हजारीप्रसाद द्विवेदी : अध्यापन, इतिहास-लेखन और पत्र
शिरीष कुमार मौर्य
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेखन और व्यक्तित्व बहुआयामी है और हर आयाम अपने-आप में पूर्ण है. यहाँ हम इनमें से तीन आयामों की चर्चा करेंगे – अध्यापन, इतिहास-लेखन और आचार्य के वे पत्र, जिनसे उनके व्यक्तित्व के कुछ नए पक्ष सामने आते हैं.
ll अध्यापन ll
हिंदी में कार्यरत हम सभी जन अमूमन अध्यापक ही हैं इसलिए मैं सबसे पहले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अध्यापनशैली पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि निबंधकार, इतिहासकार, आलोचक, कथाकार इत्यादि होने से पहले हजारी प्रसाद जी एक अध्यापक हैं. यह एक ऐसी चीज़ है, जो हमें उनकी संवेदना से सीधे जोड़ देती है या कहें कि उन्हें हमारी संवेदना से सीधे जोड़ देती है. हजारी प्रसाद जी के प्राध्यापन का स्वर्णिम काल शांतिनिकेतन का है और दो टुकड़ों में अत्यन्त सार्थक समय बी.एच.यू. का भी. इसके अलावा वे चंडीगढ़भी रहे, जिसका उनके प्राध्यापकीय तो नहीं पर व्यक्तिगत जीवन में अत्यधिक महत्व है. इस पर आगे बात होगी. उनके विद्यार्थियों में से कई ने हिन्दी साहित्य में अपार कीर्ति अर्जित की है और वे आज भी साहित्य के शिखर पर हैं. हम सब उनके बारे में जानते ही हैं, मुझे शायद नाम गिनाने की ज़रूरत नहीं है.
मैं हजारीप्रसाद जी की अध्यापन शैली के बारे में कुछ कहूँ तो सबसे पहले मुझे शिवानीका एक आत्मीय संस्मरण याद आता है जो बहुत पहले धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था. इसमें हजारीप्रसाद जी का अजब रूप दिखाई देता है. एक मस्तमौला आदमी जो अपने घर के बरामदे से लेकर आम और नीम के पेड़ के नीचे तक कहीं भी पढ़ाने बैठ जाता है. और ज़रूरी नहीं कि सीधे-सीधे पाठ्यक्रम ही पढ़ाए – जीवन के कई अवांतर प्रसंगों में जाते और उन्हें पाठ से जोड़ते हुए वह विद्यार्थियों को किसी और लोक में ले जाता है. विश्वनाथ त्रिपाठी भी कहते हैं कि अपने सबसे अच्छे व्याख्यान हजारीप्रसाद जी ने ऐसी ही कई-कई अनौपचारिक कक्षाओं में दिए हैं और अफ़सोस कि वे लिखित रूप में कहीं दर्ज़ नहीं है. 1
हजारीप्रसाद जी के ही हवाले से कहूँ तो उन्होंने जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा , उसका अधिकांश हिस्सा बीज रूप में शांति निकेतन प्रवास के दौरान उनके मन में अंकुराया. 2 उदाहरण के तौर पर उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ और कबीर! इन्हें हम उन्हीं व्याख्यानों का परिमार्जित और लिखित रूप मान सकते हैं. बाणभट्ट की आत्मकथा में कहीं पर खुद को उलींच कर दे देने की बात आती है – मैं इसे हजारीप्रसाद जी के अध्यापन में पाता हूँ. वे पढाने के दौरान असल में खुद को उलींच रहे होते थे. उलीचने के लिए ठंडा-मीठा जल भी चाहिए – ऐसा जल, जिसे चखकर प्यास और भी भड़क जाए – और हजारीप्रसाद जी के भीतर इसका कोई अमरकोश था. उनकी विद्वता पर हमेशा ही उनका हँसमुख स्वभाव हावी रहा जो उन्हें अपने विद्यार्थियों के लिए अधिक आत्मीय और ग्राह्य बना देता था.
मैं हजारीप्रसाद जी के इस रूप को ध्यान में रखकर कुछ बातें कहना चाहता हूँ. आज विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी लगातार कम होते जा रहे हैं तो शायद उसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि हमने साहित्य के प्राध्यापन को शास्त्रीय बना दिया है. हम शायद बच्चों को वाग्जाल में उलझा देते हैं और फलस्वरूप उन्हें कुंजी-गाइड जैसे स्तरहीन माध्यम की शरण लेनी पड़ती है. हजारी प्रसाद जी पर बात करने के साथ -साथ मैं इस मुद्दे को भी अपनी कार्यसूची में देखता हूँ. हमें अपने विद्यार्थियों का सामना इतनी सहजता और आत्मीयता से करना चाहिए कि उन्हें हमारे सिवा कहीं और जाने की आवश्यकता ही न पड़े. हमारी तो नौकरी ही विद्यार्थियों के लिए कठिन को आसान बनाने की है. इसके लिए पहले हमें आसान होना पड़ेगा. हमें देखना पड़ेगा कि हम हिन्दी साहित्य के विभिन्न अनुशासनों में कैसे पेश आते हैं. और मित्रों आप सभी जानते हैं कि मुश्किल हो जाना बहुत आसान है लेकिन आसान हो जाना बहुत मुश्किल! बाबा ग़ालिब के शब्दों में
बस कि दुश्वार है हरेक काम का आसाँ होना! आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना ! 3
हमें अगर विद्यार्थियों में साहित्य को लोकप्रिय बनाना और उसे एक सार्थक विषय के रूप में बचाए रखना है तो हमें अपने औजार बदलने होंगे और यहाँ हजारीप्रसाद जी हमारे आदर्श हो सकते हैं.
