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हँसी के बहाने एक लंबे खौफनाक चित्रात्मक किससे से तआरुफ…
‘लौटती नहीं जो हँसी’ तरुण भटनागर का पहला उपन्यास है. एक लंबी खौफनाक कहानी की तरह जो देर तक आपके साथ चलती है. उपन्यास तो छोटा है 128 पृष्ठों का, एक कविता संग्रह भर, पर उसका वितान बड़ा है. ‘लौटती नहीं जो हंसी’ यदि तरुण भटनागर का उपन्यास की दुनिया में पहला कदम है तो उत्तरोत्तर उनके दो उपन्यास ‘राजा जंगल और काला चांद’ तथा ‘बेदावा’ आगे बढ़े हुए कदम. अंग्रेजी में कहते हैं न-‘लास्ट बट नॉट लीस्ट.’ अर्थात अंतिम पर अंत नहीं. तो तरुण भटनागर के सारे लेखन (कहानियां भी) से गुजरते हुए लगता है कि अभी और और और उपन्यास और कहानियां आएंगे.
उनके कथा संसार में भले इतिहास का विद्यार्थी झांक-झांक कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता हो पर उनके अंदर का किस्सागो उस इतिहास के विद्यार्थी को बार-बार कहता है- रुको, जरा सब्र करो. इसी का फल है कि 2004 में पहली कहानी ‘गुलमेहंदी की झाड़ियां’ आने के 10 साल बाद उनका पहला उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ आता है. 10 साल काफी होते हैं कहानीकार को उपन्यासकार बनने के लिए. यह इंतजार का फल है. इंतजार का मीठा फल.
‘लौटती नहीं जो हँसी’ का प्रभाव देर तक मस्तिष्क पर रहता है. हँसी के बहाने समाज के एक बेलौस, नंगी सोच को तरुण भटनागर सामने लाते हैं. ‘हँसी’ के अंदर सब कुछ समाहित है. सारी कारगुजारी एक हँसी के ओट में समाहित हो जाती हैं. वास्तव में यह ‘परदेस से आए बाबूजी’ की कहानी है. कहानी है ‘लोरमी’ गांव के बहाने भारत की. एक देश के ‘गडप’ हो जाने की.
कभी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था-
“देश कागज पर बना कोई नक्शा नहीं होता.”
लेकिन कुछ लोगों के लिए देश नक्शे से ज्यादा अहमियत नहीं रखता. ऐसे ही पात्र बाबूजी है जो नक्शे को हस्तकमलवत करने के लिए आ चुके है लोरमी में. लोरमी में उनका आना ही बीज का मिट्टी में पड़ना है,देखे-
“बरसों पहले से लोरमी बिहार से आए परदेसी बाबू जी का हो चुका है. लोगों ने इसे बाबूजी की हथेली में रखा और बाबूजी ने फक्क से मुट्ठी बांध ली. लोगों को कहां पता चलता है कि वह अपने पूरे गांव को किसी के जिम्मे कर रहे हैं. वे अंगूठा लगाते हैं, ठप्पा लगाते हैं और गांव किसी का हो जाता है.”
(लौटती नहीं जो हँसी,पृष्ठ-8)
तो लोरमी के बहाने तरुण भटनागर यहाँ पूरे देश का ही खाका खिंच देते है.
यह वही देश है जहां एन केन प्रकारेण अर्थात किसी तरह अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता की भावना से लोग लगे रहते है. जो लोग काम करना चाहते है, जो सचमुच का जनता का भला करना चाहते है, उन्हें भाला भोक कर तंग किया जाता है. ट्रांसफर से लेकर, हत्या तक कर दी जाती है. गायब कर दिया जाता है. उनकी लाश तक नहीं मिलती. हम ऐसे ही देश में है,जिसका खाका यहाँ खिंचा गया है.
कभी-कभी कहानियों में खाका खींचना भी काफी महत्वपूर्ण होता है. खाका खींचना एक तरह से ‘ब्लूप्रिंट’ बनाना है. ‘ब्लूप्रिंट’ के सहारे हमें जटिलताएं तो नहीं पर सरलताएं आसानी से समझ में आ जाती हैं. कहानियां जटिलताओं से ज्यादा सरलता में विश्वास करती हैं. इसलिए कभी-कभी कहानियां कहानी सुननेवाले को आगाह करना है कि तुम अभी से सावधान हो जाओ. पर मनुष्य की फितरत. वह कुछ पाने की, सब को हराने और अपने जीतने की होड़ में पड़ जाता है. बाबूजी भी पड़ जाते हैं.
“बाबूजी जानते हैं कि मुखिया गिरी को अगर चमकाए रखना है, उसके ओहदे को हमेशा के लिए बड़ा और बड़ा बनाते जाना है, तो सामने वाले को नीचा दिखाना जरूरी है. उसे ऐसे शब्द बोलना जरूरी है जो उसे दुखी कर दें. उसे भीतर तक चीर दें. उसे गला दें. उसके अंगार पर झटके से पानी डाल दें. उसकी गलतफहमी को पूरी निर्लज्जता के साथ साफ कर दें.”
‘हंसी’और ‘लडइय्या’ बाबूजी के दो अस्त्र-शस्त्र हैं. वह इसी के सहारे लोरमी से होते हुए पूरे प्रदेश पर अपनी विजय पताका फहराते हैं. हंसी एक रूपक है. तरुण भटनागर ने हंसी पर कई सफे लिखे हैं. विस्तार में ना जाकर सिर्फ इतना कहना ही काफी होगा कि- हंसी एक हथियार है. लडइय्या (भेड़िए) उसके पदचापों पर चलकर लड़ाई जिताने वाले सैनिक. पूरे उपन्यास में सैनिक की उस आक्रामकता के दर्शन होते हैं जहां हारने से ज्यादा ही महत्वपूर्ण होता है जीतना.
लेकिन जीतकर मिलता क्या है? जितना और पाना, यह दो क्रियाएं मनुष्य के जीवन के गणित को, गुणा-भाग को, उसकी सागर जैसी गहरी इच्छाओं को संचालित करती हैं. मनुष्य इच्छाओं का दास होता है. लेकिन जीवन में शांति से बढ़कर कुछ होता है क्या? शायद यहां तक पहुंचते-पहुंचते जीवन में एक और क्रिया महत्वपूर्ण हो जाती है- खोना. सब कुछ खोकर बुद्ध हो जाना या फिर सबकुछ खोकर सबकुछ पाना. बाबूजी सबकुछ पाते है-
“कुछ दिनों बाद बाबू जी बड़े आदमी बन गए. पहले विधानसभा और फिर विधानसभा से भी ऊपर. जितना उन्होंने सोचा था, उससे कहीं ज्यादा ऊपर.”
(लौटती नहीं जो हँसी,पृष्ठ-120)
लेकिन खोते क्या हैं ? सब कुछ. सबकुछ पाने के बाद, सब कुछ खो देते हैं. अपने को भी. इसीलिए जिस बाबूजी ने जीवन में सब कुछ पाया, वे खुद से पूछते हैं कि इस तरह जीवन को और कितना घसीटा जा सकता है तो
“उन्हें एक जवाब भी मिला. उन्हें लगा वह आत्महत्या कर सकते हैं. कितना सुंदर विचार है…आत्महत्या. उन्हें खुशी हुई कि मरना उनके हाथ की बात है. उन्हें अच्छा लगा कि वे चाह कर मर सकते हैं. उन्हें सुकून हुआ कि वे खुद को खत्म कर सकते हैं,और उन्हें ऐसा करने से रोकने वाला कोई नहीं है. कोई भी तो नहीं जो उन्हें मना पाए कि वे न मरे.कोई भी तो नहीं जिसे उनके मरने से कोई फर्क पड़े. मरने से बेहतर विचार कुछ भी नहीं.
(लौटती नहीं जो हँसी,पृष्ठ-122)
अर्थात अंत में बाबूजी पहुचे उसी आत्मग्लानि पर, सेल्फ पिटिनस पर जहां लगता है जीवन से बड़ा है मृत्यु. मृत्यु का विचार.
बाबूजी बड़े आदमी हैं. इसलिए वे इस बात को बड़ा करके सोचते हैं कि उनके मरने पर क्या होगा –
“बाबू जी को लगा कुछ नहीं होगा. बस थोड़ा हल्ला मचेगा. पेपर में फंदे पर झूलती उनकी लाश की फोटो आएगी. आस-पड़ोस के लोग और तमाशबीन इकट्ठा होंगे. हो सकता है, कोई उनकी लाश का अंतिम संस्कार कर दें.’
(लौटती नहीं जो हँसी, पृष्ठ-123)
वास्तव में जैसा शुरू में मैंने कहा है- एक लंबा खौफनाक चित्रात्मक किस्सा. उसमें कुछ अधूरा-अधूरापन महसूस हो रहा था. वास्तव में यह कहानी काफी फोटोग्राफिक है. एक लंबा टीवी सीरियल या ओटीटी पर चलने वाले वेब सीरीज की तरह जो फ्रेम दर फ्रेम आपके सामने आते हैं और देर तक आपके पास बने रहते हैं. यह बनता है तरुण भटनागर की भाषा से. भाषा के कमाल के प्रयोग हैं इस उपन्यास में. जब पाठक को लगता है कि उपन्यास खत्म हो गया तो वहीं से वह न चाहते हुए भी फिर शुरू हो जाता है उसके मस्तिष्क में और कहानी पिछले पाठों की तरफ चलने लगती हैं. सब कुछ फिर शुरू से शुरू होकर यहां तक आता है जहां फिर से पूरी कहानी एक रील की तरह आंखों के सामने खुलने लगती हैं. खुलकर वास्तव में जब सब कुछ खत्म हो जाता है चाहे वह उपन्यास हो या फिल्म या किसी का जीवन तो हम ना चाहते हुए भी उसका विश्लेषण करते हैं. हर आदमी के अंदर एक साहित्यकार, दार्शनिक ,विचारक, विश्लेषक, चित्रकार, व्यापारी,राजनेता,प्रोफेसर या कुछ भी होता है और हर घटना या पात्र को देखने की उसकी अपनी दृष्टि होती है. उस दृष्टि से वह उस घटना का विश्लेषण करता है जो वह है या जो उसका पेशा या जीवन जीने का जरिया है से वशीभूत होकर. बाबूजी का जीवन और उसकी घटनाएं बाबूजी को जितना मजबूत बनाएं, उनके चरित्र को काफी कमजोर बनाती है. बिट्टू, रामा, उनकी पत्नी और तो और मिश्री बाई की हसूली भी एक मजबूत चरित्र की तरह उभरती हैं. वास्तव में जीवन में कमजोर चरित्र ही ऊपर उठते हैं और वही साहित्य के लिए खाद पानी बनते हैं. बाबूजी एक ऐसे ही चरित्र है. अंततः वे भी वहीं पहुंचते हैं जहां सारे लोग पहुंचना चाहते हैं.
लेखक कोई भिन्न ग्रह से आया प्राणी नहीं है. वह भी इसी पृथ्वी का निवासी है. बीच-बीच में उसे अपने निवास प्रमाण पत्र को जांच करवाने के लिए जहां जाना पड़ता है, वहां बाबूजी टाइप के लोग मिलते हैं. आज के भारत में तो बहुतायत मात्रा में. लेखक, लेखक होने के आदर्श को छोड़ नहीं पाता. तो वह बाबूजी जैसे पात्रों को उपन्यास में आत्महत्या की तरफ ले जाता है जबकि पृथ्वी पर मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से और ऊपर तक के पात्र हुए होते हैं-
‘विश्रामपुर का संत’ की तरह, जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू कराते. ‘लौटती नहीं जो हँसी’ उसी जीवन का एक छोटा सा रूपक है. छोटी सी सच्चाई जो अपने अंत में कहानी से इतर ‘कहानियों के संसार’ पर एक रूपक कथा की तरह टिप्पणी करती हुई यह बताने का प्रयास करती है कि बाबूजी सिर्फ लोरमी के पात्र या उपन्यास के पात्र ही नहीं है. वे भुवनेश्वर, स्वदेश दीपक, शैलेश मटियानी, विंसेंट वान गैंग, मोजार्ट, वैज्ञानिक, व्यापारी, प्रोफेसर कुछ भी हो सकते हैं. राजनीति में ही नहीं ‘कहानियों के संसार’ में ऐसे बाबूजी लोगों की कमी नहीं है. वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की रस्सी से किसी का भी गला घोट सकते हैं. घोटते ही हैं, इसीलिए ऐसी कहानियों का जन्म होता है. ये इतनी खौफनाक होती हैं कि लिख देने के बाद लेखक ऐसी सच्चाइयों को फिर से समाज में न घटने की प्रार्थना करता हुआ जान पड़ता है. इसलिए वह भुवनेश्वर से लेकर तमाम लोगों की स्मृतियों को अंत में याद करता है. यह याद करना, उनके साथ हुए अन्याय का लिखकर प्रतिवाद करना है. एक लेखक और क्या कर सकता है ?
History का student ek अच्छा prashasak होता है. क्यों कि History व्यक्ति को बुद्धिमान बनाती है. कुशल और अच्छा प्रशासन राजा राम के जिले को मिलेगा. मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं
History की नींव पर भविष्य का सपना पलता है!! वास्तव में यह सच है ओर एक अच्छे लेखक के गहराई से आत्मिक रूप से किये गये चिंतन मनन एवं अनुभव अध्ययन का नतीजा है आप एक अच्छे लेखक के साथ साथ एक कुशल प्रशासक भी है।
देवेन्द्र वर्मा निवाड़ी मप्र