पेश-ए-लफ़्ज़ |
विधा के दृष्टिकोण से अपने इस लेखन को मैं फ़िलवक़्त आत्मगल्प कह रही हूँ. मुझे पता नहीं जब पुस्तकाकार यह सुदीर्घ पाठ शाया होगा तब मैं इसे क्या कहूँगी; अगर मेरे कहे को कोई स्वीकार करेगा तो. मुझे यह भी नहीं मालूम कि हिन्दी में आत्मगल्प पद कभी प्रयुक्त हुआ भी है या नहीं. लेकिन हिन्दी में मैंने ऐसे कई उपन्यास पढ़े हैं, जो आला उपन्यास होने के साथ-साथ लेखक से मेरे व्यक्तिगत परिचय के बिना भी मुझे आत्मगल्प सरीखे लगे. उनके नाम मैं यहाँ दर्ज करने से स्वयं को बरज रही हूँ क्योंकि प्रस्तुत पाठ के सन्दर्भ में यह जानकारी अप्रासंगिक है. जिन लेखकों से मैं परिचित थी और उनके जीवन के बारे में थोड़ा-बहुत जानती थी उनकी कुछ कृतियों में भी आत्मगल्प एक आख्यानत्मक युक्ति की तरह घुला हुआ है
आत्मगल्प से मैं क्या समझती हूँ? इस विषय पर सुदीर्घ गद्य के अपने सीमित लेखकीय अनुभव के आधार पर मैं बहुत कुछ कह सकती हूँ, लेकिन क्यों ही कहूँ? मैं विश्व साहित्य से और एक मिसाल तमिल साहित्य से ज़रूर दे सकती हूँ. “ऑटोफ़िक्शन” पद का ज़िक्र सर्वप्रथम फ्रेंच लेखक और सिद्धांतकार Julien Serge Dubrosky ने अपने उपन्यास Fils के किसी ड्राफ़्ट में किया था. तमिल लेखक चारु निवेदिता (यह उनका तखल्लुस है) पहले भारतीय लेखक हैं जिन्होंने अपने उपन्यास ज़ीरो डिग्री के लिए गल्प की एक विधा के रूप में इस पद का इस्तेमाल किया. आत्मगल्प की इस कृति को उन्होंने “समाज पर एक गोरिल्ला हमला” कहा है.
मेरे इस पाठ के सन्दर्भ में आत्मकथात्मक गल्प (आत्मगल्प) वह युक्ति भी है जिनमें लेखक अपने और अपने कुछ मित्रों के (इस अपने में बहुत से “अपने” शामिल हैं) जीवन के कुछ अहम अनुभवों को उन अनुभवों की स्वानुभूति, उनका मन्थन, उनपर मनन करने के लिए लिखता है और इस लेखन के चलते उसे अपने जीवन के कई रहस्यों तक जाने के रास्ते भी सूझते हैं. वह लिखने की प्रक्रिया में फ़ैसला सुनाने से अधिक उन किरदारों की ज़ेहनी रुग्णताओं की तह में जाने का प्रयास करता है जो दूसरे किरदारों के साथ हिंसा का प्रदर्शन कर अनजाने में अपने मानसिक आघात को सहनीय बनाने का प्रयास करते हुए और अधिक यातना सहने लगते हैं. जो उनके दंश से पीड़ित किरदार हैं वे कालान्तर में मसलन मनोभ्रंश से ग्रस्त हो सकते हैं; ऐसा बहुत से परिवारों में होता है कि बुज़ुर्गों से न केवल कोई बात नहीं करता बल्कि परिवार के एकाधिक सदस्य उनसे बदसलूकी भी करते हैं. इस सबके चलते बुज़ुर्गों की अच्छी-भली क्षमताओं और उनकी इंद्रियों का ह्रास होने लगता है.
संयुक्त/विस्तृत परिवारों (एक्स्टेंडिड परिवारों) में कमसिन लड़कियों (या लड़कों) का यौन-शोषण भी आम-फ़हम है लेकिन ये कहानियाँ परिवार से बाहर नहीं आतीं. इस “शोषण” को कोई बच्ची या बच्चा कभी-कभी अपने इंद्रियानुभूत “सत्य” में ढालकर ताउम्र उस “कम्पन” को अपने समस्त अंतरंग जीवन में पहले से ही उपस्थित पाता है. यौन शोषण पर विमर्श एक बात है और किसी-किसी “पीड़िता” का सच दूसरी बात है.
इस पाठ को आत्मगल्प कहते हुए भी यह स्पष्ट कर दूँ कि इसकी कई घटनाएँ और किरदार कुछ हद तक काल्पनिक हैं, हालाँकि समस्याएँ वास्तविक हैं और एकाधिक भारतीय संयुक्त परिवारों के रसातलों में बेबाक़ी से उतरकर ही यह लेखन सम्भव हो रहा है. जो संयुक्त परिवार dysfunctional परिवार हैं उनमें एक लक्षण प्रमुखता से पाया जाता है: कुछ सदस्यों द्वारा हिंसा और अपमानजनक व्यवहार को ये सदस्य हिंसात्मक न मान कर अपरिहार्य और लाभदायक मानते हैं. अक्सर इन परिवारों के सभी सदस्य बिना जाने हुए मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होते हैं और एक की व्याधि अक्सर दूसरे में विपरीत लक्षणों को जन्म देती है. मिसाल के तौर पर यदि एक व्यक्ति दरवाज़ों के खुले होने से भयभीत होता है तो कुछ अन्य सदस्य अपनी निडरता का क्रूर प्रदर्शन करने लगते हैं और भयग्रस्त व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करते हैं. अक्सर प्रतिक्रियास्वरूप “निडर-निर्भय” सदस्य जानबूझ कर और जोखिम उठाकर दरवाज़े खुले रखते हैं और खौफ़ज़दा सदस्य की हालत उत्तरोत्तर बदतर होती चलती है.
आत्मगल्प शायद एक ऐसा रक्षा-कवच भी है जो कुछ हद तक विशुद्ध आत्मकथा के त्रास से लेखक को बचा ले जाता है. आइज़ैक बाशेविस सिंगर (इस विधा के असंदिग्ध उस्ताद हैं. अपनी पुस्तक LOVE AND EXILE में जिसे शायद उनके प्रकाशक ने “आत्मकथात्मक त्रयी” कहा है सिंगर ने साफ़-साफ़ लिखा है कि वे आत्मकथा नहीं लिख रहे बल्कि अपने जीवन सम्बन्धी ऐसा गल्प लिख रहे हैं जिससे उनके जीवनी लिखने वालों को सामग्री मिल सके. विख्यात फ्रेंच लेखक मार्गरीत ड्यूरास के कुछ उपन्यास आत्मगल्प हैं, हालाँकि उनका कहना है कि वे गढ़ती कुछ भी नहीं हैं. प्रौढ़/वृद्ध उपन्यासकार की दृष्टि मसलन कैशोर्य के एक विशेष प्रेमानुभव को एकाधिक उपन्यासों में जगह देकर उस अनुभव को अलग-अलग प्रकाश-वृत्तों में सरका देती है; कहानी वही है लेकिन उसके प्रकाश-बिन्दु अलग-अलग हैं. उनके सबसे मशहूर आत्म-कथात्मक उपन्यास द लवर में आख्याता “मैं” बीच-बीच में “वह” में बदल जाती है. यह ड्यूरास ही कर सकती थीं कि सुख और दुख दोनों के असह्य अतिरेक से कलम “मैं” को “वह” में सरका देती है.
इक्कीसवीं सदी की एक बड़ी साहित्यिक सनसनी हैं नॉर्वीजी लेखक कार्ल ऊवे क्नाउसगॉर्ड. कई खण्डों में प्रकाशित उनके “आत्मगल्प” ने उन्हें समकालीन वैश्विक साहित्य में काठिन्य-भरी प्रतिष्ठा प्रदान की है.
शीर्षक “आम आँसुओं की दुनिया” कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास दर्द ला दवा में कई बार प्रयुक्त हुए पद से लिया गया है.
तेजी ग्रोवर
आत्मगल्प
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बहरहाल, इसके पहले कि मैं अपनी माँ के इस पृथ्वी पर गुज़रे हुए अन्तिम वर्ष पर लौट आऊँ, मुझे सूझा कि ऐसा नहीं है कि अपने छुटपन के दिनों में ममा और सुरिन्दर अंकल के बीच की सम्भावित कहानी का मुझे कोई गुमान नहीं हुआ होगा. लेकिन मैं कभी उन संकेतों की तरफ़ उन्मुख ही नहीं हुई, न उन दिनों इस बात में कोई जिज्ञासा मेरे मन में पैदा होती कि मेरी दादी के मेरी ममा का खून पीते रहने के पीछे की दो कहानियाँ क्या थी. इन रहस्यों के ढक्कन कालान्तर में, अलग-अलग समय में, इतने ज़ोर से खुले कि ममा के समूचे जीवन की यातना मेरे गहनतम अँधेरे में छलक आयी. उस यातना को अपने शेष बचे जीवन में सहती रहूँगी या मेरा इलाज होना सम्भव है, कहना कठिन है.
भाई के ममा के साथ हिंसात्मक सुलूक की वारदातें पता नहीं कितने वर्षों से क़रीब-क़रीब रोज़ ही हो रही होंगी. बस जब भाई ममा को अकेला पाता वह उन्हें धर दबोचता और उन्हें याद दिला देता कि “उस दिन” उसने क्या देखा था. यह तब भी चलता रहा जब यह सभी को लगने लगा था कि ममा अब और अधिक दिन नहीं जीयेंगी. यह “उस दिन” किन सालों की बात होगी यह ममा मुझे नहीं बता पायीं लेकिन सुरिन्दर अंकल सम्बन्धी यह बात सीने में दबाये ममा अन्त तक तड़पती रहीं, जब तक शायद उन्हें यह नहीं लगने लगा कि उन्हें कम-से-कम मुझे तो बता ही देना चाहिए, मानो वे मुझे कोई बेशकीमती सौगात सौंप रही हों. उन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं हुआ होगा कि दरवाज़े को बन्द करवाने के बाद जो बात उन्होंने मुझे बतायी उसका मुझपर क्या असर होने वाला था, और कि नब्बे को छूती आयु में उनकी अप्राकृतिक मृत्यु की तासीर ख़ास तौर पर मेरे लिए क्या होने वाली थी.
मुझे यह भी लगता है कि ममा ने मुझे अपने जीवन के वे राज़ मुझे सहायिका समझ कर सुना दिये होंगे. बीच-बीच में “तुम्हारे अब्बू” की जगह “मेरे हसबैंड” कह रही थीं.