हजारीप्रसाद जी से आपका परिचय कैसे हुआ, मैं नहीं जानता पर मेरा परिचय उनके उपन्यासों ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘अनामदास का पोथा’ के ज़रिये हुआ. मेरा सौभाग्य है कि मेरा यह परिचय महज हिन्दी के एक साधारण पाठक की तरह था. मैंने उन्हें पहली बार अपनी इच्छा से पढ़ा न कि साहित्य का विद्यार्थी होने की मजबूरी में. सच कहूँ तो मैं आचार्य नामधारी लोगों के लिखे से दूर भागता था और इन उपन्यासों ने मेरी इस धारणा को बहुत सही वक़्त पर तोड़ा. यह एक अनोखा संसार था. फिर हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी हो जाने के बाद उनके निबंध और इतिहास पुस्तकें भी पढ़ीं. मैंने जाना कि सच्चे अर्थ में आचार्य होना क्या है.
मुझे हजारी प्रसाद जी के रचना संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह लगी कि उन्होंने हिन्दी में आचार्यत्व की रूढ़ि को तोड़ा. इसलिए उन पर ही यह शब्द सबसे ज़्यादा सोहता है. तमाम शास्त्रों की जानकारी और बेहद गम्भीर विषयों पर लिखने के बावजूद उन्होंने अपने गिर्द पांडित्य की धूल नहीं उड़ने दी. वह धूल जो किसी की भी आँखें लाल कर सकती है. उन्हें शास्त्रों का जानकार होने के बावजूद शास्त्र-निरपेक्ष हो जाना ही भाता है. मेरा अपना भी यह मानना है कि गम्भीरता स्थिति की माँग हो सकती है लेकिन आदमी का मूल स्वभाव नहीं. हर वक़्त गम्भीरता और पांडित्य लादे रहने का अर्थ है कि किसी मनोचिकित्सक से मिलने का समय करीब है. हजारी प्रसाद जी की सभी रचनाओं में एक सीधा-सादा, सच्चा, हँसमुख और भोला आदमी हर कहीं मौजूद है. मैं जोर देकर कहूँगा कि हजारीप्रसाद जी ने ‘भोलेपन’ और ‘निश्छल हास‘ को अपने साहित्य में एक ज़रूरी जीवनमूल्य की तरह स्थापित किया है. इस स्थापना को उनके उपन्यासों और निबन्धों में बहुत साफ तौर पर देखा जा सकता है. मैंने उनके बारे में उनके सुयोग्य शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी जी के हवाले से जो कुछ सुना है उसमें उनके अट्टहास का ज़िक्र अनिवार्य रूप से आता है. आसमान तक जाता एक खुला ठहाका जो अपने आसपास की हर चीज़ को पारदर्शी बना देता है. शिवानी ने भी अपने संस्मरण ‘हजारीप्रसाद हास छे’में इस ठहाके का सुमिरन किया है. एक अध्यापक पढ़ा रहा थे कि बच्चों ने बगल की कक्षा से आता एक बादलों जैसा स्वर सुना और डर गए- अध्यापक ने उन्हें बताया कि डरो मत ! यह तो हजारीप्रसाद हँस रहे हैं! ऐसी हँसी जिस आदमी के जीवन में रही, वह कितना गहरा रहा होगा, इसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं. मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उन्हें कभी देख नहीं पाया. अपने जीवन में जिन लोगों को साकार न देख पाने का दुःख है उनमें मुक्तिबोध, चित्रकार भाऊ समर्थ, हरिशंकर परसाई जी और इन तीनों से बहुत पहले कहीं हजारी प्रसाद जी भी हैं.
अपने अध्यापक को नामवर जी की सबसे आत्मीय भेंट ‘दूसरी परम्परा की खोज’ नामक एक पतली-सी पुस्तक है. मैं इस पुस्तक को नामवर जी की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में मानता हूँ. मुझे पूरा विश्वास है कि सभी जागरूक साथियों ने इस किताब को ज़रूर पढ़ा होगा. मैंने इसे एम.ए. में पढ़ने के दौरान पढ़ा था और इसकी एक स्थायी स्मृति मेरे मन में है. आख़िर यह दूसरी परम्परा क्या है? और उससे भी पहले यह कि पहली परम्परा क्या है? नामवर जी के इस प्रयास पर कई आपत्तियाँ भी हिन्दी के ठस विद्वज्जनों ने लगाई. मुझे तो हर्ज नहीं लगता कि कोई दूसरी परम्परा खोजे. लेकिन इसे पहली परम्परा का विरोध न माना जाए. आपसी तुलना तो होगी ही, वह हमारे जीवन का हिस्सा है. अगर कोई दूसरी या समानान्तर परम्परा है तो उसे सामने लाया जाना चाहिए. यह परम्परा अध्यापन में भी है और मैं चाहता हूँ कि वह सामने आये. उसके सामने आने से विद्यार्थियों में हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि बची रहेगी. निवेदन है कि इस बात पर सबसे ज़्यादा ध्यान दें कि इस पुस्तक पर एक ख़ास तरह का विरोध बनारस से आया था. बनारस ! एक शहर जो हिन्दी साहित्य के सीने पर ठुका हुआ है, जिसके बगैर साहित्य में अधिक देर तक बात करना सम्भव नहीं. वही शहर जो संत कबीर और भक्त तुलसी से लेकर समकालीन हिन्दी साहित्य तक में बार-बार आता है. इसने अपनी महानता के अहसास में कई महान आत्माओं को ठुकराया है और इन ठोकरों से ही वे लोग वह बन पाए, जिसके लिए आज उनका नाम है. हिन्दी साहित्य का इतिहास सभी जानते हैं, मुझे बताने की आवश्यकता नहीं है.
