शमशेर बहादुर सिंहहरिमोहन शर्मा |
शमशेर की एक थोड़ी लंबी कविता है:’बाढ़ 1948′.
कविता शुरू करने से पहले कवि बतौर प्रस्तावना कहता है कि कविता में उसकी आत्मछवि या चेहरा नहीं, बल्कि उसकी रूहानी ज़िन्दगी बसती है. शमशेर इस कविता में यह भी कहते हैं कि उनका आज भले ही कमजोर और निरीह हो पर उन्हें विश्वास है कि उनका भविष्य उज्ज्वल होगा. इस कविता की पूरी पृष्ठभूमि क्या है? कवि क्या कहना चाहता है? किन परिस्थितियों में वह कविता लिखी गई है? इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी! फिलहाल इस कविता का आखिरी बंद उद्धृत है-
“वह जीवन मैं हूं, शमशेर, मैं
आज निरीह
कल
फतहयाब,
निश्चित! “
(शमशेर बहादुर सिंह रचनावली-1 सं. रंजना अरगड़े पृष्ठ 178)
यह पांचवें दशक की कविता है. सन 1948 – 49 में लिखी गई होगी. यहां शमशेर अपने उस समय के जीवन से असंतुष्ट-हताश नजर आते हैं. वे उसे निरीह और धूसर बताते हैं. पर किसी ढर्रे में ढलना नहीं चाहते. अन्यत्र ‘डायरी’ शीर्षक कविता में ये लिखते हैं-
“लेखक (और लेखक ही क्यों)
-एक सांचा है,
उस सांचे में आप फिट हो जाइए
-हर एक के पास एक सांचा है. राजनीतिज्ञ,
प्रकाशक,… शिक्षा संस्थानों के
गुरु लोगों के पास… यह लाबी, वो लाबी.”
(उपर्युक्त, पृष्ठ 287)
शमशेर जिद्दी हैं, चाहे जिस हाल में रह लेंगे, पर ये किसी भी रूढ़ सांचे में अंटने से इनकार करते हैं. यानी स्थितियां बतौर व्यक्ति बतौर कवि इनके कितने ही विपरीत हों पर ये संकल्पबद्ध हैं कि ये अपनी ही तरह की दुनिया में रहेंगे. इन्हें पक्का विश्वास है कि इनकी काव्य-साधना आज नहीं तो कल अवश्य रंग लाएगी. इनकी कविता का भविष्य उज्ज्वल होगा, विजयी होगा. एक कलाकार की अपनी कला के प्रति ऐसी अटूट आस्था, इनकी कला साधना के प्रति निष्ठा से उद्भूत हुई होगी. पर अफसोस कि हम जीवन-संघर्षों से घिरे इस कवि-कलाकार के प्रारंभिक जीवन, उसकी काव्योन्मुखता, उसके परिवेश के बारे में बहुत कम जानते हैं. इनका प्रारंभिक जीवन तो लगभग अज्ञात है. एकाध स्थान पर देहरादून और गोंडा में इनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई–इसकी चर्चा मिलती है. पर इन शहरों ने इनके भावुक कवि, इनके रोमानी मिजाज़, चित्रकार, शिल्पी व्यक्तित्व का कैसे निर्माण किया-इसकी जानकारी नहीं मिलती है.
देहरादून
शमशेर के पिता चौधरी तारीफ सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर के तहसील कैराना के एक गांव एलम के रहने वाले थे. उनकी पहली पत्नी का निधन विवाह के दो तीन साल बाद ही हो गया था. उनका दूसरा विवाह देहरादून निवासी मुंशी भूप सिंह की बेटी परम देवी(प्रभा देवी) से 1908 के आसपास हुआ. मुंशी भूप सिंह देहरादून के तहसीली स्कूल में उर्दू फारसी के अध्यापक थे. उनके छह पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं.यह एक भरा पूरा सभ्य- सुसंस्कृत परिवार था. ये गुरु राम राय गुरुद्वारे के समीप रहते थे. यह बीसवीं सदी की पहली दहाई का समय था. शमशेर शुरू से बहुत संकोची स्वभाव के थे. इन्होंने “मैं मेरा समय और रचना प्रक्रिया” पर वक्तव्य देते हुए बताया है:
“हमारे नाना का परिवार पंजाब से आकर वहां (देहरादून में) बस गया था- लुधियाना से. और उनके संबंधी सब पंजाबी बोलते थे. मेरी नानी जी गुरुमुखी लिपि में गीता पढ़ती थीं.”