मेरे पैदा होने के बाद अब्बू और ममा के बीच उस एक कमरे की बरसाती में कोई आत्मीयता की न गुंजाइश रही होगी, न अब्बू की सेहत ऐसी थी कि वे ममा की ललक को पढ़ तक पाने में सक्षम होते. उन सालों में उस एक कमरे के घर में बीते मेरे बचपन में ऐसी कई हिंसात्मक घटनाएँ घटा करती थीं जिनकी जड़ें उस वक़्त मुझे बिलकुल दिखायी नहीं देती थीं. वे दिन मेरे लिए कठिन इसलिए भी थे कि मैं अपने मादा अंगों को लेकर ज़रा भी आश्वस्त नहीं थी. और उकड़ूँ बैठे शौच के वक़्त नीचे झुक-झुक कर देखा करती थी कि वह अनार का दाना क्या वैसा ही है जैसा उसे होना चाहिए. उस एक दुश्चिन्ता ने मेरे कई वर्ष सोख लिये जब तक एक दिन आँखों वाली पतंग को आसमान से उतारने के बाद मैं घबरायी हुई अपनी चड्डी दिखाने पड़ोस की विनीता के पास नहीं पहुँच गयी.
ममा के लिए अब हर माह एक और खर्चा बढ़ गया था.
दो
अब्बू अमूमन अफ़्सुर्दा-हाल रहते, सिवा उन घड़ियों के जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सहित उनके अदीबी दोस्त उनके साथ होते. अब्बू के अदीबी दोस्तों की ख़ातिरदारी और अब्बू द्वारा दमे के लिए ली जा रही जानलेवा दवाएँ और इंजेक्शन आदि का बन्दोबस्त भी ममा के खून-पसीने से ही किया जाता. केवल नींद ही वह शै थी जिसकी क़ीमत पर ममा सुरिन्दर अंकल के लिए चौबीस घण्टे में एक की बजाय दो गद्दों के खोल सिल लिया करतीं, अगर किसी गद्दे को उधेड़ना न पड़ जाता उन्हें. उस बरसाती में ठुँसे हुए हमारे परिवार में में किसी का कोई निजी जीवन था ही नहीं. ठीक-ठीक तो याद नहीं कब, लेकिन उसी बीच कभी सुरिन्दर अंकल मेरे नन्हे से मादा जिस्म को भी हौले से जगा चुके थे. और वह भी तब जब मैं मौसी के एक कमरे के किराये के मकान में एक रात के लिए रहने गयी हुई थी.
ठण्ड बहुत थी और मौसी के बच्चों के साथ घुसड़-मुसड़ कर सोये हुए मेरे हाथ पाँव कम्बल से बाहर पसर जा रहे थे. सुरिन्दर अंकल यह देख मुझे अपने बिस्तर में खींच अपने ऊपर औंधा लेटा कर मुझे दबाने-सहलाने लगे. ऐसा करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, “कवि, पाला तो नहीं लग रहा तुझे”? फिर जल्दी ही करवट बदल कर सुरिन्दर अंकल सो गये.
क्षण भर बाद मानो सहज-प्रवृत्तिवश मैं बाहर लगे नल पर ख़ुद को धोने चली गयी. मैंने देखा कि मेरे कपड़े खोले नहीं गये थे और मेरे जिस्म में वह कम्पन अभी चल रहा था जिसे मैंने जुम्मा-जुम्मा जीवन में पहली बार महसूस किया था. शायद उसी क्षण मुझे उस कम्पन से आकांक्षा भरा एक और कम्पन समझ में आया: उन पलों में महसूस होता वह मद्धम-सा कम्पन जब सुरिन्दर अंकल मुझसे कहा करते, “ठहर जा, शैतान लड़की; अगर तू शरारत करेगी तो मैं तेरा मीट बनाकर खा जाऊँगा”. ऐसे में मैं उनके साँवले दढ़ियल चेहरे को ताकने लग जाती. गद्दे के खोल के लिए उनके साथ चार इंच की पट्टी कटवाते हुए तब मुझे बिलकुल बुरा न लगता. मुझे सुरिन्दर अंकल ने वह कम्पन महसूस न करवाया होता, तो कभी-कभी मुझे लगता है मेरा जीवन वैसा न होता जैसा वह मुझे उसे जीने के लिए बाध्य करता आया है.
उस रात से अधिक गर्माहट मेरे जिस्म को फिर कभी महसूस नहीं हुई. उसकी स्मृति मेरी देह से कभी नहीं गयी और मेरे समूचे अन्तरंग अनुभवों में वह गर्माहट मुझे कई बार कोमलता से सहला रही मालूम पड़ती. लेकिन यह भी सच है कि उस एकल अनुभव के बाद मैं बेहद खौफ़ज़दा रहने लगी थी. विवाह को जीवन का सबसे अहम पहलू मानती हुई मेरी सहेलियों में उन दिनों कौमार्य भंग होने के भीषण अञ्जाम की चर्चाएँ ख़ूब चला करती थीं. स्कूल-भर की चहेती एक्टर कविता चौधरी (उड़ान सीरियल उसने कई वर्ष बाद अपनी बहन कंचन दीदी के जीवन पर बनाया) को छोड़ छठवीं या सातवीं कक्षा में पढ़तीं मेरी सारी सहेलियाँ स्त्री-कौमार्य का दम भरा करती थीं, भले ही उन्हें अपने मौसेरे-चचेरे भाइयों से स्पर्श करवाने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं था, और उन्हीं कलाइयों पर राखी बाँधते हुए वे ज़रा भी अचकचाहट महसूस नहीं करतीं जिन्हें थामे वे उनके संग एकान्त की तलाश में भटकती थीं.
अपने किसी कमज़ोर क्षण में अपनी सहेलियों को मैंने सुरिन्दर अंकल वाली पूरी घटना बता डाली. बस फिर क्या था, मुझे डाँटने में वे एक दूसरे से होड़ने लगीं. उनमें से अधिकांश का मानना यह था कि अब मेरी शादी नहीं हो सकती.
मैं ख़ुद ब्याह-शादी की टेक्स्ट-बुक पक्षधर नहीं थी और निस्सन्देह मुझपर मेरी सहपाठिन कविता चौधरी का ज़बरदस्त प्रभाव था जो खुलकर कहा करती थी कि उसे नहीं लगता उसे कभी कोई लड़का पसन्द आने वाला है. तेरह-चौदह की वय में ही उसका मानना था कि शादी की प्रथा मानुषी को दबाकर रखने के लिये बनायी गयी है. सुरिन्दर अंकल वाली बात मैंने उससे भी अलग से साझा की थी. उसका कहना था कि हालाँकि उन्हें मुझ नाबालिग के साथ यह हरक़त नहीं करनी चाहिए थी, वह भी कमरे में सोयी मेरी मौसी और उनके बच्चों की परवाह किये बगैर, लेकिन अगर फिर भी मुझे बुरा नहीं लगा, बल्कि अच्छा ही लगा, तो उसे लगता है इससे मुझे कोई नुकसान नहीं होने वाला. “एंजॉय द सेन्सेशन”, कविता बोली, “और इस पर और अधिक मत सोचो”. जब मैंने उससे पूछा मेरा कौमार्य भंग हुआ होगा या नहीं, तो उसने कहा यह तो वह ठीक-ठीक नहीं कह सकती, लेकिन कौमार्य जैसी फ़ालतू की अवधारणा में उसकी कोई रुचि नहीं. लेकिन कविता के मुझे आश्वस्त करने के बावजूद मेरी अन्य सहेलियों की कुँवारी कूक मेरे दिलो-दिमाग़ पर छायी रही. थक हारकर मैंने सोचा मुझे ममा से बात करनी चाहिए.
उनहत्तर के वय में पिछले वाक्य को लिखते हुए मेरे पैरों के तलुवों में वही लहर दौड़ गयी जो फ़ोन पर ममा के घातक गिरने की ख़बर सुनकर दौड़ी थी. ममा पर मेरी बात सुनकर आज से सम्भवत: छप्पन साल पहले क्या गाज गिरी होगी उसकी सनसनी मुझमें अब जाकर घर कर रही है. आज से पहले मैंने पूरी तरह समझने का प्रयास नहीं किया था कि ममा के जीवन पर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा होगा. कर भी कैसे सकती थी जब तक ममा अपनी बारी में मुझे अपनी कहानी न बतातीं? सुरिन्दर अंकल को लेकर माँ-बेटी के एक दूसरे से अपने राज़ साझा करने में शायद छप्पन वर्ष का अन्तराल था. ममा को चोट पहुँचाने का अपराध-बोध है या नहीं यह तो मैं अभी नहीं कह सकती, मेरे पास भी सिवा ममा को बताने के कोई चारा नहीं था, लेकिन ममा मेरी बात सुनकर किस हद तक दो फाँकों में कट गयी होंगी, उसका एहसास मेरे देहात्म में इस घड़ी फैल रहा है.
तीन
मरने से क़रीब एक वर्ष पहले अपने मनोभ्रंश के बावजूद ममा को समझ में आया होगा कि उनके बेटे द्वारा उनके लिए ख़ास बनाये यातना शिविर की झलक उन्हें एकबारगी कम-से-कम एक व्यक्ति को तो दिखा देनी चाहिए. लेकिन वह एक व्यक्ति कौन हो? मुझे तो वे मेरी एक और दूसरी यात्रा के बीच भूल जा रही थीं. अपनी पोती मिना से इस तरह की बात करते हुए उन्हें ज़रूर संकोच महसूस होता, यह मुझे अलग से मालूम भी था. वे कई बार मुझे कुछ बताते हुए उस बात को मिना से साझा करने से मुझे बरज दिया करती थीं. कई बार उन्हें मेरे बुढ़ाते चेहरे से अब मैं याद नहीं आती थी; उन्हें लगता होगा कि उनकी बेटी के बाल बॉय-कट या सफ़ेद नहीं हो सकते. यह उन दिनों की बात है जब उन्होंने मुझसे एक के बाद एक इस तरह की सवाल पूछे:
जिसे तुम ह भाभी कहकर पुकारती हो, क्या वह मेरी माँ है? (वे ह भाभी को कभी नाम से तो कभी ममा कहकर पुकारतीं).
मैंने तुझे जन्म दिया है या तूने मुझे?
बेटा, जितना ख़याल तू मेरा रखती है, उतना तो अपने बच्चे भी नहीं रख पाते.
