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समालोचन

Home » तृन धरि ओट : ऋत्विक भारतीय

तृन धरि ओट : ऋत्विक भारतीय

प्रसिद्ध कवि और लेखिका अनामिका का नया उपन्यास वाणी से प्रकाशित हुआ है, ‘तृन धरि ओट’ जो रामायण की सीता पर आधारित है. यह सीता का समकालीन पाठ करता है. सीता को समझने में अनामिका की स्त्री-दृष्टि रामायण के पुरुष पात्रों के प्रति भी सहृदय है. इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं ऋत्विक भारतीय.

by arun dev
September 8, 2023
in समीक्षा
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तृन धरि ओट : ऋत्विक भारतीय
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तृन धरि ओट
सीता की समकालीनता
ऋत्विक भारतीय

सद्य प्रकाशित ‘तृन धरि ओट’ कवि अनामिका का आठवाँ उपन्यास है जो वाणी प्रकाशन से इसी वर्ष, 2023 में प्रकाशित हुआ है. इससे पूर्व यह ‘बिन्ज’ पर ‘उत्तर कथा’ नाम से धारावाहिक प्रकाशित होता रहा. यह एक नायिका प्रधान मिथकीय उपन्यास है, जो सीता पर केन्द्रित है.

रामानंद सागर की ‘रामायण’ में जिस सीता की छवि उकेरी गई, वह आज भी लोकमानस पर ज्यों की त्यों अंकित है, मूक-आज्ञापालन से बंधी निष्क्रिय सीता. सीता की यहाँ सक्रियता दिखती भी है तो सिर्फ रोने-धोने और विलाप करने में, मदद की गुहार लगाने में, पिता की आज्ञा मानने, पति की अनुगामिनी बनने और ‘पति के बिना स्त्री की कोई गति नहीं’ को सिद्ध करने में, जैसे खुद सीता का अपना काई वजूद न हो. इसका इतना व्यापक प्रभाव साहित्य पर पड़ा कि दलित-गैरदलित प्रायः सभी लेखकों ने सीता को नायिका के रूप में कभी नहीं स्वीकारा, बेशक वे उनकी कविता, कहानी और आलोचना का विषय रहीं पर हमेशा एक नकार के रूप में.

मेरी ही बड़ी बहन ने एकबार यह सीरियल देखकर कहा, ‘हमें नहीं बनना सीता-वीता’ जैसे सीता बनना कितना आसान हो. अर्चना वर्मा की एक कहानी याद आती हैं जिसमें नवरात्र के दिनों में पर्दे पर रामायण का अभिनय किया जाना है: एक बच्ची यह कहती हुई सीता बनने से इंकार करती है कि मुझे नहीं बनना सीता. मैं तो हनुमान बनूंगी. सीता बनकर क्या करूंगी, घूंघट काढ़े केवल मूक-सी बनी रहूंगी. यह मुझको गवारा नहीं.

अनामिका की ‘तृन धरि ओट’ की सीता सर्वप्रथम लोकमानस में बसी इस पूर्वाग्रहित सीता की छवि को तोड़ती है, उसे नए तथ्यों के आलोक में दुबारा गढ़ती है. अनामिका की सीता हँसमुख हैं, अपने विवेक से निर्णय लेती हैं, शास्त्र और शस्त्र की विधिवत दीक्षा ली है उन्होंने. वह पति की अनुगामिनी नहीं, पति के हर छोटे-बडे़ निर्णय में उसकी सहभागिनी बनती हैं. स्वयं राम, राज-काज का छोटा-बड़ा फैसला लेते सीता की राय लेना नहीं भूलते. अनामिका की सीता ने-

‘‘हमेशा ही तर्क किया-कभी बोलकर, कभी चुप रहकर. हां, तर्क करते हुए कभी आपा नहीं खोया, न सन्तुलन ही और सामने वाले की हर बात गौर से सुनकर विचार लेने के बाद ही धीरे-धीरे अपनी बात रखी जैसे माँ बाबा के सामने रखती थी.’’

एक पंक्ति में कहें तो देश-काल की परिस्थितियों से घिरी हुई अनामिका की सीता आज की नई शिक्षासम्बलित स्त्री है जो पेड़-पौधे-पशु-पक्षी-अनुसूचित जाति-जनजाति सबकी मुक्ति में ही अपनी मुक्ति तलाशती है. जब तक धरती का एक-एक प्राणी, मुक्त नहीं हो जाता सीता को मुक्ति नागवार है.

तृन धरि ओट, उपन्यास सीता के आलोक में रामयण की कथा को कई तरह के लौकिक और शास्त्रीय अंत:पाठ्य के आधार पर अत्यंत गहराई और सूक्ष्मता से उकेरता है. उपन्यास में ‘सीतायण’ नाम का एक नवीन अध्याय भी है. सीता का प्रश्न है-

‘‘बाल-काण्ड होगा, पर ‘बालिका-काण्ड’ जैसा पद तो अवधारणा के इतिहास में नहीं है.’’

यह सीता की आत्मकथा है जिसमें व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध भी दिखता है. यहाँ सीता उन बातों को भी सार्वजनिक करती हैं जो कभी निजी हुआ करते थे. यहाँ रावण एकनिष्ठ प्रेमियों के लिए एक उदाहरण बनकर आता है. वहीं सीता शूर्पनखा से बहनापा जोड़ती दिख जाती हैं. सीता कई भ्रांतियां तोड़ती हैं. यहाँ सीता राम से गुप्तपत्राचार करती हैं. राम को युद्ध के लिए प्रश्नांकित भी करती हैं और कई बार तो राम को अनेक लांछनों से मुक्त भी देती हैं, जैसे- सीता निष्कासन का प्रसंग हो या शम्बुक-वध का, यहाँ एक नए आलोक में कथा को  खोलने का उपक्रम हुआ है.

सीता निष्कासन के सम्बंध में प्राय: दो तरह के प्रश्न उठाए जाते हैं. पहला कि सीता निष्कासन के समय सीता को उनके मायके से कोई लेने क्यों नहीं आया जबकि मिथिला समीप ही थी? उक्त पहला प्रश्न यहाँ मातंगी उठाती हैं जिसके प्रत्युत्तर में सीता कहती हैं,

‘‘पिता तो सिधार चुके थे. राज पाट दूरस्थ सम्बन्धियों के हाथ था. वहाँ तो मेरी माँ ही अभ्यागत-भाव से रह रही थी. उसका ज्यादातर समय मन्दिर में ही बीतता. जब तक मेरे पिता ने राज्य किया, माँ उनकी विश्वस्त मन्त्रिणी रहीं. पिता के बाद राज पाट का कोई भी निर्णय उसकी मन्त्रणा के लायक समझा नहीं गया और घर की सब स्त्रियां अन्तःपुरम की ओछी राजनीति की शिकार वैसे ही हो गयीं जैसे अयोध्या के राजमहल की स्त्रियाँ. ऐसे दमघोंटू महौल में मैं बच्चों को जन्म क्यों देना चाहती? माँ मिलने आयी तो मैंने उसे भी यहीं रोक लिया. वाल्मीकि के आश्रम से अधिक रमणीक स्थान क्या हो सकता था हम दोनों माँ-बेटी के लिए?’’

वहीं दूसरा प्रश्न राम को लेकर है कि राम ने सीता का गर्भावस्था में परित्याग कर अपनी कौन-सी न्याय-व्यवस्था का उदाहरण दिया? इसपर सीता राम का पक्ष राम की तरफ से रखती हुई कहती हैं कि राम तो सिंहासन भाइयों को सौंप उनके साथ ही वन की राह हो चले थे किन्तु उन्होंने ही जिद की, कसमें दीं, राम को कई-कई रातें जागकर समझाया कि आप जैसे विशिष्ट पुरुष की आवश्यकता-

‘‘सार्वजनिक जीवन की अस्त-व्यस्तताओं को भी उतनी ही सघन है, जितनी निजी जीवन के सहचरों को.’’

इतना ही नहीं वे राम को आश्वस्त करती हैं, कि वे स्वयंसमर्थ धरा की स्वयंसमर्थ बेटी हैं कुछ दिन आदिवासी भाई-बहनों के साथ रहना चाहती हैं.

‘‘आपकी प्रजा हहर जाएगी आपके बिना. इतनी प्रतीक्षा के बाद आपको पाया है.राम-राज का आपका सपना अधूरा ही छूट जाएगा. आप योजनाएं अधूरी छोड़कर न जाएं. समझें सीता मायके गयी है. पहली प्रसूति तो मायके में ही होती है. माँ को प्रसूति की घड़ी आश्रम ही बुला लूंगी.’’

आज तक पुरुष लेखकों ने सीता और राम की कथाभिव्यक्ति वैसे ही की जो आरंभ से होती आ रही थी किसी ने भी स्त्री-दृष्टि से अवलोकन की आवश्यकता नहीं समझी, यही वजह है कि कुछ प्रश्न ‘यक्ष प्रश्न’ की तरह सर्वदा उठते रहे पर ‘सीतायण’ में सीता की आत्मकथा से गुजरते हुए इनके उत्तर भी सहज मिल जाते हैं.

अनामिका की बुद्धिमती सीता तर्कपूर्ण उत्तर देती हैं. शूर्पणखा की नाक काटे जाने पर राम और लक्ष्मण को न केवल भर्त्सना देती हैं बल्कि उन्हें अपनी गलती से अवगत भी कराती हैं. शूर्पणखा को भी अपना स्वाभिमानविरत हठ त्यागने का कांतासम्मत उपदेश दे उससे बहनापा जोड़ती हुई कहती हैं,

‘‘एक किशोरी ही तो थी तुम. तुम्हारा प्रणय-निवेदन कोई इतना बड़ा पाप नहीं था कि तुम्हें क्षत-विक्षत कर छोड़ देते यों लक्ष्मण. नाक-कान काट लेना, वह भी किसी अबोध बाला का, कहीं से भी युक्तिसंगत नहीं.’’

