• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » खोए  हुए मगध में  एक घायल आवाज़: आशुतोष दुबे

खोए  हुए मगध में  एक घायल आवाज़: आशुतोष दुबे

श्रीकांत वर्मा की कविताओं ने इधर समकालीन अर्थवत्ता प्राप्त की है. शासक और सत्ता की आंतरिक विडम्बनाओं को जिस तीखे ढंग से उनकी कविताओं ने रेखांकित किया है, वह अपूर्व है. कवि आशुतोष दुबे का श्रीकांत वर्मा पर यह आलेख सुचिंतित तो है ही इसमें गद्य का सौन्दर्य भी है. यह कवि का गद्य है. प्रस्तुत है.

by arun dev
October 12, 2022
in आलेख
A A
खोए  हुए मगध में  एक घायल आवाज़: आशुतोष दुबे
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

श्रीकांत वर्मा
खोए  हुए मगध में  एक घायल आवाज़

आशुतोष दुबे

 

ऐसे कवियों के प्रति अक्सर  उत्सुकता रही है जो नितान्त निर्भ्रान्त, अपने रास्तों के प्रति बिल्कुल आश्वस्त, संशयहीन, आत्मविश्वास से छलकते हुए नहीं होते, बल्कि जो अनिश्चय में कुछ  डगमग के साथ अपना सफर शुरू करते हैं, भटक जाते हैं, लौटते हैं, फिर अपना रास्ता खोजते या बनाते हैं. वे खुद को तोड़ते-बनाते, बनते-बिखरते, सहते और कहते हुए स्वयं को अर्जित करते हैं. उनकी इबारतें काटकूट से भरी होती हैं क्योंकि उनके पास कर्ण के जन्मजात कवच कुंडल की तरह नेविगेशन के लिए कोई जन्मजात जीपीएस नहीं होता. उनकी कविताओं में बहुत सी प्रतिध्वनियाँ सुनाई देती हैं और उनका उनसे जूझना भी नज़र आता है. अपने हस्ताक्षर, अपने  स्वर  तक पहुंचने की यात्रा को यही वेध्यता रोचक और रोमांचक बनाती है.

श्रीकान्त वर्मा मेरे  लिए ऐसे ही कवि हैं.

श्रीकान्त वर्मा की कविताएँ पढ़ते हुए कोई अनायास ही उनके रचना समय में, यानी उन्हें जब लिखा गया, उस तत्कालीन साहित्यिक परिवेश में पहुँच सकता है. भटका मेघ का युवा कवि  गीतात्मक बिम्बों और शब्दावली से घिरा हुआ है. यह कविता में आँख खोलता कवि है. ये दृश्य रूमान से आविष्ट हैं और उस समय की प्रचलित  बिम्बमालाओं का समर्थ उपयोग करते हैं. अंकुआए धान, भीत, डबडब अँधेरा, सरिता के कूल, पुरवाई, आषाढ़ी सन्ध्या, तुलसी का चौरा, मुंधियारे की चुप्पी, साँझ के कनेरी बन, उन्मन सुधियाँ आदि से भरपूर यह अपनी एक सजावटी सी उदासी में प्रसन्न संसार है जिसमें कवि-सामर्थ्य के संकेत तो मिलते हैं मगर यह भी दिखाई देता है कि यह प्राप्त संसार फिलहाल कवि के लिए एक पर्याप्त संसार भी है.

भटका मेघ इसलिए एक उल्लेखनीय कविता संग्रह है कि अगर इस संग्रह में ये कविताएँ न आ जातीं तो श्रीकान्त जी अपनी उन कविताओं की ओर न बढ़ पाते जिन्होंने उनके वास्तविक कवि व्यक्तित्व का निर्माण किया. यह एक तरह से मुक्त होने, मुक्ति देने वाला संग्रह है जिसके बाद वे अपनी यात्रा पर निकलते हैं और दिनारम्भ होने लगता है. यह कविता के एक नए दिन का आरम्भ है जिसमें कवि अश्वारोहियों को देख तो नहीं पा रहा लेकिन उसे टापें सुनाई दे रही हैं. आगे वह इन्हें पूरे प्रकाश में देखेगा और पहचानेगा.

दिनारम्भ नई कविता के असर वाले संक्षिप्त और सांद्र, कुछ तिक्त-मुखर, सूक्ष्मता की ओर बढ़ते हुए प्रायः छोटे किन्तु पूर्ण दृश्यबिम्बों का समवाय है. यहाँ कवि प्रयोग की डगर पर बढ़ चला है. उदासी अब भी है पर उसका तेवर बदल रहा है. एक कविता है :

मेरी माँ की डबडब आँखें
मुझे देखती हैं यों
जलती फसलें, कटती शाखें
मेरी माँ की किसान आँखें!

