छापा कलाकार श्याम शर्मा से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत |
यह कहानी है उनकी जिन्हे पूरा पटना ‘स्कूटर वाले बाबा’ के नाम से पुकारता है, मैं श्याम अंकल के नाम से पुकारती हूँ और आप सब जिन्हें पद्मश्री प्रोफेसर श्याम शर्मा के नाम से जानते हैं. श्याम अंकल पटना के बच्चों में स्कूटरवाले बाबा के नाम से इसलिए लोकप्रिय हैं कि 82 साल की उम्र में भी, आज भी अंकल को कहीं जाना हो तो वो अपने चिर-परिचित स्कूटर से आपको पटना में घूमते हुए दिख जायेंगे और वह भी पूरे स्टाइल, एटिट्यूड, स्वैग और टशन में.
आप उनके स्टूडियो में जाएँ तो ८० वर्ष के यह चिरयुवा हर रोज़, हर पल, हर क्षण आपको कुछ न कुछ नया रचते हुए मिल जायेंगे. अंकल पर उम्र का जैसे कोई असर ही नहीं हुआ है. उम्र उनके लिए एक संख्या भर है बस. श्याम अंकल के साथ मेरे बीते हुए वक़्त में उनकी कला यात्रा से जुड़ी इतनी कहानियाँ हैं कि लिखने बैठूं तो कभी ख़त्म ही न हों. पद्मश्री मिलने के बाद से ही मैं उनका एक विधिवत इंटरव्यू करने के लिए सोच रही थी जो अब जाकर मुक़म्मल हो पाया है.
1.
ललित कला की अन्य विधाओं की जगह आपने छापा कला को ही क्यों चुना?
जीवन में और विशेष रूप से कला में यादों का महत्वपूर्ण स्थान होता है. स्मृतियाँ चाहें कल की हों या बचपन की या किसी भी समय की. मेरा जन्म बड़े धार्मिक स्थान गोवर्धन में हुआ. हमारे यहाँ एक हामिद चाचा हुआ करते थे जिनकी साइनबोर्ड की दुकान थी और वो हर भाषा में साइनबोर्ड लिखा करते थे और लिखने के बाद स्टेंसिल से उस लिखावट के चारों ओर मोर, सुग्गा, तोता-मैना की आकृतियां बनाते थे. यह सब मेरे बाल-मन को बिलकुल जादुई लगता और बहुत प्रभावित भी करता, फिर माँ घर में पूजा-पाठ में दीवार पर गोबर से हाथ के छापे बनती और कहतीं कि इसे प्रणाम करो यहाँ देवी माँ हैं.
मुझे यह आकृति, यह छापा सुन्दर तो लगता लेकिन यह समझ मे नहीं आता कि इस छापे में देवी माँ कहाँ से और कैसे आ जाती हैं या फिर कैसे बसती हैं. फिर हमारे यहाँ जो मंदिर था उसकी एक दीवार पर गोबर की आकृति बनाकर हाथ का एक छाप मार देते थे. फिर माँ को उपले पर हाथ का निशान बनाते देखता और यह सब मुझे विचित्र लगता.
पिताजी का प्रिंटिंग प्रेस था बरेली में तो छपाई की कला को मैंने बहुत नज़दीक से देखा. पिताजी के प्रिंटिंग प्रेस को देखने के पहले मुझे छापा कला के बारे में कुछ नहीं पता था. पहली बार पिताजी के प्रिंटिंग प्रेस में ही मैंने लकड़ी और ज़िंक के ब्लॉक्स देखे. फिर आगे की पढ़ाई के लिए जब मैं लखनऊ गया तो देखा कि वही तकनीक समृद्ध रूप से पढ़ाई जा रही हैं तो मुझे लगा कि इस काम को तो मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ और यह मैं बहुत अच्छे से कर सकता हूँ और इस तरह मैंने अपने लिए छापा-कला का चयन किया.
