सम्मुख
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एक उजली, कोमल हरीतिमा चुपचाप अपनी किसी अविश्वसनीय ताज़गी के साथ बुलाती है. वह अपरिभाषित है. रचयिता अपने संवेगों के साथ उससे तदाकार होना चाहता है. रोशनियों के अपने रहस्य हैं. उन्हें देख पाने के सामर्थ्य को सँजोना अपने होने को खोजना है. सविता सिंह ने अपनी इधर की कुछ कविताएं पढ़ने को दीं और कहा कि मैं एक नई जगह जा रही हूं, कविता मुझे वहां ले जा रही है.
कवयित्री की पिछली अनेक कविताएँ इस बात को रेखांकित करती रही हैं कि वह निष्कर्षों की नहीं, प्रक्रियाओं की कविता लिखती हैं. दृश्य में सूक्ष्म और जटिल के संयोगों की कविता. स्वप्न और समय के रिश्ते जिनमें परिचित और ज्ञात के सीमांत पर वह कुछ जो झिलमिलाता हुआ, अभी दिखता और अभी विलुप्त हो जाता हुआ संसार है. अपने होने या दिए हुए बोध का अतिक्रमण करने की वह बुनियादी इच्छा, समर्पण और एकांत की उभयधर्मी उपस्थिति. इन अर्थों में उनकी ये कविताएँ नयी होकर भी अपने संवेदना संसार में उपस्थित उस बुनियादी द्वंद्वात्मकता का ही विस्तार है. चेतना के उन धरातलों का एक नया संधान है.
कोयल की कूक, गिलहरी की गतिशीलता के रहस्य, हवाओं की किस्में, प्रकृति राग, समय का बोध, खुलना और बिखरना, हर्ष और पीड़ा की एक जटिल उपस्थिति, इसे लक्षित करना, इसे एक रहस्य में बदल देने की तड़प, किसी कार्य कारण संबंध की खोज, चेतना के गुह्यतम इलाकों की यात्राओं पर निकलना है. मुक्ति की खोज, आत्म-सत्ता का बोध, क्षण का अतिक्रमण, सहवर्तिताएं और इन्हें परिभाषित करने की कोई विकलता.
‘निरखना’ इन कविताओं का केंद्रीय तत्व है. वह दिए हुए बोध का अतिक्रमण है. और ‘निरखना’ है तो अनिवार्यत: ‘शामिल’ होना भी है. एक रचयिता के लिए वह ‘वर्चस्व’ की चौहद्दियों से बाहर निकल कर अपनी किसी स्वायत्तता की खोज है. वह शायद अब भी संभव है. वह एक सिहरन है, और एक साहस भी.
इन कविताओं में मनोभावों की सूक्ष्म विविधताओं के भिन्न-भिन्न अभिप्रायों को देखा जा सकता है
‘यह जानना भी कितना सुकून देह है
कि बिना रहस्य के कुछ भी नहीं है इस काइनात में
कि जो अलख्य है वह भी नियमबद्ध है’
निश्छलताएँ, एकीकृत संसार, एन्द्रिकताओं के रहस्य, संबंध-घटक वह सब जो चुपचाप घटित होते हुए में कहीं बसा रहता है.
‘रहस्यमयता’ हमारे समय में एक बदनाम शब्द हो चुका है. लेकिन एक रचयिता से पूछो कि रहस्यमयता का उसके लिए क्या अर्थ है? चेतना पर वर्चस्व की तमाम व्यवस्थाओं और दिये हुए अर्थों के नकार की सिहरन और साहस. उन सपाट, सीमित, सर, आरोपित, एक आयामी, प्रयोजनमूलक की व्यूह रचनाओं को छिन्न-भिन्न कर देने की अनिवार्यता.
वह अपने अधूरेपन से बाहर आने की किसी मूलभूत इच्छा का रेखांकन है.
