सोमेश शुक्ल की कविताएँ |
1.
नहीं छूने के लिये अलग से हमारे अदृश्य हाथ होते हैं
कमरे में कमरे के ख़ालीपन को इधर-उधर सरकाता हूँ
कभी रख देता हूँ बीच को किसी कोने में
एक चीज़ को हिला भी देता हूँ
तो मेरा पूरा जीवन बदल जाता है
मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि एक आदमी को
इतना भी अकेला आदमी मत समझो
कि वह कभी कहीं न हो.
2.
बड़ी से बड़ी चीजों को जाँचने-परखने के
छोटे छोटे प्रयोग हैं
जैसे कि मैं हूँ, या नहीं हूँ? के लिये
अपने चारों ओर एक गोल घेरा खींचता हूँ
खुद को यदि उससे बाहर पाता हूँ
तो हूँ.
3.
हम सब एक अंतर से टकराए हुए हैं
हमारे रूप हमारी चोटें हैं
कोई जो कहीं हमें याद कर रहा है
हमारे घाव कुरेद रहा है.
4.
तारीखें भूल जाना लेकिन दिन पहचान लेना
बिखरी हुई अनिच्छाओं के बीच बैठे रहना
महसूस करने से पहले व छूने के बाद के समय में बैठकर
न खड़े होने में सारा समय बिताना
और अपने आप को बताने में कहना भूल जाना
ये सब मेरे होने के वे दृश्य हैं जो मुझे
मेरे दिखने के पीछे छिपाये रखते हैं
मैं अपना असहनीय भार लेकर भागा नहीं हूँ
मैं तो वह कहानी हूँ जो भाषा निकाला भोगती है.
5.
मुझे छूकर कहना कि नहीं हूँ
चूमकर कहना, हम दोनों नहीं हैं
साथ में, एक ही इच्छा करना,
अपने अपने बिना अकारण रो लेने जैसा है
साथ में एक ही स्वप्न देखना
किसी न हो सकती जगह जाकर अँधा हो जाना है
रास्ते पुरुषों की तरह थे
स्त्रियों तक पहुँचते हुए
मैंने हमेशा खो चुके उन लोगों की कल्पना की
जो अपने खो जाने के
उस पार चले गये.
6.
मैं यहाँ हूँ, लेकिन यहाँ कहाँ है?
इतनी अस्थिर यात्रा यहाँ की यहाँ से
यहाँ तक
मैं कहाँ हूँ ये देखने
कहीं न जाने के रास्ते पर
मैं अंत की तरफ जितना बढ़ता हूँ
अंत अपनी ही तरफ उतना गड़ जाता है
आखिर मैं ही तो अपना अंत हूँ
मैं अपनी तरफ जितना बढ़ता हूँ मैं अपनी ही
तरफ उतना ही गड़ जाता हूँ.
कुछ न कहते रहने के बीच बीच में शांत हो उठता हूँ
स्पेस में कुछ नहीं, शब्दों में शांत
एक समय का दूसरे समय में प्रवेश
जैसे अंधेरे का रात में प्रवेश
मेरा बाहर से अपने आप में प्रवेश की तरह है
मैं भीड़ नहीं देख सकता मैं उसका अनुमान लगा सकता हूँ
दृश्य में, मेरी दृष्टि एक अस्थिर पारदर्शी बिंदु पर चिपक गई है
और स्थिरता में है सबसे तफ़सीली बेचैनी
मैं वस्तुओं के जीवन का शोक मना रहा हूँ.
7.
सबसे अधिक करीब आकर
चीजें गुम हो जाती हैं
एक हमेशा दूसरे में लौटना चाहता है
मेरा विश्वास अब तक देखे गये आकारों से बड़ा है
कुछ है जो आसमान को पृथ्वी तक झुकाता है
जो हर बात में आता है
ध्वनि में मौन के उत्सव की तरह
वह अंधेरों की तरह अपनी जगह से प्रेम करता है
और लौटना भूल जाता है.
8.
कह पाता हूँ
कि, मैं हूँ!
तो किसी शब्द के अभाव के
दम पर कह पाता हूँ
वर्ना मेरे पास कोई अधिकार नहीं
यदि मेरे पास शब्द हैं.
9.
एक स्वप्न के स्वप्न में खड़ा हूँ
एक स्वप्न जितना ही अकेला
एक मौन जितना भीतरी
एक अदृश्य जितना स्पष्ट
बिना हिले, एक ही जगह पर खड़ी हो रही है बार-बार
एक खाली जगह,
एक जगह जो हमारे बीच पसरी है
और मैं तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हारे बिना भी.
10.
आज, बहुत दिन पहले आ ही गया वह दिन
जिसकी मुझे कोई प्रतीक्षा नहीं थी
अब तुम मुझे कोस सकते हो!
मुझे कोसो, जैसे भोजन कोसता रहता है
भूखे को
यदि तुम मुझे ढूँढ सकते हो!
तो पहले ढूँढो, जैसे धरती ढूँढ लेती है मुझे कभी
किसी जगह
या फिर,
भाषाओं को घटा दो विचारों में से
यानी बिना किसी भाषा के विचार करो
कि यही तो वह समय है
जिसकी मुझे प्रतीक्षा नहीं थी.
11.
खिड़की पर कहीं के आ लगने का आभास
इतना पुरातन है
जितना यहाँ में ‘यहाँ’ भी नहीं है
ये जो सबकुछ है किसी का, मेरे लिये कुछ नहीं
न होने का इतना बड़ा किनारा है कि इससे कूदा न जा सकता
होने का इतना छोटा सागर है
कि इसमें डूबा न जा सकता
‘कहीं’ है किसी की छूटी हुई नौका,
‘यहाँ’ से आ लगी
इसे पाना चाहो तो छूटती है,
छोड़ो तो डूबती है
“कहीं” की नौका
हमेशा में तैरती है.
सोमेश शुक्ल 1986 फ़रीदाबाद, हरियाणा someshshukl@gmail.com |
बहुत कम कवि हैं जो शब्दों से उस तरह का प्रभाव पैदा कर पाते हैं, जैसा निशब्दता की स्थिति में होता है। सोमेश की कविता ऐसी ही है जैसे रिक्तियों में गूँजता हुआ मौन हो, फिर थोड़े शब्द हों, जिनमें अतिरिक्त भार न हो, फिर एक लम्बा मौन हो, जिसमें वैसा उजाला हो जैसा रात और दिन की देहरी पर अटकी भोर में होता है। इस बिन्दु से कोई किसी भी तरफ़ जा सकता है, इधर या उधर। यह कविता साथ नहीं छोड़ती। बनी रहती है बहुत दूर तक।
सोमेश उन कुछ युवा कवियों में हैं जिन्होंने अपना हस्ताक्षर अर्जित कर लिया है. उनकी कविताओं में विपर्यय और विरुद्धों के बीच अर्थ का अवकाश बनता है. वे अपनी मितव्ययिता में और अपने शाब्दिक संयोजनों में , पंक्तियों के नीम अंधेरे और नीम चमक में , उन्हें किसी अतिकलात्मक निरर्थकता में विसर्जित किए बिना अपनी कविता का अनूठापन कमाते हैं. उन्हें पढ़ते हुए मिलने वाले सुख के साथ बस यह आशंका भी घुली रहती है कि वे अपने ही मैनरिज़म के क़ैदी होकर ना रह जाएँ; हालांकि यह आश्वस्ति भी है कि एक आत्मचेतस कवि सबसे पहले अपने ऊपर ही सतर्क निगाह रखता है.
अपने को शामिल होने न होने की जो अनुभूति है, वह कवि-ह्रदय पाठक को बेचैन कर जाती है…बहुत सुंदर कवितायें …
सोमेश जब कविताएँ नहीं लिख रहे होते, अन्य चीज़ों पर बात कर रहे होते हैं तब भी उनके अंदर का कवि ही बात कर रहा होता है। कभी कभी सोमेश घर आते हैं, अपनी कॉफी खुद बनाते हैं, रंग जगत, चेतना, जुड़ाव, झुकाव, प्रयत्न, आकार, पद्य, गद्य, अतिरिक्तता, अंधेरा, कोई अन्य संसार, बहुत सारे संसारों की बातें करते हैं, मुझे वे बातें भी कविताओं जैसी लगती हैं। बोलने के साथ साथ उनके दोनों हाथ हवाओं में इधर उधर अनेक पैटर्न बनाते हैं। बीच बीच में मुझे सुनने के लिए रुकते हैं। सुनने के बाद रुककर फिर बोलते हैं। वे अपने साथ कविताएँ लेकर ही चलते हैं या यूँ कहें कविताएँ उनके साथ साथ चलती हैं। ये कविताएँ भी सोमेश की तरह ही कलात्मक हैं। कभी मन की गहराई में उतरती, कभी बाहर झांकती, कभी हमसे प्रश्न पूछती और कभी जैसे अपनी ऊँगली उठाये हमें किसी उपदिशा की ओर कुछ रहस्यमयी सा दृश्य दिखाती।
कवि अधिक दफ़ा अपनी कविताओं में गुम हो जाते हैं । अगली पंक्ति में प्रकट होने का अचरज पैदा करते हैं । भोजन इंतज़ार कर रहा है भूखे/भूख का ।
ख़ाली कमरे के एक कोने को पकड़कर दूसरे कोने में रख देते हैं । लुका-छुपी इसे ही कहते हैं । नाविक, नाव और यात्रियों की कादंबरी मज़ेदार है । थोड़े वाक्यों में ढेर सारी जगह घेरती हुई महसूस होती है । अटपटा न लगे, परंतु मकड़ी अपने जाल में आराम से घूम सकती है [जैसे सोमेश जी], मगर औरों को शब्दों में क़ैद कर लेती है । यह फ़न कम व्यक्तियों में होता है ।
बार बार धन्यवाद कहना खलने लगा है ।
सोमेश होने में न होने और न होने में होने के कवि हैं।एक रिद्म की तरह यह होना-न होना हर कविता में विद्यमान है-“कहीं” की नौका/हमेशा में तैरती है -जीवन का यह अंतरंग होना।इसी कूवत पर कवि यह कहने की सामर्थ्य रखता है कि एक आदमी को इतना भी अकेला मत समझो कि वह कहीं भी न हो।
जैसे कि मैंने कई बार लिखा है, सोमेश मेरे सबसे प्रिय युवा कवियों में हैं। दो और नाम जो मैं सोमेश के साथ लेता हूँ वे हैं अमिताभ चौधरी तथा शुभम अग्रवाल। ये तीनों न केवल हिन्दी कविता में बल्कि कविता मात्र में कुछ नया, भिन्न और विलक्षण लेकर आये हैं: दृष्टि में, कहन में, शैली में। ये तीनों दुनिया को, चीजों को ऐसे देख पाते हैं जैसे और कोई नहीं देखता। वास्तव में इन्हें युवा कवि कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये तीनों पके हुए कवि हैं, कविता की विधा पर उनकी पकड़ प्रौढ़ है। इन्होंने हिन्दी कविता में तीन नये दरवाज़े खोल दिये हैं जिनमें से पाठक को तीन भिन्न दुनियाएँ नज़र आती हैं जो उसने पहले नहीं देखीं।
सोमेश एक बढ़िया इंसान और मित्र भी हैं। एक व्यक्ति के तौर पर वे सरल हैं — जैसे व्यक्ति मुझे अच्छे लगते हैं — और एक संन्यासी की तरह निहायत सादा जीवन जीते हैं। अपने बचे हुए जीवन में मैं उनके आसपास रहना चाहूँगा।
सोमेश की कविता रिक्त आवर्तनों की कविता है। यह हमारे जीवन के शोर के बीच पसरे मौन की कविता है। यह अपने होने से अधिक अपने न होने में मुखर होती है, इस मौन को साधने की भाषा, भाषा के सामान्य ठोस आकार को ठुकराते हुए बनती है, जहाँ से हम पार्श्व में फैले अंधेरे का, अनुपस्थित का, निःशब्द का आभास पा जाते हैं।
मेरे सबसे प्रिय कवियों में से हैं सोमेश।
वे हिन्दी कविता ही के नहीं, कविता के नक्षत्र पर एक विलक्षण स्वर हैं।
उनकी दृष्टि के आलोक में जो यथार्थ लगातार स्वयं को प्रश्नांकित करता एक ठोस प्रति-यथार्थ की लयबद्ध रचना में अनवरत समाहित होता चलता है….यह कविता में कभी कभी ही सम्भव हो पाता है।
मज़े की बात यह भी है कि रोज़ी रोटी के लिए जो हाथ पैर हम में से अधिकांश कवियों को अन्त तक मारने पड़ते हैं, उस उपक्रम में भी सोमेश की विश्वदृष्टि उनके काम आती है।
उनके जीवन और लेखन में कोई फांक नहीं दिखती।
मसलन वे अक्सर कहा करते हैं, मैं धूल को गंदगी नहीं मानता। कभी कभार ही अपने कमरे को बुहारता हूँ।
वे ग्राम्य जीवन में और मिट्टी में रमे हुए कलाकार हैं जो पृथ्वी के क्षरित होते संसाधनों का इतना न्यूनतम उपयोग करते हैं कि देखने वाले उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।
बस उनकी कविताएं होती रहें, हम उनसे स्वयं को शिल्पित करते रह सकें!
सोमेश एक ऐसे कवि हैं जो अत्यंत कुशलता से उन चीज़ों की आत्मा को महसूस करते हैं जिन्हें अमूमन कवि भूल जाते हैं —सूक्ष्म, अक्सर अनदेखी जगहें जो गहन शांति में गूँजती हैं।
उनका काम अस्तित्व की एक अनूठी समझ को दर्शाता है, जहाँ खालीपन केवल एक भ्रांति है, और जीवन के हर कोने में उनकी ज़रूरत है। उनकी कविता मानवीय भावनाओं के विभिन्न स्तरों की खोज करती है, सतह दर सतह छिपी जटिलताओं को उजागर करती हैं ।
ये पंक्तियाँ मानव अनुभव का एक मानचित्र प्रस्तुत करती हैं, जिसमें संवेदनाओं और संबंधों के परिदृश्यों का मिश्रण है। हर कविता एक बहु-स्तरीय टेपेस्ट्री की तरह खुलती है, पाठकों को अपने अस्तित्व के प्रश्नों में गहराई से उतरने के लिए आमंत्रित करती है।
सोमेश की भाषा सरल और गहन दोनों है, जो जीवन की धड़कन को कैद करती है, यह दर्शाते हुए कि कैसे सबसे साधारण स्थान भी अर्थ और भावना से भरे हो सकते हैं।
उनकी खोज के माध्यम से, सोमेश हमें अस्तित्व की प्रकृति पर गहराई से विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं—हमें दिनचर्या में सुंदरता खोजने और यह पहचानने के लिए चुनौती देते हैं कि हमारी ज़िंदगी को परिभाषित करने वाली समृद्ध भावनात्मक बनावट कहाँ मिलती हैं? उनका काम इस धारणा का प्रतीक है कि हर स्थान, चाहे वह कितना भी विनम्र हो, कहानियों से भरा होता है जो कहे जाने का इंतिज़ार करती हैं।
सोमेश को पढ़ने के बाद बाहर और भीतर उसी चिरवांछित नीरवता का अनुभव होता है जिसे और कोई चीज निर्मित नहीं कर सकती। जिसे वे मौन का उत्सव और भाषा के अभाव का दम कहते हैं वही चमकने लगता है हर ओर, आत्म से साक्षात्कार का क्षण।
क्या चीज़ बनाती होगी किसी कवि को ऐसा कि वह कहीं न होना चाहते हुए भी हर जगह दिख रहा है।
सोमेश की कविताएँ बिल्कुल अलग तरह की इंटेंसिटी लिए होती हैं
सोमेश की कविताएँ पढ़कर लगता है कोई आध्यात्मिक साधना करने वाले कवि ने या किसी स्पिरिचुअल छटपटाहट से ग्रस्त कवि ने यह लिखी है।
यह कविताएँ जो भाषा से मुक्त होना चाहती है, सबसे अधिक भाषा में घटित होती है और शायद इसलिए ही भाषा से मुक्त होने को यह कविताएँ इतनी कसमसाती है।
ऐसी कविताएँ कवि के बावजूद (in spite of the poet) संभव होती है। कभी कभी यह कविताएँ प्रार्थना सी लगती है, एक नास्तिक की प्रार्थनाओं सी।
सोमेश की कविताएं कौतूहल को जन्म देती हैं! जिज्ञासुओं को और जिज्ञासु बनाती हैं।
अमूर्तन और आकाश/अवकाश को इतनी सूक्ष्मता और संक्षिप्तता से रेखांकित कर देना कि अनेक आयामों में अनेकानेक भावार्थ उद्भाषित हो उठे, ऐसा सम्भव हो पाना विरल है। ये कविताएं इस ‘विरल’ का अन्वेषण कर पाने में कामयाब हैं। कवि को बधाई।
बहुत कम खर्च करके बहुत कुछ पाने का भाव आता है इन कविताओं। को पढ़कर । रिक्तता को भरने को जरूरी नहीं कि उसे अनुपम और असाधारण बिमबों की दरकार हो कोई एक शब्द जो कौंधता है उससे ही आलोकित हो उठता है अपना एकांत और अपना सूनापन। सोमेश की कविताएं कम जगह घेरती हैं, लेकिन उनकी दृष्टि संपन्नता गहरे उदधि की तरह फैलती चली जाती है।
सोमेश की कविताएं वैक्यूम में वैक्यूम उत्पन्न करती हैं। वे
दुनिया को उलीचते हैं , जो बार बार भर जाती है।वे वहां होते हैं जहां वे अपना होना छोड़ आये, लेकिन वे अपना न होना लिये फिरते हैं। सोमेश को पढ़ते रहना चाहिए चूंकि वे कुछ भी याद रखने के लिये नहीं लिखते। समालोचन को समय समय पर उन्हें प्रस्तुत करते रहना चाहिए।