मैं छापा कला में अपने महाविद्यालय के पहले बैच का विद्यार्थी था. जब मैंने इस विषय का चयन कर लिया तो इस कला में धीरे-धीरे मैं प्रवीण होने लगा, मेरी रचनात्मकता बढ़ने लगी. व्यवसायिकता मे जब कला जुड़ जाए तो कला आगे बढ़ने लगती है.
2.
अपनी रचनात्मक यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों और राह में आनेवाली मुश्किलों के बारे में बताएं ?
विचारों के बनने में स्मृतियाँ बड़ी भूमिका अदा करती हैं. तुमने मुझे एक बार अपनी कविता सुनाई थी जिसकी पहली पंक्ति थी- ‘यादों के कैनवस खुलने लगे हैं.’ तो तुमने आज मेरी यादों के कैनवस खोल दिए हैं. जैसा कि मैंने तुम्हें बताया मेरी बचपन की स्मृतियों का मेरी मेकिंग में बड़ा योगदान है. मेरी बचपन की स्मृतियाँ जो कहीं अवचेतन में बैठी थीं आर्ट कॉलेज आकर पुनः मुखरित होने लगीं.
मैंने अपने छापा कला की पहली प्रदर्शनी तब लगाईं जब मैं पंचम वर्ष का छात्र था और मेरी पेंटिंग पर पद्मश्री दिनकर कौशिक जी ने उस समय लिखा था. फिर मेरे एक प्रिंट मेकिंग के शिक्षक थे प्रोफ़ेसर जयकृष्ण उन्होंने मेरा कुछ काम कलकत्ता भेज दिया. वहां उस ज़माने में एक प्रदर्शनी होती थी. यह १९६६ की बात होगी. गेस्ट कीन विलियम्स ने भारत के सारे आर्ट कॉलेज के कार्यों को कम्पाइल करने के उद्देश्य से यह काम किया जिसमे प्रोफ़ेसर जयकृष्ण ने मेरे कुछ प्रिंट भेज दिए थे और १९६६ में ही एक कैलेण्डर छपा जिसके कवर पर मेरा प्रिंट छपा था. यह मेरी कला यात्रा के सबसे महत्वपूर्ण पड़ावों में से एक था.
बीच-बीच में मैं कलकत्ते आता-जाता रहा और वहां के उस समय के बड़े कलाकारों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखता रहा. इसी बीच पटना आर्ट कॉलेज में छापा कला विभाग की स्थापना के लिए मैं १९६६ के सितम्बर-अक्टूबर में लेक्चरर बनकर पटना आ गया जहाँ मेरे ऊपर यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि मैं यहाँ आर्ट कॉलेज में प्रिंट मेकिंग की पढाई शुरू करवाऊं.
यहाँ प्रिंट मेकिंग की पढ़ाई नहीं होती थी और नया माध्यम होने की वजह से छात्र रूचि नहीं लेते थे. बहुत मुश्किल था वन मैन शो करना जो कि मैं कर रहा था. मैं प्रिंट मेकिंग को अपना जीवन समर्पित कर चुका था और तन-मन-धन (हँसते हु – हालाँकि धन उस समय होता नहीं था, जीवन अभावों में ही कट रहा था) से प्रिंट मेकिंग की सेवा में लगा था और देश-विदेश के कलाप्रेमियों तक भारत के प्रिंट मेकिंग को पहुंचाने का इरादा रखता था. उस समय मुझे हरिवंशराय बच्चन की मधुशाला की एक पंक्ति सदा प्रेरणा देती थी-
“राह पकड़ तू एक चला चल
पा जायेगा मधुशाला. “
मैं निरंतर चलता रहा, चलता रहा. कई मोड़, कई ठहराव, कई पड़ाव आते गए मेरी कला यात्रा में पर मैं चलता ही रहा. कभी हार नहीं मानी. आज भी चलता ही चला जा रहा हूँ.
१९८८ में ललित कला अकादेमी से मेरे प्रिंट को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. इसके पहले १९८१ में मैं हेलसिंकी गया और विदेशों में छापा कला की ऊंचाईयों को देखा, जाना, समझा. दिल्ली में ८० के दशक में कला त्रैवार्षिकी नामक एक कार्यक्रम कम कार्यशाला होती थी जिसमें मैं पटना आर्ट कॉलेज के अपने विद्यार्थियों को लेकर गया. विद्यार्थियों के साथ-साथ मैं खुद भी सीखता रहा.
पटना आर्ट कॉलेज में रहते हुए मैं लेक्चरर से अस्सिस्टेंट प्रोफ़ेसर बना और सन २००० में पटना आर्ट कॉलेज के प्राचार्य के पद से सेवानिवृत हुआ. इस बीच नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट की एडवाइजरी कमिटी का चेयरमैन रहा, ललित कला अकादेमी की कई कमिटियों में रहा, ५ टर्न में ललित कला अकादेमी का मेंबर रहा. यही मेरी छोटी-सी यात्रा है.
3.
जहाँ तक मैं आपको जानती हूँ आप विशुद्ध रूप से कलाकार हैं, पूर्णरूपेण कलाप्रेमी हैं प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करना आपके लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा?
बिलकुल सही कहा तुमने बेटा, ये जो प्रशासनिक ज़िम्मेदारियाँ मुझे दी गईं वह सब मेरी मानसिकता के प्रतिकूल थीं इसलिए मेरे सामने चुनौतियां भी बड़ी थीं लेकिन जब ज़िम्मेदारियाँ आ गईं थीं तो उन्हें भी मैंने पूरे मनोयोग से निभाया और निभाकर फटाफट मुक्त होकर पुनः अपने कला-कर्म में लग गया.
4.
आप अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताएं ?
मेरी रचना प्रक्रिया देखने से शुरू होती है. मैं देखने पर बहुत ज़ोर देता हूँ. दृश्य कला में देखने का, दृष्टि का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है. विचार स्पंदित होते हैं और एक कांसेप्ट मिल जाता है देखने के लिए. मैं चीज़ों को बहुत (minutely) सूक्ष्म रूप से देखने की कोशिश करता हूँ. मेरे चित्र स्वतः स्फूर्त होते हैं, चूंकि मेरे चित्र प्री कंसीवड नहीं होते इसलिए पूर्वाग्रहमुक्त भी होते हैं. दूसरी बात, मेरी रचना प्रक्रिया की सबसे मुख्य बात यह है कि मैं अपने प्रिंन्ट मेकिंग के लिए इंडिजेनस तकनीक अर्थात देसी तरीका अपनाता हूँ.
मशीनों के आगमन के पूर्व भारत में हाथ से छपाई होती थी और मुझे निजी तौर पर हाथ की छपाई ज़्यादा पसंद है, मेरे दिल को भाती है इसलिए मैं मशीन से अपने छापा-चित्र नहीं छापता. मैं देशज रूप से हे छापता हूँ इसलिए अन्य छापाकारों से अलग होते हैं मेरे चित्र. मेरे चित्र हाफ टोन होते हैं, उनमे लाइट एंड शेड का इस्तेमाल होता है. मैं मिटटी के ब्लॉक्स का इस्तेमाल करता हूँ और वह ब्लॉक्स भी मैं खुद बनाता हूँ. मैंने मिटटी के स्लैब्स को बनाकर उसे जीवन से जोड़कर चित्र बनाये हैं.
मेरा मानना है कि प्रयोगशीलता कला के विकास में सहायक होती है. भारतीय कला दृष्टि में इसका बहुत महत्त्व है. भारतीय कला परंपरा पर आधारित है और परंपरा कभी रिजिड नहीं होती इसलिए मैं उसी देशज परंपरा को तकनीक से जोड़कर उसके माध्यम से कला को आगे बढ़ने की दिशा में प्रयासरत हूँ.
5.
आप अपने प्रिंट में विषय वस्तु कहाँ से उठाते हैं और किस प्रकार के विषय आपके प्रिंट में मुख्य तौर पर होते हैं ?
मेरे प्रिंट के विषय वही होते हैं जो इस दुनिया में मौजूद हैं पर मैं उन विषयों को एक आम आदमी से अलग, बहुत (minutely) सूक्ष्म रूप से देखने की कोशिश करता हूँ. शुरुआत में मेरे छापा चित्रों के विषय अध्यात्म से प्रेरित होते थे. मैं आध्यात्मिकता को लेकर काम करता था बहुत प्रारम्भ में. समय के साथ मेरे प्रिंट की विषय वस्तु में भी बदलाव आया. आपातकाल के दौरान मैं आकृतिमूलक प्रिंट बनाने लगा जो सटायर या व्यंगात्मक होते थे. मैंने इन चित्रों की एक लम्बी श्रृंखला बनाई जिनमें ‘इनोसेंट स्नेक’, ‘इंटेलेक्चुअल आउल’, ‘स्लीपिंग गॉड’ जैसे प्रिंट बहुत मशहूर हुए.
इसके बाद मैं प्रकृति की ओर मुड़ा. मेरा मानना है कि प्रकृति में ऐसी गुत्थियां हैं जिन्हें हम नग्न आँखों से नहीं देख सकते. जैसे जब हम ज़मीन के अंदर ५ प्रकार के बीज डालते हैं तो बीज तो वही होते हैं पर हर पेड़ एक-दूसरे से अलग निकलता है, उसमे आनेवाले हर फूल का रूप-रंग, आकार प्रकार अलग होता है, पांच बीज से पांच रंगों के फूल उगते हैं, उनमे आनेवाले फलों की मिठास में अंतर होता है. तो मैं कौतूहलवश ये जाने की कोशिश में उलझा रहता हूँ कि ज़मीन के अंदर की दुनिया कैसी होगी.
प्रकृतिमूलक मेरे प्रिंटों में सबसे मशहूर प्रिंट हुआ ‘लिमिटेड अर्थ एंड अनलिमिटेड स्काई’. प्रकृति पर काम करने के दौरान ही मैं रोमां रोला की डायरी और गाँधी को पढ़ रहा था. गाँधी को पढ़ने के बाद मैंने गांधी पर ७० छायाचित्र बनाये जो सबके सब राइस पेपर पर थे. इन चित्रों में मैंने गाँधी और मार्क्स, मार्क्स और गाँधी, गांधी और महावीर, गांधी और नारी का तुलनात्मक अध्ययन प्रदर्शित किया. जैसे मैंने अपने चित्रों में यह दिखाया कि गाँधी के चिंतन में आध्यात्मिकता है पर मार्क्स का चिंतन कहीं से अभी आध्यात्मिक नहीं. इसी समय मेरी एक किताब छपी गांधी सम्बंधित मेरे चित्रों पर ‘समय का सच’ नाम से जिसमें महात्मा गाँधी के प्रपौत्र श्री तुषार गाँधी ने मेरे चित्रों पर एक आलेख लिखा.
अब मैं विषय से मुक्त हूँ, कांसेप्ट से मुक्त हूँ. अब मैं खाली स्पेस का आनंद लेता हूँ. अब मेरी कलाकृतियों और मेरे छापा चित्रों में काला रंग तेजी से बढ़ने लगा है. इन दिनों मैं काले रंग में कालिमा को खोजता हूँ. मेरा मानना है कि- ‘ब्लैक इज़ अ बोल्ड कलर’.
वैसे ही सफ़ेद को लेकर मैं जिज्ञासु हो जाता हूँ. लॉकडाउन में मैंने ‘व्हाइट एन्ड व्हाइट’ नाम से चित्रों की पूरी श्रृंखला बनाई. जब ये चित्र बन गए और बनने के बाद में उन्हें देखना शुरू किया ध्यान से तो मुझे उसमें आध्यात्मिकता दिखाई देने लगी.
6.
आपके लिए मशीन से काम करना बहुत आसान था लेकिन आपने प्रिंट मेकिंग के लिए देशज या इंडिजेनस प्रणाली को ही क्यों चुना?
मैं छापाकला को भारतीयता से जोड़ना चाहता हूँ बस इसीलिए इंडिजेनस या देशज प्रणाली को चुना. मेरा मानना है कि छापाकला जीवन के साथ विकसित हुई कला है. नालंदा विश्वविद्यालय में छापाकला के प्रमाण मिलते हैं. प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम में नागार्जुनकोंडा और राजगीर के दो छापे हुए कपडे प्रदर्शित हैं जो ईसापूर्व के हैं. जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा को जलाया तो विश्व के कई कोने से जो छात्र आये थे वे कपडे पर छापे हुए बुद्ध की आकृति अपने-अपने देशों में अपने साथ ले गए.
नालंदा की यह कला अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से मशहूर हुई. जैसे तिब्बत का ज़ाइलोग्राफ. यह छापा कला की ही देशज पद्धति है जिससे तिब्बती भिक्षु किताबें छापते हैं और विशेष रूप से वे किताबें उस नृत्य की होती हैं जिसे ख़ास अवसरों पर तिब्बती भिक्षु प्रस्तुत करते हैं. नालंदा के छापा कला के बीज विदेशों में इस कदर पहुंचे और प्रचलित हुए कि अमरीकी प्रिंट मेकर कैरूल समर ने भी ज़ाइलोग्राफ को अपनाकर प्रिंट मेकिंग की.
राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से जो छापाकला की पुस्तकें लेकर आये वो अभी भी बिहार रिसर्च सोसायटी में संग्रहीत हैं.
7.
आपने प्रिंट मेकिंग या छापा कला में कौन से नए आयाम जोड़े ?
मैंने तकनीकी रूप से नए आयाम जोड़े. सनबोर्ड को बर्न करके ब्लॉक्स बनाए, सनबोर्ड से प्रिंट निकाला, मिट्टी से प्रिंट निकाला, लकड़ी और मिटटी के ब्लॉक्स बनाए, उन पुराने ब्लॉक्स को रिवाइव किया जिनसे कपडे छापते थे. अपने ही पुराने ब्लॉक्स को बिलकुल नए अंदाज़ में इस्तेमाल किया.
8.
नयी पीढ़ी में छापाकला को लेकर कौन से लोग अच्छा काम कर रहे हैं ? आपके समय में और अभी में छापाकला की चुनौतियों में क्या फ़र्क़ आया है ? नयी पीढ़ी छापा कला को करियर के रूप में अगर अपनाती है तो उनके लिए आप क्या सन्देश देंगे ?
हमारे वरिष्ठ प्रिंट मेकर शांतिनिकेतन, बीएचयू, सर जे. जे. आर्ट कॉलेज से रहे जो छापा कला का विस्तार करते आ रहे हैं. इन्हीं संस्थानों से नयी पीढ़ी जो छापा कला सीख कर निकल रही है उनसे रचनात्मकता की धारा और प्रवहमान हो रही है. बिहार मे भी कला महाविद्यालय में युवा कलाकारों की टीम तैयार हो रही है. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की युवा पीढ़ी भी अच्छा काम कर रही है.
मेरे समय की अगर बात करें तो मैंने इसलिए छापा कला को नहीं चुना था कि उसमें रोज़गार की ज़्यादा संभावनाएं थीं बल्कि इसलिए चुना था क्योंकि मुझे प्रिंट बनाने में बहुत आनंद आता था. मैं यही सोचा करता था कि –
“मंज़िल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है
मंज़िल मिले न मिले.”
आर्थिक परेशानियां बहुत आईं पर मैं जुनूनी था. अब तो फिर भी रोज़गार की संभावनाएं हैं, लोग भारतीय छापा कला को पहचानने लगे हैं, पिछले कुछ दशकों में भारतीय छापाकला ने भारत ही नहीं विश्व के कलाप्रेमियों के बीच अपनी जगह बनाई है पर हमारे समय में तो छापाकला को कलाप्रेमियों के बीच रिकग्निशन दिलाने के लिए ही असल जद्दोज़हद करनी पड़ती थी हमें.
बात हमारे समय की करें या अभी के समय की छापाकला में तकनीकी सीमाएं तो हैं ही. छापाकारों को चाहिए कि सीमाओं में रहकर सीमाओं का अतिक्रमण करें. सीमाओं में रहकर सीमाओं का अतिक्रमण करना ही कला है. इस पीढ़ी और आनेवाली पीढ़ी के सभी प्रिंट मेकर्स को मेरी शुभकामनाएं कि वे विश्व पटल पर और अच्छी तरह दृश्यमान हों.
9.
आपने बहुत सी विदेश यात्रायें की हैं और विदेशों में छापाकला को देखा-जाना-समझा है, आपकी प्रदर्शनियां भी हुई हैं विदेशों में ? भारत की छापाकला और विदेशों की छापाकला में आप क्या मुख्य अंतर पाते हैं ? आपकी विदेश यात्राओं ने आपकी कला को समृद्ध करने में क्या भूमिका निभाई? कृपया अपनी विदेश यात्रा के कुछ अनुभव हमसे साझा करें.
निस्संदेह मैंने बहुत सी विदेश यात्राएं की हैं और मेरी प्रदर्शनियां भी विदेशों में हुई हैं. १९८१ में हेलसिंकी फेस्टिवल में छापाकला की ऊंचाईयों को देखने का मौक़ा मिला. फिर बेलग्रेड और अमेरिका की सबसे ज़्यादा बार यात्रायें की हैं मैंने. इन यात्राओं ने मुझे एक नए तरीके से समृद्ध किया. इन विदेश यात्राओं के दौरान मुझे पता चला कि महत्वपूर्ण यह है कि आप कह क्या रहे हैं, मीडियम या माध्यम क्या है वह महत्वपूर्ण नहीं है. आपका माध्यम कोई भी हो आप किसी ऑब्जेक्ट को किस नज़रिये से देख रहे हैं और क्या उसी नज़रिये से अपने दर्शकों या कलाप्रेमियों को दिखा पा रहे हैं यह महत्वपूर्ण हैं और अगर आप इसमें सफल हैं तो आप सफल हैं.
10.
आप कवि और थिएटर कलाकार भी हैं ? कविता और थिएटर कैसे आपकी छापाकला को प्रभावित करता है ? आपकी महत्वपूर्ण पुस्तकें कौन सी हैं ?
मैं एक समय में एक ही काम करता हूँ. कविता लिखता हूँ तो उस समय में सिर्फ कविता लिख रहा होता हूँ, थिएटर कर रहा होता हूँ तो थिएटर ही कर रहा होता हूँ और जब प्रिंट बना रहा होता हूँ तो मेरा पूरा फोकस प्रिंट मेकिंग पर ही होता है. हाँ, पर मैं कविता और थिएटर जैसी सहोदर कलाओं से खुद को निरंतर समृद्ध भी करता रहा हूँ.
बतौर कलाकार मेरी १४ पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमे एक कविता की किताब है. छापा कला पर दो पुस्तकें हैं मेरी. पहली है “छापा कला परंपरा” जो बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादेमी से प्रकाशित हुई है और दूसरी पुस्तक है “छापा कला” जिसे इलाहाबाद के संगम प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.
11.
आप पर यह आरोप लगता रहा है कि आप पेंटिंग या प्रिंट क्लास के लिए बनाते हैं मास के लिए नहीं. ऐसा है क्या?