इस प्रकरण के अंत में हजारीप्रसाद जी के विद्यार्थी विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण का यह अंश मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ, जिससे उनके व्यक्तित्व के इस पहलू पर कुछ और रोशनी पड़ेगी – पंडित जी रात छत पर सोये. रात करीब दो बजे मुझे पैरों के तले में गुदगुदी महसूस हुई. उठा तो देखा पंडित जी खड़े हैं – फुसफुसाते हुए उन्होंने पूछा – छत पर कोई टायलेट है? सोते हुए आदमी को जगाने का यह उनका तरीका था. मैं उनका ऐसा शिष्य था जिसे उन्होंने विद्या ही नहीं दी थी – खाने पीने का इन्तजाम भी किया था. मुझे नैनीताल और दिल्ली में नौकरी भी उन्हीं की कृपा से मिली थी. मुझ तक को उन्होंने जोर से बोल कर या झकझोर कर नहीं उठाया. यह उनका सहज जीवन व्यापार था. 4
यहाँ हम देख सकते हैं कि कैसे एक बड़ा आचार्य और गुरु इतना सहज हो सकता है कि अपने शिष्य के पैरों तक जा पहुँचे. यह हद है, लेकिन इस बात में अध्यापक और विद्यार्थी के सम्बन्धों का जो अद्भुत सूत्र छुपा है, आशा है हम उसे पहचानेंगे और उसकी कद्र करेंगे.
ll इतिहास ll
मुझसे पहले कई विद्वानों ने हजारीप्रसाद जी के इतिहास लेखन पर अपने अभिमत दिए हैं और जाहिर है कि सभी ने इस बारे में काफी कुछ पढ़ा भी है. मैं किसी विस्तार में नहीं जाऊँगा और एक ख़ास पहलू पर बात करूँगा. हो सकता है किसी ने इस पर बात की हो, तब भी मैं बात करूँगा. वह बात यह है कि हिन्दी साहित्य आख़िर किन लोगों का साहित्य है?
खेद का विषय है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वीरगाथा काल के चारण साहित्य को तो वीरता का गान कहा लेकिन भक्तिकाल का आरम्भिक परिचय ही कुछ इस भंगिमा में दिया – ‘देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया. उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे. ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे………. अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था’ 5
आचार्य शुक्ल का इतिहास हिन्दी साहित्य के सबसे लोकप्रिय इतिहासों में एक है और देखा गया है कि पाठ्यपुस्तकों में दिया गया इतिहास भी अधिकांशतः इसी पर आधारित होता है. ऊपर दिए उद्धरण से कुछ प्रश्न पैदा होते हैं –
1. क्या हिन्दी साहित्य सिर्फ हिन्दू जाति की सम्पत्ति है? और वह भी एक हतदर्प-पराजित हिन्दू जाति की?
2. क्या इस्लाम ने भारत आकर सचमुच किसी बड़ी मानव सभ्यता का नाश कर दिया?3. उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन क्या सिर्फ इसलिए अस्तित्व में आया क्योंकि हिन्दू इस्लाम से डरे और हारे हुए थे?
अध्यापक के तौर पर हमें आनेवाली पीढ़ियों को यह इतिहास पढ़ाना है. क्या हमें इन प्रश्नों पर विचार किए बिना ही उसे ज्यों का त्यों पढ़ा देना है?
सूफियों के सम्बन्ध में भी आचार्य शुक्ल का मंतव्य ध्यान देने योग्य है – इतिहास और जनश्रुति में इस बात का पता लगता है कि सूफी फकीरों और पीरों के द्वारा इस्लाम को जनप्रिय बनाने का उद्योग भारत में बहुत दिनों तक चलता रहा.’(पृ0 11, संस्करण 1972) 6यहाँ फिर कुछ सवाल उठते हैं
1. क्या सूफियों को भारत में इस्लाम की स्थापना के षड़यंत्र के लिए राजनीतिक रूप से भेजा गया था? 2. उद्योग शब्द का क्या तात्पर्य है? क्या उन प्रेम दीवानों का इस तरह के उद्योग में विश्वास था?3. और फिर ख़ुद इन सूफियों की इस्लाम में क्या स्थिति थी और इस्लाम के पैरोकार इन्हेंकिस नज़र से देखते थे?
