• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » एक फ़िक्शन निगार का सफ़र: ख़ालिद जावेद

एक फ़िक्शन निगार का सफ़र: ख़ालिद जावेद

किताबों की यात्राएँ भाषाओं की नदी में अनुवाद के सहारे तय होती हैं और इनका सभ्यागत योगदान है. किसी को महत्वपूर्ण पुस्तकों की इन यात्राओं पर काम करना चाहिए. ऐसी ही एक पुस्तक है ‘एक फ़िक्शन निगार का सफ़र’. उर्दू के शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी और हिंदी के उदयन वाजपेयी की बातचीत हिंदी में ‘समास’ पत्रिका में छपी जो अपने दीर्घ और गहरे संवाद के लिए जानी जाती है. फिर इसमें और इज़ाफ़ा हुआ और यह किताब की शक्ल में आयी. अब इसका उर्दू में अनुवाद प्रकाशित हुआ है जिसकी भूमिका उर्दू में इस समय के विख्यात उपन्यासकार ख़ालिद जावेद ने लिखी है. इस भूमिका का अनुवाद हिंदी में रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी ने किया है. गौर करें तो गर लिपि की सरहद नहीं होती तो यह भाषा की एक ही नदी है. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की यह बातचीत भी कम दिलचस्प नहीं है जिसकी तरफ ख़ालिद जावेद ने यहाँ इशारा किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 8, 2023
in आलेख
A A
एक फ़िक्शन निगार का सफ़र: ख़ालिद जावेद
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

एक फ़िक्शन निगार का सफ़र
ख़ालिद जावेद

‘एक फिक्शन निगार का सफ़र’ एक अजीबोग़रीब किताब है. वैसे तो यह एक संवाद है; उर्दू के सबसे बड़े आलोचक एवं श्रेष्ठ फिक्शन लिखने वाले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी और हिन्दी के हमारे समय के बड़े साहित्यकार, कवि एवं विद्वान उदयन वाजपेयी की बीच. सामान्यतः जब दो साहित्यकार बातचीत में शामिल होते हैं तो उनमें से किसी एक की हैसियत  सामान्य होती है. यह वह साहित्यकार या व्यक्ति होता है जो वास्तव में एक बड़े लेखक से अपने बोध एवं ज्ञान के अनुसार कुछ प्रश्न कर रहा होता है या  इंटरव्यू ले रहा होता है. कई बार उसका उद्देश्य केवल खानापूर्ति करना होता है, मगर इस बातचीत में शामिल दोनों महानुभाव अपनी-अपनी जगह एवं अपने-अपने क्षेत्र में बहुत महत्व रखते हैं.

यह ज़रूर है कि फ़ारूक़ी साहब से प्रश्न उदयन वाजपेयी कर रहे हैं यानी बातचीत का केन्द्र फ़ारूक़ी एवं उनका बौद्धिक, साहित्यिक एवं रचनात्मक सफ़र है, मगर उदयन वाजपेयी के प्रश्नों का स्वरूप बहुत रचनात्मक है, एवं ये प्रश्न फ़ारूकी साहब की चेतना एवं अन्तश्चेतना दोनों के अंधेरे कोनों को प्रज्वलित कर रहे हैं.

फ़ारूकी साहब जिस तरह अपने अतीत और बचपन की यादों को पुनर्जीवित करते हैं, उसके प्रेरक उदयन वाजपेयी के कुशल एवं सृजनशील प्रश्न हैं. उदयन वाजपेयी का व्यक्तित्व उच्चतम दर्जे के बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं रचनात्मक तत्वों द्वारा निर्मित हुआ है. थियेटर, फ़िल्म, नाटक, शायरी, चित्रकला, संगीत, उपन्यास और कहानी मानो कला या ललित कलाओं का हर भाग उदयन वाजपेयी के घने व्यक्तित्व में समाहित है.

जहाँ तक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का सवाल है तो उर्दू तो उर्दू, भारत की किसी भी भाषा के जानकारों के लिए उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसा बड़ा दिमाग़ पिछले साठ सत्तर वर्षों में नहीं पैदा हुआ और किसी भी भारतीय भाषा ने ऐसा विद्वान, ऐसा आलोचक और ऐसा सिद्धान्तकार नहीं पैदा किया जो किसी भी मामले में फ़ारूकी की बराबरी का दावा कर सके.

