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समालोचन

Home » ख़ालिद जावेद से रिज़वानुल हक़ की बातचीत

ख़ालिद जावेद से रिज़वानुल हक़ की बातचीत

हिंदी-उर्दू कथा-साहित्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने को रेखांकित करने का यह सही समय है. जहाँ गीतांजलि श्री को बुकर सम्मान तथा विनोद कुमार शुक्ल को पेन-नाबाकोव पुरस्कार मिला वहीं 2022 के 25 लाख के जेसीबी साहित्य पुरस्कार से उर्दू के लेखक ख़ालिद जावेद नवाज़े गये. उनके उपन्यास ‘नेमत ख़ाना’ के बारां फ़ारूक़ी द्वारा अनूदित ‘The Paradise of Food’ को यह सम्मान मिला है. 2021 का जेसीबी साहित्य पुरस्कार मलयाली लेखक एम. मुकुन्दन के उपन्यास ‘Delhi: A Soliloquy’ को मिला था. उर्दू के किसी उपन्यास को यह पुरस्कार पहली बार मिला है. ‘नेमत ख़ाना’ उपन्यास 2014 में उर्दू में प्रकाशित हुआ था. ख़ालिद जावेद से रिज़वानुल हक़ की यह अदबी गुफ़्तगू जानदार है. कथा साहित्य के शिल्प को लेकर दोनों लेखकों ने गहरे में गोता लगाया है. जहाँ ख़ालिद जावेद की लेखकीय यात्रा को यह सक्षम ढंग से प्रस्तुत करती है वहीं रिज़वानुल हक़ के आलोचकीय शऊर का भी अंदाज़ा होता है. यह ख़ास अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
March 6, 2023
in बातचीत
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ख़ालिद जावेद से रिज़वानुल हक़ की बातचीत
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 ख़ालिद जावेद से रिज़वानुल हक़ की बातचीत

जनाब ख़ालिद जावेद साहब, मैं बात का आग़ाज़ वहां से करना चाहता हूं, जबसे आपको अदब में दिलचस्पी पैदा हुई. वह कौन से हालात थे, कोई किताब थी, कोई फिल्म थी या कुछ और था? जिससे आप अदब की तरफ आकर्षित हुए?

बहुत शुक्रिया, सवाल बहुत अहम है, दरअस्ल मैं अपने घर के माहौल को क्रेडिट देना चाहूँगा, बचपन में मैंने अदबी माहौल में आँखें खोलीं, जहाँ घर में एक सामूहिक पाठ हुआ करता था, कोई भी नई किताब या रिसाला आता था तो उसका पाठ हमारे घर में होता था. घर में रिसाले आते थे, उस ज़माने में रिसालों में जो कहानियां होती थीं, वह पढ़कर सुनाई जाती थीं. तो बचपन से ही मेरे ज़ेहन की कंडीशनिंग होती गई, 6-7 साल की उम्र से ही रिसालों की दुनिया और दास्तानों की दुनिया, तिलिस्म-ए- होशरुबा, बाग़-ओ-बहार और फ़साना-ए-अजाएब के कुछ हिस्सों की रीडिंग हमारे घर में होती थी.

मेरे वालिद साहब को खुद बहुत शौक था अदब का और वह शायरी भी करते थे. इसके अलावा मेरा जो ननिहाल था, वहाँ तो बच्चा-बच्चा अदब में रंगा हुआ था, फिर मेरे हक़ीक़ी मामू अबू फ़ज़ल सिद्दीक़ी जिनके नाम से सारे लोग वाकिफ़ हैं, जिन्हें पाकिस्तान का प्रेमचंद भी कहा जाता है. वह और मेरी दो ख़ालाए पापुलर लिटरेचर की बड़ी नाम रही हैं, फ़ातिमा अनीस और फ़ातिमा नफ़ीस. तो यह घर का जो पूरा माहौल था उसने मुझे कहीं न कहीं मोटिवेट किया लिखने के लिए. वैसे लिखने की उम्र तो बाद में आई लेकिन सुनते-सुनते ऐसा जे़हन बन गया कि मैं उन्हीं किरदारों में खो गया.

उस ज़माने में रेडियो तो आ गया था लेकिन टी. वी. अभी नहीं था. घर में पापुलर लिटरेचर बहुत ज़्यादा लिखा पढ़ा जाता था. ए. आर ख़ातून के नावेल पढ़े जाते थे और इब्ने सफ़ी की तो बाक़ायदा इज्तेमाई क़िरत होती थी. इसको हिंदी में कहें तो उसका सामूहिक पाठ होता था और सब लोग सुना करते थे. तो वहां से मेरे जे़हन में यह सारी बातें आईं और मैंने भी सोचा कि मैं भी कुछ उल्टा सीधा लिखूँ.

अभी उर्दू लिखनी भी नहीं आती थी लेकिन अपने अंदर लिखने की एक अर्ज मुझे महसूस होती थी, ऐसा लगता था एक छटपटाहट है, लिखने के लिए. तो मुझे भी लगा कि कुछ अपना इजहार करना चाहिए कहानी में, मगर शायरी नहीं. हालांकि शायरी का भी माहौल था घर में, लेकिन फिक्शन में ही मेरी दिलचस्पी थी. मैं कहानी या स्टोरी टेलिंग में ही सोचता था, यानी मेरे शऊर की ज़ुबान बचपन में ही कहानी की बन गई थी. वहां से मैंने लिखना शुरू किया, और 8 साल की उम्र में बच्चों के लिए एक कहानी लिखी थी जो दिल्ली के अख़बार ‘मिलाप’ में शाया हुई थी. इस तरह लिखने को तो मैं अपने घर के अदबी माहौल को ज़िम्मेदार ठहराता हूँ.

2.

इसके बाद अगर आपकी मौजूदा अदबी समझ, पोइटिक्स या विचार के लिहाज़ से देखा जाए, और आप जिन चीज़ों को अभी भी बेहतर अदब मानते हैं. उनको पढ़ने लिखने की तरफ़ आप कब आकर्षित हुए? और वह कौन-कौन से अदीब थे? या कोई दर्शन था? कोई सौन्दर्यशास्त्रीय अनुभव था, जिनको आप अभी भी अहमियत देते हैं?

यह स्थिति आते-आते काफ़ी वक़्त लग गया, शुरू-शुरू में मैंने जो चीज़ें लिखीं जिनका आग़ाज आठ साल की उम्र में हुआ था. वह सिलसिला तक़रीबन अठारह उन्नीस साल तक चलता रहा. वह रोमानी क़िस्म या जासूसी क़िस्म की चीज़ें थीं. चूंकि मैं उर्दू अदब या किसी भी अदब का सीधे तौर पर तालिब इल्म नहीं रहा, मैं साइंस का तालिब इल्म था, मैंने बी.एससी. किया, उसके बाद फलसफ़े की तरफ़ गया और मैंने एम. ए. फ़लसफ़ा किया, और पाँच साल तक बाक़ायदा फ़लसफ़ा पढ़ाया रुहेलखण्ड यूनिवर्सिटी में. फलसफ़ा ने मुझे यह सिखाया कि यह दुनिया और दुनिया की चीज़ें जो सतह पर दिखती हैं. ऊपर उठने वाले बुलबुले तो हम देखते हैं, और नोटिस लेते हैं लेकिन सतह के नीचे भी एक दुनिया है, उस दुनिया को समझने में मेरी दिलचस्पी पैदा हुई. तो उसके बाद मैंने सीरियस लिटरेचर की तरफ़ रूख़ किया.

उर्दू के कई अहम अदीबों को मैंने 18-19 साल की उम्र में पढ़ लिया था. तो यह चीज़ें मैंने पढ़ीं लेकिन बाद में मुझे रूसी अदब का चस्का लग गया. दरअस्ल रूसी अदब की एक किताब मेरे हाथ लग गयी थी उस ज़माने में, एक रादुगा पब्लिेकेशन्स के नाम से चलता था, वह बड़ी सब्सिडाइज़्ड किताबें हुआ करती थीं, उन किताबों की नुमाइश लगा करती थी. एक वैन हुआ करती थी, उस वैन में वह किताबें होती थीं. वह मोबाइल वैन हमारे शहर में अक्सर आती रहती थीं बरेली में. वह एक जगह से दूसरी जगह चला करती थी तो मैं वहाँ जाया करता था.

सबसे पहले मैं जो किताब लेकर आया वह ‘ईडियट’ थी. अब आप समझ लीजिए कि ईडियट पढ़ने के बाद आप वह तो रहते नहीं हैं जो पहले थे. जितना कुछ पहले पढ़ रखा था वह सब अचानक लगने लगा कि वह सब कूड़ा था, फिर ईडियट के बाद मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा जितना मुझे दोस्तोवोस्की का अदब मिला और वह अगर मुझे अंग्रेज़ी में मिला तो वह पढ़ा, अगर हिन्दी में मिला तो वह पढ़ा और अगर उर्दू में मिला तो वह पढ़ा. मेरे लिए यह तीनों जुबानें अजनबी नहीं थीं, जिसमें भी तर्जुमा मिल गया, इतना चस्का लग गया मुझे कि मेरे लिए ज़ुबान कोई बैरियर नहीं रही.