मेरे लिए ये प्रश्न आज के नहीं हैं. ये पहली बार मेरे मन में तब आए जब मैं एम.ए. का छात्र था और मैंने इतिहास के अध्ययन के लिए पहली किताब आचार्य शुक्ल की पढ़ी थी. इन प्रश्नों के उत्तर की खोज मुझे दूसरी किताबों तक ले गई. मुझे राहुल जी के विचार जानने का अवसर मिला लेकिन वे एक तरह से हिन्दी साहित्य के प्राध्यापकीय अनुशासन के व्यक्ति नहीं थे. इस अनुशासन में मुझे हजारीप्रसाद जी की किताबें मिलीं और उनमें इन प्रश्नों के उत्तर भी.
हजारीप्रसाद जी की किताबों में सबसे पहली बात यह दर्ज़ है कि वे साफ़ तौर पर हिन्दी साहित्य को जनभाषाओं का साहित्य मानते हैं और यह भी कहना नहीं भूलते की इसी साहित्य ने इन जनभाषाओं को राजकीय सम्मान भी दिलाया. मुझे तो हजारीप्रसाद जी के इस जन का विस्तार हमारे समय की जनवादी अवधारणा तक दिखाई पड़ता है. दूसरी ख़ास बात को उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ के पहले ही पृष्ठ पर लिखा है – दुर्भाग्यवश, हिन्दी साहित्य के अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने ऊपर लिया है , वे भी हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध हिन्दू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं – एक यह कि हिन्दी साहित्य एक हतदर्प-पराजित जाति की सम्पत्ति है और इसलिए उसका महत्व उस जाति के राजनीतिक उत्थान-पतन के साथ सम्बद्ध है और दूसरा यह कि ऐसा न भी हो तो भी वह एक निरन्तर पतनशील जाति की चिन्ताओं का मूर्त प्रतीक है. 7 इस बात को पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि वह अनजान आदमी मैं ही हूँ. इसी क्रम में हजारीप्रसाद जी ने आगे लिखा कि मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है. 8
यह एक नई साहित्य और इतिहास दृष्टि थी. मैं इसकी ओर खिंचा चला गया. इसमें विशुद्ध ऐतिहासिक तर्क भी थे और अपने समकाल और भविष्य को भाँपने की अद्भुत योग्यता भी. हजारीप्रसाद जी ने भारत में इस्लाम के आगमन को सात्मीकरण से जोड़कर देखा. मुसलमान इस धरती पर आए पहले आक्रमणकारी नहीं थे. उनसे पहले आर्य, यवन, हूण और शक यहाँ आ चुके थे. भारत के अन्दर भी जैन और बौद्ध जैसे धर्मों का बोलबाला था. दक्षिण, उत्तर और सुदूर उत्तरपूर्व की संस्कृतियों और जीवन शैली में भिन्नता थी. इस्लाम के आगमन ने इसमें एक नया पन्ना जोड़ा. टकराव होना ही था और हुआ भी लेकिन बाद में यह टकराव सात्मीकरण में बदलता गया. दो संस्कृतियों के मिलन का यह सबसे अच्छा और तर्कसंगत सिद्धान्त है. हम सबको यह आवश्यक जानकारी रखनी होगी कि कबीर से पहले भी बारहवीं शताब्दी में अब्दुर्रहमान नाम का जुलाहा कवि हुआ है, उसके रचनाओं का संकलन और संपादन ‘संदेश-रासक’ के रूप में हजारीप्रसाद जी ने अपने शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ मिलकर किया है.
हजारीप्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य के ऊपर से हिन्दू का बिल्ला उतार उसके स्रोतों को सैद्धान्तिक रूप से बौद्ध सिद्धों और जैन मुनियों की वाणी में खोजा. इस तरह वे राजाओं की गाथाओं में न जाकर जनमानस का हृदय टटोल रहे थे. संत कबीर पर उनकी पुस्तक इसी तरह के प्रयत्नों का फल है. सूफियों पर उनका यह वक्तव्य ध्यान देने योग्य है – निर्गुण भाव के शास्त्र-निरपेक्ष साधकों की भाँति इन कवियों में अधिकतर शास्त्र-ज्ञान-विरहित थे, पर निस्संदेह पहुँचे हुए प्रेमी थे. इन्होंने प्रेम के जिस एकांतिक रूप का चित्रण किया है, वह भारतीय साहित्य में नई चीज़ है. प्रेम की इस पीर के आगे ये लोकाचार की कुछ परवाह नहीं करते थे. भारतीय काव्य-साधना में प्रेम की ऐसी उत्कट तन्मयता दुर्लभ थी. 9
गौरतलब है हजारीप्रसाद जी प्रेम की एकांतिक साधना का ज़िक्र कर रहे हैं, जो आचार्य शुक्ल के इस्लाम को फैलाने के उद्योग से बिल्कुल अलग ज़मीन पर कही गई बात है. वास्तविकता यही है कि सूफियों ने भारतीय संस्कृति में एक नया अध्याय जोड़ा, जिसका विस्तार साहित्य से लेकर अध्यात्म और संगीत के क्षेत्र तक मिलता है. हिन्दी साहित्य की भूमिका (पृ0 50, संस्करण 1978) में हजारीप्रसाद जी ने दो-टूक शब्दों में लिखा कि यह कहना तो और भी उपाहास्पद है कि जब मुसलमान हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने लगे तो हताश होकर हिन्दू लोग भजन-भाव में जुट गए. 10 उन्होंने उत्तर में भक्ति आन्दोलन के उद्भव को दक्षिण के आलवार भक्तों से जोड़ा, जिनमें कई अछूत जातियों के भक्त थे और इस बारे में यह कहा कि आलवारों का भक्तिमतवाद भी जनसाधारण की चीज़ था. 11 यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसे हजारीप्रसाद जी ने महत्व दिया. उनके लिए जनसाधारण का भी असाधारण महत्व था. मेरा आग्रह है कि आचार्य शुक्ल के ‘लोक’ के बरअक्स हजारीप्रसाद जी के ‘जन’ को रखकर अवश्य देखा जाए. ऐसा करने पर आपको शास्त्रज्ञ होने और शास्त्र पढ़कर भी शास्त्र-निरपेक्ष रह पाने का आशय और महत्व समझ में आ जाएगा. कृपया स्पष्ट कर लें कि मैं किसी आचार्य के महत्व और महानता पर प्रश्न नहीं उठा रहा लेकिन सही की खोज में तुलना करना भी ज़रूरी हो जाता है. इस तरह की बहस हिन्दी में चलती रही हैं और मेरा यह मानना है कि तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए. इससे किसी विद्वान का महत्व कम नहीं होता बल्कि कुछ ऐतिहासिक भूलों का पता चलता है और हम उन्हें सुधार सकते हैं.
