• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » तरुण भटनागर: भविष्य के सपनों का कथाकार: निशांत » Page 4

तरुण भटनागर: भविष्य के सपनों का कथाकार: निशांत

समकालीन प्रमुख कथाकार तरुण भटनागर के उपन्यासों- ‘लौटती नहीं जो हँसी’, ‘राजा, जंगल, और काला चाँद’ तथा ‘बेदावा’ पर आधारित सुपरिचित कवि-लेखक निशांत का यह आलेख विस्तार से इन उपन्यासों की कथाभूमि की चर्चा करते हुए इनकी विशिष्टता को रेखांकित करता है, कथाकार के सरोकारों की विवेचना करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 27, 2021
in आलेख
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

3.

राजा जंगल और काला चांद: हमारे समय का देशकाल…

तरुण भटनागर का एक लंबा वक्त बिता है बस्तर में. बस्तर पर उनकी बस्ता भर कहानियां हैं, लेकिन यह उपन्यास सारी कहानियों को कह डालना चाहता है. सारी कहानियों को एक साथ कह डालने की लालसा उपन्यासकार को  बहुस्तरीयता (multi-layers)कि तरफ ले जाता है. एक उपन्यास में बहुत सारी कहानियां या उनके बहुत सारे स्तर उन्हें बहुत सारे पाठकों या एक ही पाठक के ढेर सारे स्तर के तारों को झनझनाती है.यह आती है जब आपके पास कहने को बहुत कुछ हो और हो उसे कहने की ललक. इसमें कहने की ललक खूब है. आपके पास धीरज हो तो कान लगाकर सुनिए. यह पूरा किस्सा  है, बल्कि उपन्यासकार ने तो इसे ‘बस्तर का एक किस्सा’ ही लिखा है.

वो किस्सा ही क्या जो स्मृतियों में दर्ज न हो.

तरुण भटनागर का यह दूसरा उपन्यास उनके तीनों उपन्यासों में मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है. यह किस्से की शक्ल में है और स्मृतियों में आसानी से दर्ज हो जाता है. किस्सों  का निर्माण ही  स्मृतियों से होता है. स्मृतियों को कहने की भी एक कला होती है और पुराने लोग अक्सर दादा-दादी, नाना-नानी इस कला में माहिर होते थे. वास्तव  में उम्र का तकाजा या अनुभव उन्हें उस स्तर पर लाता था,जहां किस्से अपने आप बनने लगते थे. अनुभव एक जगह बैठे रहने से नहीं आता. काम करने से आता है. बकौल तरुण भटनागर-

“जब किसी से कहता हूँ कि ग्वालियर का वर्तमान घर मेरे जीवन का 32 वां घर है, तो कुछ लोग अचरज करते हैं, पर लगता है इस तरह की घुमक्कडी या यह कह लीजिए कि एक जगह पर कुछ दिनों के बाद फिर नई जगह जाने पर ही उसने बहुत कुछ दिया है. जब घर बदलता है तो दृश्य बदलता है, लोग बदलते हैं, चेहरे बदलते हैं, जमीन बदलती है और फिर जब पलट कर देखता हूं तो तमाम यादों से तमाम किस्से झाँकते दिखते हैं….बस्तर में उन्नीस साल बीते. मां और छोटा भाई आज भी वही है. स्वभाविक था कि उस जगह के किस्से को मैं लिखता.”

(मैं और मेरी कहानियां,तरुण भटनागर, कौटिल्य बुक्स, नई दिल्ली-110002, पृष्ठ -8,9)

तो यह किस्से उसी अनुभव की कोख से उपजे हैं.

किस्सा कहने की भी एक शैली होती है. बेहतरीन किस्सागों जानता है कि कैसे पाठकों/सुननेवालों को इस किस्से से बांध कर रखा जा सकता है और सुनने वाले में उत्सुकता की लौ जलाए रखा जा सकता है. यह लौ ही पाठक-लेखक की आशा है, है भाषा जिस पर उपन्यास का महल खड़ा रहता है. यहां भी ऐसी ही भाषा है-

“विशु के पिता की कहानियों में जो जंगल था, वह बस्तर का जंगल था. विशु के पिता का नाम शशांक था.विशु के पिता बताते कि वह एक गांव था.बस्तर के इन्हीं जंगलों में एक गांव.

उन दिनों वो जंगल कल्पनातीत नहीं था. उसे अविश्वसनीय बनने में दशर्कों को गुजर जाना था.

नामदेव के आने से लेकर अब तक 400 साल बीत गए थे.”

(राजा जंगल और काला चाँद, पृष्ठ-20)

यह किस्सोवाली भाषा है. तीन छोटे-छोटे पैराग्राफ तीन कहानियों को अपने में समेटे हुए. आगे के पैराग्राफ इन्हीं किस्सों को खोलकर कहते है.

“यह वह दौर था जब बेलबाटम और रेडियो फैशन में थे. आदमियों के चेहरे  पर बड़ी कलमें और औरतों के सिर पर साधना कट बाल और बड़े-जूड़े फबते थे. वह साइकिलों  का दौर था. साइकिलों पर रेडियो लटकाये उन गीतों को सुनते हुए धीरे-धीरे दूरियां तय करने का दौर, जो आज कितने तो अनमने और गैर वाजिब से लगते हैं.