इस बातचीत में फ़ारूकी की एक जीवनी भी शामिल है. यह एक वैकल्पिक जीवनी कही जा सकती है जिसमें उनके बचपन से अब तक की छोटी-छोटी यादें ज़्यादा शामिल हैं. इसमें फ़ारूकी के जीवनकाल की बड़ी घटनाओं का वर्णन नहीं है या अगर है तो ऊपरी तौर पर आकर गुज़र जाता है. मगर इन छोटी-छोटी घटनाओं और उनसे निर्मित होने वाली बौद्धिक प्रवृत्ति और आलोचनात्मक प्राथमिकता जिस नैसर्गिक रूप से और बहुत खुले अंदाज़ में इस बातचीत में सामने आये हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं. जैसे उदयन वाजपेयी के एक सवाल के जवाब में फ़ारूकी कहते हैं,

‘हार्डी भले ही जज़्बाती और रूमानी लेखक था मगर उससे मैंने ये सीखा कि दुनिया में दुख बहुत है.’

देखिए फ़ारूकी यह बात महात्मा बुद्ध के दर्शन से भी सीख सकते थे मगर फ़ारूकी का दिमाग़ कल्पनाओं या दर्शन की तरफ़ उतना आकर्षित नहीं है जितना कि साहित्य और साहित्य की तत्वमीमांसा की तरफ़. इसी प्रकार शेक्सपीयर के बारे में उनका यह विचार कि बाद में उलटा सीधा सब पढ़ लिख कर यह बात जान ली कि हमारे मतलब का आदमी बस शेक्सपीयर है.

इस बातचीत की एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि शायद पहली बार यहाँ शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने अपनी सृजनात्मक यात्रा के बारे में बहुत विस्तार से बात की है. यहाँ उनकी आलोचना या वे कृतियाँ जो आलोचना से सम्बंधित हैं, का वर्णन नहीं मिलता बल्कि उनकी कहानियों के चरित्रों की भूमिका का वर्णन मिलता है. फ़ारूकी साहब ने अपने उपन्यास ‘कई चाँद थे सर ए आसमाँ’ के विषय और उसकी तकनीक पर भी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है जो बहुत कमाल की चीज़ है और मेरे ख़याल में फ़ारूक़ी साहब ने इतनी दिलचस्पी के साथ ये बातें इसलिए की हैं क्योंकि उनके सामने उदयन वाजपेयी बैठे हैं और फ़ारूकी को विश्वास है कि उनका एक भी शब्द, एक भी वाक्य व्यर्थ नहीं जाएगा, वरना इस बात का गवाह तो मैं ख़ुद हूँ कि फ़ारूकी बहुत जल्द इन बातों से ऊब जाया करते थे. मगर यहाँ तो फ़ारूकी साहब ने अपनी रचनाओं के बारे में बहुत दिलचस्पी के साथ बातें की हैं. जैसे अपने उपन्यास ‘कई चाँद थे सर ए आसमाँ’ के बारे में उदयन वाजपेयी के एक महत्वपूर्ण सवाल के जवाब में फ़ारूकी साहब कहते हैं:

‘मैंने वज़ीर ख़ानम के बारे में जो भी पढ़ा था, वह दूसरे दर्जे का साहित्य था, जिसमें बार-बार यह कहा गया था कि उस औरत का तो हर बच्चा शायर निकला मानो वह औरत न हुई गाय हो गयी, जिसका हर बच्चा सांड हो गया. कहने की बात यह थी कि वह इतनी प्रतिभावान औरत थी कि जिस आदमी से भी उसके बच्चे हुए, शायर हुए. लेकिन मालिकराम साहब जैसे लोगों ने वही कुछ लिखा. ये सब पुराने ख़याल के लोग थे, और इन्होंने वज़ीर ख़ानम की यह छवि बनायी कि वह हरजाई और बदमाश कि़स्म की औरत थी. ऐसे भी कोई भारतीय लड़की अपने लिए किसी का चुनाव करना चाहे या कर ले, वही बहुत बड़ी बात थी पर मुझे उसके चरित्र में अलग ही चमक दिखायी दे गयी थी.’

