सौमित्र चट्टोपाध्याय अभिनय का आदर्श कल्लोल चक्रवर्ती |
‘मैं तो चाहता हूँ कि जब मैं रास्ते से चलूं, तो लोग कहें कि वह जा रहा है, उसके जैसा अभिनय किसी ने नहीं किया. इसके बगैर मेरे इस जीवन का भला क्या मतलब है.’
सौमित्र चट्टोपाध्याय.
रवींद्रनाथ ने अपनी नवोन्मेष शालिनी प्रतिभा से जिस बंगाली नवजागरण को आकार दिया था, और 19वीं-20वीं सदी में साहित्य और कला के क्षेत्र में सत्यजित राय, सुनील गंगोपाध्याय, महाश्वेता देवी आदि ने जिस परंपरा को आगे बढ़ाया, सौमित्र चट्टोपाध्याय उस बंगाली रेनेसां के आखिरी प्रतीक पुरुष थे. रवींद्रनाथ की तरह ये सब भी कई विधाओं में निष्णात थे. सत्यजित राय निर्देशक के अलावा लेखक, पटकथा लेखक, चित्रकार, संगीत निर्देशक थे. सुनील गंगोपाध्याय ने अपनी शरीरी रोमांटिक कविताओं के जरिये बांग्ला कविता में रवींद्रनाथ और उनके अशरीरी, अतींद्रिय प्रेम को सबसे गहरी चुनौती दी, ‘सेई समय’, ‘पूर्ब पश्चिम’ और ‘प्रथम आलो’ जैसे युगांतरकारी उपन्यास लिखे तथा लालन फकीर से लेकर शिशिर कुमार भादुड़ी तक की प्रामाणिक जीवनी लिखी. ऐसे ही महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के पक्ष में प्रामाणिक ढंग से लिखने के साथ-साथ वंचितों के साथ खड़े होकर रचनात्मकता को सामाजिकता से जोड़ने का अतुलनीय उदाहरण पेश किया.
सौमित्र चट्टोपाध्याय बौद्धिक, कवि, लेखक, संपादक, पेंटर और नाटककार भी थे, लेकिन उनकी सबसे गहरी पहचान उनके अभिनय के कारण थी. ‘अपुर संसार’ का संवेदनशील अपू हो या ‘झिन्देर बंदी’ का मूंछों में मुस्कराता खलनायक मयुरवाहन हो या ‘गणशत्रु’ का ईमानदार डॉक्टर अशोक गुप्त, ‘हीरक राजार देशे’ का उदयन पंडित और ‘तीन भुवनेर पारे’ का मंटू हो या ‘कोनी’ फिल्म का सख्त कोच क्षितिश सिन्हा या फिर फेलु दा जैसा शार्प जासूस-सौमित्र ने सभी भूमिकाओं के साथ न्याय किया. ‘कोनी’ फिल्म में कोच बने सौमित्र का वह यादगार संवाद, ‘फाइट कोनी, फाइट’ बाद के दौर में सौमित्र के जीवन का जैसे पर्याय बन गया था. इसी संवाद ने उन्हें कैंसर से लड़ने में हिम्मत दी थी. लेकिन कोरोना से लड़ने में यह संवाद मददगार नहीं हुआ.
सौमित्र चट्टोपाध्याय ने बांग्ला सिनेमा में अभिनय के नए प्रतिमान गढ़े. उत्तम कुमार, छवि विश्वास और विकास राय जैसे बंगाली अभिनेताओं के पास सौमित्र जैसा अभिनय रेंज नहीं था, तो शंभु मित्र, अजितेश बंद्योपाध्याय, उत्पल दत्त और यहां तक कि शिशिर भादुड़ी जैसे रंगमंच के दिग्गज अभिनेताओं में सौमित्र जैसी सिनेमाई खूबसूरती और स्वीकार्यता नहीं थी. सौमित्र बांग्ला रंगमंच की भी पहचान थे, तो रवींद्रनाथ की कविताओं की आवृत्ति (पाठ) से-जिसकी बांग्ला में सुदीर्घ परंपरा है, उन्होंने खास पहचान बनाई. वह एक पेंटर भी थे, जिनकी पेंटिंग्स की वड़ोदरा और कोलकाता में प्रदर्शनियां लग चुकी हैं. उन्होंने चित्रकार मनु पारिख पर एक डॉक्यूमेंटरी का निर्देशन भी किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने लंबे समय तक ‘एखोन’ नाम की पत्रिका का संपादन किया.
वर्ष 1986 में उत्तम कुमार के असामयिक निधन के बाद से ही सौमित्र टॉलीवुड (बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री) में प्रतिद्वंद्वीहीन थे. बीती सदी के सातवें-आठवें दशक तक उत्तम कुमार और सौमित्र के बीच वैसी ही तुलना होती थी, जैसी दो शीर्षस्थ बांग्ला कवियों माइकल मधुसूदन दत्त और रवींद्रनाथ, क्षेत्रीय आधार पर विभाजित बंगालियों की दो श्रेणियों- घोटी (पश्चिम बंगाल के बंगाली) और बांगाल (पूर्व बंगाल यानी बांग्लादेश के बंगाली), दो उत्कृष्ट बांग्ला मिठाइयों रसगुल्ला और संदेश, दो बेहद पसंदीदा मछलियों रोहू और हिल्सा, तथा कोलकाता की दो दिग्गज फुटबॉल टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल को लेकर की जाती रही है. उत्तम कुमार की लोकप्रियता निस्संदेह शीर्ष पर थी. उन्हें महानायक का दर्जा हासिल था. विभाजन, गरीबी और पिछड़ेपन ने जिस बंगाली श्रेष्ठता की भावना को ध्वस्त कर दिया था, उत्तम कुमार के अभिनय के जरिये वह जैसे फिर वापस लौटी थी.
विस्थापन में अपना गांव, घर, पेशा और पहचान खो चुके बंगाली बीती सदी के साठ और सत्तर के दशक में उत्तम कुमार के जरिये अपनी श्रेष्ठता ग्रंथि शांत करते थे. उत्तम कुमार धोती-कुर्ते में पारंपरिक बंगाली लगते थे, तो कोट-पैंट और टाई में उतने ही स्मार्ट. पर्दे पर गंवई बंगाली संस्कृति को उन्होंने देखते ही देखते महानगरीय बोध से लैस कर दिया था. लेकिन उत्तम कुमार और सौमित्र में एक बुनियादी फर्क रहा है-उत्तम कुमार के जरिये बांग्ला सिनेमा को ग्लैमर मिला, जैसे कि हिंदी सिनेमा में वह अमिताभ बच्चन के जरिये मिला. जबकि सौमित्र ने अभिनय को जीवन से जोड़कर देखा. जो बंगाली भद्रलोक सिनेमा को जीवन का आईना मानते थे, वे सौमित्र के शालीन और संजीदा अभिनय के मुरीद थे.
उत्तम कुमार अपनी स्थापित छवि से थोड़ा भी डिगने को तैयार नहीं थे, इसी कारण उन्होंने सत्यजित राय की ‘घरे-बाइरे’ में संदीप का किरदार निभाने से इनकार कर दिया था. सौमित्र ने ही एक बार कहा था, उत्तम कुमार अपनी हेयर स्टाइल बदलने के लिए भी तैयार नहीं होते थे. यह उनकी सीमा थी.
उत्तम कुमार के करीब सात वर्ष बाद रुपहले पर्दे से शुरुआत करने वाले सौमित्र ने अभिनय का जो रास्ता चुना, वह ग्लैमर और चकाचौंध के बजाय जीवन से जुड़े सहज, स्वाभाविक अभिनय का था. उत्तम कुमार के रूप में बांग्ला सिनेमा को स्टार भले ही मिल गया था, पर अभिनेता उसे सौमित्र के रूप में ही मिला. सुपर स्टार छोड़िए, सौमित्र ने कभी स्टार बनने की भी कामना नहीं की. अपने उच्चारण और साहित्य प्रेम के साथ सौमित्र बांग्ला सिनेमा के पहले (और संभवतः अंतिम भी) बौद्धिक के रूप में सामने आए, जिस कारण उन्हें थिंकिंग मैन’स हीरो कहा गया.
सौमित्र का यह व्यक्तित्व उस पारिवारिक परंपरा से आया था, जो बौद्धिक था. उनके दादा और पिता, दोनों राजनीति और कला से ओतप्रोत जुड़े थे. क्रांतिकारी स्वभाव के दादा कृष्णनगर में एक थियेटर संस्था से जुड़े थे, तो कोलकाता हाई कोर्ट में वकालत और फिर सरकारी नौकरी करने वाले पिता नाटक करते थे और आवृत्ति (काव्य पाठ) में उनकी गहरी रुचि थी.
कृष्णनगर के उनके पुश्तैनी घर में क्रांतिकारी बाघा जतीन (यतींद्रनाथ सेनगुप्त), एनी बेसेंट, सुभाष चंद्र बोस, सरोजिनी नायडू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, काजी नजरुल इस्लाम आदि का आना-जाना होता था. सौमित्र की माँ आशालता देवी साहित्य प्रेमी थीं. उनके पिता यानी सौमित्र के नाना सौरिंद्रमोहन मुखर्जी चर्चित लेखक थे. रवींद्र संगीत की दिग्गज गायिका सुचित्रा मित्र सौरिंद्रमोहन की बेटी यानी सौमित्र की मौसी थीं. माइकल मधुसूदन दत्त के ‘मेघनाद बध काव्य’ के एक पात्र सौमित्री किशोरी से प्रभावित होकर आशालता देवी ने अपने बेटे का नाम सौमित्र रखा था. रवींद्रनाथ के निधन के दिन स्कूल में छुट्टी हो जाने के कारण जब सौमित्र के भैया घर लौट आए थे, तो वह मर्मांतक खबर सुनकर उनकी साहित्य प्रेमी मां रो पड़ी थीं. तब सौमित्र छह साल के थे. उन्हें अभिनय के गुण पिता से मिले, तो साहित्य प्रेम के बीज उनमें मां ने बोए. मां ने ही उन्हें रवींद्रनाथ की कविताओं से परिचित कराया.
दो |
सौमित्र के बचपन का नाम पुलु था. उन्होंने छोटी उम्र से ही नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया था. रवींद्रनाथ के ‘मुकुट’ और ‘डाकघर’ जैसे नाटकों में उनकी अभिनय प्रतिभा प्रारंभ से ही दिखने लगी थी. उन्हें पुरस्कार मिलने लगे थे. छोटी उम्र में फिल्म का चस्का लग गया था और कृष्णनगर में स्कूल से भागकर वह बांग्ला और अंग्रेजी फिल्में देखने जाते थे. पिता की तबादले वाली नौकरी ने किशोर पुलु को अनुभव संपन्न करना भी शुरू किया था. बारासात में रहते हुए एक दिन पुलु ने आजाद हिंद फौज के सेनानियों को रेलगाड़ी के डब्बे में जानवरों की तरह ठुंसे हुए लौटते देखा. वर्ष 1939 में दार्जिलिंग में देखी हॉलीवुड की एक फिल्म ‘द ईयर्लिंग’ ने उन्हें गहरे तौर पर प्रभावित किया और कई रात वह सो नहीं पाए. बाद के वर्षों में दो और दृश्यों ने उन्हें परेशान किया. एक था बंगाल का अकाल (1943), और दूसरा था कोलकाता का दंगा (1946).
वर्ष 1943 के अकाल में दोपहर के भोजन के समय भूखे लोगों का दरवाजे पर आकर मांड़ (चावल का पानी) मांगने की स्मृति लंबे समय तक उन्हें विचलित करती रही थी. इसी तरह हावड़ा में रहते हुए लाशों और जले हुए झंडों ने सौमित्र को जीवन के एक भिन्न अनुभव से परिचित कराया. दशकों बाद एक नाटक ‘तृतीय अंको अतएव’ (थर्ड ऐक्ट देयरफोर) में, जो सौमित्र पर ही केंद्रित था, उनके बालपन के इन सारे अनुभवों और प्रभावों को प्रस्तुत किया गया.
कोलकाता में बांग्ला साहित्य से एम.ए. करने के बाद रेडियो में उद्घोषक की नौकरी करते हुए सौमित्र को रंगमंच और सिनेमा के दो ऐसे गुरु मिले, जिन्होंने उनका जीवन बदल दिया. उन दिनों वह सुनील गंगोपाध्याय और अमिताभ दासगुप्त के साथ कॉफी हाउस में साहित्य और कला की चर्चा करते थे. रंगमंच उनका पहला प्रेम था. लेकिन इप्टा और बहुरूपी के नाटक उन्हें बहुत प्रभावित नहीं करते थे. अभिनय में रुचि होने के बावजूद फिल्मों में जाने के बारे में उन्होंने सोचा नहीं था. जबकि बांग्ला सिनेमा के महानायक उत्तम कुमार उनके बहनोई के मित्र होने के कारण परिचित ही थे.
वर्ष 1956 में शिशिर कुमार भादुड़ी के नाट्य ग्रुप श्रीरंगम का एक नाटक उन्होंने देखा, ‘प्रफुल्ल.’ शिशिर भादुड़ी के स्वाभाविक अभिनय ने उन पर स्थायी असर छोड़ा. चंद्रगुप्त की भूमिका में शिशिर भादुड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ अभिनय पहले ही कर चुके थे. वर्ष 1956 भादुड़़ी के जीवन की ढलान था. लेकिन सौमित्र उन्हें अपना गुरु मान चुके थे.
शिशिर भादुड़ी ने सौमित्र को उनकी आवाज़ की विशिष्टता की ओर ध्यान दिलाया, ब्रेख्त के नाटकों से परिचित कराया और अभिनय का गुरु मंत्र दिया,
‘आउड़ियो ना, आउड़ियो ना, आमि की कोरछि-सेटा दैखो, कैनो कोरछि-सेटा भाबो, आमार मतो कोरे करो’ (रटो मत, रटो मत, मैं क्या कर रहा हूँ-वह देखो, क्यों कर रहा हूँ, यह सोचो, मेरी तरह देखकर करो).
सौमित्र ने यह सीख गांठ बांध ली और मैनरिज्म पर जोर देने के बजाय अभिनय को जीवन से जोड़ा. शिशिर भादुड़ी के जीवन के आखिरी तीन वर्षों तक सौमित्र उनके पास रहे, उनसे सीखा, और बाद में ‘प्रफुल्ल’ नाटक में ही उनके साथ उन्होंने अभिनय भी किया.
लेकिन सौमित्र के जीवन का टर्निंग पॉइंट आना अभी बाकी था. वह बांग्ला सिनेमा के प्रति भले ही बहुत उत्साही नहीं थे, पर वर्ष 1955 में रिलीज हुई सत्यजित राय की फिल्म ‘पथेर पांचाली’ ने उन्हें चकित कर दिया. ‘बाइसिकल थीफ’ जैसी फिल्मों से अभिभूत सौमित्र ने सोचा नहीं था कि बांग्ला में ऐसी यथार्थवादी फिल्म भी कभी बन सकती है. उन्होंने वह फिल्म देखी, और संयोग से सत्यजित राय के सम्मान में कोलकाता विश्वविद्यालय में आयोजित एक सभा में भी वह मौजूद थे. ‘पथेर पांचाली’ ने उन्हें बेहद प्रभावित किया.
सत्यजित राय उसके अगले खंड ‘अपराजितो’ पर फिल्म बनाना चाहते थे और किशोर अपू की खोज में थे कि उनके सहायक ने कॉलेज स्ट्रीट में अपने साथी से बात कर रहे सौमित्र को इसका उपयुक्त पात्र पाया और उन्हें राय के पास ले गए. सत्यजित राय ने उन्हें देखते ही कहा, ‘ओह, तुम तो अपराजितो के अपू से बड़े निकले.’ सौमित्र का दिल टूट गया. लेकिन उन्हें देखने के साथ ही सत्यजित राय ने इसका तीसरा खंड ‘अपुर संसार‘ बनाने का मन ही मन फैसला कर लिया था. सौमित्र को इसके बारे में मालूम नहीं था. वह सत्यजित राय की फिल्मों की शूटिंग में जाते रहे. ‘जलसाघर’ की शूटिंग के दौरान राय ने कद्दावर अभिनेता छवि विश्वास को सौमित्र से मिलाते हुए कहा, ‘यह सौमित्र हैं, जो ‘अपुर संसार’ फिल्म में मुख्य किरदार निभाएंगे.’
‘अपुर संसार’ ने सत्यजित राय की वैश्विक पहचान को और व्यापक किया, तो इस फिल्म के जरिये सौमित्र के अभिनेता जीवन की शुरुआत हुई. सौमित्र ने करीब तीन सौ फिल्मों में काम किया, लेकिन पहली फिल्म अपू ने उन्हें जो पहचान दी, वह अंत तक उनसे जुड़ी रही.
विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के दो उपन्यास-‘पथेर पांचाली’ और उसका दूसरा खंड ‘अपराजितो’ सिर्फ बांग्ला नहीं, भारतीय और विश्व साहित्य की भी अनुपम सृष्टि हैं. इन दोनों उपन्यासों का केंद्रीय पात्र अपूर्व कुमार राय यानी अपू है.
‘पथेर पांचाली’ (बांग्ला में पांचाली कथा को कहते हैं- जैसे सत्यनारायण की कथा या बृहस्पतिवार की कथा)- जिसका अंगरेजी अनुवाद ‘सांग ऑफ द रोड‘ है, बालक अपू की कहानी है, तो ‘अपराजितो’ (यानी पराजित न होने वाला) में अपू के बड़े होने, कोलकाता में पढ़ने और फिर उसके जीवन संघर्ष की कहानी है. अपू के चरित्र की खासियत है उसका प्रकृति से प्रेम, स्वप्नदर्शी होना और विपत्तियों से हार न मानना. इसीलिए तो अपू अपराजित था. सत्यजित राय ने ‘पथेर पांचाली’ का जो पोस्टर बनाया था, उसमें बालक अपू की बड़ी-बड़ी सपनीली आंखें ही बहुत कुछ कह जाती थीं. ‘अपराजितो’ की तुलना में ‘पथेर पांचाली’ ज्यादा महत्वपूर्ण किताब है.
सत्यजित राय ने अपू पर तीन फिल्में बनाईं और कुल चार लोगों ने ये भूमिकाएं निभाईं. लेकिन दशकों बाद ‘पथेर पांचाली’ के अपू सुबीर बनर्जी या ‘अपराजितो’ के अपू पिनाकी सेनगुप्त (बालक) तथा स्मरण घोषाल (किशोर) को ज्यादातर लोग नहीं जानते. सुबीर बनर्जी ने ‘पथेर पांचाली’ के बाद कोई फिल्म ही नहीं की-अलबत्ता चर्चित फिल्म निर्देशक कौशिक गांगुली ने 2014 में सुबीर बनर्जी पर केंद्रित ‘अपुर पांचाली’ नाम से एक फिल्म जरूर बनाई. जबकि स्मरण घोषाल ‘अपराजितो’ के बाद रवींद्रनाथ पर सत्यजित राय द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंटरी में युवा रवींद्रनाथ बने थे. लेकिन ‘अपुर संसार‘ ने, जो ‘अपराजितो’ उपन्यास पर ही आधारित है और जिस पर फिल्म बनाने का फैसला राय ने बाद में लिया, सौमित्र की वैश्विक पहचान बनाई.
बांग्ला के सबसे महत्वपूर्ण औपन्यासिक पात्र अपू दरअसल विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ही हैं-‘पथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ वस्तुतः विभूतिभूषण की ही आत्मकथा हैं. और व्यापकता में देखें, तो अपू और सौमित्र एक दूसरे के पूरक हैं. अपू के चरित्र को सौमित्र ने दिगंतव्यापी विस्तार और अपरिमित पहचान दी, तो अपू ने भी सौमित्र का रुपहला चरित्र गढ़ा.
अपू की तरह सौमित्र भी स्वप्नजीवी थे, उनकी आंखें हंसती थीं, दोनों साहित्यप्रेमी थे और दोनों कठिनाइयों से लड़ते थे. वस्तुतः लड़ने की यह प्रेरणा प्रकृति और साहित्य से आती है. अपू भौतिक विपन्नता के साथ-साथ संबंधों के अभाव से भी जूझता है-पहले मां की मृत्यु, फिर बचपन की साथी लीला उससे बिछड़ जाती है, तो यौवन में पत्नी अपर्णा की असामयिक मृत्यु उसे यायावर बना देती है. सौमित्र के भौतिक अभाव का बेशक कोई विवरण नहीं है, लेकिन सिनेमा में आने पर बंगाली आदर्शवाद ने उन्हें पैसे के लिए हिंदी फिल्मों में जाने से रोका, इसका जिक्र उन्होंने एकाधिक बार किया. सौमित्र ने एकाधिक बार स्वीकारा था कि यौवन में पैसा कमाने के बारे में नहीं सोचा, इसलिए वृद्धावस्था में पैसे कमाने की मजबूरी है.
यह मजबूरी ऐसी थी कि बीती सदी के आखिरी दशक में उन्हें चालू बांग्ला फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों के साथ-साथ विज्ञापनों में काम करने के लिए विवश होना पड़ा, यहां तक कि कोरोना के दु:समय में भी पच्चासी साल के इस अभिनेता को शूटिंग के लिए बाहर निकलना पड़ा. लेकिन सौमित्र की महानता इसमें थी कि बांग्ला सिनेमा के क्षरण के दौर में भी उन्होंने ‘कोनी’, ‘आतंक’, ‘बेलाशेषे’, ‘मयूराक्षी’ जैसी अनेक स्तरीय और यादगार फिल्में दीं.
अपू के बाद जिस दूसरे किरदार ने सौमित्र को व्यापक पहचान दी, वह जासूस फेलु दा का किरदार था. अपू विभूतिभूषण की सृष्टि हैं, तो फेलु दा के सर्जक सत्यजित राय हैं. फेलु दा या प्रदोष चंद्र मित्र का किरदार सबसे पहले 1965 में सत्यजित राय और सुभाष मुखोपाध्याय के संपादन में निकलने वाली बाल पत्रिका ‘संदेश’ में आया था, जिसके संस्थापक सत्यजित राय के दादा उपेंद्र किशोर रायचौधुरी थे. सत्यजित राय ने फेलु दा को केंद्र में रखकर दो फिल्में बनाईं-‘सोनार केल्ला’ (सोने का किला) और ‘जय बाबा फेलुनाथ’.
खुद सत्यजित राय को जासूसी कहानियाँ पढ़ना पसंद था, और सौमित्र भी फेलु दा को केंद्र बनाकर लिखी गई धारावाहिक जासूसी कहानी ‘बादशाही आंग्टी’ (शाही अंगूठी) के फैन थे. हिंदी के विपरीत बांग्ला साहित्य में न केवल जासूसी रचनाओं का साहित्यिक मूल्य अधिक रहा है, बल्कि वहां एकाधिक जासूसी चरित्रों ने अपनी पहचान बनाई है. इनमें व्योमकेश बख्शी (शरदिंदु बंद्योपाध्याय), किरीटी राय (नीहाररंजन गुप्त), काकाबाबू (सुनील गंगोपाध्याय), अर्जुन (समरेश मजूमदार) आदि प्रमुख हैं. बोरिया मजूमदार को दिए अपने एक इंटरव्यू में सौमित्र ने इसका जिक्र किया था कि ‘सोनार केल्ला’ के रिलीज होने के बाद युवा पीढ़ी उन्हें फेलु दा के रूप में पहचानने लगी थी. सत्यजित राय के निधन के बाद उनके बेटे संदीप राय ने शशि कपूर, सव्यसाची चक्रवर्ती और आबीर राय को फेलु दा का किरदार दिया था.
सत्यजित राय और सौमित्र चटर्जी की जोड़ी भारतीय सिनेमा में एक घटना है. राय ने अपनी चौदह फिल्मों में सौमित्र को नायक की भूमिका दी. इस मामले में दिग्गज जापानी फिल्म निर्देशक-अभिनेता आकिरो कुरोसावा-तोसिरो मिफुने, स्वीडिश निर्देशक-अभिनेता इंगमार बर्गमैन-मैक्स वोन सिडो तथा इतालवी निर्देशक-अभिनेता फेडेरिको फेलिनी-मार्सेलो मास्त्रोएनी की जोड़ियां राय-सौमित्र की जुगलबंदी से जरूर आगे है. राय ने ‘अपुर संसार’ की शूटिंग शुरू होने से पहले सौमित्र को फिल्म का फर्स्ट ड्राफ्ट दिया था- तब तक वह चार फिल्में बना चुके थे, लेकिन किसी अभिनेता को उन्होंने पूरी फिल्म का ड्राफ्ट नहीं दिया था. उन्होंने सौमित्र को अपू की पूरा प्रोफाइल भी दो फुलस्केप शीट में दी थी. इससे पहले किसी अभिनेता की उन्होंने ऐसी मदद नहीं की थी. इसके अतिरिक्त सौमित्र को उन्होंने यह भी सिखाया कि जब अभिनेता सेट पर नहीं होता, तब भी उसे किरदार को डेवलप करना पड़ता है.
सत्यजित राय ने सौमित्र को हॉलीवुड की फिल्मों और पश्चिम के संगीत से परिचित कराया. सौमित्र को कद्दावर अभिनेता बनाने में सत्यजित राय का योगदान सर्वाधिक रहा. रवींद्रनाथ की कहानी ‘नष्ट नीड़’ पर बनी फिल्म ‘चारुलता’ में अपनी हस्तलिपि को 19 वीं शताब्दी की बांग्ला हस्तलिपि जैसी करने के लिए सौमित्र ने छह महीने तक लिखने की प्रैक्टिस की और ‘अशनि संकेत’ फिल्म में अकालग्रस्त बंगाल के एक गरीब ब्राह्मण की भूमिका में शारीरिक मुद्राओं और देहभाषा को किरदार के अनुरूप बनाने के लिए सौमित्र को मेहनत करनी पड़ी, तो उसके पीछे सत्यजित राय का ही दिशा-निर्देश था. बीरभूम में 45 डिग्री तापमान में गहरे मेकअप के साथ ‘अभिजान’ फिल्म की शूटिंग के दौरान एक दिन जब सौमित्र असहज हो गए, तब यूनिट के एक सदस्य ने सत्यजित राय को सूचित किया. राय ने सौमित्र को सुनाकर कहा कि अभिनेताओं को इस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. यह सुनकर सौमित्र को दुख तो हुआ, लेकिन उससे उनमें अभिनय के प्रति पेशेवर प्रतिबद्धता भी आई.
किरदार में गहरे घुसने की क्षमता, मैनरिज्म का कम से कम इस्तेमाल और बेहद प्रभावी संवाद अदायगी सौमित्र को दूसरों से अलग करती थी. श्याम बेनेगल का कहना है कि अभिनय का ऐसा कोई दरवाजा नहीं था, सौमित्र ने जिससे प्रवेश न किया हो. इस संदर्भ में तपन सिन्हा की ‘झिन्देर बंदी’ फिल्म का खासकर उल्लेख किया जा सकता है. सौमित्र ने न केवल परंपरा तोड़कर इस फिल्म में खलनायक की भूमिका निभाई, बल्कि क्रूरता की अभिव्यक्ति के लिए सिर्फ उनकी मुस्कान ही काफी थी. और अपने इस अभिनय से उन्होंने फिल्म में उत्तम कुमार से ज्यादा प्रशंसा बटोरी. सिर्फ स्तरीय फिल्मों में ही नहीं, जीविका के लिए स्वीकार की गई सामान्य फिल्मों में भी उनका अभिनय अलग होता था. लोग सौमित्र के नाम से वे फिल्में देखने आया करते थे.
सत्यजित राय के अलावा मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे निर्देशकों ने भी सौमित्र को गढ़ने में भूमिकाएं निभाईं. प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘कफन’ पर तेलगू में बनी मृणाल सेन की फिल्म ‘ओका ओरि कथा’ ने सत्यजित और सौमित्र, दोनों को हैरान कर दिया था. सत्यजित राय के बाद वह मृणाल सेन ही थे, जिनके लिखे संवादों ने सौमित्र को प्रभावित किया. जबकि तपन सिन्हा ने सौमित्र को सिखाया कि कैमरे के सामने किस तरह से चला जाता है. सौमित्र ने मृणाल सेन की फिल्मों ‘पुनश्च’, ‘प्रतिनिधि’, ‘आकाश कुसुम’ और ‘महापृथ्वी’ में काम किया था. तपन सिन्हा की फिल्म ‘क्षुधितो पाषाण’ (रवींद्रनाथ की कहानी) और ‘झिन्देर बंदी’, अजय कर की फिल्म ‘सात पाके बांधा’, तरुण मजूमदार की ‘संसार सीमांते’ और ‘गणदेवता’ (ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास) तथा असित सेन की ‘स्वरलिपि’ सौमित्र की चर्चित फिल्में थीं. ‘झिन्देर बंदी’ (प्रिजनर ऑफ जेन्दा का बांग्ला संस्करण) में सौमित्र ने खलनायक मयुरवाहन की भूमिका निभाई थी-जबकि नायक उत्तम कुमार थे.
अपने समकालीन बांग्ला अभिनेताओं- उत्तम कुमार और विश्वजीत, तथा अभिनेत्रियों सुचित्रा सेन, सुप्रिया चौधुरी और शर्मिला टैगोर की तरह सौमित्र ने हिंदी फिल्मों में काम नहीं किया. बावजूद इसके कि दोस्त शशि कपूर ने उन्हें ‘कलयुग’ में तथा ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें ‘आनंद’ में काम करने का ऑफर दिया था. वह हिंदी फिल्में देखते थे और दिलीप कुमार तथा राज कपूर को पसंद भी करते थे. अलबत्ता यह जानना बेहद आश्चर्यजनक है कि हिंदी सिनेमा में विशेष रुचि न होने के बावजूद उनके रोल मॉडल हिंदी फिल्मों के अभिनेता बलराज साहनी थे. नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, कमल हासन, इरफान खान, मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी उनके पसंदीदा अभिनेताओं में रहे. कमल हासन के बारे में उनका कहना था कि बांग्ला में उनके कद का कोई अभिनेता नहीं हुआ. ऐसे ही ‘लंच बॉक्स’ फिल्म देखने के बाद अभिभूत सौमित्र ने इरफान खान को फोन किया था.
सौमित्र ने हिंदी फिल्में क्यों नहीं कीं? उनका कहना था कि हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए उन्हें मुंबई में रहना पड़ता, जबकि कोलकाता, बांग्ला साहित्य-संस्कृति और बांग्ला नाटक से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं था. सौमित्र आपादमस्तक बंगाली थे और हिंदी फिल्म न करने से जुड़ा सवाल करने पर जीवनानंद दास की चर्चित पंक्ति उद्धृत करते थे,
‘बांग्लार मुख आमि देखियाछि, ताई आर कोनो मुख चाहि ना देखिते’ (बंगाल का चेहरा मैंने देखा है, इसलिए कोई और चेहरा देखना नहीं चाहता).
हालांकि हिंदी फिल्मों में काम न करने का यह नुकसान भी हुआ कि उनकी वैसी अखिल भारतीय पहचान नहीं बन पाई, जैसी उनके जैसे कद्दावर अभिनेता की होनी चाहिए थी.
लेकिन सत्यजित राय की फिल्मों से शुरुआत करने के कारण प्रारंभ में ही उनकी जो वैश्विक पहचान बनी, वह अंत तक जारी रही. चर्चित अमेरिकी फिल्म समीक्षक पॉलिन कील ने सौमित्र को सत्यजित राय की ‘वन मैन स्टॉक कंपनी’ बताया था, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाओं में खुद को इस कुशलता से ढाला था कि पहचान में ही नहीं आते थे.
तीन |
सौमित्र पहले भारतीय थे, जिन्हें फ्रांस द्वारा कलाकारों को मिलने वाला सर्वोच्च सम्मान ‘ऑडर्स ऑफ आर्ट्स ऐंड लेटर्स’ मिला था. बाद में उन्हें फ्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘लेजिन ऑफ ऑनर’ भी मिला. फ्रेंच फिल्मकार कैथरीन बर्ज ने बीबीसी के लिए सौमित्र पर ‘गाछ’ (वृक्ष) नाम से एक डॉक्यूमेंटरी बनाई, तो बांग्लादेश के कवि मसूद करीम ने उन पर ‘कृष्णकलि’ नाम से एक डॉक्यूमेंटरी बनाई. यह सुखद संयोग ही है कि ऋत्विक घटक के नाती और चर्चित बांग्ला अभिनेता परमब्रत चटर्जी ने सौमित्र पर एक बायोपिक की शूटिंग उनकी मृत्यु से पहले पूरी कर ली थी. अभिनय के लिए दादासाहब फाल्के सम्मान सौमित्र को 2011 में मिला था. सत्यजित राय और मृणाल सेन के बाद आधुनिक बांग्ला सिनेमा की वह तीसरी शख्सियत थे, जिन्हें यह सम्मान मिला. यहां यह याद किया जाना चाहिए कि सौमित्र की ही समकालीन अभिनेत्री सुचित्रा सेन ने 2005 में दादासाहब फाल्के इसलिए ठुकरा दिया था, क्योंकि वह सार्वजनिक जीवन से दूर हो गईं थीं.
अभिनय के शिखर पर होते हुए सौमित्र थियेटर से जिस तरह जुड़े, उसकी मिसाल बहुत कम मिलती है. डेनिश लेखक डब्ल्यू डब्ल्यू जैकब की लघुकथा-‘द मंकी ज पॉ’ पर आधारित नाटक ‘मुखोश’ (मुखौटा), इब्सन के ‘घोस्ट’ पर आधारित नाटक ‘विदेही’ के अलावा ‘नामजीवन’, ‘नीलकंठ’, ‘राजकुमार’, ‘टिकटिकी’ (जासूस), ‘आत्तकथा’ (आत्मकथा-महेश एलकुंचवार), शेक्सपीयर के ‘किंग लियर’ पर आधारित ‘राजा लियर’ तथा अपने जीवन पर केंद्रित ‘तृतीयो अंक अतएव’ (थर्ड ऐक्ट देयरफोर), ‘घटक बिदाय’ आदि सौमित्र के चर्चित नाटक हैं. ‘आत्तकथा’ के शुभंकर को भला कौन भूल सकता है? किरदार में डूब जाने के लिए सौमित्र को कॉस्ट्यूम और मेकअप की जरूरत नहीं पड़ती थी. शेक्सपीयर के चर्चित नाटक ‘किंग लियर’ का अनुवाद ‘राजा लियर’ सौमित्र का आखिरी नाटक था, जिसके मंचन पर हमेशा दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ती थी.
सिर्फ यही नहीं कि सौमित्र जैसे शिखर अभिनेता का 1978 में रंगमंच की ओर मुड़ना अद्भुत था, बल्कि सौमित्र ने अपनी इस पहल से बांग्ला रंगमंच में नई जान फूंकी और दूसरे अभिनेताओं को भी इसके लिए प्रेरित किया. ‘मुखोमुखी’ नाम से उन्होंने एक नाट्य संस्था भी बनाई थी. जैसे शशि कपूर ने अपनी नाट्य विरासत बेटी संजना कपूर को सौंपी, वैसे ही सौमित्र के नाट्य संस्कार उनकी बेटी पौलमी बसु ने हासिल किए.
सौमित्र का साहित्य प्रेम अंत तक बरकरार रहा. रवींद्रनाथ उनकी अस्थि मज्जा में थे. आवत्ति (कविता पाठ) की उनकी सर्वाधिक ऑडियो रिकॉर्डिंग रवींद्रनाथ की कविताओं और काव्य नाटकों की है. खासकर गुरुदेव की ‘शेषेर कविता’ की उनकी आवृत्ति के लोग मुरीद थे. ऐसे ही जीवनानंद दास की ‘बनलता सेन‘, सुकांत भट्टाचार्य की ‘छाड़पत्र’ जैसी कविताओं की सौमित्र की आवृत्ति सुनने लायक है. सौमित्र खुद कवि थे, जिनका शुरुआती कविता संग्रह, ‘जलप्रपातेर धारे दांड़ाबो बोले’ (झरने के पास रुकूंगा सोचकर) वर्ष 1975 में प्रकाशित हुआ, जिसमें 54 कविताएं हैं. वह अपनी कविता पढ़ने में शर्माते थे, लेकिन अपने प्रियजनों को जन्मदिन पर अपनी एक नई कविता जरूर भेंट करते थे.
‘शब्दरा आमार बागाने’, ‘मध्यरातेर संकेत’, ‘हाय चिरजल’ ‘पद्मबीजेर माला’, ‘चंदनेर चिता’, ‘शब्द जाय-शब्द जाबे’, ‘होलुद रद्दुर’, ‘श्रेष्ठ कविता’ आदि उनके अन्य काव्य संग्रह हैं. ‘द्रष्टा’ नाम से उन्होंने खलील जिब्रान की कविताओं का अनुवाद भी किया है, जिसकी भूमिका शंख घोष ने लिखी थी. हालांकि उनकी कविताओं में राजनीतिक स्वर प्रधान हैं, पर कई जगह स्मृति और उनका व्यक्तित्व भी बोलता है.
सौमित्र ने गद्य भी लिखा है, जिनमें रवींद्रनाथ पर केंद्रित ‘प्रतिदिन तब गाथा’ तथा सत्यजित राय के साथ अपने अनुभवों पर आधारित ‘मानिकदार संगे’ किताब है, बाद में जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘द मास्टर ऐंड आई’ आया. सत्यजित और सौमित्र को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण किताब है. अपने साथ काम कर चुके वरिष्ठ अभिनेताओं के संस्मरणों पर आधारित ‘अग्निपथिकेरा’ और अभिनय के विविध आयामों पर केंद्रित ‘चरित्रेर संधाने’ उनकी बेहद महत्वपूर्ण किताबें हैं, तो ‘परिचय’ नाम से उनकी आत्मकथा है. उनका नाट्य लेखन ‘नाट्य समग्र’ के तीन खंडों में फैला हुआ है. वह बांग्ला साहित्य में सुनील गंगोपाध्याय, नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती आदि की रचनाओं के प्रशंसक थे, तो अमिताभ घोष के ‘द हंग्री टाइड’ और ‘द ग्लास पैलेस’ ने भी उन्हें प्रभावित किया था. रवींद्रनाथ, जीवनानंद, शक्ति चट्टोपाध्याय और सुनील गंगोपाध्याय के साथ-साथ उन्होंने युवतर कवियों की कविताओं का भी मंचों से लगातार पाठ किया.
बंगाल के चर्चित लोगों ने हर दौर में अपनी सामाजिक भूमिका और जिम्मेदारी का समुचित निर्वाह किया है, चाहे वह रवींद्रनाथ द्वारा जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में अंग्रेजों द्वारा दी गई नाइट की उपाधि लौटाने का उदाहरण रहा हो या बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार द्वारा नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग के विरुद्ध वामपंथी कवि शंख घोष द्वारा विरोध प्रदर्शन को नेतृत्व देना हो, अर्पणा सेन जैसी फिल्म शख्सियतों का सरकार के विरोध में सड़क पर उतरना हो या तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकालने के विरोध में जय गोस्वामी समेत दूसरे साहित्यकारों का विरोध जुलूस में निकलना हो. खद कम्युनिस्ट सौमित्र ने भी नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग का विरोध किया था. लेकिन इस कारण कम्युनिज्म से उनका भरोसा नहीं टूटा और न ही उन्होंने तृणमूल कांग्रेस से नजदीकी जताने की कोई जरूरत महसूस की. जबकि सिंगुर-नंदीग्राम के बाद बंगाल में लेखक-कलाकारों की बड़ी संख्या वाम मोर्चे से बाहर निकलकर तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई.
इसके विपरीत माकपा के मुखपत्र ‘गणशक्ति’ के पूजा विशेषांक में छपी सौमित्र की आखिरी रचना उन्हें एक जमीनी कम्युनिस्ट साबित करती थी, जिसमें उन्होंने लिखा था,
‘एखनो विश्वास कोरि, वामपंथाई विकल्पो’ (अब भी मानता हूँ कि वामपंथ ही विकल्प है).
सौमित्र बांग्ला फिल्म उद्योग के हजारों तकनीशियनों और कर्मचारियों के लिए बेहतर वेतन और कार्यस्थिति की लगातार मांग करते रहे थे. उन्होंने सीएए का विरोध तो किया ही था, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने और बाद के हालात पर जिन 49 लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी थी, उनमें सौमित्र भी थे. लॉकडाउन में माकपा ने कोलकाता के विभिन्न इलाकों में गरीबों के लिए श्रमजीवी कैंटीन खोले थे, जहां रियायती कीमत पर भोजन मिलता था. सौमित्र लगातार उन कैंटीनों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे.
पैसे के प्रति उदासीनता के पीछे वामपंथ के प्रति उनकी अटूट आस्था का भी योगदान था. कैंसर से उन्होंने जिस तरह लड़ाई लड़ी, वह ठोस जीवन मूल्यों के बगैर संभव नहीं थी. उनकी कई फिल्में राजनीतिक संदेश से भरपूर हैं. जैसे, ‘घरे-बाइरे’ का संदीप एक स्वदेशी आंदोलनकारी है, जिसकी लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्यवाद से है. ‘हीरक राजार देशे’ आपातकाल के विरुद्ध बनी फिल्म है, जो आज भी प्रासंगिक है, तो इब्सन की ‘एन इनिमी ऑफ द पीपल’ पर बनी फिल्म ‘गणशत्रु’ अंधविश्वास के विरुद्ध है.
बंगाल जिस सांस्कृतिक श्रेष्ठता पर गर्व करता रहा है, सौमित्र कदाचित उसके आखिरी प्रतिनिधि थे. साहित्य, कविता, नाटक, रवींद्र संगीत, फुटबॉल, अड्डेबाजी और मार्क्सवाद पर बंगाली रीझता रहा है, और इनमें से फुटबॉल को छोड़कर सौमित्र इन सभी से गहरे जुड़े थे. वह हॉकी के खिलाड़ी थे और क्रिकेट के प्रशंसक, जो बीती सदी के आठवें दशक तक ईडन गार्डन में होने वाले टेस्ट मैचों के उत्साही दर्शक हुआ करते थे.
बांग्ला के शीर्ष साहित्यकारों की रचनाओं के केंद्रीय पात्रों को सौमित्र ने रुपहले पर्दे पर जिस खूबी के साथ जीवित किया, वैसा इससे पहले नहीं हुआ था, चाहे वह रवींद्रनाथ के ‘घरे बाइरे’ का संदीप, ‘चारुलता’ (‘नष्टनीड़’) का अमल, ‘क्षुधितो पाषाण’ का टैक्स कलेक्टर और ‘तीन कन्या’ का अमूल्य हो या शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के ‘देवदास’ का देवदास, ‘परिणीता’ का शेखर, ‘दत्ता’ का विजय और ‘बैकुंठेर उइल’ का गोकुल मजुमदार हो, विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के ‘अपुर संसार’ (‘अपराजितो’) का अपू और ‘अशनि संकेत’ का गंगाचरण चक्रवर्ती हो, ताराशंकर बंद्योपाध्याय के ‘अभिजान’ का नरसिंह, ‘गणदेवता’ का देबू और ‘अग्रदानी’ का पुण्य चक्रवर्ती हो, सुनील गंगोपाध्याय के ‘अरण्येर दिन रात्रि’ का असीम हो या ‘देखा’ का शशिभूषण सान्याल.
वह बांग्ला सिनेमा में साहित्यिक अभिरुचि के शीर्ष पुरुष थे. हालांकि उनके आखिरी दौर में बांग्ला फिल्म उद्योग इन आदर्शों से बहुत दूर हो गया था. खुद सौमित्र ने एक घटना के जरिये बताया था कि बांग्ला फिल्मों की युवा पीढ़ी बांग्ला साहित्य से कितनी दूर हो गई है. वह एक बार चर्चित बांग्ला कवि शक्ति चट्टोपाध्याय के घर के पास शूटिंग कर रहे थे. तब तक शक्ति दिवंगत हो चुके थे, लेकिन उनकी पत्नी मीनाक्षी चट्टोपाध्याय से मिलने वह उनके घर पहुंच गए. थोड़ी देर बातचीत के बाद जब वह वापस सेट पर लौटे, तो सह अभिनेता ने उनसे पूछा, ‘शक्ति चट्टोपाध्याय से मुलाकात हुई?’ मजाकिये सौमित्र ने थोड़ी देर चुप रहने के बाद जवाब दिया था,
‘उनसे मिलने के लिए तो बहुत दूर जाना पड़ेगा.’
अभिनय के साथ-साथ सौमित्र ने अपने व्यक्तित्व के जरिये भी मिसाल कायम की. वह बंगाली आदर्शवाद की प्रतिमूर्ति थे. छह दशक की अपनी फिल्म यात्रा में सौमित्र का किसी विवाद से जुड़ना या भ्रष्टाचार में नाम आना तो दूर, कभी किसी अभिनेत्री के साथ उनकी नजदीकी की भी खबरें नहीं आईं. न ही सौमित्र के परिवारजनों का किसी मामले में कभी जिक्र हुआ. 21 वीं सदी के भूमंडलीकृत समाज में भी मध्यवर्गीय सौमित्र सादा जीवन और उच्च विचार के मूर्तिमान प्रतीक थे, जो राजनीति से लेकर साहित्य, खेल और आइडिया ऑफ इंडिया पर घंटों बात कर सकते थे.
कल्लोल चक्रवर्ती
पत्रकारिता में 28 साल का अनुभव. 25 साल से अमर उजाला के संपादकीय पेज पर. उत्तराखंड मुक्त विश्व विद्यालय, हल्द्वानी के लिए साहित्यिक पत्रकारिता पर पाठ तैयार करने के अलावा पत्रकारिता की एक किताब का पुनर्लेखन. तस्लीमा नसरीन के लेखों की दो किताबों के अनुवाद के अलावा विभूति भूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास आरण्यक का अनुवाद. एक कविता संग्रह कतार में अंतिम पिछले साल प्रकाशित. संप्रति अमर उजाला में स्थानीय संपादक |
सुन्दर, समग्र आलेख। सौमित्र बांग्ला समाज का भद्र और सौम्य प्रतिनिधि चेहरा थे। युवा अपू को भुलाना मुश्किल है। उनकी साहित्यिक समझ और सक्रियता को देखें तो मुम्बईया अभिनेताओं की बौध्दिक दरिद्रता बरबस कचोट दे जाती है। एक अंतर्विरोध भी है। पैसे को महत्त्व न देना और फिर पैसे के लिए ही अनेक निहायत साधारण फ़िल्मों में काम करना (कोरोना काल में भी ) समझ में सहज ही नहीं आता।
कल्लोल जी को बधाई! सौमित्र चटर्जी मेरे प्रिय अभिनेता रहे हैं। उनपर इतनी सारी जानकारी एक धरोहर की तरह है।
एक ज़रुरी अध्याय। बंगाल में कला की संपूर्णता का जो संघर्ष था,जो लय थी संगीत की, जातीय स्मृति के लिए निरंतरता बनाए रखने की जो क्षमता थी, उसका स्वरुप कैसे कहां बना रहा और कैसे बना रहे, इस अराजक वैश्वीकरण वाले दौर में ऐसे ही प्रयास मददगार होंगे। इन्हें सब तरफ से उठाया जाना चाहिए।
कल्लोल जी का आलेख यह साबित करने में सफल है कि सौमित्र एक सम्पूर्ण अभिनेता थे। यह देखना कितना सुखद है कि बांग्ला फिल्मों के लगभग अभिनेता, निर्माता-निर्देशक कवि-लेखक भी होते हैं। यह अकारण नहीं है कि बंगाली ही सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और भद्र जन क्यों कहलाते आए हैं। सौमित्र चटर्जी बांग्ला संस्कृति के प्रतीक के रूप में यहां सामने आते हैं। आलेख यह बताने में भी सक्षम है कि यदि सत्यजीत रे सौमित्र के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं तो सौमित्र भी सत्यजीत रे का परोक्ष रूप से निर्माण करते जाते हैं। सौमित्र चटर्जी को समग्रता मे जानने के लिए यह आलेख मील का पत्थर है।
कल्लोल जी ने सौमित्र चटर्जी पर बहुत अच्छा लिखा है। इस बहाने बांग्ला कला-फिल्म जगत के बारे में अच्छी जानकारी मिली।
काफ़ी जानकारी भरा आलेख है।
अच्छा लगा।