वह सब जिजीविषा से भरे संसार के लिए एक रहस्यात्मकता नहीं तो और क्या है? वर्जीनिया वुल्फ ने कहा था ‘मैं एक नुकीले खूंटे पर किसी समुद्री चिड़िया की तरह अपने पंख फैलाए अपने साथ देर तक बैठे रहना चाहती हूं.’
‘सविता सिंह की एक कविता की पंक्तियां हैं-
‘आखिर मैंने विश्वास किया उस स्त्री का
बचपन में जिसने बताया था
कुछ ही हवाएं जानी जा सकती हैं
बाकी सब अनजान रहती हैं’
स्त्री चेतना और बचपन की कोई निश्चल जिज्ञासा का यह मिलन बेहद-बेहद महत्वपूर्ण है. निश्छलता और मुक्ति का कोई अपरिभाषित संसार. छायाओं, ध्वनियों, संवेगों और स्पंदनों का सत्वाधिकार. इस जीवन को अधिक पूर्णता के साथ जीने की कोई अभीप्सा. यह किसी समुत्थान- शक्ति या किसी resilience की खोज है. यह बचे रहना है, जीवित रहना है.
एक कविता का मकसद यह याद दिलाना है कि चेतना में स्वायत्त और एकीकृत संसार की उभयधर्मी उपस्थिति अभी भी संभव है. ऐसा इसलिये कि हमारा घर खुला है और दरवाजों की चाबियाँ नहीं हैं और अदृश्य अतिथि आते और जाते हैं अपनी इच्छा से. यह सहवर्तिता और ‘सब्जेक्टिविटी’ या आत्मनिष्ठा के एहसासों की किसी अंतर्वस्तु तक जाने का उपक्रम है. उसी में एक कवि का सच बसा हुआ है. हम अक्सर इन बातों को दोहराते हैं कि कविता चीजों को एक नये ढंग से दिखाती है. पर्दे हटते हैं और हम प्रक्रियाओं को घटते देखते हैं. प्रक्रियाएं जो वर्चस्व के संसार का प्रतिलोम हैं.
सविता सिंह को इन कविताओं के लिए बधाई.
विजय कुमार
सविता सिंह की कविताएँ |
1.
सृष्टि के रूप
अभी-अभी जो दिखा दृश्य
वह क्या था
पत्तों का आपसी खेल
या हरे रंग के बदलते रूप
कितना हाथ हवा का था इसमें
इसे यूं होने देने में
वह चमक जो उभरी थी पत्तों पर
कहां से उतरी थी
हृदय के किस कौंध से होकर आई थी
पत्ते पर झलकी किसी स्मित सी
जो आती है कभी-कभी होंठों पर
बस पल भर के लिए
आख़िर किस स्रोत से आती है रौशनी
हम पर उतरने
एक स्त्री ने जब इस पर गौर किया
उसे लगा सृष्टि के कई रूप हैं
अपने हर रूप में वह पूर्ण है
उसके होने के कई स्रोत हैं जो उसी के हैं, उसे ही मालूम
यह जान वह स्त्री भर गई एक ही साथ हर्ष और दुख से
जो दिख रहा था उसे
उसमें बहुत पीड़ा थी
जो छिपा था
जिज्ञासा के उल्लास से भरा था
जैसे आज की सुबह
अभी अभी की सुबह
जिसमें एक बयार है
यानी सृष्टि आज ऐसी है
अपने अनेक रूपों में एक साथ
क्यों, एक कोयल भी तो कूक रही है अभी
एक गिलहरी अपने दो बच्चों के साथ हरे नीम के पौधे पर चढ़ रही है
इन सारी चीजों पर कहीं से एक रौशनी पड़ रही है
देखने में कोई रहस्य नहीं जान पड़ता था अभी
मगर रौशनी तो है एक रहस्य ही
ख़ास कर जिस तरह वह चीज़ों को दिखा रही है अभी.
२.