बहुत मामूली दृश्यों को भी काव्यात्मक संयोजन से नए अर्थ मिल रहे हैं. नई कविता  के  इस कवि ने पंक्ति विन्यास के साथ, टाइपोग्राफी के साथ प्रयोग शुरु किए हैं. उसमें एक तरह का विद्रोह भी सिर उठा रहा है जो पूर्वरचित मसृण संसार की प्रतिक्रिया में ही नहीं है, एक तरह की पूर्वानुमेयता से ऊब का भी नतीजा है.

मैं अपने को टटोल कह सकता हूँ दावे के साथ
मैं ग़लत समय की कविताएँ लिखता हुआ
एक बासी दुनिया में
मर गया था.

एक हल्का सा सिनिसिज़्म यहाँ से श्रीकान्त जी के काव्यस्वभाव में प्रवेश करता दिखाई देता है जिसे मायादर्पण की ओर आते आते उत्तरोत्तर बुलन्द होते जाना था. वे अनायास कुछ बहुत धारदार, मारक सूक्तियों की तरफ़ भी बढ़ते हैं जो उनकी कविताओं में कई जगह बिखरी हुई हैं. वे अपनी काव्यशैली में एक भिन्न ढंग से तुकों के लिए भी जगह बनाते हैं. वे बहुत मितकथन से अतिशब्दाचार तक प्रयोगों की एक बड़ी रेंज में जाते हैं, दोहराव और तुकनिनाद से कविता की लय में एक तेज़ घूर्णन, एक गति, एक नाटकीयता पैदा करते हैं. कुछ अकविता वाले असर भी यहाँ दिखाई देते हैं जो तब चलन में रहे होंगे. इसी में वे ‘दिनचर्या’ जैसी विजुअल कविता भी लिखते हैं जिसमें एक अदृश्य टाइपराइटर एक साफ सुथरे काग़ज़ जैसे चढ़ते हुए दिन पर तेज़ी से मकान, घर, मनुष्य छापता चला जाता है और उसके बाद काव्यवृत्त बड़ा होते होते अपनी परिधि में शहरों को, स्त्रियों को, जलाशय को लेता रहता है जब तक कि एक चिड़चिड़ा बूढ़ा थका क्लर्क ऊब कर छपे हुए शहर को छोड़ कर चला नहीं जाता.

मायादर्पण की कविताओं में एक अनिश्चय, एक नैराश्य जो अभी जिजीविषा को परास्त नहीं कर सका है, जैसे इसी संघर्ष की भावी सघनता के  पुरोवाक की तरह आता है. ‘घर-धाम’ कविता में व्यर्थता बोध से जूझते हुए कवि कहता है कि

मैं जीना चाहता हूँ
और जीवन को
भासमान करना चाहता हूँ.

अनेक सकर्मक प्रतिज्ञाओं के बाद वह कहता है:

मैं समूचा आकाश
इस भुजा पर
ताबीज की तरह
बाँध
लेना चाहता हूँ.

‘नकली कवियों की वसुंधरा ‘में निषेधपरक आक्रोश की झुलसा देने वाली आँच ऐसी कविता और कवियों को भस्म कर डालने पर आमादा है. जिस वक्त वसुंधरा पर अंधकार बरस रहा है, टोकरी के नीचे कवि बांग दे रहे हैं. यह धिक्कार फटकार और कवि-रोष नक़ली वसन्त के झरते हुए गोत्रहीन पत्तों का स्वागत-गान गा रहे समकालीन कवितापरिदृश्य के क्रिटीक को एक उच्च स्वरमान पर ले जाता है जो किंचित अतिरंजित लगते हुए भी विचलित करने की शक्ति रखता है.

यह नहीं कि एक आसानी के बतौर वे मात्र समकालीन परिदृश्य पर ही कोई निर्णय सुना रहे हैं, स्वयं को भी वे कभी, किसी भी स्थिति में कोई रियायत नहीं देते. श्रीकान्त जी की कविताओं में एक कठोर आत्मपरीक्षण भी निरन्तर चलता रहता है. बल्कि यह निर्ममता कभी-कभी कुछ अतिरिक्त भी  नज़र आ सकती है. यह एक विचित्र संयोग है कि श्रीकान्त जी तत्कालीन सत्ता पक्ष के प्रवक्ता रहे थे किन्तु उनकी कविता इस बात की गवाह है कि वे हमेशा खुद के प्रतिपक्ष में रहे. उनके ‘अन्य’ ने उनके विचलनों, चुप्पियों, समझौतों, कामनाओं और निराशाओं पर कड़ी निगाह रखी है.