ब्रदर क्रोमोज़ोव मैंने बहुत बाद में पढ़ा वह हमसे रह गया था. और फिर टालस्टाय को मैंने पूरा पढ़ा, ख़ास तौर से अन्ना कैरनीना जैसा नावेल पढ़ के रोंएँ खड़े हो गये थे. और वार एण्ड पीस पढ़ने के बाद फिर पूरा रूसी अदब पढ़ा जिसमें तुर्गनेव भी हैं, फादर एण्ड संस. मेरी पूरी तरबियत जो हुई है वह रूसी अदब के ज़रिए हुई और उसने मुझे इन्सान और कायनात के जो गहरे राज़ कहीं छुपे हुए हैं, उनको मैंने वहीं से सीखा. कैसे आप चीज़ों को एक्सप्लोर कर सकते हैं और देख सकते हैं. बहुत से लोग जो मेरी उम्र के लिखने पढ़ने वाले लोग थे उनको बहुत सी चीज़ें बोर भी करती हैं, मेरे साथ यह कुछ ख़ुश क़िस्मती हुई कि मैं बहुत जल्द उससे बाहर आ गया. तो रूसी अदब ने एक तरह से जिंदगी के प्रति मेरा नज़रिया बदल दिया. लेकिन मैं बहुत से रद्द ओ क़ुबूल करके यहाँ तक आया हूँ.

अगर हाई स्कूल इण्टर के कोर्स में मन्टो और बेदी शामिल हैं, आप उसको वहीं से पढ़ने लगते हैं. मान लीजिए बेदी की लाजवंती या मंटो की टोबा टेक सिंह को पढ़ के अदब की कोई बहुत बड़ी दृष्टि, कोई योग्यता नहीं पैदा हो जाती है. यह एक चलने वाली प्रक्रिया है, चूंकि मैं पीछे से पापुलर लिटरेचर पढ़ता हुआ यहाँ तक आया था. तो मैंने जो कुछ पढ़ा उसको रद्द भी किया, और मुझे यह भी अंदाज़ा होता चला गया कि क्या रद्दी है और क्या अच्छा साहित्य है? इस तरह मैं वहाँ से यहाँ तक आया हूँ. मैं उस रिवायत से इस रिवायत में दाखि़ल हुआ, इसमें मेरी अपनी च्वाइस थी. ऐसा नहीं था कि यह मेरे कोर्स में दाखिल था और मेरे ऊपर इम्पोज़ कर दिया गया था.

रूसी अदब के बाद मैंने कुछ और गै़र मुल्की अदब पढ़ा. उसके बाद मैंने फ्राँसीसी अदब पढ़ा चूंकि वह किताबें भी हिन्दी में आ रही थीं. बाज़ किताबें फ्राँसीसी अदब की भी वहीं रादुगा पब्लिकेशन्स पर मिल जाती थीं. जैसे मुझे याद है मादाम बावेरी मैंने वहीं से ख़रीदी और विक्टर ह्यूगो की किताबें ‘लेस मिज़रेबल्स’ वहीं से ली और पढ़ीं. इस तरह पहले रूसी अदब और फिर फ्रांसीसी अदब, एक ज़माने तक मैं इस दुनिया में खोया रहा.

बहुत आगे चल कर फ़लसफे़ से एम. ए. करने के बाद, फ़लसफ़ा पढ़ने के बाद, सात्र और कामू को मैं पहले फ़लसफ़े में पढ़ चुका था, तो फ़लसफ़े में और अदब में यही फ़र्क़ है कि फलसफ़े में जो अमूर्त ख़्यालात और नज़रियात होते हैं, उनका इन्सान से कोई सीधा तआल्लुक़ नहीं होता. वह एक तरह की इन्टेलेक्चुअल हिस्ट्री है या यह कि वह आइडियाज़ हैं, दुनिया को समझने के लिए और इन्सान को समझने के लिए. लेकिन यही आइडियाज़ जब तासुरात की शक्ल में इन्सान पर पड़ते हैं तो एक ह्यूमन एंगल के साथ, एक इन्सानी सरोकार के साथ अपना इज़हार करते हैं. तो मुझे लगा यह दो राईटर ऐसे हैं जिन्होंने फ़लसफ़ा भी पेश किया वजूदियत का, लेकिन इन्होंने जो नावेल या अफ़साने लिखे हैं, उसमें भी वह सब चीज़े मौजूद हैं. जैसे सात्र की बहुत मशहूर किताब है ‘बीइंग एण्ड नथिंगनेस’ वह मैंने पढ़ी, लेकिन सही मानी में वजूदियत का फ़लसफ़ा तब समझ में आया जब मैंने सात्र का नावेल ‘नार्सिया’ पढ़ा. ‘बीइंग एण्ड नर्थिगनेस’ में जो भी है, वह एक अमूर्त विचार में है, लेकिन जैसे ही उसमें एक इन्सानी एंगिल पैदा हो गया. और जज़्बात पैदा हो गए, जीता जागता इन्सान हमारे सामने आया तो वह ‘नार्सिया’ में था, या ‘एज आफ़ रीज़न’ में था.

कामू के साथ भी यही हुआ, कामू की जो ‘एब्सट्रैक्ट’ फ़िलासफ़ी है, वह पूरी तरह तब समझ में आयी जब ‘स्ट्रैन्जर’ पढ़ा मैंने या ‘प्लेग’ पढ़ा या ‘दि फाल’ पढ़ा.

काफ़्का को मैंने इन दोनों के बाद पढ़ा, काफ़्का की एक ही कहानी पढ़ने के बाद मैं इस बात पर मुत्तफ़िक हूँ जो कि मार्कीज़ ने अपने एक इण्टरविव में कहा है कि वह इससे पहले ग्राहम ग्रीन को पढ़ रहे थे, वर्जीनिया वुल्फ़ और ज्वाइस को भी पढ़ रहे थे. ज़ाहिर है यह सब अपने ज़माने के बहुत बड़े लेखक थे, मार्कीज़ एक जगह कहता है, एक बार मेरे हाथ काफ़्का की मेटामार्फ़ोसिस लग गयी, उसका जुमला यह है कि मेरे ऊपर लर्ज़े तारी हो गया. लर्ज़े का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है और मुझे यह लगा कि ऐसे भी कहानी लिखी जा सकती है, तो वहाँ से मार्कीज़ बिलकुल बदल गया. यह कहानी पढ़ने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगा और मैं बहुत ज़्यादा मीनिंग के चक्कर में कभी नहीं पड़ा. क्योंकि मुझे मालूम है कि अदब में या किसी बड़े फ़नपारे में शायद मीनिंग इतने अहम होते ही नहीं है. जितने कि मीनिंग तक पहुँचाने वाले रास्ते होते हैं. तो रास्ते कभी-कभी इतने पुर पेंच और भूल भुलय्यों से भरे होते हैं कि अपने आपको दरयाफ़्त करने का जो अमल है, वह रास्तों में होता है. और यह कि साहित्य ‘टु नो’ नहीं है बल्कि ‘टु बी’ है.

हमने अगर मानी जान भी लिए तो क्या हो गया? तो टु नो के कोई मानी अदब में नहीं होते, बल्कि टु बी के होते हैं. उस जैसे हो जाने या महसूस करने के होते हैं, समझने के नहीं होते. आज जहाँ मैं देखता हूँ मेरे जितने भी तख़लीकी रवैये हैं, उनमें इनका बहुत हाथ है.

रूसी अदब, फ्राँसीसी अदब, अगर आप हिन्दी की बात करें तो मैं निर्मल वर्मा से बहुत मुतास्सिर हूँ. मैं निर्मल वर्मा को बहुत बड़ा अदीब मानता हूँ, मैं बहुत ही बड़ा अदीब मानता हूँ, उनके यहाँ जो एक क़िस्म की ठण्डी उदासी है, वह कमाल की है. अदीब के पास जो भी होता है वह उसका बयानिया और उसकी  ज़ुबान होती है. और वह अपने आप में एक रहस्यमय चीज़ है कि वह कैसे किसी बात को कह रही है? क्या कह रही है? यह तो बिलकुल अहम नहीं है, या ये कि वह कहाँ तक जा रही है? यहूदा अमीख़ाई ने एक जगह कहा है कि हमको ज़ुबान को आर्ट में ऐसी जगह ले जाना है, जहाँ वह इससे पहले नहीं गयी थी. यह जो कोशिश है कि आपको ज़ुबान को वहाँ ले जाना है, जहाँ वह पहले नहीं गयी है, तो निर्मल वर्मा बहुत पसन्द हैं मुझे. फिर मुझे मुक्तिबोध बहुत पसन्द हैं, और मोहन राकेश भी मुझे पसन्द आए. लेकिन निर्मल वर्मा ने मेरे जे़हन पर बहुत गहरा असर डाला है. तक़रीबन ऐसे ही असर डाला जैसे मैं कहूँ कि रूसी अदब के बड़े लिखने वाले हैं या जर्मन के कुछ अदीबों ने असर डाला है. या फ़्रांसीसी अदब ने जिस तरह असर डाला है, उसी तरह निर्मल वर्मा ने असर डाला है.

