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बेदावे में पूरे संसार का दावा…
उपन्यास एक लंबी कहानी होती है या कहानी से आगे बढ़कर आकार-प्रकार में भारी-भरकम किताब या जीवन का संपूर्ण चित्र. उपन्यास की परिभाषा में ना जाकर सीधे उपन्यास पढ़कर तय करना चाहिए कि वह उपन्यास है या कहानी या कहानियों का समुच्चय. 2014 के बाद 2019 में तरुण भटनागर का उपन्यास ‘राजा जंगल और काला चांद’ आधार प्रकाशन से छप कर आया. इसके तुरंत बाद ‘बेदावा’ राजकमल से 2020 में आया. अभी बात ‘बेदावा’ पर.
‘लौटती नहीं जो हँसी’ में लोरमी गांव के बहाने महत्वकांक्षी मुखिया की कहानी थी. वहां लड़इयों (भेड़िए) मुखिया के छुपे हुए हथियार थे तो ‘बेदावा’ सिस्टम के भ्रष्ट होने की शानदार कहानी. एक गांव की कहानी है तो दूसरी शहर की. इन दोनों के बीच में ‘राजा और जंगल’ की भी एक कहानी है जो तरुण भटनागर का मेरे जाने महत्वपूर्ण उपन्यास है. जहां इतिहास के मुहावरे और झाले साफ करता हुआ एक अफसाना सही मायने में इतिहास की व्याख्या करता है. तो वापस शहर की कहानी ‘बेदावा’ पर आते हैं जो वर्तमान की जटिलताओं का दस्तावेज है.
‘वर्तमान का इतिहास’ होता है क्या? मैं कहता हूं- जी, होता है. जरूर होता है. ‘बेदावा’ 2020 में न छपकर 2010 में या 2030 में छपती तब भी क्या फर्क पड़ता? कुछ नहीं. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां ‘सिस्टम’ अर्थात प्रजातंत्र अधिनायकवाद की पुनरावृति करता हुआ नजर आ रहा है. वह भी बड़े ही शातिर तरीके से. हमारा प्रजातंत्र (सिस्टम) इसे एक तानाशाही तंत्र में तबदील करने पर उतारू है जहां एक डॉक्टर को जरूरी काम या ऑपरेशन करने जाने के बदले लाश के कान में यह कहना पड़े कि
“माफ करना दोस्त, सिर्फ एक अच्छा डॉक्टर होना ही तो पर्याप्त नहीं होता है… न.”
(टेबल कहानी का अंतिम वाक्य,पहल, पृष्ठ संख्या-68)
अर्थात हमारा वर्तमान इतने तरीके से बाधित और बेजार होता है कि रेणु का कथन याद आता है-
“भारत माता जार जार रो रही है.”
1954 में कही/लिखी गई बात, बावनदास की हत्या; इसी तरह वर्तमान को इतिहास बनाती है. झूठा सच, तमस, रागदरबारी आजाद हिंदुस्तान के इतिहास है. यह वर्तमान के इतिहास है.
वर्तमान में सबसे कठिन काम हैं- प्रेम को बचाना, पितृसत्ता से लड़ना, सिस्टम को ठीक करने की कोशिश करना, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए काम करना. सबसे बढ़कर सही को सही कहना. मनुष्य का मनुष्य बने रहना. ‘बेदावा’ इन्हीं सब को समझते हुए मनुष्य को मनुष्य बने रहने की तलाश में निकला हुआ उपन्यास है. यह समय और सिस्टम, अदीब जो इस उपन्यास का नायक है को ‘बेदावा’ की शक्ल में एक लाश में तबदील कर देते हैं.
कहने को तो उपन्यास एक प्रेम कथा है. एक बेहतरीन प्रेम कथा पर इसमें अदीब की कथा जहां पुरुष शरीर में एक स्त्री रूह कैद है जो मां बाप के सामने आत्मसमर्पण कर देता है. जीवेश उर्फ बंडा की प्रेम कथा जो अंततः लाल टीका दल और ऑपरेशन मजनू पर खत्म होती है. अपर्णा और सुधीर की प्रेम कथा जो सचमुच प्रेम पर खत्म होती है. अपर्णा जो तीनों नायकों की एक नायिका है. अंततः सच्चे प्रेम को पाती है. तीनों नायक जीवेश, अदीब और सुधीर मिलकर प्रेम की पृथ्वी का अपने- अपने ढंग से निर्माण करते हैं. अपने-अपने ढंग से उसकी व्याख्या करते हैं. वास्तव में यह उपन्यास प्रेम की व्याख्या का उपन्यास है. तीनों नायक इसी समय के नायक हैं. वे अपने-अपने समय के हस्ताक्षर हैं. वे दुनिया को अपने -अपने अनुभवों के अनुसार देखते और प्रतिक्रियाएं देते हैं.
व्यक्ति के अनुभवों में क्या हमारे समाज का प्रतिबिंब नहीं दिखता? दिखता है. व्यक्ति के मन पर किसी व्यक्ति द्वारा लगाया गया चीरा भी समाज द्वारा गढ़े गए उसके मन का ही परिणाम होता है. व्यक्ति से मिलकर ही समाज बना होता है और समाज का दबाव उसके व्यक्ति मन पर काफी होता है. अदीब के माता-पिता समाज के प्रतिनिधि हैं-
“एक अधेड़ उम्र का बाप और उसके पीछे चलती उसकी कम उम्र वाली घरवाली डॉक्टर जोसेफ को अक्सर याद आते. बाप अक्सर गुजारिश-सी करता कि वे उसकी औलाद को लड़का बना दे. एक बार उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया. उन्होंने उसे समझाया कि उनकी औलाद का जिस्म ऐसा है कि वह लड़की तो आसानी से बन सकता है पर लड़का नहीं. पर वे न माने.”
(बेदावा,पृष्ठ-157-58)
डॉ. जोसेफ सिर्फ एक पात्र नहीं है, वह लेखक के अंतर आत्मा की आवाज भी है. इसीलिए हिंदुस्तान में गिनती के डॉक्टरों के बीच एक दिन नौकरी छोड़कर सरकारी नौकरी में आ गये पर समाज व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ता जब तक व्यक्ति फना ना हो जाए या जो इसे तोड़ कर निकल ना जाए. जो निकलता है वही सच्चे राहों का राही हो या ना हो पर समाज के लिए त्याज्य जरूर होता है. अदीब नए रास्ते की खोज में निकलता है. वह समाज की बेहतरी के लिए सपने देखता है और मारा जाता है. डॉक्टर जोसेफ तोड़कर निकलते हैं लेकिन नियति की क्रूरता उनका पीछा नहीं छोड़ती. ‘बिट्टू’ (लौटती नहीं जो हंसी) जो बाबूजी का बेटा है, वह भी सपने देखता है. प्रेम करता है. उसे बाबूजी ही नहीं छोड़ते. बाबूजी अपने आप में सिस्टम है. वे बिट्टू की डायरी पढ़कर जिसमें अपने प्रेम, दोस्त और अपने आप को बचाने की बात वह लिखता है से तय कर देते हैं कि वह लड़ईय्यों का अगला शिकार होगा. वही सिस्टम यहां डॉक्टर जोसेफ को नहीं छोड़ती. सिस्टम हर उस व्यक्ति को नहीं छोड़ती जो ईमानदारी के रास्ते पर चलना चाहता है. चाहने वाले की चाहत सूंघकर सिस्टम उसकी हत्या कर देता है, जो चलते हैं उनको तो गायब ही होना पड़ता है; इस सिस्टम में.
हमारे समाज में आज भी ‘पुरुष तन में स्त्री मन’,’कोढ़ में खाज’ की तरह है.’थर्ड जेंडर’ के लिए अभी भी हमारा समाज मानसिक परिपक्वता का सबूत नहीं दे पाता. अभी और भी अदीबों को अपने प्राणों की आहुति देनी होगी. मरना भी समाज से असहयोग आंदोलन करने जैसा है. ठीक गांधी के अहिंसा असहयोग की तरह ताकि लोगों के अंदर से भय निकल सके.
अंदर का भय और भूत किस तरह आपके पीछे-पीछे पूरे जीवन को नचाता है, इसका उदाहरण जीवेश है जो अपर्णा का पहला प्रेमी है. वह स्कूल में अपर्णा को घूरता है. अपर्णा ग्यारहवीं की छात्रा है और बला की खूबसूरत. जीवेश कहता कुछ नहीं पर उसे ऐसे घूरता रहता है कि-
“जब वह घर आती उसे लगता उसकी आंखें उसके पीछे-पीछे घर तक आ गई हैं. पड़ोसी के पामेरियन ‘कुत्ते’ की तरह जो उसे देखकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ता है. फिर लपककर उसके ऊपर चढ़ जाता है और फिर उसके हाथ, पैर,गालों को चाटने लगता है.”
(बेदावा,पृष्ठ -10)
वास्तव में अपर्णा उस समय तक प्रेम और शारीरिक बदलाव को नहीं समझ पाई थी जबकि जीवेश में उसके प्रति दुर्निवार आकर्षण था. इसलिए वह सिर्फ घूरकर बता देना चाहता था कि तुम मेरी हो. यह एक ऐसी पुरुष ग्रंथि है जो समाज से व्यक्ति में आता है. इसीलिए जब अपर्णा डरकर स्कूल बदल देती है तो जीवेश प्रतिक्रिया में बड़ा कदम उठाता है. अपर्णा की सहेली उसे बताती है कि –
“पर एक दिन तो गजब ही हो गया. कहते हैं देर रात स्कूल में कोई आया था. कुछ इस तरह कि वॉचमैन को भी पता नहीं चला. उसके हाथ में कुल्हाड़ी थी. वह चुपके से 11वीं दर्जे के कमरे में घुस गया था. फिर दरिंदों की तरह उस डेस्क को कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े करता रहा जिस पर कभी अपर्णा बैठती थी. शोर-शराबा सुनकर वॉचमैन लपक कर वहां पहुंचा. उसने देखा कोई डेस्क के टूटे टुकड़ों को क्लास रूम से बाहर फेंक रहा है. गंदी- गंदी गालियां दे रहा है. क्लास की खिड़की का कांच टूट कर फर्श पर बिखर गया है. खिड़की का फ्रेम जमीन पर पड़ा है. रात के तीन बजे ऐसा खौफनाक मंजर देखकर वॉचमैन की रूह कांप गई.”
(वही, पृष्ठ-12)
घटना को भी हमारा समाज समझ नहीं पाता. समाज की सहानुभूति जीवेश को बेहतर इंसान बनाती पर समाज का गैर जिम्मेदाराना रवैया उसे लाल टीका दल की तरफ ले जाता है. उसे असामाजिक तत्व (एंटी सोशल एलिमेंट्स) में तब्दील कर डालता है. वह एक वहशी और हवसी व्यक्ति में तब्दील हो जाता है. अपर्णा की सहेली उसे बताती है कि-
“लगता है वह आज भी किसी को ढूंढता रहता है… शायद तुझे…”(वही,109)
वास्तव में प्रेम की अतृप्ति आदमी को आदमी कहां रहने देती.
“जीवेश लंबे समय तक अपर्णा जैसी लड़की को ढूंढता रहा था. उसने अपने मोबाइल में उन तमाम जिस्मफरोश औरतों के नंबर सेव कर रखे थे जो उसे कुछ- कुछ अपर्णा जैसी दिखती थी. जिनका चेहरा, कद-काठी, चाल या कुछ भी थोड़ा बहुत अपर्णा जैसा था, उनके नंबर उसने ढूंढ-ढाँढकर सेव कर रखे थे. उसके पर्सनल कंप्यूटर के वेब ब्राउज़र पर ऐसे बहुत से पेज सुरक्षित थे, जिनसे बड़ी आसानी से ऐसी औरतों तक पहुंचा जा सकता था. वह नेट पर उनसे बातें करता. उनके चित्र देखता. कंप्यूटर और मोबाइल से आती उनकी आवाज सुनता. उनके वीडियो देखता. गौर से उनकी हरकतों को ताकता.”
(वही, पृष्ठ-109)
वह वास्तव में उन सभी में अपर्णा को पाना चाहता था. पर अपर्णा जीती जागती शै थी, इस बात को वह जानता था इसलिए कोई संबंध उसे तृप्त नहीं कर पाता. हर कुएं,हर नदी, हर समंदर से वह प्यासा ही वापस लौटता है. इसी प्यास ने उसे पहले एक आम लड़के से ‘वहसी’ और ‘ऐय्याश’ लड़के में तब्दील कर दिया. इसी चक्कर में वह पुलिस के हत्थे चढ़ता है. वहां उसकी इतनी कुटाई-पिटाई होती है कि वह ‘लाल टीका दल’ के मोहल्ले प्रमुख में तबदील हो जाता है.
वही ‘लाल टीका दल’ जिसने राजा दिव्यनाथ कालेज में हंगामा मचाया था. जिसने अदीब,तापस और दूसरे लड़कों के खिलाफ शिवाजी वाले नाटक को लेकर केस दर्ज करवाया था. उसके पिता ने ही उसे ‘लाल टीका दल’ ज्वाइन करने को कहा था-
‘घर में पड़ा- पड़ा खाट तोड़ता है, दल में शामिल हो जा, अनुशासन और संस्कार तो वह लोग सिखा ही देते हैं. लाल टीका दल में उसका खासा दबदबा बन गया था. दबदबे की वजह उसकी कद-काठी थी. दबदबे की एक और वजह थी. जब ‘लाल टीका दल’ के मुखिया को यह पता चला कि उसे 12वीं क्लास में स्कूल से रेस्टीकेट कर दिया गया था और उसके बाद वह फिर पढ़ने नहीं गया तो वह उसे दल में शामिल करने को एकदम तैयार हो गया.’
वही,पृष्ठ 109)
यह जीवेश का जीवात्म है जो उसे प्रेमी से क्या-क्या बना डालता है ? प्रेम की तड़प,उसे कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती.
यह अपर्णा के पहले प्रेम की कथा है.
प्रेम की अतृप्ति का कितना गहरा असर पड़ता है, यह वही जान सकता है जो इस फेरे में पड़ा हो.
“जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई.” की तरह कुछ घटनाओं को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. किसी एक व्यक्ति का जीवन भी हल्के में नहीं लेना चाहिए. आखिर एक चिंगारी ही पूरे जंगल को खाक कर देती है. जीवेश के जीवन की एक घटना उसे क्या से क्या बना देती है ? उसी तरह अदीब के जीवन की एक घटना भी. वास्तव में
“जीवेश, अदीब और सुधीर अलग-अलग दुनिया के लोग हैं. उनका वजूद, उनकी सोहबत, उनका इश्क, उनका जिस्म… सब अलग-अलग था….”
उपन्यास इन तीन लोगों के बहाने समाज के तीन स्तरों (लेयरों) की कहानी कहता है. तीन युवा लोगों को केंद्र में रखकर उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है और इसे जोड़ती है अपर्णा. ‘लौटती नहीं जो हँसी’ में बाबूजी केंद्रीय चरित हैं, जिनके लिए उपन्यास लिखा गया है. जो चरित्र आते हैं, बाबूजी को ही मजबूत बनाते हैं. उनके चरित्र को डेवेलप करने के लिए आते हैं. यहां लेखक की सहानुभूति अदीब के प्रति थोड़ी ज्यादा है. मैं तुलना नहीं कर रहा. सिर्फ बता रहा हूं कि एक कलाकार या व्यक्ति की सहानुभूति अपने जैसे चरित्रों से होनी आम बात है. तरुण भटनागर भी इससे इसमें बच नहीं पाए है. अपर्णा सिर्फ इन तीनों को जोड़ती है. अपर्णा जंक्शन की तरह है, स्थिर. बाकी लोग उस से जुड़ते हैं,कोई रुकता है. कोई चल देता है.
अदीब जो अर्पणा का दूसरा प्रेमी है और अपर्णा का पहला प्यार, जिसे सचमुच वह प्यार करने लगती है. वह सुधीर से उसकी खूबियों के बारे में विस्तार से बदलाती है-
“अदीब इतना साफ, इतना चमकदार और इतना शफ्फाक था कि लगता था कि वह कभी किसी को कोई नुकसान नहीं कर सकता. किसी को चोट पहुंचा देने का ख्याल अदीब को छू भी नहीं गया था. जब कभी उसे लगता उसने कुछ गलत कह दिया है या उसकी बातों से या उसके एक्शन से कहीं कुछ ऐसा हो गया है कि किसी को बुरा लगे तो बिना वक्त गंवाए अपनी गलती सुधार लेता था. वह सॉरी न कहता था और न ही कोई सफाई देता था, बस कुछ इस तरह कह देता था कि सामने वाला यकीन कर लेता. एकदम दिल से दिल वाली बात. शायद उसकी वजह यह थी कि वह बहुत एक्सप्रेसिव था.”
(बेदावा,पृष्ठ-67)
हर एक लड़की का एक सपनों का राजकुमार होता है. अदीब वही राजकुमार है. अदीब तापस के संपर्क में आता है.
तापस एक ऐसा पात्र है जो कहानी को गति देता है. लगता है वह सिर्फ कहानी को गति देने के लिए ही आया है. उसका चरित्र कम्युनिस्ट खास करके अवसरवादी वामपंथियों की तरह आया है, जबकि अदीब अंत में वामपंथ में ही शरण पाता है जिसे हम नक्सली या नक्सलवादी कहने लगते हैं. लेकिन यह नक्सल होना भी सिस्टम को ठीक करने की कोशिश नहीं है क्या? और सुधीर?
सुधीर देख नहीं सकता. वह नाबीना है. जन्मांध. वह हर चीज को छू कर देखता है. उसकी उंगलियां और कान उसकी आंखें हैं.
“वह हर चीज़ को उसकी आवाज से जानता है. जानने की कोई और तरकीब भी कहाँ ? जब आप देख नहीं सकते तो कैसे जानिएगा ? सो वह जानता है कि हर चीज की अपनी आवाज होती है, हर गति की अपनी सदाएं. अलग-अलग लोगों के चलने की आवाजें अलग-अलग होती हैं. किसी का चलने का अंदाज सुनने की चीज है. पता नहीं किसी की चाल में क्या देखता होगा,पर अगर उसे सुनो तो वह गुजरने वाले का पता बताती है.”
(बेदावा,पृष्ठ- 17)
इस तरह वह एक संपूर्ण व्यक्ति बनता है. वास्तव में वह आदमियत के अल्कोहल को चाटकर उसके नशे की तासीर को पता करता है. वह आदमियत में यकीन करता है. इसलिए अपर्णा उसके नशे में हमेशा के लिए मदहोश हो जाती है. वह सच्चे प्रेम को पाकर सब कुछ भूल जाती है.
अपर्णा सिस्टम से लड़ने का प्रयास करती हुई नजर नहीं आती, पर वह अपने स्तर पर प्रयास करती है. जीवेश उर्फ बंडा से. अपने पिता और घर से. प्रतीकात्मक ही सही, पर वह लड़ती है. उसके अंदर जीने की जिजीविषा है. वह बस में नकली सिंदूर लगाकर चढ़ती है. वह अदीब को याद रखकर भी सुधीर के साथ पाक-साफ ढंग से रहती है. रहती है नहीं,एक नाबीना से शादी करती है. उसे मोमबत्तियां बनाने और बेचने के नए आइडियाज देती है. जीवन, जिंदादिली,जिजीविषा और साहस से भरपूर. तरुण भटनागर के अभी तक के उपन्यासों की सबसे उज्ज्वल चरित्र है अपर्णा. उसके अंदर एक दबी हुई चिंगारी है जो अनजाने ही सही,प्रतिरोध का रचनात्मक प्रतिसंसार रचती हुई दिखती है.
व्यक्ति हो या समाज या देश का जब-जब उसे ठीक करने के लिए कोई आता है तो धूमिल के ‘रामदास’ की तरह मारा जाता है. अदीब भी मारा जाता है. रामा, बिट्टू भी मारे जाते है. सिस्टम हो या समाज, उसे सिर्फ जी हुजूरी वाले लोग ही पसंद हैं. विरोधी या भोले-भाले लोग नहीं, जो प्रश्न पूछ सके. लिखना भी एक तरह का प्रतिरोध है. इस सिस्टम के खिलाफ तरुण भटनागर उसी प्रतिरोध की संस्कृति के रचनाकार है क्योंकि वह लिखते हैं. वह अपने समय और समाज से सीधे तो नहीं पढ़- लिखकर मुठभेड़ करते हैं. एक लेखक यही कर सकता है.
History का student ek अच्छा prashasak होता है. क्यों कि History व्यक्ति को बुद्धिमान बनाती है. कुशल और अच्छा प्रशासन राजा राम के जिले को मिलेगा. मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं
History की नींव पर भविष्य का सपना पलता है!! वास्तव में यह सच है ओर एक अच्छे लेखक के गहराई से आत्मिक रूप से किये गये चिंतन मनन एवं अनुभव अध्ययन का नतीजा है आप एक अच्छे लेखक के साथ साथ एक कुशल प्रशासक भी है।
देवेन्द्र वर्मा निवाड़ी मप्र