फ़ारूकी साहब आगे लिखते हैं : 

‘मुझे यह पता था कि दाग़ पक्के काले थे और अगर उनकी अम्मा गोरी थी (या नहीं थी) तो यह काला रंग आया कहाँ से. इसके लिए मुझे थोड़ा-सा खटराग निकालना पड़ा. अगरचे शम्सुद्दीन गोरे थे, क्योंकि वे तुर्की थे पर वे ख़ुद काली औरत के बेटे थे. उसकी अम्मा मेवात के निचले तबक़े के मुसलमान परिवार की लड़की थी, मुद्दी. वह काली ही रही होगी. सवाल यह था कि मैं उस काले-गोरे को कैसे दिखाऊँ. ऐसी औरत कैसे बने, जो काली हो और ख़ूबसूरत हो. इस वजह से मैंने राजस्थान के चित्रकार का कश्मीर से सम्बन्ध जोड़ा. इससे दो फ़ायदे हुए, एक यह कि जिस तरह की औरत मैं बनाना चाहता था, उसका प्रभामण्डल हो और उसमें शक्ति तत्व भी होना चाहिए. वह तभी होगा जब मैं उसके पीछे एक समृद्ध वंशावली दिखाऊँ जिसमें कला व्यवहार भी शामिल हो. उसका शुरुआती पुरखा चित्रकार है फिर उसका परदादा चित्रकला को भले न समझे,खु़द ग़लीचे का डिज़ाईनर है, उसके बेटे कवि और संगीतकार हैं. मैंने यह वंशावली इसलिए बनायी क्योंकि ऐसी वंशावली, जिसमें ज़मीनी फ़र्क़ हों, ज़रूरी थी. उसमें एक ओर राजस्थान है, जहाँ के लोग भूरे या गहरे रंग के होते हैं और रेगिस्तान में रहते है दूसरी ओर कश्मीर है जहाँ पानी बहता ही रहता है, हरियाली हर तरफ़ रहती है, भले ही बर्फ़ क्यूँ न गिरी हो और वहाँ के लोगों का गोरा रंग. इन दोनों को मिलाना ज़रूरी था, उसके बग़ैर वह विशेष प्रभामण्डल नहीं बनता, जिसमें शक्ति और सौन्दर्य दोनों हो इसलिए उस सबकी मैंने कल्पना कर ली.’

मेरा ख़्याल है कि इतनी बेतकल्लुफ़ी के साथ और इतने स्वाभाविक रूप में फ़ारूकी ने न कभी लिखा न कभी कहीं ऐसी बातचीत की है. फिक्शन कैसे लिखा जाता है और फिक्शन में चरित्रांकन करने से पहले चरित्रों के बारे में कितना गहन सोच विचार किया जाता है या शोध किया जाता है, इन सबके बारे में इतना विस्तारपूर्वक फ़ारूकी ने कहीं वर्णन नहीं किया. फ़ारूकी की सृजनात्मकता की बहुत सी परतें यहाँ खुलती जाती हैं. इसी तरह एक जगह ‘बनी ठनी’ के बारे में फ़ारूकी कहते हैं:

‘इसी के आसपास मैंने कुछ सोचा. मेरे दिमाग़ ने अनजाने में ही बनी-ठनी का जो चित्र बनाया है और फिर उस चित्र को चित्रकार के पोते द्वारा पहचानना आदि करवाया था वह इसलिए था क्योंकि मैं शायद सौन्दर्य की अप्राप्यता का मिथक गढ़ रहा था और साथ ही कला और जि़न्दगी की परस्पर विनिमेयता को इस तरह दिखा रहा हूँ कि इसके नतीजे इनमें से किसी एक के लिए भयानक भी हो सकते हैं. मुझे अपने एक दोस्त के ख़त में लिखे इस सवाल के ज़वाब में कि तुम इतनी अच्छी दिल्ली बना रहे हो और यह तुम्हारे पाठक को कहाँ ले जाने वाली हैं, मैंने सोचा कि मैं एक समानान्तर दिल्ली बना रहा था. वह दिल्ली जो इतिहास में हैं और वह जो इस उपन्यास में है, उनमें कई समानताएँ है जैसे खूबसूरती, पढ़ा-लिखापन, चेतना की सूफ़ी और भक्ति समझ, अक्ल की ऊँचाई आदि लेकिन तब इतिहास की भी दिल्ली मर रही थी. उसी तरह उपन्यास में भी वज़ीर ख़ानम के पास सब कुछ है, नवाब शम्सुद्दीन के पास सब कुछ है पर फिर भी उनका पतन हो रहा है. मुझे ख़त का जवाब देते समय यह बात समझ में आ गयी कि मैं यह लिख रहा हूँ कि ऐतिहासिक दिल्ली और मेरे उपन्यास की दिल्ली अपने बावजूद जि़न्दा नहीं रह पा रही है. यह जवाब देते हुए यह बात मेरे मन में खुल गयी कि मैं सिर्फ़ एक औरत के बारे में नहीं लिख रहा, जो बहुत रंगीन मिज़ाज, सक्रिय और दिलचस्प है बल्कि मैं दो दिल्लियाँ बना रहा हूँ.’

उदयन वाजपेयी के इस सवाल पर कि आपने मुस्हफ़ी पर कहानी लिखना क्यूँ तय किया था? फ़ारूकी साहब जिस दिलचस्प अंदाज़ में जो जवाब देते हैं, वो इस बात को भी दर्शाता है कि फिक्शन में कौन चरित्र बनने की योग्यता रखता है और कौन नहीं. फ़ारूकी कहते हैं: 

‘वो बड़ा रंगीन आदमी है. उसने लड़कियों और लड़कों दोनों से ही इश्क़ किया. दोनों तरह की शायरी उसके यहाँ हैं. मैंने सोचा इसके बारे में लिखो. यहाँ भी मैंने वही किया कि आख्याता के पिता को इतिहास से उठा लिया, वह मारवाड़ी व्यक्ति, लाला कांजीमल वास्तविक है, वह फ़ारसी का शायर भी था, उसके बेटे की मैंने कल्पना कर ली.’

कहने का तात्पर्य ये है कि एक उर्दू साहित्य के प्रख्यात विद्वान एवं प्रतिष्ठित सिद्धान्तकार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की इस विषय पर ऐसी बेतकल्लुफ़ और बेबाक बातचीत इससे पहले मैंने नहीं सुनी. बोले गए शब्द की एक ख़ूबी या विशेषता ये भी होती है कि वह बहुत आसानी के साथ सुनने वाले के द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है और उसकी समझ और दिमाग़ को ख़ुद बख़ुद रौशन कर देता है. यही विशेषता इस किताब को मेरी नज़र में महत्वपूर्ण बनाती है. इस बातचीत में एक प्रकार की रोचक क़िस्सागोई भी है. और ये इसलिए भी है कि उदयन वाजपेयी जैसा विद्वान, फ़ारूकी के ज्ञान, अन्तर्दृष्टि  और उनकी रचनात्मक यात्रा को क़िस्से के रूप में बयान करने की प्रेरणा दे रहा है ताकि ये सब सुनकर उसे सोखा जा सके. अगर ये सब यहाँ सीधे लिखा गया होता तो शायद ये स्वाभाविकता, बेबाकी और सच्चाई में जकड़ा हुआ बोलचाल वाला स्वर आ पाना मुश्किल होता. मेरे ख़याल में अगर शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के रचनात्मक दिमाग़ और उनके विद्वतापूर्ण, सांस्कृतिक एवं व्यवहारिक चरित्र की विभिन्न परतों को समझना हो तो इस बातचीत से बेहतर अन्य कोई स्रोत नहीं होगा.

यह बातचीत उदयन वाजपेयी के सम्पादन में भोपाल से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘समास’ में प्रकाशित हुई थी, उसके बाद यह पुस्तक के रूप में भी ‘एक उपन्यासकार का सफ़रनामा’ के नाम से राजकमल प्रकाशन द्वारा 2018 में प्रकाशित हुई. रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी ने इसको हिन्दी से उर्दू में रूपान्तरित किया है और इस अनुवाद की जितनी प्रशंसा की जाए कम है.

यह आसान काम नहीं था इसलिए कि फ़ारूकी साहब की असल बातचीत का कोई रिकार्ड रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी के पास नहीं था. फ़ारूकी साहब की असल बातचीत का हिन्दी  अनुवाद करके समास में प्रकाशित किया गया था. अब रिज़वान ने इस हिन्दी अनुवाद को उर्दू के साँचे में ढाला है. मुझे बेहद हैरत इस बात पर है कि रिज़वान ने ज्यों-का-त्यों अनुवाद में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के स्वर, मुहावरे और लय (Tone) को कामयाबी के साथ रूपान्तरित कर दिया है. एक अनुवादक का सबसे महत्वपूर्ण काम यही होता है मगर जब मूल सामने न हो और मूलपाठ का भी दूसरी भाषा में अनुवाद ही सामने हो, उसे दोबारा उसी भाषा में रूपान्तरित करना जिसमें वह मूलपाठ था, यह बहुत मुश्किल काम था और यह काम जिस ख़ूबी के साथ रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी ने अंजाम दिया है उसकी दाद देनी चाहिए.

ज़ाहिर है यह बातचीत एक मौखिक आख्यान है. मौखिक आख्यान की अपनी एक लय(Tone) होती है. यह बातचीत एक बहते हुए संगीत की तरह है. रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी ने मानो एक भाषा के संगीत को दूसरी भाषा के संगीत (हिन्दी से उर्दू) में इस तरह रूपान्तरित कर दिया है कि मूल के सुर और ताल कहीं भी विकृत या विलुप्त नहीं हो पाए हैं.

इस अर्थपूर्ण, महत्वपूर्ण और उच्चस्तरीय विद्वतापूर्ण संवाद को उर्दू के साँचे में ढालने के लिए अनुवादक रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी बधाई के पात्र हैं.

(उर्दू से अनुवाद : रिज़वानुद्दीन फ़ारूकी)

ख़ालिद जावेद

उर्दू के सुविख्यात उपन्यासकार और कहानीकार . बरेली में कई सालों तक दर्शनशास्त्र का अध्यापन.  इन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में उर्दू के प्रोफ़ेसर.  ख़ालिद जावेद के दो कहानी संग्रह ‘बुरे मौसम में’ और ‘आखिरी दावत’ तथा  उपन्यास ‘मौत की किताब’, ‘नेमत खा़ना’ और  ‘एक खंजर पानी में’ आदि प्रकाशित हैं.

आपकी कुछ कहानियों को प्रिंसटन यूनिवर्सिटी और जाधवपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. ख़ालिद जावेद की कृतियों का हिन्दी समेत कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है.

आपको 1996 में कथा सम्मान, 2017 में दिल्ली उर्दू अकादेमी सम्मान,  2014 में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान और ‘मौत की किताब’ उपन्यास के लिए पाखी सम्मान 2018 में मिला है. नेमत खा़ना के लिए जेसीबी सम्मान प्राप्त.

Tags: 20232023 आलेखउदयन वाजपेयीएक फ़िक्शन निगार का सफ़रख़ालिद जावेदशम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी:
ShareTweetSend
Previous Post

कविता: सविता सिंह और विजय कुमार

Next Post

हसन रूबायत की कुछ कविताएँ

Related Posts

उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की बातचीत
बातचीत

उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की बातचीत

मंथन:  कृत्रिम मेधा, रोबॉट और हमारा संसार
बहसतलब

मंथन: कृत्रिम मेधा, रोबॉट और हमारा संसार

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ
अनुवाद

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ

Comments 9

  1. Chandrakala Tripathi says:
    2 years ago

    ‘कई चांद..’ पढ़ते हुए मैंने भी यही सोचा था कि सुंदरताओं को ऐसी जीवंतता में रचना शम्सुर्रहमान फ़ारुकी से कैसे संभव हुआ। बीएचयू में अफ़सानानिगारी पर उन्हें सुना। बहुत ध्यान से। अनूठा व्याख्यान था वह। रचनात्मकता को आक्सीजन देने वाला।
    बहुत मूल्यवान साक्षात्कार है।

    Reply
  2. पंकज अग्रवाल says:
    2 years ago

    Interesting. समास का यह अंक लाना होगा.