फिर मैं उन्हें आगोश में लेते हुए उनके कपोल और माथे को चूमती तो वे समझ जातीं मैं कौन हूँ, हालाँकि उन्हें तब भी मेरे चेहरे और बालों को देख आश्वस्ति नहीं होती. वे एक बार और मेरे गले लगतीं और मेरा स्पर्श और मेरी गन्ध शायद उन्हें फिर मुझे उनकी पेट की जायी होने का संकेत देते. लेकिन उनकी बेटी बूढ़ी कैसे हो गयी होगी, यह असमंजस उनके चेहरे पर साफ़ दीख पड़ता.
इस तरह के कई प्रसंगों के बाद जब वे एक दिन कुछ पल के लिए थिर हो मुझे अपनी बेटी मान रही थीं, उन्होंने मुझे उठकर उनके कमरे का दरवाज़ा बन्द करने का संकेत दिया.
उनके पास बैठे जो कहानी मैंने सुनी वह यह थी:
“बेटा कवि, मुझे ठीक-ठीक याद नहीं वह किस साल की बात रही होगी. यह भी याद नहीं तेरे अब्बू तब तक ज़िन्दा भी थे कि नहीं. मुझे लगता है वे अभी थे; और अगर थे तो उस दिन नीचे तेरी दादी के पास चाय पीने गये होंगे, जब यह घटना हुई. जब सुरिन्दर अंकल गद्दे का कपड़ा लेकर आते मैं कभी अकेली नहीं होती थी. एक तरह का चुपीता नियम ही रहा होगा कि तेरे अब्बू या तुम बच्चों में से कोई वहाँ हो.
तुम दोनों बच्चे उस दिन स्कूल गये हुए थे…”.
ममा पहले तो चुप हो गयीं, और अपनी खिड़की के बाहर की पीली दीवार को देखते मानो भूल ही गयी कि वे मुझसे बात कर रही हैं. मैंने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया. ममा ने हाथ खींच लिया और मेरी ओर देखने लगीं. मैंने फिर उन्हें थामकर उनके कपोल को चूमा तो उनकी आँखें नम हो आयीं. मैंने उनसे पूछा, “ममा उस दिन फिर क्या हुआ”? वे बोलीं, “कवि बेटा, मैं कहती हूँ, रब या तो मुझे ले जाये, या तेरे भाई को. उस दिन के बाद से आज तक ऐसा एक भी दिन नहीं बीता जब तेरे उसने मुझे अकेली पा मुझे ज़लील न किया हो. रोज़ कहता है, “’मेरे बाप को खा गयी तू: मेरे दादू को भी खा गयी”…और मुझ पर बुरी तरह चिल्लाता है बिना नागा”’.
ममा की छाती ज़ोर से धड़क रही थी. मैंने उन्हें पानी का गिलास थमाया तो वे फफक-फफक कर रो पड़ीं. मैंने उनके तकिये के नीचे से उनका रुमाल निकालकर उन्हें दिया … और उन्हें फिर बाहों में लेकर उनके कपोल और आँखों को चूम लिया. फिर वे सम्भलते हुए बोलीं, “तुम और काकुए का मन अभी भी करता है…”? मैं समझ गयी वे क्या पूछ रही हैं. मैंने उनकी बात का जवाब “नहीं, ममा” कहकर दिया; और मैंने देखा कि उन्हें मेरा जवाब सुनकर अच्छा नहीं लगा. वे सिर्फ़ इतना बोलीं, “कम-से-कम तुम लोग एक ही कमरे में सो तो जाया करो”. जिसका पूरा जीवन अभाव में गुज़रा वह माँ अपनी वृद्ध बेटी को प्रेम का पाठ पढ़ा रही थी. जहाँ तक सुरिन्दर अंकल वाली बात का सवाल था, शायद उन्हें लग रहा था वे मुझे पूरी बात बता चुकी हैं. मैं चाहती तो उस बात को जाने भी दे सकती थी, लेकिन वह क्षण सालों के बाद आया था, ममा की फाँस निकल सकती तो मुझे भी कुछ सुकून मिल जाता. ममा को विषय पर टिकाये रखने के लिए मुझे अतिरिक्त प्रयास करना पड़ रहा था.
ममा ने बीच-बीच में यह भूलते हुए कि वे मुझसे क्या बात कर रही थीं, टुकड़ों-टुकड़ों में जो बातें मुझसे उस शाम कीं उनका लब्बो-लुआब यह था कि सुरिन्दर अंकल मेरे मौसी को धमकी दे चुके थे कि वे किसी दिन घर छोड़कर चले जायेंगे. यह बात उन्होंने ममा से भी कुछ इस आशय से की कि अगर ममा उनके प्रणय-निवेदन को स्वीकार कर लें तो वे घर छोड़कर नहीं जायेंगे. सबसे विचित्र बात तो यह थी कि मेरी मौसी को भी कुछ आभास था कि सुरिन्दर अंकल ममा को चाहते हैं. मौसी ने ममा से दोटूक बात की कि अगर उनका आपस में कोई रिश्ता बनता है तो उन्हें कोई आपत्ति न होगी.
ममा की बात सुनते वक़्त मुझे लगा कि क्या वह मौसी की बेचारगी रही होगी कि वे अपने पति को इस एक शर्त पर घर-परिवार में टिकाये रख सकती हैं? क्या कोई “मन्द-बुद्धि” औरत इस हद तक जा सकती होगी? मौसी की याद आते ही मेरी भी रुलाई फूट रही थी. ममा के बाद यदि मैंने किसी की यातना को इतने क़रीब से देखा-समझा था तो वह मेरी मौसी की ही यातना थी. उस निरीह महिला को भी शादी के बाद ममा को छोड़कर किसी का स्नेह नहीं मिला.
ममा को “बीज घटना” पर आते वक़्त लग रहा था. इस बीच घर के बाक़ी लोग इस बात पर हैरान थे कि ममा और मैं कमरे को बन्द किए क्यूँ बैठे हुए थे. गनीमत है कि किसी ने भड़भड़ाकर किवाड़ नहीं खुलवाया.
ममा को उस दिन की घटना का कोई भी विवरण क्यूँ नहीं भूला था? सिवा इस बात के कि उन्हें यह याद नहीं था कि उस समय अब्बू इस दुनिया में थे कि नहीं. इस एक प्रसंग को लेकर उनकी स्मृति का पैनापन मेरे भाई की हिंसा की बदौलत बना हुआ था. वह रोज़ उन्हें मौसी, अब्बू और दादू की याद दिलाता था. ममा को यह तक याद था कि हृदयाघात से भाई के स्कूल के हैड-मास्टर की हुई मौत की वजह से भाई स्कूल से तुरन्त लौट आया था.
ममा ने बताया कि उस दिन उनकी तबीयत नासाज़ थी. हमें स्कूल भेजकर वे लेटी हुई थीं और घर के सारे काज अभी अधूरे पड़े थे. ममा को कोई छुट्टी नहीं मिलती थी; हम बच्चों की तरह नहीं थीं वे कि रविवार को पतंग उड़ाने दोस्तों के घर भाग जाया करें. जिस दिन गद्दे नहीं सिले मतलब उस दिन दूध, चाय-पत्ती, राशन, सब्ज़ी कुछ भी घर में नहीं होता. पत्ती, शक्कर, दाल आदि सब काग़ज़ की छोटी-छोटी पुड़ियों में ठीक सामने के पंसारी प्रीतम चाचा की दुकान से आते, जो एक समय के बाद उधार देना बन्द कर दिया करते. हर रोज़ हर चीज़ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही घर लायी जाती.
उस दिन ममा के लिए काम लेकर सुरिन्दर अंकल जब सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, पहली बार हमारे बरसाती कमरे में ममा के सिवा कोई न था. मुझे अब लगने लगा है कि इस बात की तसदीक करना कि अब्बू तब ज़िन्दा थे या नहीं, बड़ा कठिन काम होगा. ममा की स्मृति में इतना झोल आ चुका था कि वे किस कालखण्ड को किस कालखण्ड से जोड़ देंगी, कोई नहीं कह सकता था. गुज़रे ज़माने में किसका जन्म किस दिन हुआ होगा उसका हिसाब लगाना फिर भी बेहद आसान काम रहा होगा. तसदीक करने में मेरी अगर रुचि होगी तो सिर्फ़ इसीलिए कि कहीं मेरे भाई ने यह बात अब्बू से साझा तो नहीं की. अगर की होगी तो ममा और अब्बू का जीवन इस घटना के बाद कल्पनातीत उलझ गया होगा.
मैं समझ रही हूँ कि मुझे उस मामूली-सी घटना पर आते अब भी थोड़ा और वक़्त लगेगा. मानसिक आघात (इसे बीना रंगवाला “ट्रौमैटिक ग्रीफ़” कहती है) के चलते मेरा तरह-तरह का उपचार और उतने ही क़िस्म के टोटके चल रहे हैं. लिखने की प्रक्रिया में मैं उबरने की बजाय (जैसा लेखन को लेकर मेरा गुमान था), इस पाठ-विशेष की दलदल में और धँसती जा रही हूँ. मेरे हाथ-पाँव मानो धीरे-धीर सड़-गल रहे हों. ज़रा सी नींद में जो सपने आते हैं, वे मुझे एक और पन्ने की तरफ़ फेंक रहे हैं. ममा मेरे अनछिदे कानों की गुम हो चुकीं बालियाँ, जो दोपहर को उसके पलंग पर सोते समय मैं उठाना भूल जाती हूँ…खुली हथेली पर रखे हुए मेरी ओर आ रही हैं. उन बालियों को मैं सपने में भी पहचान पा रही हूँ. मैं मुस्कराते हुए उठती हूँ और फिर रोने लगती हूँ.
चार
ग़ुस्से में आकर अब्बू कभी-कभी काँच के बर्तनों को दीवार पर दे मारा करते थे. अगर ये घटनाएँ हम लोगों के स्कूल जाने के बाद घटतीं तो भी सीढ़ियों में पड़े खुले डस्टबिन को देखकर हम भाई-बहन समझ जाते कि पीछे से क्या हुआ होगा. अब्बू और ममा आपस में झगड़ा तो नहीं किया करते थे, लेकिन अब्बू निस्पृह बने रहते और ममा सबको जीवित रखने के प्रयासों से ही थक-हार जातीं. दरअसल हमें कभी समझ में ही नहीं आता था कि बिना किसी लड़ाई-झगड़े के अब्बू काँच के बर्तनों को दीवारों पर क्यों दे मारते थे.
अब्बू को रूसी साहित्य पढ़ने के लिए उतनी ही शान्ति दरकार थी जितनी कि मुझे. ममा का काम शोर वाला था. बीच-बीच में सुरिन्दर अंकल भी आ जाते और कुछ लड़कियाँ भी जो ममा से सिलाई सीखती थीं. लड़कियाँ आतीं तो अब्बू नीचे दादी के कमरे में चले जाया करते. ममा ने अब्बू की ख़ातिर अपनी PFFAF मशीन मिकेनिक से इस हद तक हल्की करवा ली थी कि वह बहुत कम शोर करती. अपनी नाज़ुक सेहत की वजह से अब्बू घर से बाहर कम ही निकलते अपने युवा दिनों में जमा की हुई किताबों की पेटी तक़सीम के दंगों के दौरान सर पर लादे अब्बू कराची से इस ओर पैदल लेकर आये थे. बाद के मुफ़्लिस सालों में किताबें और रिसाले दोस्तों और एक बुकशॉप की मेहरबानी से अब्बू को मिल जाते. अलावा इसके एक बड़ी लाइब्रेरी की सदस्यता अब्बू के पास थी, यानि किताबों की हरगिज़ कोई कमी नहीं थी हमें.
बड़े होकर भाई को किताबों में ज़रा भी रुचि न रही, लेकिन बचपन में वह भी ख़ूब किताबें पढ़ा करता. यह लिखते वक़्त मैं सोच रही हूँ कि अब्बू तो शुरू-शुरू में हम दोनों के लिए पंजाबी अनुवाद में विश्व-साहित्य के क्लासिक्स मंगवाया करते थे. अब मुझे यह भी याद आ रहा है कि अपने से तीन साल बड़े भाई के कन्धे पर पीछे से हाथ रखे मैं खड़ी होकर उसे कहानी पढ़ते हुए सुना करती थी. वह उंगली रखकर पढ़ता और उसके पीछे खड़े-खड़े अनजाने में पंजाबी का जो पहले शब्द मैंने पढ़ना सीखा वह था “दास्तान”; सिंदबाद की रोमांचक समुद्री यात्राओं के आख्यान में यह शब्द बार-बार आता और मैं इस शब्द से मुग्ध हो जाती. फिर यह कब हुआ होगा कि भाई का मन किताबों से हट गया ? क्या उसका मन इसी घटना से उचाट हो गया होगा?
भाई से इस घटना के बारे में मैं पूछ नहीं सकती. उसकी ख़ुद की ज़ेहनी हालत इस क़दर नाज़ुक है कि उससे कोई बात की ही नहीं जा सकती. वह इस हद तक असन्तुलित हो चुका है और दूसरों का सन्तुलन इस हद तक बिगाड़ने की क़ाबिलियत रखता है कि उससे बाक़ी बचे जीवन में मेरा मिलना फ़िलवक़्त तो शायद ही मुमकिन हो. वह मुझे फ़ोन करने का प्रयास करता रहता है, लिहाज़ा उसे ब्लॉक कर दिया गया है. उसे तो यह तक नहीं मालूम कि ममा इस दुनिया को छोड़ने से पहले मुझसे बहुत कुछ साझा कर चुकी हैं, यानि उस बदसुलूकी के क़िस्से जो ह भाभी और भाई उनके साथ किया करते थे. मेरे सामने जो हो गुज़रता था, वह भी भयानक हुआ करता. मेरे पीछे से जो होता आया था वह तो ममा मुझे बहुत कम बताती थीं. कुछ हद तक उन्हें मालूम था उनकी बातों का मुझपर क्या असर होता है.
पाँच
जैसा ममा ने मुझे बताया जब मेरा भाई कमरे में घुसा सुरिन्दर अंकल ममा के साथ अधलेटे हुए ममा का माथा दबा रहे थे. उसके बाद क्या हुआ ममा यह मुझे नहीं बता पायीं. बस वे बार-बार यही कहती रहीं, “एक दिन नहीं बीता तब से लेकर आज के दिन तक, जब वह मुझसे यह नहीं कहता, “उस दिन सुरिन्दर अंकल के साथ क्या कर रही थी तू? मेरे बाप को खा गयी तू; मेरे दादू को भी खा गयी”. ममा लगातार रो रही थीं…यह कहती हुईं कि या तो रब उन्हें ले जाये या मेरे भाई को….
ममा ने अपने अन्तिम छह महीनों में मुझे यह भी बताया, एक बार नहीं कई बार, कि सुरिन्दर अंकल मौसी को छोड़कर चले जाने की धमकी अक्सर देते थे. यह भी कि मौसी ने एक दिन अपनी घायल पशु-सी आँखें फाड़े बहुत धीमी आवाज़ में ममा से इल्तजा की थी कि वे सुरिन्दर अंकल का निवेदन मान जायें, मना न करें. इतना कहकर फिर मौसी फूट-फूट कर रोने लगीं. ममा मौसी के लिए पानी लेकर आयीं और उन्हें अपनी छाती से भींचकर चुप कराने लगीं. ममा मुझे यह न बता पायीं कि मौसी को सुरिन्दर अंकल की घर-परिवार को न छोडने की शर्त उन्होंने स्वयं बतायी या कि सुरिन्दर अंकल ने. उन दोनों को देखकर कोई कह नहीं सकता था वे बहनें हैं.
ससुराल में मिली गुरबत और लाचारगी के बावजूद ममा का अंग-सौष्ठव, उनकी क्षिप्रता और लचक सबके मन को लुभा ले जाती. मौसी को देखकर मुझे किसी सुन्दर, कुपोषित और क्षीणकाय आहत पशु की याद आती थी. सुरिन्दर अंकल उन्हें “खोती”, “डंगर” “शुदैन” के कर पुकारते और वह भी हम सबके सामने. ममा उन्हें हमेशा बुरी तरह डाँट देतीं और कह देतीं कि शादी के लिए हाँ कहते वक़्त वे अन्धे थे क्या और कि क्या उन्होंने दहेज के लालच में विवाह किया था?
मुझे पता नहीं मौसी ने उस रात सुरिन्दर अंकल और मेरे बीच जो हो गुज़रा था उसे देखा था या नहीं. मौसी कितना सह सकती होंगी भला? मेरी देवीस्वरूप नानी ने जिन चार बच्चों को जन्म दिया उनमें से किसी के भी मस्तक पर होनी ने ख़ुशी के कोई आखर नहीं उकेरे. ऐसे लोग मैंने बहुत कम देखें हैं जिनके भाग्य में सुख के पाँव पड़ते ही नहीं हैं. मुझे अब यह भी याद आ रहा है कि मौसी की आँखें हमेशा फटी रहती थीं. बहुत लम्बे समय तक बिना किसी राहत के सुरिन्दर अंकल और बाद में अपने लड़कों-बहुओं के अत्याचार सहते हुए मौसी की आँखें हमेशा फटी हुई रहने लगी होंगी. मेरी थेरपिस्ट बीना रंगवाला फटी आँखों को किसी गहरे मानसिक आघात का लक्षण बताती है. मौसी इतनी सीधी थीं कि घनघोर कष्ट सहते हुए भी किसी को कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी उनमें.
उसी मुलाक़ात के वक़्त ममा और मौसी के बीच उस सलोनी की भी बात हुई जिसकी तस्वीर सुरिन्दर अंकल के पर्स में हमेशा बनी रहती थी. ममा का दिल सुरिन्दर अंकल के विवाह-पूर्व असफल प्रेम से पिघल गया होगा. मैं सुरिन्दर अंकल को कभी-कभी ममा के साथ बैठे फफक-फफक कर रोते हुए भी देखा करती थी. बाद में मुझे समझ में आया कि अगर कोई पुरुष किसी आकर्षक स्त्री के साथ अपने प्रेम का राज़ किसी अन्य स्त्री के साथ साझा करता है तो वह पुरुष अपनी राज़दान के लिए और आकर्षक बन जाता है. सुरिन्दर अंकल की सलोनी की तस्वीर छुटपन में मैंने भी चखी थी. और अब मेरे बूढ़े दिनों में वह तस्वीर मेरी एल्बम में रखी हुई है.
सुरिन्दर अंकल सम्बन्धी जब कई बातें ममा ने मुझे बतायीं तो मैं असमंजस में पड़ गयी कि ममा की छिन्न हुई स्मृति में इतने स्पष्ट विवरण उबर कर भला कैसे आ रहे हैं. मैं तब वहाँ नहीं थी जब मरने से एक दिन पहले ममा ने वही ओमेगा थ्री कैप्स्यूल ह भाभी से माँगे जो मेरे कहने पर उन्हें दिये जाने लगे थे, और जो मेरे उस घर से जाने के बाद बन्द कर दिये जाते थे. ममा ने साफ़ कहा, “वही कैप्स्यूल दे दो मुझे जो कवि देती है मुझे”. ममा की यह माँग सुनकर सब हैरान हुए, क्योंकि उस क्षण से पहले ममा विडियो कॉल पर मुझे पहचान नहीं पा रही थीं, और उन्हें मेरा चेहरा देख यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी बेटी की शक्ल ऐसी हो सकती है. जब मुझे फ़ोन पर मिना ने यह बताया कि उन्हें कैप्स्यूल और मेरी याद एक साथ आ गयी है तो हम सबको उनकी आसन्न मृत्यु का आभास हो जाना चाहिए था.
यूँ भी डॉक्टर ने कह ही दिया था कि कूल्हे की हड्डी का बॉल टूटने और रिप्लेसमेंट सर्जरी के बाद ममा की उम्र के मरीज़ अधिक नहीं जी पाते. ममा के पास कोई सहायिका न होने की वजह से वे उठते ही ऐसा बुरा गिरीं कि तेरह दिन बाद ही चल बसीं. काकुए की तबीयत इस क़दर नासाज़ थी कि ममा के गिरने पर हम पहुँच ही नहीं सकते थे. अगर मेरे कहने पर पूर्णकालिक सहायिका ममा के पास होती तो ममा अप्राकृतिक मौत न मरतीं. मेरे इस लगने का कोई अन्त नहीं.
यह मुझे बाद में पता पड़ा कि अक्सर स्मृति जब अचानक लौटने का संकेत देती है ज़्यादतर लोग और ममा जैसे अज़ीज़ चौबीस घण्टे से अधिक नहीं जीते. मिना से बात करने के बाद मुझे यह भी लगा कि ममा को जो कुछ भी और याद आया होगा उससे उन्हें और कष्ट हुआ होगा.
छह
ममा के अन्तिम तेरह दिनों में मेरे भाई के मन में कोई रहम आया होगा, मुझे नहीं मालूम, कि जब वह अस्पताल के कमरे में उनके साथ अकेला होता था, क्या वह उनके ज़ख्म में फिर कील गाड़ने लगता था? ममा को नहीं मालूम पेशाब के लिए उन्हें कैथीटर लगा हुआ है. वे थोड़ी-थोड़ी देर बाद पूछतीं उन्हें पेशाब के लिए कहाँ जाना है. उन दिनों जब भाई उनके संग अकेला हुआ करता था तो वह क्या उन्हें शान्ति से समझा देता होगा कि उन्हें उठने की ज़रूरत नहीं है? क्या वह उनके बारबार पूछने पर उन पर चिल्लाता होगा जैसे घर में दिन में कई बार? अपने क़रीबी दोस्त के अस्पताल में बैठे क्या वह चिल्ला सकता होगा? अगर मैं वहाँ होती तो उसकी ड्यूटी लगने ही नहीं देती. बस काकुए अगर ठीक उसी दिन बीमार न पड़ गया होता जिस दिन ममा गिरीं. मेरे सिवा किसी को पूरा पता नहीं था ममा को अकेली पाकर मेरा भाई क्या कर गुज़रता है.
मिना को भी ममा के कहने पर मैंने बहुत समय तक नहीं बताया कि उसके पापा किस हद तक आततायी हो चुके हैं. जब बताया तो यह नहीं बताया कि यह उसकी रोज़-रोज़ की करतूत हुआ करती है. हो सकता है मैंने मिना को इसलिए न बताया हो कि फिर मिना भी मेरी तरह पूरा दिन ममा को लेकर असह्य चिन्ता में डूबी रहा करेगी. किसी को नहीं सूझता था कि मेरे भाई को इलाज की ज़रूरत है; उसे स्वयं तो क़तई नहीं. मुझे ह भाभी और भाई दोनों में मानसिक आघात के लक्षण साफ़ दिखायी देते थे. कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसी आघात से उबरने वे दोनों लोग हिंसात्मक प्रदर्शन किया करते, पड़ोसियों की परवाह किये बिना? शायद उन्हें अवचेतन के स्तर पर प्रतिदिन यही लगता रहता हो कि चिल्लाने से और “हाइपर” होने से कोई नया हल निकल आये जिसे उनकी दशा कुछ सुधर जाये. लेकिन वे ख़ुद को मानसिक रूप से बीमार समझते हों, ऐसा भी नहीं है. उन्हें अपनी हिंसात्मक प्रवृत्ति उतनी ही सहज लगती जितना खाना-पीना और नाखून काटना. दोष उन्हीं का होता जो भाई और ह भाभी को “इरिटेट” करते, उन्हें ग़ुस्सा दिलाते. उन्हें, लेकिन, यह बख़ूबी मालूम था कि यह प्रयोग वे किस पर कर सकते हैं किस पर नहीं. सबसे अधिक हिंसा ममा, मैं और उनके घरेलू कामगार सहते. मैं जब भी भाई से बड़े प्यार और एहतियात से इस बाबत बात करती, वह किसी थेरपिस्ट या मनोचिकित्सक की मदद लेने से मना कर दिया करता.
अगर मेरा भाई वाक़ई बिलकुल अधम क़िस्म का आततायी है कि उसने मरने से पहले अपनी अस्पताल में भर्ती माँ को जितना सताया जाना मुमकिन था सता कर ही दम लिया होगा तो ममा की क्या हालत हुई होगी, कौन इसका अनुमान लगा सकता होगा भला? और यह मेरा वो भाई है जिसके दिल में रहम की कोई कमी नहीं. घरेलू कामगारों को चुपचाप अतिरिक्त पैसा देते उसे मैंने कई बार देखा है. जब मैं देख लेती थी तो वह मुझसे कहा करता मैं किसी को मत बताऊँ. कुदरत में मरते हुए जीव की पीड़ा को कम करने की पूरी क़ुव्वत होती है; जिस जानवर का शिकार किया जाता है उसकी इन्द्रियाँ सुन्न पड़ जाती हैं.
टॉलस्टॉय और ऑनरी मिशॉ सहित अनेक लेखकों ने इस बाबत लिखा है. टॉलस्टॉय की तो आपबीती है यह: भालू मे मुख में लेखक का पूरा सिर है और जिस अवर्णनीय शान्ति का अनुभव उसे होता है, उसकी तसदीक दूसरे लेखकों ने भी की है. ममा की विस्मृति ने कुदरत की जगह लेने की कोशिश की होगी. विस्मृति में उनको थोड़ा चैन-सुकून मिल सकता होगा. लेकिन भाई ने यह सुनिश्चित कर लिया था कि वे भले ही वे हर चीज़ भूल जायें, यह भी भूल जायें कि वे ख़ुद कौन हैं, मेरे भाई की बदनसीब माँ हैं, लेकिन उस एक दिन सुरिन्दर अंकल के साथ लेटे होने की ज़िल्लत को वे कभी न भूल पायें. वे रिसते घावों को लिये हुए ही इस दुनिया से गयीं, और मेरी बिलख उनके संग न जा पायी. अब यह बिलख ही मेरी माँ है; मेरी अतिशय सोच, मेरा डामर-सा सान्द्र सोग… इस सबने मेरी माँ की छोड़ी हुई जगह को भर दिया है.
सात
हमेशा की तरह उस मनहूस दिन भी हमारे बरसाती कमरे का दरवाज़ा पूरा खुला हुआ था. अगर अब्बू अभी इस दुनिया में थे तो वे किसी भी क्षण ऊपर आ सकते थे. ममा से सिलाई सीखने वाली लड़कियाँ भी. आख़िर ममा और सुरिन्दर अंकल से ऐसी ग़लती हुई कैसे होगी? जिस एक बरसाती कमरे में हमारे ही परिवार के किसी सदस्य की कोई निजता नहीं थी, इस बात का मुझे अविश्वसनीय लगना स्वाभाविक है…क्या यह भाई के किसी और ज़ेहनी आघात से उपजी “छद्म स्मृति” हो सकती है? ममा के मनोभ्रंश के दौरान उन्हें धर दबोचने की एक तरक़ीब? हक़ीक़त कुछ भी रही हो, ममा अपने अन्तिम क्षण तक उस “घटना” की क़ीमत चुकाती रहीं. बक़ौल ममा अपने पति और ममा के सम्बन्ध में अपनी रज़ामन्दी का इज़्हार करती मेरी मौसी भले ही रो पड़ी हों, लेकिन जिस बात की चर्चा शायद ही किसी ने की होगी वह यह थी कि ममा और सुरिन्दर अंकल कहाँ मिल सकते होंगे?
अपने जीवन को देखती हूँ तो मेरे पास पृथ्वी के हर कोने में मेरी निजता को बनाये रखने एक से एक सुन्दर और सुरक्षित जगहों की भरमार … मैं भी शायद अपने कमसिन दिनों के एक आघात को लेकर अपना सन्तुलन खो चुकी थी. गला घोंट कर वे लोग मुझे बेहोश कर चुके थे. ज़रा-सा और दम लगाते तो वे एक मृत कमसिन लड़की से… मैंने उस सामूहिक कुकृत्य को मानो एनेस्थीज़िया में झेला. हो सकता है उन्होने सोचा हो कि लड़की मर चुकी है.
कोई भीषण मानसिक आघात किसी को भी अपने जिस्म की ऐंद्रिकता को बार-बार “महसूस” करते रहने की इच्छा को वर्षों तक भड़काये रख सकता है; या फिर ललक और कामेच्छा को पूरी तरह कुचल डाल सकता है. और फिर सत्रह साल की वह लड़की जिसे अपने बॉय फ्रेंड के साथ डेट के दौरान दस-बारह लोगों ने धर दबोचा हो? जो ख़ून में सने फटे नीले सलवार कमीज़ में घर लौटी हो, अपने अब्बू को खो देने के कुछ ही माह बाद…. ममा ने पहली चीज़ जो कही वह यह थी: “अब हो गुज़रा है वो जिसका तुम्हें डर था. तब नहीं … जब उस रात तुम मौसी के घर में थीं”. ममा मेरे साथ फूट-फूट कर ख़ूब रोयी थीं उस मनहूस दिन. और मैं जो सहेलियों की कृपा से कुछ मुआमलों में अभी तक दक़ियानूसी थी, बुआ की दी हुई गोलियाँ निगलते हुए धारासार रो रही थी…कि माह की सही तारीख आने पर कम-से-कम एक चीज़ को लेकर निश्चिन्त हो सकूँ. छोटी बुआ ख़ास आयीं थीं चंडीगढ़ से मुझे सम्भालने; मैंने स्कूल जाना तक बन्द कर रखा था. निक्की बुआ “इज्ज़त-शील-कौमार्य” जैसी शब्दावली का ज़रा भी इस्तेमाल नहीं करती थीं, और न ही वे अपने जीवन को किसी पुरुष को सुपुर्द किये हुए थीं. वे फूफा के साथ अपनी शर्तों पर रहती थीं और कोई रोकटोक बर्दाश्त नहीं करती थीं. वे मेरे बालों को सहलाते हुए धीमे-धीमे वे मुझसे कुछ-कुछ ऐसा कहती रहीं:
— तुम परवाह मत करना, कवि. कुछ नहीं हुआ है तुम्हें… तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी. बस इस दृश्य को बार-बार बयान मत करो. न अपने लिए, न किसी और के लिए. जो लोग ऐसे मुआमालों में “इज़्ज़त-अज़मत-आबरू” की शब्दावली में बात करते हैं, वे स्त्री की तौहीन ख़ुद कर रहे होते हैं. “इज्ज़त” ऐसे नहीं लुटा करती, कवि .. इज़्ज़त कोई और चीज़ होती है. तुम धीरे-धीरे समझ जाओगी कि ऐसी बातें करने वाले तुम्हारी दुनिया के लोग नहीं हैं. वे तुम्हारी तरह उन्नीसवीं सदी का रूसी साहित्य नहीं पढ़ते. खुला, स्वछन्द और निर्भय जीवन जीकर दिखाना है तुम्हें. तुम्हें पता ही है साहिर और अमृता तुम्हारे अब्बू के दोस्त हुआ करते थे; तुम्हें याद होगा अमृता अपने समय से कितना आगे चल रही थी. तुम्हारे अब्बू अगर होते तो वे भी यही कहते तुमसे. तुम तो अपने अब्बू की कवि हो न? मेरी कवि भी तुम्हीं हो सकती हो, कवि.
मैंने बुआ को बताया कि जब मुझे होश आया आर्मी का कोई अफ़सर बाबू के साथ मेरे कपड़ों को व्यवस्थित कर रहा था… मैंने बताया कि मैं स्वयं पर पिले हुए हमलावरों से बिलखते हुए कह रही थी, “मुझे छोड़ दो वीरजी, अभी कुछ ही दिन हुए हैं मेरे अब्बू को मरे हुए”…कि मेरे बाबू को भी मेरी आँखों के सामने जमाकर थप्पड़-घूँसे जड़े उन दरिन्दों ने; उसके दाँतों से भी ख़ून बहने लगा था. निक्की बुआ के सामने मैं उसी बेहोशी में बड़बड़ाती जा रही थी, जो गन्ने के खेतों में मेरा गला दबाने से मुझपर मेहरबान हुई थी …
मेरे ज्वरग्रस्त प्रलाप को पता नहीं क्यूँ निक्की बुआ रिकॉर्ड कर लिया:
मैं अभी ज़िन्दा हूँ…चिता पर लेटी हुई हूँ; पतली, ऊँची, गंठीली लकड़ियों के बीच पड़ी हुई. अपनी तहमतें खोलने से पहले वे बाबू से कह रहे हैं, “बड़े इश्क़ मिज़ाज लगते हो, लौंडे”! वे सब मुझे आग लगा चुके हैं. मेरे शव को बाबू दिख रहा है; वह भी फफक रहा है; उसके मुँह से ख़ून बह रहा है. आर्मी की वर्दी पहने कोई मुझपर झुका मेरे बालों को सहलाते हुए कह रहा है:
‘उठ खड़ी हो जा बेटी. तुझे कुछ नहीं हुआ है.‘
बाबू ने मेरी नीली सलवार का नाड़ा बाँध दिया है? किसी अफ़्सर ने मुझे सहारा देकर पाँवों पर खड़ा कर दिया है.
“तब कहीं जाकर चिता की खड़ी लकड़ियाँ गन्नों में बदलने को राज़ी हुईं”, मैंने आँखें खोलते हुए बुआ से कहा.
बहुत वर्ष बाद एक दिन बिस्तर में मेरे साथ पड़ा हुए बाबू ने मुझसे अचानक कहा:
तुम एक क़ातिल के साथ पड़ी हुई हो, कवि. मैं बहुत समय से बताना चाहता रहा हूँ तुम्हें.
मैं सन्न रह गयी. बाबू वह कहानी सुनाता रहा मुझे:
उस रात मैं अप्सरा सिनेमा हाल के सामने से गुज़र रहा था बाइक पर तो मुझे उनका गैंग-लीडर दिख गया. वह भी बाइक पर था…उसी ने सबसे पहले तुम्हें…. .
— बस मैंने बाइक उसके पीछे लगा दी. उससे आगे जाकर टक्कर मारकर गिरा दिया मैंने. इससे पहले उसे कुछ समझ में आता, मैंने काका भैया की पिस्टल उसकी छाती पर रखते हुए अपने मुँह पर बन्धा साफ़ा खोल दिया. वह तुरन्त मुझे पहचान गया और मुआफ़ी माँगता रिरियाने लगा. इसके बाद मैंने एक गोली उसकी जांघों के बीच भी मार दी, कवि. वह जहन्नुम में भी जाये तो अपने औज़ार को देख उसे गन्ने की फ़सल से खौफ़ आता रहे!
आठ
बाबू, जिस वक़्त मैं यह लिख रही हूँ, तुम्हें इस दुनिया से गये हुए चार वर्ष होने को हैं. अन्तिम बार तुम्हारी मृत्यु शैया को घेरे उन आत्मीय अजनबी लोगों में से एक ने तुमसे पूछा, “हाउ आर यू, सर”? मरने से कई माह पहले से तुम्हारी जिह्वा में असह्य दर्द रहा होगा…सिग्रेट अब तुम्हें पी रही थी…तुम अपने सभी अज़ीज़ों से दूर अपने ओंठों को गोल किये उत्तर देने का प्रयास कर रहे थे, और जवाब तुम्हारे रुँधे गले और भीगी आँखों ने दिया. कंचन भाभी ने मुझे पता नहीं क्यूँ तुम्हारे अन्तिम क्षणों के और उस ताबूत के विडियो भेजे जिसमें तुम पड़े हुए थे. तुम्हारे दूसरे परिवार द्वारा भी तुम्हें घर से निकाले हुए कई वर्ष बीत चुके थे… तुम्हारे बेटों गाडेन और गरब के नाम हिज़ होलिनेस ने रखे थे. ओह, गाडेन का नाम था तुम्हारे मरते हुए लबों पर. कितनी मनुहार के बाद भी वह लाड़ला तुम्हें एक बार भी देखने नहीं आया. “वॉट अ फ़ेट”, जैसा कि ज़्यूरीक से अनु ने तुम्हारे बारे में लिखते हुए मुझसे कहा.
और, बाबू, गन्नों से जितना मैं डरी हूँ उतना कौन डरा होगा भला? उधर अनु ज़्यूरिक से तुम तक पहुँच पाने का प्रयास करती थक चुकी थी. उसे महामारी के दिनों में बतौर नर्स तुम्हारी देखभाल करने वीज़ा कहाँ मिल पाया? उस बेदाग़ रूह ने ठगी के कई मुआमलों की तह में जाकर तुम्हें तलब करने के प्रयास किये होंगे…जब अनु और मैं उन संगीन प्रसंगों में गयीं तो मुझे अनु की बेहिसाब रूहानी बलन्दी का एहसास हुआ. वह सम्पत्ति के लिए की गयी तुम्हारी फूफी की हत्या को भी समझ चुकी थी. तुमने अपने बीमार बाप को बाथरूम में ले जाकर कितना पीटा था यह तो तुम मुझे भी बता चुके थे. पापा ने तुम्हारी माँ के साथ जो किया उसका मानसिक आघात तुम्हें धकिया रहा था. अनु ने सिर्फ़ इतना लिखा मुझे, “Kavi dear, that was his Karma!” अनु लगातार तुम्हारे मरने के दो साल बाद तक लिखती रही मुझे. जो अमृत की बूँद-सा जज़्ब कर लिया मेरे देहात्म ने, वह उसका लिखा एक वाक्य था. “कवि, शायद मेरे भाग्य में यही था कि मुझे किसी प्रपंची की देख-भाल करनी है, उसी के प्रेम का निर्वाह करना है मुझे.
नौ
ममा ने मुझे दाँतों से बहते ख़ून के लिए दवा लाकर दी. मेरा गला और मुँह घोंटते हुए गन्ने के खेत में काम करते वे लोग नहीं जानते थे कि मैं मरूँगी नहीं. मेरे चीख़ों को दबाने वे मेरे मुँह और ग्रीवा पर अपना पूरा दम लगा रहे थे. मुझे खुद को भी सम्मोहक लगने वाली मेरी मुस्कान अगले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे जड़ों तक हिल जाने वाली थी; अन्त में झड़कर गिर जाने वाली भी. बाबू में इतना दम था कि अगर उसके मुँह में कपड़ा ठूँस उन लोगों ने पेड़ से न बाँध होता तो वह मुझे बचाते हुए अपनी जान तक दे सकता था. छावनी के साथ लगे हुए उस गाँव से आर्मी की एक जोंगा उस दोपहर न गुज़र रही होती तो शायद आज इस घटना का बयान मैं न कर रही होती. मेरे घरवालों को पता ही न चलता मैं और बाबू कहाँ गुम हो गये हैं. बाबू उन्हें पसन्द नहीं था, लेकिन उन्हें पता था मैं उसे चोरी-छिपे मिलती रहा करती हूँ. इसी वजह से ममा और भाई मेरी पिटाई भी ख़ूब किया करते.
बाद के सालों में बचपन में मेरी बेहिसाब की गयी पिटाई को लेकर ममा हाथ जोड़कर मुझसे मुआफ़ी माँगती रहा करतीं. उन्होंने देवनागरी मेरी ही ख़ातिर सीखी ताकि वे मुझसे चिट्ठी-पत्री करती रह सकें. केवल उर्दू ही वह ज़बान थी जिसमें माँ पढ़-लिख सकती थीं. अपने बचपन की ज़बानों में वही एक ज़बान थी जिसकी लिपि मैं नहीं सीख पायी. नहीं तो माँ उर्दू में लिखतीं…
अब ममा के जर्जर हुए ख़तों को चूम-चूमकर मेरा बुढ़ापा बीत जायेगा…
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तेजी ग्रोवर, जन्म 1955, पठानकोट, पंजाब. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास. आधुनिक नॉर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के बीस पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं. प्राथमिक शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और योगदान रहा है. तेजी की कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में अनूदित हैं; स्वीडी, नॉर्वीजी, अंग्रेजी और पोलिश में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित. 2020 में उनकी सभी कहानियों और उपन्यास (नीला) का एक ही जिल्द में अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड से सम्मानित तेजी 1995-97 के दौरान वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलो चयनित होने के साथ-साथ प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्ष भी रहीं. 2016-17 के दौरान नान्त, फ्रांस में स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहीं. 2019 में उन्हें वाणी फ़ाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान, और स्वीडन के शाही दम्पति द्वारा रॉयल आर्डर ऑफ़ पोलर स्टार (Knight/ Member First Class) की उपाधि प्रदान की गयी. |
हिंसा का ऐसा वर्णन हिंदी में पहले कभी नहीं लिखा गया। ऐसा लगता है जैसे अचानक हेराल्ड पिंटर के नाटकों की वर्कशॉप में मैं घुस आया हूँ।
आप किसी को पूरी तरह नष्ट कर दे और फिर वह नष्ट मनुष्य ख़ुद को किसी jigsaw puzzle की तरह फिर से जोड़ रहा हो यह ऐसे किसी लेखक की रचना है और मैं जानता हूँ इस jigsaw puzzle के कई टुकड़े हमेशा missing रहेंगे, वे कभी नहीं मिल पाएंगे।
बाप रे .. यंत्रणा से भरा अनुभव है यह पाठ। मार्मिक यंत्रणा से भरा, एक दम haunting और तटस्थ और दुःख भरा भी। घटनायें यों तो सेकंड में घट जाती हैं मगर कितनी layered हैं वे यह बाद में पता चलता है। फिर सच भी एक दिन गल्प ही लगने लगता है।
तेजी ग्रोवर बेहतरीन लिखती हैं, लेकिन यह आत्मगल्प तो अलग ही श्रेणी में है। परिवार के भीतर और बाहर वृहत समाज की हिंसा के स्वरूपों में साम्य का ऐसा वर्णन उद्वेलित कर जाता है। ममा की ताउम्र सुख के एक पल की कीमत चुकाने की मजबूरी का कैसा बारीक चित्रण है। पर बलात्कार का चित्रण रोंगटे खड़े कर देता है। वह लकड़ियों का बाद में ही गन्ने बन जाना। आंसुओं के आगे की भी दास्तान कहेंगी तेजी, इस उम्मीद के साथ उनको सलाम।
तेजी ग्रोवर निश्चय ही एक शानदार लेखिका हैं ।
यह सिर्फ बँटवारे की त्रासदी का दुष्परिणाम नहीं है ब्लकि हमारे सामाजिक,पारिवारिक ताने-बाने में व्यवहारगत विषमता है जो मर्यादा व प्रतिष्ठा के मोटे पर्दे के पीछे निरंतर घटित हो रही है,जब तक इस विषमता को उघाडा नहीं किया जाएगा न जाने कब तक ये हमारे जीवन शैली में ठोस जगह बनाकर जमी रहेंगी।
निजी तौर पर Teji Grover जी मेरी प्रिय रचनाकारों में से एक रहीं हैं,उनकी कविताओं ने हमेशा झकझोर दिया था लेकिन इस दफा एक रोष के साथ अवाक हो कर रह गई हूँ।
Behavioral aberration is so widespread in our repressed society that it is considered normal.
We need to recognise the dire need for therapy which is branded abnormal.
Teji, this is moral courage at its best. Hats off to you.
बहुत ही परिपक्व आत्मगल्प, इसका पुस्तकाकार प्रकाशन अनिवार्य है.खासकर ऐसे समय में जबकि स्त्रियों ने सच कहने का साहस त्याग दिया है.तेज़ी ग्रोवर जी को बहुत बधाई.
यह तो बेहद भयानक है। हिलाकर रख दिया।हद की भी हद होती है। विरल प्रस्तुति! झकझोर देने वाली।
And she stands tall and proud.
यातना की अदालत में हिंसा और सहनशीलता दोनों बराबर के अपराधी हैं।
नि:शब्द हूँ … बस!!
गल्प में आत्म को भस्म करते हुए कराह को लिखना सबके बस की बात नहीं। और कराह भर नहीं, कराहें : यातना के समवेत से उठतीं हुईं। आत्मा के घावों की चिलक को यूँ शब्दबद्ध करना। जैसे इस रचना के शब्दों की शरशय्या पर लेटे हुए उस सबसे आँख मिलाना, जिसे मन से मेटने के जतन में जीवन गुज़र जाता है।
क़माल की किस्सागोई है। बिना रुके एक साँस में पूरा गल्प पढ़ गई। बहुत स्तरीय और रोचक लिखत है। मुझे अब से Teji Grover जी के गद्य का भी बेसब्री से इंतज़ार रहा करेगा और उनकी उस पुस्तक का भी जिसे वे इस समय लिख रही हैं और जिसका हिस्सा यह गल्प भी है।
‘आत्मगल्प’ में पसरी हुई हिंसा और त्रासदी की संरचना का दवाब इतना सघन है कि, मेरे जैसा पाठक बहुत देर सन्नाटे में बैठा रह जाता है। यह ‘आत्मगल्प’ मन को चीर देने वाली है। इस सामने लाने के लिए अरुण देव का आभार। तेजी ग्रोवर जी के हौसले को खूब खाद-पानी मिले, यही कामना है।
तेजी का आत्मगल्प पढ़कर मैं भीतर तक हिल गया। भीतर कहीं कुछ पैनी सी भावना मुझे कुतरने लगी। ऐसे गल्प को पढ़कर यह प्रश्न मन में उठता ही है कि यहाँ ‘मैं’ कौन है? ऐसी कहानियों की कमी नहीं जहां ‘मैं’ एक काल्पनिक चरित्र होता है। ऐसी कृतियां भी बहुत हैं जिनमें ‘मैं’ लेखक हुआ करता है। तेजी कहती है कि इसे गल्प की तरह पढ़ो। यह गल्प की तरह पढ़ना क्या होता है? मेरे विचार से इसका आशय है कि ऐसे गल्प का इशारा वास्तविक जीवन के जीते जागते चरित्र न होकर कल्पना का क्षेत्र होता है। या यह भी मुमकिन है कि इस गल्प में आये चरित्र थोड़े-बहुत काल्पनिक हों। मैं इसे कैसे भी पढूं, इसमें छटपटाते चरित्रों की पीड़ा से छलनी हुए बिना नहीं रह पा रहा। यह पीड़ा कहीं अधिक इसलिए भी महसूस हो रही है क्यों कि इस का गद्य पानी सा बहता हुआ गद्य है। ऐसी हिंसा शायद ऐसे समाजों में अधिक हुआ करती है जहां आर्थिक असमानता राजनैतिक असमानता में कायान्तरित हो जाती है। ऐसा होना अब पहले से कहीं अधिक हो चुका है। शायद इसलिए यह आत्मगल्प गल्प रहते हुए भी हजारों लाखों परिवारों का इतिवृत्त महसूस होता है। यही इसकी सफलता भी है।
अभी आत्म गल्प पढ़ कर खत्म किया।वहां कमेंट की कोई जगेह नही दिखी।
यह ऐतिहासिक साफगोई से लिखी दर्दनाक दास्तान लिखते हुए कितनी तकलीफ हुई होगी,इसका कुछ कुछ अंदाज़ लग रहा है।यह बधाई नही बंदगी के काबिल है।प्यार तुम्हें
निशब्द करता यथार्थ है। उस रात कमरे में बहुत कुछ घट भी गया हो तो मंदबुद्धि मौसी, मां, सुरेंद्र अंकल किसी को दोष देते नहीं बनता। दोष तो भाई को भी नहीं दिया जा सकता। एक संघर्षरत परिवार के उपेक्षित बच्चे से भावनाओं और उलझनों के उस ताप को समझने बरतने की अपेक्षा अन्याय होगी। जीवन कितना कितना भटकाता है। हाथ थामने सही राह पर लाने प्राय: कहीं कोई नहीं होता। हमारे आस पास सब खुद ही राह तलाश रहे होते हैं। ऐसे में एक दूसरे के प्रति हिंसक होते हम जीवन को और कठिन करते चलते हैं। यह आत्म गल्प न हो, पूरी गल्प हो तब भी इसे लिखने पढ़ने का त्रास कम न होगा।
आत्म गल्प लिखना आसान नहीं होता ..खतरे उठाने पड़ते हैं। तेजी जी ने वह खतरा उठाया है। पढ़ते हुए ..एक दर्द से ..गुजरना पड़ रहा है। शायद यही जीवन है .. शायद यही लेखन है।
तेजी ग्रोवर का यह आत्मगल्प पढ़कर मुझे एक एक्वेरियम में घायल दो तीन सुनहरी मछलियों का दृश्य याद आ गया। एक्वेरियम में एक-दो बड़ी काली मछलियाँ थीं, जो जब-तब उन को जख्मी करती रहती थीं। एक्वेरियम के जल में यंत्रणा थी; लेकिन जैसा भी था, जीवन वहीं था, जल के बाहर मौत थी। इस गल्प के चरित्र अपने ही आंसुओं के एक्वेरियम में कैद हैं। इसे पढ़ते हुए पाठक भूल जाता है कि यह गल्प है। पाठक का आत्म यहां गल्प के चरित्र से एकात्म हो जाता है। पाठक अपनी लहूलुहान आत्मा के साथ खुद को आंसुओं के उसी एक्वेरियम में कैद, छटपटाता हुआ-सा पाता है। इस आत्मगल्प को ‘सत्यकथा’ की तरह नहीं पढ़ा जा सकता, लेकिन इसे झूठ भी नहीं कहा जा सकता। यह सर्जक का नहीं, समाज का सच है। यहां जो ‘आत्म’ है उसे गल्पकार ने रचा है और जो ‘गल्प’ है वह आत्म का सृजन है। तेजी की भाषा मूर्त-अमूर्त के बीच आवाजाही करती हुई इतनी लहरदार है कि इसकी लहरों के साथ पाठक का मन भी बहने लगता है। करीब 25 वर्ष पहले तेजी जी का उपन्यास ‘नीला’ पढ़ा था। उसकी भाषा ने चमत्कृत कर दिया था। अब्बू और माँ ‘नीला’ में भी थे। दर्द के दरिया की एक झलक वहां भी थी, ” माँ उस समय अब्बू के मर चुके श्वास से प्यार कर रही थी। वह कभी साँस लेते हुए प्यार नहीं कर पाता था, अब्बू मेरा। वह उन्नीसवीं सदी के रूस में रहता था। उसका घर और कहीं भी नहीं था। वह उन्नीसवीं सदी के रूस की वजह से बर्फ़ों और रेतों और समंदरों से मिलने जाता था। उसके फेफड़े फटते रहते अपने घर की टोह लेते हुए।” दर्द के दरिया की जो लहर ‘नीला’ में दिखी थी, उसका पूरा समंदर इस आत्मगल्प में लहरा रहा है।
सच बयान करने के नैतिक साहस के साथ ही तेज़ी ग्रोवर की गहन एवं पारदर्शी अभिव्यक्ति गल्प में जीवन को पुनर्रचित करने की उम्दा कला का नायाब नमूना है.
साधुवाद.
विलक्षण गद्य। उसका प्रशान्त स्वर उसमें व्यक्त हिंसा को और भी तीक्ष्ण कर देता है। ऐसा पैना गल्प जो आत्म में गहरे तक धंसे हुए कांटों को पूरी निर्ममता से बाहर ले आता है। यह अनन्य, मर्मबेधक अनुभव अपने साधारणीकरण के लिए जिस अनन्य विधा की मांग अपने भीतर समोये हुए है, तेजी का ‘आत्मगल्प’ उस मांग को रेस्पाण्ड कर रहा है। ‘आत्मगल्प’ : आत्म और गल्प के बायनरी के साथ की गयी हिंसा से जन्म लेती विधा । मां के चरित्र में स्वयं ही यह ‘आत्मगल्प’ रूपायित है, जो बेटी से पूछती है: मैं ने तुझे पैदा किया है या तू ने मुझे।
यह भयभीत करने वाली ईमानदारी है. यह उस रास्ते ले जाकर आपको निरीह और निहत्था छोड़ देती है, जहाँ आपके सामने अपने जीवन के स्याह और विस्मृत कोटर चमकने लगते हैं. लेकिन यह कलम सिर्फ़ दुस्साहस की स्याही में नहीं डूबी है. अगर ऐसा होता, तो शायद यह इतने ऊँचे फ़लक पर न पहुँचता. मनुष्य की तहों को उघाड़ते समय यह उसे खल किरदार बतौर नहीं बरतती. इसलिए यह सयाना आत्म-गल्प अंततः मुक्त करता है, रचनाकार के साथ पाठक को भी.
यह अनश्वर पंक्तियाँ हैं.
“वह लिखने की प्रक्रिया में फ़ैसला सुनाने से अधिक उन किरदारों की ज़ेहनी रुग्णताओं की तह में जाने का प्रयास करता है जो दूसरे किरदारों के साथ हिंसा का प्रदर्शन कर अनजाने में अपने मानसिक आघात को सहनीय बनाने का प्रयास करते हुए और अधिक यातना सहने लगते हैं.”
यातना का गहनतम अंधेरा है जहाँ
हिंसात्मक घटनाओं की जड़ें जमी हुई बर्फ के माफ़िक़ पिघल रही है ।घटनाओं को व्यक्त करने के लिए जो परफेक्ट संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की जरूरत होती है उसे यहाँ से सीखा जा सकता है ।
वो कील जैसे चुभने वाले कंपन को शब्द देना उसे फिर बार-बार चुभोने से कम नहीं ।
एकल ख़ौफ़ज़दा अनुभवों का जज़ीरा है यहाँ
बातें जो आपको सीधे दो फाँक कर दे उसे यूँ कहना असंभव को संभव बनाना ही तो है ।
ये घटनाएँ ऐसी ही होती हैं
कि काल का झोल भी स्मृति में झोल नहीं डाल पाता
आँखें हमेशा फटी रहना कितनादर्दीला होता होगा
ज्वरग्रस्त प्रलाप से उठी गूँगी रुलाई का कोलाज है
यह आत्मप्रलाप है जिसे भयभीत करने वाली ईमानदारी भी कहा जा सकता है ।
विलक्षण परिपक्व गद्य मर्म बेधक त्रास को
आत्मगल्प कराह के रूप में लिखकर मनोसंतुलन को वापस लाने का प्रयास भी है ।
इस ‘आत्मगल्प’ में पीड़ा, हिंसा, बेहद मासूम अनुभूतियाँ, बेबसी, बेकसी, मानवीय और अमानुषिक स्पंदन, सब कुछ इस कदर अंतर्गुम्फित है कि एक भी रेशे को किसी अन्य से जुदा नहीं किया जा सकता।
यहाँ भूत और भविष्यत् एक सतत वर्तमान बन टस से मस नहीं होते।न हिंस्र हाथ थमने का नाम लेते हैं, न आलिंगन में धड़कता दिल ही थमता है।
’कवि’ का इस ‘आत्मगल्प’ को लिखते हुए लगातार ख़ुद को ‘मैं’ और ‘वह’ में रूपांतरित कर पाना काल की तनी हुई रस्सी को झकझोड़ के छिन्न-भिन्न कर देता है। इसे जिस अपार धीरज और निर्मम सच्चेपन के साथ और संयत स्वर में लिखा गया है वही इसे हम पाठकों के लिए इतना बेधक बनाता है।
तेजी ग्रोवर इसे तुमने कई बार कमरे की छत से उल्टा लटक कर भी लिखा है..☘️
तेजी जी के लिए अनुवाद पढ़े हैं वह रचना चयन विलक्षण रहा है लेकिन यह आत्म से जुड़ा लेखन झकझोर गया। हिंसा और भय के चरम को लिखना जो खुद से गुजरी हो उन्हें शब्द देना बहुत कठिन है फिर भी आपने लिखा इसे बिना रचे आप शब्द न दे पातीं जिसके लिए आपने बहुत सा साहस संजोया है। प्रकृति का यह करतब जो आपने कहा कि जब पीड़ा असहाय होती है तब दर्द सुख का अनुभव देता है यह कौन सी सीमा है कि इसके आगे भी जीवन है और जीना है। आपको सलाम ।
अब कुछ कहने लायक ही नहीं रहा, बचा। बस यही कि यह आत्मगल्प नहीं, आत्मा का गल्प है – एक आत्मीय गल्प। ऐसे न जाने कितने गल्पों की गुहार लगाता। Teji तुम कमाल हो, बस। बहुत बहुत प्यार
कुछ है, जो इस गद्य( Teji Grover ) में गहरी धुंध में छिपा तीखी कटार सा चमकता निकलता है और मन-अतल में बिना आवाज़ किए धंस जाता है। रक्तरंजित होने के बावजूद रक्त का एक छींटा उड़ाए बिना। इस रक्तरंजित गद्य का धीमा और घुमावदार बहाव अबूझ राहों से अवरूद्ध हुए बिना हम तक इस तरह आता है कि हम फफक भी नहीं पाते। नि:शब्द, निस्तब्ध, नीरवता में जैसे कोई विकल फड़फड़ाता हो। इस गद्य में असह्य को सहने की अकूत ताकत का कोई वरदान है या अभिशाप। क्या इस गद्य में किसी प्रेत से मुक्ति की कोई अथक छटपटाहट है? या हिंसा के ख़िलाफ अचूक प्रतिरोध। क्या यह रचने का अनिवार्य जोखिम है? यह आईनों के सामने आईना का गद्य है… तड़क, तड़क, तड़क… कितना मारक कि किसी तीखी किरच पर तितली के पंख का टूट जाना।
जैसे बिना आवाज किए अविरल पीड़ा की रेलगाड़ी क़रीब से निकल जाती है और हमारी पीठ के पीछे वह टूटा पंख रह जाता है….वज़नी।
उस पंख को आप उठा नहीं सकते…
दो तीन बार पढ़ा। मेरी इतनी हैसियत नहीं कि तेज़ी जी की कविताओं या उनके लिखे पर कुछ कह सकूँ। फिर भी यह लगता रहा कि यह इतना निजी और साफ़ है कि छूने से गंदा हो जाये। यह भी कि यह लिखा भाषा को और खोल रहा है और इस तरह कि नई संभावनाएं बन रही हैं। एक कवि को उसके उत्कर्ष पर देखना एक अद्भुत सुख है। तेज़ी और समालोचन दोनों का शुक्रिया
एक गहरी धुंध जिसने हृदय को चीर रख दिया। लिखने के लिए साहस की जरुरत होती है।
तेजी जी के साहस को प्रणाम।
मैंने सांस रोक कर पढा। पलट कर देखना बहुत कष्टकर है लेकिन बहुत जरूरी। उसकी तहों में इतनी चोट है कि लिखने वाले की ऊंगलियां कांपने लगती हैं। तेजी जी ने उन्हीं थरथराती उंगलियों से लिखा है। किसका,कितना और कहां नहीं ये सब। बस दर्ज बहुत कम है। जख्मी मां ओं की कहानियों का हिस्सा खुद तक आकर और आगे चलता जाता है। मरहम और सुकूंन दोनों को कह कर ही मिलेगा।
आत्मगल्प के लिए बहुत शुक्रिया तेजी जी ।
इस आत्मगल्प को तेजी जी ने बहुत लंबे समय तक प्रोसेस करके लिखा है, इसे पढ़ते हुए ऐसा लगा. इतने सारे चरित्रों को जिन में हिंसा के perpetrators भी शामिल हों, अंततः उनकी करनी के परे जाकर न्याय और करुणा की दृष्टि से देख पाना और उनके मन की स्थिति और निर्मिती को उनकी लोकेशन से समझ पाने के लिए हमें अपनी पीड़ा और यातना को प्रोसेस करने के साथ साथ अपनी संवेदना के दायरे को बहुत बढ़ाना होता है. यह विकट स्थिति होती है क्योंकि ऐसे देखने पर अपराध और अपराधी को देखने की रिवायती समझ गड्डमड्ड हो जाती है. एक ओर जहाँ हिंसा और अपराध को दंडित करने के लिए हमें स्पष्ट नज़रिया चाहिए तो दूसरी ओर वृहत बदलाव के लिए रिवायती समझ को गड्डमड्ड करते हुए आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन इतने चरित्रों में अक्सर कोई एक होता है जो यह कठिन काम करता है जो इस प्रसंग में तेजी जी हैं. अपनी वल्नेरेबिलिटी के बारे में बात करना फिर भी आसान होता है लेकिन अपने आसपास सभी की वल्नेरेबिलिटी को आत्मसात करना कष्टप्रद और ऐसी दृष्टि से देखते हुए closure मिलना और भी मुश्किल. मेरा निजी आग्रह नहीं कि इसे उत्कृष्ट गल्प की तरह पढ़ा जाए या हिंसा और उत्पीड़न के विमर्श की दृष्टि से, मेरे लिए यह सबसे पहले उस दीर्घ और दुखदायी प्रोसेसिंग की तस्दीक है जिसे तेजी जी ने किया होगा. तेजी जी ने ख़ुद इसे ‘आत्मगल्प’ कहा तो यह पाठक को एक तरह से foreground करता है नहीं तो इसका उसका सच कहने की बात क्या, इस में जो लिखा है वह इस समाज, इस देश और दुनिया का सच तो है.
मैं यह नहीं जानना चाहता कि इसमें आत्म या गल्प की मिक़दार कितनी है।
यह दर्द और तन्हाई के अदृश्य, अंतहीन और बंद बरामदों में जमा हुआ कोई सन्नाटा है जिसे यह आत्मगल्प खुरच-खुरच कर ख़त्म करना चाहता है।
यह चेहरे और आंखों के पीछे छुपे संसार का इतिहास है जिसमें भीतर के दरवाजों पर पड़ती डरावनी दस्तकें दर्ज हैं; हमलावर हाथों की गिरफ्त में फंसी गर्दन का क्लॉज-अप है; खून में सनी सलवार का हौलनाक़ चित्र है; जिसमें मां और पिता के बीच कोई लड़ाई नहीं होती, बस बच्चों को ज़ीने पर कांच की बिखरी हुईं किरचें मिलती हैं; जिसमें अपने ही मां-जाये अजनबी होते चले जाते हैं; और जिसमें एक जर्जर होती जाती औरत को ज़िल्लत और अकेलेपन से बचाने के लिए शायद स्मृति ही उसका साथ छोड़ देती है।
… मेरे ज़ेहन में यह दृश्य फ़्रीज़ हो गया है :
” ममा पहले तो चुप हो गयीं, और अपनी खिड़की के बाहर की पीली दीवार को देखते मानो भूल ही गयी कि वे मुझसे बात कर रही हैं. मैंने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया. ममा ने हाथ खींच लिया और मेरी ओर देखने लगीं. मैंने फिर उन्हें थामकर उनके कपोल को चूमा तो उनकी आँखें नम हो आयीं.”
…
ख़ैर, यह आत्म है कि गल्प है— जो भी है, ला-सानी है।