इस सवाल के जवाब में मैं तुमसे एक सवाल करूंगा कि तुम भी तो इज़ाडोरा जैसी कविताएं क्लास के लिए ही लिखती हो न बेटा, मास के लिए तो नहीं. देखो मसला यह नहीं है कि मैं पेंटिंग क्लास के लिए बनाता हूँ या तुम कविता क्लास के लिए लिखती हो. हम जैसे लोग अपनी रचना अपने लिए करते हैं. सबसे पहले हम कोई भी कलाकृति खुद के लिए बनाते हैं. हम जिस तरह से खुद को अभिव्यक्त करने में खुद को कम्फर्टेबल महसूस करते हैं हम खुद को वैसे ही अभिव्यक्त करते है अब चाहे वह कलाकृति या वह रचना क्लास के लिए बन जाए या मास के लिए. अब यह तो एक संयोग है कि हमारी तुम्हारी ज़्यादातर रचनाएं खुद-ब-खुद क्लास के लिए बन जाती हैं इसका मतलब हमलोगो की विचार प्रक्रिया निस्संदेह बेहद उम्दा होगी.
12.
जहाँ तक मैं आपको जानती हूँ कि आप हर दिन, हर रोज़, हर पल कुछ न कुछ नया रच रहे होते हैं तो चलते-चलते ये बताएं कि इन दिनों आप नया क्या कर रहे हैं ?
पिछले दिनों कुछ नया काम किया था जिसकी प्रदर्शनी हाल ही में बिहार म्यूजियम में लगी थी “रेट्रोस्पेक्टिव” (जिसे आप हिंदी में पुनरावलोकन के नाम से पुकार सकते हैं) नाम से. यह २० दिन की प्रदर्शनी थी जिसमें मेरे कुछ पुराने और कुछ बिलकुल नए कामों को प्रदर्शित किया गया था.
यह तुमने सही कहा कि मैं हर क्षण कुछ न कुछ नया रचने की कोशिश करता रहता हूँ, रच तो अभी भी रहा हूँ पर अभी ये नहीं पता कि क्या रच रहा हूँ और वह फाइनली क्या बनकर तैयार होगा. मैंने तुम्हे बताया न कि इन दिनों स्पेस का आनंद लेता हूँ तो खाली स्पेस में, हवा में तीर मार रहा हूँ देखो अब तीर कहाँ जाकर लगता है.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
मंजरी को पढ़ना मतलब हर बार कला की एकनई दुनिया से परिचित होना. मंजरी को मैं खोज खोज कर पढ़ती हूँ क्योंकि कलाओं की मेरी जानकारी बहुत सीमित है. समालोचन और अरुण देव का धन्यवाद. मंजरी को प्यार बस ऐसे ही हर बार कु जोड़ती रहो.
बहुत सुंदर लिखा है मंजरी ने। श्याम शर्मा की कलाओं से गुजरना जैसे हज़ार हजार रंगों से गुजरना है। मैंने बहुत करीब से उनकी रंग यात्रा देखी है। मुझे वे बेहद पसंद हैं । उनकी कला दुनिया को देखने की खिड़की है। आप उस खिड़की से सारे रंगों को झरते देख सकते हैं। शुक्रिया अरुण आपका कि आपने उन्हें फिर से मिलाया।
श्याम शर्मा की कला पर मंजरी श्रीवास्तव के संवाद में छापा कला की रचना प्रक्रिया और शर्मा जी के रचना कर्म पर महत्वपूर्ण जाङ्करियां हैं. मंजरी जी और आपको धन्यवाद.श्याम जो स्वास्थ्य और रचना रत रहें
छापा कला पर नई जानकारियां। एक ऊर्जावान कलाकार से परिचय कराने के लिए मंजरी जी को धन्यवाद और समालोचन का आभार। – – हरिमोहन शर्मा
साहित्येतर कलाओं पर बहुत महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है, आपने उस क्षेत्र के समर्पित उल्लेखनीय हस्ताक्षर से मुलाकात करवाई, आभार