बारिश और गिरते पत्ते
पहाड़ पर बारिश हो रही है
जिसे हम नहीं देख रहे
घने जंगल के मध्य शाल के पत्ते गिर रहे
हम उन्हें भी नहीं देख रहे
रेगिस्तान में चलते अंधड़ को भी
आसमान देख रहा है सिर्फ़
या फिर रेत
खुद इस पल
हम उस नियम को भी नहीं देख रहे जिसके तहत पत्ते गिरते हैं
आंधियां चलती हैं
हृदय में पीड़ा के भी रसायन को कौन जानता है
देखता भी कौन है
और कौन इस बात को कि इस पृथ्वी की तरह कई और ग्रह हैं जो पृथ्वीनुमा हैं, कई पृथ्वी
जिस पर हमसे अलग जीव रहते हैं
जिनके भी हृदय होते हैं
और उसमें भी रहती है पीड़ा
वहां जाने के भी नियम होंगे ही
शरीर छोड़कर ही वहां भी जाया जाता होगा
यह जानना भी कितना सुकून देह है कि बिना रहस्य के कुछ भी नहीं है इस काइनात में
कि जो अलख्य है वह भी नियमबद्ध है.
३.
हवाएँ
कितनी तरह की हवाएँ होती हैं
जो हमसे होकर गुजरती हैं
आख़िर आज मैंने जाना
कुछ मन को गीला करती हैं
कुछ उसे सुखा देती हैं
वे हवाएं जो पठारों से होकर आती हैं
वे जो जंगलों में रुकी रहती हैं
उनके बारे में आज जानना हुआ
आख़िर मैंने विश्वास किया उस स्त्री का
बचपन में जिसने बताया था
कुछ ही हवाएं जानी जा सकती हैं
बाक़ी सब अनजान रहती हैं
जब कोई ऐसी ही हवा आकर लगे तुमसे
बाहें खोल देना
वह पिछले किसी जन्म की तुम्हारी प्रेमिका हो सकती है
उससे बातें करना
प्रेम के बारे में अब भी वह तुम्हें
बहुत कुछ बता सकती है.
४.
बारिश की आवाज़
एक स्याह रात थी वह
स्याह से थोड़ी अलग
और सभी जगे थे
देखना चाहते थे इसका रंग बदलना
अभी भी यह एक बैंगनी रात थी
थोड़ी देर बाद हल्की नीली रह जायेगी
जब यह सफेद होगी तब
शायद कुछ लोग सोने जाएँ
लेकिन तब तक तेज बारिश
शुरु हो जाएगी
बारिश की आवाज़ सुनने के लिए
कुछ लोग तब भी जगे रहेंगे.
५.
आज का दुःख
आज के दिन
हमारे पास क्या कहने को कुछ ऐसा है
जिसे सुन गिलहरियाँ प्रसन्न हो जाएँ
मगर इंतज़ार में वे खा न जाएँ तुलसी के सारे मोजर
कूद फांद करती हुई नष्ट न करें उद्यान
आज के दिन हमारे पास क्या है
उल्लसित होते भ्रम
कि धरती कभी नष्ट न होगी
कि प्रेम बचा रहेगा इसके हृदय में अपने असंख्य जीवों के लिए
आज के दिन कौन सा दु:ख है
जो साठ ग्रीष्म बाद भी टीसता है
किस सदी में हैं हम?
जहाँ से नदियाँ जा चुकी हैं
गिलहरियाँ तुलसी के मोजर में रुचि नहीं दिखाती अब
6.
स्त्री के प्रेम का रहस्य
वह कहता है
वह कुछ नहीं जानता
उसे किसी पक्षी ने आकर बताया है
“नदी के पास जाओ
पानी में पांव डूबावो
प्रेम करो किसी स्त्री से
उसका रहस्य जानो
तुम जानना चाहते हो यदि काइनात को
उसके ताप को”
कोई है जो कहता है
सब कुछ रहस्यमय है
पहाड़, पत्थर पेड़ चिड़िया
कविता की कोई एक पंक्ति
अंधकार में डूबा यह शहर
ऊपर तारों का जाल
सब में रहस्य है एक उसी का
स्त्री के प्रेम का.
7.
