवां से होई।
रूई के घर बीच तहां पावक लै राखै।।
बालक आगे जहर राखि करिके वा चाखै।
कनक धार जो होय ताहि न अंग लगावै।।
खाया चाहै खीर गाँव में सेर बसावै।
पलटू माया से डरै करै भजन में भंग।।
कुसल कहाँ से पाइये नागिनि के परसंग।
52
घर में जिंदा छोड़ि के मुरदा पूजन जायँ।
मुरदा पूजन जायँ भीति को सिरदा नाव।।
पान फूल औ खांड जाइ कै तुरंत चढ़ावै।
ताल की माटी आनि ऊँच के बाँधिनि चौरी।।
लीपी पोति कै धरिनि पूरी और बरा कचौरी।
पीयर लूगार पहिरि जाय के बैठिन बूढ़ा।।
भरमि अभुवाई माँगत हैं खसी कै मूंड़ा।
पलटू सब घर बांटि के लै लै बैठे खायँ।।
घर में जिंदा छोड़ि के मुरदा पूजन जायँ।
सदानन्द शाही असीम कुछ भी नहीं, सुख एक बासी चीज है, माटी-पानी (कविता संग्रह) स्वयम्भू, परम्परा और प्रतिरोध, हरिऔध रचनावली, मुक्तिबोध: आत्मा के शिल्पी, गोदान को फिर से पढ़ते हुए, मेरे राम का रंग मजीठ है आदि का प्रकाशन. आचार्य |
महत्त्वपूर्ण ! पलटूदास के संबंध में एक साथ इतनी सामग्री उपलब्ध करवाने के साही जी और आपका आभार!
बेहद खूबसूरत प्रस्तुति। पलटू साहब पर विस्तार से लिखा है। इक्यावन कविताओं को पढ़ना, भक्ति साहित्य को जानना-समझना है। ये कविताएँ हमारी धरोहर हैं।
सदानन्द शाही जी ने बहुत सुंदर लिखा है। भक्तिकाल असल में हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल है। समाज के परिष्कार और परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में इसे हिंदी का क्रांतिकाल भी कहें तो कोई गलत बात नहीं होगी। यह बहुत आश्चर्यजनक है कि पलटूदास को बहुत कम लोग जानते हैं। भक्तिकाल में ज्यादातर कवि छोटी और हीन समझी जाने वाली जातियों से आते हैं और अपने तिक्त अनुभवों के कारण वे सामाजिक पाखंड, भेदभाव, शोषण और धूर्तता के खिलाफ आवाज उठाते हैं। आज के जाति आधारित पाखंडी समाज में ऐसे कवियों की रचनाओं के बार- बार पाठ की, पुनर्पाठ की आवश्यकता है। गुरुग्रंथ साहिब में अनेक संत कवियों का उल्लेख है। उन पर काम किये जाने की जरूरत है। वाजेद, बखना, रज्जब, फरीद जैसे कवि अभी भी ठीक से खोजे जाने बाकी है। बेहतरीन लेख के लिए शाही जी को बधाई। पलटू की रचनाएँ देकर शोधार्थियों का काम आसान कर दिया है।
पलटूदास और उनकी रचनाओं व पदों के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी देता शानदार आलेख है यह। सदानंद शाही सर को बहुत आभार। अरुण जी को भी बहुत धन्यवाद।
बेहतरीन शोधपरक लेख है । सन्त पलटू दास का गाँव आज के अम्बेडकर नगर में है । जहां गोविन्द साहब की समाधि है वहाँ प्रति वर्ष मेला लगता है , वहीं एक स्थान पलटू दास का भी है । अपनी तैनाती के दौरान मेरा कई बार जाना हुआ ।
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी और सदानंद जी साही आप दोनों को मेरी नमस्ते और प्रणाम । पलटू के जीवन के विषय में शोधपरक लेख पढ़कर आनंद हुआ । सदानंद साही ने एक कविता द्रौपदी पर लिखी थी जो बहुत वर्ष पहले जनसत्ता अख़बार में प्रकाशित हुई थी । उस कविता में विद्रोह के तेवर थे । और यहाँ पलटू दास के पदों में भी । लीक से हटकर चलने वाले व्यक्तियों को हमेशा निंदा का सामना करना पड़ता है । सच वचनों को सादगी से कहने पर भी दंड मिलता है । यह लेख अत्यंत महत्वपूर्ण, उपयोगी और सराहनीय है । पुनः आभार ।
मेरी समझ से पलटू साहब पर इतना व्यवस्थित और वस्तुनिष्ठ लेख नहीं लिखा गया । गंभीर चिंतन और विवेक से उपजे इस लेख में पलटू साहब को जानने समझने के कई रास्ते खुलते हैं…शाही जी को सलाम
महत्वपूर्ण लेख
पहली बार पलटूदास पर दिलचस्पी से भरा आलेख पढ़ा. लेखक और प्रस्तुतकर्ता बहुत बहुत आभार.
गुरुवर को इस आलेख के लिए बधाई एवं तह-ए-दिल से शुक्रिया। अरुण देवजी का विशेष आभार।
🙏🙏🌼🌼
पलटूदास पर उद्भट विद्वान प्रो स. शाही का लेख और आपकी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण हैं
पलटू दास जी की कुंडलियां बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति दी गई हैं और उन्हें मैं बहुत खुश हूं
संत परंपरा के इतने महत्वपूर्ण संत के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी एक स्थान पर मिलना बहुत सुखद है। इसके लिए शाही सर को बहुत बहुत धन्यवाद ।
सर जानना चाहता हूं कि क्पया पल्टू दास जी पर कोई शोध प्रबंध भी लिखा गया है???