और अगर उर्दू की बात करें तो अब्दुल्ला हुसैन मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हैं. तो आज भी मैं उनको यहीं पाता हूँ. फ़िक्शन के अन्दर सारी बद्दुआओं को, कोसनों को, गंदगियों को, विकलांगताओं को, मजबूरियों को बदसूरतियों को फ़िक्शन जगह नहीं देगा तो कौन देगाा? वह जगह शाइरी तो देने वाली है नहीं. फ़िक्शन को मैं इस तरह देखता हूँ, फिर यह भी देखता हूँ कि अगर वह फ़िक्शन है तो वह ज़िंदगी के उन छुपे हुए रहस्यों को भी ज़ाहिर करे, जब हम ज़िंदगी की बात करते हैं तो इन्सान की ही बात करते हैं. इन्सान के छुपे हुए जो वजूदी इमकानात हैं उन पर किसी हद तक रोशनी पड़ती है या नहीं पड़ती? अगर नहीं पड़ती है तो बेकार है. इसमें सबसे बड़ा काम ज़ुबान का होता है, चूंकि यह सब कुछ हम ज़ुबान के ज़रिए ही कह सकते हैं. तो ज़ुबान को मैं बहुत अहमियत देता हूँ. इस हवाले से नहीं कि  ज़ुबान बहुत ख़ूबसूरत इस्तेमाल हो रही है या बहुत शाइराना इस्तेमाल हो रही है. ज़ुबान की ब्यूटी मेरी नज़र में कोई अहमियत नहीं है. मेरी नज़र में  ज़ुबान की अहमियत यह है कि  ज़ुबान क्या कुछ कह देने में क़़ादिर है. और वह किस तरह अपनी बात कह रही है. आज भी मेरा जो तख़लीक़ी रवैय्या है वह यही है, इस मामले में तो मैं बिलकुल साफ़ हूँ.

3.

आपने 1990 की दहाई के शुरू में अफ़साने लिखने शुरू किये, और एक लम्बे समय तक लगभग बीस साल, अफ़साने ही लिखे. जबकि आपकी साहित्य की अवधारणा ज़्यादातर उपन्यासों से बनी थी. तो कहानी और उपन्यास लिखने की क्या तकनीक होती है? और आपने पहले कहानियाँ ही क्यों लिखीं?

अस्ल में शुरू में मुझे लगता था कि उपन्यास लिखना बहुत बड़ा काम है, उपन्यास एक ऐसे पहाड़ की तरह नज़र आता था, जिस पर लगता था मैं चढ़ नहीं पाऊँगा. उपन्यास ही मैंने पढ़े थे लेकिन जो उपन्यास मैंने पढ़े थे, जिन उपन्यासों का मैंने ज़िक्र किया. उन उपन्यासों को मैंने कहानियों की तरह भी पढ़ा. एक तो यह होता है कि उपन्यास एक इकाई के तौर पर, लेकिन यह जितने उपन्यास हैं, जिनका मैंने ज़िक्र किया है. चाहे वह ईडियट हो, चाहे ब्रदर क्रामाज़ोव हो, चाहे अन्ना करीना हो. इनको आप कहीं से शुरू कर दीजिए कोई ज़रूरत नहीं है कि आप इब्तेदा से लेकर एख़्तेताम तक जाएं. जिस पेज से आप शुरू कर दीजिए तो उसमें एक कहानी अपने आप में मौजूद होती है.

4.

आपकी कहानियाँ जो हैं वह लम्बाई में भले उपन्यास की तरह नहीं हैं, लेकिन उनके लिखने का तरीक़ा लगभग उपन्यासों जैसा ही है.

बिलकुल! आप सही कह रहे हैं, ग़ैर मुल्की अदब की अगर मैं बात करूँ, तो वहाँ मैंने कहानियाँ नहीं पढ़ी हैं, या बहुत कम पढ़ी हैं. बहुत बाद में मैंने मार्कीज़ की कहानियाँ पढ़ी हैं. या कामू की कहानियाँ पढ़ी हैं, अभी इधर आके मैंने बोर्खे़ज़ का पढ़ा, मैंने कहानियाँ ज़्यादा नहीं पढ़ी हैं. उनके मैंने उपन्यास ही ज़्यादा पढ़े. लेकिन उनसे मुझे एक बुनियादी समझ मिली, किरदार निगारी की या सबसे बड़ी बात यह है कि ज़ुबान की समझ मुझे हुई. किसी फ़िक्शन में ख़ाली वाक़्या तो अहम होता नहीं है, बल्कि जो सूरते हाल है जिसमें हम फँसे हुए हैं, वह शायद सबसे ज़्यादा अहम है. शुरू में मेरी हिम्मत नहीं होती थी उपन्यास लिखने की, लेकिन मैं आपको बताऊँ बहुत मज़े की बात मैं जिस ज़माने में बी. एससी. कर रहा था उस ज़माने में मैंने एक उपन्यास लिखा था, जिसका नाम था कोहरा, उस ज़माने में कैपिटल कापियाँ आया करती थीं बच्चों के होम वर्क के लिए जो स्कूल में चलती थीं, तो क़रीब आठ कैपिटल कापियों पर वह फैला हुआ है, वह रखा हुआ है मुसव्विदा. लेकिन वह अर्ध रोमानी, अर्ध जासूसी और अध पका हुआ ज़ेहन बल्कि उसे अर्ध पुख़्ता ज़ेहन भी मत कहिए, वह ना पुख़्ता जे़हन की चीज़ है, एक तरह से वह लिखा हुआ रखा है. उसमें बहुत से किरदार हैं किरदारों का आपसी टकराव भी है, लेकिन कहानी के एतबार से उसमें ऐसी कोई गहराई नहीं है. कहानी मैंने लिखनी शुरू की लेकिन उर्दू में इसका उलट हुआ है, उर्दू में मैंने कहानियाँ ही ज़्यादा पढ़ी हैं मैंने बेदी को पूरा पढ़ा है, मैंने मन्टो को पढ़ा एक नाम बताना मैं भूल गया, गु़लाम अब्बास मुझे बहुत पसन्द हैं, मुझे अश्फ़ाक़ अहमद भी बहुत पसन्द हैं. तो इन लोगों की मैंने कहानियाँ भी बहुत पढ़ी हैं, तो उस ज़माने में मुझे लगता था कि ठीक है अगर मैं बहुत जाऊँगा तो मैं भी कहानियाँ लिख लूँगा, मैने उर्दू में बहुत बाद में उदास नस्लें वगै़रा पढ़ा लेकिन जब मैंने उदास नस्लें और आग का दरिया पढ़ा.

5.

तब तक आलमी अदब पढ़ चुके थे.

जी, तो सच्ची बात यह है कि मैं इनसे मुतास्सिर तो हुआ, लेकिन यह मेरे लिए कोई नयी चीज़ या इतनी मुश्किल चीज़ नहीं थी. जैसे आजकल लोग इन उपन्यासों का नाम लेते हैं तो लगता है कि पता नहीं कितनी बड़ी चीज़ पढ़ ली है, हमें नहीं लगा ऐसा. मैंने उर्दू कहानियाँ पढ़ी थीं तो मैंने भी कहानियाँ लिखनी शुरू कर दीं. शुरू की एक दो कहानियाँ छोटी-छोटी लिखीं, ‘ताबूत से बाहर’ और ‘शायद’. इनमें कुछ न कुछ तो आपको मिलेगा लेकिन इनका कैनवस बड़ा नहीं है और मैं  ज़ुबान के साथ तजुर्बा नहीं कर पाया. या मैं अपने होने की  ज़ुबान नहीं बना पाया. लेकिन धीरे-धीरे आप यह कह सकते हैं कि ‘उकताया हुआ आदमी’ और ‘नदी की सैर’ के बाद जो कहानियाँ लिखीं.

6.

हिज़यान एक तरह से कह सकते हैं कि टर्निंग प्वाइण्ट था, बुरे मौसम में और कूबड़ भी, यह कहानियाँ तो आज भी बहुत अच्छी हैं.

अब इसमें भी दो बातें हैं, अगर आप मेरा पहला संग्रह देखें, ‘बुरे मौसम में’ तो मेरी आगे की कहानी लिखने की दो शैलियाँ इस संग्रह में मौजूद हैं. दो शैलियाँ ऐसी हैं, एक तो वह शैली है जिसका अभी आपने ज़िक्र किया जिसमें ‘कूबड’ है और ‘बुरे मौसम में’ है और ‘हिज़यान’. फिर एक शैली उसमें वह भी है जो ‘पेट की तरफ़ मुड़े हुए घुटने’ की है. जिसमें मैंने पहली बार प्रथम व्यक्ति के बयानिया का इस्तेमाल किया है. मुझे अचानक यह लगा कि जब आप प्रथम व्यक्ति के बयानिया में कुछ लिखते हैं तो वह चीज़ कुछ मुख़्तलिफ़ होनी चाहिए, उससे मुख़्तलिफ़ जो ग़ायब व्यक्ति या तीसरे व्यक्ति के बयानिया में लिखते हैं. सबजेक्ट किस तरह आ रहा है? इसमें मुझे लिखते हुए जो एक चीज़ महसूस हुई, जो बाद में ‘मौत की किताब’ में आयी, वह यह थी कि मैंने प्रथम व्यक्ति के बयानिया में लिखा. तो उसकी शुरूआत वहाँ हुई थी. मेरी ज़्यादातर कहानियाँ तीसरे व्यक्ति के बयानियाँ में हैं. या ‘नींद के खि़लाफ़ एक बयानिया’ जो है. वह तो उधर को जा रही है लेकिन ‘नेमत ख़ाना’ भी प्रथम व्यक्ति के बयानिया में ही है. यह जो गुड्डू मियाँ का किरदार है. एक कहानी ‘मिट्टी का तआकुब’ ऐसी कहानी है, जिसमें मैंने नैरेटोलाजी की सतह पर कुछ प्रयोग किए हैं, जिसके बारे में आपने ख़ुद बहुत अच्छा लिखा है, बयानिया और बयान कुनिन्दा में कि चार-पाँच बयान करने वालों को आपने एक कहानी में सँभाल लिया है. लाश बोल रही है, तो वह बिलकुल अलग है, फिर एक वह माज़ी में बोल रहा है, जब बंदर बोल रहा है तो बिलकुल अलग है.

7.

इसी से मुताल्लिक़ एक सवाल और पूछना चाहूँगा कि जब आप रावी बदलते हैं, चलो प्रथम व्यक्ति का बयानिया और तीसरे व्यक्ति का बयानिया, कहानी में यह तो होता है. लेकिन जब कोई दूसरी चीज़ कहानी बयान कर रही है, जैसे ‘क़़दमों का शोकगीत’ में जूता कहानी बयान कर रहा है, ‘तफ़रीह की एक दोपहर’ में भूत कहानी बयान कर रहा है. तो इस तरह से क्या आपको कुछ लगता है कि इसे आम रावी (किसी से कोई बात सुनकर ज्यों की त्यों दूसरे से कहनेवाला) नहीं बयान कर सकता था?

जुमलों की साख़्त बदलती है, यह बड़ी अवचेतनात्मक प्रकिया होती है. मेरा ख़्याल है हर लिखने वाले को इसका ख़्याल रखना चाहिए कि जैसे ही रावी बदलेगा तो उसका लहजा बदल जाएगा. एक चीज़ होती है टोन, तो जब हम ‘वह’ में कोई कहानी बयान करते हैं. तो हमें लगता है कि किसी दूसरे आदमी की कहानी ऐसे बयान कर रहे हैं, जैसे हमारे हाथ में कोई कैमरा है, या हम उसके एहवाल लिख रहे हैं, तो वह एक बात होती है जैसे कि ‘साए’ एक कहानी है. मेरा ख़्याल है कि मैं जो सबसे बेहतर ग़ायब रावी का इस्तेमाल कर पाया हूँ या तीसरे व्यक्ति का बयानिया तो ‘साये’ में मैंने किया है. और रिज़वान साहब मेरी यह सबसे नज़र अन्दाज़ की हुई कहानी है. इस कहानी से मुझे बहुत प्यार है, क्योंकि यह कहानी जिस तरह लिखी गयी है. जहाँ मुझे ज़्यादा अफ़सुर्दगी या उदासी के शेड्स दिखाने होते हैं, एक पेंटिंग की तरह, वहाँ जब यह शेड मुझे गहरे करने होते हैं, तो मैं ग़ायब रावी की कहानी में लिखता हूँ. लेकिन प्रथम व्यक्ति के बयानिया में एक माडेस्टी भी होती है, अपनी बात कहने में, उत्प्रेरणा भी देनी होती है आपको, हक़ीक़त के भी ज़्यादा क़रीब लाना होता है, कहीं सेंस ऑफ ह्यूमर भी लाना होता है, मिसाल के तौर पर ब्लैक ह्यूमर, लोग कहते हैं वह मेरे यहाँ है. ब्लैक ह्यूमर को आप तीसरे व्यक्ति के बयानिया में नहीं ला सकते हैं, अगर लाएंगे तो ब्लैक ह्यूमर बर्बाद हो जाएगा.

8.

ख़ास तौर से तफ़रीह की एक दोपहर में बहुत आया है.

हाँ वह आ गया है, एक बात और है अगर आपको दुनिया पर तंज़ करना है, जब आप पूरे एक समाज पर, या दुनिया पर, या कायनात पर, या पूरे सिस्टम पर कह लीजिए, या जो मेटाफ़िजिकल सिस्टम है, इस पर जब आप कोई टिप्पणी करना चाहते हैं तो आपको प्रथम व्यक्ति के बयानिया में बात करनी होगी. तो दोनों शैलियाँ एक बीज की तरह पहले संग्रह में मौजूद हैं. ‘पेट की तरफ़़ मुड़े हुए घुटने’ के बारे में आपको याद होगा कि नैयर मसूद ने लिखा था कि बयानिया में हल्की-हल्की सी एक जुनून आमेज़ी ने बड़ा लुत्फ़ दिया वग़ैरा. तो वह कहानी भी एक तरह से टर्निंग प्वाइण्ट है, जिसकी वजह से बाद में आखि़री दावत और तफ़रीह की एक दोपहर जैसी कहानियाँ लिखी गयीं, वह पेश खे़मा है.

9.

एक चीज़ और मैंने ग़ौर किया कि इन कहानियों में जब आपने तकनीक बदली है, ख़ास तौर से बयानिया की सतह पर, तो इन कहानियों में चीज़ों को देखने का एंगिल बदल जाता है, जैसे ‘क़दमों का शोकगीत’ में जूता कहानी बयान करता है, तो जूते को जो चीज़ें दिखती हैं, ख़ास तौर से ख़ून की लकीर का जब ज़िक्र है तो उसमें एक ऐसी इमेज बनती है जो लगता है कि आदमी कभी उस चीज़ को बयान नहीं कर सकता है. अगर आदमी उसको देखता है, तो एंगिल ही बदल जाता है. या तफ़रीह की एक दोपहर में भूत बयान कर रहा है. तो जिस तरह से कभी वह गिरे हुए सिनेमा हाल पर उड़ कर पहुँच जाता है, कभी यहाँ, कभी वहाँ, तो ज़िन्दगी को किसी हद तक आप उलट पलट कर भी देखने की कोशिश करते हैं.

हाँ ख़ास तौर से मिट्टी के तआकुब में लाश बोलती है, और एक तरफ़ वह बंदर भी बोलता है, वह अपने मालिक के बारे में कहानी बयान करना शुरू कर देता है, इससे क्या होता है कि मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से चीज़ों को देखने का एक नज़रिया पैदा होता है, जैसे कि हमारी और आपकी, दोनों की बहुत ही पसंदीदा फ़िल्म है ‘रोशोमन’, जिसे हम दोनों ने साथ में देखी थी और उस दिन को हम कभी भुला भी नहीं पाएंगे. वह बारिश का दिन था, बाहर भी बारिश थी और अन्दर भी. फ़िल्म में बारिश हो रही थी, और शायद हमारे अन्दर में भी बारिश हो रही थी. उसमें जो रिलेटिव सच की बात की गयी है, यानी कोई ऐबसोल्यूट सत्य नहीं है. चीज़ों को देखने के अलग-अलग तरीक़े हैं. उसको कितनी ख़ूबसूरती से बयान किया गया है. उस फ़िल्म ने मेरे ऊपर बहुत गहरा असर डाला. तो यह जो बयान करने वाले की आप बात कर रहे हैं. तो रोशोमन का बहुत असर है मेरे ऊपर.

उस फ़िल्म का बाद में बहुत असर हुआ मेरे ऊपर, कि चीज़ों को ऐसे भी देखा जा सकता है. अब तो ख़ैर यह मेरी आदत भी बन गयी है, और मैं इसके लिए बहुत बदनाम भी हूँ. जैसे कि सामने पेंटिंग है, वह पेंटिंग मुझे नज़र नहीं आ रही है और मैं पेंटिंग के अन्दर या पीछे कहीं देख रहा हूँ. और इसके पीछे कितने मकड़ी के जाले हैं या इसने कितना बड़ा निशान छोड़ा है दीवार पर? अब तो मेरी आदत पड़ गयी है इन चीज़ों की.

बिलकुल! यह सब तो आपके यहाँ बहुत है.

अब आ गया है, उसी तरह से ट्रेनिंग हो गयी है.

10.

आपके आखि़री दौर के जो अफ़साने हैं, बहुत लम्बे-लम्बे हैं. तभी महसूस होने लगा था कि अब आप किसी भी दिन उपन्यास की तरफ़ छलांग लगा सकते हैं. वह लम्बी कहानियाँ आने के बाद फिर अचानक ‘मौत की किताब’ उपन्यास आ गया, वह बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइन्ट था. पहली बात तो यह कि उपन्यास आया और उपन्यास भी ऐसा कि जिसकी कोई नज़ीर नहीं थी. उर्दू में तो खै़र थी ही नहीं, बल्कि आलमी अदब में भी मैं समझता हूँ शायद ही कोई हो. ऐसा घना बयानिया, डार्क इमेजेज़, और एक क़यामतख़ेज़ी सी है उसमें, तो ज़ाहिर है उर्दू समाज ने उसे क़ुबूल नहीं किया लेकिन नज़र अन्दाज़ भी नहीं किया. इतनी कान्ट्रोवर्सीज़़ हुईं उस उपन्यास पर कि मुझे लगता है कि पूरी उर्दू उपन्यास की तारीख़ में इतनी कान्ट्रोवर्सीज़़ कभी नहीं हुई थीं. मेरा ख़्याल है कि तक़रीबन चालीस लेख उस पर लिखे जा चुके हैं, तो ज़ाहिर है उसमें बहुत सारी चीज़ें ऐसी भी थीं, जो आपके खि़लाफ़ जा रही थीं और हौसले की भी बहुत ज़रूरत थी कि कहीं ऐसा कहानीकार टूट न जाये. लेकिन आप उस पर अड़े रहे और उसी तरह के उपन्यास को आगे बढ़ाया. वह कैसी सूरते हाल थी?