बेहद घने जंगलों में दूर-दूर ,कहीं -कहीं, कोई ताड़ के पत्तों से छाई झोपड़िया. वे झोपड़िया नहीं थी. वह झोपड़ियों से भी पुरानी चीज थी. वे गुफाएं भी नहीं थी. वे गुफाओं के बाद की चीज थी. पता नहीं अपनी फितरत में इंसान कब और कहां गुफाएं छोड़कर इस तरह के शरणस्थलों में रहने लगा था. वे आदिम शरणस्थल थे, जो ठीक-ठीक झोपड़िया नहीं थे. उनमें मिट्टी का प्रयोग नहीं था. बस तीन जगह से बांस की दीवार खड़ी कर दी गई थी. लकड़ी और बांस, मुख्यता बांस को एक- दूसरे से सटाकर खड़ी की गई ओट, जिसे दीवार कह सकते हैं. एक तरफ से वह खुला था. पेड़ों की छाल से बंधे बांसों पर ताड़ के पत्तों की छानी टिकी थी.

शशांक विशु को बताते कि घने जंगलों में पेड़ों को काटकर बनाई खाली जगह पर खड़े इन रहवासियों के लिए अब तक कोई लफ्ज नहीं हो पाया है. जंगल की बोली में इसके कुछ मतलब है. हमारे लिए ‘घर’ का जो मतलब होता है, उससे बिल्कुल अलग. जब किसी चीज के लिए कोई लफ्ज ही न हो तो उसे क्या कह सकते हैं भला ? चलो इसे रहवास कह देते हैं.

‘…जहां भाषा खत्म होती है, वहां से जो जगह शुरू होती है, उसे बस्तर के जंगल कहते हैं.’

किसी की कहीं यह बात बहुत बाद में विशु को समझ आई थी.”

(वहीं,पृष्ठ-20-21)

यह किस्सोवाली भाषा है अर्थात जंगल में अभी सभ्य भाषा और सभ्य समाज का पदार्पण नहीं हुआ था.पर जंगल के पास अपनी भाषा,अपने किस्से और अपनी जरूरत के सारे एहतेमाम थे. यहां उपन्यासकार हमें कहानी कहने की उस भाषा में कहानी बताता है, जिसमे नायक, जंगल का किस्सा और चार सौ सालों का इतिहास बोलता हुआ पाठकों के सामने आता है तो लगता है जंगल, बस्तर के जंगल और आदिम शरण स्थल, आदिम भाषा, आदिल सभ्यता के विकास की कहानी और साथ ही साथ विशु के बचपन और बेल बाटम के दौर की कहानी रील की तरह सामने आ जाती है.यहाँ कहानी या  किस्सा एक ही साथ दो कालों में चलता हुआ लगता है.

दो समय या कहें तो कई समय और चार सौ साल के इतिहास को वर्तमान में जीता है. वर्तमान इतिहास की वह आँख है जो भविष्य के सपने देखती है. एक लेखक या मनुष्य होने के नाते हमारा नैतिक कर्तव्य और दायित्व होता है कि हम वर्तमान की आंखों से बेहतर भविष्य का सपना देखें और बुने. ‘राजा जंगल और काला चांद’ बेहतर भविष्य के लिए कहा गया किस्सा है जो इतिहास के मंच पर वर्तमान और भविष्य को एक साथ प्रस्तुत करता है. इसलिए वह देशकाल से निबद्ध है.’देशकाल’ और कला के रिश्ते को समझने के लिए मुकुंद लाठ की परिभाषा को देखा जा सकता है.

“देशकाल-निबद्ध होने का अर्थ है इतिहासबद्ध और संस्कृतिबद्ध होना. कला इनसे नहीं बंधती. पर कला के सामान्य में विशेष भी समाहित रहता है. उसमें देशकाल का स्वर इस तरह मुखर रहता है कि उसका अनुरणन देशकाल  के परे सार्वदेशिक सार्वकालिक होता है. एक निगूढ़ दृष्टि से देखें तो इसे हम देशकाल के तत्काल अनुभव की भीड़ में ओझल, अव्यक्त देशकालातीत की व्यंजना कह सकते हैं. दृष्ट में अदृष्ट की आंख. पर इसमें देशकालपात्र, इतिहास और संस्कृति के अपने-अपने विशिष्ट रूप, अपनी-अपनी प्रतिमाएं,ये अपना वैशिष्ट्य खोती नहीं है,ये अपने विशिष्ट के ही सामान्य को प्रकट करती हैं.
(भावन, पृष्ठ 407)

वैशिष्ट्य का सामान्य जो इतिहासबद्ध-संस्कृतिबद्ध से सम्बद्ध हो यही काम संस्कृतकर्मी और इतिहासकार करते है. तरुण भटनागर का देशकाल इन दोनों से सम्बद्ध है. वह एक तरफ इतिहास के एतिहासिक चेतना से लैस हैं तो दूसरी तरफ संस्कृतिक चेतना से भी. वह अतीत की अच्छाइयों को लेने, गलतियों को सुधारने की वकालत करता है. एक मनुष्य या नागरिक के जो कर्तव्य होते है,वह उनकी वकालत करता है;बेहतर कल के लिए. बेहतर मनुष्य के लिए. बेहतर भारत के लिए.

वास्तव में भारत को जब आजादी मिली तो उसके जड़ में ही मट्ठा डालने का काम राजनीति ने किया. प्रेमचंद की बात को भुला दिया गया और राजनीति के पीछे साहित्य-संस्कृति,साहित्यकार-संस्कृत कर्मी चलने लगे. राजनैतिक आजादी तो मिली, सांस्कृतिक आजादी नहीं मिली. भारत को जादू-टोने वाला देश, जंगली-असभ्यों का देश माना जाता था. सांस्कृतिक रूप से हम उपनिवेशवादी मानसिकता से उबर ही नहीं पाए. सांस्कृतिक गुलामी कितनी बड़ी होती है, इसे देखना हो तो आदिवासी जीवन को देख सकते हैं. जहां उन्हें सभ्य बनाने के नाम पर हम कितने बर्बर हो सकते हैं, देखा जा सकता है.

‘राजा जंगल और काला चांद’ सिर्फ बस्तर का किस्सा ही नहीं है. वह चार सौ सालों के दंडकारण्य का एक सांस्कृतिक- ऐतिहासिक आख्यान है. इसमें राजा सबसे ऊपर है. राजा के चारों तरफ कहानी चलती है. राजा के समानांतर विशु, उसके पिता शशांक, डॉ. राजू, उसकी मां, मंत्री, अमला-अफसर और आदिवासियों की कहानियां चलती रहती हैं. कहानियां-किस्सों से भरी पड़ी दुनिया है यहां. बदलते हुए भारत का दास्तां अगर इसे कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. भले ही केंद्र में बस्तर हो. बस्तर यहां नन्हा भारत है. जैसे लोरमी एक छोटा सा गांव है की तर्ज पर.

इस नन्हे भारत अर्थात बस्तर को लूटने में आजादी के बाद का तथाकथित सभ्य समाज पूरी सक्रियता से अर्थात जी जान से लग गया है. इसमें शामिल है- वह पहला राजा भी जो अपने को मां दंतेश्वरी का सबसे बड़ा पुजारी घोषित करता है. पहले राजा से लेकर आने वाले नकली राजाओं ने भी जी जान से बस्तर के जंगल को लूटा. सरकारें, व्यवसाई, अफसर,ठेकेदार आदि ने भी कोई कोर-कसर बाकी न रखी. अन्याय, झूठ, फरेबी, चोरी, ठगी बस्तर के बाहर की दुनिया के शब्द थे. इन्हें बस्तर में आयात किया गया. उनसे उनकी नेकनियति छीनी गई. छिना गया उनसे उनकी मासूमियत. सभ्य बनाने और सभ्यता के नीचे के क्रूर चेहरे की असलियत को पलट देता है ये उपन्यास. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभ्य बनाने की मानसिकता भी उपनिवेशवादी मानसिकता है. जहां हम सामने वाले को असभ्य और अपने से कमतर मानते हैं.

बस्तर के लोगों को कमतर मानने की कई छोटी छोटी और मासूम सी कहानियां हैं यहाँ. नमक की कहानी, घासलेट और दीए की कहानी, ट्रांजिस्टर (रेडियो) की कहानी और कपड़ों की कहानी, ब्लाउज की कहानी, मोटरसाइकिल और किताब की कहानी, सीमेंट के बस्ते के चोरी हो जाने की कहानी आदि. ये कहानियां सभ्य  समझे जाने वाले समाज द्वारा जंगलों को असभ्य बताए जाने की कहानियां है. एक छोटी सी कहानी आप भी देखें,जिसमें विशु के घर में एक आदिवासी औरत काम करने आती है. सबसे पहले तो आदिवासियों के यहाँ कोई किसी के घर में काम नहीं करता, वहां वे लोग एक-दूसरे की मदद करते है. काम अर्थात मालिक-नौकरवाले सम्बन्ध वहाँ है ही नहीं. वहां सह जीवन है. रहवास की तरह सह वास है. तो ब्लाउज वाली कहानी देखे, बहुत कुछ कहती हुई छोटी सी कहानी.

“वह औरत बहुत मुश्किल से विशु के घर काम करने आई थी. वह हर शाम आती और घर के बर्तन मांज कर चली जाती. विशु की मां ने उसे सब सिखाया था, कि यह बर्तन है, यह राख और यह साबुन. कि इसे इस तरह रगड़े और साफ करें. कि बर्तन का साथ रहना जरूरी है. विशु की मां जंगल की औरत को इत्मीनान से समझाती- ‘बर्तन, बर्तन होते हैं. बर्तन जंगल की पत्तों की दूनी या बरडी नहीं कि खाया और फेंक दिया. बर्तन जंगल के लोगों की मिट्टी की हांडी भी तो नहीं कि कभी दारू के भराव से टूट जाए और हमेशा के लिए बितरा दी जाए.’

गांव के लोग कहते कि वह औरत जंगल की उन इक्का-दुक्का औरतों में से एक है, जिसने जंगल के बाहर की दुनिया के लोगों के घर काम करना मंजूर किया. विशु के घर उसके काम करने के पीछे एक वजह थी. वह हर चीज को बड़े कौतूहल से देखती थी. वह बाहरी दुनिया की चीजें देखना चाहती थी. वह उत्सुक थी. वह बाहरी दुनिया को जानना चाहती थी. एकमात्र वजह जिससे उसने विशु के घर काम करना स्वीकारा.

विशु की मां को उसकी नग्नता पर आपत्ति थी. उसके खुले वक्ष उसे खराब लगते.

‘किसी और बाई के लिए बात करो. बड़ा अजीब लगता है.’उस दिन विशु की मां, शशांक से लगातार कह रही थी ‘कि अजीब लगता है’. शशांक कह रहे थे कि कुछ नहीं हो सकता. इस गांव में यह नग्नता नहीं है. जब गांव के लोग इसे नग्नता नहीं मानते तो तुम्हें भी मानने की जरूरत नहीं. यह बस्तर है. बस्तर के अपने तौर-तरीके हैं. यहां यह नग्नता नहीं. हो भी क्यों? विशु की मां उस दिन तो चुप हो गई. पर फिर कुछ दिन बाद फिर से कहने लगी. फिर बार-बार कहने लगी. शशांक ने कई-कई तरह से समझाया-

‘… तुम्हें क्या मालूम कि जंगल की तो फितरत ही ऐसी है. उनकी दुनिया अलग है. उनके कायदे अलग हैं. वह हमसे तो नहीं कहते कि हम दिन भर क्यों कपड़े डांटे रहते हैं. फिर हम उनकी नग्नता पर आपत्ति क्यों करें ?’

विशु की मां झल्ला जाती. कहती ये भी जाने कैसी बहकी-बहकी बातें करते हैं. अभी से सठिया गए हैं,लगता है.

एक दिन विशु की मां किराने की दुकान से एक नीले रंग का ब्लाउज खरीद लाई. एक बार उन्होंने औरत से पूछा था कि उसे कौन सा रंग पसंद है,तो उसने आकाश की तरफ उंगली कर इशारा किया था, यानी नीला. आसमान की तरह नीला. विशु की मां को लगा पसंद का रंग देखकर वह जरूर खुश होगी.

शाम को जब औरत काम करके जाने लगी तो विशु की मां ने वह ब्लाउज औरत को दे दिया.

उसने औरत को ब्लाउज पहने का तरीका भी बताया. औरत ने ब्लाउज को उलट-पुलट कर देखा. औरत ने विशु की मां को देखा. औरत ने विशु की मां को ब्लाउज पहरने का तरीका बताते हुए एकटक देखा.

औरत जब घर आती, विशु की मां घर के दरवाजे पर बैठ जाती. औरत आंगन में काम करती रहती. घर में कोई भी आता तो विशु की मां उसे बाहर के कमरे में ही रोक लेती. उसने औरत को बता रखा था कि वह कभी भी घर के भीतर या सामने न जाए. बस सीधे जंगल से घर के आंगन में आ जाए और काम कर वही से जंगल चली जाए. पर फिर भी उनको अजीब सी शंका घेरे रहती थी कि कहीं किसी ने उस अर्धनग्न औरत को देख लिया तो…. एक अजीब सा भय विशु की मां का पीछा करता रहता. जब तक औरत घर के आंगन में काम करती वह चौककन्नी बनी रहती. शशांक ने कई बार समझाया. समझाया कि इस गांव में शायद ही कोई इस बात पर ध्यान दें कि औरत ने सिर्फ कमर भर पर कपड़ा बांध रखा है बाकी नहीं. जंगल की औरतों का तो पहरावा ही यही है. शायद ही कोई इस बात पर गौर करें कि उसने ऊपर कुछ भी नहीं पहन रखा. पर विशु की मां ने उनकी बात नहीं मानी. फिर उन्होंने कहना छोड़ दिया.

उस रोज आंगन से जंगल में घुसती औरत के हाथ में नीला ब्लाउज था. वह जंगल के भीतर अनजान जंगल की ओर जा रही थे. शाम का झुटपुटा था. औरत ने एक जगह रुक कर चारों ओर देखा. वहां दूर-दूर तक कोई नहीं था. उसने ऊपर देखा. ऊपर पेड़ों की छितर हरियाली थी. पंछी लौट रहे थे. झूठपुटे के उस धूसर,काले फैलाव में तारों को टीमकने में अभी समय था. गहन खामोशी में दूर-दूर तक सिर्फ पेड़ों के तने थे. सीधे और ऊंघते. वहां कोई नहीं था. अंधियारे में डूबते बियाबान में किसी के होने की कोई उम्मीद भी नहीं थी. तसल्ली हो जाने पर ही औरत ने धीरे से लपेटे हुए ब्लाउज को खोला था.  वह नहीं चाहती थी कि कोई उसे देखें. नहीं चाहती थी कि कोई उसे ब्लाउज पहरते हुए देखें.

उसने झिझकते हुए वह ब्लाउज पहरने की कोशिश की. गर्दन नीची कर उसे वह अपनी छाती पर जमाती रही. पहले पीठ की तरफ से लपेटा और फिर सामने वाले कटे हिस्से में उसी तरह चिटपिट बटन लगाने लगी जैसे कि विशु की मां ने बताया था.

औरत को पल भर को महसूस हुआ जैसे हजारों छोटी-छोटी चीटियां उसकी छाती पर चलने लगी है. ब्लाउज की सिलाई जहां-जहां उसकी देह को छू रही थी मानो वहां वे चीटियां लाइन बनाकर चल रही थी. औरत ने ब्लाउज अपने शरीर से अलग कर लिया. औरत चूक गई थी. वहां कितने तो लोग थे. सब ने उसे देख लिया था. आकाश ने मुंह बिचकाया. पेड़ों ने मुसकुरा कर अपना चेहरा घुमा लिया. औरत सकुचा गई.

औरत बिना ब्लाउज के आती रही.

विशु की मां औरत को टोकती रही.

औरत विशु की मां को टालती रही.

विशु की मां अचरज और झल्लाहट के साथ औरत का इस तरह बिना ब्लाउज के आना-जाना देखती रही.

औरत आती रही.

विशु की मां की झल्लाहट गुस्से में बदल गई.

इस मामले में औरत विशु की मां को और विशु की मां औरत को नहीं समझ पा रहे थे. दोनों औरतों की अपनी-अपनी जबान थी. उनकी बोली और बतकही में उनकी अपनी बोली और बतकही के लफ्ज थे. उन लफ्जों के अपने-अपने मायने थे. उनके मायनों की अपनी-अपनी शब्दकोशीय सरहदें थी. उन शब्दकोशीय सरहदों पर कांटो की बाड लगी थी. इस तरह लगता था कि उन लफ्जों में कोई पुरानी रंजिश थी. उनके मायने एक-दूसरे की ओर पीठ कर खड़े थे. उन लफ़्ज़ों के मायने एक- दूसरे से कुछ-कुछ खफा थे.

जंगल के भीतर वाले जंगल में कुछ लोगों को पता चल गया था कि औरत के पास एक ब्लाउज है. वह हर किसी से छिपा नहीं पाई थी. जंगल की फितरत ऐसी थी कि जंगल को ठीक से छिपाना आता नहीं था या यूं कहें कि जंगल ने ठीक से ‘छिपाना’ सीखा नहीं था. कितना गलत था कि जंगल को ‘छिपाना’ सीखना था. विकास का एक हिस्सा था- ‘छिपाना’ सीखना. पर तब तक जंगल में कुछ भी छिपता नहीं था. इस तरह ब्लाउज देखकर लोगों ने कुछ और लोगों को बताया. कुछ और ने कुछ और को. बात बढ़ती गई. जंगल के लोग औरत पर हंसते. उसका मजाक बनाते. औरत ब्लाउज को अपनी झोपड़ी में छुपाती. नग्न वक्षों वाली औरतें उसके ब्लाउज पर हंसती. लोग हंसते. औरत छुपे ब्लाउज के ऊपर सूखे ताड़ के पत्ते रखा आती ताकि वह किसी को न दिखे. औरतें कानाफूसी करती. औरत मारे शर्म के भाग खड़ी होती.

एक रात औरत को सपना आया. उसने देखा कि वह दौड़ रही है और एक नीला ब्लाउज हवा में तैरता हुआ चला आ रहा है. आकाश के हल्के नीले के रास्ते नीले- नीले रंग का ब्लाउज फरफराता  उड़ता चला आ रहा है. वह चौक कर जाग गई. उसने अपनी छाती को हाथों से ढक लिया. पर उस दिन विशु की मा उस पर बुरी तरह से झल्ला पड़ी,

“कितनी बार बोला है? क्यों नहीं पहरती है ब्लाउज ? बोल क्यों नहीं ? बोल, बोलती क्यों नहीं?”

औरत की आंखों में आंसू आ गया. उसने कांपते होठों से कहा

“…लाज आती है. ब्लाउज पहरते लाज आती हैं…”

पर विशु की मां नहीं मानी.

इस तरह औरत एक दिन जंगल गई और फिर कभी नहीं आई.”

(राजा जंगल और काला चाँद, पृष्ठ-33-36)

इतनी लंबी कहानी देने का मन नहीं था पर बात साफ नहीं हो रही थी. एक पैरा में दे तो देता पर रचना का वह भाव कहा से लाता?  यह मासूम सी, छोटी सी कहानी अपने आप  में एक पूरी सभ्यता समीक्षा है. ऐसी कई कहानियों का ऊपर जिक्र किया गया है. अपनी सभ्यता की परिभाषा से हम दूसरों को कितनी जल्दी असभ्य, असामाजिक,जाहिल और क्या- क्या ठहराने लगते है ठीक विशु की माँ की तरह. ऐसे में मासूम लोगों के विश्वासों को ठेस लगती हैं. ठगा जाता है. सभ्यता के नाम पर उनसे उनका अस्तित्व ही हरण कर लिया जाता है. अस्तित्व को बचाए रखने की वकालत करता है ये उपन्यास.

प्रश्न उठता है कि जंगल के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ‘वेलफेयर स्टेट’ कौन से कदम उठाता है ? क्यों उठाता है? आखिर जंगल को कैसे बचाया जा सकता है?जो जंगल सच था,वो सपनो जैसा क्यों होता जा रहा है ? कहानी जैसा क्यों ?

सच जैसा लगना और कहानी जैसा लगने में अंतर है. हम आज उस कहानी को ज्यादा बेहतर मानते हैं जो कहानी जैसी होकर सच जैसी लगे. वास्तव में “कथा वस्तुतः यथार्थपरक और यथार्थ-इतर के बीच एक आनंदमय खेल है,जो मानव सभ्यता की शुरुआत से जारी है.(संस्कृति की उत्तरकथा,शम्भुनाथ, पृष्ठ-46)

कहानी यदि सच के जैसी हो जाएगी तो लोग ‘सत्यकथा’ पढेगे या अखबार जहां सच्ची घटनाओं की रिपोर्टिंग होती है. कहानी सत्य कथा नहीं होती. न अखबारी रिपोर्ट. वह सच और कल्पना के मेल से अपना विन्यास गढती है. सच्चाई के जमीन पर खड़ी तो वह रहती है पर उसका सर कल्पना के आकाश से सटा रहता है. इसीलिए आधा हकीकत, आधा फसाना होती है. वह हकीकत होकर भी फसाना होती है. ‘लौटते नहीं जो हंसी’ और ‘बेदावा’ हकीकत की जमीन पर फसाना का फसल बोती है पर लहलहाता ‘राजा जंगल और काला चांद’ है. ‘लौटती नहीं जो हंसी’ में फंसाना ज्यादा लग रहा है. यथार्थ या वास्तविकता ज्यादा गाढ़े रंग से रंगा हुआ आता है. साथ में लाता है क्रूरता, फेंटेसी और कथा के बने बनाए हुए मानदंड जहां एक विलन होगा और अंत में उसकी पराजय.’बेदावा’ उस से आगे बढ़ा हुआ कदम, आकार में छोटा पर प्रेम के त्रिकोण में फंसकर अपने समय की समस्याओं से जुड़ कर भी ‘कुछ छूट गया’ वाला भाव रह जाता है. वास्तव में ये दोनों उपन्यास लंबी कहानी का सुख देते हैं. वस्तुतः हर उपन्यास एक लंबी कहानी ही होती है पर उपन्यास लंबी कहानी नहीं होता. वह कई कहानियों का समुच्चय होता है और वह भी अधूरा. जैसे व्यक्ति अपने को कभी संपूर्णता में नहीं पाता और जिस दिन पा लेता है उस दिन वह ‘डेड’ हो जाता है. उसी तरह उपन्यास दिखता तो संपूर्ण है पर होता नहीं. संपूर्णता में असंपूर्णता की तलाश आने वाले दिनों में बेहतर उपन्यास की कसौटी होगी. इसलिए उपन्यासकार उपन्यास दर उपन्यास लिखेंगे. पात्र, स्थान, काल बदल कर लिखेंगे पर लिखेंगे. तरुण भटनागर के उपन्यासों से गुजर कर यह एहसास बराबर बना हुआ हैं कि अभी वे और उपन्यास लिखेंगे. उनका उपन्यास ऊपर की तरफ की गई यात्रा का सुख देती है. अभी गंतव्य नहीं आया है. अभी चोटी सी दुनिया को देखने का सुख बाकी है.

वेलफेयर स्टेट अर्थात कल्याणकारी राज्य या सरकार अपने आप में एक बड़ी सेना है. एक ऐसी सेना जिसकी दरिंदगी और दरियादिली दोनों  कुख्यात और विख्यात है. दरिंदगी जिस पर बीतती है, वह अच्छे से जानता है पर दरियादिली तो घी में आग की तरह लपक कर फैल जाती है. आजादी के बाद इतने सालों में क्या बदला जबकि सरकार तो अपनी है. लोकतंत्र है. गणतंत्र है. देसी लोग हैं. अंग्रेज चले गए हैं. न उनकी सेना है, न हुकूमत, न मंत्री,न अफसर पर भारत माता जार-जार रोना बंद कर चुकी है क्या? आमलोग खुश हैं क्या ?