(सापेक्ष 30, अतिथि सं. रंजना अरगड़े, पृष्ठ 3)
शमशेर के पिता उस समय देहरादून की अदालत में कार्यरत थे. यहीं शमशेर बहादुर सिंह का जन्म 3 जनवरी 1911 को हुआ. पिता की यह सरकारी नौकरी थी. जिसमें तबादले होते रहते थे. शीघ्र ही उनका गोंडे की अदालत में अहलमद यानी सहायक के पद पर तबादला हो गया. इनके माता-पिता गोंडा आ गये और यहीं मकान ले कर रहने लगे.
अब यह बीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक था. सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू फारसी थी. शिक्षा में भी उर्दू फारसी चलती थी. हिन्दी को सरकारी भाषा बनाए जाने के लिए वर्षों से आंदोलन हो रहा था. इन्हीं दिनों हिंदी को भी सरकारी भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई. फिर भी ज्यादातर काम उर्दू फारसी में ही चलता रहा. हिन्दी और उसकी बोलियां घर में बोलचाल की जबान थीं. छह-सात साल की उम्र में गोंडे में इनकी प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई. शमशेर के छोटे भाई तेज बहादुर बताते हैं कि
“तय हुआ कि पढ़ाई शुरू होने के सत्र से हम दोनों को गोलागंज(गोंडे) में स्थित प्राइमरी स्कूल में दाखिल कर दिया जाए. दाखिले की तैयारी हुई. नए कुर्ते, पजामे, टोपी सिलवाई गई. बाल मशीन से कटवाए गए. नई किताब, उर्दू का पहला कायदा,एक तख्ती,दवात( जिसे बुतका कहते थे) वासलीन की कलम, बुतके में काली स्याही, पानी तथा कपड़े का एक छोटा टुकड़ा डाल देते थे, ताकि कलम की नोक मिट्टी की दवात के पेंदे से टकराकर टेढ़ी ना हो, टूटे नहीं.
अगले दिन हमें नए कपड़े पहनाए गए. छोटी छोटी तख्तियां हाथ में थमा दी गईं.कलम बुतका भी ले लिया. हमारे स्कूल जाने की तैयारी मां ने की थी. फिर दोनों को पुचकार कर पिताजी के साथ कर दिया. जब तक हम दिखाई देते रहे, मां हमें दूर तक देखती रही.”
(मेरे बड़े भाई शमशेर जी, पृष्ठ 47)
तेज बहादुर शमशेर से डेढ़- दो साल छोटे थे. पर स्कूल में दोनों को एक साथ दाखिल कराया गया. स्कूल में उर्दू की पढ़ाई होती थी, हिंदी की नहीं. हिन्दी का अक्षर ज्ञान इन्हें इनकी माताजी ने कराया. मां भागवत पढ़तीं. ये उसे चाव से सुनते. मां ने इन्हें लगातार दो-तीन महीने में हिंदी के अक्षरों की मात्रा जोड़ना सिखा दिया. और इस तरह बकौल तेज बहादुर इन्हें उर्दू और हिन्दी दोनों साथ- साथ आती गई. ‘भैय्या पढ़ने में काफी लगन से जुटे रहते थे, उन्हें जल्दी हिन्दी का ज्ञान हो गया.’ प्रथम विश्व युद्ध का जमाना था. ‘जंग’ अखबार हिन्दी में भी निकला करता था. पिता यह अखबार पढ़ा करते. बच्चे भी बिना सोचे-समझे इसे पढ़ते रहते. साथ ही पिता को कथा-कहानी के अलावा हिकमत की चीजों को भी पढ़ने का शौक था. ‘एक और मासिक ‘दरोगा दफ्तर’ भी उन दिनों उपन्यास कहानियों से पूर्ण निकलता था, पिता जी उसे ज्यादा पढ़ा करते थे.’ हुक्का गुड़गुड़ाते हुए वे रात के वक्त बच्चों को एक बार पहाड़े सिखाते तो दूसरी रात कोई कथा कहानी सुनाते. बच्चों को नींद आजाती तो अगली बार फिर वहीं से आगे कहानी सुनाना शुरू करते. शमशेर मानते हैं –
“मेरे छोटे भाई, बाद में उन्होंने उपन्यास लिखा, कहानियां लिखीं जो’ हंस’ में छपी, यह उसी का नतीजा होगा जरूर. और जो एक रूमानियत थी उन दास्तानों में शायद उसका नतीजा हो कि मैं कविता की तरफ आया. कविता में कल्पना ने बड़े-बड़े पर निकाले और मैं उसकी हवा में बहने लगा.” (सापेक्ष 30, पृष्ठ 5)
जैसा कि कहा गया कि शमशेर के पिता को कहानियां, नावेल उपन्यास, ड्रामे इत्यादि पढ़ने की आदत थी. घर में हिंदी उर्दू की पत्र-पत्रिकाएं आया करती थीं. बकौल शमशेर-
“चूंकि हिकमत से उनको जरा लगाव था तो ‘अल हकीम’ दिल्ली से मंगवाते थे… और ‘बहार ऑफिस’ के ग्राहक थे. सारे उपन्यास जो वहां छपते थे, आ जाते थे. उसके बाद वह ‘गंगा पुस्तक माला’ के ग्राहक बन गए थे. हर महीने उनका एक कार्ड आ जाता था कि भाई आपको जो किताबें चाहिए वह संकेत दे दीजिए, न चाहिए उन पर निशान लगा दीजिए. कौन उनको लिखता! तो हर महीने जो भी पुस्तकें छपतीं सब आ जाती थीं. ”
(उपर्युक्त, पृष्ठ 6-7)
इस प्रकार घर पर इन्हें पिता की रुचि के कारण अनेक पत्र-पत्रिकाओं के अलावा देवकीनंदन खत्री की विख्यात कृतियां चंद्रकांता, संतति, भूतनाथ, कविता में निराला का ‘परिमल’ इत्यादि बचपन में ही पढ़ने को मिल गया था. ये इन्हें कितना समझते थे, कितना नहीं- यह अलग बात थी. इससे इनके मानसिक ढांचे का निर्माण हो रहा था. पुस्तकें और उनसे खुलती दुनिया में ये विचरण करते रहते थे. कभी कुछ समझ में आ जाता, कभी नहीं आता. इस तरह शमशेर पढाकू बनते जा रहे थे.