मनुष्यता
एक प्रेम में ही थे कई और प्रेम
एक हृदय में उतने ही कोष्ठ
एक वृक्ष में लगते हैं कितने फल
एक पत्ते के हरे के अलावा और कितने रंग
कितनी-कितनी बातों में होती है कोई एक बात
जिसके समझ में आने के बाद सब कुछ बदल जाता है
आज की शाम को ही लें
कई मायनों में यह एक अकेली शाम ही है
जिसमें ठीक से बैठी कोई स्त्री लिख रही है कविता
उसके आसपास न कोई देवता है
न पूर्वज
न कोई पुरुष
न दूसरा कोई मनुष्य
मगर
मनुष्यता ही है
जिसके बिना कहां कुछ भी है ठहरता.
8.
प्रेम में रुकना
प्रेम में रुकी रहेगी वह
उसी से सब कुछ फिर से घटित होना है
नासमझी में नहीं बिगाड़ेगी रूप अपना
दुष्ट को नहीं फटकने देगी पास
भटकने देगी उन्हें बल्कि
प्यास बुझाने के लिए नहीं लाएगी जल उनके लिए
वह कड़ा रुख अपनाएगी
सच झूठ को नहीं मिलने देगी एक में
रात को रोने देगी
करेगी इस स्त्री का भी त्याग इस बार.
9.
अभी जो हो रहा है
अभी जो हो रहा है यहां
दिन के इस पहर
घनी होती घृणाओं के मध्य
क्या काइनात में कहीं और घटित हो रहा
क्या इतने ही धीर हैं लोग दूसरी जगहों पर चश्मदीद गवाह किन्हीं चुप्पियों में कैद
या बेकाबू अपनी नाराजगी में
चाहते जो पृथ्वी ही क्यों नहीं हो जाती नष्ट
मगर हम जानते हैं
उजड़ने से पहले पृथ्वी
अपने को बहाल कर लेती है फिर से.
10.
यह क्या
आजकल प्रकृति की ओर थी एक स्त्री
पेड़ों की ओर
उन लताओं के समीप
जिन्हें लिपटना आता है
आलिंगन में ठहरना
तभी गोली चलने की आवाज़ आती है
वह मुड़ती है
और देखती है ढेर सारा खून
लाल इंसान का ही खून
फिर और खून
आवाजें और भी गोली चलने की
हतप्रभ वह पूछती है
यह क्या प्रकृति?
कहाँ गई मनुष्यों के लिए अर्जित तुम्हारी वासना ?
सविता सिंह पहला कविता संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ (2001) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत, दूसरे कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ (2005) पर रज़ा सम्मान तथा स्वप्न समय. द्विभाषिक काव्य-संग्रह ‘रोविंग टुगेदर’ (अंग्रेज़ी-हिन्दी) तथा ‘ज़ स्वी ला मेजों दे जेत्वाल (फ्रेंच-हिन्दी) 2008 में प्रकाशित. अंग्रेज़ी में कवयित्रियों के अन्तरराष्ट्रीय चयन ‘सेवेन लीव्स, वन ऑटम’ (2011) का सम्पादन जिसमें प्रतिनिधि कविताएँ शामिल, 2012 में प्रतिनिधि कविताओं का चयन ‘पचास कविताएँ: नयी सदी के लिए चयन’ शृंखला में प्रकाशित. ‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021) कविता संग्रह राजकमल से प्रकाशित.
महादेवी वर्मा काव्य सम्मान, हिंदी एकादेमी काव्य सम्मान आदि प्राप्त savitasingh@ignou.ac.in
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विजय कुमार (जन्म : 11/11/1948: मुम्बई ) सुप्रसिद्ध कवि आलोचक |
सविता सिंह की कविताओं पर विजय कुमार की टिप्पणी बहुत बढ़िया है। इसके जरिए सविता सिंह सिंह की कविताओं तक पहुंचना आसान हो जाता है। विजय कुमार को साधुवाद।
विजय कुमार ने बहुत सुंदर लिखा है। सविता जी की कविताएं ऐसी है कि जो पढ़े वो डूब जाए। पढ़ते हुए जैसे जीवन को पढ़ती हूं। रंगों को, दुख को और प्रेम को जिस तरह वे रचती हैं वो अलहदा है । शुक्रिया आपका शेयर करने के लिए
कभी कभी दिन की दस्तक द्वार से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है ।सविता जी की कविताओं ने यही काम किया। मेरी अपनी स्त्री ने आज घर के पौधों को अलग तरह से छुआ । गिलहरी और कोयल और हवाएँ : आज अलग तरह से गलबइयाँ लीं। कविता की हृदय गति मनुष्य की हृदय गति से भिन्न होती है। इसकी जीवनी शक्ति उतनी ही सतत है जितनी प्रकृति और पृथ्वी की ।
कुंवर नारायण की वाजश्रवा याद हो आयी कि मन और बुद्धि के संयोग से रूपायित होती एक कृति / फैलती जीवन की शाखाएँ. प्रशाखाएँ अपने वैभिन्न्य और एकत्व में .
कुछ इसी तरह घटित हुई ये कविताएँ । सुब्बह सुब्बह।
मर्म को इस तरह उद्घाटित करना कि उसके आलोक में कविताओं में डूबने की इच्छा हो, अच्छी टिप्पणी अच्छी अलहदा कविताएं
ऐसी कविताएँ कि देर तक इनके साथ चुपचाप बैठे रहा जा सकता है। और इन कविताओं पर की गयी विजय जी की आत्मीय टिप्पणी भी बहुत अहम है।
कवियत्री सविता सिंह की बेहद मार्मिक कविताओं पर वरिष्ठ कवि और समीक्षक विजय कुमार की समीक्षा दृष्टि के लिए हार्दिक बधाई
सविता सिंह मेरी बहुत पसंदीदा कवयित्री हैं । विजय कुमार जी की टिप्पणी का पहला पैराग्राफ उनका पूरा परिचय दे देता है । बाकी विजय जी की आगे की प्रशंसा सविता सिंह की कविता की कसौटी को बेहद जटिलता में परखने का प्रयास करती है जो उनको समझने में पाठक की मदद नहीं कर पाती ।
जैसे पानी का आईना रखा हो, जिसमें स्त्री का मन झिलमिलाता हो, ऐसी कविताएँ। उतनी ही सुचिंतित पूर्वपीठिका।
कविताएं पढ़कर सब चीज़ों को वैसे छूने का मन हुआ, जैसे सविता जी अपनी कविताओं में छूती हैं।सचमुच कितना रहस्यमई है ये संसार।जितना देखा, जाना उससे परे कितना कुछ रह जाता है, अबूझा। बढ़िया कविताएं। पढ़वाने के लिए धन्यवाद
प्रिय सविता, सुबह सुबह तुम्हारी कविताएं पढ़ीं।
एक नया निजी उल्लसित पर उदास संसार रचा है तुमने, जो मेरे लिए वाकई, कायनाती कविता है।
इसी स्वर का मुझे इंतज़ार रहता है।
मिलता है आजकल कम-कम। पर मुझे उदास भी करता है और उल्लसित भी। उदासी मेरी , उल्लास दूसरों का हो सके, यह उदासी की काट।
आज पढ़ पाई इन सुंदर कविताओं को. वरिष्ठ आलोचक विजय कुमार जी की टिप्पणी कविताओं के मर्म को छूती तो है किंतु कविताएं इस आलोच्य आख्यान से ऊपर उठती प्रतीत होती हैं और शायद यह कवि सविता सिंह की कलम की ताक़त है। कविताएं जब आलोचना की जद से छिटक कर अपनी दुनिया रच रही हों तो अनायास ही कहना पड़ सकता है कि यह किसी रहस्य से कम नही। प्रेम और प्रकृति का अंतर्गुम्फन इन कविताओं की संवेदना को सघन और मानवीय बनाते हुए सृष्टि के सौंदर्य को अपरिभाषित गरिमा सौंप रहा है। इन्हें पढ़ते हुए उस दुनिया में औचक प्रविष्टि सुखद है। समालोचन को हार्दिक बधाई.
