बतकही अजेय और आमिर हमज़ा |
(04/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 6 :00 बजे शाम)
यात्रा मेरा मुकम्मल यकीं है
आपने अभी तक के अपने जीवन में एक गाँव और कई शहर पीछे छोड़े हैं. आपने अपने गाँव, केलंग और शिमला पर कई कविताएँ भी लिखीं हैं. इन कविताओं के इतर इस पीछे छोड़े हुए और अभी के ठिकाने में आपके सबसे नज़दीक कौन है? गाँव? या शहर?
(05/12/23/ कुल्लू, हिमाचल / 6.27 बजे सुबह)
नौकरी मैंने शिमला के अलावा मंडी तथा सोलन शहरों में भी की. ये दोनों शहर अपने-अपने तरीके से ख़ास हैं. मंडी शहर को एक समय में हिमाचल की साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता था. यहाँ पढ़ने-लिखने वाले लोग रहते हैं. आज भी यहाँ गली-गली में लेखक मिलते हैं. एक समय में यह प्रगतिशील लेखन का गढ़ था. जबकि सोलन हिमाचल की औद्योगिक राजधानी है और साथ में एजुकेशन हब भी है. जब मैं वहाँ नौकरी करता था, सोलन ज़िले में दस से अधिक विश्वविद्यालय थे.
हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य के लिए यह संख्या बहुत बड़ी है. लेकिन इन संस्थानों में कोई अकादमिक पढ़ाई नहीं होती थी बल्कि ये तकनीकी और प्रोफेशनल संस्थान थे. शिमला में मैं औपचारिक पढ़ाई के बाद बेरोज़गारी के दिनों भी रहा हूँ और फिर नौकरी के अंतिम पड़ाव में भी. शिमला का रूमान बड़ा आकर्षक है मेरे लिए. यह भारत के अंतिम औपनिवेशिक अवशेषों में से एक है. अभिजन का शहर है. और ख़ूबसूरत हिल स्टेशन भी. बंदा चाहे तो यहाँ बादलों, देवदारों और रंग-बिरंगी टीन की छतों के ऊपर उड़ता ही रहे. कभी उतरे ही न….चाहे तो साफ़-सुथरे उजले माल रोड़ पर चलता ही रहे…रातभर और दिनभर! यह बेहद ज़हरीले तरीके से रोमेंटिसाईज़्ड शहर है. ऐसा ज़हर जिस का स्वाद हर कोई चखना चाहता है. कोई मुझे सस्ते में दो बेडरूम का घर दिला दे तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी यहाँ रह जाऊँगा. लेकिन यहाँ घर सस्ते नहीं हैं….
इसके अलावा सबसे अधिक नौकरी मैंने केलंग में की. तक़रीबन अठारह साल. केलंग को मैं गाँव ही कहूँगा. क़स्बा बनना चाहता हुआ एक गाँव. पहले यहाँ ग्रोथ की गति बहुत धीमी थी. अब देखिए रोहतांग टनल बनने के बाद चीज़ें कैसे बदलती हैं.
पीछे छूटी जगहों में चंडीगढ़ शहर भी है. द सिटी ब्यूटिफुल. यहाँ रह कर मैंने ख़ूब डायरियां लिखीं. कविता चंडीगढ़ पर बन नहीं पाई. जब गाँव-पहाड़ लौटना होता तभी कविता बनती थी. चंडीगढ़ ने मुझे बड़ा किया, माँ और बाप दोनों बनकर. ठीक से पाला-पोसा. दुनिया में सर्वाईव करना सिखाया. एक कॉस्मोपॉलिटन और वैश्विक दृष्टि दी. विभिन्न राष्ट्रीयताओं, जातीयताओं, धार्मिकताओं और भाषिकताओं के प्रति समभाव रखना सिखाया.
कहने की ज़रूरत नहीं कि मेरा पहला प्यार गाँव ही है. लेकिन आज का विकसित विकृत गाँव नहीं, वो गाँव जो मेरी बचपन की स्मृतियों में धंसा हुआ है. इस दृष्टि से मेरे ज़ेहन में दो गाँव हैं. एक तो सुमनम, जो मेरा जन्मस्थान है. दूसरा बर्गुल, जहाँ बचपन के दो अविस्मरणीय ख़ूबसूरत साल कटे. गाँव में मेरा जो मुख्य आकर्षण है, वो है यहाँ की आदिम इनोसेंस! यहाँ का ठहराव. और यहाँ की क़ुदरत और यहाँ की घातक विल्डरनेस……
(05/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 3.00 बजे दोपहर)
इंडियन कॉफ़ी हाउस जैसी कोई जगह
मंडी शहर के बारे में आपने कहा कि यह हिमाचल प्रदेश की साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी हुआ करती थी. मैं जानना चाहूँगा कि यह कौन सा ज़माना था? यहाँ हिंदी के कौन से कवि-लेखक-कलाकार हुआ करते थे? कहाँ बैठकी हुआ करती थी, मसलन- क्या वहाँ भी साहित्यकारों-कलाकारों के लिए कोई इंडियन कॉफ़ी हाउस जैसी जगह थी? अभी कौन से कवि-लेखक वहाँ सक्रिय हैं? और यह भी कि अब साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी न रहने से मंडी की आबोहवा में क्या बदलाव हुए हैं?
(06/12/2023/ कुल्लू, हिमाचल / 5. 00 बजे शाम)
मैं एक ज़िंदा धड़कते हुए भरेपूरे शहर को मिस करता हूँ
यह बीती सदी के आठवें, नवें और अंतिम दशक की बात होगी शायद जब मंडी में साहित्यक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ अपने चरम पर थीं. मैंने देखा नहीं है वह दौर केवल ज़िक्र सुना है. और ज़िक्र तब सुना था जब साल 2004 में वहाँ ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का अंतिम प्रांतीय अधिवेशन हुआ था. नामवर सिंह आए थे. बड़ी भीड़ इकट्ठा हुई थी. मैं पहली बार मंडी शहर गया था. और मंडी के साहित्यकारों से मिला. दीनू कश्यप तब प्रांतीय अध्यक्ष थे. स्व. केशवचंद्र जी को सम्मानित किया गया था. प्रकाश पंत, सुंदर लोहिया, रविराणा शाहीन, तेजेन्द्र शर्मा, यादवेन्द्र शर्मा, नरेश पंडित, सुरेश सेन निशांत, और लवण ठाकुर…..ये कुछ चेहरे याद आते हैं.
मैं कुल्लू के ईशिता आर गिरीश और निरंजन देव शर्मा से भी उसी दिन पहली बार मिल रहा था. नामवर सिंह को हम मेरी मारुति 800 में बैठाकर भुंतर एयरपोर्ट से मंडी लेकर गए थे. पूरे दो घंटे का सफर था. मैं बहुत एक्साईटेड था. पहली बार इस स्तर के साहित्यकार के अगल-बगल बैठ बतियाने का मौका मिला था, हम जिनका महज़ व्याख्यान सुनने को उतावले रहते थे. दरअसल नामवर सिंह ने ही हमें बताया था कि मंडी हिमाचल की साहित्यिक-सांस्कृतिक राजधानी है. और शिमला तो फ़क़त बाबुओं का शहर है.
इस आयोजन को सफल बनाने में दीनू कश्यप जी के अलावा देशराज की मुख्य भूमिका थी, ये अपने समय के प्रतिबद्ध छात्र नेता रहे और हिंदी साहित्य के गंभीर पाठक. नागेश भारद्वाज और लवण ठाकुर इप्टा से जुड़े रंगकर्मी थे. दोनों इस दुनिया में नहीं हैं. रमेश रवि, अश्वनी शर्मा, रूप उपाध्याय भी रंगकर्म से जुड़े लोग थे. बीरबल शर्मा पत्रकार एवं फोटोग्राफर. एस. डी. कश्यप ने हिमाचल का पहला ऑडियो कैसेट ‘डिस्को नाटी’ निकाला था. सुंदर लोहिया, विजय विशाल, मुरारी शर्मा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के लिए काम करते थे. कृष्णचंद महादैविया पर्यावरणविद और एक्टिविस्ट थे.
कहते हैं कि संस्कृतिकर्मियों का ख़ासा जमावड़ा था मंडी में. प्रगतिशील लेखक संघ के इस ऐतिहासिक आयोजन के बाद मेरा मंडी रुकना अकसर हो जाता. और मैं इन तमाम लोगों से मिलता. कभी घंटा घर के सामने संकन गार्डन में, कभी नवीन बुक स्टॉल पर, कभी साईं स्वीट्स के सामने बैंचों पर, कभी राजमहल के लॉन पर, और शाम होने पर लवण ठाकुर के होटेल ‘आर्यन बंगला’ में. आर्यन बंगला मेरी पसंद का ठीक-ठाक अड्डा था. वैसे बड़े शहरों की तरह कोई तयशुदा कॉफ़ी हाऊस मंडी में नहीं था. मेरी सब से अच्छी दोस्ती छनती थी कवि सुरेश सेन निशांत से. पत्रिकाएं मुझे उन्हीं से मिल जाती थीं. उनसे मिलने मुझे सुंदरनगर जाना पड़ता था.
आज तमाम गतिविधियां कम हो गई हैं. साल 2016 में मेरी मंडी पोस्टिंग हुई और 2020 तक मैं वहाँ रहा. तब तक यहाँ का माहौल बदल चुका था. इन चार सालों में मुझे केवल एक गोष्ठी याद है जो कवि, लोक गायिका एवं फ़िल्म अभिनेत्री रूपेश्वरी शर्मा के घर हुई. वे पुरानी मंडी में मेरे पड़ोस में रहती थीं. रमेश रवि, योगेश्वर शर्मा, रेखा वशिष्ठ, हरि प्रिया सब आस-पास ही रहते थे. और ये सभी आज भी सक्रियता बनाए हुए हैं.
कवि बलवंत नीव, अनिल महंत, कथाकार पौमिला ठाकुर और लोक गायिका कृष्णा ठाकुर नए लोग हैं जो सक्रियता बनाए हुए हैं. समीर कश्यप सोशल मीडिया में सक्रिय रहते हैं. आबोहवा बदलने के बावजूद आज भी मंडी की हर गली में आप को एक-दो हिंदी लेखक मिल ही जाएंगे. यह तस्दीक करता है कि अतीत में यहाँ ठीक-ठाक साहित्यक माहौल रहा था. हाँ अब आप अड्डेबाज़ी के लिए तरस जाओगे. व्यक्तिगत रूप से भले हर किसी से मिल लो, सामूहिकता सिरे से ग़ायब है. इसी बीच शहर के तीन लोग असमय चल बसे. सुरेश सेन निशांत, लवण ठाकुर और नरेश पंडित. मुझे ठीक से पता नहीं इनकी सक्रियता ख़त्म होने से शहर की आबोहवा बदली या कि माक़ूल आबोहवा न मिलने से ये लोग ख़त्म हो गए….पर मुझे इसका सदमा बहुत लगा. शहर से ज़्यादा परसनली मुझे! शहर को तो भला इस बदलाव से क्या ही फ़र्क पड़ता, पर मैं एक ज़िंदा धड़कते हुए भरेपूरे शहर को मिस करता हूँ. कवि दीनू कश्यप की एक कविता है—
‘इस शहर में एक लड़का था
विचार की तरह
पता नहीं उसे शहर से कौन चुरा ले गया…’
आज मुझे लगता है शहर ने कुछ नहीं खोया. शहर कभी कुछ नहीं खोता. अलबत्ता उस लड़के ने शहर को खो दिया.
(07/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 4:30 बजे शाम)
सूरज की अंतिम किरणों की रोशनी में
आपका पहला प्यार गाँव होने के बावजूद मैं जानना चाहता हूँ-यदि आपको इनमें से (मंडी, सोलन, शिमला या फिर चंडीगढ़) कोई एक शहर होना पड़े या कि यों कहूँ की इन चारों शहरों के अलावा आपको अगर एक नया शहर होने का मौक़ा मिले तो आप किस तरह का शहर होना चाहेंगे?
(07/12/2023/ क्रोज़िड, हिमाचल / 8.00 बजे रात)
उसे शहर होते हुए देख मन ख़राब हो जाता है
नहीं मुझे शहर नहीं होना है. मुझे गाँव ही बने रहना है. मेरा बस चले तो मैं अपने गाँव को भी शहर नहीं होने दूँ. न ही गाँव के अपने लोगों को. जब भी गाँव लौटता हूँ, उसे शहर होते हुए देख मन ख़राब हो जाता है. हर बार वह थोड़ा-सा कुरूप हो गया होता है. थोड़ा-सा शहर हो गया होता है. मुझे कोफ्त होती है और डर भी जाता हूँ. यदि शहर ही होना है तो वैसा शहर बनूँ जैसा आठवें दशक का चंडीगढ़ था. गाँव सा. खुली-डुली गलियां. रेड़ी मार्केट, परसराम के परांठे, सेकेंड हैंड किताबों के ढेर, चौड़ी सड़कें, प्रिंस के राजमा चावल, मोटे के चने भटूरे. बहुत कम शोर. बहुत कम धुआँ. गाड़ियां कम, साइकिल-रिक्शे ज़्यादा. सेवेनटीन का खुला मार्केट. फाऊंटेन के पास जयकुमार का मजमा, दीपक रेडियोज़ के बडे़-बड़े स्पीकर्ज पर जगजीत सिंह की ग़ज़लें और गुरदास मान के गीत.
टैगोर थिएटर, इंडियन थिएटर, छह शानदार सिनेमा हाल, स्पिकमेके से NZCC तक, भरतनाट्यम से लेकर भांगड़ा और गिद्दा तक, यूथ फेस्टिवल्ज़, नुक्कड़, सत्यपाल सहगल का हम कलम…हर शै सहज सुलभ! हाँ, फिर उसमें हिंसा और उग्रवाद को मनफी करना होगा. शहर के छावनीकरण को माईनस करना होगा.
मुझे याद है प्री-युनिवर्सिटी में पढ़ता था. मेरे होस्टल के बाहर एक मिज़ो लड़के को करपाणो से बेदर्दी से काट दिया गया था. बी.ए सेकंड ईयर का इम्तिहान देते हुए हमारे परीक्षा भवन की छत पर आर्मी की हेवी मशीन गनें तैनात थीं. एम.ए के दौरान माता गूजरी हॉस्टल के पिछवाड़े पेवमेंट पर एक छात्र नेता की सरे-शाम गोली मारकर कर हत्या कर दी गई थी. पी यू कैंपस सीआरपीएफ की छावनी बन गई थी. ऐसा भी क्या शहर होना!
(08/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 1 बजे दोपहर)
खुला रंगमंच के.सी.
यह मुसलसल चढ़ते जाते दिसंबर की एक दोपहर है. मैं इस वक्त खुला रंगमंच जेएनयू की सीढ़ियों पर बैठा हुआ हूँ. जेएनयू जो अरावली की पहाड़ियों पर किसी कविता-सा रचा बसा है. जिसमें कुछ लोग हैं, मुख़्तलिफ़ ज़बानों, प्रदेशों, विचारों से बुने हुए. यहाँ अरावली पर कुछ कम पीली धूप बिछी हुई है. एक नीम का पेड़ है गिर्द मेरे हवा से खिलंदड़ी करता. एक नील गाय नज़दीक मेरे जुगाली करती. कहीं दूर एक धुन बज रही है जो शहर के शोर को चीर पहुँच रही है मुझ तक. थोड़ी-सी दूरी पर एक बुज़ुर्ग एक बच्चे को पांव चलना सिखा रहा है. और मैं यहाँ इन सबके बीच कवि सुरेश सेन निशांत की कविता किताब ‘कुछ थे जो कवि थे’ पढ़ रहा हूँ. मैं देख रहा हूँ- ‘चावल’ छोटी-सी पोटली में बंधे हुए. ‘मंदिर से लौटती औरतें’ गाती हुई गीत, बाँटती हुई हिस्सा नए अनाज के मीठे रोट का चीटियों को, चिड़ियों को. ‘पहाड़ का दर्द’ जिसके सीने पर ज़ख़्म हैं गहरे. ‘गेहूं’ गीतों में लय, आवाज़ में रस, चेहरे पर ख़ुशी. ‘पहाड़ पर एक और सीमेंट फैक्ट्री लगने पर’ बारूद का धमाका, बाघ, मोर और खरगोश का पलायन, तपेदिक से बिलबिलाती देह. और यह भी कि ‘कुछ थे जो कवि थे’ तिकड़में करते, रचना की हत्या की सुपारी लेते, आत्मप्रशंसा में वक्तव्य देते. बहरहाल…आपने अभी तक के अपने कहे में कई-कई बार सुरेश सेन निशांत का ज़िक्र किया है. सुरेश सेन निशांत के साथ की क्या यादें हैं? आपने सुरेश सेन निशांत पर ‘दोस्त का झोला’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी है न!
(12/12/2023/ सुमनम, हिमाचल / 7:57 बजे सुबह)
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
अद्भुत! हिमालय ने अरावली को फील किया! बचपन में फ़क़त इतना सुना था कि अरावली मॉनसून के समानांतर है अतः बरसातों में राजपुताना सूखा रह जाता है. बहुत बाद में सन 2013 में पता लगा कि अरावली की शाखाएँ दिल्ली तक चली आती हैं. इस प्रागैतिहासिक कनेक्शन के बारे में मुझे जेएनयू के छात्रों ने बताया था. उस दिन मेरी किताब का विमोचन था. मेले से उचट कर जेएनयू आ गए थे और पार्थसारथी रॉक्स पर बैठे बीयर पी रहे थे. हर भूगोल का एक इतिहास है. मैं इतिहास के भूगोल को समझना चाह रहा था और वे चट्टानें कुछ बता नहीं पा रही थीं. एक शब्द बार-बार याद आता रहा- राय पिथोरा! क्या यह पृथ्वीराज चौहान ही थे? भूल जाओ बीयर पर फोकस करो.
जेएनयू क्या है? शहर के बीचों-बीच एक गाँव है. मैदान के बीचों-बीच एक पहाड़ है. मंगलेश डबराल ने आज मेरी किताब का विमोचन किया था. मेरी पहली कविता-किताब. उस बडे़ कवि का शुक्रिया अदा करने की मेरी औकात नहीं. मैंने पूछा था सर कैब करवा देता हूँ? ओ रे क्यों करोगे? मेट्रो सीधे प्रगति मैदान आती है. तुम समय और हॉल नंबर बताओ, पहुँच जाऊँगा भाई. सहज पहाड़ी बेतकल्लुफी. पार्थसारथी पर बैठे-बैठे मुझे याद आया कि मंगलेश पहाड़ से एक चट्टान की तरह खिसककर दिल्ली आ गए थे और वहाँ गाँव की ढलान पर उनके खिसकने की खाली जगह बन गई थी.
कवि को वह ख़ालीपन बार-बार खींचता रहता था. लेकिन मेरी दिलचस्पी उस टुकड़े पर थी जो लुढ़कते हुए दिल्ली तक पहुँच गया था…क्या हुआ होगा उस पत्थर के साथ यहाँ? आदिम अरावली नहीं बता पाएगी कि हिमालय के उन पत्थरों के साथ दिल्ली क्या करती है? ख़ुद हिमालय को इस का पता लगाना होगा. हिमालय तुम प्रागैतिहासिक सबाल्टर्न हो. सदियों से हाशिये में! एक बीयर और देना विशेष राय…….
सुरेश सेन निशांत से मेरा पहला परिचय एक पोस्टकार्ड के ज़रिए हुआ था. हालांकि उन दिनों आम आदमी को फोन मुहैया हो गए थे, और केलंग में मेरा लैंड लाईन साल 1996 में लग गया था. लेकिन मेरी तमाम साहित्यिक जान-पहचान पोस्टकार्ड के माध्यम से ही होती थी. फोन पर बात करने की हिम्मत नहीं होती थी. ई-मेल का चलन आम नहीं था. कंप्यूटर की केवल बातें सुनते थे, वह अभी हमारे घरों में दाख़िल न हुआ था. साहित्यिक पत्रिकाओं में कोई रचना पसंद आने पर हम बधाई व प्रतिक्रियाएं कार्ड पर ही दिया करते. हालांकि रचना के साथ लेखकों के फोन नंबर भी अक्सर दिए जाते थे. यह बीसवीं सदी के आख़िरी दिनों की बात होगी कि सुरेश सेन निशांत का एक पीला-सा कार्ड मिला जिसमें नीले शब्दों में मेरी एक कविता की प्रशंसा की हुई थी और दूसरी को ख़ारिज किया गया था. यह शायद किसी कवि की पहली लिखित प्रतिक्रिया थी मेरी किसी रचना पर. इस पर मैं बहुत चहका हुआ था और तब से लेकर के निशांत भाई काफी सालों तक मेरे मानस पटल पर उन नीले अक्षरों की भांति बिखरे पड़े रहे. कवि से बात करने का मन करता था लेकिन हौसला न बटोर पाया. मैं काफी झेंपू किस्म का आदमी था.
मुझे याद पड़ता है केलंग में सितंबर 2004 की यह ठंडी, सुनसान और धूसर शाम थी. विलो और पोपलर के पेड़ अपने पीले पत्ते उतार रहे थे. दीनू कश्यप जी का फोन आया कि मंडी में एक साहित्य सम्मेलन हो रहा है. नामवर सिंह आएंगे. उन्होंने जोड़ा कि मंडी के कवि सुरेश सेन निशांत तुमसे मिलना चाहते हैं. शायद चंडीगढ़ के कवि-अनुवादक सत्यपाल सहगल से तुम मिलना चाहो. सहगल सर ने एम.ए में मुझे कविता पढ़ाई थी. और मैं वास्तव में इन दोनों से मिलना चाहता था. और इस बेहूदा पतझड़ से दो दिन का छुटकारा भी चाहता था. अगला जो बिंब याद आता है वह होटल राजमहल की पत्थर की सीढ़ियाँ हैं. नामवर सिंह के अगल-बगल मैं, निरंजन देव शर्मा और ईशिता आर गिरीश उन सीढ़ियों से उतर रहे हैं. सामने से बहुत पावरफुल लैंस वाला ऐनक पहने एक युवा और एक अधेड़ व्यक्ति आ रहे हैं. परिचय हुआ. ये क्रमशः सुरेश सेन निशांत और दीनू कश्यप थे.
हम सब ने परस्पर अभिवादन कर हाथ मिलाए. निशांत भाई की हथेलियां ख़ूब बड़ी थीं. बड़ी, खुरदुरी और पथरीली! ये हाथ लेखक के नहीं किसान के हाथ थे- एकदम कठोर! ये हाथ शहर के नहीं गाँव के हाथ थे! यूँ ऊपर से निशांत भाई जीन्स टी शर्ट पहने हुए एक स्मार्ट शहरी ही दिख रहे थे. लेकिन उनके भीतर गहरे में एक ठेठ गाँव रचा-बसा था. मेरी स्मृतियों में पोस्ट कार्ड के नीले बिखरे अक्षर सिमट कर मज़बूत हाथ में बदल गए. यह एक बडे़ भाई का हाथ था. जो एक बड़ा कवि भी था. यह व्यक्तित्व मुझे एक आत्मीय फेसिनेशन के संसार में खींच ले गया……गाँव, खुरदुरापन और अनगढ़ता! आज तक मैं अपनी कविता में भी यही कुछ खोज रहा था.
उस दिन हम चूंकि नामवर सिंह के अगल-बगल चल रहे थे, तो निशांत भाई ने हमें (मैं, निरंजन व ईशिता को) भी उसी टाईप का अकादमिक अभिजन लेखक समझा था और वे हम से खुलकर बात करने से झिझक रहे थे. बहुत बाद में जब पता चला कि अजेय तो एक सामान्य गंवई और आम ‘ट्राईबल’ लड़का है; स्वयं उनके जैसा ही झेंपू, और शर्मीला…तो उन्हें ख़ुद पर हंसी आई. यार सुरेश सेन, तू भी क्या क्या बेफजूल सोच लेता है. यह ज़िक्र बाद में भी वे अकसर किया करते और हम दोनों ख़ूब ऊँचे गंवई ठहाके लगाते.
इस मुलाकात के बाद हम दोनों का कान्फिडेंस बढ़ा. और हम फोन पर लंबी साहित्यिक चर्चाएं करने लगे. हम दोनों की कुछ कविताएँ इन्हीं टेलिफोनिक चर्चाओं में से निकलीं. ‘मित्र’ कविगण हमारे पीछे बात करते- ये लोग ‘मिलकर’ कविताएँ लिखते हैं. हमें हंसी आती! एक दिन अनूप सेठी मुझसे बोले- मिलकर तो नहीं कहा जा सकता, हाँ, तुम दोनों की कविताएँ जुगलबंदी तो हैं ही! चलिए, इतना सा तो सह्य है! बहुत माड़ी चीज़ नहीं है यार जुगलबंदी भी. जहाँ भी एक थक जाए तो दूसरा उसी स्थान से उठाना शुरू कर दे. ऐसा दुर्लभ सहकार. हम दोनों को एक दूसरे की कविताएँ बेहद पसंद थीं. लेकिन हम दोनों जानते थे कि इन कविताओं से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. इससे आगे का कुछ चाहिए. जो है उससे बेहतर चाहिए.
हाँ मैने ‘दोस्त का झोला’ शीर्षक से एक कविता लिखी है. उनके काले हैंड बैग में किसिम-किसिम की हिंदी लघु पत्रिकाएं भरी रहती थीं. आप पढ़िए उस कविता को. मैं क्या बताऊँ अब, कविता स्वयं बताएगी. और भी कविताएँ लिखी हैं मैंने उन पर. बहुत यादें हैं उनकी मेरे पास. शुरू करो तो ख़त्म ही नहीं होतीं. एक के पीछे से दूसरी निकल आती है. कोई मीठी कोई कड़वी. कभी लंबी बात करूँगा उन पर. मुझे उनकी आख़िरी काल याद आती है. बहुत डांटा था. यार तूने गौरीनाथ को कविताएँ क्यों नहीं भेजी? भाई मेरे पास थीं ही नहीं. क्या भेजता? ऐसा कैसे हो गया? अच्छा, बया का अगला अंक प्रेस में जा रहा है. अभी कितनी कविताएँ हैं तेरे पास? कविताएँ हैं भाई लेकिन काम होना है उन पर. कोई काम नहीं होना है जैसी है वैसी भेज दे. और जितनी हैं सारी भेज दे. तेरे लिए पेज बढ़ा देगा वह. देखो मैं बहुत बीमार हूँ और यह आदेश है मेरा.
उन्हें घातक बीमारियों ने आ घेरा था. डायबिटिक तो थे ही. अब सोडियम की कमी हो गई है. चल फिर नहीं सकते. बिस्तर पर हैं. अरसे से फोन उठाना छोड़ दिया था. जब मन होता ख़ुद ही कॉल करते. उनकी बातों से घोर हताशा झलकती. मैंने उनका मन रखने के लिए कविताएँ भेज दीं. उसके बाद कोई फोन न आया उनका. उनके न रहने की ख़बर आई. मंडी से मेरी गाड़ी में हम चार लोग गए थे अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए. कुछ लोग अलग से भी पहुँचे. अब बस ख़ालिद शरीफ़ का यह शेर याद आता है:
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया.’
(12/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 10 बजे रात)
गंगा ढाबा
अवार भाषी रसूल हम्ज़ातोव मेरे कुछ अज़ीज़ लेखकों में से हैं. और उनकी लिखी किताब ‘मेरा दागिस्तान’ जो हमेशा मेरे सिरहाने होती है, मुझे सलीक़ेदार बनाती है. इस किताब की कितनी-कितनी ख़ूबसूरतियों में एक यह है कि जब चाहा, जहाँ से चाहा खोलकर पढ़ लिया. ऐसा मैं कई बार करता हूँ. यह भी कि यह किताब विधाओं का नकार है. मेरी नज़र में रसूल हम्ज़ातोव और आपको जो एक चीज़ समान बनाती है, वह है- पहाड़. रसूल हम्ज़ातोव ने अपनी मातृभाषा अवार में लिखा यह जानते हुए कि दुनिया का बड़ा हिस्सा यह ज़बान नहीं जानता-समझता. आपने एक जगह लिखा है कि- ‘दिल की बात मातृभाषा में ही सबसे बेहतर कही जा सकती है.’ मुझे याद आता है कि आपकी मातृभाषा ‘पटनी’ है. पटनी याने आपके दिल की भाषा, दिल की भाषा याने पटनी. आप पटनी में कविता क्यों नहीं लिखते? यह गुरेज़ क्यों? क्या आपको न पहचाने जाने से डर लगता है?
(22/12/2023/ शिमला, / 12:14 बजे दोपहर)
रसूल हम्ज़ातोव यदि हिमालय का होता तो रहने के लिए निश्चय ही शिमला को चुनता
देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ. इस बीच मुझे काफी यात्राएँ करनी पड़ीं. इन दिनों मैं शिमला में हूँ. मुझे यहाँ का सरकारी घर खाली करना है. चार मेट्रेस, चार कुर्सियाँ, एक हीटर, एक गीज़र, कुछ कम्बल, दो प्रेशर कूकर, दो पतीले, थालियाँ, चमचे, कप, कड़्छी, केतली, तवा और बेलन. सरकारी बाबू यदि कवि हो तो उसका घर एक कार में ढो लिया जा सकता है. शिमला में आज आसमान साफ़ और धूप अच्छी है. कुल्लू से बहुत अच्छी. शिमला की सर्दी चुभती नहीं. बड़ी गुनगुनी क़िस्म की ठंड होती है यहाँ. ऊपर से धूप चमक रही हो तो बात ही क्या! जानकार कहते हैं कि शिमला में नदी नहीं है इसलिए यहाँ की सर्दी ज़रा सी शरीफ़ है.
रसूल हम्ज़ातोव यदि हिमालय का होता तो रहने के लिए निश्चय ही शिमला को चुनता. और मैं यदि दागिस्तान का होता तो कविता लिखने के लिए रूसी भाषा ही चुनता. हम्ज़ातोव मेरा भी प्रिय लेखक है. लेकिन प्रिय कवि नहीं. कारण आगे बताता हूँ. और शायद वही कारण आप के इस सवाल का आंशिक उत्तर भी हो कि मैं अपनी मातृभाषा में क्यों नहीं लिखता?
‘मेरा दागिस्तान’ एक शानदार गद्य पुस्तक है. गद्य के भीतर उस की उप-विधा क्या है, यह बताना कठिन है. या वह संस्मरण है, लोकवार्ता है, डायरी है, क़िस्सागोई है, आलोचना है कि क्या है?
सन 2007 के आसपास की बात होगी. मैंने प्रोफ़ेसर वरयाम सिंह के कुछ अनुवाद पढ़ कर उन्हें फोन किया. बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे सलाह दी थी मुझे हम्ज़ातोव की वो किताब पढ़नी चाहिए. पंजाब बुक सेंटर चंडीगढ़ से वह किताब ख़रीद लाया. एक सिटिंग में आधी किताब पढ़ गया. अद्भुत भाषा थी उसकी. यद्यपि अनुवाद ही था, पर मुझे आज भी पता नहीं कि उस की मूल भाषा क्या थी? पता करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई. वो हिंदी ही की किताब लगती थी. बेशक़ यह अनुवादक का कमाल रहा होगा. अलबत्ता वो किताब पढ़कर पता चलता था कि हम्ज़ातोव ने अपनी कविताएँ अपनी मातृभाषा ‘अवार’ में ही लिखीं थीं. उसे अवार जन, अवार ज़ुबान और दागिस्तान की मिट्टी से बेइंतेहा मुहब्बत थी.
वो गद्य पढ़ने के बाद मैंने निशांत भाई को फोन किया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि वे भी वही किताब पढ़ रहे थे! हम सभी मित्रों ने उस किताब पर चर्चा की. पता चला कि हिंदी में यह एक बेहद लोकप्रिय और बहुत अधिक बिकने वाली किताब है. मेरा मन हुआ कि हम्ज़ातोव की कविताएँ पढ़ीं जाएं! कवि का गद्य इतना शानदार है तो कविताएँ कितनी अद्भुत होंगी? लेकिन मैं निराश हुआ. शायद कविताओं का अनुवाद ठीक से न हुआ होगा. सम्भव है मूल भाषा में ये कविताएँ बहुत ख़ूबसूरत और ताक़तवर हों, अवार समुदाय में ये कविताएँ बेहद लोकप्रिय रहीं हों. और मुझ तक जो अनुवाद पहुँचे थे वे स्तरीय न रहे हों. मुझे लगा कि अवार भाषा में लिखी कविताओं को सम्प्रेषणीयता के लिए अनुवादकों पर निर्भर रहना पड़ा.
हम्ज़ातोव का गद्य जितनी दूर पहुँचा, कविताएँ शायद न पहुँची होंगी. मुझ तक तो नहीं ही पहुँची. मुझे लगा कि यह त्रासदी हर आंचलिक भाषा के साथ रहेगी, अगर विधा कविता हो. तो आप जो कह रहे हैं कि ‘न पहचाने जाने का डर’ उसे यूँ समझो कि ‘न पहुँच पाने का डर’. हाँ, यह ठीक रहेगा. मैं पहुँचना चाहता था. अपनी कविताओं को लेकर अपने आसपास के ताक़तवर लोगों के पास पहुँचना चाहता था. राजनैतिक सत्तावानों के पास नहीं, अपितु सामाजिक-साँस्कृतिक वर्चस्व वालों के पास. शेष हिमाचल के तेज़ी से उभरते मध्यवर्ग के पास. मैं उनसे संवाद करना चाहता था. मुझे लगता था कि मैं उनसे कई मायनों में एकदम अलग हूँ और मेरे पास उनके साथ साझा करने के लिए कुछ है! और वे सभी हिंदी भाषी हैं. तो एक कारण तो यह रहा पटनी की जगह हिंदी चुनने का. दूसरे, लाहुल की सात छोटी-छोटी भाषाओं में परस्पर इतनी भिन्नता है कि हम एक-दूसरे को समझ नहीं सकते. हमें सम्पर्क भाषा की ज़रूरत पड़ती है. किसी समय ‘भोटी भाषा’ और ‘गद्दी भाषा’ से लोग काम चलाते रहे होंगे. लेकिन आज़ादी के बाद क्योंकि हिंदी शिक्षा और सरकारी काम-काज की भी बनी, तो लोगों ने हिंदी को सम्पर्क भाषा चुना.
आप को सवाल यह पूछना चाहिए था कि मैंने हिंदी भाषा क्यों चुनी? ख़ास साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए क्यों चुनी? जब रसूल हम्ज़ातोव लिख रहे थे, दागिस्तान के अवार भाषियों की अच्छी खासी जनसंख्या थी. लगभग 7 लाख से ऊपर रही होगी. जब कि सोवियत संघ में वर्चस्व की भाषा रूसी थी जिसे बोलने वाले 35 करोड़ लोग थे. यह एक ख़ासा सम्मानजनक अनुपात है. इसके बरअक्स आज मेरे देश में वर्चस्व की भाषा हिंदी है जिसे बोलने वाले 60 करोड़ लोग हैं.
मेरी मातृभाषा पटनी अति संकट्ग्रस्त अल्पसंख्यक आदिवासियों की भाषा है जिसे बोलने वाले पिछले तीन दशकों से 15 हज़ार की संख्या से आगे नहीं बढ़ रहे. यह अनुपात देखिए तो आप को समझ आएगा कि अभिव्यक्ति की दृष्टि से मातृभाषा में मेरा लेखन किस कदर व्यर्थ जाने वाला था. तो पटनी की अवार के साथ तुलना नहीं हो सकती. पटनी बहुत छोटी भाषा है और अभी तक साहित्य लेखन की कोई परम्परा इसमें नहीं है. केवल ओरल परम्पराएं हैं. वो भी केवल नरेटिव हैं- क़िस्से, दंतकथाएं, पहेलियाँ, लोकोक्तियाँ और गालियाँ… बस!
क़ायदे से कोई एक पारम्परिक लोकगीत या लोरी भी नहीं है. इसी से इस भाषा की साहित्यिक पोटेंशियल का अन्दाज़ा लग सकता है. मुझे नहीं लगता कि मेरी पीढ़ी के बाद यह भाषा जीवित भी रह पाएगी. कुछ युवा लोग छिटपुट रचनात्मक प्रयास कर रहे हैं इसमें, लेकिन फोकस अभिव्यक्ति पर नहीं आर्काईविंग पर है. और अभी पहली ही पीढ़ी है लेखकों की. गिनती की रचनाएं हैं. अभी तक कोई एक किताब भी नहीं छप सकी है. लोग ग्लॉसरीज़ और शब्दकोशों पर काम कर रहे हैं. जब कि ख़ुद रसूल हम्ज़ातोव के अपने पिता अवार भाषा के सुप्रसिद्ध कवि थे. माने, वहाँ परम्परा थी बाक़ायदा! जिसे उसने आगे बढ़ाकर सोवियत रूस में, पूरे विश्व में पहुँचाया.
मातृभाषा में कविता करना कौन नहीं चाहेगा? मेरा भी सपना है एक अच्छी कविता पटनी में लिखूँ! आप को अपनी कुछ असमर्थताएं बता देता हूँ. मेरी इस भाषा में इतनी पकड़ नहीं है कि कुछ लिख सकूँ. इसकी एक वजह तो यह रही कि जहाँ मेरी शिक्षा हुई है- केलंग! वहाँ की भाषा पटनी नहीं है. वहाँ ‘पुनन’ नाम की छोटी सी एक अलग आदिम भाषा है. बचपन में हम बच्चे उसी भाषा में बात करते थे या फिर हिंदी में ही करते थे. मैंने नौकरी भी अधिकाँश केलंग में ही की. और सुमनम गाँव में जो मेरा ननिहाल है उस खानदान के रूट्स लद्दाख में हैं. और उस घर में नाना जी से पहले तीन पीढ़ियों में बहुएं पुनन भाषी आतीं रहीं. तो ज़ाहिर है पटनी उस घर में ज़रा उपेक्षित रही होगी.
हमने अपनी नानी और माँ की कथाओं में, जो होतीं तो पटनी भाषा में ही थीं; मुहावरे, दोहे, टप्पे सब ‘भोटी भाषा’ में सुने हैं. भोटी को आप लद्दाख की भाषा समझिए. मैं जब पटनी लिखने की कोशिश करता हूँ तो उसके ठेठ मुहावरे और व्याकरण से काफी असंपृक्त पाता हूँ. एक तो मेरे लिए यह बड़ी समस्या है. फिर पिताजी का हिंदी अध्यापक होना, घर में हिंदी पत्रिकाओं की भरमार, कॉलेज जा कर हिंदी साहित्य को ऑप्ट करना, हिंदी कविता में गहरी रुचि…. शायद ये तमाम कड़ियाँ रहीं होंगीं जो मुझे मातृभाषा से थोड़ा दूर ले गईं.
(23/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 2 बजे दोपहर)
पार्थसारथी चट्टान से टेक लगाए
आप हिमालय की चोटी तक कभी नहीं पहुँचे. अलबत्ता खेलें हैं ख़ूब हिमालय के काँधों और उसकी छातियों पर…और यों आपने अपनी एक कविता के आख़िर में हिमालय को अपना पिता कहा है. इस संकटग्रस्त सदी में आपके इस पिता यानी हिमालय का सबसे बड़ा दुख क्या है? जो सिर्फ़ एक बेटा जानता है.
(27/12/2023/ शिमला, हिमाचल / 10 बजे सुबह)
मेरे कवि हो जाने का मेरे पिता को बहुत गहरे में दुःख है
उस कविता में दो चीज़ें हैं! एक है हिमालय और दूसरा पिता. और इसमें प्रथम दृष्ट्या हिमालय जो है, वह पिता का रूपक प्रतीत होता है. एक स्तर पर है भी. लेकिन असल में यह प्रतीक मात्र है. साँगरूपक नहीं. पिता यहाँ महज़ सम्मान सूचक शब्द है. यह पिता हिमालय जैसा ऊँचा नहीं, बहुत ह्यूमन है. ज़मीनी है. पहले पिता को समझ लूँ, फिर वो जो दूसरा स्तर है कविता में, उसके ज़रिए आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहूँगा.
अपने निजी जीवन में पिता के साथ मेरे सम्बन्ध काफी कंफ्यूज़िंग हैं. आदर्श पिता-पुत्र सम्बंध कैसा होना चाहिए? मुझे ठीक से पता नहीं. पर जो सम्बंध मैं चाहता हूँ, वह बराबरी का है और मित्रवत है. जिसमें मेरी बहुत बहसें हैं उनसे. अंतहीन, ख़त्म न होने वाली बहसें. अपने चौरानवे वर्षीय वयोवृद्ध पिता के साथ मैं आज भी ख़ूब ऊँची आवाज़ में बहस करता हूँ. अपने उनसठ वर्षीय पुत्र को वे भी उसी टोन में फ़टकारते हैं. मेरी आदिम अराजक समझ को वे तहेदिल से घृणा करते हैं. और उसे आज भी उसी तरह से ध्वस्त कर देना चाहते हैं जिस तरह से मेरे धुर बचपन में उन्होंने करना चाहा होगा.
मेरे कवि हो जाने का मेरे पिता को बहुत गहरे में दुःख है! एक मलाल की तरह, कि मेरे जैसे पिता के रहते यह बच्चा यूँ कैसे बिगड़ गया? हमारे ये मतभेद अनेक स्तर पर हैं. वैचारिक स्तर पर भी और नैतिक स्तर पर भी. जिसे वे सभ्यता समझते हैं, मुझे वह पाखण्ड नज़र आता है. जिसे मैं आत्मीयता समझता हूँ उसे वे बदतमीज़ी कहते हैं. वे मुझे ठीक वैसा ही अथाह अगाध प्रेम करते हैं जैसा कोई भी बाप अपने बच्चे से करता होगा. बेहद पज़ेसिव, प्रोटेक्टिव, केयरिंग. बावजूद इस सबके, पिताजी, तुम इस क़दर एक आमफ़हम पिता क्यों हो? तुम उसी तरह से दोस्त पिता क्यों नहीं हो, जिस तरह से हिमालय है…..?
अब देखिए दूसरा स्तर- वह कविता मैंने क्यों लिखी? मेरा एक प्रगतिशील मित्र कह रहा था कि हिमालय की चोटी पर चढ़ने वाला इंसान हिमालय से ऊँचा है. मेरे पहाड़ी मन को यह बात बहुत भली नहीं लगी. हम पहाड़ी लोग पहाड़ को बहुत बड़ी शै मानते हैं. हमारी नज़र में क़ुदरत इंसान से छोटी नहीं हो सकती. यह एक बड़ी ही दम्भयुक्त भौतिकवादी सोच है कि प्रकृति में जो भी है, वह इनसान के लिए है. उसके द्वारा निर्मित तंत्र और सत्ताओं के उपयोग और उपभोग के लिए है. इसे वे मानववादी सोच कहते हैं. एंथ्रोपोसेंट्रिक आईडिया. कि इस सृष्टि का निर्माण इंसान के लिए हुआ है. मैं इस सूझ से इत्तेफाक नहीं रखता. इसके ठीक उलट मेरी समझ इकोसेंट्रिक है. पुरानी लफ्ज़ाली में हम जिसे प्रकृतिवादी सूझ कहते थे. मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि मैं प्रकृति की विराट चेतना के समक्ष नतमस्तक हूँ.
मानव क्या है? बेशक बहुत महत्वपूर्ण, लेकिन प्रकृति का एक अति सूक्ष्म अंश ही तो. निस्सन्देह बेहद वाईटल और सम्भावनाशील; लेकिन आख़िरकार प्राणि जगत की एक क्षुद्र प्रजाति ही तो! जुरासिक युग में जो डायनासोर से डरता रहा आधुनिक युग में कोरोना से आतंकित है. आज मानव का युग है, बहुत सम्भव है अगला युग ऊदबिलावों का या विषाणुओं का हो. कहने का मतलब यह कि चेतना मनुष्य की बपौती नहीं! चेतना का पसारा समूची सृष्टि में है. और यहाँ मात्र इंसान नहीं हर शै उत्क्रांतिरत है—अंडर इवोल्युशन. और हर शै में इवोल्युशन की गति अलग है. यहाँ बहुत सारी चीज़ें ऐसी हैं जो मानव से कई गुना अधिक त्वरा में इवॉल्व हो रहीं हैं. तो मानव को इस दंभ से जल्द मुक्त हो जाना चाहिए कि इस जीवन का ताना-बाना मानव ही के इर्द गिर्द बुना गया है. मेरी तमाम अभिव्यक्ति इस गड़बड़ सोच के विरोध में है.
हिमालय पर आज जो आसन्न संकट है, उसके पीछे जो जिओपॉलिटिक्स है, उसकी तारें इतिहास में बहुत पीछे जुड़तीं हैं. उसे समझने के लिए आप को सिल्क रूट के ज़माने तक पीछे जाना होगा.
मार्को पोलो की यात्राओं, मध्य-एशियाई अतिक्रमणों, कलोनियल आक्रमणों से लेकर आज के नव-उपनिवेशवाद तक हिमालय एक खतरनाक ‘ग्रेट गेम’ का अखाड़ा बना हुआ है. एक तो हिमालय मनुष्य के बेइंतेहा लालचों और मनमर्ज़ियों की राह में बड़ी बाधा है. इसलिए तमाम वैश्विक ताक़तें उस पर नज़र रखे हुई हैं. दूसरे इसने अपनी अत्यंत वेध्य व नाज़ुक पारिस्थितिकि के गर्भ में अकूत प्राकृतिक सम्पदा का बेशक़ीमती खज़ाना सहेज रखा है. उसका यही खज़ाना संकट को आमंत्रण दे रहा है. आज की बेहूदा सभ्यता ने पृथ्वी की तमाम खनिज, वानस्पतिक, वातावरणीय, जल एवं जैव संसाधन के भंडार लगभग चूस कर खाली कर दिए हैं. पूरी सृष्टि के वजूद की फिक़्र ना भी करें, ख़ुद इंसान ही एक घूँट ताज़ा हवा का मोहताज हो गया है.
मेरी अधिकतर कविताओं में यही चिंताएं हैं. यही सरोकार हैं. इसीलिए मैं अपनी कविताओं में करुणा को खोजता हूँ. यह करुणा ही इस सबको बचा पाए शायद. हिमालय अपनी दुरूहता के चलते आज तक इस लूट-खसूट से बचा हुआ था. लेकिन अब इसके शोषण के तमाम खिड़की दरवाज़े और रास्ते खोल दिए जा चुके हैं. सुरंगें, सड़कें और बाँध. मुझे अपने देस में ऐसा विकास नहीं चाहिए. मैं हिमालय को एक सेल्फ सस्टेनिंग प्राकृतिक इकॉलज़िकल हेबिटेट के रूप में देखना चाहता हूँ. इसे क़ुदरत के एक ऐसे ज़िन्दा जैविक मॉडल के रूप में विकसित होते देखना चाहता हूँ जहाँ आकर हमारी भावी नस्लें दो घड़ी रह सकें, देख सकें अपने बच्चों को दिखा सकें कि कभी उनके पूर्वज ऐसे रहते थे. क्योंकि यहाँ अभी भी बहुत कुछ है जो बचाया जा सकता है. जिसे बचाया जाना चाहिए. इसे तुम मेरा यूटोपिया ही कहो. एक कवि को अपने इस यूटोपिया में जीने का हक है. पता नहीं उस आदिम पिता का ठीक-ठीक बेटा हो पाया हूँ कि नहीं, उसका दुख सही-सही पहचान पाया हूँ कि नहीं, चूँकि उसकी गोद में पला हूँ, काँधों पर खेला हूँ तो उसके दिल की धकधक और साँसों की रुलाई महसूस कर पा रहा हूँ.
मैं उसकी चोटी तक कभी नहीं पहुँचा
ख़ूब खेला हूँ अलबत्ता
उसके काँधों और छातियों पर
और वहीं से देखता रहा
यह दुनिया
वह पिता है मेरा!
(28/12/2023/ जेएनयू, दिल्ली/ 11 बजे सुबह)
भारतीय भाषा केंद्र
जेएनयू में किताबों की पाँच दुकाने हैं. तीन केंद्रीय लाइब्रेरी के पास- पी.पी.एच., जवाहर बुक सेंटर, हेम बुक डिपो. एक ताप्ती हॉस्टल के पीछे तरुण बुक कार्ट और एक कमल कॉम्पलेक्स (यह जेएनयू स्थित एक छोटा सा बाज़ार है जहाँ रोज़मर्रा की चीज़ें मिलती हैं) में- गीता बुक सेंटर. यहाँ हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी की कई मुख्य पत्रिकाएं पहुँचती हैं. कई मुख्य पत्रिकाएँ पहुँचना बंद हो गई हैं. मेरे पास ‘भाषा एवं संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश’ की द्वैमासिक पत्रिका ‘विपाशा’ का एक विशेषांक है- हिमाचल की हिंदी कविता’. यह मुझे शिमला से मिला था. मैं इस पर बात करूँ उससे पहले बता दूँ कि एक राज्य विशेष का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करने वाली यह पत्रिका हिंदी की बहुत-सी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं की तरह जेएनयू नहीं पहुँचती. शायद पहले भी कभी नहीं पहुँचती होगी. दिल्ली का हाल मैं नहीं जानता.
खैर; अप्रैल-अगस्त, 2022 में प्रकाशित विपाशा के इस विशेषांक का संपादन आपने किया है. यह विशेषांक कई दृष्टियों से मानीखेज़ है. कुछ बातें जानना-कहना चाहूँगा. इस कविता विशेषांक को तैयार करते वक़्त आपके सामने किस तरह की चुनौतियाँ थीं? आपके ज़हन में कहीं यह बात भी थी कि इधर लिखे जा रहे हिंदी साहित्य के इतिहासों में यह अंक हिमाचल की हिंदी कविता के नज़रिए से कैसे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है? एक और बात- आपने इस विशेषांक की शुरुआत सुरेश सेन निशांत की दो कविताओं से की है. क्या यह सुरेश सेन निशांत के प्रति लगावट की वजह से हुआ? भावुकता की वजह से? दोस्ती की वजह से, उनके न रहने की वजह से? या ऐसा क्या है कि आप हिमाचल की हिंदी कविता सुरेश सेन निशांत से शुरू होते देखते हैं? जबकि इस विशेषांक में हिंदी कविता के और भी कई समादृत कवि शामिल हैं, मसलन- दीनू कश्यप, वरयाम सिंह, तुलसी रमण, यादवेन्द्र शर्मा, केशव, कृष्ण कुमार वैद्य, सुन्दर लोहिया, अनूप सेठी, रेखा, सरोज परमार, प्रदीप सैनी और ज़िया सिद्दीकी आदि. क्या इस पर कभी कहीं से किसी तरह की आपत्ति दर्ज नहीं हुई?
(01/01/2024/ परिमहल, शिमला/ 10:44 बजे रात)
धोए चिलौड़ खाणा
हमेशा देर कर देता हूँ. आपके सवाल बार-बार मेरे कानों में गूँज रहे हैं. आप ने मेरी बहुत सारी तारें एक साथ छेड़ दी हैं. निश्चय ही बहुत मज़ा आने वाला है. मैं इनका जवाब देने के लिए मरा जा रहा हूँ. लेकिन मेरे पाँव में चक्कर हैं. घर का सामान कुल्लू पहुँचा चुका हूँ . लेकिन घर खाली करने की औपचारिकताएं अभी बाक़ी हैं. आज मैं शिमला वापिस लौटा हूँ. कहते हैं परिमहल की ताल में कभी रात भर परियाँ नहाया करतीं थीं, अब कुत्ते भौंकते हैं.
शिमला में सरकारी घर को पाना और उसमें दाख़िल होना उतना कठिन नहीं है जितना कि उसे छोड़ना. अभी मुझे अनेक दफ़्तरों से काग़ज़ बनवाने हैं- बिजली, पानी, लोक-निर्माण विभाग, नगर पालिका. ये तमाम काग़ज़ सचिवालय में एस्टेट दफ़्तर में जमा करवाने हैं जिसकी एवज़ में मुझे वहाँ से एक अनापत्ति पत्र मिलेगा. उस पत्र को निदेशालय में पहुँचाना मेरी ज़िम्मेदारी है. तभी मेरे रिटायर्मेंट के बक़ाया पैसे रिलीज़ किए जाएंगे. तो यह पूरा एक प्रोजेक्ट है.
बचपन में गाँव के एक बुज़ुर्ग से बड़ी मज़ेदार लोक कथा सुनी थी. कथा पटनी भाषा में ही थी, लेकिन बीच में जो छन्दबद्ध गाथाएं पिरोई गईं थीं, वो ‘चिनल’ भाषा में थीं. चिंज धोए चिलौड़ खाणा. नायक लोमड़ी को ‘चिलौड़’ खाने के लिए मेरी ही तरह बहुत जगहों से क्लीयरेंसेज़ लेनी पड़ी थीं. तो इन दुश्वारियों के चलते आपके सवालों का जवाब टुकड़ों में ही दे पाऊँगा. यूँ मेरा दाना पानी यहाँ से उठ चुका है किंतु परिमहल के जे. ई. साहब ने कहा है कि वे अपने रिस्क पर मुझे दो दिन अतिरिक्त ठहरा सकते हैं. उसके आगे एक और रात सोने की परमिशन अभी-अभी चौकीदार दे गया है. अभी मुझे सोने दें. अभी कुत्ते अच्छी लोरी सुना रहे हैं……
(05/01/2024/ ढालपुर, कुल्लू/ 7 बजे सुबह)
गूगल में अगले हफ्ते भारी बर्फ़बारी दिख रही है
कल शिमला से लौटा हूँ. घर आ कर पता चला कि मुझे सुमनम जाना होगा. गाँव में मेरे रिश्ते के एक मामा जी का देहावसान हुआ था. पक्के महात्मा आदमी थे. वे पूरे 101 वर्ष जिए. उनकी तेरहवीं आठ जनवरी को है. मेरे भाई साहब गाँव में नहीं हैं. दिल्ली गए हैं. उनकी अंतिम यात्रा पर मेरे घर से कोई शामिल नहीं हो सका था. तेरहवीं से पहले सांत्वना के लिए मुझे तुरंत गाँव जाना होगा. गूगल में अगले हफ्ते भारी बर्फ़बारी दिख रही है. उससे पहले वापिस होना पड़ेगा. लेकिन मुझे जवाब किसी भी हालत में लिखने हैं.
(06/01/2024/ सुमनम, हिमाचल / 6 बजे शाम)
साईबेरिया की ठंडी हवाएँ पहुँचेगी
सुमनम की ऊँचाई समुद्रतल से 3150 मीटर है. गूगल बता रहा है कि इस समय यहाँ का तापमान माईनस 5 डिग्री सेल्शियस है और अभी तक इस मौसम का न्यूनतम तापमान माईनस 17 तक गिर चुका है. असली जाड़ा यहाँ मकर संक्रांति के बाद शुरू होता है जब साईबेरिया की ठंडी-ठंडी हवाएं पहुँचेगी, तापमान और नीचे गिरेगा…..
(07/01/2024/ सुमनम, हिमाचल / 5:37 बजे सुबह)
कोई मौत होती है तो हम अपने खेतों में ही शव जलाएँगे
मैं अपने मौसेरे भाई अमरजीत के यहाँ रुका हूँ. मेरे सहित गाँव में बहुत से घरों में ताला लग गया है. टनल बनने के बाद यह बदलाव यहाँ हुआ है. पहले गाँव में मकान कम होते थे. लेकिन जितने थे परिवार टब्बर से भरे पूरे थे. अब मकान अधिक बन गए हैं लेकिन लोग बहुत कम रहते हैं. अधिकतर घर अब ‘होम स्टे’ बन गए हैं. गर्मियों में छिटपुट टूरिस्ट आ जाता है. जब कि जाड़ों में मालिक लोग भी घाटी से बाहर रहने चले जाते हैं. कल रात गाँव के दोस्तों के साथ बैठक की. वे परेशान थे कि सामुदायिक कामों के लिए पर्याप्त मेन पॉवर नहीं बचा है. मामा जी के दाह संस्कार में बहुत दिक़्क़तें आईं. श्मशान घाट बहुत नीचे संगम में है. अर्थी और लकड़ियाँ उठाने के लिए पर्याप्त आदमी नहीं रह गए हैं. वह तो शुक्र है कि इस साल अभी तक बर्फ़ नहीं पड़ी है. वर्ना हालात चिंताजनक हो गए हैं. मैंने कहा, जो यहाँ रहने वाले हैं उनको सलाम है. आप अनुपस्थित लोगों से भारी जुर्माना लीजिए. रणवीर भाई बोले, उससे कुछ नहीं होने वाला. सब लोग जुर्माना भरने को तैयार हो जाएंगे. अर्थी कौन उठाएगा? हमें कोई ठोस हल खोजना होगा इसका.
यह सवाल मुझे अपराध बोध से भर देता है. बीरू बोला, जो यहाँ रहते ही नहीं उनकी मजबूरी समझ में आती है ; कैसे एकदम से दाह संस्कार पर हाज़िर हो जाएंगे? पर जो लोग यहाँ रहते हुए भी नहीं आ रहे, उनके बारे में भी सोचो? मैंने कहा दाह-संस्कार में शामिल न होने की सबकी कोई न कोई मजबूरी होगी. एक बार तमाम ग़ैर-हाज़िरों को अपनी बात रखने का मौका दे दिया जाए. बीरू कुल्लू के एक गाँव में शानदार होम स्टे चलाता था. हाल ही में कोई ग्राहक मिला तो उसने अच्छे दाम पर वह प्रॉपर्टी बेच दी और अब स्थायी रूप से सुमनम में बसने आ गया है. रिवर्स माईग्रेशन! टनल के बाद यह प्रवृत्ति भी दिखने लगी है. अमरजीत कहता है उत्तराखंड के गाँवों में लोग सामान ढोने वाले पिक अप वेन में शव ले जा रहे हैं. कुछ नहीं, हमें भी यही करना होगा. शहरों में हम यही करते है. लेकिन गाँव में बहुत अजीब लग रहा है.
राजू ने कहा जलाने के लिए लकड़ियाँ भी कहाँ बचीं हैं? षेनबुट (ब्यूँस के पेड़) तो सूख गए हैं. स्टॉक किए गए तीस-चालीस साल पुराने ठेले अब सड़ चुके हैं. चिता सजाने के लायक भी नहीं, सारा बुरादा बन जाता है श्मशान पहुँचने तक. गाँव प्रधान वीरेन्द्र बोला कि इस बार एक विद्युत शवदाह गृह की माँग रखते हैं. पर क्या इतनी कम जनसंख्या के लिए सरकार मान जाएगी? यार, कुछ नहीं आगे से सर्दियों में कोई मौत होती है तो हम अपने खेतों में ही शव जलाएंगे. नदी पर नहीं ले जाएंगे. कुछ तो कष्ठ कम होगा गाँव का… यह अनिल ने कहा. हम देर रात तक बदले हुए हालात में पारम्परिक ग्राम व्यवस्था व लोकाचारों की प्रासंगिकता पर बहस करते रहे. फिर टूरिज़्म के स्कोप पर चर्चा की! हम अपने गाँव के लिए कौन सा मॉडल अपनाएं? एड्वेंचर, हाई एंड, सस्टेनेबल विलेज टूरिज़्म या कि रेलिजियस? और अंत में भूतों और डायनों के मज़ेदार क़िस्से सुनाए गए! लेकिन आप का सवाल भूतों और डायनों पर नहीं, विपाशा पत्रिका और हिमाचल के कवियों को लेकर था. उसी पर आता हूँ.
अंक सुरेश सेन निशांत की कविता से क्यों आरम्भ हुआ? मैं नहीं जानता. मुझे निशांत भाई की वह कविता बेहद पसन्द है. अब इसके कई कारण होंगें. ख़ुद निशांत भाई ने एक बार प्रफुल्ल परवेज़ की एक कविता पर बोलते हुए कहा था कि मुझे सेब का स्वाद पसन्द आया है मेरे लिए इतना ही काफी है. क्यों पसन्द है मुझे नहीं पता. मैं उसका विश्लेषण नहीं कर सकता. यह आलोचक पता करते रहेंगे. तो समझिए कि मेरा भी यही है. इतना कह सकता हूँ कि मेरी और निशांत भाई की जो बहस थी ईश्वर, आस्तिकता और आस्था को लेकर. वह कभी ख़त्म न होने वाली बहस थी. मेरी नज़र में यही कविता थी जिसमें निशांत भाई पहली बार अपनी मान्यताओं के लगभग ख़िलाफ़ जाकर के मेरे विचारों का समर्थन करते दिखाई देते हैं. और मैं इसे लेकर बेहद खुश था. आज भी हूँ. यह एक परोक्ष वजह हो सकती है पसंद की! और एक स्त्री द्वारा उस विराट ईश्वर को एक अदना से पेड़ में उतारना एक और वजह हो सकती है इस कविता को सबसे पहला क्रम देने की. बाक़ी अवचेतन मन में थोड़ा बहुत हमारी अंतरंग मित्रता का भी असर ज़रूर रहा होगा. उनके जाने पर मैं क़ायदे से उन्हे लिखित श्रद्धांजलि नहीं दे सका था. तो जाने-अनजाने एक तरह से शायद यह मेरी उन्हें श्रद्धांजलि भी रही हो. यदि आप को यह कविता वहाँ मिस्फिट प्रतीत होती हो तो मैं इसे बतौर अपनी भूल स्वीकार करने को तैयार हूँ.
(08/01/2024/ सुमनम, हिमाचल 5 बजे सुबह)
पता नहीं साहित्य में इस कौशल की क्या सार्थकता है
आपत्ति!
पता नहीं आपको क्यों ऐसा लगा कि सुरेश सेन निशांत की कविता से अंक शुरू करने पर आपत्ति हो सकती है किसी को! मुझे तो ऐसी आपत्ति में कोई लॉजिक नहीं दिखता. जब कि हक़ीक़त यह है कि ऐसी आपत्ति आई थी और ऐसे कवि से आई जो कि ठीक-ठीक से हैं. माने, कम महत्वपूर्ण हैं. और मुझे पता है यह बात असल में कहाँ से आई है. यह विचार उस व्यक्ति के हैं जो हिमाचल के महत्वपूर्ण साहित्यिक शख्सियत माने जाते हैं (बेशक सभी लोग न मानें कुछ लोग मानते ही हैं. कम अज़ कम वे ख़ुद अपने आप को तो अवश्य मानते हैं) ये महोदय ऐसी बचकानी बातें ख़ुद न कहकर किसी अन्य के मुख से कहलवाने में सिद्धहस्त हैं. उनके इस हुनर का मैं प्रशंसक हूँ. किंतु यह हुनर साहित्यिक न होकर कूटनीतिक है. पता नहीं साहित्य में इस कौशल की क्या सार्थकता है?
निशांत की कविता से अंक की शुरुआत करने का मतलब यह कैसे हो गया कि हिमाचल की कविता की शुरुआत सुरेश सेन निशांत से होती है! बहरहाल, यह बात उड़ती-उड़ती मेरे कानों तक पहुँची थी और मेरे कान केवल आमने सामने कही गई बात के सिवा किसी भी बात को तवज्जोह नहीं देते. तो मैंने अनसुनी कर दी. हाँ, कवियों के क्रम को लेकर सवाल ज़रूर बनता है कि इसमें परम्परानुसार सीनियर को पहले जूनियर को बाद में अथवा विपर्येण भी क्यों नहीं रखा गया? यह सवाल सामने से आया था और मैंने जवाब भी सामने ही दिया था- विभाग चाहता था कि यह पूर्वनिर्धारित रिचुअल टूटे और नवोदित, स्थापित, चर्चित, उपेक्षित, वरिष्ठ, कनिष्ठ सभी लोग बिना किसी पदानुक्रम के उपस्थित किए जाएं. आप पाओगे कि मैंने वही किया. मैंने पाठास्वाद के लिहाज़ से कविताओं का क्रम बनाने की कोशिश की, इसमें सफल हुआ या असफल, यह इंगित करना पाठक का काम है, उससे मैं सीखूँगा, उसे स्वीकार करूँगा. दूसरी बात, मेरे चयन का आधार शायद कविताएँ रहीं. कवि नहीं. आपने जिन हिमाचली कवियों के नाम गिने वे निश्चय ही बड़े नाम होंगे. माने, वे तो हैं ही, लेकिन उनके अलावा और भी सशक्त हस्ताक्षर हैं हिमाचल की कविता में, मसलन- आत्मा रंजन, मधुकर भारती, श्रीनिवास श्रीकांत…नाम गिनूँगा तो फिर कुछ लोग छूट जाएंगे और मैं अब और अधिक नाराज़ नहीं करना चाहता किसी को. पर वे सभी अड़्सठ कवि जिन्हें मैंने इस अंक में शामिल किया है महत्वपूर्ण हैं. बल्कि इनके अलावा इतने ही और कवि हैं जो और लिख चुके हैं और शिद्दत से लिख रहे हैं. लेकिन स्पेस की सीमा थी.
यूँ समझिए कि हिमाचल की बेहद ज़रूरी कविता में से मैंने इस अंक के लिए अपने मन की बेहतरीन कविताएँ छाँट दी हैं. उसमें से भी कुछ ज़रूरी लम्बी कविताएँ छोड़नी पड़ीं. कारण वही स्पेस की सीमा. लम्बी कविताओं का एक संकलन मैं स्वयं अपने खर्चे से निकालूँगा ऐसा मेरा मन है. क्योंकि उन लम्बी कविताओं के बिना हिमाचल की कविता का परिदृश्य पूरा नहीं होता. ऐसी मेरी मान्यता है. बीते पचास वर्षों की विस्तृत समय अवधि की समग्र रचनात्मकता को एक अंक के स्पेस में समेटना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. चयन से छूट गए कवियों की नाराज़गी से निपटना भी एक खासी कठिन चुनौती थी. लेकिन मुझे यह भी पता था कि मैं सभी को खुश नहीं कर सकूँगा.
हिमाचल की कविता बेहद उपेक्षित है
साहित्य के इतिहास लेखन में इस अंक की कोई बड़ी भूमिका भी हो सकती है ऐसा विचार मेरे मन में कभी नहीं था. मैं स्वयं अपनी और हिमाचल की कविताई की सीमाएं जानता हूँ. अलबत्ता यह ज़रूर था हिमाचल की कविता बेहद उपेक्षित है. मुख्यधारा में लगभग अनुपस्थित. शायद उसका अभी तक ठीक से आकलन नहीं हो पाया. वजहें बहुत रहीं होंगी. कमज़ोरियाँ हम हिमाचलियों की अपनी ही रहीं होंगीं. हमने इसी अंक में चार लेखकों की एक लम्बी परिचर्चा के माध्यम से इन वजुहात पर बात भी की है. अभी यहाँ मैं वजहों पर दोबारा नहीं जाना चाहता. लेकिन इस सच्चाई को आप भी मानोगे. बेशक यहाँ के कवियों पर इंडिविजुअली बातें बहुत हुईं हैं, लेकिन उन समीक्षाओं को ध्यान से देखिए आपको लगेगा कि उनसे समूचे भूखण्ड का काव्य-परिदृश्य सामने नहीं आ पाता. तो इतना ज़रूर था इस संकलन में उन सभी चर्चितों व नवोदितों को लाईन हाज़िर कर देने से पाठक को इस इलाक़े की कविता की मुख्य प्रवृत्ति का, बल्कि प्रवृत्तियों की पूरी रेंज का मोटा सा अन्दाज़ा हो जाए. इतना सा पता चल जाए कि हिमाचल क्या कहना चाह रहा है?
लेकिन यह भी है कि इसके छप जाने बाद आप जैसे कुछ गम्भीर पाठकों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे उत्साहित किया है. गम्भीर लोग इसे उस लायक समझेंगे, इस पर विधिवत लिखेंगे, तो यह अंक स्वतः उन इतिहासों का हिस्सा बन जाएगा. इंशाल्लाह!
(08/01/2024/ कुल्लू, हिमाचल/ 11 बजे रात)
घास की ज़रूरत नहीं रही
आज दिन भर काफी गतिविधियाँ रहीं. मृतक की मुक्ति के लिए अन्तिम सामुदायिक भोज का चलन तो यहाँ था लेकिन यह भोज पहले सभी कृषि कार्यों से निवृत्त होकर फुरसत में अक्तूबर-नवम्बर में दिया जाता था. तेरहवीं हमारी लोक परम्परा का हिस्सा नहीं. यह इधर पंजाब से आया है. लेकिन सारे आयोजन की ज़िम्मेदारी अभी भी गाँव की ही होती है. पर्चियाँ डालकर अलग-अलग ग्रुप बनाए जाते हैं. तदानुसार सबको अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ दी जातीं हैं. मेरे ग्रुप की ड्यूटी सुबह के लिए नाश्ता बनाने की थी. मैने मसाला कूटा, फिर एक शिफ्ट पूरियाँ बेलने का काम किया. काफी काम करने के बाद नाश्ता करने का स्वाद बहुत आया. संयोग से बोःट (सामुदायिक किचन) में सारे पुरुष थे. हँसी-मज़ाक के बीच पूरियाँ बेली व तलीं जा रहीं थीं. पुरुषों को भोजन बनाते देख महिलाएं बेहद खुश थीं. बार-बार दररवाज़े पर आ कर देख लेतीं, हँसतीं और लौट जातीं. किसी ने टिप्पणी की- ‘वो दिन दूर नहीं जब घर में भी हमीं को रोटियाँ बेलनी होंगी.
लाहुल में महिला मण्डल संगठित और बहुत सशक्त हैं और ये संगठन स्त्री अधिकारों को लेकर भी काफी अवेयर हो रहे हैं. यूँ यहाँ की जनजातीय स्त्री को कस्टमरी कानून के लिहाज से सम्पत्ति के अधिकार नहीं हैं. लेकिन इसके खिलाफ़ अंडर करेंट आवाज़ें उठ रहीं हैं. फ़िलहाल स्त्री-पुरुष सभी समान रूप से संशय में हैं कि टनल के बाद यह मुद्दा यहाँ कौन सा रुख अख्तियार करने वाला है!
नाश्ते के बाद हम घासनियों की ओर निकल गए हैं. दो फीट ऊँची सूखी घास खड़ी है. पहले इसे काटकर-सुखाकर सर्दियों में मवेशियों को खिलाया जाता था. अब कमर्शियल और मेकेनिकल खेती के बाद मवेशी लगभग ख़त्म हैं. घास की ज़रूरत नही रही. हमने मनोरंजन के लिए घास को आग लगाई. दो घड़ी बच्चा बनकर बड़ा मज़ा आया. लंच से पहले अपोलो हॉस्पिटल की एक आऊट रीच प्रोजेक्ट टीम आई. ऑनलाईन स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं. चेकअप और टेस्ट करने पर जाना कि मेरा शुगर और रक्त्चाप हाईयर साईड में था. अपोलो के एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने मुझसे विडियो कानफ्रेंसिंग पर बात की. दवाई बताई. अन्य निर्देश दिए. गाँव की स्त्रियों ने बताया कि ये लोग सुमनम मे पहली बार विज़िट कर रहे हैं. मुझे याद आया कि जब नौकरी में था कर्मचारी संघ की ओर से हम लाहुल-स्पिति में ‘टेलिमेडिसिन’ की माँग प्राथमिकता पर उठाया करते थे. आज यह हक़ीक़त तो बन गई, पर सोचता हूँ क्या हमने समुचित और वांछित विकास कर लिया है? मुझे कुछ समझ नहीं आता .
लामा जी अपनी सेंट्रो कार में अपने दो सहायकों के साथ पहुँचे हैं. तेरहवीं पर बौद्ध-रीति से पूजा भी होगी. लामा जी ज़ंस्कर से आते हैं. वे गाँव की स्त्रियों के साथ पटनी भाषा में बात करने का प्रयास कर रहे हैं. उच्चारण ग़लत होने पर वे ठहाका मार कर हँसतीं हैं. सुमनम में इन दिनों अधिकतर पुनन, तिनन भाषी बहुएं आई हुई हैं. एक बहू स्पीति से भी है. लामा जी उन सभी के साथ अधकचरी पटनी में बात करते हैं. बहुएं अपनी-अपनी भाषा में बात करती हैं. लामा जी ने कहा पूजा के लिए ‘चूरू’ ले आओ. एक पटनी भाषी महिला ने कहा हमने सारा ‘चूरू’ बेच दिया है, कोई नहीं पालता आजकल. नहीं है, नहीं मिलेगा. लामा जी अपनी भाषा में मूँगा माँग रहे थे लेकिन पटनी में हम ‘चूरू’ चँवर गाय को कहते हैं! चार-पाँच भाषाओं की ऐसी खिचड़ी पक रही है कि मैं हँसी नहीं रोक पाता. अरे सभी को हिंदी आती है, हिन्दी बोलिए न! क्यों सब परेशान हो रहे हैं?
ठीक चार बजे साँय मैं कुल्लू की ओर चल पड़ा. धुन्दी से आगे मनाली पुल तक भारी ट्रेफिक जाम था. हमे इस दूरी को तय करने में घण्टे से ऊपर समय लगा है. मैं उस प्यारी सी लड़की का ढाबा खोज रहा था जिससे हमने पिछली बार खूब बातें की थीं. नहीं खोज पाया. लोकेशन, ढाबे का नाम, लड़की का नाम सब भूल चुका हूँ. बुढ़ापा आ रहा है.
अजेय का जन्म 18 मार्च साल 1965 को हिमाचल प्रदेश के सीमांत ज़िला लाहुल-स्पीति के सुमनम नामक गाँव में हुआ. उनकी आरंभिक शिक्षा केलंग में हुई. उच्च शिक्षा के लिए वे चंडीगढ़ आ गए. नौकरी उन्होंने शिमला स्थित उद्योग भवन में की. अभी उनका ठिकाना कुल्लू, हिमाचल प्रदेश है. |
आमिर हमज़ा : कविताएँ पढ़ते-लिखते हैं. विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित. एक किताब ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब (समकालीन हिंदी कवियों की लिखत)’ हिन्द युग्म से हाल ही में प्रकाशित हुई है. युद्ध सम्बंधी साहित्य, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष दिलचस्पी रखते हैं. इन दिनों युद्ध की कविताओं का एक साझा-संकलन तैयार करने में मशगूल हैं. जेएनयू में शोधरत हैं. संपर्क : amirvid4@gmail.com |
बढ़िया बातचीत। हम लोग सुरेश सेन निशांत से लेकर कवि अजेय के मन में बसी कुदरत के प्रति लगाव को भी सुन रहे थे। हां! विपाशा के कविता अंक की चर्चा हिन्दी क्षेत्र में नहीं हो पाई ठीक से , मैंने आज सुना । सुरेश सेन जी के साथ बहुतों की यादें जुड़ी हैं मेरी भी । उनकी अनुपस्थिति ने मण्डी को थोड़ा खाली तो कर ही दिया है।
“हमकलम” पत्रिका को तीन लोगों ने मिलकर पंजाब विश्विद्यालय के कैंपस से शुरू किया था: मैं, लालटू और सत्यपाल सहगल। हम तीनों दोस्त थे, तीनों कविताएँ लिखते थे। यह एक साइक्लोस्टाइल पत्रिका थी जिसमें हम विश्व कविता के हिन्दी अनुवाद छापते थे। इस पत्रिका को हमने 1986 या 1987 में शुरू किया था। इसके चित्र लालटू की पार्टनर कैरन हैडॉक बनाती थीं जो बाद में मशहूर इलस्ट्रेटर हुईं।
हिमाचल प्रगतिशील लेखक संघ ने 1987 में अपने वार्षिक कविता पाठ में मुझे भी बुलाया था। उस पाठ का मुख्य आकर्षण त्रिलोचन जी थे जहाँ पहली बार मैं उनसे मिला। जहाँ तक मुझे याद है उस वक्त भी संघ के अध्यक्ष दीनू कश्यप ही थे। मुझे याद है हिमाचल की कवयित्री रेखा भी उस कविता पाठ में थीं।
उसी वर्ष हिमाचल के जनवादी लेखक संघ ने भी शिमला में अपने वार्षिक सम्मेलन में मुझे आमन्त्रित किया था। मुझे नहीं याद उस वक्त उसके अध्यक्ष कौन थे, लेकिन सुन्दर लोहिया उसमें एक मुख्य भूमिका निभा रहे थे। उनके अलावा हिमाचल के कवि प्रफुल्ल कुमार परवेज़ भी वहाँ थे।
सुन्दर लोहिया तथा परवेज़ से मेरी अच्छी दोस्ती थी। मुझे खासकर परवेज़ की कविताएँ बहुत अच्छी लगती थीं। मैं उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीतिक दर्शन में पीएचडी कर रहा था। सुन्दर लोहिया और परवेज़ जब चंडीगढ़ आते थे तो अक़्सर होस्टल के मेरे कमरे में आते थे। हालाँकि परवेज़ हिमाचल परिवहन विभाग में वरिष्ठ अधिकारी थे, वे जब भी चंडीगढ़ आते तो होस्टल में मेरे कमरे में ही रुकते थे और हम रात को डिनर के बाद एक-दूसरे को अपनी कविताएँ सुनाते थे और साहित्यक चर्चाएँ करते थे। हालाँकि उन्हें डायबिटीज की गम्भीर समस्या थी, परवेज़ पीने के शौकीन थे और वह सामान वे अपने साथ लेकर ही आते थे। वे सिगरेट भी खूब पीते थे। मेरी उनसे अन्तिम मुलाकात 2003 में हुई जब मैं ट्रेन से चंडीगढ़ से दिल्ली जा रहा था और वे परिवार समेत मेरे सामने वाली बर्थ पर बैठे हुए मिले। मुझे याद पड़ रहा है कि उसके बाद जल्दी ही वे चल बसे। तब वे शायद साठ वर्ष के भी नहीं थे।
हिमाचल के कवि और सम्पादक तुलसी रमण से भी मुलाकातें होती रहीं। जब मैं Indian Institute of Advanced Study, शिमला, में फेलो था तब मैंने वहाँ शायद 1998 में एक कविता पाठ का आयोजन किया था जिसमें तुलसी रमण भी शामिल थे। कृष्णा सोबती और राजी सेठ भी उन दिनों वहाँ फेलो थीं। तुलसी रमण और दीनू कश्यप से मैं अन्तिम बार कुछ वर्ष पहले भारत भवन, भोपाल, में मिला जहाँ वे कविता पाठ के लिए आये हुए थे। मुझे याद है बहुत वर्ष पहले तुलसी रमण ने अपनी पत्रिका में मेरी कविताएँ भी प्रकाशित की थीं।
मनभावन चर्चा है। सवाल इत्मीनान से पूछे गए हैं, हड़बड़ी नहीं है। जवाब भी धीरज से दिए गए हैं। चूल्हे पर पतीली धरी है, धीमी आंच में चाय कढ़ रही है। अजेय ने अपना दिल खोला है।
पिछले जन्म में कहीं मैं भी रोहतांग पार का ही तो नहीं था!
अजेय ने बहुत सही इकोसेन्ट्रिक एप्रोच की पक्षधरता की है। यह हमारी यूरोसेन्ट्रिक औपनिवेशिक चेतना है जिसमें एवरेस्ट फतह और हिमालय विजय जैसी भ्रामक धारणाएं पल्लवित- पोषित की जाती हैं। समूचा पहाड़ी क्षेत्र आसन्न संकट से जूझ रहा है।
यह बड़ा सहज, गंभीर और अंतरंग संवाद रहा। हिमाचल के बारे में और जानकारियाँ मिलीं। सुरेश सेन निशांत की याद हो आयी। हिमाचल के कवियों की लंबी कविताओं के संचयन की प्रतीक्षा रहेगी। दीनू कश्यप की एकाधिक लंबी कविताएँ पहल में पढी थीं। अजेय किस तरह अपनी जमीन और संस्कृति से जुड़े हैं- यह बड़ा प्रीतिकर अहसास है।r
बहुत सुंदर बातचीत आमिर हमज़ा और अजेय के बीच। एकदम तसल्ली से, सोच-समझ कर किंतु रूप अकृत्रिम। साक्षात्कार एक नया प्रयोग जैसा।
मुझे लगा मैं हिमाचल में जी रहा हूं। आईडीबीआई बैंक में रहते हुए शिमला में रह रहे दिनों की याद करता रहा और कई लेखकों को हृदय से खोजता रहा। सुदर्शन वशिष्ठ, जगदीश शर्मा, निर्झर, प्रेम, अभिराज आदि याद आते रहे।
जब रसूल हम्जातोव दिल्ली आए थे तब मुझे भी संबंधित बैठक में भाग लेने का अवसर मिला था जिसमें गुरुदेव नामवर सिंह जी थे, मंगलेश डबराल जी थे और इस विचार के लगभग सभी लेखक थे।
चर्चा और बातचीत बहुत ही जीवंत लगी। दोनों की कलात्मक प्रतिभाएं अलग-अलग हैं किंतु बेजोड़ की हैं। साहित्यिक अनुभव ग़ज़ब की और भाषा शैली कमाल की।
बहरहाल, अच्छा लगा।
रचते रहें।
-डॉ. रवीन्द्र प्रसाद सिंह ‘नाहर’,
14 जुलाई 2024, गौड़ सिटी 1, एनसीआर, दिल्ली
अजेय को सुनना पढ़ना, रोहतांग पार के हिमाचल से गुजरना रहा हमेशा मेरे लिए। अच्छी बातचीत है।
अजेय के बारे में पहली बार विस्तार से जानने का अवसर मिला। यों हमारी मुलाकातें कई हैं।