गोंडा में मां का निधन
भावुक प्रकृति के बालक तो ये थे ही. तभी इनके जीवन में एक भयानक भूचाल आया. ये नौ वर्ष के रहे होंगे कि मियादी बुखार बिगड़ जाने से इनकी माताजी का निधन हो गया. हर बच्चे को अपनी मां से लगाव होता है. ये तो बाहर खेलने भी नहीं जाते थे. या तो पुस्तकों में रमे रहते या मां के आसपास मंडराया करते. वही इनका संसार था. मां की मृत्यु पर रो-धो लेने के बाद एक सूना सांय- सांय करता घर बचा था. मां का वह सलोना मुखड़ा इनकी स्मृतियों में आजीवन बसा रहा. सौंदर्य का प्रतिमान. इन्होंने अपनी एक कविता में लिखा –
“और एक अनंत का सौंदर्य मेरी माँ –
मेरी माँ की एक मुस्कान.”
(कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ, पृष्ठ 63)
उस समय पिता ने बच्चों से कहा कि एक बार मुझे मां और एक बार बाबू जी कह लेना. शुरू-शुरू में उन्होंने ध्यान भी बहुत रखा. घर में देख रेख करने वाली कहारिन दिल्लियाइन को रख लिया. उसके सहारे घर को संभाला. पर सरकारी नौकरी थी. बच्चे छोटे थे. कच्ची गृहस्थी थी. पिता ने सरकारी नौकरी से दो साल की छुट्टी ले ली. घर के पास एक दुकान खोलने की सोची. देहरादून से बच्चों के युवा मामा राजाराम को सहायता के लिए बुला लिया. हकीमी में रुचि होने के कारण वे उसमें इस्तेमाल में आने वाली चीजों की पर्याप्त जानकारी रखते ही थे. दिल्ली और दूर दराज से दवाएँ और जड़ी बूटियों को वे मंगाते. काम चल निकला. पर राजाराम जी का मन नहीं लगा. कुछ समय बाद एक रात बिना बताये वे देहरादून चले गए. सारी व्यवस्था बिगड़ गयी. बल्कि ठप्प हो गई. अकेले दुकान और बच्चों को संभालना संभव नहीं था. अतः दुकान बंद कर देनी पड़ी. समस्या खड़ी हुई कि अब बच्चों की पढ़ाई और देखभाल कैसे हो? तय किया गया कि
शमशेर को देहरादून के ए पी मिशन स्कूल में दाखिल करा दिया जाए. वहां नाना नानी की देखरेख में इनके पढने की अच्छी व्यवस्था हो जाएगी.छोटे तेजबहादुर को दादा दादी के पास गांव के स्कूल में दाखिल करा दिया गया. यहाँ तेज बहादुर बीमार पड़ गए. साथ ही गांव में पढाई-लिखाई का वातावरण न होने के कारण तेज बहादुर को भी देहरादून के उसी स्कूल में दाखिल कराया गया जिसमें शमशेर पढ़ रहे थे. बालक शमशेर क्रमशः दीन-दुनिया से कटता अंतर्मुखी होता चला जा रहा था. यहां भी उसने किताबों की दुनिया में मन लगा लिया. परंतु पिता ने पाया कि मिशन स्कूल में बच्चे पढ़ने के साथ-साथ ईसाई धर्म की शिक्षा में भी दिलचस्पी ले रहे हैं. अगले साल दोनों बच्चों को वहां से हटा कर उन्होंने डी ए वी कालेज के बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा दिया. पिता ने शमशेर से कहा कि छोटे का हर वक्त ध्यान रखना. शमशेर ने बड़े भाई की तरह इस बात का हमेशा ध्यान रखा.
शमशेर धीरे-धीरे अपने को उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी की किताबों में डुबोए रखने लगे. बोर्डिंग स्कूल में रविवार छुट्टी के दिन छह आने हाथ खर्च के लिए मिलते थे. शमशेर उन पैसों से कबाड़ी बाजार जाकर पुरानी पुस्तकें खरीद लाते. इन्होंने यहीं से बहादुर शाह ज़फर, गालिब, दाग, भारतेंदु हरिश्चंद्र, शेक्सपियर की पुस्तकें खरीद कर पढीं. तेज बहादुर अपने पैसों से कुछ खाने-पीने की चीजें खरीदते. कमरे पर आकर शमशेर इन किताबों के पढ़ने में मग्न हो जाते. अध्यापक वृंद में भी पता चल गया था कि ये पढाकू हैं और कविता लिखने में रुचि रखते हैं. इतिहास के अध्यापक हरिनारायण मिश्र भी कविता-शायरी लिखते थे. उन्होंने इन्हें अपने घर बुलाया. इनकी पढ़ी पुस्तकों के बारे मे जानकारी ली. वे बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने कहा कि ये सभी किताबें यहां की लाइब्रेरी में मिल जाएंगी. मैं लाइब्रेरियन से मिलवा देता हूं. अब तो ये पुस्तकालय से किताब लाने लगे. अंग्रेजी के लिए उन्होंने इनका परिचय अंग्रेजी के अध्यापक चटर्जी साहब से करा दिया. फिर तो अंग्रेजी में जो समझ नहीं आता, उनसे मिल कर समझ लेते.पढ़ने-लिखने का काम और तेजी से चल निकला. उस समय की याद करते हुए तेज बहादुर लिखते हैं-
“उनके पास से लौटने के बाद यह अलग कॉपी में कुछ नोट्स बनाते और फिर किताब पढ़ते. एक किताब खत्म करने पर दूसरी ले आते. अंग्रेजी चटर्जी समझाते. उर्दू- हिंदी मिश्र जी बताते. ऐसी अवस्था और ऐसे अवसर पर शमशेर जी को यह प्रेरणादायक सहयोग और आशीर्वाद मिला कि वह मात्र 13 – 14 वर्ष के रहे होंगे, और फिर स्वतंत्र वातावरण में उन्होंने अपने खाली समय में साहित्य का चाहे उर्दू हो, चाहे हिंदी हो, चाहे अंग्रेजी हो, यथाशक्ति पठन-पाठन किया, बहुत सी बातें जो उन्हें कालांतर में पढ़नी पड़तीं उन्होंने पहले ही पढ़ ली.”
(मेरे बड़े भाई शमशेर जी, पृष्ठ 75)
इन सबसे इनमें काव्य-संस्कार ने जड़ जमाना शुरू कर दिया था. उर्दू पहली भाषा थी. शेरो शायरी ये सहज रूप से लिख रहे थे. पर किसी को दिखाते नहीं थे. अंग्रेजी और हिंदी के बारे में शमशेर स्वयं कहते हैं-
“तथ्य यह है कि शुरू में अंग्रेजी कविताओं ने इतना प्रभावित मुझे किया कि मैं अंग्रेजी कविताएं लिखता था और बिल्कुल उसी की नकल में, उसी तरह के छंद. अंग्रेजी के सारे छंद मैंने प्रयोग किए होंगे. और सैकड़ों कविताएं लिखी होंगी. सैकड़ों. चुपचाप यह मेरा एकांत व्यसन था, कह लीजिए आप. एक नशा था एकांत- अपना निजी- जिसमें किसी का साझा नहीं था. कैसे होता? मेरे अपने जितने शौक थे ये- अब जैसे मतिराम ग्रंथावली आई, तो उसकी कविताएं मुश्किल लगती थीं. किसी ने मुझे नहीं सुझाया कि भाई अर्थ डिक्शनरी में देख लो. नहीं पचासों दफे पढ़ रहे हैं- यह सोच कर कि शायद पचासवीं या इक्यावनवीं दफे कुछ समझ में आ जाए अच्छी तरह से. उसका नतीजा यह हुआ कि छंद की जो गति थी, शब्दों का जो आपसी तालमेल था, उनकी पंक्तियों का जो विन्यास था वो कुछ ना कुछ दिमाग में बैठने लगा.”
