गाँधीवादी और प्रसिद्ध पर्यावरणवादी सुन्दरलाल बहुगुणा जैसे लोग सदियों में तैयार होते हैं, उनपर किसी भी समाज और देश को गर्व होना चाहिए. इस कोरोना और उपचार की असहायता के बीच वो भी हमसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गए.
उनका परिवार था और वो हिन्दी की लेखिका प्रज्ञा पाठक के मौसा जी थे. प्रज्ञा ने बचपन से ही उनको देखा था, कैसे थे वह परिवार में ?
उन्हें स्मरण करते हुए यह संस्मरण प्रस्तुत है.
स्मरण
सुन्दरलाल बहुगुणा: पर्यावरणवादी का परिवार
प्रज्ञा पाठक
‘क्या हैं जंगल के उपकार,
मिट्टी, पानी और बयार.
मिट्टी, पानी और बयार,
जिंदा रहने के आधार.’
पर्यावरण मित्र के रूप में ख्याति प्राप्त सुन्दरलाल बहुगुणा सच्चे अर्थों में सामाजिक कार्यकर्ता थे. उपभोगतावादी सभ्यता के दौर में मनुष्य और समाज को गांधीवादी सांचे में ढालने का आजीवन विरल प्रयास करते रहे. वृक्षों से उनका प्रेम और बड़े बांधो की अवधारणा से उनका विरोध सभी सजग भारतीय और पर्यावरण प्रेमी दुनियावालों को सहज ही ज्ञात है. उत्कट प्रेम और प्रबल प्रतिरोध को आत्मसात कर जीवन में उतार लेना उनसे सीखा जाना चाहिए. सिद्धांतहीन जीवन न उन्होंने स्वयं जिया, न ही अपने निकट संपर्क में आने वाले किसी को जीने दिया.
मेरी मां और उनकी पत्नी बहनें हैं. मेरी मां की शादी के लिए पापा को देखने वही गए थे. हमारे एकल परिवार में अनवरत मुलाकात उनसे ही होती थी. कभी वे घर आते थे और कभी पत्र से सूचना भेज देते थे कि बनारस से होकर जानेवाली अमुक ट्रेन से अमुक तारीख को वे गुजरने वाले हैं. मम्मी और पापा कभी अकेले और कभी हम बच्चों के साथ वाराणसी कैंट स्टेशन पर उनसे मिलने पहुंच जाते. स्टेशन पर वह अपने डिब्बे के दरवाजे पर खड़े मिलते. मम्मी उनके लिए कुछ पकाकर ले जातीं. वे तमाम चीजें नहीं खाते थे. मसलन वह चावल नहीं खाते थे (चावल उगाने के पानी की खपत ज्यादा होती है),सेब नहीं खाते थे (सेब को पैक करने के लिए लकड़ी के बाक्स बनाए जाते हैं जो लकड़ी का बेज़ा इस्तेमाल है, उनके अनुसार) बहुत वर्षों तक रोटी नहीं खाते थे. वो क्या-क्या खा सकते हैं, उनके लिए क्या पकाया जाए इसके लिए हमारे घर में एक छोटा-मोटा गोलमेज सम्मेलन होता और अंतिम निर्णय मम्मी का माना जाता.
बनारस के हमारे घर में यूक्लिप्टस का एक पेड़ होता था. मौसाजी उस पेड़ से बहुत नाराज़ रहते थे-
‘पाठक जी, यह पेड़ हटवा दीजिए. यह धरती की उर्वरता का नाश करता है. भूमि से जल का अनियंत्रित दोहन करता है. आपके मकान की नींव भी कमजोर कर देंगी इसकी जड़ें‘. वे बहुत चिंतातुर होकर कहते. हमारे पापा इधर उधर की बातें करके टाल देते. और बाद में चुहल करते हुए हम लोगों से कहते- ‘देखो तुम्हारे मौसाजी सारी दुनिया को पेड़ लगाने के लिए और हमसे कटाने को कहते हैं‘.
पापा कौन सा कम वृक्ष-प्रेमी साबित होना चाहते थे. हरा पेड़ कैसे कटा देते ? एक बार तेज वर्षा और तूफान में वह पेड़ आधा टूटकर गिर गया फिर पापा ने वह पेड़ कटाया कि सुन्दरलाल जी को यह पसंद नहीं. धनलिप्सा की होड़ में धरती को अनुर्वर बनाने वाली यूक्लिप्टस की खेती का वो बहुत विरोध करते थे.
(सुन्दरलाल बहुगुणा और विमला जी) |
मेरी मौसी जी और उनका दांपत्य मुझे परिकथाओं सा लगता है. परिकथा को यदि आप भोग-वैभव और विलास की ही कथा न मानते हों. परिकथा यदि हमारे सपनों की, हमारी आकांक्षाओं की अबाध अभिव्यक्ति होती हो. जरा सोचिए, उन्नीस सौ पचपन के आसपास किसी लड़की के लिए पिता कोई रिश्ता ढूंढ़ लाए हैं और शादी करने को तत्पर हैं. लड़की कहती है उसे सोचने के लिए समय चाहिए. बात यहीं थमती नहीं अपनी गुरु, सरला बहन (प्रख्यात गांधीवादी-कैथरीन मेरी हाइलामन) के साथ लड़के के यहां पहुंचती है. सरला बहन अपनी सुयोग्य शिष्या के मन की इच्छा लड़के से कहती हैं- ‘उसे एक साल का समय चाहिए‘.अरे, इतना ही नहीं. लड़की ‘सामाजिक कार्यों में रुचि रखती है तो वह चाहती है कि आप राजनीति का क्षेत्र छोड़कर समाज के लिए कार्य करें. लड़की अपनी इच्छा कहती है और लड़का उन इच्छाओं को मान लेता है. विवाह होता है. लड़की विमला हैं लड़का सुन्दरलाल .
दोनों अपनी समूची सामर्थ्य के साथ समाज के लिए काम करते हैं. ‘पर्वतीय नवजीवन मंडल‘, सिल्यारा वर्षों तक दोनों के साझे सपने का साक्षी रहा. समाजोत्थान को समर्पित एक गांधीवादी मॉडल की आत्मनिर्भर इकाई.
खड़ी चढ़ाई चढ़कर वहां पहुंचना होता था. हम लोगों जैसे शहरी बच्चों की अग्निपरीक्षा. वहां कार्यालय और कागज पत्र होते थे, दुनिया भर से आईं चिट्ठियां होती थीं. खेत होता था, गौशाला होती थी, फलदार वृक्षों की झूमती डालियां होती थीं और थी, मेरी सबसे पसंदीदा जगह- लाइब्रेरी. जंगल तो आसपास थे ही. बरसातों में जोंक, खटिया पर खटमल और रात में बाघ भी जब-तब दस्तक दे जाता. मौसाजी अक्सर बाहर रहते, सारी व्यवस्था मौसी जी के कुशल निर्देशन में संचालित होती. अंतेवासी छात्राएं और आसपास के गांवों के बच्चे आश्रम के अनुशासन में पढ़ते और सीनियर छात्राएं और मौसी जी पढ़ातीं. ये सब न सिर्फ पढ़ते बल्कि आसपास के वातावरण से बाखबर भी रहते. छोटे-मोटे लड़ाई झगड़े और असामाजिक व्यवहार आश्रम से जुड़े लोगों के सार्थक हस्तक्षेप से निपट जाते. इस तरह उस सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में न सिर्फ बच्चों को शिक्षा मिल रही थी बल्कि सामाजिक काम और पारिस्थितिकी का ज्ञान भी साथ-साथ चल रहा था. भोजन से पहले प्रार्थना करने का काम मौसाजी आश्रम में हों तो उनका, अन्यथा मौसी जी का था. आश्रम के वृक्षों के फलों से घनसाली के फल संरक्षण केंद्र में बने हुए जैम और जेली न जाने कितनी बार मौसाजी के पिट्ठू में बंद होकर बनारस में हमारे घर तक पहुंचे हैं.
मौसाजी का पिट्ठू हम बच्चों के दुर्निवार आकर्षण का केंद्र था . वे जब तक सक्रिय सामाजिक जीवन में रहे अपना पिट्ठू किसी को उठाने नहीं देते- अपना बोझ खुद उठाना चाहिए. न जाने कैसी-कैसी चीजें उसमें से निकलती थीं. चिपको आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने की नियत वाली पम्पलेट, छोटी-छोटी पुस्तिकाएं. खासा वजन होता था इनमें. कश्मीर से कोहिमा पदयात्रा के फोटोग्राफ्स. कैमरा, टेपरिकार्ड. एकाधिक बार लिखित सामग्री होती थी जो एक यात्रा में बनारस लाई जाती थी और दूसरी यात्रा में प्रकाशित होकर ले जाईं जाती थी. एक बार उसमें से निकलीं बेहद रंग-बिरंगी, चिकने कागज वाली बच्चों की कहानी की किताबें जो मेरे लिए थीं. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं. मैं किताबें पढ़ने की शौकीन बनी तो इसमें बड़ी भूमिका मेरे मौसाजी की है जो सिल्यारा से कंधे पर लादकर मेरे लिए किताबें लेकर आए. बात यहीं खत्म थोड़ी न हुई अगली यात्रा में जब घर आए तो चलते समय कहा वो किताबें वापस दे दो. इतनी रुचिकर किताबें वापस करने में मेरी मुखमुद्रा अनुकूल नहीं दिखी होगी तो समझाया कि वह सिल्यारा के आश्रम की लाइब्रेरी की किताबें हैं, मैं तुम्हें पढ़वाने के लिए लाया था. मुझे किताबें पढ़वाने के लिए किए गए उनके इस श्रम की तो मैं कायल हो गई, समझदारी आने पर. कागज का बेहद सतर्क इस्तेमाल भी मैंने उन्हीं से सीखा है.
टिहरी बांध के खिलाफ चले लम्बे आंदोलन के दौरान मौसाजी ने यह प्रण किया कि जब तक बांध की यह परियोजना रद्द नहीं हो जाती वे सिल्यारा आश्रम नहीं लौटेंगे. वे सचमुच लौट कर नहीं गए उस आश्रम में जिसे इस युगल ने अपने श्रम और सपनों से सजाया था. इसके बाद की जीवन यात्रा मेरी मौसी की विस्थापित गृहस्थी की कहानी है. टिहरी में गंगा तट पर एक कुटिया में रहकर वर्षों का आंदोलन. फिर नई टिहरी में प्रवास. क्षीण होते जा रहे शरीर के साथ जंगलों और उन्मुक्त प्रकृति से धीरे-धीरे दूर होना और देहरादून प्रवास. बढ़ती उम्र के साथ सामाजिक सक्रियता कम होती गई और सघन होता रहा उनका संग-साथ. इन वर्षों में मौसाजी का दुर्बल शरीर, अपना परिवार और नाते-रिश्ते,खतो-किताबत,फोन,देश-दुनिया से मिलने जुलने, आते जाते मेहमान, सबको अपनी खुद की दुर्बल काया और बढ़ती उम्र के साथ बखूबी निभाया है मौसी जी ने. उन दोनों का समर्पित साहचर्य मेरे लिए तो किसी परिकथा से कम नहीं.
मौसाजी हमेशा खादी पहनते थे. सफेद कुर्ता पायजामा और सर पर बंधा सफेद रुमाल उनकी पहचान बन गई थी. जाड़ों में धूसर रंग का ऊनी अंगरखा. अब वे स्वयं तो खादी पहनते ही थे पर अपने निकटस्थ लोगों पर उनकी यह धौंस भी चलती थी कि यदि तुम खादी नहीं पहनोगे तो मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा. मेरी दो मौसियां (वे पांच बहनें हैं) विशुद्ध खादी धारी हैं. मां और दो अन्य मौसियों ने सामाजिक-आर्थिक दबाव में यदि कभी खादी के अलावा किसी अन्य तरह के कपड़े पहने भी, तो भी बड़े मौसाजी के सामने बा-वर्दी दुरुस्त रहती थीं. हम दूसरी पीढ़ी के लोगों के जीवन में भी खादी लगातार बनी हुई है तो इसका श्रेय उनको ही है. हमलोग उनकी तरह खादी को पूरी तरह अपना नहीं सके तो भी सिंथेटिक वस्त्रों से परहेज़ बना हुआ है.
वे मेरे विवाह में मेरठ आए थे. जर्मनी की यात्रा पर थे अपने पूर्व निर्धारित प्रोग्राम में थोड़ा परिवर्तन करके वे और राजीव भइया दिल्ली से सीधे मेरठ आए. सभी नाते रिश्तेदार शादी विवाह में शामिल होते ही हैं भला इसमें क्या खास बात है?
बात तो है. वे किसी पारम्परिक विवाह में शामिल नहीं होते थे. उनके अपने बच्चों के विवाह दिन में, बिलकुल सादगी के साथ बिना किसी दान-दहेज और लेन-देन के साथ हुए थे. मेरी दीदी की शादी का कार्यक्रम मिनट दर मिनट पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के साथ संपन्न हुआ था. जिसमें प्रभात फेरी, मलिन बस्ती में झाड़ू लगाना इत्यादि बहुत सारे कार्यक्रम शामिल थे. जिस साल दीदी की शादी हुई उस बार भीषण बाढ़ आई थी. निमंत्रण के साथ सूचना थी कि उपहार नहीं लेकर आएं. यदि लाएंगे तो बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ दे दिया जाएगा. विवाह संस्कार संपन्न होने के बाद जो भोजन हुआ उसमें खाने वालों ने अपने बर्तन स्वयं धोए. जो मौसाजी को और उनके सिद्धांतों को नहीं जानते थे उनके लिए यह सब बड़ा अझेल होता था. इस प्रकार की शादी में शामिल कई लोग बहुत दिनों तक बड़बड़ाते थे. गांधी साहित्य पढ़ते हुए मैंने जाना कि यह विशुद्ध गांधी जी का तरीका था स्वयं गांधीजी के बेटे का विवाह इसी प्रकार हुआ था.
हमारी पीढ़ी में कई विवाह इस प्रकार के हुए. समय के साथ वृहत् परिवार में कुछ पारंपरिक विवाह भी होने लगे. तो पारंपरिक विवाह में हमारी मौसी और मौसाजी दोनों ही शामिल नहीं होते थे. इसीलिए मेरे विवाह में वे शामिल हुए इसपर मैं इतरा लेती हूं. मेरी पीढ़ी में पहला अंतरजातीय विवाह मेरा था और बहुत सुगमता से हो सका क्योंकि मौसाजी की सहमति थी. दिन में विवाह कार्यक्रम हुआ. लेन-देन, दान-दहेज, आडंबर, उपहार और शगुन, पीं-पीं ढम-ढम के बिना विवाह हुआ. उनका आशीर्वाद उनकी उपस्थिति और दो हस्ताक्षरित पुस्तकों के रूप में मिला.
समाज बदलने के लिए संघर्ष करने वालों के लिए जीवन ही संघर्ष बन जाता है. इस क्षेत्र में सफलता का कोई मापदंड ही नहीं है. टिहरी बांध भी बना, जंगलों का क्षय भी जारी है. बताते हैं ‘सोशल वर्क‘ को बतौर एकेडमिक डिस्कोर्स पढ़ने के लिए काशी विद्यापीठ में मौसाजी ने एडमिशन लिया था फिर अधूरा छोड़ दिया. मेरी छोटी बहन ने उसी सोशल वर्क की डिग्री ली तो उन्होंने कहा प्रोफेशनल सोशल वर्क नहीं व्यावहारिक सोशल वर्क करना. उसे एक किताब दी जिसमें हस्ताक्षर करते हुए लिखा-
‘The real objective of social work is to identify yourself with the common people of India.’
मैं छोटी सी थी जब किसी कार्यक्रम के लिए वे बनारस आए थे. मेरी किसी जिज्ञासा के उत्तर में उन्होंने मुझे उस कार्यक्रम में आने के लिए कहा. मैं गई और वहां कही गई बातों में से जो याद रह गया वह था कि
सामाजिक कार्य करते हुए लोग पहले आपकी उपेक्षा करेंगे फिर आपका उपहास करेंगे इतने पर भी नहीं थमे तो आपका अपमान करेंगे. यदि उपेक्षा, उपहास और अपमान सहने की शक्ति है तभी सामाजिक कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिए. देश के अलग-अलग हिस्सों में उनके व्याख्यान मैंने सुने हैं.
मुसकुराता चेहरा, दैदीप्यमान आंखें और संवाद की सहज भंगिमा. भाषा का एक खास पहाड़ी एक्सेंट. तीखे प्रश्नों का धीर जवाब. अपने छोटे भाई के साथ टिहरी बांध के विरोध में हुए आंदोलन में भी कुछ समय के लिए शामिल हुई. तब मैंने उनको ‘मौन‘ को अपनी ताकत बनाते देखा. कुछ कहना जरूरी हो स्लेट पर लिख देते. एम्स में जबरन भर्ती कर दिए तब अधिकांशतः दिन में मैं और रात में राजीव भइया उनके साथ रहते थे. लम्बे उपवासों ने उनके शरीर को धीरे-धीरे क्षीण कर दिया था. प्राकृतिक चिकित्सा पर उनका अगाध विश्वास था. आंदोलनधर्मी लोगों के जीवन में छोटे-छोटे नारों का अपना ही महत्व होता है,उनके यहां भी था. ऐसा ही एक नारा जो उनसे खूब सुना था-
जीवन की जय, मृत्यु का क्षय.
Yes, to life, no to Death.
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