श्रीकान्त जी ने  भारतीय राजनीतिक इतिहास के कुछ बहुत ही हलचल और उत्थान-पतन से भरे वर्षों में सत्ता के शिखर व्यक्तित्वों  का साहचर्य देखा-जिया था. हिन्दी  कविता ही नहीं समूचे हिंदी साहित्य में वे ऐसे अकेले रचनाकार हैं. उस प्रेक्षण स्थल  से उन्होंने शासकों को भी देखा, शासितों को भी.  निर्मम आत्मालोचन की और झुकी हुई एक संवेदनशील, प्रखर मेधा राजनीतिक कॅरिअरिज़्म के जंगल में, जंगल के कानूनों का आखेट ही हो सकती थी और ऐसा होते हुए जो लड़ाई वे अपने भीतर लड़ते रहे होंगे, उसकी कल्पना ही की जा सकती है. उनकी कविता को यदि मैं आत्म-प्रतिपक्ष की कविता कहूँ तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी.अपनी सीमाओं का वेध्य स्वीकार जो कभी कभी स्वीकारोक्ति के स्वर में  और कभी एक क्षुब्ध हठीलेपन के साथ आता है- उनकी कविताओं में बार-बार लक्षित किया जा सकता है.

मैंने नहीं किया
वह सब
जो करना था
(वापसी)

मैं अब हो गया हूँ निढाल
अर्थहीन कार्यों में
नष्ट कर दिए
मैंने
साल-पर-साल
न जाने कितने साल !
( घर-धाम)

__

मैं हरेक रास्ते पर कुछ दूर
चल कर
पाता हूँ
यह रास्ता
ग़लत था.
(एक दिन)

__

मुझे न औरों से प्रेम है
न अपने से !
(अन्तिम वक्तव्य)

__

मैं अकेला नहीं था !
मेरे साथ एक और था
जो साथ-साथ
चलता था  और कभी कभी
मुझे अपनी जेब में
एक गिरे हुए पर्स सा
उठाकर रख लेता था !
मैं जानता हूँ
हरेक की नियति ही यही है
कि  कोई  और उसे
खर्च करे.
(समाधि लेख)

पर जो यह जानता है- वह खर्च नहीं होता, बच जाता है. पर यह बचना, न बच पाने से अधिक त्रासद है. यह भ्रम भंग, यह अविश्वास और अनिश्चय, यह संशय, चयन और निर्णय की दुविधाएँ, कविता में मृत्यु रोपने का बोध, यह अपने ही बनाए रास्तों को अपनी ही पीठ पर लाद कर वापस आ जाना, यह बोध कि त्राण प्रेम में भी नहीं क्योंकि वह भी ‘अकेले होने का ही एक और ढंग है’, आसपास से इतनी विकट ऊब, अपने ‘अन्य’ का बेचैन अनुभव, यह अहसास कि एक दिन पाने की विकलता और न पाने का दुख दोनों ही अर्थहीन हो जाते हैं, अपनी विफलताओं के प्रणेता होने का आत्मबोध, यह स्वीकार कि ‘जो मुझसे नहीं हुआ वह मेरा संसार नहीं’, परदुःखकातरता का असामर्थ्य: श्रीकान्त जी की कविताओं  में खुद से जूझने लड़ने, हारने बिखरने और खुद को समेटने की एक यातनापूर्ण, जानलेवा लड़ाई लगातार चलती रहती है. इस अर्थ में वे शायद अकेले ऐसे कवि हैं जो निर्ममता से, बिना पॉलिटिकल करेक्टनेस की फ़िक्र किए, अपनी वेध्यता का  निष्कम्प मगर विचलित कर देने वाला का सार्वजनिक इज़हार करते हैं और यह तब बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब हम एक ऐसी काव्य पृष्ठभूमि में उन्हें पढ़ते हैं जहाँ अधिकांश कवि बिल्कुल दुरुस्त बातें दुरुस्त ज़ोर दे कर कहते हुए आत्मपावनता और आत्मऔचित्य और शहादत के आलोक वृत्त में जगमगाते रहते हैं और इस जगमगाहट के पीछे किसी भी तरह का आत्मसंघर्ष नहीं, कतिपय स्वीकृत, अनुमोदित और अपेक्षित काव्यमुद्राओं और वक्तव्यों का होना ही पर्याप्त समझा जाता है.

एक वास्तविक कवि सदैव निर्भ्रान्त हो, यह ज़रूरी नहीं है. श्रीकान्त जी जैसा अपनी ही शल्यचिकित्सा करने वाला कवि जो अपनी वेध्यता को हमेशा सार्वजनिक करने में नहीं हिचकिचाता, उसमें तो ऐसी जगहें मिलना बहुत स्वाभाविक हैं जो एक दूसरे से विपरीत दिशाओं में भी जाती हुईं लगें. जो कवि एक तरह के हठ में घोषित करता है कि जो मुझसे नहीं हुआ, वह मेरा संसार नहीं और जिसने पराए दुख को अपना मानने में अपनी असमर्थता को बहुत संकोच से नहीं बल्कि एक तरह के दुस्साहस से स्वीकार किया हो;  किसी मोड़ पर उसी का उलाहना, उसी का व्यंग्य उन लोगों के लिए है जिन तक भयानक ख़बरें नहीं पहुंची हैं:

मुबारक हो उन्हें वह समय
जिन्हें सब कुछ
सुनाई पड़ता रहा-
यहाँ तक कि पत्ते का गिरना भी-
केवल सुनाई नहीं पड़ी
उस स्त्री की चीख़ जिसका पति
घर से निकलते ही ढेर कर दिया गया

मायादर्पण से जलसाघर तक आते आते कवि की  गढ़न में बहुत फर्क आया है. जलसाघर में,  जो 1973 में आया कविता संग्रह है, दिनारम्भ में पहली बार दिखाई पड़ा  वह अश्वारोही  घुड़दौड़ का विजेता बन कर आता है जिसके सीने पर पैर टिका कर घोड़ा पूछता है : विजेता है कौन? तुम या मैं ?  यही आगे चल कर ट्रॉय के घोड़े में बदल जाता है जिसके अन्दर दस हज़ार घोड़े और सौ हज़ार सैनिक और भी हैं. यह अश्व और यह अश्वारोही श्रीकान्त जी की कविता के  ‘लाइट मोटीफ’  जैसा है जो अपनी आक्रामकता और  विजयलिप्सा में कभी बाबर कभी अशोक, कभी और कोई इतिहास पुरुष बन जाता है. दूसरे जिस बिम्ब की पुनरावृत्ति होती रहती है वह है रास्ता.  गंतव्य का रास्ता  जो कि अब  मिल नहीं रहा क्योंकि उसकी दिशा अब रैखिक नहीं वर्तुल है.  कविता का भूगोल यहाँ  विस्तार लेते हुए तमाम वैश्विक उथलपुथल, हलचलों,  युद्धों को अपनी व्यापक बेचैनी में  दर्ज करता है जहाँ शांति मोरपंखों की तरह किताबों के बीच रखी हुई है और युध्द पृथ्वी की एक एक सड़क पर भागते हुए मनुष्य का पीछा कर रहा है. कवि इस सत्य के सामने हतप्रभ है कि

‘सम्भव नहीं है
कविता में वह सब कह पाना
जो घटा है
बीसवीं शताब्दी में मनुष्य के साथ!
काँपते हैं हाथ !’ ( युध्द नायक)

इस तरह  कवि के आत्मसंशय का स्वर धीरे-धीरे उस दुर्घटना के रिपोर्टर के उद्विग्न स्वर में बदलता है जो दुनिया भर के मनुष्यों के साथ एक ही समय में घट रही है. एक तरह के त्रास का कठिन वातावरण इन कविताओं में छाया हुआ है किन्तु श्रीकान्त वर्मा इस त्रास और यातना से ख़बरदार करते हुए भी उसके प्रतिकार के किसी कार्य प्रस्ताव की दिशा में नहीं जाते. कह सकते हैं कि  यह उनका संसार नहीं है.  इन भयानक  समाचारों  और दृश्यों का पर्यवसान  ऐतिहासिक चरित्रों और स्थानों की एक नई  मिथकीय स्पेस रचाने में होता है. देश को खो कर जिस कवि ने कविता प्राप्त की थी, वह चेकोस्लोवाकिया, वियतनाम, स्पेन, कांगो की वैश्विकता के समानांतर अपने देश की प्राचीनता के एक मिथकीय प्रतिसंसार में समकालीनता की विडम्बनाएँ ढूँढता है.