चाहे उपन्यासों के सन्दर्भ लें, चाहे निबन्धों के या फिर इतिहास के – आप पायेंगे कि हजारीप्रसाद जी संस्कृति को बहती नदी मानते हैं, जिसमें चारों ओर से आकर जलधाराएँ मिलती हैं और उसे अधिक सम्पन्न बनाती हैं. अपने पूर्ववर्ती लेखकों के बरअक्स हजारीप्रसाद जी धर्म और संस्कृति के घालमेल को भी ठुकराते हैं. उदाहरण के लिए सूफियों के भारत आगमन के सन्दर्भ में उनके विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सूफी अपने साथ धर्म से अधिक प्रेम की संस्कृति लाए थे. ऐसी संस्कृति जिसे इस्लाम का कट्टरपंथ अस्वीकार करता था और उसका विरोध करता था. भारत के जनसाधारण ने इसे हृदय से स्वीकार किया. 12 उनके द्वारा लिखित साहित्य के इतिहास में यह बात कई जगह आती है. उपन्यासों और निबंधों पर बहुत बार चर्चा होती रही है. मैं इस विस्तार में नहीं जाऊँगा और संकेत की सार्थकता तक ही सीमित रहूँगा. इतना ज़रूर कहूँगा कि हजारीप्रसाद जी जब संस्कृति और साहित्य के इतिहास जैसे विषयों पर लिखते हैं तो उनके भीतर कहीं एक ऐसा इतिहासकार जाग उठता है, जो सिर्फ ऐतिहासिक स्रोतों और तथ्यों पर यकीन करता है और अपने पारम्परिक संस्कार उस पर नहीं थोपता. उनका इतिहास-बोध उनके पहले और उनके समय के दूसरे हिन्दी लेखकों से कहीं अधिक पुख़्ता और विचार-विशेष से संचालित है. राहुल जी में भी यह बात भरपूर है लेकिन उन्हें आज का विद्यार्थी न तो पढ़ता है और न उसे पढ़ाया जाता है. गनीमत है कि हजारीप्रसाद जी को पढ़ाया जाता है. पता नहीं कोई मुझसे सहमत होगा या नहीं पर मुझे तो हजारीप्रसाद जी और राहुल सांकृत्यायन इतिहास-बोध की एक ही भावभूमि पर खड़े नज़र आते हैं.
ll पत्र ll
कुछ समय पहले हजारीप्रसाद जी के लिखे हुए पत्रों का एक संकलन मैं पढ़ रहा था और मेरे मन में उसे सबके साथ बाँटने का विचार बार-बार आता रहा. इन पत्रों में हजारीप्रसाद जी का व्यक्तित्व बहुत खुलकर सामने आता है. इनमें जीवन और साहित्य के कई प्रसंग हैं, जिन्हें जानना हमारे लिए रोचक भी है और ज़रूरी भी. उदाहरण के लिए 1936 में विशाल भारत के सम्पादक को लिखे पत्र का यह अंश – इस अंक में अज्ञेय जी के लेख की यह बात मेरे मन की है कि हिन्दी एक प्रादेशिक भाषा है. इसका रूप, इसकी प्रगति अभी लोगो को निर्माण करना चाहिए. अगर यह राष्ट्रभाषा है तो दूसरों के लिए. हमारे लिए तो मातृभाषा है और हमारा और इसका जीवन-मरण का सम्बन्ध है. दूसरों के लिए राष्ट्रभाषा का सवाल प्रयोजन और सुविधा का है. हमारे लिए यह प्रयोजन और अप्रयोजन से परे है. हमारे हास और अश्रु, प्रेम और रोष, भक्ति और श्रद्धा को रूप देनेवाली भाषा को अगर कोई राष्ट्रीय, व्यवहारिक या राजनीतिक कारणों से सुविधाजनक मान ले तो हम पर कृपा नहीं कर रहा है…………. पर यह भी ठीक है कि हिन्दी भाषा सरल होनी चाहिए. इसलिए नहीं कि बाहर वालों को इससे सुविधा होगी बल्कि इसलिए कि हमारे साहित्य का विकास होगा. लघुभार भाषा आसानी से उद्देश्य सिद्धि की ओर अग्रसर हो सकती है. 13
इस उद्धरण में राष्ट्रभाषा को लेकर जिस राजनीति की बात कही गई उसका साकार रूप आज़ादी के कुछ समय बाद हुए भाषायी दंगों में देखा जा सकता है. हिन्दी के सरल होने के सवाल पर हजारीप्रसाद जी का साफ दृष्टिकोण दरअसल उसी तथ्य से संचालित है, जिसे ख़ुद हजारीप्रसाद जी ने अपने शब्दों में ‘शास्त्र-निरपेक्षता’ कहा है. मुझे तो यह तथ्य जीवनसूत्र की तरह लगता है कि आदमी शास्त्रों का ज्ञाता तो हो पर शास्त्र-निरपेक्ष भी रहे. 1938 में लिखे गए इसी तरह के एक और पत्र में भाषा का सवाल फिर आया. पत्र में ज़िक्र है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर एक ख़राब हिन्दी काव्य-संकलन के हवाले से उन्हें कुछ बताते हैं और हजारीप्रसाद जी की स्थिति कुछ यों होती है – मैं लज्जा से तब और भी गड़ गया जब उस पुस्तक में सचमुच ही उन कविताओं के बल पर राष्ट्रभाषा का डिण्डिम घोष किया गया था. मैं कहता हूँ कि क्यों हिन्दी को हिन्दी नहीं कहा जाता, क्यों उसे मातृभाषा नहीं कहा जाता, क्यों इस बात को स्वीकार करने में हम हिचकते हैं कि उसके द्वारा करोड़ों का सुख-दुख अभिव्यक्त होता है? राष्ट्रभाषा अर्थात व्यापार की भाषा, राजनीति की भाषा, कामचलाऊ भाषा – यही चीज़ प्रधान हो गई है और मातृभाषा, साहित्य भाषा, हमारे रूदन-हास्य की भाषा गौण! 14
1939 में फिर हजारीप्रसाद जी लिखते हैं कि यदि हिन्दी के ज़रिये हम कम से कम सारे भारतीयों की आशा आकांक्षा को व्यक्त नहीं कर सकते तो राष्ट्रभाषा का शोरगुल व्यर्थ का परिश्रम है. 15 मैं कहना चाहता हूँ कि यदि सिर्फ भाषा सम्बन्धी इन विचारों को ही हम एकत्र करें तो एक पूरा शोधपत्र बन सकता है.
स्त्री विमर्श के इस आधुनिक युग में भी मैं हजारीप्रसाद जी के दो-एक पत्रों का हवाला देना चाहूँगा, जिससे उनकी भावनाओं पर प्रकाश पड़ता है. सब जानते हैं कि कथा-साहित्य मे उनके स्त्री पात्रों का रचाव कैसा है? ये पत्र इसमें कुछ और जोड़ते हैं. बनारसीदास चतुर्वेदी को उन्होंने लिखा कि महिला अंक में हैवलाक एलिस का ‘फैमिली’ नामक प्रबन्ध ज़रूर अनुवाद करके दीजिए. इसमें इस विषय के संसार के सर्वश्रेष्ठ मनीषी का सभी समस्याओं पर बड़ा सुन्दर विवेचन है. यह लेख छोटा ज़रूर है पर बहुत उपयोगी है. सन्तति नियमन के सम्बन्ध में दोनो पक्षों की दलील आवश्यक हैं 16 – 1936के ज़माने में हजारीप्रसाद जी का स्त्री विषयक चिन्तन और अध्ययन इतना आधुनिक था, यह जानकर मुझे हैरत हुई. हैवलाक एलिस के इस लेख को मैंने उनकी एक चर्चित किताब सेक्स साइकॉलोजी में पढ़ा है और यह सन्तान के जन्म और यौनक्रिया के दौरान स्त्री के अधिकारों की वकालत करता है. कुछ और लोगों ने भी शायद पढ़ा हो. हजारीप्रसाद जी उस वक़्त इस लेख की ज़रूरत एक गाँधीवादी सम्पादक को समझा रहे थे, जब इस तरह के विषयों पर साहित्य में चर्चा लगभग वर्जित थी.
मुझे नहीं लगता कि हमने आज तक हजारीप्रसाद जी के इस पहलू को जाना होगा. इसी तरह 1936 के ही एक पत्र में उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी की भर्त्सना की है – आप कितनी भी अधिक युक्ति देकर उस आदमी को कैसे कायल कर सकते हैं जिसने मान लिया है कि नाचना और गाना स्त्रियों के लिए सबसे बड़ा विधातक पाप है क्योंकि योगी के सम्पादक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं. उनके विचार कितने उलझे हुए हैं जो वेश्यावृत्ति भी नष्ट करना चाहते हैं, संगीत और कला की प्रतिष्ठा भी करना चाहते हैं और गृहदेवियों को इससे अलग रखने का भी उपदेश देते हैं. 17
विषयान्तर होगा पर मुझे हजारीप्रसाद जी के इस कथन से आज के प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा की ये काव्यपंक्तियाँ याद आती हैं कि तुम जोपत्नियों को अलग रखते हो वेश्याओं से और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो पत्नियों से कितना आतंकित होते होजब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है ढूँढती हुई अपना व्यक्तित्वएक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रेमिकाओं में ! 18 हम देख सकते हैं कि दो अलग वक़्तों में दो अलग तरह के व्यक्ति किस तरह एक ही बात कह रहे हैं. इससे भी सिद्ध होता है कि आधुनिकता और प्रगतिशीलता हजारीप्रसाद जी के व्यक्तित्व और उसके रचाव का एक स्वाभाविक हिस्सा थी. यह एक ऐसी चीज़ है जो शास्त्रों के बंद सीलनभरे दरवाजों में प्रवेश नहीं कर पाती – इसके लिए खुला हवापानी चाहिए. हजारीप्रसाद जी के जीवन में प्रगतिशीलता के प्रमाण खोजे जाने की ज़रूरत नहीं है तब भी प्रसंग आया है तो बताना चाहूँगा कि उन्होंने अपने दो पुत्रों का अन्तर्जातीय विवाह किया. अपने एक समधी चोपड़ा जी को लिखे उनके कुछ पत्रों से यह पता चलता है कि उन्होंने कितनी प्रसन्न भावुकता के साथ यह रिश्ता बनाया था.
हजारीप्रसाद जी के पत्रों में कई जगह हिन्दी साहित्य को लेकर उनकी चिन्ता जाहिर होती है. शांतिनिकेतन में हिन्दी भवन के बनने और उससे जुड़ी कई योजनाओं का जिक्र इन पत्रों में है. देखने की बात है कि अपने उन उर्वर दिनों भी वे किन संकटों से घिरे थे – आपसे कहने में कोई संकोच नहीं. शांतिनिकेतन में रहकर मैं जो कुछ साहित्यिक कार्य कर सकता हूँ, वह नहीं कर सकता. मुझे 30-35पीरियड प्रति सप्ताह काम करने के बाद भी प्रतिदिन पेट की चिंता के लिए कई अनावश्यक यांत्रिक कार्य करने पड़ते हैं. जो क्लास मैं लेता हूँ उनमें 11 घंटे संस्कृत में, 2 घंटे स्त्रोत में, 6 घंटे गणित पढ़ाने में सम्मिलित हैं. हिंदी का कार्य कुल 10-11 घंटे करता हूँ. इस प्रकार 19घंटे मेरा कम करके साहित्यिक रचनाकार्य में लगाया जा सकता है. 19 (बनारसीदास जी को 1937 में लिखा पत्र)
मुक्तिबोध ने ख़ुद के और सभी लेखकों के लिए समाज में एक भूमिका तय करते हुए कहा है कि जैसी है यह दुनिया इससे बेहतर चाहिएइसे साफ करने को एक मेहतर चाहिए ! हजारीप्रसाद जी के 1940 में लिखे एक पत्र में यही भंगिमा दिखाई देती है – यदि किसी साहित्यिक में सम्पूर्ण समाज की आन्तरिक और बाह्य सुन्दरता प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा है तो उसे न तो मोरी साफ करने में कोई संकोच होगा और न उन गंदे विचारों को साफ़ करने में, जिनके कारण मोरिया जी रही हैं. 20
हिन्दी साहित्य के स्वभाव पर उनकी यह रोचक टिप्पणी हमेशा याद रखने लायक है – साहित्य की दुनिया तो थर्ड क्लास का डिब्बा है. किसी नए चढ़ने वाले को देखते ही झगड़ने की इच्छा होती है. और ऐसा भी है कि कुछ लोग बिना टिकट ही इसमें चढ़ जाते हैं. 21 1947के एक पत्र में कही गई यह बात मुझे पिछले दिनों बहुत प्रासंगिक लगी जब नया ज्ञानोदय के युवा पीढ़ी अंक में विख्यात चिंतक और लेखक विजय कुमार ने अपने लेख में नए लेखकों को हद से बाहर जाकर खरीखोटी सुनाई. साथ ही यह टिप्पणी उन कई लेखकों पर भी है जो नौकरशाही और मिल-मालिकों की अपनी दूसरी परालौकिक दुनिया से आकर जबरन थर्ड क्लास के उस डिब्बे में बैठना ही नहीं, बल्कि उसे ख़रीद भी लेना चाहते हैं. आप समझ रहे होंगे कि मेरा इशारा किस तरफ है.
हजारीप्रसाद जी के कुछ पत्र मुझे ऐसे मिले, जिसमें उत्तराखंड का आत्मीय ज़िक्र है. उन्होंने 1975 में कोटद्वार की यात्रा की और हेमवतीनंदन बहुगुणा जी को पत्र में अपने उद्गार बताए. वे कोटद्वार स्थित कण्वाश्रम में मालिनी के तट तक जाकर अभीभूत थे. कालिदास उन्हें बहुत प्रिय थे और कोटद्वार में उन्हें उनकी आत्मा दिखाई दी. एक पत्र में वे लिखते हैं कि मेरा दृढ़ विश्वास है कि मैदान में रहने वालों को नई स्फूर्ति पाने के लिए इन पहाड़ों, जंगलों और नदी-नालों को ज़रूर देखना चाहिए. 22 मुझे इस बात से याद आती हैं भारतभूषण अग्रवाल की ये पंक्तियाँ- सब समतल में ही इठलाते- इतराते हैं पहाड़ों पर आदमी तो आदमी पेड़ तक सीधे हो जाते हैं ! 23
अन्त में अब आइए थोड़ा व्यक्तिगत हो जाएँ. हमने हजारीप्रसाद जी के ठहाकों के बारे में सुना है. इन पत्रों में दुख की वह नदी भी है, जिसमें डूब कर वह गहराई हासिल होती कि आसमान तक जाता ठहाका लगाया जा सके. ख़ुद हजारीप्रसाद जी के शब्दों में ‘जो रोया नहीं उसे हँसने का भी अधिकार नहीं’. 24इन पत्रों में दर्ज़ है उनकी पत्नी की गम्भीर बीमारी और बेटी का असमय देहान्त. जीवन भर मर-खट कर भी उधार चुकाने की चिन्ता, साहित्य में अकारण हुआ विरोध, बनारस की टीसती याद और ऐसा ही बहुत कुछ.
मुझे याद पड़ता है कि रवीन्दनाथ टैगोर ने एक प्रसिद्ध गीत में कहा है कि पथ आमारे पथ देखाबे यानी रास्ता ही मुझे रास्ता दिखाएगा. हजारीप्रसाद जी ने इस बात को आत्मसात किया और पहले से दूसरों की तय की हुई मंजिलों की तरफ नहीं बढ़े. जब भी हजारीप्रसाद जी को पढ़ता हूँ तो मुझे अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की ये पंक्ति गूँजती हुई-सी महसूस होती है कि पोथी पतरा ज्ञान कपट से बहुत बड़ा है मानव. पोथे-पतरे-ज्ञान-कपट को पहचानने और दूसरों को उसकी पहचान कराने वाला एक लेखक हमारी परम्परा में हजारीप्रसाद जी के रूप में मौजूद रहा है, इस बात का मुझे गर्व है. ज्ञान-कपट से मुक्त इस ख़ुदमुख़्तार इंसान और हिन्दी के अद्भुत लेखक को हमारी विनम्र याद उन्हीं की इन कुछ काव्यपंक्तियों के साथ —
मार्ग बहुत सुन्दर हैगाड़ियाँ, घोड़े, पदातिक सभी के उपयुक्तसुना है उसको पकड़कर चल सके कोईपहुँचता लक्ष्य तक निर्भ्रान्त
जानता हूँ मानता हूँलक्ष्य तक निर्भ्रान्त जाना चाहता हूँसड़क पक्की और छायादार यह है
किन्तु मैं मजबूर हूँकंकड़ों मेंकंटकों में दूर जंगल में –भटकना है बदानहीं तो जी नहीं सकता
कोई न देता ध्यानमैं भटकता बढ़ रहा हूँलक्ष्य से अनजान
सोचता हूँ क्या यही है लक्ष्य जीवन काजीते जाओपीते जाओअपने क्षोभ को ही
दूरवाले समझते हैं आदमी यह प्राणवन्त महानकंकड़ों पर चल रहा हैकंटकों को दल रहा हैकिन्तु मैं हूँ जानता इस रास्ते की मार
और मैं हूँ जानतापक्की सड़क के नहीं पाने काभयंकर घाव
सोचता हूँ रौंदकर क्याबन न सकता एक सुन्दर मार्गजिसे जीने की ललकवालेकरें उपयोग? 25
(एकेडेमिक स्टाफ कालेज, कुमाऊँ विश्वविद्यालय द्वारा एस.एस.जे परिसर अल्मोड़ा में आयोजित पुनश्चर्या पाठ्यक्रम (7 दिसम्बर से 27 दिसम्बर 2007) में विषय विशेषज्ञ के रूप में दिया गया व्याख्यान)
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सन्दर्भ
1. बाँदा में हुई एक व्यक्तिगत बातचीत से
2. हिन्दी साहित्य की भूमिका, निवेदन, संस्करण 1978
3. ग़ालिब, दीवान-ए-गालिब संपादक अली सरदार जाफरी, संस्करण 1999, पृ0 39
4. तद्भव –12, पृ0 135
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, संस्करण 1972, पृ0 43
6. वही, पृ0 11
7. हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृ0 13
8. वही, पृ0 वही
9. वही, पृ0 61
10. वही, पृ0 50
11. वही, पृ0 51
12, वही, पृ0 58-59
13. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-11, दूसरा संस्करण 1998, पृ0 294
14. वही, पृ0 305
15. वही, पृ0 312
16. वही, पृ0 292
17. वही, पृ0 291
18. दुनिया रोज़ बनती है, संस्करण 2002, पृ0 45
19. गंथावली-11, दूसरा संस्करण 1998, पृ0 302
20. वही, पृ0 328
21. वही, पृ0 366
22वही, पृ0 331
23. उतना वह सूरज है, पृ0 27
24. विश्वनाथ त्रिपाठी से एक व्यक्तिगत बातचीत में
25हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-11, पृ0 48-49
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धनुष पर चिड़िया (चंद्रकांत देवताले की स्त्रीविषयक कविताओं संग्रह) (संपादन ) आदिshirish.mourya@rediffmail.com