देखिए आपने बहुत सही कहा मेरी आखि़री की जो कहानियाँ हैं, वह बहुत आसानी से उपन्यास बन सकती थीं. मुझे पता है कि कहाँ पर चीज़ों को रोक देना है, वरना ‘क़दमों का शोकगीत’ जो थी उसको तो मुझसे उदय प्रकाश ने पढ़ने के बाद कहा था कि इसको नावेला की शक्ल में छपवा दो. यह साठ सत्तर पेज में आ जाएगा, मगर मैंने वह नहीं किया. ‘ताश के पत्तों का अजायबघर’ भी बहुत लम्बी कहानी है वह भी कोई 45-50 पेज की है, तो यह सब बहुत लम्बी कहानियाँ मैंने लिखी थीं. उसके बाद मैं सोचने का आदी हो गया था और बड़ा कैनवस मेरे ज़ेहन में अचानक आने लगा कि मुझे अब थोड़ा बड़ा स्ट्रोक लगाना चाहिए. तो मौत की किताब मैंने लिखी, हालाँकि वह एक मुख़्तसर उपन्यास है.

11.

लेकिन वह एक बड़ा उपन्यास है.

नहीं वह बात नहीं है, मैं एक दिलचस्प बात बताऊँ इस उपन्यास की. वह पूरा उपन्यास मैंने चालीस दिन में लिखा. चालीस दिन में वह फे़यर होके सामने आ गया. लेकिन वह चालीस दिन लिखने में जो मेरा हाल हुआ था वह हाल किसी उपन्यास में नहीं हुआ, चाहे वह ‘नेमत ख़ाना’ हो, चाहे ‘एक ख़जर पानी में’ हो या अभी जो ताज़ा उपन्यास है ‘अरसलान और बहज़ाद’ इनको लिखने में मेरा वह हाल नहीं हुआ. क्योंकि उस उपन्यास को लिखते वक़्त ऐसा लगता था कि मैं किसी ट्रांस में चला गया हूँ. वह इसलिए हो सकता है कि मैं पहली बार उस दुनिया में दाखिल हुआ था. जिसे कहते हैं न पहली मुहब्बत का नशा ही कुछ अलग होता है, तो कुछ वैसा ही नशा मुझ पर आ गया था. मैं रात में बारह बजे लिखने बैठता था और सुबह चार बजे तक मैं लिखता रहता था. मुझे पता नहीं चला और बीस दिन में वह उपन्यास मुकम्मल हो गया. बीस दिन फिर उसको फेयर करने में लगे. मैं आज भी हाथ से ही लिखता हूँ. उस ज़माने में तो कम्प्यूटर का इतना चलन था भी नहीं 2011 में. तो मैंने हाथ से लिख कर फिर पूरा उपन्यास हाथ से फेयर किया.

उसके बाद मैंने उसकी दो कापियाँ बनवायीं, यानी फ़ोटो स्टेट. एक मैंने शमीम हनफ़ी साहब को दी, जिनका मेरी ज़ात पर बहुत बड़ा एहसान है. कहना चाहिए वह मेरे मेंटर, मेरे मोहसिन हैं हर तरह से. और दूसरी कापी फ़ारूक़ी साहब को इलाहाबाद भेज दिया. जो कि अदब में मेरे ऊपर बहुत मेहरबान थे, और मुझे आज जो भी मक़ाम मिला है, उसमें उनका बड़ा हाथ है. उन्होंने लगातार मुझे शबख़ून में छापा और शुरू से ही मेरी बहुत तारीफ़ें कीं, वह भी हौसला अफ़ज़ाई बनती गयी. तो यह दोनों लोग मुझे बहुत मानते थे. फ़ारूक़ी साहब को तो मैंने इलाहाबाद भेज दिया और हनफ़ी साहब के यहाँ मैं घर लेकर पहुँच गया. मैंने कहा, यह है ‘मौत की किताब’ तो उन्होंने दो दिन में ही उपन्यास पढ़ लिया और मुझे बुलाया. मैं घर गया तो वह मुझसे बोले घर में बात नहीं होगी. चाय वाय पीकर वह मुझे नीचे पार्क में ले गये. वहाँ बेंच पर बैठ कर उन्होंने मुझसे यह जुमला कहा, कि तुम्हारे लिए मेरे दिल में अचानक बहुत इज़्ज़त बढ़ गयी है. यह उपन्यास किसी इन्सान के बस की बात नहीं है. और एक जुमला उन्होंने यह कहा कि तुम्हारी शक्ल फ्रेंच डिकेन्डेण्ट की तरह होती जा रही है. शायद कुछ मज़ाक़ में कहा होगा, कि जो फ्रांसीसी ज़वाल परस्त थे उनके जैसी तुम्हारी शक्ल होती जा रही है. तुम्हारा चेहरा पतला हो गया है, चेहरे की जो गोलाई थी वह कम होकर नोकें सी निकलने लगी हैं. मैंने कहा, यह आप क्या बात कह रहे हैं? तो उन्होंने कहा नहीं तुमने लगातार लिखा है और जिस दुनिया में रह के लिखा है, जिस दुनिया का तुमने इसमें ज़िक्र किया है, तुम उसी दुनिया में जिए हो.

फ़ारूक़ी साहेब ने उस तरह की बात तो नहीं की लेकिन उन्होंने उसको सहीफ़ा ए अय्यूबी तक से जोड़ा. दोनों अलग होने के बावजूद एक ने उसे आसमानी सहीफ़ा से जोड़ा और एक ने फ्रेंच ज़वाल परस्तों से. इन्हीं बातों का कुछ असर हुआ कि लोग बहुत नाराज़ हो गये. फ़ारूक़ी साहब से भी और शमीम साहब से भी. उर्दू में एक रिसाला पटना से निकलता था वह पूरा रिसाला ही मौत की किताब के खि़लाफ़ निकाला. मौत की किताब पर मैं बताऊँ इस वक़्त तक 38 लेख लिखे जा चुके हैं. इतने रिवियु आज तक उर्दू की किसी किताब पर नहीं लिखे गये हैं. उसमें अँग्रेज़ी के भी दो तीन हैं. हिन्दी के दो चार हैं बाक़ी सब उर्दू में. हर किसी ने या तो बहुत तारीफ़ की है, या तो बुरी तरह से उसकी बुराई की है. किसी ने एवरेज कह के नहीं टाला. लेकिन उस उपन्यास के साथ कुछ ऐसा हुआ है, कुछ ऐसा रहस्यमय उपन्यास तो वह है, मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम कि वह कैसे आ गया. अब तो उसका फ्राँसीसी में भी तर्जुमा हो गया है, दूसरी ज़ुबानों में भीं.

12.

अंग्रेज़ी हिन्दी में तो बहुत पहले आ गया था.

रेख़्ता ने अभी उसका हिन्दी लिप्यंतरण भी छाप दिया अलग से, एक तो अनुवाद है एक लिप्यंतरण है. उन्होंने यह कह कर छापा कि हमारे यहाँ जो स्क्रिप्ट न जानने वाला नवजवान तबक़ा है वह ओरिजनल राइटिंग पढ़ना चाहता है. तो उस उपन्यास के साथ यह हुआ जो बुजुर्ग थे उन्होंने इसको बहुत ही पसन्द किया. जितने बुजुर्ग लोग थे उनमें अतीक़ुल्लाह साहब हैं, क़ाज़ी अफ़ज़ाल साहब हैं, शमीम साहब, फ़ारूक़ी साहब. वारिस अल्वी साहब भी उस वक़्त तक थे, उन्होंने भी पसन्द किया, सबने पसन्द किया. लेकिन यह भी हुआ कि जैसे बहुत नयी चीज़ है, तो जो बुजुर्ग अच्छे लिखने वाले होते हैं बड़े दिल के, वह नयी चीज़ का खुले दिल से ख़ैर मक़दम करते हैं उन्होंने किया भी. और यह भी माना कि इस तरह के उपन्यास हमारी रिवायत में नहीं थे. जो नवजवान तबक़ा है उसने इसे अपने आप से आईडेन्टिफ़ाई किया. बुजुर्ग तबक़े ने आइडेण्टिीफ़ाई नहीं किया लेकिन पसन्द किया. नवजवान तबक़े ने इतना आइडेन्टिफ़ाई क्यों किया यह मेरे लिए भी एक राज़ है. मैं बता नहीं सकता कि कैसा सीने से लगा-लगा कर लोग घूमे, कई वाकये हैं इसके. लेकिन जो हम अस्र थे मेरे, उन्होंने इस उपन्यास से इतनी नफ़रत की इतनी नफ़रत की, इसके बारे में क्या-क्या कहा गया, मैं उसको यहाँ दोहराना नहीं चाहता.

13.

इसके बाद आता है ‘नेमत ख़ाना’, इतना मोटा उपन्यास मेरा ख़्याल है ‘मौत की किताब’ के दो ही तीन साल बाद लिख दिया था. तो उस वक़्त आपकी ज़ेहनी कैफ़ियत क्या थी? क्योंकि मौत की किताब पर इतनी ज़्यादा बहस हुई थी. कुछ लोग बहुत खि़लाफ़ भी थे, तो आपके सामने एक चेलैंज भी रहा होगा कि अब क्या करना है?

मेरे साथ हमेशा यह होता है वह जो मगरमच्छ होता है न, वह हमेशा पानी की मुख़ालिफ सिम्त में ही आगे बढ़ता है, यह एक टेढ़ होती है उसमें. तो नामसाइद हालात या जब मुख़ालिफ़त होती है. मैंने एक जगह यह जुमला लिखा है ‘अरसलान और बहज़ाद’ में, वह मैं दुहराना चाहूँगा. अपने इस रवैये के हवाले से. उसके पेश लफ़्ज़ में एक जुमला लिखा है मैंने.

‘‘मैं उस खर पतवार की तरह हूँ जो उतना ही उगता है जितना कि उसे काटा जाता है.’’

आप जितना मुझे काटोगे, जितनी मेरी मुख़ालिफ़त करोगे मैं उतना ही और ज़्यादा उगूँगा, यानी उगने की शक्ति में और इज़ाफ़ा होगा. आप काट रहे हैं तो आप बढ़ा रहे हैं हमें, मुझे ख़त्म नहीं कर सकते आप. वह एक सिलसिला पूरा रहा उस वक़्त मुझे इतनी ताक़त मिली थी मौत की किताब से कि एक ही फेज़ में मैंने नेमत ख़ाना के डेढ़ सौ पेज लिख लिए थे. इसी दौरान मेरे वालिद साहब के साथ एक एक्सीडेण्ट हुआ और मुझे बरेली जाना पड़ा, वह उस एक्सीडेण्ट से फिर कभी उबर न सके, मैं एक दो महीने वहाँ रहा तो यह सिलसिला रूक गया. वर्ना यह उपन्यास 2013 के बीच में ही छप गया होता. तो फिर मैंने एक साल तक कुछ नहीं लिखा.

जब उस फेज़ से बाहर आ सका तो नए सिरे से लिखना शुरू किया, उस किरदार को मैं भूल भी गया था. उसे फिर से दो बार पढ़ा फिर धीरे-धीरे वह किरदार आये. उसको मैंने मौत की दूसरी किताब नाम दिया. ‘एक खंजर पानी में’ को मौत की तीसरी किताब और ‘अरसलान और बहज़ाद’ को मौत की चौथी किताब नाम दिया. मेरी कहानियाँ मौत के गिर्द एक जाल बुनती हैं. मैं उस जाल को नहीं भूल सकता जिस जाल में मैं फँसा हुआ हूँ.

14.

आपके अफ़सानों में भी वही बात थी. इस उपन्यास पर लोगों का रद्दे अमल आम तौर पर मुतवाज़िन रहा था, इसे आम तौर पर रद्द भी नहीं किया गया था मौत की किताब की तरह. और उतनी ज़्यादा तारीफ़ भी नहीं हुई थी, एक तवाज़ुन सा रहा. उस तरह से इसका इस्तक़बाल भी नहीं किया गया.

दो बातें हुईं, ‘मौत की किताब’ दरअस्ल मुख़्तसर सा उपन्यास है. उसने अपने आपको पढ़वा बहुत लिया. उन लोगों से भी पढ़वा लिया, उपन्यास पढ़ना जिनकी आदत में शामिल नहीं था. हमारे यहाँ बहुत से लोग ऐसे हैं जो मोटे उपन्यास पढ़ ही नहीं पाते हैं. तो लोग डेढ़ सौ या एक सौ बीस पेज का उपन्यास पढ़ गये. यह नेमत ख़ाना साढ़े चार सौ पेज का उपन्यास था. मैं आपको बताऊँ बहुत से लोगों ने तो इसे आज भी नहीं पढ़ा है. मेरे बहुत से दोस्त हैं, क़रीबी जिन्होंने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है, या कुछ पेज पढ़ के छोड़ दिया. एक साहब हैं जो बहुत अच्छे आलोचक हैं और मेरे करम फ़रमा हैं, उनका कहना है कि मैंने तीन बार पढ़-पढ़ के छोड़ दिया कि चलो बाद में पढ़ते हैं. तो इस उपन्यास के साथ यह रहा चूंकि इस उपन्यास में ज़्यादा किरदार हैं और इसमें कोई एक टोन नहीं है, एक टोन है तो लेकिन वह सिगनेचर टोन है.

15.

वह टोन तो आपके यहाँ हर जगह रहता है, चाहे कहानियाँ हो, चाहे उपन्यास हों, वह इसमें भी है.

हाँ वह सिगनेचर टोन की तरह है लेकिन चूंकि मुख़्तलिफ़ किरदार भी हैं तो लोगों को नाम नज़र आए. अंजुम का भी नाम है, गुड्डू मियाँ का भी नाम है, अलाउद्दीन का भी नाम है. तो कुछ लोगों को लगा कि हाँ हम इसको पढ़ सकते हैं, यह भी उतना ही भारी पत्थर था जितना कि मौत की किताब. डिस्कोर्स के लिहाज़ से यह उससे कम नहीं था लेकिन टेकनीक इसकी थोड़ी बदली तो लोगों ने इसे दूसरी तरह से देखा. यह बिलकुल ठीक कहा आपने इस पर सिर्फ़ चार मज़ूमन लिखे गये, नेमत ख़ाने पर.

16.

यह अचानक जब अंग्रेज़ी में तर्जुमा हुआ तो इसको अलग तरीक़े से देखा जाने लगा.

अँग्रेज़ी में इसका तर्जुमा ऐसे हुआ कि फ़ारूक़ी साहब को यह उपन्यास बहुत पसन्द आया था, उन्होंने मुझसे कहा कि यह मौत की किताब से दो क़दम आगे है, और पढ़ने के बाद बड़ी हैरत का भी इज़हार किया. फिर वह जो शबख़ून का ख़बर नामा निकाला करते थे, उसमें इसका इश्तहार लगाया था, उन्होंने लिखा था. ऐसा उपन्यास उर्दू तो उर्दू अंग्रेज़ी में भी नहीं लिखा गया है. उन्होंने कहा अगर इसका तर्जुमा अंग्रेज़ी में हो तो यह अपने आप कुछ न कुछ काम करके दिखाएगा, इसका टेक्स्ट ऐसा है. फिर उन्होंने बाराँ फ़ारूक़ी से बात की, जो उनकी बेटी हैं. तो इस तरह यह उपन्यास का तर्जुमा हुआ और इसका तर्जुमा लगातार फ़ारूक़ी साहब देखते भी रहे, रिविव करते रहे. शायद इसीलिए इसका इतना अच्छा तर्जुमा हो सका.

मैं तो बाराँ फ़ारूक़ी का बहुत शुक्र गुज़ार हूँ कि इतना अच्छा तर्जुमा उन्होंने किया जो उसका बेस्ट एलीमेण्ट होगा या जो फ़ाइनल एलीमेण्ट होगा, वह जूरी तक पहुँचा.

17.

जूरी ने उपन्यास की तो तारीफ़ की ही थी साथ ही तर्जुमे की भी बहुत तारीफ़ की थी.

जूरी के एक एक मेम्बर ने इसके तर्जुमे की तारीफ़ की. उस दिन आप भी मौजूद थे वह कह रहे थे शाक्ड ज़्यादा हो गये, स्टण्ट ज़्यादा हो गये थे कि यह हुआ क्या? 2014 का यह उपन्यास था, और 2022 में इस पर नए सिरे से बात शुरू हो गयी.

18.

और अब यह बात उर्दू हलक़े से बहुत आगे बढ़ गयी है. जे सी बी वाले इस उपन्यास को पूरी दुनिया में पहुँचा रहे हैं. दुनिया भर की सारी अहम लाइब्रेरियों में और नोबुल प्राइज़ की जूरी को, बुकर प्राइज़ की जूरी को और जितने भी अहम संस्थान हैं, वहाँ इसे पहुँचा रहे हैं. तो एक तरह से यह उपन्यास उर्दू से बहुत आगे निकल कर विश्व साहित्य का हिस्सा होता जा रहा है. इसके बाद दो उपन्यास आपने और लिखे और दोनों उपन्यास आपने बहुत कम अरसे में लिखे थे, एक तो ‘एक खंजर पानी में’ वह तो उसी वक़्त आ गया था 2020 में, इसका हिंदी तर्जुमा भी बहुत जल्दी आ गया था.

वह आपने कर दिया था फ़ौरन.

19.

इसके बाद अभी एक नया उपन्यास ‘अरसलान और बहज़ाद’ आया है. यह दो उपन्यास नेमत ख़ाना के बाद के हैं. ‘एक खंजर पानी में’ तो एक तरह से महामारी पर है. वाज़ेह तौर पर तो नहीं लेकिन एक तरह से माहौल कोविड वाला है, तो उस पर भी बहुत सारी बातें हुईं. लेकिन उसके बाद यह जो नया उपन्यास आया है अरसलान और बहज़ाद, मुझे लगता है यह उपन्यास आपका अब तक का फ़िक्शन का जो सरमाया है उससे भी कहीं आगे जा रहा है. तो यह किन हालात में लिखा, क्या आपको कभी ऐसा लगा कि मेरे अन्दर कुछ है, जो अब तक नहीं आ पाया था. अलबत्ता एक चीज़ मैंने महसूस की, मौत की किताब में जो हालात थे वह बहुत ही गै़र मामूली थे, जब उन हालात में इन्सान वजूद को तलाश करने में है, तो कहीं कहीं मुझे ऐसा लगा वह जो हमारी रिवायती क़िस्सा गोई है, वह थोड़ी सी कम हो रही थी. ज़ाहिर है जिस तरह का वह उपन्यास है उसमें वह होना ही था.

उसके बाद नेमत ख़ाना में वह बातें भी आ गयीं जो हमारी रिवायती क़िस्सा गोई की थीं, अब मुझे लगता है कि यह जो अरसलान और बहज़ाद है, इसमें मौत की किताब वाली बात भी आ गयी है और जो हमारी क़िस्सागोई है वह भी है. साथ ही जो हमारी ज़ुबानी रिवायत थी, उसके भी कुछ बहुत फ़ाइन इलेमेण्ट इसमें नज़र आते हैं. मैंने इस पूरे उपन्यास को आपसे ज़ुबानी भी सुना है, सुनते वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे कोई दास्तानगो दास्तान सुना रहा है. लेकिन बातें आप अपने ही तरह की कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि वह दास्तान ही बन गया हो. एक स्टाइल है दास्तान की तरह. लेकिन वह सारी चीज़ें जो आपके फ़िक्शन में अब तक थीं, वह इसमें पूरी तरह से उभर कर आ गयी हैं. तो इसको लिखने का कैसा तजुर्बा था? वह क्या बात थी जिसने इसको लिखवाया?

देखिए आपने बिलकुल सच कहा है, मैं मार्कीज़ की एक बात दोहराऊँगा, मार्कीज़ ‘तनहाई के सौ साल’ लिखने से पहले शायद तीन उपन्यास लिख चुका था, पहला उपन्यास उसका ‘लीफ स्टार्म’ था, ज़ाहिर है उसमें भी मार्कीज़ हैं, दूसरा ‘कर्नल को कोई ख़त नहीं लिखता’ था, और ‘मनहूस वक़्त’ करके एक उपन्यास है. और एक छोटा सा नावलेट ‘बड़े मामा का जनाज़ा’ भी आ चुका था. तो वह लिख रहा था और ज़ाहिर है उसकी बहुत तारीफ़ भी हो रही थी, यह सब हो रहा था. लेकिन एक दिन वह दोनों किसी रेस्टोरेंट में बैठे हुए थे, यानी वह और उसकी बीवी मर्सिडीज़.

वह बैठे-बैठे रेस्टोरेंट में उँगलियों से कुछ बजा रहा था जैसे तबला बजाते हैं, बजाते-बजाते उसने न जाने कौन सी धुन छेड़ दी और वह धुन छेड़ते ही अचानक उसको कुछ ऐसा लगा, और उसने मर्सिडीज़ से कहा, उठो कहीं लाँग ड्राइव पर चलते हैं मर्सिडीज़ ने कहा क्या हुआ? तो उसने कहा मुझे मेरी टोन मिल गयी है, बोलेरो जो स्पैनिश धुन है, बोलेरो उनके यहाँ एक बड़ी उलझी हुई धुन होती है. उन्होंने कहा यह मुझे मिल गयी है. तो वह धुन उसे पहले मिली फिर उसने ‘तनहाई के सौ साल’ लिखा. जो बरसों से पनप रहा होगा जेहन में, लेकिन उसे लग रहा था कि वह धुन नहीं मिली. या यह कहना चाहिए कि वह रास्ता नहीं मिला रहा था कि जिन निशानियों पर उसको आगे बढ़ना था.

यह बात मैंने सिर्फ़ इसलिए कही कि मार्कीज़ को वह उपन्यास लिखने के बाद यह महसूस हुआ कि उसको एक अजीब तरह का संतोष मिला. आम तौर से लेखक यह कहते हैं कि अभी तक वह ‘वह’ नहीं लिख पाए हैं, ‘जो’ उन्हें लिखना चाहिए. लेकिन अरसलान और बहज़ाद को लिखने के बाद और जब मैं उसको आधा लिख चुका था तब मुझे भी यह एहसास हुआ कि मुझे भी अपनी टोन मिल गयी है, जो मैं अब तक नहीं लिख पाया था वह अब लिख चुका हूँ, और मैं आज भी इस बात पर क़ायम हूँ कि इसको मैंने जिस तरह लिखा और इसके किरदारों में मैं जिस तरह ख़ुद खोया वह मैं बता नहीं सकता. यह तास्सुर न तो मुझ पर मौत की किताब लिखने पर हुआ, न ही यह तास्सुर मेरे ऊपर नेमत ख़ाना लिखने पर हुआ. एक खंजर पानी में भी नहीं हुआ, किसी कहानी को भी लिखने पर नहीं हुआ.

मैं इतना ज़्यादा इस उपन्यास को लिखने में इनवाल्व हो गया कि जब यह ख़त्म हुआ तो मैं उदास हो गया, बहुत शिद्दत के साथ, बजाय ख़ुश होने के. और मुझे लगा यह क्या हुआ? इसके किरदारों का जो ख़ात्मा हुआ है, उस स्टेज तक आते-आते लगा कि मैं उनको अभी मिट्टी देकर आ रहा हूँ क़ब्रिस्तान से. यह मुझे महसूस हुआ, फिर मुझे यह भी महसूस हुआ कि बोर्खेज़ का एक जुमला है, कि अगर किसी उपन्यास को या किसी कहानी को कोई न पढ़े तो उसके किरदार उसको पढ़ते हैं. मुझे लगता है अगर इस उपन्यास को एक आदमी भी न पढ़े तो अरसलान और बहज़ाद इसको पढ़ रहे होंगे. तो यह मेरे लिए वाक़ई एक ऐसा तजुर्बा था जो शायद मोसीक़ी से शुरू हुआ था.

तो लफ़्ज़ों के बगैर किसी चीज़ की नुमाइन्दगी करना, यह जो कहा जाता है कि ज़ुबान किसी न किसी चीज़ की नुमाइन्दगी करती है. तो मोसीक़ी किस चीज़ की नुमाइन्दगी करती है? जो ग़ैर विशेषण की गूँज है, जिसमें कोई मानी नहीं हैं, लेकिन वह किस तरह हमको एक ख़्वाब, हक़ीक़त, तख़य्युल, इल्यूज़न, वहम, ख़ौफ़, डर इसकी दुनिया में एक साथ ले जाती है. इनकी जो सरहदें हैं वह ब्लर्ड हो जाती हैं. कहाँ हक़ीक़त है, कहाँ नहीं? यह सारी चीज़ें जिस तरह से इस उपन्यास में मैं ला सका, तो अभी तो मुझे यही महसूस होता है, इस उपन्यास को लिखने के बाद अब शायद मैं लिख नहीं पाऊँगा, कोई चीज़ लिखने के लिए अभी मुझे बेचैन नहीं कर रही है, एक खंजर पानी को लिखने के बाद मैं बेचैन हो गया. या मौत की किताब लिखने के बाद मैं बेचैन हो गया तो मैंने नेमत ख़ाना लिख लिया. अभी तक मुझे ऐसी किसी बेचैनी का सामना नहीं हुआ है. ऐसा लगता है कि मेरी एक अजीब तरह की जो बेचैनी थी उसको कोई सुकून सा मिल गया है.

20.

मोसीक़़ी का आपने जो ज़िक्र किया, वह मोसीक़ी इस पूरे उपन्यास में महसूस होती है. बल्कि जब मैंने इसे पहली बार सुना था तो मैंने कहा भी था कि इसका यह हिस्सा ख़ास तौर से अरसलान वाला हिस्सा क्लासिकल मोसीक़ी के हर छात्र को ज़रूर पढ़ना चाहिए, बहुत कुछ सीख सकता है. तो इसमें वह लय जो है पूरे उपन्यास में मुझे नज़र आयी.

वह लय है, वही है इस उपन्यास में, इसके किरदारों में, वह किरदार हक़ीक़ी हैं या नहीं? इसके कोई मानी ही नहीं होते फ़िक्शन में. या यह कि ग़ैर हक़ीक़ी कहना चाहिए, इसमें तो ख़्वाब से भी किरदार पैदा हो गये हैं, तो यह सारी चीज़ें हैं इसमें कहीं पर. एक तो यह होता है कि ख़्वाब के ज़रिए किसी कहानी का जन्म लेना, लेकिन नहीं इसमें तो दूसरी बात हुई है न कि ख़्वाब के ज़रिए जो है.

21.

किरदार ही पूरा जन्म लेता है, और बाद में वह ज़िंदगी में भी आ जाता है. ख़्वाब में ही नहीं रहता है.

इस तरह की बातें हैं इसमें. फिर मैंने दो किरदार जो पैदा किए, मैं हमेशा यह सोचता था कि एक किरदार से तो दुनिया के बहुत बड़े-बड़े उपन्यास लिखे गये हैं, दुनिया के जितने बड़े उपन्यास हैं उनमें एक किरदार हमेशा बहुत अहम होता है. अगर आप देखें तो ‘क्राइम एण्ड पनिशमेण्ट’ में जो रास्कोलनिकोव का किरदार है, या प्रिन्स निकोलायविच का किरदार इडियट में है. या मिस्टर के का किरदार काफ़्का के उपन्यास ‘दि ट्रायल’ में है और ‘मेटामारफ़ोसिस’ में गे्रगर समसा का किरदार है. या आप हमारे यहाँ देखें कि ‘उदास नस्लें’ जो हमारे यहाँ बहुत बड़ा उपन्यास है, मैं बार-बार ज़िक्र करूँगा उसका, तो नईम का किरदार है वह सब पर छाया हुआ है. बाक़ी किरदार हाशिये के हैं.

इसी तरह आप ‘आग का दरिया’ देखें तो कमालुद्दीन अहमद मन्सूर का किरदार छाया हुआ है, बाक़ी किरदारों का नाम तो हम लेते हैं गौतम, हरिशंकर और दूसरों का लेकिन बाक़ी सब हाशिये के किरदार बन जाते हैं. एक यह भी हुआ कि मैंने यह सोचा कि उपन्यास के अन्दर भी एक उपन्यास हो, इसको पेस्टीशियस कहते हैं कि एक उपन्यास है और उपन्यास के अन्दर एक और उपन्यास है. तो अरसलान बुनियादी या मरकज़ी किरदार है लेकिन एक और किरदार मैंने उतना ही तवाना पैदा किया और वह दोनों बराबर हैं. उनकी कहानियाँ अलग-अलग चलती हैं लेकिन वह बीच-बीच में कहीं-कहीं मिलते हैं. आखि़र में जो मिलाप इन दोनों का होता है. जैसे दो नदियाँ आपस में मिलती हैं, अपनी तमाम फ़ना ख़ेज़ियों के साथ तो दोनों किरदार उस तरह आकर मिलते हैं. यह भी एक अहम बात है कि किसी एक किरदार को आप यह नहीं कह सकते हैं कि अरसलान ज़्यादा अहम हो गया है और बहज़ाद हाशिये का है, ऐसा नहीं है.

22.

बहुत बहुत शुक्रिया, ख़ालिद जावेद साहब, आपको जानना, समझना, आपके उपन्यासों पर बात करना हमेशा एक बहुत ही अच्छा तजुर्बा रहता है. आपके ख़्यालात पढ़ के लोगों को आपको समझने में मदद मिलेगी और आपको ही समझने में नहीं, बल्कि साहित्य, ज़िन्दगी और ज़िन्दगी से परे भी समझने के लिए यह बहुत अहम गुफ़्तगू रही. शुक्रिया.

नहीं मैं ज़रा एक बात और कहूँगा, न यह सवालात थे और न यह जवाबात थे, हम जब भी मिलते और बैठते हैं तो ऐसी ही गुफ़्तगू करते रहे हैं. और आप तो ऐसे गवाह हैं, मैं यह चाहता हूँ कि लोग जानें कि पहली या दूसरी कहानी से जब से मैं दिल्ली आया हूँ, तो पूरी-पूरी ‘तफ़रीह की एक दोपहर’ मैंने बैठ के सुनायी, ‘मिट्टी का तआकु़ब’ आपको सुनाई, आप जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में थे तो बस पकड़ के मुद्रिका से वहाँ जाता था. और दिन भर मैंने कहानी सुनाई. तो मैं आपको इतना अपने दिल के क़रीब समझता हूँ. अगर मैं यह कहूँ कि रीडर की हैसियत से तो जो बेस्ट रीडर मुझे ज़िन्दगी में दो चार मिले हैं, वैसे तो इनविज़िबल रीडर बहुत हैं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ लेकिन मेरे इल्म में जो बेस्ट रीडर हैं तो मेरा ख़्याल है उनमें सबसे बड़ा मक़ाम है आपका, सरे फे़हरिस्त हैं आप.

आपसे बात करके तो मुझे शायद कुछ ऐसा एहसास हो रहा है, जैसे मैंने आज फिर से एक कहानी लिख ली हो. चूंकि आपके साथ जब मैं बात कर रहा हूँ, तो मैं कहीं अपने आप को डिस्कवर भी करता जा रहा हूँ, मैं नए सिरे से दरयाफ़्त कर रहा हूँ. पुराना ज़माना मेरे सामने बिलकुल ज़िन्दा हो उठा है. आपका भी बहुत बहुत शुक्रिया.

शुक्रिया.

रिज़वानुल हक़
नाटक : गुरुदेव (टैगोर),आदमीनामा (नज़ीर अकबराबादी), इन्सान निकलता है (मीर) आदि प्रकाशित.
उपन्यास ‘ख़ुदकुशी नामा’ शीघ्र प्रकाश्य. उर्दू से हिंदी में अनुवाद.
उर्दू कहानियों और सिनेमा पर शोध कार्य
rizvanul@yahoo.com 

 
Tags: 20232023 बातचीतBaran FarooqiJCB Prize for LiteratureThe Paradise of Foodख़ालिद जावेदजेसीबी पुरस्कारनेमतख़ानारिज़वानुल हक़
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Comments 11

  1. अखिलेश says:
    3 weeks ago

    बहुत ही बेहतरीन बातचीत। शुक्रिया अरुण जी

    Reply
  2. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 weeks ago

    खालिद जावेद साहब की इस बातचीत का कल शाम से बेसब्र होकर इंतजार कर रहा था| मैं पिछले जश्न ए रेख्ता में जब उन्हें देखा और सुना तब एक बार में ही लगा, उनकी बातों में गहराई है और आम इंसान के बीच बने रहकर गंभीर बात करते हैं| आज फिर उनके अल्फ़ाज़ पढ़ते वक़्त लगता रहा, उन्हें सामने बैठ कर बात करते हुए सुन रहा हूँ| उन्हें पढ़ना मेरे लिए बाकी है और यह बातचीत मुझे उन्हें पढ़ने का शऊर दे पाएगी| साथ ही उन्होंने आलमी दब बहुत सी बातें कहीं है जो मेरे लिए माने रखतीं हैं|

    Reply
  3. Shivmurti says:
    3 weeks ago

    बहुत स्तरीय है समालोचन.प्रारंभ से ही
    बहुत जानकारी देने वाली बातचीत.

    Reply
  4. संतोष अर्श says:
    3 weeks ago

    बातचीत बहुत बढ़िया है। कैसे पढ़ा जाता है और कैसे लिखा जाता है, इसके असरार खुलते हैं। आलमी अदब पर अपने नज़रिए के साथ ख़ालिद जावेद लेखक और पाठक दोनों के धैर्य का पता देते हैं।

    Reply
  5. Deepak Sharma says:
    3 weeks ago

    A collector’s item.
    A most rewarding experience going through this conversation between an ‘informed reader’ and a ‘great master’.
    This is how a so- called interview is conducted, ideally speaking.
    Thank you,Arun Dev ji,for posting it.

    Reply
  6. Anonymous says:
    3 weeks ago

    खालिद जावेद के बहाने उर्दू कथा साहित्य के एक बेहतरीन रचना कार से परिचित कराने के लिए दोनों का शुक्रिया। – हरिमोहन शर्मा

    Reply
  7. Shampa Shah says:
    3 weeks ago

    इतनी असल और पारदर्शी बातचीत है यह☘️ कि इससे न सिर्फ़ खालिद जी के साहित्य को गहराई से जानने– समझने की दृष्टि मिलती है बल्कि साहित्य मात्र के असल सरोकार/ चैलेंजेज क्या होते हैं/ क्या होने चाहिए यह भी समझ में आता है। मसलन, खालिद जी और रिज़वानुल जी ने ‘रावी ’ के संदर्भ से जो बात की है कि किस तरह से रावी के बदलने से बात ही बदल जाती है☘️ या फिर यह कि साहित्य में ‘to know’ से कहीं अधिक महत्व ‘to be’ का होता है☘️ आदि ये कमाल की बातें हैं ।इस बातचीत ने खालिद जी के ताज़ा उपन्यास, ‘अरसलान और बहज़ाद’ के प्रति ऐसी उत्कंठा पैदा कर दी है कि अब इन दोनों से गुज़ारिश है कि इसे जल्द से जल्द हम हिंदी पाठकों के लिए उपलब्ध कराने की कोई सूरत खोजें ☘️☘️☘️
    अरुण देव जी का बहुत बहुत आभार ऐसी स्तरीय चीजों से लगातार मिलवाते रहने के लिए☘️

    Reply
  8. अनिल करमेले says:
    3 weeks ago

    यह सवाल जवाब के साथ शानदार बातचीत है।
    इसे पढ़ कर रचना प्रक्रिया के साथ ही बहुत उपन्यासों की जानकारी भी मिली।

    Reply
  9. Girdhar Rathi says:
    2 weeks ago

    खालिद जावेद, गीतांजलि श्री,विनोद कुमार शुक्ल को मिले सम्मान से हिंदी उर्दू और सभी मूल भारतीय भाषाएं सम्मानित हुई हैं।अब शायद सलमान रुश्दी अगले संचयन के संपादकीय मे ग़ैर-अंग्रेज़ी भारतीय साहित्य को तुच्छ नहीं कहेंगे। पर साहित्य और कला के सम्मान के प्रसंगों से एक विडंबना हमेशा जुड़ी रहेगी। कलाकृतियां वे ही खरीद पाते है जो अरबों खरबों के स्वामी हैं। मूल प्रख्यात कृतियां उन के दीवानख़ानों या तिजोरियों में क़ैद हो रहती हैं।

    Reply
  10. Girdhar Rathi says:
    2 weeks ago

    इसी तरह विडंबना है साहित्य के साथ भी।दशकों पहले दिल्ली में एक ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में सुना था , नीरद चौधरी के मुंह से, कि नोबेल उसकी याद में है जिसने डायनामाइट ईजाद किया था। जेसीबी का पूरा परिचय पता नहीं किसी ने लगाया या नहीं। ब्रिटिश प्र मंत्री बोरिस जानसन की तस्वीर नुमाया हुई थी, गुजरात में जे सी बी, अर्थात बुलडोज़र पर लटक कर खिलखिलाते हुए। बाद में उनकी संसद में सवाल उठे, क्योंकि उ प्र से चल कर , “बुलडोज़र राज ” देशव्यापी हो गया है। उसका लक्ष्य या टार्गेट एक ख़ास जनसमुदाय है।
    । एक भाषा भी उस के ख़ास निशाने पर है। और कल इस पर चकित न हों, अगर कोई छाती ठोंक कर डींग हांकता मिले , कि यह मुमकिन हुआ है क्योंकि….। जेसीबी बुलडोज़र बनाने वाली शायद सब से बड़ी कंपनी है दुनियाभर में।और, एक मित्र ने बताया, किसान अब ट्रैक्टर से अधिक बुलडोज़र खरीद रहे हैं!

    Reply
  11. ओम थानवी says:
    2 weeks ago

    बहुत उम्दा बातचीत। ख़ालिद जावेद कथाकहन का विमर्श बदलने वालों में शुमार हैं।

    Reply

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