(सापेक्ष 30, पृष्ठ 15- 16)
इस प्रकार कविता लिखने के प्रति आत्म विश्वास बढ़ता चला गया. ये अंग्रेजी में कविताएं या शेरो-शायरी लिखते पर उसे दबा कर रख लेते. उसी समय इन्होंने हिंदी अंग्रेजी में हस्तलिखित पत्र निकाला- ‘राइजिंग हार्ट’. अपना लिखा ये किसी को दिखाते नहीं थे. न जाने कहाँ से पिता को इनके इस शौक का पता चल गया था. पर वे ज्यादा कुछ नहीं कहते थे. उनके दिमाग में यह बात अवश्य बैठी हुई थी कि शायर लोग फटेहाल रहते हैं और प्रायःभूखे मरते हैं.इधर मां के न रहने पर घर पर कोई रोक-टोक तो रह नहीं गयी थी. शमशेर अपने आसपास रहने वाले समवयस्कों को घर बुला शेरो-शायरी की मजलिस जमाते.पता चलने पर पिता क्षुब्ध हुए. एक घटनाक्रम को याद करते हुए शमशेर बताते हैं:
“एक मर्तबा हाई स्कूल का इम्तिहान था. उसमें कुछ मैथमेटिक्स का पर्चा खराब हुआ तो छोड़ दिया. उनकी जुबान से यही निकला कि वहां शेर कह रहे होंगे. वहां शायरी चल रही होगी. मेरा दिल इतना बैठ गया- क्योंकि कभी कुछ कहते नहीं थे- इतना बुरा लगा कि मैंने आकर सारी कविताएं जो लिखी थीं फाड़ दीं. सदमा तो मुझे पहुंचा मगर वो शगल जारी रहा… फिर चुपचाप मैं लिखता रहा.”
(उपर्युक्त, पृष्ठ 16)
घरेलू सहायिका ने शाम को कापी फाड़कर जला देने की बात पिता जी को बताई. शमशेर को गुमसुम देख कर वे दुखी भी हुए. वे जानते थे कि शमशेर पढाकू हैं, अपने आप में खोए रहने वाले और सीधे-सादे बालक हैं. पर वे आगे क्या करेंगे- उनके भविष्य को लेकर वे चिंतित रहते. हाई स्कूल ये कर गये थे. आगे और व्यवस्थित पढाई की जरूरत थी. पिता ने फिर कोशिश कर अपना तबादला देहरादून करा लिया.
सोचा तो शायद यह था कि देहरादून में बच्चों की ननिहाल है. उनके सहारे और कुछ अपनी देखरेख में बच्चों की पढ़ाई हो जाएगी और फिर इनके घर बसाने की कोशिश की जाएगी. पर ननिहाल में अब वह ऊष्मा, वह बात नहीं रह गई थी. बच्चे वहां आते-जाते रहते थे. नाना का निधन हो गया था. पिता ने डी ए वी कालेज के पास घर ले लिया जिससे दोनों बच्चे आसानी से कालेज जा सकें. शमशेर तो अपनी पढने- लिखने की दुनिया में मुब्तिला रहते. उन्हें तेज बहादुर की चिंता अधिक थी. तेज को किताबों की जगह बाहर की दुनिया ज्यादा पसंद आती. शमशेर के एक मामा को शेरो-शायरी का शौक था तो दूसरे को चित्रकारी का. वे रामलीला के दिनों में वे रामलीला के पर्दे पेंट करते. इन्होंने ही शमशेर को ‘हैमलेट’ का एक सीन पढ़ कर सुनाया था. शमशेर इन दोनों के बहुत नजदीक थे. ये भी शेरो-शायरी और चित्रकला में हाथ आजमाने लगे थे. पिता का अब तबादला होने को था. घर में फिर चिंता के बादल घिर- घिर आते. सोचा शमशेर का विवाह कर दिया जाए. इसके लिए अभी शमशेर राजी नहीं थे. इनकी इंटरमीडिएट की परीक्षा सिर पर आ रही थी. स्वास्थ्य गिर रहा था. कविताएं शेरो-शायरी जोरों पर थी. पर उन्हें छपाने के प्रति इनका कोई उत्साह नहीं होता था. इनका यह सिलसिला इलाहाबाद तक चलता रहा. कहा जाता है कि यदि इनके मित्र जगत शंखधर न होते तो इनकी प्रारंभिक कविताएं इकट्ठा भी नहीं होतीं. आज के पाठक को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ‘दूसरे सप्तक’ का कवि होने के बावजूद इनका पहला काव्य-संग्रह अडतालीस की उम्र यानी सन 1959 में प्रकाशित हुआ.
शमशेर का विवाह सन 1929 में देहरादून में हुआ. पर यह भी इनके जीवन की भयानक तम घटना बन गयी. हुआ यह कि ये इलाहाबाद में बी ए की पढ़ाई कर रहे थे. इसी दौरान इनकी पत्नी जो अपने मायके देहरादून में रह रही थीं,बीमार पड़ गईं और लंबे इलाज के बाद पता चला कि उन्हें टी बी है. दवा की गई पर रोग बढ़ता चला गया. उन्हें सेनेटोरियम में ले जाया गया. शमशेर 1933 में बीए की परीक्षा देकर उन्हें शिमला के एक अच्छे सेनेटोरियम में ले गए. पर उनका रोग ठीक होने की बजाय बढ़ रहा था. तब तक टी बी की कोई पक्की दवा नहीं आई थी. अंततः सन 1935 में उनका निधन हो गया. शमशेर के जीवन में एक बड़ा शून्य, एक निरुद्देश्यता आ गई. पढ़ाई में मन नहीं लगता था.इन्होंने कुछ समय दिल्ली के उकील बंधुओं के यहां चित्रकला की शिक्षा ली.जैसा कि कहा इन्हें किशोर जीवन से ही चित्रकला का शौक था. मन में अनेक ख्याल आते. कभी चित्रकारी करने का तो कभी कविता लिखने का. कुछ समय बाद ये दिल्ली से देहरादून वापस आ गये. अकस्मात यहीं इनकी इलाहाबाद के पुराने मित्र हरिवंशराय बच्चन से मुलाकात हो गयी. उनकी पत्नी का भी कुछ समय पहले निधन हो गया था. वे इनकी मनःस्थिति समझ रहे थे. उन्हीं की प्रेरणा से ये एक बार फिर पढ़ने के लिए इलाहाबाद पहुंचे. अंग्रेजी एम ए में दाखिला ले लिया. यहां इनके अनेक साथी, रचनाकार मित्र, वरिष्ठ लेखक मौजूद थे जिनसे इनका आत्मीय रिश्ता था. स्वाभिमानी शमशेर के सामने अब आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा था. ये ससुराल या पिता से पैसे नहीं मांगना चाहते थे. एक साल तो जैसे तैसे खींच लिया पर अगले साल की पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे. इस प्रकार ये एम ए के आखिरी साल की परीक्षा नहीं दे सके.
शमशेर लिखने-पढ़ने का काम ही जानते थे. इन्होंने उर्दू या अंग्रेजी से अनुवाद का काम ढूंढा. संकोची स्वभाव के चलते ये बमुश्किल किसी से कहते. कभी कभार पढ़ाने का काम मिल जाता. पर नियमित कुछ भी नहीं. बहुत सी बार दो-दो दिनों तक खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता. शमशेर कुछ अंतरंग पल डायरी में लिखते हैं :
“ए–जो पेय दे गयी थीं, बनाकर, पीकर, कुछ करने बैठता हूँ. सोचता हूँ. मिट्टी का तेल तो आया ही होगा पांच एक आने का… मुझे कल नहीं तो परसों के लिए इंतजाम कर ही लेना है. रुपया रोज करीब-करीब, उठ जाता है.” (शमशेर बहादुर सिंह रचनावली 6, पृष्ठ 69)
यह नहीं कि इन्हें अनुवाद का काम नहीं मिला. इन्होंने अपने उर्दू के उस्ताद प्रसिद्ध साहित्यकार ऐजाज अहमद के ‘उर्दू साहित्य का इतिहास’ का हिन्दी में अनुवाद किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ. अथवा लुई केरोल के ‘एलिस इन वंडरलैंड’ का ‘आश्चर्य लोक में एलिस’ बहुत प्रसिद्ध अनुवाद हैं. या ‘रूपाभ’ से लेकर ‘माया’, ‘कहानियां’, ‘नया साहित्य’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में संपादन सहयोग किया. परंतु ये अपने कवि स्वभाव के चलते किसी जगह बहुत लंबे समय तक नहीं टिक पाए. जीवन के उत्तरार्द्ध में इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग की एक कोश परियोजना में अवश्य थोड़ा लंबे समय तक काम किया. चाहते तो यह किसी भी स्थाई सरकारी नौकरी में जा सकते थे. पर पिता की नौकरी देख इन्होंने तय कर लिया था कि ये कभी सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. अतः इन्होंने अधिकांश समय पत्र-पत्रिकाओं के लिए काम किया. या फिर अनुवाद किये. वह भी किसी एक जगह लग बंध कर नहीं. इनके भाई तेज बहादुर गाहे-बगाहे इनकी आर्थिक मदद करते रहे. तत्कालीन पत्रों और डायरी से इनकी स्थिति का पता चलता है.