    Reply
    • दिनेश श्रीनेत says:
      2 years ago

      खालिद जावेद ने एक बहुत ही अहम किताब के बारे में बताया है, ये न सिर्फ फारूकी साहब के प्रशंसकों को उन्हें और बेहतर तरीके से समझने का मौका देगी बल्कि इस किताब के जरिए वे हिंदी और उर्दू की दो समानांतर दुनियाओं के बीच संभव संवाद का भी हिस्सा बन सकेंगे।

      Reply
  3. Rizvan UL Haq says:
    2 years ago

    सुबह सुबह नाश्ते में ऐसा सुन्दर लेख मिल जाए तो दिन बन जाता है।

    Reply
  4. sangeeta gundecha says:
    2 years ago

    चूंकि ख़ालिद जावेद साहब स्वयं शम्सुर्रहमान फ़ारुकी साहब जैसे महान व्यक्तित्व के सानिध्य में रहे हैं और वे उनके एवं श्री उदयन वाजपेयी जैसे विलक्षण लेखक के काम और योगदान से सुपरिचित हैं, इसलिए वे इन दोनों के संवाद ‘एक फ़िक्शन निगार का सफर’ पर लिखते हुए उसकी अद्वितीय तात्विक पड़ताल कर रहे हैं। यह भूमिका ख़ुद एक सुन्दर फिक्शन की तरह पठनीय है। यह संयोग नहीं कि ख़ालिद साहब एक बड़े उपन्यासकार और कहानीकार होने के साथ-साथ ऊंचे दर्जे के दार्शनिक भी हैं। उनकी यह दार्शनिक अंतरदृष्टि उनके उर्दू – हिन्दी में प्रकाशित अन्य और हाल ही में जेसीबी पुरुस्कार प्राप्त ‘ नेमतखाना’ उपन्यास में तो है ही , उससे कहीं अधिक अभी अभी उर्दू में प्रकाशित उपन्यास ‘अर्सलान और बेजाद’ में भी मौजूद है। वह जल्दी ही हिन्दी में भी पढ़ने को मिलेगा।

    – संगीता गुंदेचा

    Reply
  5. sangeeta gundecha says:
    2 years ago

    भोपाल के श्री रिज़वानुद्दीन फ़ारुकी को इस उम्दा अनुवाद के लिए बधाई और साधुवाद।

    Reply
  6. Dr. Krushna Chandra Panda says:
    2 years ago

    आपके इस कमेंट से ‘अर्सलान और बेजाद’ उपन्यास को हिन्दी में पढ़ने की इच्छा बहुत प्रबल हो उठी है।

    Reply
  7. Deepak Sharma says:
    2 years ago

    An in- depth introduction by the brilliant author,Mr Khalid Javed,to the book comprising an exhaustive conversation between the interviewee, Mr Shamsur Rehman Faruqi, n the interviewer,Mr Udyan Bajpayee.
    A sheer delight.
    The extracts from the book speak volumes about the innovative methodology of Mr Faruqi’s narratives and the fetching intimacy that Mr Bajpayee enjoys with his subject.
    Thanks n regards,Arun Deb ji,for presenting it.
    Deepak Sharma

    Reply
  8. Shampa Shah says:
    2 years ago

    उदयन जी ने कई बेहद संजीदा और परतदार बात–चीतें हिंदी जगत को दी हैं☘️इतनी दिलचस्प और महत्वपूर्ण किताब पर खालिद जावेद जी की भूमिका – सोने पे सुहागा है। अनुवाद तो वाकई कमाल का लग रहा है☘️ गुज़ारिश है कि अर्सलान और बेज़ाद का आप अनुवाद कर हिंदी पाठकों को कृतार्थ कीजिए☘️

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक