श्रीधर करुणानिधि की कविताएँ |
1.
वक्त से बड़ी एक कविता
सारे सपने अनिच्छाओं के आसमान में कैद हो
तारों की तरह दिन ढलने की राह देख रहे थे
उजास से भरी वे उम्मीदें
जो कभी शाम की नदी में काली लहरों सी दिखती थीं
पूरी हो गईं थी अपने अधूरेपन में भी
ऐसे तो सब कुछ खुला था
पर था तो वक्त के आहाते में बंद
कविता उसे खोलने लगी जब
तो वे सारे दरवाजे
वे सारी खिड़कियाँ
रोशनी और हवाओं को रोककर खड़े वे सारे घेरे
हट गए
कैलेंडर की वे सारी तिथियाँ
शताब्दियों के वे सारे गणितीय जादुई आंकड़े
पंडितों की पंडिताई की अवशेष वे गणनाएँ
एक झटके में छूमंतर हो गईं
अनंत तक फैला था कैनवस
और असीम थी कविताएँ
खुले हुए अहाते में आखिरी दिन की तरह कोई दिन नहीं था
न पहली रात की तरह कोई रात
जो कुछ था वो एक कविता थी
जो अभी लिखी जानी थी.
२
पन्नों का आखिरी छोर
याद करने की उस प्रथा में
जहाँ आखिरी दिन को चुना जाता है
मैं चुनता हूँ जाड़े के उस बरसते हुए दिन को
जिसमें स्मृतियाँ पोर पोर तक भींगी हुई थी
और भींगने की ठिठुरन का एक सिरा था बारिश के पास
पेड़ बारिश में भीगे हुए उन पेड़ों की याद में खोए हुए थे
जिनके तनों ने न जाने आंखों की कितनी बारिश के बाद
किताब बनना स्वीकार कर लिया था
जो किताबें अलमारी में बंद थी वो सदियों पहले
कटे हुए तनों के खोदर में किसी दीमक की तरह सोई हुई थीं
क्रांतियों की यादें कहीं खोई हुई थीं
मैंने खुद से पूछा कि आखिर क्या याद करना है?
समय? कागजों को तैयार करने वाले पेड़?
या उन कागजों पर लिखे गए वे तमाम अक्षर जो
समय को बारिश की बूंदों सा टपकते देखने के साक्षी हैं!
या ठिठुरते हुए उस आदमी को
जिसने दिसंबर की बारिश में भी
हाथ में एक रंगीन छाते के बाबजूद
इस कारण भींगना स्वीकार किया
कि महसूस करना कभी खत्म नहीं हो
साल के आखिरी दिन भी पन्नों के रंग में
बारिश की फुहारों के बीच
गर्म समोसे और चाय की याद की तरह.
3.
बिरहा
गंवाने के लिए जिनके पास कुछ नहीं होता
वे मिट्टी में अपने सारे दुख रोप देते हैं
और फिर फसलों के साथ
सुखों के उगने और बढ़ने की प्रतीक्षा करते हैं
प्रतीक्षा को वे सरसों का फूल समझते हैं
और मानते हैं कि मधुमक्खियां पराग कण
फूलों से ही ले जाएंगी धीरे-धीरे
फिर मधु रस उसी के हिस्से आएगा एक न एक दिन
एक दिन वे सुबह सुबह
ट्रैक्टरों में लदे अपने सुखों के साथ
मंडियों में पहुंचने की उम्मीद में
पहुंच जाते हैं भड़वों और दलालों की गलियों में
जहाँ हाथ जोड़ने की मुद्रा अख्तियार करते ही
उनके हाथों और जेबों से सुख छीजने लगता है
और फिर एक सामाजिक बाध्यता में वे
गला साफ कर बिरहा गाना शुरू करते हैं
बिरहा के लालची साहूकार के मसनद के ठीक आगे.
4.
उछालना
मैं तुम्हें सत की परीक्षा के लिए नहीं
अपने इरादों के लिए बुलाता हूँ
और तुम्हारे सामने
पुनः एक लाल सेब रखकर कहता हूँ
गुरुत्वाकर्षण के नियमों के विरुद्ध जाकर
तुम इसे उछाल दो
कि यह गिरे नहीं
वहीं वृक्ष की टहनी से लग जाए
कहता हूं
कि भटक रही सारी यादें
झोले में भरकर वापस
वहीं उस टीले पर पहुंचा दो
कि फिर लौट न सके
मेरी शाम के झुटपुटे में
भिनभिनाती मक्खियों की तरह
सूरज के डूबने जैसा ही
रंगीन है यह फल
छिटपुट बादल से तेरे आशिक
रंग के चस्के में बेसुध
मंडरा रहे हैं तेरे इर्द गिर्द
और मैं गुरुत्वाकर्षण के नियमों के विरुद्ध
तुमसे फिर फिर
सेब उछालने की गुजारिश करता हूँ
5.
कोई है जो कविताओं को बचा लेता है
हर बार जब धूल-गर्द के गुबार
मौत की तरह घिर आते हैं
तो सबसे पहले शब्दों के चटखने की आवाज आती है
जब सब चीजें टूट-फूट की आखिरी सीमा तक पहुंचती है
तो फिर आह की ध्वनि से एक बीज कोई बचा ले जाता है
शायद वो एक चिड़िया है
जो मगन होकर गा रही है
शायद कोई सुग्गा जलते हुए जंगल में
किसी पके फल के भीतर का बीज उठा ले गया है
इस तरह हर बार कविताओं की दुनिया ने
ठूंठ हुए मौसम के बीच से ही किसी फुहार की तरह
मेरे भीतर इस तरह प्रवेश किया है
जैसे मैं कोई स्त्री-देह होऊं
मौसम की उदासी ने
गर्म दोपहर की निर्जनता ने
किसी अपने के खोने के गम ने
किसी महामारी और दंगे ने
पीले और लाल फूलों से खीज कर जब भी कहा
सब कुछ खत्म हो जाए
कोई अर्थ नहीं
शब्द अब अर्थ से परे है
अर्थ अब अर्थ से परे है
नश्वरता एक राख की भांति उड़ रही है हर ओर
और शब्दों की चीख पर राख जम गई है
कि तभी
किसी ने कहीं से अचानक बचा लिए शब्दों के मीठे फल
फलों के बीज
और एक स्त्री की देह में रोप दी
धान के मुट्ठेमुट्ठे- सी कविता
6.
यह बात उसे अधिक मालूम थी
चाँद का कोई आँगन नहीं होता
यह बात अंधेरे को अधिक मालूम थी
अगर चाँद का कोई आँगन होता
तो वो आसमान ही होता
यह बात चाँद को मालूम न हो
ये हो नहीं सकता
घने अंधेरे में
कोई भी अपना हाथ उठा कर
एक जलती हुई फुलझड़ी को
आसमान की तरफ़ कर दे
तो रोशनी जो उसके चेहरे पर गिरेगी
उससे न जाने कितने तारे बन जाएंगे
तारे, तारों को रास्ता बताते हुए
अक्सर अँधेरे की थाह लेते हैं
और अँधेरे की गहराई की ओर
एक चेतावनी का निशान छोड़ जाते हैं ..
बचो…बचो कि सामने अँधेरे की खाई है
‘कोई हो जो चाँद की नहीं
सिर्फ रोशनी की फिक्र करे’
ऐसा हो सकता है कि
रोशनी की यह ख्वाहिश
किसी को मालूम न हो
लेकिन ऐसा हो नहीं सकता कि
यह बात अँधेरे को न मालूम हो
7.
थकने की क्रिया का सफर
मुरझाना अगर
थकने की क्रिया का ही विस्तार है
तो फिर आसमान के विशाल पेड़ की डाल से
सूरज मुरझा कर किस अंधेरे में धंसता है?
खेतों में काम करते लोग थककर
अपनी नींद की मिट्टी में किस बांझ बीज की तरह गिरते हैं?
वे नींद खुले
सपनों के नाले में बहकर मक्के की क्यारियों में पहुंच जाते हैं
वहीं एक-एक पौधे की जड़ में पहुंचते रहते हैं रिसते हुए…तनों तक..
फिर भुट्टों के बालों तक…
जब दूधिया दाने के स्वाद में
वे नहीं पहुंच पाते
तब अपने चारों ओर तैरती हुई थकान से
वे दुनिया को उदास कर देते हैं
उदासी थकने की क्रिया की मंजिल नहीं होती
इसलिए हर रोज
हरियाली का भ्रम रचती कविताएँ
धरती के मुरझाने से पहले
घास की तरह उग आती हैं
इस तरह थकने की क्रिया का सफर
उगने और डूबने के बीच का है
जहाँ घास की नोंक पर सूरज रहता है…
और काम करने वाले उदासी के एक छोर से
अपने सफ़र को आगे ले जाते हैं
और उदासी से आखिर छुटकारा पा लेते हैं
घास की सबसे छोटी और हरी कविता लिखकर
8.
शाम को जो रंग नसीब था
पीला शाम का रंग था
पतझड़ का पीला एक गहरी उदासी थी
रंगों के बारे में
ऐसा पहली बार किसने सोचा होगा?
रंगों में उदासी का रंग कौन है?
ये पूछा जब मैंने पेड़ की कतारों से
वे रास्तों की ओर देखते रहे
सूखे झड़े पत्तों पर अपनी
उदासियों की कविता लिखते हुए
कतारों में कुछ सूखे पेड़
कभी वसंत की आहट पहचानते थे
अब उनसे वसंत के रंग नहीं पूछ सकता
धूल भरी शाम में शाम का रंग
धूल के नसीब की तरह हो सकता है
यह मैंने डायरी में
कविता की अधूरी पंक्ति की तरह नोट किया.
9.
झुनझुने का पेड़
वह था तो एक पेड़ ही
लेकिन साबुत पेड़ को झूठ से फेंट देने पर बना हुआ
थोड़ा ‘टनकाहा’ चढ़ो तो डाल ही ‘लचक’ जाए
फल से कोसों दूर बेकाम का
बचपन इस नाम के खिलौने से शुरू होता था
तब झूठे दिलासे की झूठी आँच
वहाँ नहीं पहुँची होती थी
कथा-कहानियों के रास्ते घूम फिर कर
झूठे से चाँद की ओट से वह बचपन में कैसे घुसता
यह ओट देने वाले चाँद
को भी नहीं पता
हमें या तो पेड़ों के फल से प्यार होता
या उसकी मजबूत देह से
उसके हरेपन को हम सपनों में भी बिछा नहीं सकते
हरे पत्ते भी किसी काम के नहीं
हम तो अपने किवाड़, खिड़कियाँ, पलंग
मजबूत और इमारती दरख्त की उम्मीद से निकालने की सोचते
लेकिन झुनझुने का पेड़!
झूठ की उम्मीद पर कमजोर देह की तरह बड़ा होता
वह कटकर गिरता नहीं कभी
बस झूठी उम्मीद की तरह
चोर दरवाजे से बचपन से लेकर जवानी तक
झूठे दिलासे की तरह बड़ा होता रहता
वह तो अपनी जगह कायम था
बस झूठ ही बढ़ रहा था हर वक्त.
10.
हरी नींद
तुम्हारी नींद हरी हो जाती है
इस नीले आसमान के नीचे
विशाल ‘रेन-ट्री’ की बाँहों में
सोती चिड़ियों के सपने में
जब ‘करंजी झील’ का पानी हिलोरें मारता है
तब क्या तुम्हारी बत्तखें
तैरने चली जाती हैं रात को ही!
लाल चींटियों के घरों में कब मिलते हैं फणधारी नाग
बड़े प्यार से समझाते हैं मिस्टर कुमार
समझाते हैं कि “ढूहें हमें जंगल में भटकने से कैसे बचाती हैं?”
“जंगल की हर चीज हमसे बातें करती हैं”
हमारे ऐसे जंगल क्यों नहीं बचे हैं
जहां हम गुम हो जाएँ
हमारे जंगल कौन चुरा रहा मिस्टर कुमार?
आप हमारे ग्रुप फोटोग्राफ मेल करेंगे
क्या आप खूबसूरत जंगल मेल कर सकेंगे
मिस्टर कुमार?
11.
‘माँ’ लिखने का अभिनय
दर्द की भाषा
हमारी आवाज में शामिल होती है कविता के रास्ते
कविता लिखती रहती है उजली-काली इबारतें
पर खुद नहीं लिख सकती
‘माँ’
कविता अभी बच्ची है
स्लेट पर बार-बार माँ का हाथ थामे
घुमाती है अंगुलियाँ
मुँह गोल करती है और तुतली आवाज में
बोलना चाहती है
पर लिख नहीं पाती ‘माँ’
हजारों सालों से वह लिखने का
अभिनय कर रही है
उसने अरबों स्लेट बदले
खरबों सफेद चॉक से बार-बार लिखा
अनंत बार मिटाया
फिर अंगुलियाँ बदलीं
अरबों नन्हीं अंगुलियाँ
लिखने का अभिनय करते-करते परिपक्व हुईं
पर नहीं लिख पाई
छोड़ दो कविता!
कह दो परिपक्व हुईं अंगुलियों से
“नहीं लिख सकोगी माँ”
सारे समुद्र की कोख तुम्हारे हिस्से आए
स्थल के नीचे दबा सारा खनिज
सारी आग पहाड़ों के नीचे की
बादल का सारा प्यार
बारिश की छुअन
और पठार के स्थिर चेहरे का सारा धीरज
तब भी नहीं
नहीं लिखी जा सकती
पूरी की पूरी माँ
न शब्द में
न चित्र में
न पत्थरों पर
न हवाओं में
न पानी के स्लेट पर
श्रीधर करुणानिधि वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप(आलोचना पुस्तक) संप्रति: |
वसंत की सुन्दर अभिव्यक्ति है करुणानिधि जी की कविताएं। ट्रेन की खिड़की से एक तरफ गेहूं की झूमती बालियों, आम्र के पेडों मे भरे हुए मंजर और सुनहरी धूप को भर-भर आंख निहारते जा रहा हूं, तो दूसरी तरफ करुणानिधि की कविताएं पढता जा रहा हूं। जीवन का उत्कट राग व्यक्त हुआ है इन कविताओं में। बेहतरीन कविताओं को पढवाने के लिए समालोचन और अरुण देव जी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
करूणानिधि की कविताएँ पढ़ीं। ये सुक्ष्म भावबोध की कविताएँ
हैं।इसलिए इनमें बोध के स्तर पर एक धुँध है। जरूरत थी कला
का निर्वाह करते हुए इन्हें कुछ और मूर्त और संप्रेषणीय होने की।कवि एवं समालोचन को साधुवाद।