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Home » बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि : गगन गिल

बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि : गगन गिल

गगन गिल का गद्य उनकी कविताओं का ही विस्तार लगता है. समुचित और सुगठित. बुद्ध पर उनको सुनना-पढ़ना करुणा की किसी नदी से जैसे निकलना हो. नदी जो बहे जा रही है. जिसकी कोई सीमा नहीं. आपको बस तट पर जाना है. इस आलेख में बुद्ध की सौन्दर्य दृष्टि की चर्चा करते हुए जीवन जीने के ‘न्यूनतावाद’ की तरफ भी ध्यान खींचा गया है. कहना न होगा कि पृथ्वी को बचाने के लिए यह दर्शन आज आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है. अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
March 26, 2025
in आलेख
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बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि : गगन गिल
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जो सुंदर है, वह भंगुर है. जो असुंदर है, वह भी भंगुर है.

बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि
गगन गिल

 

विचाराधीन विषय से कुछ यों मालूम होता है जैसे इन तीन शब्दों का आपस में कोई संबंध न हो या कुछ नकारात्मक संबंध हो.

बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि में हम एक तत्त्व समान पाते हैं, मिनिमलिज्म. न्यूनतावाद. जो कम है वही सुंदर है, अर्थगर्भित है. जीवन हो, या कविता का कहन, सुव्यवस्था में ही सार है.

उनकी उपस्थिति जितनी देशनाओं, दंत कथाओं से दीप्त है, उतनी ही उनके मौन से. विराट सत्य का साक्षात्कार कर उनका सात सप्ताह तक मौन रह जाना. जो उन्होंने जाना, उसे सात सप्ताह तक अलग-अलग जगह से निरखना. कभी बैठ कर, कभी चलते हुए. कभी पेड़ के नीचे खड़े हुए.

चंक्रमण करते बुद्ध, मौन से मौनतर होते बुद्ध.

ऐसा विराट उनका अनुभव. आश्रित उत्पत्ति. डिपेंडेंट ओरिजिनेशन. भवचक्र.

कौन उसे समझेगा? कौन शब्द उसे कह पायेगा!

ढाई हज़ार साल पहले का वह ऐतिहासिक क्षण. बुद्ध चंक्रमण कर रहे हैं, शब्द उन्हें देख रहे हैं.

कंठ के अवरोध से शब्द का यह कैसा पुराना नाता है. जो जाना वह कथन से बाहर है. आसानी से जो लिख दी जाए, वह भी कविता कहाँ है?

क्या कोई कवि बुद्ध की चंक्रमण करती छवि भूल सकता है?


 

यहाँ पटना म्यूज़ियम में महात्मा बुद्ध की उपस्थिति से जगमग इस स्थान पर हम सब एकत्र हुए हैं, इससे सुंदर देशकाल का संयोग क्या हो सकता है!

देवताओं जैसी उनकी सुंदर छवि हमारे दिल में धड़कती है. भारतीय कला का नाम लेते ही सबसे पहले उनकी ध्यान छवि कौंधती है. एक नहीं, अनेक छवियाँ. शिल्पों में, चित्रों में.

उनसे पहले के किसी महापुरुष का ऐसा मोहक अंकन हमारे यहाँ नहीं मिलता. यहाँ म्यूज़ियम में ही देख लीजिए. पुराने अवशेषों में क्या है? सिंधु घाटी सभ्यता में मिली पशुपतिनाथ की मोहर, काँसे में बनी नर्तकी, पुरोहित राजा की आकृति.

फिर बरसों बरस कुछ भी नहीं. जैसे एक दिन समस्त पुरातन को बुद्ध की शांत मुख भंगिमा में तिरोहित हो जाना हो.

हमारी संस्कृति का संकेतक बिम्ब. आध्यात्मिक जीवन, सरस जीवन, नैतिक जीवन.

जैसे प्राचीन काल से ही हमसे कोई कह रहा हो. मध्य मार्ग.

आज जिस सभ्यता में हम बैठे हैं, वह बौद्ध सभ्यता ही है, भले हम उसे कोई नाम दें.


सुजाता की खीर से पहले और बाद के बुद्ध

 

यह दृश्य आज भी किसे रोमांचित नहीं कर देता?

वृक्ष के नीचे बैठे ध्यानमग्न बुद्ध को विस्मय से देखती सुजाता. दैवी रूप को पहचानती गाँव की एक भोलीभाली स्त्री. कैसे उसका दिल थम सा गया था.

सुजाता ने कोई चित्र नहीं बनाया. उस वृतांत से बाद में कलाकारों ने उन्हें गढ़ा. इस तेज को गढ़ने में, अंकित करने में उन्हें पाँच सौ बरस लग गए.

तीन सौ वर्ष ईसापूर्व अशोक के बनवाये साँची जैसे उत्तम नक्काशीदार स्तूप पर भी केवल उनके संकेत चिह्न मिलते हैं – उनकी गाथा के सब चरित्र वहाँ अंकित हैं, केवल उनकी छवि पकड़ में नहीं आती. उनके पगचिह्न, पीपल की पत्ती या बोधिवृक्ष, स्वास्तिक, धर्मध्वज. बस.

जैसे बुद्ध विराट के समक्ष मौन रह जाते हैं, मनुष्यों की कला उनके सामने.

कविता भी यही करती है. शब्दों का आलंबन लेती, भाव संसार में लहर बनाती, जहाँ पहुँचती है, वहाँ शब्द काम नहीं आता. शब्द का अर्थ भी एक शब्द ही है.

कविता एक ही स्वप्न देखती है , वह शब्द के बंधन से छूट जाये, जैसे सन्यासी देह में रहते हुए भी उससे मुक्त हो जाता है.

क्या यहाँ वह बीज है जिससे शास्त्र रचे जाते हैं?


कहीं भी पाई गई बुद्ध की प्रथम छवि, बीमारण मंजूषा, जलालाबाद, पहली सदी

 

बुद्ध के परिनिर्वाण के पाँच सौ वर्ष बाद जलालाबाद, पाकिस्तान के बीमारन स्तूप में रखी एक स्वर्ण मंजूषा मिलती है, पारदर्शी लहराते चीवर में दाढ़ी मूँछ वाले महात्मा बुद्ध, सिर पर उष्णीष. अगल- बगल ब्रह्मा और इन्द्र, जो तुषिता स्वर्गलोक से धरती तक बुद्ध को पहुँचाने उनके साथ आये थे, जब वह अपनी माता को धर्म उपदेश देने वहाँ एक वर्षावास के लिए गए थे.

घटना के तीन सौ साल बाद भी पाताल को जाती वे सीढ़ियाँ स्वयं सम्राट अशोक ने देखी थीं, ऐसा विवरण मिलता है. वहाँ, आज की संकिस्सा में, उसने एक स्मृति स्तूप बनवाया था.

आज उस खंडहर स्तूप के शिखर पर कोई एक ग्रामदेवी की कोठरी बना गया है, हिंदू राष्ट्र का सांस्कृतिक विनियोग, एप्रोप्रिएशन.

यही वह अनित्य है जिसकी देशना बुद्ध ने दी थी.

जो सुंदर है, वह भंगुर है. जो असुंदर है, वह भी भंगुर है.


मथुरा शैली में बुद्ध

 

किसी ने बुद्ध से पूछा था, क्या ईश्वर है?

वह मौन रहे थे. न हाँ, न ना.

शब्दातीत, दृश्यातीत, संज्ञातीत का मर्म तथागत से बेहतर कौन जानता था!

ऐसा विवरण मिलता है कि उनके जीवन काल में उनके तीन चित्र और एक प्रतिमा बने थे. ये सब उनकी अनुमति से बने. चित्र किसी को भेंट भेजने के लिए, प्रतिमा संघ में उनकी अनुपस्थिति भरने के लिए.

कहते हैं, चित्र बनने में न आता था. ऐसी उजली उनकी उपस्थिति कि आँख चौंधिया जाती. आख़िर उन्होंने उपाय निकाला. सुबह समय कुटी के द्वार पर आ खड़े हुए. भिक्षुओं ने कुटी की दीवार पर वस्त्र टाँग कर उनकी छाया अंकित की. उसमें रंग भरे.

चलते हुए अपनी छाया देखते होंगे. समय में स्थिर एक क्षण. दिव्य पुरुष के बत्तीस लक्षण, जिन्हें नन्हें सिद्धार्थ में महात्मा असित ने देखा था.

तब से आजतक बत्तीस लक्षणों के अनुपात में ही बुद्ध प्रतिमाएं, चित्र बनते आये हैं, वे तिब्बत के थंका चित्र हों या गांधार-मथुरा के शिल्प. अन्य किसी देवता को कला में यह सम्मान नहीं.


बौद्धों का चीवर

 

भीतर की सुंदरता बाहर को कैसे आभासित करती है, इसके उदाहरण उनके भिक्षु संघ के स्थापत्य में, स्तूपों की संरचना में, चीवर की परिकल्पना में देखते बनते हैं.

उन दिनों भिक्षा में मिले चीथड़ों से ही चीवर सिलते थे. देश में कई तरह के श्रमण संप्रदाय थे. एक बार आनंद ने उनसे पूछा, हमारे संघ के चीवर कैसे हों?

श्रावस्ती के जेतवन की घटना, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के पच्चीस वर्षावास बिताये थे. विनय पिटक में ऐसा विवरण मिलता है.

बुद्ध अपने ऋद्धि बल से आनंद को आकाश में ले गए, वहाँ से धान के सीढ़ीदार खेत दिखाए, चीवर के चिथड़ों को ऐसे चौखाने नमूने में सिला जाए!

यह थी उनकी सौन्दर्य दृष्टि. भिक्षु की सौम्यता और भिखारी की दीनता में अंतर करती हुई.

बुद्ध के समय में ही चैत्यों का स्वरूप, विहारों में स्तूप की अर्द्ध अंडाकार संरचना बनने लगी थी, अर्हतों के अस्थि अवशेषों के समाधि स्तूप. अर्द्ध अंडाकार क्यों? ताकि अर्द्ध जो अदृश्य मगर अंतर्निहित है, वह भी ध्यान में रहे.

भिक्षुओं की दिनचर्या, भिक्षा के नियम, उनकी कुटी कैसी हो, उसका माप, उसकी भवन सामग्री, उसकी छत, भूमि से उसकी ऊँचाई, त्याग देने के बाद उसकी सामग्री फिर से काम आती हो, ये सब नियम उन्होंने तय कर दिए थे. आज वैशाली का विहार स्वास्तिक आकार में मिलता है, श्रावस्ती का विहार अलग डिज़ाइन में.

आज मिलते बुद्ध के चिह्नों में कुछ भी ऐसा नहीं जो सुचिंतित नहीं, सुविचारित नहीं.

जीवन को सुंदरता से, सरसता से, नियम से कैसे संचालित करना है, उनकी सारी देशना जैसे इसी का शोधन थी.


 

जेतवन में ही बुद्ध के जीवन काल में उनकी पहली प्रतिमा स्थापित हुई. जब वह एक वर्षावास के लिए तुषित लोक में अपनी माँ को धर्म उपदेश देने गये हुए थे, भिक्षुओं का ध्यान नहीं लगता था. तब आनंद ने वहाँ जाकर उनसे पूछा था, क्या उनकी जगह पर मूर्ति रख सकते हैं? उन्होंने इसकी अनुमति दी थी.

यह मूर्ति जेतवन में उनकी गंध कुटी के बाहर एक वेदी पर स्थित थी जहाँ आज भी लोग नमन करते हैं. अनाथपिण्डक ने उसे बनवाया था.

आज जिन भवचक्र के आरेखों के चित्र हमें बौद्ध मठों के द्वार पर, छतों पर देखने को मिलते हैं, उनका रेखांकन बुद्ध ने ही करवाया था, राजा उदयन को भवचक्र का नियम समझाने को. ऐसा वृत्तांत बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में मिलता है.

कला की दुनिया में यह अनूठा रेखांकन है, एक गहन आध्यात्मिक अनुभव को, छह लोकों में जीव आत्माओं के उत्थान-पतन की जटिलता को स्पष्ट करता एक सपाट दृश्य!


चीन के दुनहुआंग में शिला पर बुद्ध

 

इसके बाद ही संभवत: ध्यान के लिए मूर्तियों और चित्रों का चलन शुरू हुआ. पहले बुद्ध, फिर दूसरे देवी देवताओं का.

एक बार अंकन शुरू हुआ तो देशकाल की सीमाएं लांघता समूचे विश्व में फैलता गया. पर्वतों में उत्कीर्ण विशालकाय बुद्ध, सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में ही नहीं, चीन के लीशान में, प्राचीन जापान में भी. गुफाओं के भित्ति चित्र मध्य भारत के अजंता में ही नहीं, सिल्क रूट के दुनहुआंग, श्रीलंका के दम्बूला में भी. उत्तरी हिमालय में लद्दाख, भूटान से लेकर चीन, जापान, कोरिया तक मंदिरों में बुद्ध की विशालकाय प्रतिमाएं.

फिर प्रतिमा भी जैसे ध्यान करने के लिए काफ़ी नहीं रहती. भिक्षु विशाल प्रतिमाओं पर सोने और पत्थर के रंगों से बारीक चित्र गढ़ते हैं. बुद्ध जीवन की घटनाएं. मंदिर की दीवारों, छतों पर.

दूर- दूर तक किसी की सोच में नहीं कि एक दिन ये सब विश्व धरोहर बनने वाला है. लद्दाख का आल्ची, तिब्बत का ज्ञान्तसे कुम्बुम, इंडोनेशिया का बोरोबुदूर. श्रीलंका, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम.

मनुष्यों के मन को इतना आंदोलित शायद ही किसी और मानवीय उपस्थिति ने किया हो, ईसा और पैगंबर ने भी नहीं.


 

बाद में जापान के जेन में इस न्यूनतावाद का चरम उत्कर्ष मिलता है. जापानी घरों में कम से कम सामान, ज़ेन कविता या कथा में कम से कम शब्द. केवल संकेतक जिन्हें भरने-सुनने का काम स्वयं समझने वाला करे.

ज़ेन मंदिर जहाँ बगीचे में दो या तीन चट्टान के टुकड़े रखे रहते हैं. बिना किसी योजना के. लोग सारा-सारा दिन उनके गूढ़ अर्थ की पहेली बुझाते खड़े रहते हैं, कभी इस कोण कभी उस कोण से देखते हुए.

विधाता की पहेलियाँ जो मनुष्य के सब रास्तों पर बिखरी पड़ी हैं.


 

बुद्ध ने संसार का घाव पहचाना था. फिर उसे भरने का उपक्रम किया था. कविता घाव के साथ-साथ चलती उससे पार पाने की कोशिश करती है.

संसार में आसक्ति से बचा जा सकता है, मानवीय ऊष्मा से नहीं. इसी में परीक्षा है, जीवन का अर्थ भी.

जीवन भर बुद्ध प्राणियों की महत्ता और क्षुद्रता से घिरे रहे. मदमत्त हाथी उनके पैरों में लोट गया था, बंदर उन्हें शहद भेंट करने आया था, बच्चे का शव लिए विक्षिप्त किसा गौतमी उनके पास पहुँची थी. अंगुलिमाल जब भिक्षा मांगने जाता उसे पत्थर पड़ते. श्रावस्ती में उसकी कुटिया बुद्ध ने भीतर की ओर बनवाई थी कि उसे लोगों के क्रोध से बचाया जा सके.

बौद्ध वांगमय उनके मनुष्य से मनुष्यतर होने का अभिलेख है. संकेतक भी.

हर मनुष्य को अपना दलदल स्वयं पार करना है – साधना हो, लेखन या कला कर्म.

क्या आज हम कल्पना कर सकते हैं, बुद्ध का भी अनादर हुआ होगा? उन पर व्यभिचार का दोष लगा होगा? किसी कुंज- कुटिया में ध्यान करते समय उसके स्वामी ने उन्हें वहाँ से जाने को कहा होगा?

सत्य पा लेना एक बात है, हर दिन उसे जीवन की परीक्षा में उतारना बिल्कुल दूसरी.

समस्त जीवन भिक्षु संघ, कुटुम्बियों, स्थानीय राजाओं, साधारण मनुष्यों के असाधारण दुखों का निदान करते, ईर्ष्यालु षड्यंत्रों से अविचल उनका बिंब शायद इसीलिए आज भी हमारे दिल में इतना उज्ज्वल है.

मनुष्यतर होते हुए भी मूलत: और अनिवार्यत: एक मनुष्य. केवल अपनी आभा से आभासित. जन्म दर जन्म अपनी बेहतर प्रति बनने का स्वप्न देखता मनुष्य, स्वप्न देखती कविता.

(साखी द्वारा दिनांक 22 मार्च 2025 को पटना म्यूज़ियम में आयोजित परिचर्चा के लिए लिखा गया.)

गगन गिल
एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (२०१८). कविता संग्रह  तथा  अवाक् (2008), देह की मुँडेर पर (2018) और इत्यादि (2018) आदि  गद्य-कृतियाँ प्रकाशित.

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति पुरस्कार (1989), केदार सम्मान (2000), आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम द्वारा आमंत्रित (1990), हारवर्ड यूनिवर्सिटी की नीमेन पत्रकार फैलो (1992-93), संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो (1994-96), साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादमी – 2009), द्विजदेव सम्मान (2010). 2024 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार आदि से सम्मानित.

ई-मेल : gagangill791@hotmail.com

Tags: 20252025 आलेखगगन गिलबुद्ध
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Comments 9

  1. P Raj Singh says:
    3 months ago

    बहुत सुंदर ।
    23.03.25 को बिहार संग्रहालय में बुद्ध की धरती पर कविता 6 के आयोजन में जब गगन जी इसका पाठ कर रही थीं तो बहुत कुछ छूट गया था ।
    अदभुत लेख है ।

    Reply
  2. Manjula Rana says:
    3 months ago

    अरुण देव जी और उनका आकलन बेमिसाल है। बहुत बहुत ज्ञानवर्धक लेख प्रतिदिन ऊर्जा बनाए रखते हैं, मंगल कामनाएं स्वीकार कीजिए।

    Reply
  3. Poonam Sinha says:
    3 months ago

    गगन गिल का गद्य भी कविता की तरह मोहक वितान रचते हुए पाठकों के लिए स्पेस छोड़ता चलता है।

    Reply
  4. Usha Kumari says:
    3 months ago

    बिहार दिवस पर बिहार संग्रहालय में दिनांक 22.03.25 को आयोजित कार्यक्रम ‘बुद्ध की धरती पर कविता’ में गगन गिल जी का वक्तव्य सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। जीवन की गरिमा को देख सकने की दृष्टि थोड़ी और स्पष्ट हुई। आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख गगन गिल जी की शांत और स्थिर आवाज से वातावरण समृद्ध हो गया। ‘जो सुंदर है,वह भंगुर है।जो असुंदर है,वह भी भंगुर है!’

    Reply
  5. Dr. Usha Kumari says:
    3 months ago

    बिहार संग्रहालय में आयोजित कार्यक्रम ‘बुद्ध की धरती पर कविता’ में ‘बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि’ विषय पर गगन गिल जी का वक्तव्य सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ।आज समालोचन पर यह आलेख पढ़ रही हूं तो उसकी गहराई महसूस कर रही हूं।गगन गिल जी को सुनने का आनंद अलग है। सुजाता के प्रसंग से वाकई यह सच सामने आता है कि बुद्ध को और बुद्ध की छवि दोनों को स्त्रियों ने गढ़ा है।

    Reply
  6. deepak sharma says:
    3 months ago

    Thank you,Arun Deb ji,for presenting Gagan Gill’s profound understanding of Buddha ‘ s philosophy of shunyavad and his understanding of suffering and its alleviation through compassion and expressing it in her inimitable, mesmeric style.
    Warm regards to you both
    Deepak Sharma

    Reply
  7. राजाराम भादू says:
    3 months ago

    गगन जी ने दरअसल दर्शन, कविता और सौंदर्य के सहसंबंध की मीमांसा की है। इस मीमांसा के सूत्रीकरण सुभाषितों में प्रतिफलित हैं। हमारे वर्तमान में कविता दर्शन से दूर जा रही है जबकि कलाओं के लिए जरूरी सौंदर्यबोध में दर्शन अन्तर्निहित होता है। ऐसे में यह आलेख संकेतों की अनिवार्य महत्ता को संकेतित करता है।

    Reply
  8. Ashutosh Dube says:
    3 months ago

    यह कोई वह एक जगह जहाँ कविता की धारा में दर्शन बहता है या दर्शन के प्रवाह में कविता के सूत्र कौंधते हैं। बुद्ध की प्रशांत, द्युतिमान उपस्थिति में न्यूनतम की सिद्धि की ओर बहता हुआ गद्य । इसकी हर पंक्ति में कवि का ऐसा निजी हस्ताक्षर है जो बुद्ध-वातावरण के सान्निध्य से उपलब्ध हुआ है।

    Reply
  9. Sawai Singh Shekhawat says:
    3 months ago

    गगन बुद्ध दर्शन को चीन्हती ही नहीं बल्कि जीती हैं।यहाँ भी बुद्ध के जीवन दर्शन को जिस सरल व सहज ढंग से उन्होंने परिभाषित किया है वह अप्रतिम है।बुद्ध की देशना, उनका जीवन जगत के प्रति न्यूनतावाद का ज़रूरी दर्शन सुंदर एवं भंगुर के प्रति उनका सम भाव,
    उनकी करुणा, उनका जागतिक निष्क्रमण सबको सहेज कर चलती हैं गगन जी।

    Reply

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