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Home » चरथ भिक्खवे : रमाशंकर सिंह

चरथ भिक्खवे : रमाशंकर सिंह

ब्रह्मांड ही यात्रा पर है. गंगा की तरह बहता रहता है आकाश. जैसे यात्रा स्वभाव हो. मनुष्य की सभ्यता यात्राओं से निर्मित हुई है. ज्ञान की यात्रा भी. बुद्ध के पदचिह्न ज्ञान और करुणा के भी चिह्न हैं. इन रास्तों पर चलना बुद्ध को जानना और पहचानना है. रमाशंकर सिंह का लेख भी यही करता है. सहजता से वह बुद्ध विचार-यात्रा पर आपको लिए चलते हैं. सदानंद शाही लेखक-मित्रों के साथ ‘चरथ भिक्खवे’ के अंतर्गत बौद्ध-परिपथ की यात्रा 15 अक्तूबर से प्रारम्भ कर रहे हैं. इसमें शामिल होने के लिए आप उनसे सम्पर्क कर सकते हैं. यह लेख प्रस्तुत है.

by arun dev
October 14, 2024
in आलेख
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चरथ भिक्खवे : रमाशंकर सिंह
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चरथ भिक्खवे
रमाशंकर सिंह

मनुष्य के बनने की कहानी अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है. उसकी वर्तमान भौतिक और वैचारिक उपलब्धियाँ यात्राओं की देन है. यात्राओं के क्रम उसने पानी के बेहतर स्रोत और खाने योग्य सामग्रियाँ खोजीं. एक जगह से दूसरी जगह तक जाने और रात में अपने डेरे पर लौट आने या जहाँ शाम हो जाए, वहीं डेरा बना लेने की प्रवृत्ति ने उसकी दुनिया बदल दी. प्रत्येक दिन वह पिछले दिन से ज्यादा चलने लगा. धीरे-धीरे उसके चलने में एक सलीका आ गया. चलना, फिर सुस्ताना और फिर चल पड़ना– इसने यात्रा के शिल्प को जन्म दिया. इसने अछूती धरती पर चारों तरफ़ रास्ते बनने शुरू हुए. इन रास्तों पर मनुष्य ने अकेले में और समूह में चलना सीखा. समूह में चलने के कारण उसके अंदर का भय निकल गया. उसके जीवन में मनुष्य होने का सहज सामूहिक उल्लास आया.

इस सामूहिकता के कारण गीत, कविता और गाथाओं ने जन्म लिया. मनुष्य ने रास्ता काटने के लिए, रात में नींद आने के लिए, अपने शिशुओं को सुलाने के लिए, सूरज-चाँद-सितारों, बारिश-धूप-शीत, सुबह और शाम के जादू में अपनी आस्था प्रकट करने के लिए भाषा की खोज की. प्रेम, युद्ध, नैराश्य, जलन और सौहार्द्र को व्यक्त करने के लिए उसे भाषा की ज़रूरत पड़ी. और यह सब उसने आश्रय की जगहों और यात्राओं में खोजा. यात्रा ने मनुष्य को चौपाये जीव से सोचने-समझने और तर्क करने वाले इंसान में बदल दिया. भाषा समृद्ध हो रही थी. इस सबने मनुष्यों को अपने समूह के अंदर और दूसरे समूहों से संवाद करने और असहमत होने के लिए प्रेरित किया. यात्रा ने मनुष्य के अंदर सबसे शानदार गुण यानी सीखने की कला का विकास किया. वह अपने सीखे हुए को न केवल याद रखने में कामयाब होने लगा बल्कि उसे दूसरों को बताने में भी कामयाब हुआ. इसके कारण सयाने और ज्ञानी मनुष्य का विकास हुआ. उन्होंने अलग-अलग समूहों और संस्कृतियों के लोगों को आपस में जोड़ दिया. मनुष्यता आगे बढ़ी.

वास्तव में, आज की दुनिया को यात्रियों ने ही बनाया है. मानवता के विकास में यात्रा का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. इतिहास में जितने भी महत्त्वपूर्ण युग प्रवर्तक हुए हैं, वे सभी यात्री थे. महावीर स्वामी, ईसा मसीह, मूसा, मुहम्मद साहब, शंकराचार्य, गुरु नानक, महात्मा गांधी और राहुल सांकृत्यायन- ये सभी यात्री थे. उन्होंने न केवल भौगोलिक रूप से यात्रा की, बल्कि दुनिया भर के विचारों और दर्शन की यात्राएँ भी कीं. उसे अपने देश-काल के अनुरूप बनाकर प्रस्तुत भी किया. उनके विचारों ने समाज में जागरूकता, परिवर्तन और सवाल पूछने की प्रवृत्ति को को सम्भव बनाया. गुरु नानक का तो यह कहना था कि अच्छे लोगों को एक जगह लंबे समय तक नहीं ठहरना चाहिए. उन्हें जगह-जगह बिखर जाना चाहिए जिससे समाज में सद्गुणों का विकास हो.

 

महात्मा बुद्ध
जीवन
और
विचार

इन सबमें जो प्रभावशाली और हस्तक्षेपकारी यात्री हुए, वे थे महात्मा बुद्ध. उनका जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व हुआ था. तब उनका नाम सिद्धार्थ हुआ करता था. 29 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने घर, परिवार, और राजसी सुखों का त्याग कर दिया, प्रव्रज्या ग्रहण कर ली. वे सत्य की खोज में एक लंबी और कठिन यात्रा पर निकल पड़े. उन्होंने विभिन्न गुरुओं से शिक्षा ली, गहन तपस्या की, परंतु उन्हें संतुष्टि नहीं मिली. अंततः बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ. इस ज्ञान प्राप्ति के बाद वे ‘बुद्ध’ कहलाए. बुद्ध ने अपनी ज्ञान प्राप्ति के बाद दुनिया को दुखों से मुक्ति का मार्ग दिखाया. ऐसा नहीं था कि बुद्ध के पहले ज्ञानी लोग नहीं हुआ करते थे. उनके पहले बहुत सारे ज्ञानी थे लेकिन उनका ज्ञान अपने लिए था. वे अपने आत्मिक उत्थान के प्रयासरत रहते थे और कठोर साधना करते थे. वे किसी निष्कर्ष पर पहुँच भी जाते थे और उस निष्कर्ष को केवल चुनिंदा लोगों तक सीमित रखते थे. महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान और बोध को सब तक पहुँचाने का निश्चय किया. उन्होंने सबसे पहला उपदेश सारनाथ में दिया, जिसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ कहा जाता है. इस उपदेश में उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन किया. ये मार्ग दुखों से मुक्ति का मार्ग बताते हैं और मानवता के कल्याण के लिए समर्पित हैं. उनके उपदेश करुणा, अहिंसा, और मैत्री पर आधारित थे, जो आज के समाज में अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं.

इसके बाद तो उन्होंने ज्ञान और जीवन अनुभव को सबसे साझा करने के लिए व्यापक यात्राएँ आरम्भ कीं. इसके लिए वे निरंतर चलते रहते थे. और कहा जाता है कि प्रतिदिन पचीस-तीस किलोमीटर तक चलते थे.[1] जब बारिश का महीना आता तो वे एक जगह अगले चार महीने के लिए रुक जाते. इसे वर्षावास कहा जाता है. इस वर्षावास में समाज के विभिन्न समुदायों को बुद्ध एक जगह रुककर उपदेश देते. जहाँ उनका उपदेश होता, वहाँ भारी भीड़ जुट जाती. लोग उनसे सवाल पूछते, वे उन सवालों का जवाब देते थे. उनके पहले कोई सवाल पूछता था तो विद्वान लोग प्रश्नकर्त्ता के सवाल को या तो टाल देते थे अथवा कहते थे कि ज्यादा सवाल न पूछो, नहीं तो तुम्हारा सिर दो भागों में टूट जाएगा. बुद्ध सवालों से नहीं डरते थे. वे बच्चों, स्त्रियों, डाकुओं और राजाओं सबके सवालों का जवाब बहुत आसान भाषा में देते थे. इस प्रकार, उन्होंने अपने समय के भारत को सवाल पूछने वाला भारत बना दिया था. चारों तरफ़ सवाल थे जिनका जवाब लोग माँगते थे और उनका उत्तर बुद्ध या उनके जैसे लोग देते थे. न केवल बुद्ध को ‘बहुश्रुत’ कहा गया है बल्कि बौद्ध ग्रंथों में बहुश्रुत शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के रूप में किया गया है जो संवादी है, सबकी सुनता है, विद्वानों की संगत में रहता है. सुत्तनिपात में कहा गया है :

“जो मनुष्य तेज बहने वाली विशाल नदी में उतरकर धारा के साथ बह रहा है, वह दूसरों को किस प्रकार तार सकता है?॥

उसी प्रकार जिसने धर्म को नहीं समझा है और बहुश्रुतों से अर्थ को नहीं सुना है. बिना स्वयं समझे और शंकाओं को दूर किए वह दूसरों को क्या मिला सकता है ? ॥

जिस प्रकार पतवार और डाँडों से युक्त मजबूत नाव पर चढ़कर चतुर, बुद्धिमान् नाविक उससे और लोगों को भी पार करता है, संयमी बहुश्रुत सांसारिक बातों से अविचिलित रहता है. इसलिए बुद्धिमान्, बहुश्रुत सत्पुरुष की संगति करनी चाहिए, जो अर्थ को समझकर धर्म के अनुसार चलता है. ऐसा वह धर्म को जानकर सुख को प्राप्त करता है.[2]

बुद्ध के वचनों में नदी एक रूपक और ज्ञानमीमांसीय श्रेणी के रूप में बार-बार आती है. उन्होंने लोगों को हमेशा नदी के विपरीत तैरने की सलाह दी. युग के ‘विजेता विमर्श’[3] के साथ जाने के बजाय उन्होंने व्यक्ति को अपनी सत्ता में विश्वास करने और उस पर शांतचित्त से विचार करने की सलाह दी. सम्भवत: इसी कारण उनके न रहने पर बौद्ध भिक्षुओं में लगातार असहमतियाँ पनपीं और बौद्ध धर्म के भीतर ज्ञान के विविध दायरे निर्मित हुए. युग का दबाव तो रहा ही होगा.

बुद्ध के समय में उत्तर भारत में नई-नई समृद्धि आयी थी. हाट-बाज़ार-महल का निर्माण चारों तरफ़ हो रहा था. इसके कारण शहरीकरण बढ़ रहा था. व्यापारियों, सार्थवाहों और धनिकों का वर्ग उभर रहा था. यह वर्ग अपने ही धन से परेशान भी हो उठा था. उसे यह नहीं पता चल रहा था कि इस धन से एक सामान्य जीवन कैसे जीयें. इसके कारण विभिन्न किस्म के तनाव, संघर्ष और हिंसा का जन्म हो रहा था. बुद्ध ने इस सबको अपनी शीतल वाणी से शांत किया. उन्होंने धन कमाने को बुरा नहीं माना लेकिन उसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की सलाह दी. उन्होंने जीवन में साधारणता को महत्त्व दिया. उन्होंने एक भिक्षु के रूप में जीवन में ‘उपयोगी वस्तुओं’ के विचार को सीमित कर दिया. इस कारण धन के एकत्र करने के विचार को थोड़े समय के लिए लगाम लगी. उन्होंने धनिक लोगों से भी निवेदन किया कि वे समाज के कमजोर लोगों की सहायता करें और अपने नौकरों, दासों एवं सहयोगियों के साथ उचित व्यवहार करें.

अपने जीवन काल वे जहाँ भी जाते, वहाँ के लोगों से भोजन और पानी माँगते. यह भिक्षुक भाव बुद्ध और उनके साथियों को समाज से जोड़ देता था. और इसी के साथ समाज के सभी तबके बुद्ध और उनके बनाए हुए संघ से जुड़ जाते. संभवतः बुद्ध ऐसे पहले संन्यासी थे जिन्होंने संन्यास और गृहस्थ के बीच फैली हुई एक चौड़ी खाई को समाप्त कर दिया था. उनकी यात्राओं ने समाज को हर तरह से एकजुट किया और लोगों में आपसी सहयोग और सद्भावना का संचार किया. वास्तव में, जब बुद्ध एक जगह से दूसरी जगह जाते थे तो उनके साथ समाज के हर हिस्से के सदस्य एक जगह से दूसरी जगह जाते. इस तरह से उन्होंने अपने समय के लोगों को शारीरिक और मानसिक रूप से गतिशील कर दिया. कदाचित इसीलिए महर्षि अरविंद ने बुद्ध को इस धरती पर चलने वाला सबसे बड़ा योगी कहा है.

किसी भी समाज में हाड़-माँस के एक सामान्य पुतले के रूप में इतनी प्रतिष्ठा हासिल करना आसान बात नहीं है. यह बात बुद्ध के साथ भी थी. उनका अतीत और वर्तमान उनके समकालीनों को बरबस आकर्षित करता था. भारतीय समाज में घर-बार त्यागकर, घूमने वाले व्यक्ति का हमेशा से आदर और सम्मान रहा है. जो लोग अपने घर से बाहर निकलते हैं, उन्हें समाज में विशेष स्थान मिलता है. लोक इतिहास में राम, सीता, पांडवों और अन्य महापुरुषों की यात्राएँ उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुईं. राम, जो पहले एक साधारण राजकुमार थे, वनवास के दौरान पुरुषोत्तम बने. इसी प्रकार सीता का चरित्र भी वनवास और यात्रा के दौरान और अधिक निखरता है. महाभारत में पांडवों का वन-वन भटकना उन्हें वीर, ज्ञानी, और सहनशील बनाता है.

यात्रा ने उन्हें न केवल भौतिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी समृद्ध किया. इसी प्रकार, शंकराचार्य ने भी पूरे भारत की यात्रा की और देश की विविधताओं को समझा. भक्ति काल के संतों ने भी विभिन्न क्षेत्रों में यात्रा की और समाज में आपसदारी का भाव मजबूत किया. बुद्ध ने इसे लगातार पैंतालीस वर्षों तक किया और समाज की मनोवृत्ति को सकारात्मक रूप से बदलने का प्रयास किया. लोग हिंसा, द्वेष और डाह से परेशान थे ही, वे मृत्यु के शाश्वत डर से भी भयभीत रहते थे. बुद्ध ने अपने सहज वार्तालापों से इसे लोगों के दिल से बाहर निकाल दिया. वे सबके हृदय का इलाज कर देते थे. इसके अलावा उन्होंने अपने साथी भिक्षुकों से कहा कि वे एक दूसरे का खयाल रखा करें. यदि एक बीमार हो तो दूसरा उसका इलाज करें, उसकी सेवा करें. इसलिए महाभिषग यानी सबसे बड़ा चिकित्सक कहे जाने लगे थे. एक उत्तरवर्ती बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर में कहा गया है कि क्लेश की आग से जलते हुए जगत में वे बादल की तरह व्याप गए. उन्होंने अमृत की वर्षा करके मनुष्यों और देवताओं के क्लेशों को शान्त किया.

 

साहित्य, कला
और
संस्कृति में बुद्ध

अपने महापरिनिर्वाण से लेकर अब तक की हमारी दुनिया को रूप देने में महात्मा बुद्ध का योगदान है. उनके जीवन दृश्यों ने न केवल भारत बल्कि एशिया के साहित्य, कला और संस्कृति को गहरे तक प्रभावित किया है. चीन, मंगोलिया, सोवियत संघ का एक बड़ा हिस्सा, तिब्बत, म्यांमार, श्रीलंका और जापान में लेखन कला, व्याकरण, औषधिशास्त्र, चित्रकला, पांडुलिपि निर्माण, वास्तु एवं शिल्प कलाओं के अपूर्व संसार को बुद्ध ने प्रभावित किया है. बुद्ध की प्रतिमाएँ विभिन्न आसनों में मिलती हैं. इसे देखते हुए आप अपने बारे में सोचें तो पाएंगे कि कई बार आप उसी तरह से बैठते हैं, झुकते हैं या खड़े होते हैं. यह भाव भौतिक और आंतरिक स्तर पर भारतीयों में लंबे से चला आया है. धरती के एक बड़े हिस्से में प्रश्न पूछने, उत्तर देने, तर्क करने और उससे ज्ञान विकसित करने की बौद्ध प्रणाली बहुत ऊँचे मुकाम तक पहुँची.

यदि हम अपने आपको भारत तक सीमित रखें तो भी यह बहुत विपुल है. जगह-जगह स्तूप, बौद्ध मठ, विश्वविद्यालय स्थापित हुए. मथुरा और गांधार में बौद्ध कला के बड़े केंद्र स्थापित हुए. वहाँ से शिल्पकारों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षण मिला. वे पूरे देश में फैल गए.  अजन्ता जैसी विश्वप्रसिद्ध चित्रकारी के केंद्र में बुद्ध और उनका जीवन था. पश्चिमी भारत में चैत्यों और विहारों की एक अंतहीन शृंखला स्थापित हो गयी थी. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि स्तूप ईंट और पत्थर का ढेर मात्र न था, वह तो महापुरुष का दिव्य मूर्त रूप था…. भरहुत, साँची, अमरावती और नागार्जुनकोंड के बड़े स्तूप मामूली घटना न थे. उनके पीछे सैकड़ों वर्षों की शिल्प परम्परा, सैकड़ों लोक विश्वास, असंख्य धन और जनता की सम्मिलित धार्मिक भावना छिपी हुई थी.[4]

Ajanta cave 17,

बुद्ध के जीवन और उसमें चर-अचर के लिए समाहित अहिंसा, करुणा और मैत्रीभाव ने भारत की जनता को एक रचनात्मक आत्मविश्वास दिया. जातक कथाएँ और अश्वघोष की रचनाएँ बुद्ध के कारण सम्भव हो सकीं. जातक कथाएँ तो अद्भुत हैं. उनके दृश्य स्तूपों पर उकेरे गए, उनके आधार पर अजंता की गुफाओं में चित्रकारी हुई. इस प्रकार साहित्य, कला, वास्तुकला सब कुछ एक बुद्धभाव में समाहित हो गया था. अजंता की गुफा संख्या 17 में वह दृश्य अंकित है जब सिद्धार्थ संन्यासी बुद्ध होकर वापस राजमहल आए हैं और अपनी पत्नी से भिक्षा माँगते हैं. उनकी पत्नी राहुल को ही आगे कर देती हैं. राहुल ने बुद्ध की संघाटी पकड़ रखी है, यशोधरा ने दोनों हाथों से राहुल को पकड़ रखा है. गुलाम याजदानी ने लिखा है कि यशोधरा जिस नज़र से बुद्ध को देख रही हैं, उसमें प्रेम पहले है, श्रद्धा उसके बाद.[5] इस चित्र में बुद्ध को काफ़ी ऊँचा दिखाया गया है और उनकी अपेक्षा उनकी पत्नी और बेटे को मानवीय ऊँचाइयों तक सीमित कर दिया गया है.

नागार्जुन (दूसरी शताब्दी ईस्वी सन), आर्यदेव (तीसरी शताब्दी ईस्वी सन), असंग (320- 390 ईस्वी सन), वसुबंधु (चौथी, सम्भवत: पाँचवी शताब्दी ईस्वी सन), बुद्धपालित(470-540 ईस्वी सन), दिग्नाग (480-540 ईस्वी सन) और  भावविवेक ( 500-570 ईस्वी सन) जैसे प्रतिष्ठित बौद्ध दार्शनिकों ने एशियायी ज्ञान मीमांसा के निर्माण में बहुत योगदान दिया है. और भला कुमारजीव को कौन भूल सकता है? कुमारजीव (344 ई – 413 ई) बौद्ध भिक्षु थे और वे चीन में जाकर बस गए थे और उन्होंने वहाँ पर संस्कृत के 54 बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया था.

और हमारे बिलकुल निकट वर्तमान में मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल और कुँवर नारायण ने बुद्ध, उनके समय, जीवन प्रंसगों और बौद्ध बुद्धिजीवियों के जीवन पर साहित्य रचना की है. रामचन्द्र शुक्ल ने लाइट ऑफ़ एशिया का अनुवाद किया था. स्थानाभाव के कारण हम यहाँ उन सब पर नहीं लिख रहे हैं लेकिन यह जरुर कहा जा सकता है कि बुद्ध ने हमें चहुँओर से मनुष्यतर बनाया है.

 

हमारे समय
में
बुद्ध

अपनी तमाम बुराइयों के बावजूद ब्रिटिश शासन के भारत बौद्ध स्थलों की खुदाई और उनका पुनरुद्धार शुरू हुआ. जगह-जगह से बुद्ध और बौद्ध प्रतीक सामने आए. शानदार स्तूप लोगों के सामने आकर खड़े हो गये. इसी दौर में सम्राट अशोक के शिलालेख पढ़े गए और पाया गया कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में अशोक ने बौद्ध धर्म को खास तौर पर महत्त्व दिया था. सम्राट ने हिंसा की नीति छोड़ दी और ‘धम्म’ की सामाजिक एवं नैतिक संहिता पालन करने की घोषणा की. इस दौरान खोजे गए साँची और धमेख के स्तूपों ने ब्रिटिश शासन और राष्ट्रीय नेताओं में बौद्ध धर्म में गंभीर रुचि पैदा की. इसी समय खुदाई में जो मूर्तियाँ मिलीं, उनसे यूरोप के संग्रहालय बुद्ध की नाना किस्म की मूर्तियों भर गए. यूरोप के प्रशासक-विद्वान बुद्ध की मूर्तियों, उनके जीवन-स्थलों से प्राप्त अवशेषों और उनके शिष्यों से संबंधित सामग्रियों को एक उपलब्धि के रूप में प्रदर्शित करते देखे जाने लगे. बुद्ध के प्रति दीवानगी का आलम यहाँ तक पहुँचा कि 1898 में एम. फ़ूचर ने भारत के वाइसराय से इस आशय की अनुमति माँगी कि वे नेपाल जाकर बुद्ध के जन्म से सम्बन्धित स्थलों का निरीक्षण करना चाहते हैं और उनकी खुदाई करके, संग्रह को यूरोपीय संग्रहालयों को भेजना चाहते हैं. वास्तव में यह कहानी बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी जब 1830 के दशक में कनिंघम ने बुद्ध के दो शिष्यों महामोग्गलायन और सारिपुत्र के अवशेष खोज निकाले थे.

लालच, युद्ध और सम्पत्ति के विधिक जाल में खप रही युरोपीय जनता को बुद्ध के चरित ने बहुत तेजी से आकर्षित किया. 1879 में एडविन एर्नोल्ड ने बुद्ध का जीवनचरित ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ लिखा और यह कृति भारत सहित दुनिया भर में बड़ी तेजी से प्रसिद्ध हुई. जयराम रमेश ने अपनी किताब ‘लाइट ऑफ़ एशिया : पोएम दैट डिफाइंस द बुद्धा’ में इस प्रसिद्ध कृति के लिखे जाने की आधारभूमि और उसके भारत के सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव की एक सुव्यवस्थित विवेचना बड़े ही गहन शोध के बाद प्रस्तुत की है.[6] हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने बुद्ध को बहुत ऊँचे पायदान पर रखा था.

‘लाइट ऑफ़ एशिया’ महात्मा गाँधी की पसंदीदा किताबों में थी और बुद्ध से उनका परिचय विलायत में हुआ जब वे थिओफिस्ट आंदोलन के सम्पर्क में आए. उस समय महात्मा गाँधी ने बुद्ध को ईसा मसीह के समकक्ष रखकर प्रस्तुत किया था. आधुनिक युग के महात्मा को अपने से 2500 बरस पहले हुए महात्मा की करुणा बहुत आकर्षित करती थी. इस प्रकार बुद्ध ने गाँधी को एक बहुत ही लंबी ऐतिहासिक शृंखला में जोड़ दिया था. वे कहते थे कि बुद्ध की करुणा न केवल मनुष्यों तक बल्कि सभी जीव-जंतुओं तक व्यापी थी. बाद में जब गाँधी ने भारत के सार्वजानिक जीवन में प्रवेश किया तो उन्होंने बुद्ध को कहीं अधिक राजनीतिक और व्यवहारिक अर्थों में समझना आरम्भ किया. गाँधी ने अपनी सर्वधर्म सद्भावना के मुहावरों में बुद्ध को मुहम्मद साहब, राम, कृष्ण और जनक के साथ लगातार उद्धृत किया है.

यदि कोई गाँधी के सम्पूर्ण वांगमय को देखे तो पाएगा कि वे बुद्ध को करुणा, अहिंसा, बहादुरी और सच्चाई के प्रतीक के रूप में न केवल खुद देखते थे बल्कि उन्हें इसी रूप में भारतीय जनमानस के समक्ष रख रहे थे. व्यवहारिक अर्थों में गाँधी ने बुद्ध से चंदा लेने की आदत भी सीखी. उनका यहाँ तक कहना था कि बुद्ध ने बड़ी मात्रा में उन धनिकों की मदद न ली होती जो उनके चरणों में अपनी आत्मा, बुद्धि और शरीर को अर्पित कर देते थे, तो वे बड़ी संस्थाएँ भला कैसे खड़ी करते?[7] वास्तव में भारत का राष्ट्रीय आंदोलन बहुत कुछ वित्तीय रूप से धनिकों पर आश्रित होता गया था और लोगबाग इसकी आलोचना भी कर रहे थे और एक समय आया जब गाँधी ने इसका जवाब भी दिया. व्यक्तिगत स्तर पर गाँधी बुद्ध की कायिक और मानसिक छवियों को भी यदाकदा प्रकट करते रहते थे.

एक बार कवि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनकी तुलना बुद्ध से की और कहा कि जैसे बुद्ध “क्रोध को अक्रोध से, बुराई को अच्छाई से’ जीतते थे, वैसा ही काम गाँधी कर रहे थे. इस प्रकार बुद्ध और गाँधी के बीच एक साम्य देखा जा रहा था. हमें आज गाँधी की पुनर्खोज करनी है. उनकी बाहरी चीजों पर चर्चा तो होती है लेकिन बुद्ध की तरह उनके द्वारा पोषित-पल्लवित मूल्य हमारे जीवन में कहीं पीछे चले गए हैं.

इस क्रम में हमें उन विद्वानों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने महात्मा बुद्ध को समझने, उनके जीवन, विचार और ग्रंथों को प्रकाश में लाने के लिए अपनी जान लड़ा दी. इनमें धर्मानंद कोसंबी, आचार्य नरेंद्र देव और राहुल सांकृत्यायन का नाम सर्वप्रमुख है. धर्मानंद कोसंबी(1876-1946) का हम सब पर ऋण है. उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था कि महात्मा बुद्ध के संदेशों को आम जन तक पहुँचाया जाए. इसके लिए उन्होंने अपने जन्म स्थान गोवा से ग्वालियर बनारस, नेपाल, बोध गया, अमेरिका और सोवियत संघ की यात्रा की. और अंत में श्रीलंका गए. उन्होंने बौद्ध धर्म के कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का सम्पादन किया जिसमें सबसे प्रमुख ‘विसुद्धिमग्ग’ है. लेकिन उनका सर्वप्रमुख और लोककल्याणकारी ग्रंथ ‘भगवान बुद्ध : जीवन और दर्शन’ है. मुख्यतया पाली स्रोतों के आधार पर लिखा गया यह पहला प्रामाणिक ग्रंथ है जिसके द्वारा आज़ाद भारत में लोगों को बुद्ध का प्रामाणिक जीवन चरित मालूम पड़ा बल्कि वे उनकी व्याख्या से अवगत हुए. महात्मा बुद्ध की गृह-त्याग की घटना की उन्होंने नवीन व्याख्या प्रस्तुत की. कोसंबी लिखते हैं कि :

इस प्रकार बोधिसत्व की प्रव्रज्या के लिए साधारणतया तीन कारण दिये गए हैं-

(1) अपने आप्तों द्वारा एक-दूसरे से लड़ने के लिए शस्त्र धारण किये जाने से उन्हें भय लगा,
(2) घर अड़चनों और कूड़े-कचरे की जगह है ऐसा लगा, और
(3) ऐसा लगा कि स्वयं जन्म, जरा, मरण, व्याधि और शोक से सम्बद्ध होते हुए उसी प्रकार की वस्तुओं पर आसक्त होकर नहीं रहना चाहिए. इन तीनों कारणों की संगति बिठाई जा सकती है.

बोधिसत्व के जातिबन्धु शाक्यों और कोलियों में झगड़े खड़े हुए तो उस समय उनके सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि उनमें वे शरीक हों या नहीं. उन्होंने यह जान लिया कि मार पीट से ये झगड़े खत्म नहीं होंगे. परन्तु यदि उनमें वे भाग न लेते तो लोग उन्हें डरपोक कहते और उन्होंने गृहस्थ-धर्म का पालन नहीं किया, ऐसा समझा जाता. इससे उन्हें गृहस्थाश्रम बाधा रूप प्रतीत होने लगा. उससे तो संन्यासी बनकर निरपेक्ष रूप से जंगलों में घूमते रहना क्या बुरा था? परन्तु अपनी पत्नी एवं पुत्र से उन्हें बहुत प्रेम होने के कारण गृह-त्याग करना बहुत कठिन था. अतः उन्हें और अधिक सोचना पड़ा. उन्हें ऐसा लगा कि मैं स्वयं जाति-जरा-व्याधि-मरण-धर्मी हूँ, अतः इसी स्वभाव से बद्ध पुत्र-दारादि पर आसक्त होकर अड़चनों और कूड़े-कचरे के इस गृहस्थाश्रम में पड़े रहना उचित नहीं है. इसलिए वे परिव्राजक बन गए. इन तीनों कारणों में मुख्य कारण था शाक्यों और कोलियों के लड़ाई- झगड़े. इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखने से बोधिसत्व द्वारा आगे चलकर बुद्ध होकर खोज निकाले गए मध्यम मार्ग का अर्थ ठीक समझ में आ सकेगा.[8]

ध्यान रखें यह बात 1910 में कही जा रही है. इस व्याख्या ने भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म की सामाजिकी को ठीक ढंग से देखने में मदद की.[9] दूसरे बड़े विद्वान और यात्री राहुल सांकृत्यायन थे. आप देखिए कि एक प्राचीन यात्री यानी महात्मा बुद्ध ने आधुनिक युग में यात्रियों की एक नवीन शृंखला ही प्रस्तुत कर दी. महात्मा बुद्ध का जीवन इतना  आकर्षक है कि उससे विद्वान, संन्यासी और गृहस्थ बच नहीं पाते हैं. कोई उनके बारे में थोड़ा सा जान पाता है तो वह स्वभावतः ज्यादा जानने की कोशिश करता है. उसे लगता है कि महात्मा बुद्ध और उनके विचार उसका जीवन और जीवन के उद्देश्य को बदल सकते हैं. इस बात ने धर्मानंद कोसंबी को भी प्रेरित किया था. कोसंबी मानते थे कि बौद्ध विचार पद्धति की बुनियाद में जो दार्शनिक जीवन-दृष्टि है, उसे अपनाकर एक बेहतर समाज बनाया जा सकता है.

राहुल सांकृत्यायन (1893–1963) ने यात्रा के लोभ में ही अपना घर छोड़ा था. सोलह साल की कच्ची उम्र में वे घर छोड़कर कोलकाता भाग चले गए और संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू जैसी भाषाओं का गहन अध्ययन किया. उन्होंने भारत के विभिन्न धार्मिक स्थलों की यात्राएँ कीं और ज्ञान की खोज में लगे रहे. राहुल सांकृत्यायन की यात्रा महज भारत तक सीमित नहीं रही, उन्होंने नेपाल, श्रीलंका, जापान, रूस, और तिब्बत जैसे देशों की यात्राएँ कीं. इन यात्राओं ने उन्हें बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद से परिचित कराया. वे तिब्बत कई  बार गए और वहाँ से पांडुलिपियों, चित्रों और थंकों की जैसी महत्वपूर्ण बौद्धिक धरोहरों को लाते रहे. 1930 में उन्होंने ‘बुद्धचर्य्या’ नाम से बौद्ध धर्म पर अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित की. इसके बाद तो आजीवन बुद्ध से सम्बन्धित ग्रंथों की खोज, अनुवाद और सम्पादन के काम में लगे रहे. उधर भारत की आज़ादी की लड़ाई चल रही थी. वे जेल भी गए. धर्मानंद कोसंबी को भी 1930 में जेल जाना पड़ा था. और राहुल को तो लाठी भी खानी पड़ी और जेल गए. इस तरह आज़ादी की लड़ाई, बौद्ध धर्म और मनुष्य की मुक्ति जैसे एकमेक हो गए थे.

आधुनिक भारत में इसकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण परिणति डॉ. बी. आर. अंबेडकर द्वारा अपने दो लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर 1956 में बौद्ध धर्म अपनाना था. इस समय राहुल सांकृत्यायन ने अपने पर्चे ‘नव-दीक्षित बौद्ध’ में लिखा कि

“इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबासाहेब अंबेडकर ने भारत में एक बौद्ध पुनर्जागरण जन-आंदोलन की पहल करके देश की महानतम सेवा की है. इतिहास उन्हें इस अनूठी भूमिका के लिए कभी नहीं भूलेगा.”

उन्होंने यह भी लिखा कि

“बौद्ध धर्म केवल पद दलित लोगों के उत्थान के लिए ही आवश्यक नहीं है, इसके पुनरुत्थान से देश का भी बहुत भला होगा क्योंकि इससे उन पवित्र बौद्ध स्थलों के गौरव को लौटाने में मदद मिलेगी जिन्हें अभी तक केवल संग्रहालय (म्यूज़ियम) की वस्तुएँ समझा जाता था.”

वास्तव में, डॉ. भीमराव आंबेडकर ने महात्मा बुद्ध के संदेश को मैत्री, करुणा और सामाजिक समानता के संदर्भ में देखा था. आधुनिक भारत में महात्मा बुद्ध उनके लिए एक मानवीय धर्म की तलाश का केंद्र बिंदु थे. उन्होंने कहा कि

“बंधुता, स्वतंत्रता और समता यह तीन शब्द थे जिनके कारण फ़्रांसीसी क्रांति का स्वागत हुआ था. लेकिन इसने समानता नहीं पैदा की. हम रुसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि यह समता पैदा करना चाहती है लेकिन इस बात पर ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता है कि समता के लिए समाज बंधुता और स्वतंत्रता का परित्याग ही कर दे. बंधुता या स्वतंत्रता के बगैर समता का कोई मूल्य ही नहीं होगा. ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों एक साथ तभी रह सकते हैं जब कोई महात्मा बुद्ध के बताये रास्ते पर चले.”

डॉ. अंबेडकर के लिए महात्मा बुद्ध एक नवीन प्रकार के समाज के निर्माण के लिए जरुरी लगते थे. उन्होंने महात्मा बुद्ध की तुलना कार्ल मार्क्स से भी की थी और महात्मा बुद्ध को भारत के लिए बेहतर पाया था. उन्होंने महात्मा बुद्ध के मैत्री के विचार को पूरी दुनिया के लिए आदरणीय माना था. उन्होंने महात्मा बुद्ध को उद्धृत करते हुए लिखा कि बुद्ध चाहते थे कि मनुष्य केवल करुणा पर ही न ठिठक जाए बल्कि वह मनुष्यता से आगे जाते हुए सभी जीवित प्राणियों के लिए अपने अंदर मैत्री का भाव जगाए.” [10]

इसी के साथ हमें यह भी जानना चाहिए कि देश की आज़ादी के पहले दशक में महात्मा बुद्ध ने भारत को गहरे तक प्रभावित किया था जिसकी झलक देश के सार्वजनिक जीवन में देखने को मिली. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए महात्मा बुद्ध का जीवन संदर्भ व्यापक अर्थ ग्रहण करता था. उन्होंने महात्मा बुद्ध और उनके द्वारा प्रणीत बौद्ध धर्म को बड़ी आशा भरी नज़रों से देखा था. ‘आल बंगाल स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस’ में 22 सितम्बर 1928 को जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि महान लोग हमेशा यथास्थिति के ख़िलाफ़ रहे हैं. पचीस सौ वर्ष पूर्व बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में सामाजिक समता की बात की, पौरोहित्यिक विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया. वे उन लोगों के नेता थे जो अपना शोषण करने वालों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे. उसके बाद एक महान शख़्सियत ईसा आए और फिर उसके बाद एक और महान शख़्सियत मुहम्मद साहब आए जिन्होंने हर उस चीज को तोड़कर रख दिया जो उन्हें विरासत में मिली थी. इसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखा :

“कमल के फूल पर शान्ति और दृढ़, हसरतों और दुनियावी ज़रूरतों से परे, इस दुनिया के अंधड़ और जद्दोजहद से से दूर, वह इतने दूर दिखाई पड़ते हैं कि जैसे वे हमारी पहुँच से बाहर हों….. ज़माने बीत जाते हैं बुद्ध हमसे बहुत दूर के नहीं जान पड़ते हैं.”[11]

इसी तरह जब भारत की संविधान सभा का गठन हुआ तो देश के लिए एक राष्ट्रीय झंडे की आवश्यकता महसूस की गयी जिसे सर्व-सहमति से स्वीकारा जा सके. इस दिशा में संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को राष्ट्रीय झंडे का प्रस्ताव पास किया और कहा गया कि

“हमारे दिमागों में अनेक चक्र आये पर विशेषकर एक प्रसिद्ध चक्र जो कि अनेक स्थानों पर था और जिसको हम सब ने देखा है- अशोक की प्रमुख लाट के सिरे पर का तथा अन्य स्थानों का चक्र. वह चक्र भारत की प्राचीन सभ्यता का चिह्न है- वह और भी अनेक बातों का प्रतीक है जिनको इस काल में भारत ने अपनाया. [12]”

जब महात्मा बुद्ध की दो हजार पाँच सौंवी जयंती मनाई जा रही थी तो उस समय देश के हर हिस्से में महात्मा बुद्ध को लेकर बहुत से कार्यक्रम हुए थे. इस बात का ध्यान रखा गया था कि महात्मा बुद्ध से संबंधित जो भी स्थल पूरे भारत में मौजूद थे, उनका पुनरुद्धार किया जाए, उन पर चर्चा हो. इस समय बोधगया, बराबर की गुफाएँ, साँची, राजगीर, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकिसा और नालंदा जैसे स्थलों के जीर्णोद्धार और सुंदरीकरण के लिए 63,68,600 रूपये की एक बड़ी धनराशि मंजूर की गयी थी. यह कार्यक्रम भारत सरकार कर रही थी और इसमें बनारस की महाबोधि सोसाइटी बहुत ही सक्रिय रूप से शामिल थी और सारनाथ से संबंधित कामकाज में संयोजक की भी भूमिका में थी. यह एक ऐसा कार्यक्रम था जिसमें न केवल पूरे देश के बल्कि विदेशों के बौद्ध भिक्षु रूचि ले रहे थे.

महात्मा बुद्ध के संदेशों के अनुरूप कहा गया था कि इसके समारोहों में सभी धर्म, जाति और विश्वासों के लोग शामिल हों. राजगीर के बौद्ध मंदिर के बौद्ध भिक्षु ग्यात्सो तासु ने इस आशय का एक संदेश भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा था.[13] बर्मा, सीलोन, थाईलैंड, कम्बोडिया, लाओस, कोरिया, वियतनाम के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता भेजा गया. दलाई लामा तो थे ही.

 

इस यात्रा
का
प्रयोजन क्या है?

इस यात्रा का प्रयोजन है कि हम उन रास्तों पर चलें जिन पर आज से लगभग ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध चले थे. इस वाक्य का दो अर्थ है- एक भौतिक अर्थ है और दूसरा आत्मिक अर्थ है. पहले भौतिक अर्थ पर बात करते हैं. महात्मा बुद्ध के ही जीवन में सारनाथ, बोधगया, लुम्बिनी और श्रावस्ती जैसे स्थल बहुत प्रसिद्ध हो गए थे. यहाँ पर आने-जाने वाले लोगों का ताँता लगा रहता था. इन स्थानों से देश के प्रमुख व्यापारिक मार्ग, नगर और गाँव जुड़े हुए थे. हमें उस रास्ते पर जाकर देखना चाहिए कि शास्ता और उनके साथियों ने किस प्रकार यात्रा की होगी. इसके अलावा इस यात्रा का एक आंतरिक पक्ष है. हमें उन सद्गुणों, मूल्यों और विचारों को फिर से आत्मार्पित करना होगा जिनका उपदेश महात्मा बुद्ध ने दिया है. हमारी आपसदारी की भावना कहीं खोती जा रही है. आधुनिक समाज में हम एक-दूसरे से संवाद करने, मदद माँगने, और सहयोग करने में हिचकिचाते हैं.

हमें गौतम बुद्ध के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में करुणा और मैत्री का विकास करना चाहिए. आज हम पृथ्वी पर निवास तो करते हैं लेकिन उससे नाता तोड़ लिया है. आप महात्मा बुद्ध की उस मुद्रा की याद करें जिसे ‘भूमि स्पर्श मुद्रा’ कहा जाता है. इस मुद्रा में बुद्ध को शांतचित्त दिखाया जाता है. उनका दाहिना हाथ पृथ्वी को छू रहा होता है. वे मार के प्रलोभनों के बावजूद विचलित नहीं हुए थे- इसकी साक्षी पृथ्वी ने दी थी. यह समय है कि हम पृथ्वी को शांतचित्त होकर छूएँ और अपने आपको उन मूल्यों के लिए समर्पित करने का संकल्प लें जिनकी शिक्षा महात्मा बुद्ध ने दी थी.

 ___________________

सन्दर्भ

[1] राम शरण शर्मा(2018), भारत का प्राचीन इतिहास, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 130
[2] सुत्तनिपात (1983) सुत्तनिपात, मूलपाठ तथा हिंदी अनुवाद, भिक्षु धर्मरक्षित : सम्पादक तथा अनुवादक, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली में नावासुत्त देखिए,  4-8, पृष्ठ 81.
[3] कथाकार नरेश गोस्वामी इस शब्द-बंध को प्राय: प्रयुक्त करते हैं.
[4]  वासुदेव शरण अग्रवाल(1966, पुनर्मुद्रित 2020), भारतीय कला, पृथिवी प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ 5.
[5] गुलाम याज़दानी(1933-55), द कलर एँड मोनोक्रोम रिप्रोडक्शन्स टू द अजंता फ्रेस्कोज बेस्ड ऑन फोटोग्राफ्स एँड एक्सप्लैनेटरी टेक्स्ट (4 खंड),  ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, लंदन.
[6] जयराम रमेश (2021), द लाइट ऑफ़ एशिया : प्वएम दैट डिफाइंड द बुद्धा, पेंगुइन, भारत.
[7] कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी(1971), खंड 48, पब्लिकेशंस डिवीज़न, अहमदाबाद, पृष्ठ 58.
[8] धर्मानंद कोसंबी(2000), भगवान् बुद्ध : जीवन और दर्शन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 86.
[9]  मीरा कोसंबी(2010), धर्मानंद कोसंबी : द इशेंशियल राइटिंग्स, सम्पादक, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, पृष्ठ 36-39 और 414 देखें.
[10] बी. आर. अंबेडकर  (2019), डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एँड स्पीचेज , वोल्यूम 11, डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 297.
[11] जवाहरलाल नेहरू(2010), द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ  132
[12] भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट(2014), लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली,  22 जुलाई 1947 की कार्यवाही. 
[13] 2500 बर्थ डे ऑफ़ लॉर्ड बुद्धा, फ़ाइल नंबर 43-जी/55, प्रेसिडेंट सेक्रेट्रीयेट, जनरल ब्रांच, वर्ष 1955, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली. और भी अधिक जानकारी के लिए देखें : https://samalochan.com/buddha-nehru/#_edn18 

रमाशंकर सिंह डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के देशिक सेंटर में काम करते हैं. उन्होंने 2022 में ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नामक किताब लिखी है, ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया’ के लिए उत्तर प्रदेश की भाषाओं पर बद्री नारायण के साथ सम्पादन का काम किया है, ओरियंट ब्लैकस्वान, 2022. 2023 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के लेखन से एक चुनिंदा संचयन लोकभारती प्रकाशन के लिए सम्पादित किया है और उत्तर भारत के घुमंतू समुदायों पर उनका एक बृहत काम आने वाला है.

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Comments 6

  1. M P Haridev says:
    8 months ago

    बुद्ध के भारतीयों के मानस पर अमिट छाप छोड़ी । यहाँ उल्लेख किया है कि चीन, तिब्बत, बर्मा, सीलोन [अब श्रीलंका], कम्बोडिया तथा मेरे ख़याल से थाइलैंड और इंडोनेशिया और वियतनाम में भी बुद्ध के अनुयायी मिल जाएँगे ।
    I had watched a film Kids Karate 2
    Julie
    In The Next Karate Kid (1994), Julie is a troubled adolescent girl who Mr. Miyagi takes under his wing and teaches karate. Hilary Swank stars in the film.
    They went to a Buddha monastery also.
    आलेख में जैन पंथ के 24वें तीर्थंकर महावीर का ज़िक्र नहीं किया । बुद्ध और महावीर समकालीन थे । महावीर क़रीब 46 वर्ष छोटे थे । उनकी यात्राओं का प्रभाव लोक मानस पर पड़ा । मेरे ख़याल से महावीर के लगातार विहार में रहने के कारण बिहार राज्य का नाम रखा । परंतु लेख में महावीर के अनुयायियों के तीन पंथों का नाम नहीं लिखा । एक-दिगंबर जैन पंथ दूसरा-तेरा पंथ जिसे आचार्य भिक्षु [भिक्खु] ने आरंभ किया तथा तीसरा बाईस टोले । इन तीनों संप्रदायों के अनुयायियों की संख्या अधिक है । बुद्ध के लिये वर्षाकाल कहा गया वैसे ही जैन पंथ के बाक़ी दो संप्रदाय के संन्यासी और साध्वियाँ चातुर्मास करते हैं । कुमार अंबुज ने अपने कविता संग्रह [शायद क्रूरता में साध्वियाँ नाम से कविता लिखी है । और बोध गया गया था । गर्मियों में नंगे पाँव बोधिवृक्ष तक गया । समय लगा । भूख और प्यास भी । बाद में थाइलैंड द्वारा बनाये गये बौद्ध मठ में गया । थक गया । बाहर रेहड़ी पर गन्ने का रस पिया और भर पेट भोजन किया ।
    बोधि वृक्ष के प्रवेश द्वार के सामने रेस्तराँ में कुछ मात्रा में भोजन किया और चाय भी । इसके बाद नालंदा गया । वहाँ एक बूढ़े टूरिस्ट गाइड मिले । वे प्रोफ़ेसर रह चुके थे । छाता ओढ़ कर नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष दिखाने ले गये ।

    Reply
    • Rama Shanker Singh says:
      8 months ago

      मेरा लेख उस विषय पर नहीं था। इसकी अपनी सीमा है। आप कह सकते हैं कि इसमें मक्खलि पुत्र गोशाल का उल्लेख नहीं है। इसमें सैकड़ों अनुपस्थितियाँ गिनाई जा सकती हैं।

      Reply
  2. जय शंकर बाबु छायापुरम says:
    8 months ago

    चरथ भिवखवे यात्रा यह सचल कार्यशाला आरंभ दिन की पूर्व संध्या पर आपका यह महत्वपूर्ण आलेख पढ़ने का सौभाग्य मिला । हाँ, आपने सही कहा कि आलेख के आकार की सीमा को ध्यान में रखते हुए सीमित बातें रखीं । महात्मा बुद्ध की वैचारिकी और प्रदेयों पर यह परिचयात्मक आलेख, सभी पक्षों को छूने में एक बृहद् ग्रंथ भी कम पड़ जाता । इस बौद्धिक प्रदेय के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन और आलेख प्रकाशन के लिए अरुण देव जी को साधुवाद ।
    यात्रा की सफलता के लिए आचार्य सदानंद शाही तथा उनके सह यात्रियों को अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएं ।

    आलेख के संदर्भ मानक पर कृपया पुनर्विचार कीजिए । संदर्भ संख्या 4 में जिस ढंग से वास्तविक प्रकाशन वर्ष और पुनर्मुद्रण वर्ष का स्पष्टीकरण आपने दिया है, वही मानक शेष कई संदर्भों के लिए उचित व तार्किक लगता है। उदाहरण के लिए संदर्भ संख्या 10 और 11 के लिए पुनर्मुद्रण वर्ष का उल्लेख तार्किक नहीं लगता । हमें ऐसे संदर्भों में हिंदी के अपने संदर्भीकरण मानक तय करने होंगे।

    Reply
  3. Naresh Goswami says:
    8 months ago

    सबसे पहले रमाशंकर जी को बधाई कि उन्होंने बुद्ध के महात्म्य का बखान करने के बजाय मुश्किल रास्ता चुना। असल में, इतिहास की विभूतियों पर लिखने का एक अंतर्निहित ख़तरा यह होता है कि लेखक के पास पहले से ही एक पकी-पकाई सामग्री रहती है। लेकिन, रमा जी ने उपलब्ध को छानने के बजाय अनुपलब्ध का संधान किया है। इसलिए यहां बुद्ध इतिहास की शेष हो चुकी विभूति के रूप में नहीं हमारे समय की ज़रूरत की तरह उपस्थित हैं। अगर यह अतिश्योक्ति लगे तो इसे किनारे करिये लेकिन यह तो स्पष्ट है कि लेखक ने एक तरह से बुद्ध का सामयिक पुनर्सृजन करने की कोशिश की है। मेरे ख़याल में इस लेख की यही बात स्तुत्य है।

    Reply
  4. महेश कुमार says:
    8 months ago

    पानी और यात्रा को केंद्र में रखकर बुद्ध के बहाने बुद्ध की परंपरा से प्रभावित भारतीय महापुरुषों के अवदान पर अच्छा लेख है यह। रमाशंकर सिंह सर शुक्रिया! समालोचन पर बहुत अच्छी सामग्री प्रकाशित हो रही है।

    Reply
  5. अरुण नारायण says:
    8 months ago

    लेखक ने बुद्ध के बहाने देश-काल और अलग-अलग दौर की परिस्थितियों का दिलचस्प आख्यान रचा है। लेकिन आलेख की अपनी सीमाएं भी हैं, जो गांधी पर उनके प्रभाव को कुछ ज्यादा ही अतिरंजित करके दिखाई गई है बावजूद इसके इस तरह के आलेख आने चाहिए ।
    लेखक और संपादक दोनों का आभार।

    Reply

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