मुल्क के हर नागरिक का पेट भरा है क्या?  लोकतंत्र में सरकारों के सामने कोई विरोधी टिका है क्या?  राजा नामदेव को जिस बेरहमी से स्टेट खत्म करती है और फिर उसके भूत को जिलाए रखकर बस्तर के आम लोगों के जीवन को, उनके संस्कृति को नष्ट करती है; उपन्यास उस सच्चाई को दिखलाता है. लोकतंत्र में ‘लोकतंत्र की आवाजें’ कल्याणकारी सरकार के गले में नहीं विपक्ष, लेखक, न्यायालय और पत्रकारिता के पास रहता है. रहता है आम आदमी के गले में. अगर लेखक सचमुच में लेखक है तो वह जनता की उस आवाज को वाणी देगा. नहीं तो चुनी हुई  लोकतांत्रिक सरकारें भी कम तानाशाह नहीं होती. उदाहरण  तो अपने आसपास कम नहीं है.

वास्तव में सारे प्रश्न बेमानी हो जाते हैं क्योंकि जंगल से उसका चरित्र छीन लिया जाता है. बिना चरित्र के मनुष्य और बिना चरित्र के जानवर तक बेमानी हो जाते हैं. जंगल भी अपने चरित्र को खोकर, जंगल नहीं रह जाता. ‘जंगल’ शब्द को ही प्रेम, प्यार, खुशी, आनंद का विलोम बना दिया गया है. जंगल शब्द में ही गलत अर्थ भर दिए गए हैं. जंगल से जंगली शब्द बनाया गया है जो हमारे अंदर प्रेम या खुशी का भाव नहीं बल्कि एक क्रूरता का भाव पैदा करता है. तरुण भटनागर इस शब्दावली के बदले इस शब्द में नया अर्थ भरना चाहते हैं –

“…जंगल याने.. याने पितामह.”

जंगल को इस तरह हमारा शिष्ट समाज क्यों नहीं देखना चाहता है?

वास्तव में शिष्ट समाज की दिक्कत यही है कि वह शिष्टता की परिभाषा उपनिवेशवादी समाज से लेकर आया होता है. जब आपका दिमाग विदेशी ज्ञान से आक्रांत रहेगा तो आपको सब कुछ उल्टा पुल्टा ही दिखेगा.’जाकी रही भावना जैसी’ वाली बात यहां चरितार्थ होती है. भावना में ही गड़बड़ी हो तो व्यक्ति या समाज में होगी ही.

तरुण भटनागर की भावना, मानवीय अनुभव और विवेक से संचालित है. वे जानते हैं कि अनुभव से बड़ा सत्य नहीं होता और विवेक से बड़ा कोई मित्र. अदीब, सुधीर, अपर्णा, कैमिला, विशु, शशांक, डॉक्टर राजू,आदिवासी, विशु की मां, बाबूजी, उनकी पत्नी, बिट्टू, हंसूली, रामा आदि सारे पात्र कल्पना लोक से नहीं, इसी मानवीय लोक से हैं और वे मनुष्य जैसा आचरण करते हैं. विवेक सारे पात्रों में हैं लेकिन कुछ पात्र मनुष्यगत कमजोरियों के शिकार होकर वैसा आचरण करते हैं जैसा  लोभी व्यक्ति करता है. कामी व्यक्ति करता है. महत्वाकांक्षी व्यक्ति करता है. ‘हम न मरब, मरिहै संसार’ की तरह वह अपने को अमर मानने लगता है और संसार को मरणशील. जबकि तरुण भटनागर इसके उलट को मानते है. वे जंगल को अपना पूर्वज मानते हैं. उनके सारे उपन्यासों में जंगल आता है. वे(उपन्यास) शुरू ही जंगल से होती हैं. जंगल यानी हमारे पूर्वज- हमारी परंपरा. वे पूर्वजों-परम्पराओं की परंपरा को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं. उपन्यास के अंत में वे एक नई उम्मीद के साथ,एक नई दुनिया का वितान रखते हुए उसे खत्म करते हैं.

जंगल का दर्द,खासकर के खत्म होते हुए जंगल का दर्द; उसकी पूरी कशिश के साथ यहां उपस्थित है. जंगल का कटना, उसके रहवासियों को ठगना, उनकी संस्कृति को नष्ट करना कम बड़े अपराध नहीं है. अपराध से भी एक कदम आगे बढकर कहूँ तो पाप है पाप.एक ऐसा पाप जिसके लिए जितना बड़ा भी प्रायश्चित किया जाय कम है. इस पाप का कोई  प्रायश्चित नहीं है. तरुण भटनागर की कलम उसे लिपिबद्ध करती है. एक मासूम सभ्यता, हमारे आदि पूर्वज ,हमारी पृथ्वी को नष्ट करने का हक कुछ मुट्ठीभर लोगों को नहीं मिलना चाहिए. न लोकतंत्र के आधार पर, न राजतंत्र के आधार पर और न तानाशाही के आधार पर. वास्तव में सहज उपलब्धता,मूक उपस्थिति चाहे पेड़ हो,जानवर हो या मनुष्य और भोलापन मनुष्य के लालच को इतना बड़ा बना देती है कि गांधी की वह बात याद आने लगती है कि पृथ्वी सबका पेट भर सकती है पर एक लालची व्यक्ति का पेट कभी नहीं भर सकती. लालच पूरी पृथ्वी को नष्ट कर सकता है. पूरी मनुष्य जाति को. पूरे ब्रह्मांड को.

‘राजा जंगल और काला चाँद’ कुछ मासूम लोगों, उनकी सभ्यता, उनकी बस्तियों को उजड़ने का हाहाकारी वृतांत है. इस उपन्यास से गुजरने के बाद भाषा मौन हो जाती है. मनुष्य की मनुष्यता शर्मशार होने लगती है. ऐसे ही शर्म से बचने के लिए कुछ लोग प्रयास करते है. उनमें वह कलेक्टर भी था जिसने आई ए एस की नौकरी छोड़ कर जंगल में रहना चुना. उन्हें पढ़ाना-लिखाना चुना. उन्हें उनके हकूक बताना चुना. वैसा ही एक पात्र और आता है इस उपन्यास में- डॉ राजू,गोल्डमेडेलिस्ट. डॉ राजू भी चाहता तो किसी सरकारी या देश के किसी उच्च संस्थान या किसी विदेशी प्राइवेट नर्सिंग होम में नौकरी करके पैसा पिट सकता था. गाड़ी-बाडी,नौकर-खानसामा रख सकता था. लेकिन वह चुनता है जंगल. वहां के लोग, उनके हक-हकूक को बचाने की जद्दोजहद. तरुण भटनागर भी लेखन चुनते है. चुनते है भविष्य को बचाने का संकल्प. संजीव का कथन याद आता है-इसके अलावा मुझे कुछ और नहीं आता. याद आते है प्रेमचंद-कि मैं प्रदर्शन,सभा-जुलूसों में तो नहीं जा सकता लेकिन लिखकर लोगों को जगाने का काम तो कर ही सकता हूँ. मैं कहूँ कि तरुण भटनागर का लेखन, उसी प्रेमचंद-संजीव की परम्परा का विस्तार है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है.

एक अच्छे उपन्यास की कहानी बताना मेरा फर्ज नहीं है. मैं अपनी बात सिर्फ इशारे में कह सकता हूं बल्कि मुझे कहना भी चाहिए. मैंने वही कहने की  कोशिश भी की है. लेकिन आधार तरुण भटनागर के उपन्यास है. वह मेरे आधार हैं जिन पर इस आलेख की अधिरचना हुई है.

उपन्यास या कहानियां अपने लिए पढ़ता हूं और जिस लेखक-कलाकार की कुछ चीजें अपनी लगने लगती हैं, उसे ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता हूं. हो सकता है मेरी रुचि से आपकी रुचि ना मिले. मुझे आप पसंद हो,आपको इमली. मुझे तरुण भटनागर का कथा साहित्य पसंद है. कथा कहने के जो मूलभूत सिद्धांत हैं कि- पाठक में उत्सुकता पैदा कर दे कि आगे क्या होगा? उसकी  आस में पाठक आगे बढ़ता जाए. तरुण भटनागर के यहां हैं. लेकिन क्या सिर्फ उत्सुकता या जिज्ञासा ही किसी कहानी- उपन्यास को श्रेष्ठ बनाते हैं ? नहीं. उसे कहने-बरतने की भाषा भी उनके पास है. ऐसा मैंने पहले कहा है कि उनके पास वर्तमान को देखने का एक बेहतरीन नजरिया है जो झूठ की परतों को भेदकर अंदर तक देख पाती है और बेहतर भविष्य की तरफ इशारा करने वाला रचनाकार मन. तरुण भटनागर बेहतर भविष्य की कल्पना करने वाले रचनाकार है.

Assistant Professor
Department of Hindi
Kazi Nazarul University
Asansol-713340.
West Bengal.
Page 4 of 4
Prev1...34
Tags: तरुण भटनागरनिशांत
ShareTweetSend
Previous Post

शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ: पुराकथाएँ

Next Post

दबंग गबरू और बदमाश किट्टू: सत्यदेव त्रिपाठी

Related Posts

यून फ़ुस्से: बेआवाज़ का बोलना: तरुण भटनागर
आलेख

यून फ़ुस्से: बेआवाज़ का बोलना: तरुण भटनागर

दवातदार ताजुल मलिक और इल्तुतमिश का आख़िरी फ़रमान: तरुण भटनागर
कथा

दवातदार ताजुल मलिक और इल्तुतमिश का आख़िरी फ़रमान: तरुण भटनागर

पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर
इतिहास

पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर

Comments 2

  1. Jitendra tiwari says:
    3 years ago

    History का student ek अच्छा prashasak होता है. क्यों कि History व्यक्ति को बुद्धिमान बनाती है. कुशल और अच्छा प्रशासन राजा राम के जिले को मिलेगा. मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं

    Reply
  2. Devendra verma says:
    3 years ago

    History की नींव पर भविष्य का सपना पलता है!! वास्तव में यह सच है ओर एक अच्छे लेखक के गहराई से आत्मिक रूप से किये गये चिंतन मनन एवं अनुभव अध्ययन का नतीजा है आप एक अच्छे लेखक के साथ साथ एक कुशल प्रशासक भी है।
    देवेन्द्र वर्मा निवाड़ी मप्र

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक