सुरजीत पातर की कविताएँ अनुवाद : योजना रावत |
1.
कहे सतलुज का पानी
कहे सतलुज का पानी
कहे ब्यास की रवानी
अपनी लहरों की ज़ुबानी
हमारा झेलम चिनाब को सलाम कहना
हम मांगते हैं ख़ैर, सुबह शाम कहना
जी सलाम कहना!
रावी इधर भी बहे
रावी उधर भी बहे
ले जाती कोई सुख का संदेश सा लगे
इसकी चाल को प्यार का पैगाम कहना
हम मांगते हैं ख़ैर सुबह शाम कहना
जी सलाम कहना!
जहाँ सजन के क़दम
जहाँ गूंजते हैं गीत
जहाँ उगती है प्रीत
वही जगह है पुनीत
उन्हीं जगहों को हमारा प्रणाम कहना
हम मांगते हैं ख़ैर सुबह शाम कहना
जी सलाम कहना!
जब मिलना तो मिलना
गहरा प्यार लेकर
जब बिछड़ना तो
मिलने का इकरार लेकर
किसी शाम को न अलविदा की शाम कहना
हम मांगते हैं ख़ैर सुबह शाम कहना
जी सलाम कहना !
दीवारें हों और ऊपर तस्वीरें
सुंदर भी हों दीवारें
पर अंधी न हो
दरवाज़े खिड़कियाँ भी हों
दरस परस का भी रहे इंतज़ाम कहना
हम मांगते हैं ख़ैर सुबह शाम कहना.
2.
जब बोलो तो
जब बोलो तो
ध्यान रखो
किसी के सम्मुख बोल रहे हो
ग़ैरहाज़िरों को भी हाज़िर समझो
याद रखो!
मरे और बिछड़े हुए भी
दूर कहीं सुनते हैं हमें
दूर कहीं सुनते हैं वे भी
जो बनेंगे हमारे वारिस
जब बोलो
तो याद रखो
यह सब किसी गुप्त ग्रंथ में लिखा होगा
जब बोलो
तो केवल कंठ से ही न बोलो
दिल से बोलो
और जब लगे
कि होंठों से हृदय का रिश्ता टूट गया है
तो मौन हो जाओ.
3.
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
जहाँ मेरी बहस है मेरे साथ ही
जहाँ वारिस के पुरखे खड़े रूबरू
मेरे भीतर आवाज़ें तो हैं बेपनाह
पर माथे पे मेरी अक्ल का तानाशाह
सब आवाज़ें सुनूँ, कुछ चुनूँ, फिर बुनूँ
फिर बयान अपना कोई जारी करूँ
मेरे भीतर चलती है एक गुफ़्तगू
जहाँ लफ्ज़ों में ढलता है मेरा लहू
4.
मेरी एक अरज़ है
मेरी एक अरज़ है
अब इस घर में अब कोई कुफ़्र न तोलो
कोई फीका या रूखा बोल न बोलो
मुँह से कोई कड़वा सुखन न निकालो
न कहे कोई ऊंची नीची बात
कि अब यह घर बहुत पावन पवित्र है
कि अब इस घर में पल रहे हैं मेरे बेटे व बेटियाँ
मेरे घर में नया युग बन रहा है
आने वाले दिन ताना तन रहे हैं
मेरे घर में नए दिन बन रहे हैं.
5.
क्या बताएँ हाल पंजाब का
क्या बताएँ हाल पंजाब का
उस शरफ़ के सुर्ख गुलाब का
उस बीच से टूटे गीत का
उस बिछड़ी हुई रबाब का
वहाँ कोख हुईं कांच की
वहाँ बच्चियाँ मुश्किल बचतीं
जो बचें तो आग में जलतीं
जैसे टुकड़ा हो कबाब का
हमने खेत में बीजी जो खुशियाँ
क्यों उगीं बन वे खुदकुशियाँ
यह रुत है किस मिजाज़ की
यह मौसम किस हिसाब का
हम साज़ की तारें कस दें
इस रात को दिन में बदल दें
ग़र मोहब्बत मिले हुज़ूर की
ग़र हो जाए हुक्म जनाब का
क्या बताएँ हाल पंजाब का.
6.
कवि साहब
मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राज सिपाहियों से
पंक्ति काट देता हूँ
मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ और डर जाता हूँ गुरिल्ले बागियों से
पंक्ति काट देता हूँ
मैंने अपनी जान की खातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों का
ऐसे ही कत्ल किया है
उन पंक्तियों की रूहें
अक्सर मेरे चारों ओर मंडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं-
कवि साहब!
तुम कवि हो या कविता के कातिल?
सुने मुन्सिफ बड़े इंसाफ़ के हत्यारे
बहुत से मज़हब के रखवारे
खुद मज़हब की पवित्र आत्मा को
कत्ल करते भी सुने थे
सिर्फ यह सुनना ही बाकी था
और सुन भी लिया
कि हमारे वक्त में खौफ़ के मारे
कवि भी हो गए कविता के हत्यारे
7.
है मेरे सीने में कंपन
है मेरे सीने में कंपन मैं इम्तिहान में हूँ
मैं खिंचा तीर हूँ मगर अभी कमान में हूँ
है तलवार इश्क की पर अपने ही सीने में
कभी मैं खौफ़ कभी रहम की म्यान में हूँ
बचाना आज किसी के सीने लगने से मुझे
कि आज मैं पंछी नहीं, तीर हूँ, उड़ान में हूँ
ज़मीन रथ है मेरा, वृक्ष हैं परचम मेरे
मेरा मुकुट है सूरज, मैं बहुत शान में हूँ
मिली अगन में अगन, जल में जल, हवा में हवा
कि बिछड़े सब मिले, मैं अभी भी उड़ान में हूँ
तेरा ख़याल मेरे सीने से सटा हुआ है
है रात हिज्र की, पर मैं अमन अमान में हूँ
मैं किसके साथ गुफ्तगू करूं कि कोई नहीं
मेरे बिना, मेरे रब, मैं जिस जहान में हूँ
छुपा के रखता हूँ तुमसे मैं ताज़ा नज़्में
ताकि तू जानकर रोए, मैं किस जहान में हूँ
यह लफ्ज़ मेरे नहीं पर यह वाक्य मेरा है
या शायद यह भी नहीं, मैं यूँ ही गुमान में हूँ
8.
साज़ कहे तलवार से
साज़ कहे तलवार से
दिल के रंग हज़ार
खड़ग कहे एक लोथड़ा
लहू की बूंदे चार
9.
नहीं लिखने देती कविता आज
नहीं लिखते देती कविता आज
भीतरी आग
जलाती है पन्ने
एक-एक करके
नहीं चाहिए मुझे कविता
कहती है आग
चाहिए मुझे तेरी छाती
दहकने के लिए
10.
विदा
हे नदी!
अब चलता हूँ मैं
अब मेरी तपिश से
तेरी लहरों की छुअन नहीं सही जाती
शुक्र है तू नहीं जानती
कि अब तक
जो शांत मन
तेरे संग बातें कर रहा था
वह मेरा मुखौटा था
मेरा चेहरा तो
उस मुखौटे के पीछे
बुरी तरह तप रहा था
इससे पहले
कि चेहरे की तपिश से
मुखौटा पिघल जाए
मैं चलता हूँ, हे नदी
ठहर!
नदी ने हंसकर
एक ठंडी लहर मेरी ओर उछाली
उसके छींटे मेरे मुखौटे पर पड़े
बहुत पछताया मैं
काश! मैंने मुखौटा न पहना होता
तो ये छींटे
मेरे तपते चेहरे पर पड़ते.
सुरजीत पातर पंजाबी भाषा के विख्यात कवि व लेखक सुरजीत पातर का जन्म 14 जनवरी, 1944 को पंजाब के पातड़कलां गांव में हुआ. ‘हवा विच लिखे हरफ़’, ‘बिरख अरज़ करे’, ‘अंधेरे विच सुलगदी वर्णमाला’, ‘लफ़ज़ां दी दरगाह’, ‘पतझड़ दी पाजेब’, ‘सुर ज़मीन’’ चन सूरज दी वहंगी’ इत्यादि इनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं. साहित्य अकादमी, शिरोमणि पंजाबी कवि, सरस्वती सम्मान. पंचनाद सम्मान तथा पदम् श्री से सम्मानित सुरजीत पातर की कविताएँ पंजाब के ग्रामीण व शहरी जीवन के साथ प्रवासी पंजाबियों के जीवन के अनेक पक्षों से सरोकार रखती हैं. प्रकृति, प्रेम,अकेलापन, आशावादी दृष्टिकोण, मातृभाषा पंजाबी के प्रति चिंता तथा मानवीय संबंधों की अनेक तहों का स्पर्श करने वाले कवि सुरजीत पातर आम जनता में बेहद लोकप्रिय हैं. उन्होंने विदेशी भाषाओं से पांच नाटकों का पंजाबी में अनुवाद भी किया है. उनकी कविताओं का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. सुरजीत पातर का निधन 11 मई, 2024 को लुधियाना में हुआ. |
योजना रावत
‘नारी मुक्ति तथा उषा प्रियंवदा का कथा साहित्य’, ‘स्त्री विमर्शवादी उपन्यास: सृजन एवं संभावना ’ (आलोचना), ‘पहाड़ से उतरते हुए’, पूर्वराग (कहानी-संग्रह) थोड़ी सी जगह (कविता-संग्रह) आदि प्रकाशित. फ्रेंच से दो पुस्तकों ‘पेड़ लगाने वाला चरवाहा’, ‘ऐसा भी होता है’ उपन्यास के अलावा सौ फ्रेंच कविताओं का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित. 2005 में अनुवाद परियोजना के तहत वह फ्रेंच सरकार के निमन्त्रण पर तीन महीने फ्रांस में रहीं हैं. पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी की प्रोफ़ेसर हैं. ईमेल : yojnarawat@gmail.com |
मैं अक्सर निराश होता रहता हूँ,कविताएं मेरी समझ क्यों नहीं आतीं। ऐसे में सुरजीत पातर की यह कविताएं सरलता से समझ आई। अनुवादक का भी योगदान होगा ही। उन्हें मेरा आदर, प्रणाम। सुरजीत पातर को विनम्र श्रद्धांजलि।
समय के तल्ख यथार्थ को दर्ज करती ये कविताएं अपनी प्रकृति में शाश्वत भी हैं। सच्चा कवि ऐसे अंतर्द्वंद्व से बारहा गुजरता है। इन कविताओं में कवि की वेदना छलकती नजर आ रही है। योजना जी का अनुवाद भावप्रवण और उम्दा है।
वाह
सुरजीत पातर का निधन भारतीय कविता की और मेरी निजी क्षति है।
उनके साथ बहुत बार रहने का अवसर मिला।उनकी कविता नये बिम्बों,नये लय-स्थापत्य,गहरे रोमान और प्रतिरोध की कविता है ।लोकगीतों की तरह सुगम और तीव्र ऐन्द्रिकता वाली यह कविता भारतीय कविता का नया उत्कर्ष मानी जाती है।
पंजाबी कविता की महान प्रतिरोधी परम्परा के समुज्ज्वल प्रतिनिधि सुरजीत पातर का निधन हम सब को अधूरा कर गया है।प्यारे दोस्त को सलाम !
सुरजीत पातर पंजाब के बेमिसाल कवि तो थे ही, भारत और भारतीय मन के भी चितेरे कवि थे। उनकी कविताएँ मनुष्य राग को उद्घाटित करती विरल संवेदना की बेमिसाल कविताएँ हैं। प्रस्तुत कविताएँ पंजाब और पंजाबीयत को उकेरती हुई आज के भारत और भारतीय मन को भी व्यक्त करती हैं। अंतर्वस्तु के लिहाज से ही नहीं, संवेदना, शिल्प, लय और प्रभाव के मामले में भी ये कविताएँ बहुत अच्छी हैं। अनुवाद बहुत मन से किया गया है। योजना जी को साधुवाद।
आपने भी खूब मन से कविताएँ पढ़ीं हैं और सराहा है. आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
ये कविताएं दुर्दांत हो गये समय के विरुद्ध प्रतिरोध और मनुष्य मात्र के लिए प्रतिबद्धता की सघन मानवीय पुकारें हैं। संवेदनशीलता और स्वप्नदर्शी चेतना सुरजीत पातर के कवि-व्यक्तित्व को रचती हैं तो पंजाबियत उन्हें रूह देती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हिंदी पट्टी और हिंदी साहित्य एक लंबे अरसे से पंजाब को लेकर उत्साहहीन रहा है। सिनेमा भी ‘उड़ता पंजाब‘ या ‘चमकीला‘ जैसी फिल्मों के जरिए उसे जिस रूप में पेश करता है, उसे देख सवाल उठना लाजमी है कि अपनी पसंद से कोई एक टुकड़ा उठा कर क्या उसे ही समग्र सत्य का नाम दिया जा सकता है? पंजाब को लेकर प्रायः तीन सवाल अनुत्तरित रहे हैं। एक, हरित क्रांति के बावजूद देश का यह सबसे समृद्ध राज्य क्यों धीरे-धीरे नशे और कैंसर का ऐसा सबसे बड़ा गढ़ बन गया कि राज्य सरकार को मरीजों की सुविधा के लिए ‘ कैंसर ट्रेन‘ तक चलानी पड़ी? (वैसे इस विषय पर 2017 में आई फिल्म ‘इरादा‘ एक गंभीर डिस्कोर्स की मांग करती है।) दूसरे, क्यों काले अध्याय के रूप में शुरु हुए खालिस्तानी आंदोलन की स्मृतियों को आज भी राजनीतिज्ञों द्वारा जीवित रखने का प्रयास किया जाता है जबकि वह दशकों पहले खत्म हो गया है? पंजाबियों को खालिस्तानी कहना क्या उनकी भारतीयता और मनुष्यता पर गहरा प्रहार नहीं है? तीसरे, क्यों यहां से इमीग्रेशन के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं जबकि यह देश की सबसे बड़ी सेकुलर स्टेट है? पंजाब की बेटी होने के नाते अपने अनुभव से कह सकती हूं कि यहां न धर्म के नाम पर कट्टरता है, न जाति-व्यवस्था के पैने राजनीतिक समीकरण। यहां के मनोविज्ञान को सिरजा है सिख धर्म, मुस्लिम संस्कृति, सूफी रवायतों, सनातनी आस्था और आर्यसमाज की प्रभावी लहर ने, जिस कारण मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और दरगाह हमारे लिए समान आस्था के केंद्र हैं। सुरजीत पातर की कविताओं में उभरी बेचैनी और आशा के मूल में साझेपन की इसी संस्कृति की पुकार है।
इन कविताओं को यहाँ एक साथ देखना सुखद है। सुरजीत पातर की स्मृति भी जीवंत हुई।
कविताएं तो सुरजीत पातर की उम्दा हैं ही। अनुवाद भी बहुत अच्छा है। बधाई।
सुरजीत पातर जी की मर्म छूने वाली इन कविताओं को बहुत ही उम्दा अनुवाद के ज़रिए पाठकों तक पहुंचाने के लिए हृदय से आभार