राधावल्लभ त्रिपाठी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत |
1.
कामसूत्र का नाम नाम आते ही भारतीय जनमानस विचलित और सचेष्ट हो जाता है. उसके ज़ेहन में जो पहला शब्द आता है वह है- ‘सेक्स’. यह सोच कहाँ तक सही है?
बहुत अच्छा सवाल पूछा आपने और बिलकुल सही कहा आपने. आम भारतीय मानसिकता ‘काम’ शब्द आते ही सीधा सेक्स पर जाकर केंद्रित हो जाती है. उनके लिए काम शब्द का मतलब सिर्फ सेक्स है पर उनकी इस मानसिकता के पीछे मध्यवर्गीय कुण्ठित मानसिकता है. हमारे यहाँ मध्यकाल से आज कर सेक्स को लेकर जो वर्जनाओं के चक्रव्यूह रचे गये, उनके कारण इसके बारे में दमित कुण्ठाएँ पनपीं. वर्जना ओर दमन जितना ही इस विषय में किया जाता है, उतना यह भीतर ही भीतर हावी होता है. सेक्स को लेकर वैदिक काल से लगा कर मध्यकाल के पहले एक खुली बेबाक सोच थी. तब ये वर्जनाएं औऱ कुण्ठाएँ नहीं थीं.
प्राचीन काल में चाहे वह वैदिक युग हो या महाकवि कालिदास का युग उस समय काम पर खुली चर्चा होती थी. ऋग्वेद, अथर्ववेद की ऋचाओं से लेकर उस समय की कविताओं, नाटकों और शिल्प में ‘काम’ की मुखर अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं. साथ ही सेक्स को जीवन के बड़े परिप्रेक्ष्य में समझा जाता रहा है. कामसूत्र में वात्स्यायन कहते हैं कि यौन-क्रिया ‘काम’ का एक अंग भर है पर काम का अर्थ पूर्णतः सेक्स ही नहीं है.
वात्स्यायन काम को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि संसार को सुन्दर बनाने की मनुष्य की जो अभीप्सा है, जो इच्छाएं हैं वह काम है. हाँ, दैहिक संसर्ग भी काम का एक पक्ष है.
काम या सेक्स शब्द को उच्चरित करते समय जो आज एक पाखंडयुक्त शर्म लोगों में दिखाई देती है वह दरअसल मध्ययुग की देन है. यह शर्म ईसाईयत की भी देन है, उपनिवेशवाद की देन है. वहाँ एडम और ईव के पाप की अवधारणा है, सिन का कांसेप्ट है. हमारे समाज में पर्दा-प्रथा भी इसी तरह बाद में ज्यादा प्रचलन में आई.
हमारे यहाँ ‘काम’ पाप नहीं हुआ करता था. काम को लेकर कुंठाएं नहीं हुआ करती थीं. हमारा समाज काम को लेकर एक मुक्त समाज था जहाँ काम को लेकर बहस-मुबाहिसे होते थे, खुली चर्चाएँ होती थीं. युवाओं को काम-क्रिया की शिक्षा दी जाती थी. वेश्यावृत्ति वैध थी और वेश्याएं चौंसठ प्रकार की कलाओं में प्रवीण हुआ करती थीं और ये सभी कलाएं मिलकर काम कला कहलाती थीं. इसलिए काम का अर्थ सिर्फ दैहिक संसर्ग नहीं है.
काम में चौंसठ प्रकार की कलाएं सम्मिलित हैं लेकिन हमारे आज के युवक-युवतियों को इसकी जानकारी नहीं दी गई है, इसलिए वे काम का अर्थ सिर्फ दैहिक संसर्ग ही समझते हैं. इस अवधारणा में बदलाव लाने के लिए उन्हें सही शिक्षा देनी होगी.
2.
आप काम शब्द को कैसे व्याख्यायित करेंगे? वेद-पुराणों और कामसूत्र में काम की क्या व्याख्या है?
देखिए, हमारे प्राचीन भारत में काम का जो स्वरूप रहा है उसके पीछे एक पूरी परंपरा है, पूरा चिंतन है. ऋग्वेद के दसवें मंडल में सृष्टि विषयक सूक्त है जिसमें हमारे ऋषि-मुनियों ने अत्यंत साहस के साथ और दार्शनिक दृष्टि से काम को व्याख्यायित किया है. वेदों के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व जब चारों और अन्धकार था तो अन्धकार से उत्पन्न जो पहला तत्व था वह था– काम.
काम दरअसल अव्यक्त को व्यक्त करने की इच्छा है, सौंदर्य के रचने की इच्छा है.
हर मनुष्य के भीतर खुद को व्यक्त करने की इच्छा होती है, सौंदर्य को व्यक्त करने की इच्छा होती है और इस इच्छा का प्रकटीकरण ही काम है.
कामसूत्र का पहला ही सूत्र है- ‘धर्मार्थ कामोभ्योः नमः‘. इससे पता चलता है कि धर्म, अर्थ और काम सदा से सृष्टि में विद्यमान है, मोक्ष इसमें बाद में जुड़ा.
धर्म का अर्थ सृष्टि को धारण करने की इच्छा अर्थात सत्य, अहिंसा, अस्तेय जैसे गुणों का खुद में समावेश और दूसरों का भला करनी की इच्छा.
अर्थ अर्थात् धन नहीं, वैदिक काल में अर्थ का पर्याय होता था कि इस सृष्टि में जीवन को बेहतर बनाने के जितने भी साधन थे वह अर्थ के तहत आते थे, कालान्तर में अर्थ का पर्याय धन हो गया. इसीलिए उस समय का कौटिल्य का अर्थशास्त्र धन की नहीं, प्रशासन की बात करता है, कूटनीति की बात करता है, नगर-योजना की बात करता है.
काम की बात करें तो हमारे वेद-पुराणों और यहाँ तक कि कामसूत्र में भी काम का अर्थ सिर्फ दैहिक संसर्ग नहीं बल्कि जीवन को सुन्दर बनानेवाली, रचनेवाली इच्छा काम है.
कामसूत्र में काम को लेकर सात अधिकरण या अध्याय हैं. पहले अधिकरण में इस बात की चर्चा है कि एक अच्छे नागरिक की दिनचर्या कैसी हो, उसका शयनागार, बैठक या अतिथि कक्ष कैसा हो, विस्तारपूर्वक बताया गया है कि कक्ष में मसनद और गावतकिए वगैरह कैसे होंगे. यह भी बताया गया है कि सुरुचि संपन्न लोगों की दिनचर्या कैसी हो- पिकनिक, सैर-सपाटा, गोष्ठियां इत्यादि होती रहें.
यह सब भी काम के अंतर्गत आता है. एक अध्याय गणिकाओं पर है जिसमें गणिकाओं के लिए सहानुभूति पूर्ण व्यवहार का ज़िक्र भी आता है. उस अध्याय में यह बताया गया है कि लोग गणिकाओं को कैसे परेशान करते हैं और ठगते हैं और ऐसी स्थिति में वे इन पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करें. वैदिक काल से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक या यूँ कहें कि मध्यकाल तक वेश्यावृत्ति वैध थी और गणिकाओं का समाज में बहुत अच्छा और विशेष स्थान था.
हमारे तमिल साहित्य में शिलप्पदिकारम् एक महान् कालजयी कृति है. उसकी नायिका माधवी गणिका है. उस काल में वेश्यावृत्ति वैध थी और अपने चरम पर भी थी, विशेष रूप से समुद्री इलाकों में जहाँ विदेश से जहाज आते थे, विदेशी यात्री आते थे.
कामसूत्रकार कहते हैं कि गणिकाओं को चौंसठ कलाओं में निपुण होना चाहिए. इन कलाओं में सिर्फ काम कला या दैहिक संसर्ग नहीं आता बल्कि पुस्तकवाचन जैसी कला का भी उल्लेख है. चूंकि उस समय छापाखाना नहीं हुआ करता था तो पुस्तकवाचन एक कला थी. पुस्तक को किस प्रकार आवाज़ के उचित आरोह-अवरोह के साथ पढ़कर सुनाया जाए यह भी एक कला थी, जो आज के ज़माने में विलुप्त हो गई है.
आख्यान को कैसे प्रस्तुत करना है, उसमें से उपाख्यान कैसे निकलेगा. एक कला ‘कुसुमतण्डुलबलिविकाराः नाम से बताई गई है. अर्थात् फूलों से और चावल से अल्पना या रँगोली बनाना. चित्रकला, ललितकलाएं, काव्यकला, वेंत का सामान बनाना, तरह-तरह की कारीगरी के काम या हुनर–इन सब को कामकला का ही अंग माना गया.
मनुष्य की जितना सर्जनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं वे काम के भीतर आती हैं. वात्स्यायन ने तो यह तक कहा है कि न सिर्फ गणिकाओं को बल्कि किसी भले परिवार की महिलाओं को यह सारी कलाएं अवश्य सीखनी चाहिए ताकि गाढ़े वक़्त में वे इन कलाओं से पैसे कमाकर अपना जीवन यापन कर सकें.
कामसूत्र में एक पूरा खण्ड गृहिणी पर है. यह भी कामशास्त्र का ही विषय है कि एक कुशल गृहिणी को कैसा होना चाहिए. गृहस्वामिनी के समस्त गुणों के साथ यह भी बताया गया है कि उसे वाटिका (आजकल का किचन गार्डन) अवश्य लगाना चाहिए और रद्दी बेचकर हिसाब भी रखना चाहिए अर्थात् पूरा अकाउंटिंग उसे आनी भी चाहिए और खुद संभालना भी चाहिए.
एक खण्ड विवाह निर्णय पर है. इस में यह भी बताया गया है कि लड़की का विवाह कैसे किया जाता है. इसमें यह बताया गया है कि स्त्री एक कमोडिटी समझी जाती है. जब लड़के वाले उसे देखने आते हैं, उसे सजा सँवार कर उनके सामने प्रस्तुत किया जात है. जैसे आप अपना बेस्ट प्रोडक्ट उनके सामने पेश कर रहे हों. वात्स्यायन एक समाजशास्त्री के रूप में अपने समय के समाज में प्रचलित व्यवस्थाओं का विवरण दे रहे हैं. वे अनुशंसा नहीं कर रहे हैं कि स्त्री को खरीदफरोख़्त की एक वस्तु समझा जाये. इसी अध्याय में विवाह के बाद पति पर और चूंकि बहुपत्नी प्रथा थी तो पति की अन्य पत्नियों पर आधिपत्य के सम्बन्ध में भी विस्तार से लिखा गया है.
राजा की सबसे पहली रानी ज्येष्ठा रानी कहलाती थी सबसे छोटी रानी कनिष्ठा. यदि राजा की कोई रानी देखने में सुन्दर नहीं या किसी भी वजह से वह उपेक्षिता है तो उसका कुछ नहीं हो सकता. उसके लिए यही सही है कि वह ज्येष्ठा को प्रसन्न रखे और यदि उसे किसी अन्य पुरुष से प्रेम हो जाए तो वह उसके साथ भाग जाए.
आप देखिये कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व हमारा समाज समय से कितना आगे था कि जिस स्त्री स्वतंत्रता की बात आज हो रही है वह स्त्री स्वतंत्रता उस शताब्दी में हो चुका था, उस शताब्दी के ग्रन्थ इसका प्रमाण हैं.
ऋग्वेद और अथर्ववेद के विवाह सूक्त में बेटी को विदा करते समय लोग गाते थे कि तुम साम्राज्ञी की तरह राज करोगी ससुराल में. ध्यान से देखने पर हम पाते हैं कि कालिदास और उस समय के अन्य कई लेखक-कवि कामसूत्र से चीज़ें लेते हैं और उसमें अपनी बात जोड़ते हैं.
कामसूत्र के एक अध्याय में स्त्री-पुरुष संसर्ग का निस्संदेह बेझिझक चित्रण है. हमारे वेद-पुराणों, शास्त्रों और कामसूत्र में लेकिन काम सिर्फ दैहिक संसर्ग तक ही सीमित नहीं था, काम को व्यापक अर्थों में लिया गया. मैंने पहले ही आपको बताया है कि वात्स्यायन कामसूत्र की शुरुआत ही “धर्मार्थ कामोभ्योः नमः” से करते हैं. धर्म के अंतर्गत अर्थ आता था और अर्थ के अंतर्गत काम. इन तीनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध था. तीनों ही एक-दूसरे पर निर्भर थे. इंटरडिपेंडेंट थे तीनों. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वस्तुतः काम सृजन की इच्छा है, सौंदर्य की इच्छा है. काम जीवन में सम्भावनाओं की खोज है. धर्म और अर्थ काम के बिना अधूरा है. जीवन के पुरुषार्थों के बारे में हमारे विद्वानों की दृष्टि यही रही.
3.
उपनिषदों में कहा गया है कि ‘काममय एवायं पुरुष’ (बृहदारण्यकोपनिषद). पुरुष काममय है, उसकी प्रकृति काम ही है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं. मोक्ष तक जाने का रास्ता काम से होकर जाता है. इस सम्बन्ध में मेरे दो प्रश्न हैं-जिस संस्कृति में काम की केन्द्रीय उपस्थिति रही है उस सभ्यता में यह क्योंकर घटित हुआ कि उस काम को सार्वजनिक विमर्श से दूर कर दिया गया.दूसरा यह कि क्या काम में स्त्री केवल निमित्त मात्र है. उसके स्त्री-अर्थ में ‘काम’ कहीं है कि नहीं?
जैसा कि मैंने पहले बताया है कि काम को सार्वजनिक विमर्श से दूर करने में मध्ययुग की और उसके बाद उपनिवेशवाद की भूमिका रही. काम को लेकर होनेवाले विमर्श में जो दूरी आई है, जो शर्म और झिझक आई है वह भारतीय संस्कृति का मूलतः अंग नहीं थी. हमारे यहाँ ‘काम’ पाप नहीं हुआ करता था. काम को लेकर कुंठाएं नहीं हुआ करती थीं. हमारा समाज काम को लेकर एक मुक्त समाज था जहाँ काम को लेकर बहस-मुबाहिसे होते थे, खुली चर्चाएँ होती थीं. युवाओं को काम-क्रिया की शिक्षा दी जाती थी. वेश्यावृत्ति वैध थी और वेश्याएं चौंसठ प्रकार की कलाओं में प्रवीण हुआ करती थीं और ये सभी कलाएं मिलकर काम कला कहलाती थीं.
आपका दूसरा सवाल यह है कि क्या काम में स्त्री केवल निमित्त मात्र है इसपर मैं यह कहना चाहूंगा कि कामसूत्र पर काम करने वाले एक लेखक सुधीर कक्कड़ ने वात्स्यायन पर यह आरोप लगाया है कि उन्होंने स्त्री को एक विषय या ऑब्जेक्ट के रूप में देखा है और उसकी सब्जेक्टिविटी अर्थात विषयिता पर विचार नहीं किया है. हमारे उस समय के प्राचीन समाज में जहाँ काम को लेकर एक खुलापन था वहाँ भी स्त्रियों को उचित स्थान नहीं दिया गया है और इसकी वजह है पुरुषसत्तात्मक समाज.
हमारा समाज हमेशा से पुरुषसत्तात्मक समाज रहा है चाहे वह प्राचीन काल हो या आधुनिक या समकालीन काल. सुधीर कक्कड़ का यह आरोप एक हद तक सही भी है. हमारे वेद-पुराण के कई शास्त्रकारों ने स्त्री को एक क्षेत्र भर माना है जहाँ पुरुष अपना बीज बोता है. लेकिन वात्स्यायन ने कामसूत्र में जहाँ इस बात का उल्लेख किया है कि सेक्स या दैहिक संसर्ग की विविधता से पुरुष अपने जीवन को कैसे सुखमय बना सकता है वहीं उन्होंने स्त्री की आनंद प्राप्ति और यौनिकता पर भी सामान रूप से विचार किया है, हालांकि प्रधान दृष्टि पुरुष प्रधान ही है फिर भी वात्स्यायन स्त्रियों को भूले नहीं हैं.
स्त्रियों की बात करें तो जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया है कि उस समय के समाज में गणिकाओं का प्रमुख स्थान था. वे सिर्फ सेक्स-वर्कर या यौन सेविकाएं नहीं होती थीं, उनकी समाज में बहुत मजबूत स्थिति थी. वे मंत्रिमंडल में होती थीं. राजा उन्हें मंत्री का दर्ज़ा देते थे. गणिकाओं को राजकुमारों और राजकुमारियों को नृत्य-संगीत का प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया जाता था. उस समय के समाज में प्रोस्टीट्यूशन एक इंस्टीट्यूशन था अर्थात वेश्यावृत्ति अपने आप में एक पूर्ण संस्थान हुआ करती थी. वैदिक काल में स्त्रियों को दबाया गया लेकिन फिर भी कामसूत्र में स्त्री को केवल एक विषय नहीं विषयी के रूप में भी देखा गया.
4.
काम के कुछ पर्यायवाची बहुत अर्थगर्भित हैं जैसे- कंदर्प: जो किसी के दर्प को रहने नहीं देता. मदन: जो जीव को मद से मत्त कर दे. ओशो की चर्चित पुस्तक है- ‘संभोग से समाधि की ओर’ जिसमें उनकी मूल स्थापना ही है कि यह हमें अहंकार शून्यता की तरफ ले जाता है. ‘संभोग’ भी कितना अच्छा शब्द है, समान रूप से भोग, इस क्रिया में किसी भी लिंग- वर्चस्व को नकारता हुआ. स्त्री-पुरुष के स्वस्थ सम्बन्धों में इसकी भूमिका के विषय में आप क्या सोचते हैं ?
भारत में वैदिक काल से ही स्त्री-पुरुष संबंधों की एक स्वस्थ परंपरा रही है. वेदों में कामदेव को सृष्टि का मूल बताया गया है विशेष रूप से नासदीय सूक्त में. अथर्ववेद में भी काम को लेकर कई सूक्त हैं. काम को सृष्टि की रचना की ऊर्जा माना गया और इसी रूप में ऋषियों ने उसका स्तवन किया. पहले काम को एक निराकार ऊर्जा के रूप में पूजा गया. कालांतर में पुराणों में काम के साकार रूप की अवधारणा दिखाई देती है और उन्हें मकरकेतु, मदन, पंचबाण, पुष्पायुध जैसे नामों से पुकारा जाने लगा. शास्त्रों और पौराणिक आख्यानों में काम को स्त्री-पुरुष दोनों के मन में उठनेवाला और उनके चित्त को मदमत्त करनेवाल भाव बताया गया. यह भी बताया गया कि स्त्री-पुरुष जब प्रेम में होते हैं तो दोनों के मन में समान भाव उठते हैं, दोनों के शरीर में उत्तेजना का स्तर लगभग समान होता है और इस उत्तेजना को दबाने से कई तरह के विकार उत्पन्न होते हैं. दैहिक संसर्ग को सम्भोग का नाम वस्तुतः इसीलिए दिया गया क्योंकि प्रेम में जब स्त्री-पुरुष एक दूसरे के करीब आते है और उनके बीच दैहिक संसर्ग होता है तो स्त्री-पुरुष दोनों की सहभागिता उसमें समान रूप से होती है.
5.
विश्व में सबसे पहले भारत में ही काम-क्रिया का जो प्रेम ही है, ऐसा शास्त्र लिखा गया जिसमें चौंसठ आसन, सोलह हाव, बारह तरह के आलिंगन, तीस तरह के चुम्बन, आठ प्रकार के नखक्षत, आठ प्रकार के दंतदशन, आठ तरह के सीत्कार आदि के वर्णन हैं. वह कैसा समृद्ध और खुली संस्कृति होगी जिसमें इतने तरह के प्रयोग और उसकी स्वीकारोक्ति का अवकाश रहा होगा. उस समय के विषय में आप कुछ कहें.
निस्संदेह भारत में सिर्फ शास्त्र ही नहीं शिल्प और कलाओं में भी काम-क्रिया के उदात्त वर्णन हैं. आप वेद-पुराण, कामसूत्र से लेकर खजुराहो के मंदिरों को देख लीजिये. कामसूत्र जहाँ लिखित रूप से काम-क्रिया से सम्बंधित आसनों, चुम्बनों, नखक्षतों, दंतदशनों और सीत्कारों का वर्णन करता है खजुराहों में ये सारी काम-क्रियाएं पत्त्थरों पर उत्कीर्ण की गई हैं. इससे पता चलता है कि उस समय का हमारा समाज काम को सेलिब्रेट करने वाला, काम का उत्सव मनानेवाला एक उन्मुक्त और स्वच्छंद समाज था. उस समाज में काम को लेकर उन्मुक्तता और स्वच्छंदता तो थी लेकिन उच्छ्रंखलता नहीं थी आज हमारे समाज में काम को लेकर उन्मुक्तता तो है लेकिन उस उन्मुक्तता में उच्छ्रंखलता सम्मिलित है या यूँ कहें कि आज का काम उन्मुक्त और स्वच्छंद कम और उच्छ्रंखल ज़्यादा हो गया है.
6.
वात्स्यायन ने प्रेम के लिए देश और काल का विचार किया है और वसंत ऋतु को इसके लिए सर्वोत्तम माना है. परम्परा में इसीलिए वसंत में वसंतोत्सव मनाया जाता है जिसे मदनोत्सव भी कहते हैं. आज प्रेम दिवस है ऐसे में आप कामशास्त्र के हवाले से क्या कहना चाहेंगे.
निस्संदेह प्रेम और दैहिक संसर्ग के लिए वसंत ऋतु कोस सर्वोत्तम माना गया है. वसंत ऋतु का सम्बन्ध नाना प्रकार के पुष्पों से है. इस मौसम में आम की मंजरी, अशोक, नवमल्लिका मालती और कई प्रकार एक पुष्प खिलते हैं और इन सब की मादक खुशबू मिलकर पूरे वातावरण को मादक बना देती है. आम्र मंजरी की मादकता के तो क्या ही कहने. पर आजकल के शहरों में रहनेवाले युवा कहाँ महसूस कर पाते हैं वसंत को उस तरह जिस तरह से हमारी पीढ़ी करती थी. आज तो शहर आम्र- मंजरियों और मालती से नहीं अट्टालिकाओं और कंक्रीट से आच्छादित हैं.
खैर, तो मैं बता रहा था कि प्राचीन भारत में कामदेव के मंदिर हुआ करते थे और काम-पूजा की जाती थी और यह जीवन के सहज पक्ष को स्वीकार करने का एक साहस भरा काम था. कामसूत्र में एक खंड विवाह निर्णय का है जिसमें यह बताया गया है कि विवाह से पूर्व युवक और युवतियों दोनों को काम-क्रिया/कला की विधिवत शिक्षा दी जानी चाहिए. भारत में महीने भर चलेवाला मदनोत्सव मनाया जाता था और उसमें युवक और युवतियां कामदेव के मंदिर में जाकर कामदेव की पूजा करते थे.
आज के समय में पश्चिम से आयातित जो प्रेम सप्ताह, प्रेम दिवस या वैलेंटाइन्स डे लोग मना रहे हैं उसे हमें विदेशों से आयात करने की ज़रूरत नहीं. प्राचीन भारत में प्रेमोत्सव, वसंतोत्सव या मदनोत्सव की समृद्ध परंपरा रही है. इस परंपरा को स्वस्थ परिप्रेक्ष्य के साथ पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है. क्योंकि मेरा मानना यह है कि युवक-युवतियों को आपस में मिलने जुलने की पूरी छूट होना एक स्वस्थ समाज का लक्षण है.
वह किसी भी समाज या देश के स्वराज की भी पहचान है. प्राचीन काल में कामपूजा का उत्सव मदनोत्सव कहलाता था. अब उसकी जगह होली ने ले ली है. यह कैसा दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ प्रेम पर प्रतिबंध लगाया जाता है और एक रुग्ण मानसिकता वाले लोगों के द्वारा जो अपने को धर्म और नैतिकता का ठेकेदार समझते हैं प्रेम करने की सहज प्रवृत्ति को हिंसा से ज़रिये रोकने की घृणित कोशिश होती है. यह तो गुंडई है. हमारी सरकारें और पुलिसिये इन गुंडों का समर्थन करती हैं. आज धर्म के ठेकेदार राजनीति के ठेकेदार बने हुए हैं.
ये सब जानते हैं कि पाखंड से अनाचार फैलता है लेकिन कोई इस पाखंड को रोकना नहीं चाहता बल्कि ये सब और आग में घी डालते रहते हैं. कोई बाबा, कोई सत्ता स्थिति में परिवर्तन लाना नहीं चाहती. ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवी और विचारशील लोगों को आगे आकर हमारे युवाओं को हमारे यहाँ के मदनोत्सव की इस परंपरा के बारे में बताना होगा तभी चीज़ें बदल सकती हैं.
चलते-चलते एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि हमारे आपके कहने से बदलाव नहीं आएगा. संत महात्मा लोग या जिन लोगों के हाथों में सत्ता है, वे कहेंगे, तो बदलाव जल्दी आ सकता है, पर वे कैसे कह सकते हैं. वे तो यथास्थिति के पोषक हैं.
उनके आश्रम, मंदिर धर्म के नाम पर तरह-तरह के दुराचार चलाते रहें, राजनीति की दुरंगी चाल वाला खेल भी चलता रहे. तो ये लोग तो हमारी प्राचीन परंपरा और सच्चाई से युवा पीढ़ी को अवगत कराएंगे नहीं क्योंकि ये कराना ही नहीं चाहते.
ये सब यथास्थिति बनाये रखना चाहते हैं. यथास्थिति बनाये नहीं रखेंगे तो शासन कैसे करेंगे. इनका उद्देश्य युवाओं को मानसिक रूप से प्रबुद्ध होने से रोकना है और इसीलिए ये चाहते हैं कि हमारे युवा अपनी समृद्ध प्राचीन परम्पराओं और ज्ञान से दूर रहें, महरूम रहें ताकि ये युवाओं को अपने हिसाब से अनुकूलित कर सकें. फिर भी मैं मानता हूँ कि सत्य को समझने और कहने वालों के प्रयास व्यर्थ नहीं जाते, उनसे परिवर्तन की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं.
राधावल्लभ त्रिपाठी
जन्म : 15 फरवरी, 1949; मध्य प्रदेश के राजगढ़ ज़िले में शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी., डी.लिट्. सन् 1970 से विश्वविद्यालयों में अध्यापन शिल्पाकार्न विश्वविद्यालय, बैंकॉक; कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क में संस्कृत के अतिथि आचार्य. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में पाँच वर्ष कुलपति (2008-13). शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो जर्मनी, इंग्लैंड, जापान, नेपाल, भूटान, आस्ट्रिया, हालैंड, बांग्लादेश, रूस, थाइलैंड आदि देशों की यात्राएँ प्रकाशन : ‘आदिकवि वाल्मीकि’, ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा’, ‘संस्कृत काव्यशास्त्र और काव्य-परम्परा’, ‘नाट्यशास्त्र विश्वकोश’, ‘बहस में स्त्री’, ‘नया साहित्य : नया साहित्यशास्त्र’, ‘भारतीय काव्यशास्त्र की आचार्य-परम्परा’ आदि समीक्षात्मक पुस्तकों सहित हिन्दी में दो उपन्यास और तीन कहानी-संग्रह व अनेक नाटक प्रकाशित; संस्कृत में तीन मौलिक उपन्यास, दो कहानी-संग्रह, तीन पूर्णाकार नाटक तथा एक एकांकी-संग्रह प्रकाशित ‘सागरिका’, ‘नाट्यम्’ आदि पत्रिकाओं का सम्पादन पुरस्कार : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘शंकर पुरस्कार’, कनाडा का ‘रामकृष्ण संस्कृति सम्मान’, यू.जी.सी. का ‘वेदव्यास सम्मान’, महाराष्ट्र शासन का ‘जीवनव्रती संस्कृत सम्मान’ आदि |
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
अपेक्षित ,उपयोगी और सार्थक !
प्रेम की व्यापक अवधारणा के विस्तृत विवेचन ने इस साक्षात्कार को पठनीय, सराहनीय और संग्रहनीय बना दिया है।इन्हीं अवधारणाओं से प्रेरित होकर मैंने “प्रेम न बाड़ी ऊपजै” उपन्यास की रचना की थी।लंबे समय बाद प्रेम पर इतनी महत्वपूर्ण सामग्री देखने को मिली है।ऐसी विशिष्ट सामग्री की प्रस्तुति के लिए मेरा हार्दिक साधुवाद और शुभकामनाएं।
समयानुकूल और गुणवत्तापूर्ण आलेख। राधाबल्लभ जी का कामसूत्र का दो खण्डों में अनुवाद और उसकी भूमिका अद्भुत है। गाय-आलिंगन मार्का प्रेम प्रदर्शन के बरक्स यह आलेख प्रेम की उन्नत समझ देती है। साथ ही भारतीय संस्कृति और परंपरा में प्रेम के प्रति दुर्लभ दृष्टि से हमे परिचय प्राप्त होता है।
परम्परा में क्या जीवित है और क्या मृत इस पर सोचने की जरूरत है। राधावल्लभ जी ने जिस तरह आखिरी सवाल का जवाब दिया है वह महत्वपूर्ण है। ढोंग पाखंड और युवा समाज पर नकेल कसने वाला समाज अपनी ही परम्परा से वाकिफ नहीं है। मदनोत्सव जैसी जिस विलुप्त हो चुकी है।
सुंदर इंटरव्यू – शानदार जिज्ञासा और जानदार व्याख्या.
इस बातचीत को पढ़ते हुए “एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सेक्सुअल नॉलेज” ( सं : डॉ. नॉर्मन हायर ) का केंद्रीय भाव स्मरण हो आया — काम भावना और काम कृत्य किसी विकृत या दुष्ट दिमाग की उपज नहीं है, बल्कि यह एक सहज और स्वाभाविक, शारीरिक और मानसिक ज़रूरत है और हमें इस पर विचार-विमर्श करने में झिझकना नहीं चाहिए. ….
और इस बातचीत को पढ़ चुकने के बाद दो बातें मन में और कौंधने लगी कि पुरुषों के लिए परफ्यूम स्त्रियों को आकर्षित ( attract ) करने का जरिया हो सकता है पर स्त्रियां इसे पुरुष को लुभाने ( entice ) के लिए ही उपयोग में लाती हैं. दूसरा, बकौल अमरीकी महिला मनोवैज्ञानिक वारवी टेलर — किसी स्त्री द्वारा बच्चे पैदा करने का अर्थ यह नहीं की उसने सेक्स का आनंद भी लिया है.
बहुत सार्थक संवाद।
आप बधाई के पात्र हो, प्रेम की ऋतु में काम की अवधारणा के बारे में संस्कृत व संस्कृति के प्रकांड विद्वान श्री राधावल्लभ जी से बातचीत की।
अंतिम हिस्सा बहुत ज़्यादा ज्वलंत है। कथित बाबा लोग अनाचार किए जा रहे हैं। किंतु मदनोत्सव की परंपरा या काम के विशद अर्थ को समझाने की वे स्वीकृति नहीं देंगे। धर्म का हवाला देंगे। और धर्म के ठेकेदार हिंसा पर आमादा होंगे।