में एक नई जगह जा रही हूं। कविता मुझे वहां ले जा रही है। वहां प्रकृति है, प्रेम है, उसकी सिहरन है। यह खंडहर जहां मैं अभी हूं वहां यातना और व्यभिचार है सिर्फ। बारिश की आवाज सुनने के लिए रुकी हुई हूं शायद अबतक।
मैने यह विजय जी को लिखा था कविताओं को भेजते हुए। उन्होंने इसका खयाल रखा अपनी इस सरगर्भी टिप्पणी में।
” एक पत्ते के हरे के अलावा और कितने रंग ” सुंदर
अच्छी कविताओं पर अच्छी टिप्पणी! बहुत बधाई!!
जितनी अच्छी कविताएँ हैं, उतना ही अच्छा आलेख है । कविताएँ पढ़कर मन खुश और उजला हो गया ।
इतनी सुंदर कविताएँ हैं,इतनी कोमल लेकिन इतनी दृढ़ कि बस मौन करती हैं। लगता है कुछ कह देना, यूँ ही कुछ शब्द इनके साथ अन्याय करना है। कुछ कह देने से इनकी सुंदरता नष्ट हो जाएगी। अभी रख ले रही हूँ, फिर से तब पढूंगी जब जीवन थोड़ा थमेगा।
ये कविताएं हैं या कोई पहाड़ी नदी, समझ नहीं आता इसे देख कर ख़ुश हुआ जाए, इसमें तैरा जाए या इसकी कलकल ध्वनि की आवृत्ति में खोया जाए, ऐसी अद्भुत कविताओं की पाठक के मन पर शाश्वत उपस्थिति होती है। आदरणीय Savita Singh जी पहले ही मेरी प्रिय कवयित्री हैं, इन्हें पढ़ने के बाद इससे बहुत आगे जो हो सके वह हैं। साधुवाद आपको। Arun Dev जी का बहुत आभार इन्हें यहां प्रकाशित करने के लिए।
जीवन के विविध क्षण– संवत्सरों का समालोचन करती सविता जी की कविताएं और इन कविताओं की समालोचना में काव्यात्मक ऊंचाई रचते विजय कुमार जी☘️ बहुत आभार अरुण जी☘️☘️☘️
सविता जी की इस नयी जगह में अनुभूतियां बेहद सूक्ष्म हैं ,सरोकार का वितान समाज में रहते हुए भी उसके पार जा चुका है।एक लंबी काव्य यात्रा का ऊँचा पड़ाव।पत्तियों और हवाओं को महसूसना इस तरह की प्रकृति और मनुष्य के तार जुड़ जांय साथ ही ब्रह्मंड की कई अनसुलझी पहेलियों से रास बास भी हो जाय।बारिश का इंतजार क्या जीवन की सार्थकता की तुष्टि का इंतजार जैसा है ?एकांतिक तपस्या से नि:सृत कविताएं जिन्हें पहनने की इच्छा हो उठी है।अपनी अनुभूतियों को भी कई जगह जैसे शब्द मिले गये हों।इकोफेमिनिज्म का पाठ हैं ये कविताएं। सुख मिला।
ये कविताएँ उनकी पहले की कविताओं से कुछ अलग हैं, लेकिन उस अंतर को ठीक से चीन्ह नहीं पा रहा। इन सभी कविताओं में एक समान अन्तर्प्रवाह है। उन्होने एक खास भंगिमा से थिर होकर निरखा और दर्ज किया है जिसने उनके टोन और समूचे भाषा- विन्यास को बदल दिया है।
सृजन- यात्रा में ऐसे रचनात्मक संक्रमण प्रायः महत्वपूर्ण होते हैं।
सविता सिंह की कविताओं पर विजय कुमार जी मूल्यांकन लेख के प्रति उत्सुकता रहेगी।