मगध एक खोया हुआ मगध है. काशी में शव जिस रास्ते से जाता है उसी से वापस आता है. वासवदत्ता कोसाम्बी का पता पूछ रही है. हस्तिनापुर में कोई किसी की नहीं सुनता मगर उसका एक शत्रु है- विचार, जो उसी के भीतर पल रहा है. मिथिला में अब विदेह का नहीं सन्देह का राज है. कपिलवस्तु एक स्वप्न है. कोसल सिर्फ़ कल्पना में गणराज्य है मगर उसमें विचारों की कमी है और इसलिए वह अधिक दिन टिक नहीं सकता. अवन्ती काशी की तरह आधी है. डोम मणिकर्णिका को सान्त्वना दे रहा है. और कवि ठीक ठीक तो नहीं बताता कि तीसरा रास्ता कौन सा है मगर इतना ज़रूर कहता है कि वह मगध अवन्ती कोसल या विदर्भ होकर नहीं जाता.

ये झूलती हुई, बहती हुई, एक दूसरे में घुलती मिलती जगहें हैं जो अपनी ऐतिहासिक भौतिक स्थिति के बरक्स नागरिक पराभव, निष्क्रियता, शासकों  के  छद्म और पाखंड के रूपक प्रदेश हैं. इन जगहों में वसन्तसेना, अम्बपाली, रोहिताश्व, अशोक, बिंबिसार, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त अपनी ऐतिहासिक छवियों के भीतर और बाहर आ जा रहे हैं. श्रीकांत जी  इस तरह अनुभव की निकटता को  एक विगत, विस्मृत जगह में रीलोकेट  करते हैं  और उसे एक ऐतिहासिक वर्तमान में बदलते हैं.  यह महज़ ‘इग्जॉटिक’ की आस्वादपरक युक्ति नहीं है. काल्पनिक अतीत के गवाक्ष से  प्रसारित किया जा रहा यह  वर्तमान का आँखों देखा हाल है  जिसमें  कवि  की पीड़ा सिर्फ यही नहीं है कि  राज करने वाले दुराचरण करते हुए सदाचार की चर्चा चलाए रखे हुए हैं या असत्य कहते, करते और जीते हुए सत्य के लिए मर मिटने की आन  बनाए रखे हुए हैं ; बल्कि यह है कि  कोसल, जो सिर्फ कल्पना में गणराज्य रह गया है- उसके नागरिक दिन भर जुआ खेलते  हैं, किस्से गढ़ते हैं, खीझते हैं, अतीत पर पुलकित होते रहते हैं और ऊँघते रहते हैं. यह तय है कि  विचारहीनता  कोसल को अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहने देगी.  सूक्तियां यहाँ बहुत पैने ढंग से आती हैं :

जो बचेगा, कैसे रचेगा?
__

जो सोचेगा
सिहरेगा.
_

एक बार शुरु होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप
__

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ.
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है-
मनुष्य क्यों मरता है?

श्रीकान्त वर्मा पर उनकी समकालीन काव्यप्रवृत्तियों का असर भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.  कहा जा सकता है कि वे धूमिल, अज्ञेय और मुक्तिबोध के त्रिकोण का  चौथा कोण हैं.

उनमें धूमिलीय अकविता वाला, अतिमुखर व्यंग्य और अकविता  में व्याप्त स्त्री के प्रति कुछ तिरस्कार से भरा स्वर भी लक्षित किया जा सकता है. वे एकाधिक जगह मूर्ख स्त्रियों का या अपनी उम्र बढ़ना रुकने के लिए प्रार्थनारत स्त्रियों का ज़िक्र करते हैं और स्त्रियाँ रिझाऊ कविताएँ लिखने के लिए अप्रासंगिक कवियों की मज़म्मत करते हैं. परवर्ती अस्मिता विमर्श से अनुकूलित पाठक यहाँ अचकचा  सकता है. ‘दिनचर्या’ जैसी कविताएँ नई कविता की प्रयोगशीलता और बिम्बधर्मिता में पगी हैं. एक बड़े कैनवास की कविता ढूँढते हुए वे मुक्तिबोध जैसी फंतासियों की तरफ़ भी बढ़ते हैं.
‘चेकोस्लोवाकिया’ और ‘युद्धनायक’ जैसी कविताओं की भंगिमा नेरुदीयन है जबकि टी एस एलियट की तरह बीसवीं सदी के घमासान और घटाटोप की ओर संकेत करने वाले भग्न बिंबों के कोलाज भी उनके यहाँ मौजूद हैं.  यह  मगध है जहाँ वे अपनी आवाज़ में मुख़ातिब होते हैं ; जहाँ वे तमाम समकालीन  सन्दर्भों और विडंबनाओं को एक प्राचीन समय के  रंगमंच पर अपनी भूमिकाएँ निभाने के लिए ले आते  हैं. जहाँ हर  पंक्ति पिछली पंक्ति का विरोध करती हुई  लगभग वृत्त बनाते हुए अगली पंक्ति तक जाती है जो वह स्वयं थी:

‘कोसाम्बी के पहले
केवल
कोसाम्बी थी
कोसाम्बी के बाद केवल कोसाम्बी है
कोसाम्बी के बदले
केवल
कोसाम्बी
मिल सकती है
कोसाम्बी का पता पूछती
वासवदत्ता
कोसाम्बी तक
पहुँच गई है.’ या ‘ मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है.’

यह वह मगध नहीं जो स्वप्न है ; यह खोया हुआ, गंवाया हुआ मगध है और उसे खोजने वाला भी अब पहचान के बाहर, एक अजनबी की यातना में भटक रहा है.  क्षति का यह बोध श्रीकान्त वर्मा के मगध का नाभिक है. उनकी कविता है: ‘अवन्ती में अनाम’

क्या इससे कुछ फ़र्क पड़ेगा
अगर मैं कहूँ
मैं मगध का नहीं
अवन्ती का हूँ
अवश्य पड़ेगा
तुम अवन्ती के मान लिए जाओगे
मगध को भुलाना पड़ेगा
और तुम
मगध को भुला नहीं पाओगे
जीवन अवन्ती में बिताओगे
तब भी तुम
अवन्ती को जान नहीं पाओगे
जब तुम दोहराओगे
मैं अवन्ती का नहीं
मगध का हूँ
और कोई नहीं मानेगा
बिलबिलाओगे-
‘मैं सच कहता हूँ
मगध का हूँ
मैं अवन्ती का नहीं’
और कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा
मगध के
माने नहीं जाओगे
अवन्ती में
पहचाने नहीं जाओगे

मगध के लोग अक्सर पैसिव हैं. वे खोए हुए लोग हैं जो रास्ता पूछते हैं और पहुँचते कहीं नहीं. शासकों की नीति है कि नीति पर चर्चा चलाए रखें और दुर्नीति से काम लेते रहें.इससे बेखबर मगध के वासी इतिहास की हड्डियाँ टटोल रहे हैं कि  कौन सी अशोक की है और कौन सी चंद्रगुप्त की : तभी तो आगे चल कर मूर्ख एक किंवदंती के लिए झगड़ सकेंगे. मगध की अधिकांश पंक्तियाँ प्रश्नवाचक हैं. इन प्रश्नों के उत्तर में प्रतिप्रश्न हैं. यह प्रश्नों  की शरशय्या  है. यहाँ  मुर्दा भी यह प्रश्न करके हस्तक्षेप  कर सकता है कि  आदमी क्यों मरता है ? यहाँ कोई पंक्ति कठिन नहीं और समवेत में कोई सरलता नहीं.  यह एक ऐसे कठिन जीवन की  सरल कविता है जिसके उतने ही जटिल भाष्य को  बहुत सी तिक्तता, मोहभंग, महत्वाकांक्षा के छल, क्षति के जानलेवा अनुभव और खुद को दाँव पर लगा कर हार जाने की पीड़ा ने जटिलतर बनाया है. यहाँ  शहादत जैसा कोई आत्मगौरव या आत्म-औचित्य प्रदर्शित नहीं किया गया है जैसा श्रीकान्त जी के ही कुछ समकालीनों में लक्षित किया जा सकता है. यह कवि अपने चुनावों का मूल्य देना और देते हुए न छिपना  जानता है.

श्रीकान्त जी ने अपनी कम उम्र में तमाम व्यस्तताओं और बाधाओं के बीच काफ़ी कुछ रचा है. उन्हें पढ़ते हुए कई बार लगा है कि वे बहुत अच्छे काव्यनाटक भी दे सकते थे. उनकी कुछ कविताओं का नाटकीय विन्यास इस ओर संकेत करता है. जोसेफ़ अब्रकुआ और अन्य कविताओं में भी वे लगभग एक नाटकीय तनाव निभाते हैं जो अपने सररिअल विन्यास में अलग असर छोड़ता है.