शमशेर प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं. तनाव और जटिलता उनके स्वभाव के अंग हैं. यह अपने व्यक्तित्व के बिखरेपन को जब तब समेटने की कोशिश करते. पर फिर अपने पढ़ने-लिखने की रौ में सब कुछ भूल जाते. और मन में जो व्यवस्था तय करते, वह टूट जाती. दरअसल इन्हें हर वक्त आंतरिक अभाव या एक प्रकार की रिक्ति का एहसास बना रहता. जैसे इनके हाथ से कुछ बहुत कीमती छूट रहा हो. ये कुछ भूले-भूले से रहते. अपने व्यक्तित्व के इस पक्ष पर ये खुद से बहुत नाराज भी नज़र आते. कभी स्वयं को ही ये लताड़ते.1963 की एक डायरी में ये लिखते हैं:
“क्यों अपनी जरूरी चीजें.. कविताओं की पांडुलिपि और डायरियाँ- गुलूबंद- पहनने के कपड़े, ऐनक का डिब्बा, बिस्तर बांधने और सुखाने के लिए कपड़ा टांगने की रस्सी, चम्मच, साबुन.. क्या हो गया है मुझको, आखिर? क्या चाहता हूं मैं- अपने को ज़लील ही करना? मुश्किल में ही अपने आप को देखना? – क्या मैं किसी ऐसे पात्र का अभिनय करना चाहता हूं जो ‘निरीह’ लगे,’भूलनेवाला’, ‘भोला’, ‘पवित्र’…?”
(उपर्युक्त, पृष्ठ 87)
यह सही है कि शमशेर सीधे-सादे, अपने में मगन, किसी जोड़-तोड़ में न पड़ने वाले, मौन साधना रत व्यक्ति थे. मुक्तिबोध के शब्दों में अपनी ‘प्रयत्न साध्य पवित्रता’ का भवन तैयार करने वाले. पर अपने कवि- स्वभाव के चलते व्यवस्थित जीवन जीने में असमर्थ. व्यवस्थित बातें करने कहने से बचने वाले. दरअसल पत्नी की मौत के बाद बिखराव ही इनके जीवन का स्थायी भाव हो गया था. परंतु प्रेम की चाह इनमें हमेशा बनी रही. इलाहाबाद में इन्हें कुछ प्रेमिल वातावरण भी मिला. मलयज परिवार से तो उनके घनिष्ठ संबंध थे ही.
शमशेर अपने आभ्यंतर को खोलने वाली 1963 की ही डायरी में एक स्थान पर लिखते हैं: “दारागंज. निराला की मूर्ति स्थापित करने के लिए वेदी का शिलान्यास हुआ था. मैं और नि- देर से पहुंचे थे. मैं कतई भूल गया था एक लेख लिखने के बाद उसको ठीक करने की सोच रहा था (खाना खा चुकने के बाद- कि नि- आई, याद आया.)”
(उपर्युक्त ,पृष्ठ 70)
ऐसे कुछ और प्रसंग भी इनकी डायरी में मिलते हैं. पर यहाँ भी रहे ये पूरी तरह समर्पित व्यक्ति की तरह. जहाँ किसी तरह का लुकाव-छिपाव नहीं. निश्छल सहजता से युक्त.
शमशेर ताजिंदगी अपनी कविताओं को ही नहीं अपने जीवन को भी बहुत मद्धिम या कहें बहुत निचले पायदान पर रखते रहे. इनके लिये कविता और जीवन दो अलग नहीं- एक ही बात थे. किसी सहृदय मित्र ने इनका पहला काव्य-संग्रह छापना चाहा. पर उथल-पुथल के उस जमाने में वह प्रकाशन ही बैठ गया. अपने उस पहले प्रकाशक जगदीश अग्रवाल को संबोधित सन 1948 की कविता ‘एक पत्र’ में ये लिखते हैं :
“मलिन था स्वास्थ्य: आज भी, क्षीण संबल में खोया हुआ सा हूं: छंद से बाहर
पंगु मानो, भावना से रहित–
शून्य. एक परिचय में सभी कुछ हूं
या कहीं कुछ भी नहीं. देहरा हो
या मुरादाबाद, बंबई हो या प्रयाग.
मैं नहीं कहता कि दे मुझको प्रकाश-
मोल ले यह भैरवी कोई!
एक जीवन की कथा तो पूर्ण है..
पूर्ण है, फिर क्या!”
(शमशेर बहादुर सिंह रचनावली 1, पृष्ठ 163)
यहां इनकी एक तस्वीर उभरती है- कृश काय, कमजोर स्वास्थ्य, भूले भटके हुए से शमशेर. देहरादून के बाद मुरादाबाद को याद करते हुए. जहां इनके भाई तेज बहादुर और कुछेक नजदीकी लोग रहे. बंबई में कुछ समय ये पार्टी कम्यून में रहे. पार्टी की पत्रिका ‘नया साहित्य’ का संपादन किया. उसके कई महत्वपूर्ण अंक निकाले. ‘माई’ जैसी कालजयी कविता लिखी. इलाहाबाद तो इनके जीवन की वह तपोभूमि रही जहाँ इन्होंने आजीवन साहित्य साधना की. घनघोर अभावों के बीच जीवन जिया. बिना किसी शिकवे शिकायत के रचनारत रहे.
कभी किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखी. अपने लिए किसी को तकलीफ हो, कोई इनके लिए अपने जीवन में भैरवी बुला ले- यह इन्हें कतई स्वीकार्य नहीं. इसी खरेपन के साथ, कठिनाइयों से भरा मगर सार्थक जीवन जीने वाले कवियों के कवि बने- शमशेर. न इससे अधिक और न इससे कुछ कम. सब जानते हैं कि इन्होंने अप्रतिम गद्य लिखा है. कहानियां, डायरी और पत्र लिखे हैं. अच्छे अनुवाद किये हैं. इनके बनाए चित्रों – रेखांकनों को तो लोग भूल ही रहे हैं. यह हिन्दी की निधि है. इन सब पर अभी बहुत काम होना बाकी है.
हरिमोहन शर्मा 1952, मंडावर- बिजनौर प्रकाशन: चंद्रशेखर वाजपेयी कृत रसिक विनोद, उत्तर छायावादी काव्य भाषा, रचना से संवाद, आधुनिक पोलिश कविताएं (अनुवाद), मज़ाक (मिलान कुंदेरा), कथावीथि, साहित्य, इतिहास और आधुनिक बोध, नरेंद्र शर्मा (मोनोग्राफ- साहित्य अकादेमी), रामविलास शर्मा रचना संचयन (साहित्य अकादेमी) आदि A 49 Delhi Citizen Society Sector 13 Rohini Delhi 110085 hmsharmaa@gmail.com |
शमशेर बहादुर सिंह के जीवन के तमाम झंझावातों और संघर्षों से रूबरू करता बढ़िया आलेख।
हरिमोहन शर्मा जी को इस उत्कृष्ट पाठ के लिए मेरा प्रणाम और तहे दिल से शुक्रिया।
मेरे प्रिय कवि शमशेर के जीवन और संघर्ष को हरिमोहन जी ने बड़े मन से उकेरा है। और उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुमूल्य तथ्यों से अवगत भी करवाया है।
पत्नि के निधन के बाद शमशेर के पिता की पीड़ा इसी एक वाक्य से समझी जा सकती है:
उस समय पिता ने बच्चों से कहा कि एक बार मुझे मां और एक बार बाबू जी कह लेना.
शमशेर जी के जीवन कई महत्वपूर्ण पहलुओं को उकेरता बेहतरीन आलेख है । हार्दिक बधाई ।
हरिमोहन जी शर्मा ने शमशेर बहादुर सिंह के जीवन वृतांत के बारे में जितना इस वेब-पत्रिका समालोचन में लिखा है यह अनूठा है । इन्होंने मेरे मन में शमशेर बहादुर सिंह के जीवन के प्रति सम्मोहन पैदा कर दिया है । बाक़ी बची हुई ज़िंदगी में मैंने शमशेर रचनावली पढ़ लेनी चाहिये । राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड से प्रकाशित इनकी कविताओं का लघु संकलन पढ़ा था । वे कविताएँ रहस्यमय संसार रचती हैं । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी कृपया मुझे सूचना दे कि शमशेर बहादुर सिंह की रचनावली किस प्रकाशन संस्थान ने छापी है । कैफ़ी आज़मी की पत्नी (यदि मैं नाम नहीं भूला हूँ तो) शौक़त आज़मी अपने पति के साथ बम्बई के पार्टी कम्यून में रही थी । शौक़त आज़मी की लिखी हुई पुस्तक मैंने पढ़ी थी और यह मेरी बुक शेल्फ में है । शमशेर बहादुर सिंह के कम्यून में बिताये गये जीवन को और उनके अनुभवों को पढ़ना चाहूँगा ।
समालोचन की यह सामग्री महत्वपूर्ण है । शमशेर को जानने समझने में आसानी हो जाएगी । धन्यवाद अरूण जी ।
हरिमोहन शर्मा सर को इस उत्कृष्ट आलेख के लिए नमन और आत्मिक धन्यवाद। आपने जिस खूबसूरती से शमशेर बहादुर सिंह के जीवन वृतांत को, उनके संघर्षो को को लिखा है, वास्तव में यह अनूठा है। आजतक मैं उन्हें पाठ्यपुस्तकों के माध्यक से ही कुछ कविताओं को पढा है। लेकिन इस महत्वपूर्ण आलेख को पढ़कर उनके विपुल साहित्य को पढ़ने का भूख जागृत हो उठा। बधाई समालोचन टीम को। आभार अरुण सर।
-सुरेन्द्र प्रजापति
शमशेर बहादुर जी पर सुचिंतित, बढ़िया, जानकारीपरक आलेख