‘एक स्त्री प्रणय निवेदन करती है तो वह बदलचन होती है’ क्या आज भी हम इस मानसिकता से निकल पाए हैं? सीता यहाँ राम और लक्ष्मण दोनों को ही प्रश्नांकित करती हैं,

‘‘कितने कामना-कातर पुरुषों के प्रणय-निवेदन, अपात्रों के प्रणय-निवेदन हर स्त्री को आठ से अड़तीस बरस तक झेलने होते हैं, अगर वह सबके नाक काटती चले तो अधिकतर पुरुष नक कटे ही मिलें.’’

अनामिका की सीता आवश्यकता पड़ने पर राम को उचित सलाह और मशवरा भी देती हैं. अयोध्या के उस व्यक्ति ने स्वयं सीता पर कटाक्ष किया और अपनी पत्नी को घर से निकाल बाहर किया. उसकी पत्नी का दोष बस इतना था कि वह रातभर घर नहीं लौटी थीं. जब राम ने सीता को यह घटना बताई तो सीता ने राम से कहा,

‘‘अगर किसी स्त्री को छल ही करना होगा तो रात की प्रतीक्षा क्यों करेगी? दिन में भी कितने कोने-अंतड़े ऐसे होते हैं जहां कुछ भी कर गुजरा जा सकता है और किसी का प्रेम किसी से हो ही गया तो उसके पास विकल्प भी खड़ा हो गया. उसे मार खाकर या ताने सुनकर वहाँ बने रहने की आवश्यकता क्या है जहाँ उसका अपमान होता है.’’

इस संदर्भ में सीता राम को अपना न्यायसंगत निर्णय भी सुनाती हैं,

‘‘धोबिन (धोबी की परित्यक्त को) को मानपूर्वक यहाँ लाइए. मैं यहाँ उसे अपने महल में स्थान दूंगी. हर आहत स्त्री का मायका यह राजभवन होगा तो ही रामराज्य का स्वप्न पूरा करा पायेंगे आप.’’

सीता न्याय-व्यवस्था का जो विकल्प राम के समक्ष रखती हैं वह निश्चित ही विचारणीय और अनुकरणीय है.

शम्बूक-वध को लेकर राम सर्वदा प्रश्नांकित किये जाते हैं, पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम यहाँ इन तीखे प्रश्नों से मुँह नहीं चुराते, अपना पक्ष रखते हैं जो न्यायसंगत मालूम पड़ता है.

राम मर्यादापुरुषोत्तम थे, मर्यादा ने ही उन्हें 14 वर्ष का वनवास दिया. मर्यादा ने उनसे उनका दाम्पत्य सुख छीन लिया. राम सीता के पति होने के साथ एकनिष्ठ प्रेमी भी थे. और एकनिष्ठ प्रेमी के प्राण अपनी पत्नी या प्रेमिका में ही होते हैं. सीता निष्कासन कर राम ने अपने को प्राणहीन ही किया. वे चाहते तो धोबी के कटाक्ष पर धोबी को दंडित भी कर सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. राम मर्यादा शासित देश में मर्यादा के निर्वाह के लिए विवश थे. मर्यादा जो व्यक्ति नहीं, समाज नहीं, तत्कालीन धर्मराज तैयार करते थे, और जिनका पालन सर्वोपरि होता था,

‘‘जिसकी व्याख्या धर्मशास्त्र करते हैं, राजा नहीं करता. राजा का दायित्व उस व्याख्या के अनुकूल आचरण लोक में प्रसारित कराना है. कथनी-करनी में कोई अन्तर न हो यहाँ. ’’

राम यह स्वीकारते हैं कि मर्यादा ने उनके साथ हमेशा सौतेला व्यवहार किया. राम ने केवल राजधर्म निभाया, बात उनकी पत्नी की हो या शम्बूक की, दण्ड देने की बारी आयी तो उन्होंने अपने और पराए में भेदभाव नहीं किया. यह उनकी न्यायप्रियता का ही प्रमाण है. फिर उन्होंने शंबूक से माफी माँगते हुए अपनी विकलता भी बताई.

उपन्यास में कई प्रयोग भी लक्ष्य किये जा सकते हैं, जो अनामिका के उपन्यास को अद्वितीय बनाते हैं, जैसे- सीता द्वारा राम को पत्र लिखना और युद्ध जैसे हिंसात्मक प्रयोगों को बार-बार आजमाने के बजाय शिक्षा पर जोर देना. सीता यहाँ परंपरा के नाम पर चली आ रही गलत परिपाटी बदलने को तत्पर दिखती हैं. इस क्रम में वे राम के सामने चुनौती भी रखती हैं:

‘‘युद्ध और हिंसा तात्कालिक शमन भले कर दें दुर्वृत्तियों का, उसका दुष्चक्र नहीं तोड़ पाते. असल समाधान तो बच्चों का संस्कार-प्रक्षालन है जो अच्छी परवरिश और सद्शिक्षा से ही सम्भव है.’’

सीता का पूरा विश्वास है,

‘‘सुशिक्षा की आंच में ही इनकी हिंसक वृत्तियां गलेंगी हमेशा के लिए गलेंगी. सुशिक्षित बच्चे अपने अभिभावकों का परिष्कार कर सकते हैं.’’

पर खेद है इस पत्र का उत्तर राम नहीं देते. और पत्राचार ही रोक देते हैं. पर सीता भी अपनी जिद की पक्की थीं, भला राम के उत्तर की प्रतीक्षा क्यों करतीं? वे मातंगी के साथ मिलकर वन में पाठशाला चलाती हैं. किस्से, कहानियां सुनाती हुई आदिवासी बच्चों का परिष्कार करती, उन्हें संस्कारवान बनाती हैं. यह सीता का राम के प्रति वैचारिक प्रतिरोध नहीं तो और क्या है?

सीता रावण के परावर्तित रूप से राम का परिचय करवाती हुई बताती हैं कि रावण अपना हठ, अपनी जिद, अपना अहंकार एक चोले की भांति उतार चुका था. फिर उसने शम्बूक-वध को भी अनुचित बताकर यह सिद्ध कर दिया कि सचमुच उसकी आत्मा का परिष्कार हो गया है. इतना ही नहीं रावण ने जो कुछ सीता से कहा, उसे सीता कविता के माध्यम से अभिव्यक्त कर राम को बताती है. रावण ने उनसे कहा कि अब हम दोनों उम्र के उस मोड़ पर आ गए हैं जहां देह से विलग प्रेम एक आपसदारी है. ऐसे में रावण सीता से रुद्रवीणा सीखाने की बात करता हैं किन्तु सीता प्रत्युत्तर में कहती हैं:

‘‘कोई किसी और की रुद्रवीणा
कैसे बजाये भला?’.
यह रुद्रवीणा ही है अब तो मेरा वजूद.
खुद अपनी लकड़ियां काटो,
खुद रुद्रवीणा गढ़ो
जो भी लय-ताल सिखानी होगी,
प्रकृति खुद ही सिखा देगी.’’

रावण ने जिस धीरज से सीता की बातें सुनी और चुपचाप लौट गया और फिर कभी वापस नहीं आया वह उसके परवर्ती एकनिष्ठ प्रेमी के उदात्त पक्ष का ही उदाहरण है.

उपन्यास के अंत में सीता तीन पत्र लिखती हैं, क्रमश: राम, शर्पूणखा और लव-कुश को. ये पत्र वाल्मीकि की कुटिया से लिखे गए हैं. ये पत्र उपन्यास में हवा-पानी-मिट्टी की तरह आते हैं, क्षितिज के आर-पार का सत्य उद्घाटित करते हुए. इनमें ऐसे बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है जो किसी भी संवेदनशील पाठक को संवाद के लिए प्रेरित करते हैं.
देखें जाएं:

हर व्यक्ति में कुछ-न-कुछ ऐसा है जिस पर ध्यान धरते हुए उससे प्रेम किया जा सके. इसी प्रमेय पर तो अनजान व्यक्ति से ब्याहे जाकर भी दुनिया के अधिकांश लोग सम्बन्ध निभा ले जाते हैं.

संसार अभी इस योग्य नहीं हुआ कि एक कमनीय स्त्री काया की ममता को ममता की तरह ही स्वीकारे. इसलिए प्रौढ़ावस्था तक इसकी ममता तिनके की ओट लेकर ही लोकाभिमुख हो, यही व्यावहारिक हो जाता है.

हर चुनौती एक अवसर भी है- अपनी प्रच्छन्न सम्भावनाएं ढूंढ़ निकालने का अवसर, स्वयं को दुबारा जन्म दे देने का अवसर.

दुनिया का सबसे गूढ़ग्रन्थ स्त्री-चेहरे में रूपायित प्रकृति का चेहरा है. जब तक उसका एक-एक गूढ़ाक्षर पढ़ लेने की पात्रता अर्जित न करो, विद्यार्थी का विनय बनाये रखो. किसी के पीछे न पड़ो. योग्य बनकर प्रतीक्षा करो कि वरण का कोई सूक्ष्म संकेत स्त्री की ओर से ही आये.

इन पत्रों में ही उपन्यास के प्राणतत्व विराजमान हैं. उपन्यास के केवल ये तीन पत्र पढ़ लिए जाएँ तो अनामिका की करुणासम्बलित न्याय दृष्टि का पता चल जाता है. लवकुश को लिखी चिट्ठी में सीता जिन बातों की ओर लव-कुश का ध्यान खींचतीं हैं वह मेरी पीढ़ी के दलित युवकों के लिए अनुकरणीय है.

‘‘जहां कहीं किसी को उदास देखना, वहीं ठहर जाना. उसके दुःख दूर करने में लग जाना, तुम्हारे सब दुःख स्वयं दूर हो जायेंगे. दुनिया को माँ की ही आंख से देखना हमेशा.”

अनामिका की सीता, नई स्त्री है जो शिक्षासम्बलित है वह पर्यावरण को सृष्टि का पूरक मानती हैं और सृष्टि के परिचालन के लिए मातृदृष्टि पर बल देती हैं, जो कभी किसी के बीच भेदभाव नहीं करती. प्रेम, करुणा, त्याग जैसे महाभाव का उचित संदर्भ पर उचित ढंग से उपयोग पर बल देती हैं. उनके शब्दों में मातृत्व का अर्थ जैविक मातृत्व ही नहीं है. मातृत्व गर्भ में नहीं, आँख में होता है और इसलिए पुरुष कि आँखें भी माँ कि आँखें हो सकती हैं और उन स्त्रियों की आँखें भी जो किसी कारण माँ नहीं बनीं. बुद्ध, ईश और अंबेडकर कि आँखें ऐसी ही आंखें थीं. प्रखर दलित कवि रजतरानी ‘मीनू’ के काव्य संकलन का नाम ही है ‘पिता भी तो होते हैं माँ’.

कहना न होगा, पुरखिनों की धराउ साड़ी में रंग-बिरंगे कतरन लगा, नए बेल-बूटा सजा उससे नई फ्रॉक सिल लेने के हुनर में अनामिका का कोई सानी नहीं. कलेवर बदलने की इस तकनीक का इस्तेमाल अनामिका ‘तृन धरि ओट’ पर भी पूरी शिद्दत से आजमाती हैं.

अनामिका स्त्रीवादी दृष्टि से रामायण का नवीन दार्शनिक आख्यान रचती हुई रामायण की कथा को नया कलेवर देती हैं, जो भाषा में तत्सम और देशज शब्दों के बीच का पदानुक्रम तोड़ती हुई ऊँच-नीच की हर पारंपरिक संरचना तोड़ देने की प्रेरणा बनती है.

पुस्तक- तृन धरि ओट/लेखिका अनामिका/प्रकाशक : वाणी प्रकाशन/मूल्य : 299

ऋत्विक भारतीय
पत्र पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित

असिस्टेंट प्रोफेसर, जे. आर. एस कॉलेज, मुंगेर विश्वविद्यालय मुंगेर.
ईमेल- ritwikbharatiya.55@gmail.com
Tags: 20232023 समीक्षाअनामिकाऋत्विक भारतीय
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Comments 12

  1. शशिभूषण मिश्र says:
    2 years ago

    यह केवल सीता का सामर्थ्य नहीं , स्त्री की भाषा और दृष्टि का सामर्थ्य है :

    “मेरा कोप, कोप भवन में आबद्ध नहीं रहने वाला! न भूलें, आर्य, कि मैं धरती की बेटी हूँ! कोई प्रासाद मुझे बाँध नहीं सकता- मैं चेतना का वह आयाम हूँ जो किसी चारदीवारी में बँध ही नहीं सकता! अनन्त हूँ मैं, राजकुंवर!

    “यह समय शास्त्र चर्चा का नहीं, देवि ! यह न भूलो कि हम मनुष्यायोनि में अवस्थित हैं और यह काल आपातकाल है!”

    ” आप भी जानते हैं बन्धु ! सच्चा मनुष्य वह है जिसके लिए हर चुनौती एक अवसर है- अन्तर्निहित सम्भावनाओं के सहस्रदल कमल खिला लेने का अवसर! चुनौतियाँ ही वह महासूर्य हैं जो ऊर्जा केन्द्रों के कमलदल में पूरी तरह खिल पाने का स्फुरण जगाती हैं!”
    “हमने तो अपने पहले आरोहण में ही हर कमलदल साथ खिलाने का संकल्प लिया था! आप अपने संकल्प से फिर कैसे मुकर सकते हैं? यदि रघुकुल की रीत निभानी है तो आप अपने वचन से मुँह
    कैसे मोड़ सकते हैं? क्या यह रघुकुल की रीत की अवमानना नहीं होगी जिसकी दुहाई देकर हमें वनवास
    दिया जा रहा है?”

    श्रीराम के भास्वर ललाट पर हल्का-सा पसीना आया!

    “चुनौतियाँ झेलते हुए मैं सर्वदा आपकी वामांगी रहूँगी। मैं, शक्ति, आपातकाल में क्षण-भर भी आपसे विमुख नहीं होऊँगी। आपातकाल ही शक्ति आरोहण का सबसे शुभ – मुहूर्त होता है ! “

    Reply
  2. Anonymous says:
    2 years ago

    विचार और भावना समृद्ध समीक्षा पढ़ने को मिली । ऋत्विक जी ने पाठ के भीतर प्रवेश करते हुए उस अंतरकथा को अवगाहने की कोशिश की है जिसे अनामिका जी ने अकहा रहने दिया है.. जो मैं की भाषा में है । आपने क्या खूब लिखा है कि – “अनामिका की सीता, नई स्त्री है जो शिक्षासम्बलित है वह पर्यावरण को सृष्टि का पूरक मानती हैं और सृष्टि के परिचालन के लिए मातृदृष्टि पर बल देती हैं, जो कभी किसी के बीच भेदभाव नहीं करती. प्रेम, करुणा, त्याग जैसे महाभाव का उचित संदर्भ पर उचित ढंग से उपयोग पर बल देती हैं. उनके शब्दों में मातृत्व का अर्थ जैविक मातृत्व ही नहीं है. मातृत्व गर्भ में नहीं, आँख में होता है और इसलिए पुरुष कि आँखें भी माँ कि आँखें हो सकती हैं और उन स्त्रियों की आँखें भी जो किसी कारण माँ नहीं बनीं.

    समालोचन और समीक्षक को हार्दिक बधाई…

    Reply
  3. ललन चतुर्वेदी says:
    2 years ago

    अनामिका जी को पढ़ना सदैव सुखद एहसास से गुजरना है। उनके पास एक नई दृष्टि है। यह नयापन केवल आकर्षक ही नहीं,अनुकरणीय भी है। आपने अच्छी समीक्षा की है। जल्द ही किताब से गुजरना चाहूँगा।

    Reply
  4. M P Haridev says:
    2 years ago

    ध्यानपूर्वक पढ़ा । अनामिका जी का उपन्यास दस द्वारे का पिंजड़ा और दो कविता संग्रह पढ़े हुए हैं । प्रोफ़ेसर अनामिका का पुनराअख्यान नयी दृष्टि प्रदान करता है ।

    Reply
  5. Dr Abhay Kumar says:
    2 years ago

    साहित्यिक समीक्षा साहित्य के कोने में बैठी उस सूक्ष्मता को प्रदर्शित करती है जिसको साहित्यकार विस्तार नहीं दे पाते हैं। साहित्यकार की एक समस्या -अपने लिखे साहित्य से दूरी बना कर रहना पड़ता है क्योंकि साहित्य में लेखक की उपस्थिति से कथ्य और तथ्य में असंतुलन पैदा होता है और पक्षपाती होने के इल्जाम भी लगाए जा सकते हैं।
    समीक्षक ॠत्विक भारतीय ने समीक्षा के पैमाने पर अनामिका के उपन्यास को खरा उतारा है। राम कथा के कई रुप हैं यथा बौद्धों के रामायण ‘दशरथ जातक’ जैनों के रामायण ‘परिउ चरिव’, बांग्ला, उडिया, तमिल में ‘कंबन रामायण’ आदि मौजूद हैं। अनामिका ने वाल्मीकि और तुलसी कृत रामायण के राम कथा का आधार बनाया। इसके क्या कारण हो सकते हैं? यह विचारणीय प्रश्न है। इस पर भी समीक्षक को दृष्टि डालनी चाहिए।
    डॉ अभय कुमार
    बीआर एम कालेज, मुंगेर
    मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर, बिहार।

    Reply
  6. Kamlnand Jha says:
    2 years ago

    अनामिका जी का सीता केंद्रित उपन्यास ‘तृण धरि ओट’ की अच्छी समीक्षा ऋत्विक भारतीय ने की है। बधाई। अनामिका जी भारतीय माइथोलोजी पर काफी अच्छा लिखतीं हैं, कविता भी, उपन्यास भी, आलोचना भी। समीक्षा में उपन्यास के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखिका द्वारा नयी सीता की खोज को तरजीह दी गई है। अनामिका फिक्शन में सीता की नई छवि तलाशती हैं तो (एक-दो वर्ष पूर्व) अवधेश प्रधान ने गद्य में ‘सीता की खोज’ करते हैं और अवधेश मिश्र सीता को स्त्री प्रतिरोध का प्रतीक मानते हैं। बहुत पहले ‘तद्भव’ में उनका एक बेहतरीन आलेख पढ़ा था-‘स्त्री प्रतिरोध के पूरा लेख’। इसमें वे चंद्रावती रामायण के संदर्भ में लिखते हैं “महाकाव्यों की रचना विधान से अपनी असहमति दर्ज कराती यह कृति एक प्रति महाकाव्य है।” अनामिका की खूबी यह है कि पूर्व की रामकथाओं में सीता की जो आत्मचेतस छवि है, उसे रोचक कथात्मक अभिव्यक्ति देती हैं।
    आदि रामायण (वाल्मीकि) में ही सीता का चरित्र अद्भुत है -आत्मचेतस, विपरीत परिस्थितियों में निर्णय लेने वाली, विवेकशील। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। जब राम त्यागी वेश में हथियार के साथ वन गमन करते हैं तो सीता कहतीं हैं कि यह अनुचित है, हमेशा साथ में हथियार (मनोवैज्ञानिक) चित्त को हिंसक बनाता। दंडकारण्य में राक्षसों के वध का प्रतिवाद करते हुए सीता कहती हैं, जिससे दुश्मनी न हो उसका वध अनैतिक है। तुलसीदास के समकालीन चंद्रावती की बंगला रामायण, नवनीता देवसेन के अनुसार राममुक्त रामायण है। चंद्रावती रामायण सीता की आँखों से देखी गई रामायण है। इसमें राम कमजोर पति और कमजोर शासक के रूप में देखे गए हैं। मैथिली में एक लोकगाथा है ‘लवहरि कुशहरि’ जिसमें सीता का शिक्षिका रूप अद्भुत रूप से उद्भासित हुआ है। इसमें वे अपने दोनों पुत्रों को ज्ञान-विज्ञान से लेकर युद्ध-कौशल तक की शिक्षा देती हैं।
    ‘तृण धरि ओट’ अनामिका जी का अचानक का सर्जनात्मक विस्फोट नहीं है, वे वर्षों से सीता विषयक गुत्थियों से उलझ रहीं हैं। चिंतन-मनन की गम्भीर प्रक्रिया से उपजी रचना है-तृण धरि ओट। मैंने सन 2007 के वाक (31) में ही सीता विषयक उनका एक शानदार आलेख पढ़ा था ‘डासत ही गयी बीत निसा सब’। इसमें वे चंद्रावती रामायण की खूबियों से परिचय कराती हैं। इसमें वे सीता के प्रतिरोधी मिज़ाज की तलाश उनकी जन्मकथा से जोड़तीं हैं। चंद्रावती में सीता मंदोदरी की बेटी हैं, इस अर्थ में अनामिका धरती को पहली सेरोगेट मदर (मंदोदरी के गर्भ को रखने के कारण) मानतीं हैं और लिखतीं हैं, “ठीक से देखा जाए तो हर उपेक्षित-अनादृत के गर्भ में विद्रोह की यह दबी-ढकी चिनगारी पूर्ण लपट बनकर लहराने की गुप्त तैयारी करती ही रहती है।” अनामिका जी का यह उपन्यास उनके यश में निश्चित रूप से इज़ाफ़ा करेगा, ऐसा विश्वास है। विस्तार से उपन्यास पढ़ने के बाद फिर कभी।

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  7. विनीता बाडमेरा says:
    2 years ago

    जिस तरह से ऋत्विक जी ने समीक्षा की निश्चित ही यह उपन्यास बेहतरीन होगा , अभी हाथों में अनामिका जी तिनका तिनका पास ही है और उनके लेखन की सबसे बड़ी खासियत ही यह है कि उनकी महिला पात्र कहीं भी कमजोर नहीं होती न ही अपना अधिकार मांगने के लिए गिड़गिड़ाती हैं वे बड़ी मजबूती से अपना पक्ष रखती हैं । फिलहाल अनामिका जी और ऋत्विक जी को खूब बधाई। कोशिश करुंगी इस नयी दृष्टि को लेकर आए उपन्यास को भी शीघ्र पढ़ सकूं।

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  8. BSM Murty says:
    2 years ago

    सीता और स्त्री -विमर्श के इस आधुनिक प्रसंग पर फा. कामिल बुल्के क्या कहते इस समीक्षा-चर्चा को पढ़कर मैं यही सोचने लगा हूं।

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  9. अनुराधा सिंह says:
    2 years ago

    अनामिका जी ने अपनी घरेलू नायिकाओं का परिप्रेक्ष्य सही करने का बीड़ा उठाकर भारतीय नारीवाद पर उपकार ही किया है । यह साहस का काम है क्योंकि धारा के विपरीत है इसका प्रवाह, जब काम सीता को एक मूक आज्ञाकारी मिथकीय चरित्र में सीमित करने से अच्छी तरह चल जाता हो तो भला किसे पड़ी है कि वह उनका प्रखर व्यक्तित्व लिखकर अपने लिए संकट उत्पन्न करे। पर वे करती रही हैं , वैचारिक आलेखों का उनका संचयन ‘मन मांझने की ज़रूरत’ भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य रहा है। पढ़ना ज़रूरी है। वे ‘समन्वित नारीवाद और भारतीय देवियाँ’ आलेख में लिखती हैं, “वनस्पतियाँ अश्मीभूत (फॉसिलाइज्ड) होकर संग्रहणीय हो जाती हैं और स्त्रियाँ देवत्व के चौखटे में उतरकर………. इससे बड़ा सांस्कृतिक षड्यंत्र कोई हो ही नहीं सकता कि सीता- सावित्री जैसी बागी स्त्रियों को मूक आज्ञाकारिता से एकाकार करके देखा जाये । …..सीता के बारे में सबसे बड़ा मिथ निश्शब्द समर्पण (डोसिलिटी) का है। सीता अपने समय कि पहली महिला थीं, जिसने पति के साथ ही सही , घर की चौखट लाँघकर अपनी आँखों से दुनिया देखी। ……………सीता का सबसे बड़ा सच है लक्ष्मण- रेखा लाँघ जाना यानी आपतस्थिति में अपने विवेक के हिसाब से नियमावलियों में परिवर्तन का साहस ।”………… आगे वे सावित्री व पार्वती का पुनर्पाठ ही न्यायसम्मत रीति से नहीं करतीं बल्कि कहती हैं, “माधवी- शकुंतला- दमयंती – वासवदत्ता हों या राधा- रुक्मिणी- द्रौपदी— नायिकाएँ हैं तो इसलिए कि इनमें पिटी- पिटाई लकीर लाँघने का तेज है, अपने सिद्धान्त पर अटल रहने कि दृढ़ता है ।” सो यह सब पढ़ चुकने के बाद उनके नये उपन्यास के आगमन को बहुत चाव व उत्सुकता से देख रही हूँ। ऋत्विक भारतीय ने यह विस्तृत टिप्पणी लिखकर मुझे आश्वस्त किया है कि ‘तृन धरि ओट’ हमारे जनमानस में सीता के चरित्र के प्रति कुपढ़ व बहुप्रचलित पूर्वाग्रहों से किसी सीमा तक मुक्त करने का काम करेगा । उन्हें बधाई!

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  10. Dr.Sohanlal Professor Hindi says:
    2 years ago

    नवीन सुधारवादी, आशावादी दृष्टिकोण से उपन्यास की कथावस्तु पाठकों को शिक्षा देती है।

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  11. Navita Bhardwaj says:
    2 years ago

    तृण धरि ओट माता सीता की समकालीन दृष्टि को पाठको के समक्ष रखता उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास में माता सीता के द्वारा आधुनिकता के साथ समन्वय करके प्रगतिशील विचारों के साथ समाज को नई दृष्टि प्रदान करना इसका प्रमुख लक्ष्य है।रित्विक जी के द्वारा बहुत सुंदर समीक्षा की गई है। उपन्यास के विभिन्न पहलुओं पर आपने प्रकाश डाला है। बहुत शुभकामनाए 🙏

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  12. Praveen singh Deshwal says:
    1 year ago

    अनामिका जी का नवीन उपन्यास ‘तृन धर धरि ओट ‘ पढ़ा , मेरे मन जो था कि आख़िर सीता के पात्र को रामचरितमानस से लेकर रामानन्द सागर के सीरियल ‘रामायण ‘ में अबला नारी से अधिक नहीं दिखा पाये , लेकिन उपन्यास के रूप में सही जो पत्राचार के द्वारा और उसमें सीता ने बाबा जनक को यह कहकर “ बाबा मैं विदेह की बेटी , देह तो वहीं आग में वार आयी। बेशक वह जली नहीं, क्योंकि वह आपकी यश काया थी “ और फिर पत्र के अंत में यह कहते हुए कि “राम के प्रेम ने मुझमें यह महाभाव जगाया है “ “ ठीक जबाब दिया न पिता को आपकी सिया ने “ पत्र का माध्यम पवन देव द्वारा ख़बर सब कुछ बहुत गहनता से ब्यान किया । सन्त की कुटिया से बढ़कर आसन्न प्रसवा और सद्य: प्रसूता के लिए कोई तीर्थ नहीं । सामाजिक आवश्यकता को इंगित किया है । बुद्धिमान व्यक्ति को मान न दो तो उसके उत्पात की क्षमता उकस जाती है कितना यथार्थ है । संतान का जन्म माँ का नया जन्म तो है ही ! सीता के सामाजिक ज्ञान व शास्त्र ज्ञान को भी उकेरा ये ही नहीं राजनीतिक सूझबूझ और युद्ध कौशल शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा के अतिरिक्त चिकित्सा तथा सामाजिक संबंधों का संपूर्ण ज्ञान से परिपूर्ण सीता के पात्र को सही मायने में न्याय मिला है । सीता के चरित्र को प्रेम, वात्सल्य, मित्रता ‘चन्दन ‘ बालसखा, सहेली विद्योतमा के साथ-साथ शासन चलाने की पूर्ण क्षमता थी जो इससे स्पष्ट थी अयोध्या में अव्यक्त असंतोष को परख कर महाराज दशरथ को भी कैकेयी माँ के एक तरफ़ा चंगुल से मुक्त कर राम को एक पत्नी का संकल्प को प्रेरित किया । सुंदर चित्रण मातंगी माँ कीं कुटिया, केवट संवाद, शंबूक वध से पहले राम द्वारा नतमस्तक होकर शिरोच्छेद की अनुमति राज मर्यादा के उल्लंघन का दंड और अंत सीता द्वारा पत्र के माध्यम से राम को संदेश कि हिंसा और युद्ध के बजाय शिक्षा ही एक विकल्प हो सकता है । अच्छा उपन्यास

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