1967 में आए मायादर्पण में ही श्रीकान्त जी अपना समाधि लेख लिख गए थे:

‘शरीरान्त से पहले मैं सब कुछ निचोड़ कर उसको दे जाऊंगा जो भी मुझे मिलेगा. मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता; मेरे न होने से कुछ भी नहीं हिलेगा. मेरे पास कुर्सी भी नहीं जो खाली हो. मनुष्य वकील हो, नेता हो, सन्त हो, मवाली हो- किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता.’

आशुतोष दुबे
1963

कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे, सिर्फ़ वसंत नहीं.
कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी.
अ.भा. माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, केदार सम्मान, रज़ा पुरस्कार,वागीश्वरी पुरस्कार और स्पंदन कृति सम्मान.
अनुवाद और आलोचना में भी रुचि.
अंग्रेजी का अध्यापन.

सम्पर्क:
6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर – 452001 ( म.प्र.)

ई मेल: ashudubey63@gmail.com

Tags: 20222022 आलेखआशुतोष दुबेकविता और राजनीतिकविता और सत्ताश्रीकांत वर्मा
ShareTweetSend
Previous Post

देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह

Next Post

भारतीय राजनीति, लोकतंत्र और शाहीन बाग़: मुकुल सरल

Related Posts

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.
विशेष

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

पंकज सिंह: सर ये नहीं झुकाने के लिए:  रविभूषण
संस्मरण

पंकज सिंह: सर ये नहीं झुकाने के लिए: रविभूषण

छोटके काका और बड़के काका:  सत्यदेव त्रिपाठी
संस्मरण

छोटके काका और बड़के काका: सत्यदेव त्रिपाठी

Comments 12

  1. विनोद मिश्र says:
    8 months ago

    आशुतोष दुबे ने बहुत उम्दा रचा है।सुगठित और सुपठित।

    Reply
  2. विनय कुमार says:
    8 months ago

    श्रीकांत वर्मा के रचना संसार को पूरेपन में समझने-समझाने का काम। लोग अक्सर उनके वाक्यों की तख़्तियाँ उठाए उन्हें प्रतिरोध के मुहावरे से जोड़कर reduce कर देते हैं। आशुतोष जी ने उनकी यात्रा की मुश्किलों की गहरी पड़ताल की है।

    Reply
  3. मनोज मोहन says:
    8 months ago

    यह शानदार लेख है…

    शोर

    मैं जहाँ जा रहा हूँ
    वहाँ मेरा घर नहीं है
    जहाँ मेरा घर होता था
    वहाँ स्मृतियाँ अस्थियों में बदलती चली गयी हैं
    और…
    इंद्रप्रस्थ में शोर बढ़ता जा रहा है

    Reply
  4. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    8 months ago

    आशुतोष दुबे को पढ़ते हुए मुझे लगता रहा है कि श्रीकांत वर्मा का एसेंस उनमें थिरा कर नया हुआ है।
    समकालीनता के बोध में निहित व्यंग्य को ये दोनों बड़ी शाइस्तगी से उभारते हैं

    Reply
  5. अम्बर पांडेय says:
    8 months ago

    मुझे वर्मा की पंक्तियाँ समझ में आती थी मगर कविता समग्रता में हमेशा मुझसे छूट जाती थी। अन्वय नहीं हो पाता था।
    इसका उत्तर मुझे आज आशुतोष जी का लेख पढ़कर मिला है। यह बात एक बात मैंने कही भी थी। मुक्तिबोध में कई पंक्तियाँ समझ नहीं आती मगर कविता समझ में आती है, वर्मा में मामला ठीक उल्टा है।
    आशुतोष जी अत्यंत समर्थ आलोचक है, उनके कम लिखने के कारण कई छूटभैये आलोचक का तमग़ा लगाए मटकते फिर रहे है। वे और ज़्यादा आलोचना लिखे इस कामना के साथ आपका आभार।

    Reply
  6. अच्युतानंद मिश्र says:
    8 months ago

    पिछले दिनों एक आयोजन में इस लेख को सुनने का अवसर मिला था, तब भी यह महसूस हुआ था कि अच्छी आलोचना कविता के संगीत को, उसके अंतर कथन को उभारती है. आमतौर पर बहुत सी आलोचना कविता का एक बेसुरा पाठ सामने रखती है, वह बहुत अधिक बोलती है. आशुतोष दुबे जी का यह लेख कविता के संगीत को, उसके आरोह-अवरोह को, उसकी गतिमयता को, उसकी चुप्पी को बारीकी से हमारे सामने रखता है. इस लेख को पढ़कर श्रीकांत वर्मा की कविता को पढने की तलब जगती है .

    Reply
  7. दयाशंकर शरण says:
    8 months ago

    श्रीकांत वर्मा अपने समकालीनों से कम चर्चित रहे।उनके
    जीवन का आखिरी दशक राजनीतिक रहा।संभव है,यह
    भी एक कारण रहा हो।हालाँकि उनकी कविताएँ सत्ता
    संस्कृति में रहते हुए मनुष्य के आत्मसंघर्ष एवं उसकी
    आत्मस्वीकृतियों की अभिव्यक्ति हैं।एक अच्छा सुविचारित
    आलेख। आशुतोष जी एवं समालोचन को साधुवाद!

    Reply
  8. दयाशंकर शरण says:
    8 months ago

    श्रीकांत वर्मा अपने समकालीनों से कम चर्चित रहे।उनके
    जीवन का आखिरी दशक राजनीतिक रहा।संभव है,यह
    भी एक कारण रहा हो।हालाँकि उनकी कविताएँ सत्ता
    संस्कृति में रहते हुए मनुष्य के आत्मसंघर्ष एवं उसकी
    आत्मस्वीकृतियों की अभिव्यक्ति हैं।एक अच्छा सुविचारित
    आलेख। आशुतोष जी एवं समालोचन को साधुवाद!

    Reply
  9. रविन्द्र व्यास says:
    8 months ago

    क्रिटिकल जार्गन से भरसक अपने को बचाते हुए आशुतोष दुबे की यह टिप्पणी श्रीकांत वर्मा की कविता के मर्म तक पहुंचाने की विनम्र कोशिश करती है। मुझे यह एक आलोचक से ज्यादा एक सहृदय कवि की सुंदर और रचनात्मक चेष्टा दिखाई देती है जो कविता के रास्ते पर ठिठक ठिठक कर सचेत लेकिन संवेदनशील सहजता-सरलता से कविता की परतें देखती दिखाती चलती है।

    Reply
  10. शिव किशोर तिवारी says:
    8 months ago

    श्रीकांत वर्मा के लिए मेरे मन में श्रद्धा कुछ कम है। ‘न जांत पर न पांत पर/इंदिरा जी की बात पर/ मुहर लगेगी हाथ पर’ ही उनकी कालजयी कविता लगती रही है।
    परंतु यह लेख बहुत अच्छा है और मेरे अंदर श्रीकांत वर्मा को नये सिरे से पढ़ने की कामना जगाता है।

    Reply
  11. Anonymous says:
    8 months ago

    बहुत सुंदर आलोचना-लेख। मगध के इतिहास और प्राचीन पराक्रम के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक राजनीति और सत्ता-वैचारिकी का निश्चित रूप से यह अद्भुत विश्लेषण है। अशुतोष जी अपनी गद्यभाषा और राजनीतिक युग-बोध से चमत्कृत करने वाले रचनाकार हैं। साहित्येतर विधाओं पर उनके चिंतन की व्यापकता भी उनके साहित्यिक लेखन के असर में इज़ाफ़ा करती है।

    श्रीकांत वर्मा हाल-फ़िलहाल की पीढ़ी के लिए अल्प-पठित रचनाकारों में एक हैं। उनका इतिहास-बोध – जो कि कभी उनकी कविताओं का सबल पक्ष माना जाता था – आज उनको पढ़ने के मार्ग का अवरोधक माना जाने लगा है। ऐसे लेख इस अर्थ में भी उपयोगी हैं कि ये कविताओं की कथित दुरूहता को सुगम बनाते हैं। मैं ख़ुद भी इस लेख के बहाने श्रीकांत वर्मा के समय और लेखन को नए सिरे से समझने का प्रयास कर रहा हूँ। अग्रज अशुतोष जी और अरुण देव जी – दोनों को बहुत धन्यवाद।

    Reply
  12. सुमित त्रिपाठी says:
    7 months ago

    श्रीकांत वर्मा पर लेख पढ़ने को मिल जाए यह मुश्किल है। उनका मूल्यांकन काँग्रेस से उनकी नज़दीकियों के आधार पर अधिक होता है कविताओं के आधार पर कम। वह एक महत्वपूर्ण कवि हैं और उत्कृष्ट काव्य उन्होंने रचा। इस लेख के लिए धन्यवाद।

    Reply

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक