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समालोचन

Home » सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ

सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ

समालोचन पर नये वर्ष की शुरुआत कविताओं से करते हुए प्रस्तुत हैं- सुरेन्द्र प्रजापति. सुरेन्द्र प्रजापति गया जिले के ‘असनी’ गाँव से हैं और मैट्रिक तक इन्होंने पढ़ाई की है. ये कविताएँ समकालीन युवा कविता के मुहावरों और विषयों से अलग हैं. कविताएँ बताती हैं कि वे किसान हैं और खेती करते हैं. बहुत तराश और सफाई तो नहीं है पर कविता के लिए जो जरूरी सच्चाई और साहस चाहिए वह यहाँ है, एक पुकार है और सौन्दर्य को देखने की कोशिश भी. सुरेन्द्र प्रजापति की कविताओं के प्रकाशन का यह आरम्भ है. उनका स्वागत है.

by arun dev
January 1, 2022
in कविता
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सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ
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सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ

1.
मेरे अंदर एक गाँव है

मेरे अंदर एक गाँव है
मैं गाँव की आत्मा में हूँ
एक गंवई संवाद की नमी को छूकर
मैं बैठा सुन रहा हूँ
बिरहा की सुरीली तान
डफली की धुन, मृदंग का नाद

गोधूलि बेला में हार से लौटते
मवेशियों के रम्भाने की आवाज़
बैलगाड़ी के पहिए की चर्र-चर्र
मैं कौतूहल से भर जाता हूँ
कौतुक का हुड़दंग मुझे भी
बुलाता है, धमा चौकड़ी में

पूस की ठिठुरती हुई रात में
थरथराता, कांपता कृशकाय शरीर
ठंडी हवाओं में जमकर बरफ हो गया
अकड़ गये हैं जुड़े हुए हाथ
धान की पुवाल में
सिकुड़कर नाक बज रही है

भोर भिनसारे टहलू काका
खाँसते-खाँसते लाठी पटकते
घुप्प अंधेरे में ही उठकर
लौट आते हैं खलिहान से
और थरथराते हुए जलाते हैं अलाव

ठंडा कुछ-कुछ पिघलता है
काका को ढांढस मिलता है
और वे गा उठते हैं आल्हा.

२.
उठो कृषक

उठो, कृषक!
भोर से ही तुहिन कण
फसलों में मिठास भरता
उषा को टटोलता
उम्मीदों की रखवाली कर रहा है

जागो

सुबह से ही
सम्भावना की फसलों को
चर रही है नीलगाय
प्रभात को ठेंगा दिखाती

जागो, कृषक
तुम्हारा कठोर श्रम
बहाए गए पसीने की ऊष्मा
गाढ़ी कमाई का उर्वरक
मिट्टी में बिखरे पड़े हैं
उत्सव की आस में
कर्षित (घसीटा हुआ) कदम अड़े हैं

जागो, कृषक
सांत्वना की किरण आ रही है
तुम्हारे बे सुरे स्वर में
परिश्रम को उजाले से सींचने
अंधेरे में सिसक रहे
मर्मर विश्वास को खींचने

उठो, कृषक
उठाओ, कठोर संघर्ष
स्वीकार करो,
लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा

बीत गये, रीत गये
कई वर्ष !

3.
कृषक की संध्या

पश्चिम क्षितिज में
रक्तिम आभा में पुता हुआ
किसी चित्रकार की पेंटिंग
हताश आँखों से देखता है
खेत से लौटता कामगार

झोलफोल (संध्या) हुआ
अब लौट रहा है किसान

आकाश की पगड़ी बाँध
सूरज की रौशनी को
चिलम में भर-भर, दम मारता
जम्हाई ले रहा है पहाड़
मार्ग में उड़ रही है गर्द
रम्भाती हुई गऊएं
दौड़ी चली आ रही हैं

पास ही धधक रही है
शीशम के सूखे पत्तों की आग
पूरब में धुंधलका छा रहा है
अंधेरे का दैत्य आ रहा है

नन्हा बछड़ा
रुक-रुक रंभाता है
धमन चाचा बोलते हैं
‘च..ल हो अँधियारा हो गेलो’

उलटता है चिलम, फूँक मारकर
साफ करता है बुझी हुई राख

सूर्य डूब रहा है
पहाड़ी के पीछे!

4.
अभिलाषा की फसल

फसल बोने से पहले
अभिलाषा का बीज बोता है किसान

उम्मीद की तपिश देकर
बंजर भूमि को
लगन के कुदाल से कोड़ता है
परिश्रम के फावड़े से तोड़ता है
पसीने की नमी देकर
मिलाता है बार-बार

हताशा और थकान की
खाद डालता है

अपने हृदय की व्यथा को
संवेदना की गर्मी देकर
बनाता है बलवान
कितने-कितने आपदाओं से लड़कर
अपने हाथों से लिखता है
अपने भाग्य की लिपि

संभावना को तलाशता
नियति के चक्रों, कुचक्रों को धकियाता
किस्मत को गोहराता है.

५.
मेरा क्या है साहब

मेरा क्या है साहब
शरीर हमारा
श्रम हमारा
पसीना हमारा
थकान हमारी
पीड़ा हमारी
जख्म से बहते
खून पीव हमारे

सरकार आपकी
खेत खलिहान आपका
विशाल दलान आपका
मेरा क्या है साहब

दुर्दशा हमारी
दम तोड़ती अभिलाषा हमारी
छिन्न होता प्रकाश हमारा
व्यथा, दुःख, क्लेश हमारा
चीथड़ों में लिपटा वेश हमारा

हुकूमत आपकी
सल्तनत आपकी
जंजीरों की जकड़न
बेड़ियों की हुंकार आपकी
मेरा क्या है साहब

याचना हमारी
प्रार्थना हमारी
रातों जगते आँख में
सूजन हमारी
कटे परों से फड़फड़ाती
उम्मीद हमारी
खेत से गोदाम तक पहुंचाती
उपज की आस हमारी

फसल पर लगायी कीमत तुम्हारी
हुकूमत तुम्हारी
डंडे लाठी का प्रहार तुम्हारा
मेरा क्या है साहब

प्रजा, सरकार चुनती है
अपना बहिष्कार चुनती है
सड़क से संसद तक
अपना संघर्ष बुनती है.

_____

सुरेन्द्र प्रजापति
8 अप्रैल 1985

पता:
घर-असनी, पोस्ट-बलिया
थाना-गुरारू, जिला-गया, बिहार
पिन न. 824205

ईमेल-surendraprar01@gmail.com/Mob. 7061821603

Tags: 20222022 कविताएँकिसान
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Comments 19

  1. Kaushal tiwari says:
    4 years ago

    जागो, कि
    अहले सुबह से ही
    सम्भावना की फसलों को
    चर रही है नीलगाय
    प्रभात को ठेंगा दिखाती
    गांव की यादें ताजा हो गई
    बहुत धन्यवाद समालोचन को इस पोस्ट के लिए

    Reply
  2. शशि भूषण बडोनी says:
    4 years ago

    सुरेन्द्र प्रजापति की भोगे हुए यथार्थ किसान जीवन संघर्ष की इन सहज, सरल लेकिन सारगर्भित कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।उनकी कविताओं में ग्राम जीवन जीवंत हो जाता है।चित्रण गजब का है। मै उनकी भावी कविताओं को ढूड कर पढ़ना चाहूंगा।उनको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

    Reply
  3. Santosh Arsh says:
    4 years ago

    कुछ अनगढ़, लेकिन सहज कविताएँ। ‘अँधेरे का दैत्य आ रहा है’ किसी क्लासिक जैसी पंक्ति है। झोलफोल जैसे आँचलिक शब्द कितने अच्छे लगते हैं।

    Reply
  4. श्रीविलास सिंह says:
    4 years ago

    “लड़खड़ाते पैरों की
    दुर्गम यात्रा
    बीत गये, रीत गये
    कई वर्ष !……” किसानों की पीड़ा और जिजीविषा को उजागर करती कविताएँ। वैसे ही थोड़ी अनगढ़ जैसा किसान का जीवन होता है। कवि को बधाई। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।

    Reply
  5. राकेश मिश्र says:
    4 years ago

    “लड़खड़ाते पैरों की
    दुर्गम यात्रा
    बीत गये, रीत गये
    कई वर्ष !……” किसानों की पीड़ा और जिजीविषा को उजागर करती कविताएँ। वैसे ही थोड़ी अनगढ़ जैसा किसान का जीवन होता है। कवि को बधाई। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।

    Reply
  6. Dinesh Chandra Joshi says:
    4 years ago

    कविताएं अच्छी हैं,सरल सहज अनगढ़।लेकिन किसानों की पुरानी पीढ़ी जैसी ही पीड़ा, परिवेश, स्थितियां​। नये कवियों को गांव किसानी का बदलता यथार्थ भी चित्रित करना चाहिए।

    Reply
  7. रोहिणी अग्रवाल says:
    4 years ago

    बहुत मार्मिक कविताएं. अपने समय को जीने की हौंस से ललकती कविताएं

    Reply
  8. विजय कुमार says:
    4 years ago

    सुरेन्द्र प्रजापति की कविता किसान जीवन की संघर्ष की कविता है। इनकी कविताओ में किसान की पीड़ा और जिजीविसा अत्यंत मुखर है। गांव की आंचलिक भाषा का खुबसुरती से चयन किया गया है चित्रण बेजोड़ है। कवि को हार्दिक बधाई।

    Reply
  9. आशुतोष दुबे says:
    4 years ago

    साहित्य की हर विधा में बहुत अलग अलग क्षेत्रों से लेखक आने चाहिए। इससे उसकी जड़ता टूटती है।

    Reply
  10. Tanaya Nag says:
    4 years ago

    सुरेंद्र प्रजापति जी की कविताएं कहीं – कहीं निराशा और हताशा की बात करते हुए भी पाठक – मन में ताज़गी भर देती हैं।
    कवि की आँखों से गांव और खेतों को देख लिया।
    अभिनंदन।

    Reply
  11. मिथलेश+शरण+चौबे says:
    4 years ago

    सुन्दर कविताएँ,
    बधाई सुरेन्द्र जी,
    शुक्रिया समालोचन।

    Reply
  12. Anonymous says:
    4 years ago

    सुरेन्द्र प्रजापति जी की कविताएं , जैसे मेरे ही लिए लिखी गई हों ! असल में ये कविताएं यह बता रही हैं कि हिंदी कविता का परिसर शहरों तक ही सीमित नहीं है , बल्कि उसे ठेठ गांव से भी देखा – समझा जाना चाहिए । सुरेन्द्र जी की माटी मिली काव्य – संवेदना इसी बात का पक्का सबूत है । यहां मौजूद उनकी कविताएं किसी भी तरह की कलाबाज़ी से परे हैं , और हर तरह यथार्थवादी हैं । अपनी किंचित अनगढ़ता के बावजूद पूरी तरह सुघड़ । उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
    —- रामकुमार कृषक ।

    Reply
  13. प्रीति चौधरी says:
    4 years ago

    अच्छी कविताएँ सुरेंद्र जी की।

    Reply
  14. Ajamil Vyas says:
    4 years ago

    अभी अभी पढ़ी सुरेंद्र जी कविताएँ । बहुत अच्छी कविताएँ हैं । एक अलग काव्य मुहावरे के साथ ज़िन्दगी को खंगालती हैं ये कविताएँ । बधाई सुरेंद्र जी को और आपको भी जो समालोचन के ज़रिए हमें इसे पढ़ने का अवसर मिला ।

    Reply
  15. डॉ.+सुमीता says:
    4 years ago

    सुरेन्द्र प्रजापति जी की ये कविताएँ उगते हुए अन्न की ऊष्मा की, हाड़तोड़ मेहनत की, पसीने की गमक की और अन्नदाताओं की यथार्थ स्थिति की सच्ची-सुन्दर कविताएँ हैं। उन्हें बधाई और आपको व ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।

    Reply
  16. डॉ. बिनोद सिन्हा says:
    4 years ago

    गाँव के जीवन और ग्रामीण जीवनसंघर्ष को अभिव्यक्ति देती सुरेंद्र प्रजापति की कविताएँ, हिंदी कविता में नए शब्दसंकुल और नए मुहावरों को लेकर आई है। उनको हार्दिक बधाई और आपको साधुवाद!💐💐

    Reply
  17. Pranendra Nath Misra says:
    4 years ago

    गांव का दृश्य, गांव की पीड़ा, बैलगाड़ी की आवाज, भिनसारे की आशा और कृषक की अभिलाषा के साथ उमड़ते घुमड़ते चिंता के बादल! सभी को समेटा है सुरेन्द्र जी ने अपनी कविताओं में। पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे मैं मेट्रो शहर से दूर अपने गांव में बैठा हूं। चित्रलिखित रचनाएं… साधुवाद, रचनाकार!

    Reply
  18. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    . इन मार्मिक कविताओं में आज तमाम बदलाव के बावजूद मौजूद किसानों की पीड़ा मुखर है। पर यह भी है कि सरकारों के छोटे छोटे
    लालच और कुछ वास्तविक लेकिन कभी कभी काल्पनिक डर ने उन्हें अपनी आंतरिक ताकत को पहचानने से रोक रखा है। उस ताकत का एक प्रमाण अभी स्थगित किसान आंदोलन भी है। पता नहीं वास्तव में वह संदेश देश में कहां तक पहुंच सका।—मगर यह सवाल इन कविताओं से नहीं, बल्कि तथाकथित पढे लिखे जागरूक अपेक्षाकृत अधिक समर्थ और असरदार नागरिक समाज और राजनीतिक दलों से किया जाए कि क्या उनको इस समुदाय की पीड़ा कभी सालती, कचोटती है?

    Reply
  19. Arvind kalma says:
    3 years ago

    पाठक ह्रदय में बसने वाला ग्राम्य जीवन का बेजोड़ चित्रण समेटा है। ‘उठो कृषक’ किसान के संघर्षों को बयां कर रही है। कृष्ण पीड़ा को दर्शाती यथार्थवादी कविताएँ है। ‘मेरा क्या है साहब’ कविता पढ़कर ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘ठाकुर का कुँआ’ कविता याद आ गयी। आपकी ये कविता सियासत पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार करती है। आपने अपनी कविताओं में किसान की पीड़ा,संघर्ष को मार्मिकता के साथ उकेरा है।सुंदर कविताएँ। आदरणीय कवि सुरेन्द्र प्रजापति जी को बधाई।

    Reply

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